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Saturday, October 31, 2009

नहीं चाहिए हमें फिदा हुसैन!

भारत माता को नग्र दिखाने वाला, भगोड़ा चित्रकार मकबूल फिदा हुसैन, भारत वापसी के लिए अगर बेचैन है तो इसमें न समझने लायक कोई बात नहीं है। देवी-देवताओं सहित स्वयं भारत माता के अश्लील चित्र बना करोड़ों-अरबों में खेलने वाला इस विकृत मस्तिष्क वाले भगोड़े चित्रकार की भारत वापसी के लिए भारत सरकार रास्ता सुगम क्यों कर रही है? देश के लोग यह जानना चाहते हैं। आपत्तिजनक चित्रों के कारण अनेक मामलों में वांछित फिदा हुसैन चकमा देकर पिछले 4 वर्षों से विदेश में रह रहा है। भारत की अदालतें उसे भगोड़ा घोषित कर चुकी हैं। क्या यह आश्चर्यजनक नहीं कि उसे पकड़कर अदालतों में हाजिर करने की जगह कानून-व्यवस्था के हमारे संरक्षक उसे लालकालीन स्वागत के साथ वापस भारत लाना चाहते हैं? क्या यह अपने आपमें भारतीय न्याय प्रणाली को चुनौती नहीं है? क्या कर रही हैं हमारी एजेंसियां? फिदा हुसैन कहीं छुपकर नहीं रह रहा है। मीडिया में लगातार खबरें आती रहती हैं कि वह इंग्लैंड और संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) के देशों के बीच बेखौफ चक्कर काटता रहता है। भारतीय दूतावासों ने भी अपनी आंखें बंद कर रखी हैं। क्यों? भारतीय संस्कृति और हिंदू देवी-देवताओं का अपमान करने वाले इस शख्स के साथ नरमी बरतना दुखद है। जो शख्स भारत के घर-घर में पूज्यनीय सीता को भगवान हनुमान की पूंछ के साथ अश्लील हरकतें करते चित्र बनाए, सीता को नग्न रावण की जांघों पर बैठी दिखाए, देवी पार्वती को एक बैल के साथ रतिक्रिया में लिप्त दिखाए, मां दुर्गा को अपने शेर के साथ संयुक्त रूप से दिखाए, वह शख्स सामान्य हो ही नहीं सकता। कोई विकृत और पागल ही ऐसी कल्पना कर सकता है। भारतीय समाज इसे बर्दाश्त कैसे करे? फिदा हुसैन एक अच्छे चित्रकार हैं किन्तु अच्छी सोच के धारक नहीं। अश्लील चित्रों के लिए हिंदू देवी-देवताओं का पात्र के रूप में चयन क्या उनकी विकृत सोच को नहीं दर्शाता? ऐसा ही है। क्योंकि अपने ऐसे आपत्तिजनक चित्रों के लिए उन्होंने कभी भी मुस्लिम या अन्य धर्म के देवी-देवताओं का चयन नहीं किया। अगर वे विकृत अथवा असंतुलित मस्तिष्क के धारक नहीं हैं तब निश्चय ही वे घोर सांप्रदायिक हैं। अपने चित्रों के माध्यम से वे बहुसंख्यक हिंदू समाज की धार्मिक भावना को आहत करते हैं। दूसरे शब्दों में सांप्रदायिकता को भड़काने का काम कर रहे हैं। क्या यह कानूनन अपराध नहीं? यह एक संगीन अपराध है। फिर ऐसे व्यक्ति के लिए सरकारी स्तर पर उदार सोच क्यों? खबर है कि भारत सरकार उन्हें ससम्मान देश वापस लाना चाहती है। फिदा हुसैन इस पहल का भी मजाक उड़ाने से नहीं चूके। वे सरकार को अपनी सुरक्षा की चुनौती दे रहे हैं। भगवा खतरे का ताना-बाना बुन रहे हैं। हिमाकत तो यह कि अपनी तुलना गैलेलियो से लेकर पैब्लो निरुडा से करते हुए यह बता रहे हैं कि रचनात्मकता अनेक बार निर्वासित हुई है। भारतीय सुरक्षा तंत्र को चुनौती देते हुए वे पूछ रहे हैं कि जब प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और राजीव गांधी की रक्षा वे नहीं कर सके तो मेरी रक्षा वे कैसे करेंगे? ऐसे व्यक्ति को ससम्मान भारत लाने के प्रति सरकार इच्छुक क्यों है? कोई जरूरत नहीं। और जब खुद फिदा हुसैन यह कह रहे हैं कि 'मैं एक भारतीय हूं, मैं इन लोगों से स्वदेश वापसी की भीख क्यों मांगूं।' बेहतर तो यह हो कि सरकार उन्हें कह दे- 'फिदा हुसैन भारत को तुम्हारी जरूरत नहीं।'

Friday, October 30, 2009

अमेरिकी दिलचस्पी आपत्तिजनक

जिस बात की आशंका थी, वह सच होती नजर आ रही है। भारत के आंतरिक मामलों में अमेरिका की 'दिलचस्पी' अपशकुन सूचक है। भारत को सतर्क रहना होगा। अमेरिकी प्रशासन की धार्मिक स्वतंत्रता की ताजा रिपोर्ट पर केंद्र की संप्रग सरकार खुश न हो। रिपोर्ट में केंद्र सरकार की पीठ अमेरिका ने तो थपथपाई है किन्तु हमारे देश के कतिपय आंतरिक कानून, संशोधन और भारतीय नेता के भाषण पर चिंता जताकर उसने सीधे-सीधे हमारे मामले में दखल दी है। अंतर्राष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता पर अमेरिका की यह पहली रिपोर्ट है। अमेरिका की इस रिपोर्ट में धार्मिक स्वतंत्रता संबंधी केंद्र सरकार की नीति की प्रशंसा करते हुए चिंता व्यक्त की गई है कि कुछ राज्यों में केंद्र की इस नीति को स्थानीय स्तर पर कैसे लागू किया जाए। धर्मांतरण विरोधी कुछ राज्यों में बनाए गए कानूनों पर भी अमेरिका की इस रिपोर्ट में चिंता व्यक्त की गई है। चिंता यह भी व्यक्त की गई है कि धार्मिक रूप से अल्पसंख्यक समुदाय पर हमला करने वाले लोगों के खिलाफ कोई प्रभावी कार्रवाई नहीं की जाती। और तो और पिछले लोकसभा चुनावों के दौरान भारतीय जनता पार्टी के युवा नेता वरुण गांधी के कथित भड़काऊ भाषण का जिक्र भी है। यह घटना विकासक्रम अत्यंत ही खतरनाक है। हमारे आंतरिक मामलों में ऐसी दिलचस्पी दिखाने वाला अमेरिका होता कौन है? लगता है, उसने भारत को पाकिस्तान समझ लिया है। अमेरिका के सामने नतमस्तक पाकिस्तान की दयनीय अवस्था से सारा संसार परिचित है। वहां चाहे राष्ट्रपति की नियुक्ति का मामला हो या प्रधानमंत्री का, अमेरिकी सुझाव ही निर्णायक होता है। सेनाध्यक्ष की नियुक्ति में भी अमेरिकी पसंद को तरजीह दी जाती है। पिछले वर्षों में अमेरिका के साथ परमाणु ऊर्जा करार विवाद के समय से ही ऐसी आशंका व्यक्त की जाने लगी थी कि अंतत: भारत अमेरिकी इच्छा के आगे नतमस्तक हो जाएगा। पाकिस्तान की तरह भारत में भी अमेरिका आंतरिक मामलों में दखल देना शुरू कर देगा। ऐसे आरोप लगने शुरू हो गए हैं कि भारत की विदेश व आर्थिक नीतियां अमेरिका प्रभावित हैं। संसद के अंदर और बाहर विपक्ष ऐसे आरोप लगाता रहा है। सरकार की ओर से पुरजोर खंडन के बावजूद आम जनता आश्वस्त नहीं हो पा रही है। इस पाश्र्व में अमेरिकी प्रशासन की रिपोर्ट पर आपत्ति स्वाभाविक है। देश में भाजपा शासित राज्यों की स्थिति पर चिंता प्रकट करना और वरुण गांधी के कथित भड़काऊ भाषण का जिक्र अमेरिकी मंशा को चिह्नित करता है। भारत सरकार इसे साधारण घटना मान खारिज न करे। यह शुरुआत है। तत्काल आपत्ति दर्ज कर अमेरिका को चेतावनी दे दी जाए कि वह हमारे आंतरिक मामलों में दिलचस्पी लेना बंद कर दे। पिछले दिनों बलूचिस्तान, आतंकवाद और कश्मीर के मुद्दों पर अमेरिकी रुख संदिग्ध रहा है। एक तरफ तो वह पाकिस्तान को आतंकवादियों की शरणस्थली बताता है, दूसरे ही क्षण उसे आतंक पीडि़त निरूपित कर देता है। कश्मीर को पाकिस्तानी तर्ज पर परोक्ष में अमेरिका विवादित क्षेत्र बताने से नहीं चूकता। पाकिस्तान और चीन की तरह अमेरिका पर विश्वास नहीं किया जाना चाहिए। भारत पर पाकिस्तान और चीनी आक्रमण के समय अमेरिकी भूमिका भारत विरोधी ही रही है। आज अगर वह भारत के साथ मित्रता का हाथ बढ़ा रहा है तो यह उसका स्वांग मात्र है। ठीक उसी तरह का जैसे 1962 में आक्रमण के पूर्व चीन ने स्वांग रचा था। शांति और सहयोग के मार्ग पर हम चलें अवश्य किन्तु किसी अन्य देश को अपने आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप की इजाजत न दें। वरुण गांधी का आपत्तिजनक भाषण हो या धर्मांतरण विरोधी कानून, ये सब हमारे निजी मामले हैं। बेहतर हो अमेरिका इनसे दूर रहे।

Thursday, October 29, 2009

...अन्यथा रेलमंत्री ममता इस्तीफा दे दें!

अगर यह सच है, तो एक अत्यंत ही विस्फोटक कल का सूचक है। विश्वास तो नहीं होता किंतु जब धुआं उठ रहा है तो आग की मौजूदगी से इंकार तो नहीं किया जा सकता। क्या सचमुच पिछले मंगलवार को झारग्राम के निकट अगवा की गई राजधानी एक्सप्रेस की घटना में स्वयं रेलमंत्री ममता बनर्जी का हाथ था? मीडिया के एक वर्ग ने इशारे में परंतु माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने सीधे ऐसी संभावना व्यक्त की है। अकल्पनीय लगने वाले इस आरोप पर जनमत सर्वेक्षण करा लें, बहुमत की राय दिलचस्प होगी-''भारतीय राजनीति में सब कुछ संभव है!'' सचमुच, भारतीय राजनीति और इससे जुड़े राजनीतिक (जो राजनीतिज्ञ तो कतई नहीं हैं)अपना हित साधने के लिए कुछ भी कर सकते हैं। सत्ता में बने रहने के लिए एक निर्वाचित प्रधानमंत्री ने देश पर आपातकाल थोप तानाशाह बनने की कोशिश की तो जार्ज फर्नांडीज जैसा समाजवादी वडोदरा डायनामाइट कांड का अभियुक्त बने। विश्वनाथप्रताप सिंह जिस बोफोर्स कांड के मुद्दे को भुनाकर प्रधानमंत्री बने थे, सत्ता में आते ही उस मुद्दे को भूल गए। उन्होंने जनता के साथ विश्वासघात किया। एक अन्य समाजवादी प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने केंद्र में सत्ता परिवर्तन का कारण बने बोफोर्स कांड को यह कहकर महत्वहीन बना दिया था कि ''इसकी जांच तो कोई दरोगा भी कर सकता है।'' जयप्रकाश आंदोलन, आपातकाल और केंद्र में जनता पार्टी की सरकार की स्थापना के बाद पानी पी-पीकर इंदिरा गांधी को कोसने वाले चरणसिंह और उनके शिष्य राजनारायण इंदिरा गांधी की गोद में बेशर्मों की तरह बैठ गए। और तो और, जिस महात्मा गांधी के कदमों का अनुसरण कर जवाहरलाल नेहरू एंड कंपनी ने आजादी के बाद देश की सत्ता की बागडोर संभाली, उन्होंने गांधी के सुझाव को रद्दी की टोकरी में फेंकने में विलंब नहीं किया। आजादी प्राप्ति के बाद क्या गांधी ने यह सुझाव नहीं दिया था कि ''कांग्रेस पार्टी की भूमिका अब खत्म हो गई है, इसे भंग कर दें!'' इन सब बातों को दोहराने का लब्बोलुआब यह कि चाहे छोटा हो या बड़ा, राजनीतिक कुछ भी कर सकता है। 'फायर ब्रांड' के रूप में विख्यात तृण मूल कांग्रेस नेता व रेल मंत्री ममता बनर्जी फिर अपवाद कैसे हो सकती हैं? जब राजधानी एक्सप्रेस को अगवा किया गया तब ममता बनर्जी ने तत्काल घटना के पीछे सीपीएम कार्यकर्ताओं का हाथ होने की बात कह डाली थी। वे यह कहने से भी नहीं चूकीं कि उनकी छवि खराब करने के लिए माक्र्सवादी कार्यकर्ताओं ने घटना को अंजाम दिया है। लेकिन, जैसे ही इस बात की पुष्टि हुई कि राजधानी एक्सप्रेस को अगवा करने वाला संगठन और कोई नहीं उनकी सहयोगी पुलिस अत्याचार के खिलाफ जन कमेटी(पीसीपीए) है, उन्होंने पलटी मार दी। तत्काल ममता बनर्जी ने घोषणा कर दी कि वे अगवाकर्ताओं से बातचीत को तैयार हैं। यही नहीं, उन्होंने बातचीत के लिए स्थल के चुनाव की छूट भी अगवाकर्ताओं को दे दी। अगवाकर्ताओं ने अपने जिस नेता छत्रधर महतो की रिहाई की मांग की, उसके साथ ममता बनर्जी अनेक मंचों पर एक साथ देखी जा चुकी हैं। लालगढ़ में जब सुरक्षा बलों ने संयुक्त अभियान शुरू किया था, तब ममता बनर्जी ने अपने सहयोगी केंद्रीय राज्य मंत्री शिशिर अधिकारी को इस निर्देश के साथ लालगढ़ भेजा था कि सहायता सामग्री पीसीपीए को सौंप दी जाए। इन सब बातों को चुनौती नहीं दी जा सकती। छत्रधर महतो की रिहाई की मांग तृण मूल कांग्रेस द्वारा पहले की जा चुकी है। महतो तृण मूल कांग्रेस का पूर्व सदस्य है। आरोप यह भी लगे हैं कि तृण मूल कांग्रेस के मेत्री केंद्र पर दबाव डाल रहे हैं कि माओवादियों के खिलाफ कार्रवाई के लिए केंद्रीय सुरक्षा बल उपलब्ध न कराया जाए। ममता बनर्जी को यह बताना होगा कि लालगढ़ में सक्रिय विध्वंसकारी ताकतें राजधानी एक्सप्रेस को अगवा किए जाने की घटना में सक्रिय थी या नहीं? यह एक अत्यंत ही गंभीर आरोप है। चूंकि आरोप लगे हैं यह ममता बनर्जी की जिम्मेदारी है कि वे स्वयं को निर्दोष साबित करें। अन्यथा, रेलमंत्री पद से इस्तीफा दे दें।

Wednesday, October 28, 2009

फिर कटघरे में मीडिया!

पता नहीं क्यों बार-बार बिरादरी मीडिया के कुछ लोग शर्म-लाज का त्याग कर चौराहे पर नृत्य करने लगते हैं। वे यह भूल जाते हैं कि उनकी करतूत से बदनाम पूरी की पूरी मीडिया बिरादरी होती है। सनसनी- झूठी- पैदा कर सुर्खियां बटोरने वाले ऐसे मीडियाकर्मी पत्रकारीय मूल्यों के साथ दिन की रोशनी में सरेआम बलात्कार ही नहीं करते, उनकी हत्या भी कर देते हैं। मंगलवार को कुछ टीवी चैनलों पर खबर प्रसारित की गई कि भारतीय जनता पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत के सुझाव को 'एक पागल' का सुझाव बताया है। एक समाचार एजेंसी ने भी ऐसी खबर प्रसारित कर पूरे देश में हड़कंप मचा दिया। सभी चकित कि ऐसा कैसे संभव है कि भाजपा अध्यक्ष संघ प्रमुख को पागल करार दें। आश्चर्यजनक रूप से दिन भर चली ऐसी खबर की पुष्टि करने की जरूरत किसी ने नहीं समझी। कहीं ऐसा तो नहीं कि किसी व्यक्ति विशेष अथवा दल विशेष के इशारे पर एक षडय़ंत्र के तहत जानबूझकर ऐसी खबर प्रसारित की गई? संभवत: कुछ 'आकाओं' को खुश करने के लिए! ध्यान रहे, भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह आज (बुधवार) नागपुर पहुंचने वाले हैं। विधानसभा चुनाव में विजयी भाजपा उम्मीदवारों के अभिनंदन कार्यक्रम में वे शिरकत करेंगे। नागपुर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का मुख्यालय है। भाजपा का शीर्ष इन दिनों पार्टी में जारी अंतर्कलह से जूझ रहा है। राजनाथ सिंह का कार्यकाल दिसंबर माह में समाप्त हो रहा है। नए अध्यक्ष के चुनाव में भाजपा नेतृत्व संघ प्रमुख का हस्तक्षेप चाहता है। संघ प्रमुख मोहन भागवत ने शर्त रखी थी कि अगर पार्टी के सभी लोग उनकी बातों को मानने को तैयार होंगे तभी वे हस्तक्षेप करेंगे। और तब राजनाथ सिंह और लालकृष्ण आडवाणी दोनों ने भागवत की बात मानने का वचन दिया। यह तथ्य अपनी जगह विद्यमान है। शरारतपूर्ण झूठी खबरें जारी करने वाले मीडिया कर्मियों को, अगर वे सचमुच गंभीर राजनीतिक समीक्षक हैं, इस सचाई की जानकारी तो होनी ही चाहिए। जब वो संघ व भाजपा से संबंधित खबरें बना रहे थे, तब उन्हें 'होमवर्क' कर लेना चाहिए था। विश्वसनीयता के संकट से गुजर रहे भारतीय मीडिया को कृपया पूर्वाग्रही पत्रकार लांक्षित न करें। बात भाजपा या संघ की नहीं है। पूरी की पूरी पत्रकार बिरादरी की विश्वसनीयता, मान-सम्मान की है। कोई बाहरी तो इसकी रक्षा करेगा नहीं? फिर खुद को नंगा करने की ऐसी कवायद क्यों? प्रसंगवश, 1992 की एक घटना का उल्लेख करना चाहुंगा। राजधानी दिल्ली के एक बड़े अंग्रेजी अखबार ने एक केंद्रीय मंत्री के 'पुत्र' के कारनामों की एक सनसनीखेज खबर छापी थी। बेचारे मंत्री अवाक! क्योंकि मंत्री महोदय अविवाहित थे। उनका कोई पुत्र ही नहीं था। तब उस घटना को लोगों ने अखबारी टुच्चापन निरूपित किया था। हम तब भी शर्मिंदा हुए थे, आज भी शर्मिंदा हो रहे हैं। क्या शर्मिंदगी की इस निरंतरता पर कभी पूर्ण विराम लग पाएगा?

Tuesday, October 27, 2009

थैलीशाहों की थैलियों में कैद राजनीति?

तो क्या अब भारतीय राजनीति थैलीशाहों की बंदी बन कर रह जाएगी? संकेत- पुख्ता संकेत मिल रहे हैं इस संभावित अनिष्ट के। हाल ही में संपन्न महाराष्ट्र, हरियाणा और अरुणाचल प्रदेश विधानसभाओं के चुनावों में 284 करोड़पतियों की मौजूदगी इस आशंका की चुगली कर रही है। 288 सदस्यों वाली महाराष्ट्र विधानसभा में 184, 90 सदस्यों वाली हरियाणा विधानसभा में 65 और 60 सदस्यों वाली अरुणाचल विधानसभा में 35 करोड़पति चुन कर आए हैं। अर्थात इन सभाओं में आधे से अधिक सदस्य करोड़पति हैं। कैसे? क्या भारतीय समाज गरीबी की सीमा पार कर इतना अमीर हो गया है कि चारों ओर करोड़पति ही करोड़पति विद्यमान हैं? बिल्कुल नहीं। यह गलत है। भारत की बहुसंख्यक आबादी अभी भी गरीब है। कुछ तो इतने गरीब कि दो समय की रोटी का भी जुगाड़ नहीं कर पाते। हां, यह गरीब और गरीबी ही है जिनके उत्थान या विकास का लोकलुभावन नारा देकर राजनेता वोट जमा कर संसद और विधान भवनों में पहुंचते हैं। इस बिंदु पर मेरा भय कुछ और है। जिस संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली के नाम पर ये सब हो रहा है, उसमें से 'लोक' का गायब होना खतरनाक है। अगर यह स्थिति-प्रक्रिया जारी रही तब लोकतंत्र के भविष्य को लेकर अच्छा हो, हम अभी विलाप कर लें। दिखावे के लिए तब ये राजदल और राजनेता लोकतंत्र का झंडा फहराते अवश्य नजर आएंगे किन्तु व्यवहार के स्तर पर हर कोण से लोकतंत्र नदारद रहेगा। क्या देश इसके लिए तैयार है? आश्चर्य है कि लोकतंत्र की समाप्ति की दिशा में बढ़ते इस कदम की मौजूदगी के बावजूद सभी मौन हैं। विधायिका में पूंजीपतियों की संख्या के अनुपात में प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि हुई होती तो बात दूसरी होती लेकिन यहां वृद्धि हो रही है तो सिर्फ नेताओं की आय में। कैसे? कौन सा उद्योग धंधा चला रहे हैं ये? यह शोध का एक स्वतंत्र विषय है। इस प्रवृत्ति में वृद्धि एक दिन गरीबों के लिए राजनीति का दरवाजा बंद कर देगी। देश से गरीबी को समूल नष्ट कर दिए जाने के संकल्प के साथ आजाद भारत के कर्णधारों ने पूंजीवाद के मुकाबले समाजवाद की नीति अपनाई थी। कहां गया वह समाजवाद? एक तर्क दिया जाता है कि परिवर्तन की दौड़ में समाजवाद पीछे छूट गया है। लेकिन विश्व की दूसरी सबसे बड़ी और 100 करोड़ से अधिक आबादी वाले भारतीय समाज के लिए समाजवाद अप्रासंगिक नहीं हो सकता। पूंजीवाद को कभी स्थाई जमीन नहीं मिल सकती। यह हमारे समाज के लिए जरूरी है ही नहीं। गरीबी, अशिक्षा, चिकित्सकीय अभाव, विद्युत, पेयजल और आवास आदि के संकट से बेजार भारतीय समाज का नेतृत्व पूंजीवाद पोषक हाथों में कैसे सौंपा जा सकता है? 100 पूंजीपति घरानों की तिजोरियों में देश के भाग्य को कैद कर देने की इजाजत देने को हम तैयार नहीं हैं। पूंजीवाद के घोर विरोधी आधुनिक भारत के निर्माता महात्मा गांधी और पंडित जवाहरलाल नेहरू की आत्माएं आज सिसक रही होंगी। ऐसे भारत की कल्पना उन्होंने नहीं की होगी। बेचारा गरीब अगर अंगार की तरह अपने सीने पर अमीरों के हाथों रोटी सेंकता देखने को मजबूर रहेगा तो निश्चय जानिए यह अंगार समय आने पर दावानल में भी बदल सकता है। उसे हवा के सिर्फ एक झोंके की जरूरत है।

Monday, October 26, 2009

राहुल गांधी की उम्मीदवारी के मायने !

अगर राहुल गांधी प्रधानमंत्री पद के योग्य हैं, दावेदार हैं तब नईदिल्ली स्थित कांग्रेस मुख्यालय में कार्यरत चपरासी-क्लर्क दावेदार क्यों नहीं हो सकते? यह टिप्पणी अथवा प्रतिक्रिया मेरी नहीं, बल्कि वैसे अनेक कांग्रेसी कार्यकर्ताओं की है, जो कांग्रेस की सेवा करते-करते अपने बाल सफेद कर चुके हैं। इन लोगों के अनुसार, राहुल से कहीं ज्यादा राजनीतिक रूप से परिपक्व-सुपात्र कांग्रेस में मौजूद हैं। फिर उनकी उपेक्षा क्यों? सवाल माकूल तो है किंतु कांग्रेस में जिंदगी बिताने के बावजूद कांग्रेस संस्कृति से बेखबर होने के अपराधी हैं ये लोग या फिर जान-बूझकर अंजान बन रहे हैं। यह ठीक है कि कांग्रेस संगठन में अनेक ऐसे सुपात्र मौजूद हैं जो प्रधानमंत्री पद की गरिमा रखते हुए प्रभावी ढंग से देश के शासन को चला सकते हैं किंतु वे किसी नेहरू या गांधी के पुत्र या पोते नहीं हैं। कांग्रेस के एक महासचिव दिग्विजयसिंह ने घोषणा कर दी है कि राहुल गांधी राष्ट्रीय नेता हैं और प्रधानमंत्री पद के दावेदार हैं। दिग्विजय सिंह मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री रह चुके हैं, कांग्रेस के वरिष्ठतम नेताओं में एक हैं और उनके संबंध में यह सच भी मौजूद है कि कभी प्रधानमंत्री पद का कीड़ा उनके मस्तिष्क में भी कुलबुला चुका है। उनकी महत्वाकांक्षा एक जमाने में अनेक रूपों में छन-छनकर आलोकित होती रही है, लेकिन समकालीन राजेश पायलट और माधवराव सिंधिया की असामयिक मौतों के बाद दिग्विजय ने किन्हीं कारणों से अपनी इच्छा पर पत्थर रख लिया। अन्य सफल कांग्रेसियों की तरह तब उन्होंने भी नेहरू-गांधी परिवार का दामन थाम लिया। अपने रुतबे को कायम रखने के लिए नेहरू-गांधी परिवार का स्तुति-गान इनकी मजबूरी बन चुकी है। खेद है कि इस प्रक्रिया में दिग्विजय सिंह लोकतांत्रिक भावना अथवा जरूरत को भूल गए और अपने ही उगले शब्दों को निगलने लगे। जब-जब प्रधानमंत्री पद के लिए डॉ. मनमोहन सिंह के विकल्प की बातें उठीं, तब इन्हीं दिग्विजय ने लोगों के मुंह यह कहकर बंद कर दिए कि 'अभी प्रधानमंत्री का पद रिक्त नहीं है' तो क्या अब प्रधानमंत्री पद खाली है जो उन्होंने राहुल गांधी को प्रधानमंत्री का उम्मीदवार घोषित कर डाला। दिग्विजयसिंह ने निश्चय ही, अंजाने में ही सही, कांग्रेस के 'किचन' में पक रही खिचड़ी से ढक्कन उठा लिया है। दिग्विजय की बातें सही साबित होने वाली हैं। शायद मनमोहन सिंह अपना कार्यकाल पूरा न कर पाएं या कर भी लेते हैं तब प्रधानमंत्री के रूप में तीसरी बार तो शपथ नहीं ही ले पाएंगे। रही बात पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र की तो कांग्रेस का नेतृत्व इससे पहले ही तौबा कर चुका है। आजादी पूर्व चाहे मामला सुभाषचंद्र बोस के कांग्रेस अध्यक्ष पद पर चुनाव का हो या पुरुषोत्तम दास टंडन का। दोनों निर्वाचित अध्यक्षों को पार्टी के कद्दावर नेतृत्व की इच्छा के आगे झुकते हुए इस्तीफा देने को मजबूर होना पड़ा था। आजादी के पश्चात कांग्रेस के एक निर्वाचित अध्यक्ष सीताराम केसरी को पार्टी मुख्यालय के बाथरूम में बंद कर निकाले जाने की घटना अभी ताजा है। और तो और इतिहास गवाह है कि आजादी के बाद स्वयं पंडित जवाहरलाल नेहरू का प्रधानमंत्री पद के लिए चयन प्रक्रिया से लोकतंत्र गायब था। यही कांग्रेस की स्थापित संस्कृति है। ऐसे में कांग्रेस को लोकतंत्र की सीख देने की पीड़ा कोई ले भी तो क्यों?

Sunday, October 25, 2009

मानसिक संतुलन तो नहीं खो बैठे हैं बाल ठाकरे!

यह तो हद हो गई। निश्चय ही शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे पगला गए हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो मराठियों को गालियां नहीं देते। यह नहीं कहते कि मराठी माणुस ने उनकी पीठ पर खंजर घोंप दिया है। कथित रूप से 'आहत' ठाकरे अब महाराष्ट्र से भागना चाहते हैं। कहते हैं कि ऐसे महाराष्ट्र में वह अब रहना नहीं चाहते। घोर धार्मिक ठाकरे भगवान को कोसने से भी बाज नहीं आए। पूछ रहे हैं कि हमने ऐसी क्या गलती की जो मराठियों ने हमारी पीठ में छुरा घोंप दिया। जिंदगी से भी अब तौबा करने की बात करने वाले बाल ठाकरे को क्या यह बताने की जरूरत है कि उन्होंने जो बोया था, उसी की फसल अब उन्हें काटने को कहा जा रहा है। जब अपने कर्मों का फल भोगने की बारी आई तब मराठियों को कोसने लगे। यह मराठी और महाराष्ट्र के साथ अन्याय है। शेर की खाल ओढ़ लेने से कोई शेर नहीं बन जाता। उसकी दहाड़ का स्थायी असर तो कभी होता नहीं और फिर बाल ठाकरे तो सिर्फ 'कागजी' शेर ही रहे हैं। मुंबई में बैठकर दहाड़ते थक चुके ठाकरे जनता, मराठी माणुस और भगवान से विश्वास उठ जाने का विलाप कर भावनात्मक शोषण की कोशिश न करें। इस कठोर सच को जान लें कि उनके विलाप में साथ देने वाला कोई नहीं, सहानुभूति वाले हाथ भी उनसे कोसों दूर रहेंगे। मराठी माणुस ने अगर उनकी पार्टी को चुनाव में धता बता दिया तो फिर इस पर आश्चर्य क्यों? 44 वर्षों तक किस मराठी माणुस के लिए उन्होंने संघर्ष किया? सच तो यह है कि ठाकरे मराठियों के मन में नफरत और द्वेष का जहर घोल उन्हें शेष समाज से अलग-थलग करने की कोशिश करते रहे। क्षेत्रीयता का उन्होंने ऐसा पाठ पढ़ाने की कोशिश की जिस कारण उनके शेष भारत से अलग-थलग होने का खतरा पैदा हो गया। वह ऐतिहासिक महानगर मुंबई जो एक 'गरीब नवाज' के रूप में पूरे देश के जरूरतमंदों के पालक की भूमिका निभाता रहा, उसे घोर संकुचित क्षेत्रीय मानसिकता का पोषक बनाने की कोशिश ही तो ठाकरे व उनका परिवार करता रहा। हिंसा और घृणा का सहारा लेकर उन लोगों को प्रताडि़त किया गया जिन्हें मुंबई व महाराष्ट्र के अन्य क्षेत्रों ने आश्रय दे रखा है। और यह सब घृणास्पद कदम उठाए ठाकरे ने मराठी माणुस के नाम पर ही तो। अपने सीने पर घृणा-विद्वेष का ऐसा काला तमगा मराठी माणुष क्यों लगाए? उसने स्वयं को समाज व देश से अलग-थलग रखने की जगह बाल ठाकरे को ही अलग-थलग कर दिया। मराठी माणुस ने अंतत: यह साबित कर दिया कि वे क्षेत्रीयता अथवा भाषावाद के पक्षधर नहीं हैं। वह सिर्फ मराठी ही नहीं सर्वसमाज का पक्षधर है। उसने यह भी साबित कर दिया कि महाराष्ट्र व उसकी राजधानी मुंबई किसी की बपौती नहीं, उस पर पूरे देश का अधिकार है। वैसे अगर ठाकरे ने महाराष्ट्र छोडऩे का मन बना लिया है तो बेहतर होगा कि वे तुरंत मुंबई (महाराष्ट्र) छोड़ दें। कम से कम मुंबई शांत तो रहेगी, विकास के क्षेत्र में शांतिपूर्वक नए-नए आयात में खुल पाएगा, भाषा और क्षेत्रीयता के काले धब्बे को अपने माथे से मिटाने में सफल तो हो पाएगा! पूरे संसार में उसकी कभी दमकती आभा वापस मिल जाएगी। बाल ठाकरे का मुंबई छोड़ कर भागना इसलिए भी जरूरी है कि वे तब शेष भारत को पहचान पाएंगे। इस बात का एहसास कर पाएंगे कि भारत देश एक है। वे आश्वस्त रहें, देश का कोई भी हिस्सा उन्हें मराठी समझ दुत्कारेगा नहीं। पलक-पावड़े बिछा उनका स्वागत करेगा, सम्मान देगा। यही तो भारतीय संस्कृति है।

Saturday, October 24, 2009

कांग्रेस की जीत, विपक्ष का बिखराव!

क्या सचमुच जनता ने महाराष्ट्र को नरक में ढकेल दिया है? किसी प्रदेश की जनता स्वयं को नर्क की आग में क्यों झोंकेगी? शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे के ऐसे आरोप को स्वीकार नहीं किया जा सकता है। कांग्रेस-राकांपा आघाड़ी के हाथों लगातार तीसरी बार हार से हताश बाल ठाकरे ऐसे बचकानेपन पर न उतरें। अपनी विफलता पर गंभीर चिंतन करें। कारण स्वत: सामने आ जाएगा। भीषण महंगाई, असहनीय बिजली कटौती, किसान आत्महत्या और निरंतर आतंकवादी हमलों के बावजूद अगर जनता ने कांग्रेस-राकांपा आघाड़ी को ही पसंद किया तब दोषी जनता नहीं बल्कि वह विपक्ष है जो स्वयं को बेहतर विकल्प के रूप में नहीं पेश कर पाया। समीक्षकों के इस आश्चर्य के साथ मैं भी हूं कि शासन के मोर्चे पर अपेक्षा के विपरीत खराब प्रदर्शन के बावजूद जनता ने ऐसा फैसला कैसे लिया? इस पर चिंतन हो, बहस हो। जनादेश आया है तो उसे मानना ही पड़ेगा। हां, जनादेश की जड़ में जाकर उन कारणों को ढूंढऩा पड़ेगा जिसने जनमत प्रभावित किया। अगर सिर्फ विपक्ष की निष्क्रियता और विफलता ने ताजा जनादेश को प्रभावित किया है तब लोकतंत्र का तकाजा है कि इसकी मजबूती के लिए विपक्ष मजबूत हो। ध्यान रहे, पिछले चुनाव के मुकाबले इस चुनाव में कांग्रेस-राकांपा को 2 प्रतिशत कम मत प्राप्त हुए हैं। लेकिन राज ठाकरे की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना की मौजूदगी ने कांग्रेस को लाभ पहुंचा दिया। संसदीय लोकतंत्र में ऐसा पहले भी हुआ है और आगे भी होगा। जनहित में समाधानकारक उपाए ढूंढने होंगे। किसी को कोसने से समाधान नहीं मिलेंगे।
महाराष्ट्र के साथ हरियाणा के चुनाव परिणाम ने भी संसदीय लोकतंत्र और दलों में आंतरिक लोकतंत्र का मुद्दा भी खड़ा कर दिया है। चुनाव पूर्व अनुमान लगाए गए थे कि हरियाणा में कांग्रेस अपने 'सुशासनÓ के बल पर लगभग 80 सीटों पर कब्जा कर लेगी। उन्हें मिले सिर्फ 40 सीट। साधारण बहुमत से छह सीट कम। कांग्रेस नेतृत्व के लिए हरियाणा चुनाव परिणाम एक सबक है। सन् 2005 में कांग्रेस ने राज्य के कद्दावर नेता भजनलाल के नेतृत्व में चुनाव लड़ा। कांग्रेस 90 में से 67 सीटों पर विजयी हुई। जीत का श्रेय भजनलाल को गया। लोकतंत्र का तकाजा था कि निर्वाचित विधायकों की राय को सम्मान देते हुए भजनलाल को मुख्यमंत्री बनाया जाता लेकिन आंतरिक लोकतंत्र से कोसों दूर कांग्रेस नेतृत्व ने भूपेंद्र सिंह हुड्डा के रूप में अपनी पसंद थोप दी। परिणाम सामने है। 67 की जगह मात्र 40 सीटों पर ही पार्टी विजय पा सकी। छोटा होने के बावजूद दिल्ली से सटे हरियाणा प्रदेश का अपना महत्व है। सच तो यह है कि अगर भारतीय जनता पार्टी और अमप्रकाश चौटाला की इंडियन नेशनल लोकदल ने मिलकर चुनाव लड़ा होता तो शायद कांग्रेस विपक्ष में बैठने को मजबूर हो जाती। यह तो पता नहीं कि 2005 के निर्णय पर कांग्रेस नेतृत्व को पछतावा है या नहीं, बगैर किसी खतरे के यह टिप्पणी की जा सकती है कि अगर इस बार भी निर्वाचित विधायकों की इच्छा को सम्मान नहीं दिया गया तब प्रदेश में कांग्रेस के भविष्य पर सवालिया निशान लगे रहेंगे। कांग्रेस नेतृत्व इस तथ्य को विस्मृत न करे कि महाराष्ट्र और हरियाणा की जीत का कारण उसकी शक्ति या लोकप्रियता नहीं बल्कि विपक्ष का बिखराव रहा है।

जनतंत्र को 'मवालीतंत्र' की चुनौती !

महाराष्ट्र के निवर्तमान मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण कहते हैं कि राज (ठाकरे) की चिंता चाचा बाल ठाकरे करें। गलत! बिल्कुल गलत !! मुंबई में राज निर्मित 'मवाली तंत्र' के बढ़ते प्रभाव पर चिंता भारत के लोकतंत्र को करनी होगी। बाल ठाकरे की कथित चिंता का कारण तो देश की चिंता से पृथक है। संजय गांधी के 'प्रभाव काल' में बातें 'भीड़तंत्र' की हुआ करती थीं। क्या यह बताने की जरूरत है कि संजय के उस तंत्र ने ही लोकतांत्रिक भारत को गैर लोकतांत्रिक आपातकाल के अधीन कर लोगों को उनके संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकारों से वंचित कर दिया था और अब भारतीय राजनीति के सबसे बड़े मवाली माने जानेवाले राज ठाकरे अपने 'तंत्र' का इस्तेमाल लोकतंत्र के पक्ष में तो नहीं ही करेंगे। फिर देश की आर्थिक राजधानी मुंबई ने उन्हें अपने सिर पर कैसे बैठा लिया? यह सिर्फ आश्चर्यजनक ही नहीं एक खतरनाक दर्द है- एक ऐसी पीड़ा है जिसका इलाज शल्यक्रिया से ही संभव है। विधानसभा चुनाव में राज ठाकरे की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना को प्राप्त सीटें और कुल मतों ने मुंबई, ठाणे और नासिक में पूरे के पूरे समीकरण बिगाड़ डाले। आरोप तो पहले से ही थे कि राज ठाकरे को कांगे्रस का आशीर्वाद प्राप्त है। शिवसेना की शक्ति को क्षीण करने के लिए कांग्रेस शुरू से ही राज ठाकरे की मदद करती रही है। पिछले लोकसभा चुनाव में राज की सेना के कारण ही मुंबई में कांग्रेस को आशातीत सफलता प्राप्त हुई थी। इस बार विधानसभा चुनाव में भी ऐसा ही हुआ। कांग्रेस के रणनीतिकार आरंभ से ही अपने विरोधी दलों को कमजोर करने के लिए किसी न किसी 'राज ठाकरे' को पैदा करते रहे हैं। कभी पंजाब में अकाली दल के वर्चस्व को समाप्त करने के लिए स्वयं तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने संत भिंडरावाले की पीठ थपथपा उन्हें आगे बढ़ाया था। यह दीगर है कि अंत में भिंडरावाले भस्मासुर साबित हुआ। इंदिरा गांधी की हत्या का कारण भिंडरावाले ही बना था। वह भारतीय इतिहास का एक काला अध्याय था। एक ताजा उदाहरण झारखंड के बाबूलाल मरांडी का भी है। झारखंड राज्य के उदय के बाद मरांडी राज्य के भाजपा मुख्यमंत्री बने थे। भाजपा के अंतर्कलह के कारण जब मरांडी को अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा तब कांग्रेस ने उनके सिर पर हाथ रख दिया। आज मरांडी झारखंड में वही सब कुछ कर रहे हैं जो राज ठाकरे मुंबई में कर रहे हैं।
अर्थात झारखंड में भाजपा के मुकाबले कांग्रेस के लिए जीत का रास्ता तैयार करने में लगे हैं। कांग्रेस की इस कूटनीति का मुकाबला कोई करे भी तो कैसे? ठीक है कि जहर ही जहर को काटता है किन्तु इस मामले में मवाली हरकतों का जवाब 'मवालीपन' से कैसे दिया जाए? चाहे कांग्रेस या कोई अन्य जितनी भी सफाई दे ले, इंकार कर ले, यह सत्य अपनी जगह कायम रहेगा कि राज ठाकरे का 'मवालीतंत्र' अंतत: अराजकता का पोषक बनेगा- कांग्रेस के लिए भस्मासुर साबित होगा। यह लोकतंत्र है। चुनाव में विजयी कांग्रेस-राकांपा गठबंधन महाराष्ट्र में सरकार बना लेगी। वे जश्न मनाएं, किसी को आपत्ति नहीं होगी। लेकिन जिस लोकतांत्रिक प्रणाली में वे सत्ता सिंहासन पर पुन: पहुंचे हैं, उस प्रणाली की पवित्रता को कायम रखने की अधिक जिम्मेदारी भी उन पर है। लेकिन लोगबाग इस पर आश्वस्त नहीं हो रहे हैं। कारण राज ठाकरे हैं। यह ठीक है कि राज ने शिवसेना की हवा निकाल दी है, भाजपा को चोट पहुंचाई है। कांग्रेस को सत्ता सिंहासन पर पहुंचाने में मदद की। किन्तु ठीक यह भी है कि आने वाले दिनों में मुंबई स्थानीय और बाहरी के बीच एक ऐसे हिंसक द्वंद्व से रूबरू होगा जो महाराष्ट्र के गौरवशाली मस्तिष्क को झुका डालेगा। विश्लेषक राज ठाकरे को भारतीय राजनीति का सबसे बड़ा मवाली यूं ही निरूपित नहीं करते हैं। कभी अपने चाचा बाल ठाकरे के चरणों में बैठकर कथित बाहरी लोगों के खिलाफ घृणा व द्वेष का पाठ पढऩे वाले राज ठाकरे बिल्कुल टपोरी की तरह कथित बाहरियों को निशाने पर लेकर मुदित होते हैं। विश्लेषक ऐसी टिप्पणी करने से भी नहीं चूके हैं कि वस्तुत: बूढ़े मवाली की जगह जवान टपोरी ने ले ली है। इशारा साफ है। बाल ठाकरे ने जो बोया था, आज मुंबई उस फसल को काटने के लिए मजबूर है। लेकिन राज ठाकरे यह न भूलें कि अपनी राजनीतिक जमीन तैयार करने के लिए उन्होंने जो रास्ता अख्तियार किया है वह समुद्र में जाकर विलीन होता है। अगर वे चुनाव में अपने अच्छे प्रदर्शन को जनसमर्थन मानते हैं तब बेहतर हो वे मुंबई व महाराष्ट्र के हक में राजनीति की सकारात्मक भूमिका अपनाएं। मवाली या टपोरी का लबादा उतार फेकें। पूरे देश की शान-आन-बान मुंबई को उसके सर्वप्रिय मुकुट से वंचित न करें। क्या राज ठाकरे इसके लिए तैयार हैं?

भुजबल के सपने का निहितार्थ !

महाराष्ट्र में राष्ट्रवादी कांग्रेस के कद्दावर नेता और उपमुख्यमंत्री छगन भुजबल की बातों को 'मुंगेरीलाल का हसीन सपना' समझने की भूल कोई ना करे। वे जब जम्मू-कश्मीर की तर्ज पर मुख्यमंत्री पद कांग्रेस के साथ ढाई-ढाई साल बांटने की बात कर रहे हैं तब निश्चय जानिये कि यह सिर्फ भुजबल की अपनी सोच नहीं है। फिर राकांपा के दूसरे कद्दावर नेता केंद्रीय मंत्री प्रफुल्ल पटेल ने भुजबल की बात को खारिज कैसे कर दिया? क्या यह दो नेताओं के बीच का 'मतभेद' है? तर्क की कसौटी पर यह आकलन सटीक नहीं बैठता। पटेल का यह कहना कि चुनाव पूर्व करार के आधार पर महाराष्ट्र का मुख्यमंत्री कांग्रेस का ही बनेगा, गले के नीचे उतरने वाला नहीं है। ऐसे किसी करार की जानकारी न तो कांग्रेस ने और न ही राकांपा ने कभी दी थी। 'जिस पार्टी के अधिक विधायक, उस पार्टी का मुख्यमंत्री' के फार्मूले की जानकारी ही अब तक लोगों को थी। हालांकि, पिछले विधानसभा चुनाव में राकांपा को कांग्रेस से अधिक सीटें मिलने के बावजूद उसे मुख्यमंत्री पद नहीं दिया गया। तब कांग्रेस मुख्यमंत्री पद के लिए अड़ गई थी। करार के विपरीत कांग्रेस का आचरण बहस का मुद्दा बना था। राकांपा को कांग्रेस ने अपने से अधिक मंत्री पद और लगभग सभी महत्वपूर्ण विभाग यदा- गृह, वित्त, लोकनिर्माण, सिंचाई आदि सौंप कर मुख्यमंत्री पद पर कब्जा कर लिया था। साफ है कि तब कांग्रेस ने बड़ी कीमत चुकाकर मुख्यमंत्री पद पर कब्जा किया था। वह कांग्रेस अब मुख्यमंत्री पद के कार्यकाल में राकांपा को हिस्सेदार कैसे बनाएगी? यह तो हुई तर्क की बात। अब सवाल यह है कि भुजबल ने ऐसी मांग क्यों की और उन्हीं की पार्टी के प्रफुल्ल पटेल ने तत्काल इसे खारिज क्यों कर दिया? वैसे शरद पवार ने भुजबल की मांग को खारिज कर दिया है किन्तु अनिश्चित राजनीति के वर्तमान दौर में उनका रुख क्या होगा, यह कहना अभी मुश्किल है। किस पार्टी को कितनी सीटें मिलती हैं, इसका फैसला तो कुछ घंटों में हो जाएगा किन्तु यह तय है कि अगर राकांपा को कांग्रेस से ज्यादा सीटें मिलीं तब शरद पवार सन 2004 की पुनरावृत्ति के लिए कदापि तैयार नहीं होंगे। कुछ-एक सीटों की कमी के बावजूद पवार 'गणित' अपने पक्ष में करने की हर संभव कोशिश करेंगे। सन 2004 की कांग्रेसी कसरत को पवार अभी तक भूले नहीं हैं। कांग्रेस नेतृत्व ने तब अपने विधायकों की संख्या राकांपा विधायकों से अधिक जुटाने के लिए शिवसेना के कद्दावर नेता और पूर्व मुख्यमंत्री नारायण राणे को तोड़ा। राणे और उनके समर्थकों ने कांग्रेस की इच्छा पूरी कर दी। यह दीगर है कि मुख्यमंत्री बनाने संबंधी राणे को दिया गया वचन कांग्रेस निभा नहीं पाई। छगन भुजबल भी पूर्व शिवसैनिक ही हैं। गृहमंत्री के रूप में स्वयं को एक अच्छा प्रशासक सिद्ध कर चुके हैं। ऐसे में उनके मुंह से क्या अकारण कोई शब्द निकल सकते हैं? प्रफुल्ल पटेल की त्वरित प्रतिक्रिया का 'रहस्य' जानने के लिए अभी कुछ प्रतीक्षा करनी होगी। फिलहाल, यही कहा जा सकता है कि पटेल के मुख से भी शब्द अकारण नहीं निकले हैं।

Wednesday, October 21, 2009

लोकशाही की आड़ में राजशाही!

लोकतंत्र की बखिया उधेडऩे वाले हाथ जब 'लोक' का गला दबाते दिखें तब इस पर कोई करेगा विलाप? हर दिन, हर पल ऐसे दृश्य से रूबरू होने वालों पर अब कोई असर नहीं पड़ता है। हां, कुछ एक दुखी मन अवश्य किसी कोने में अवतरित होते रहते हैं। किन्तु ये किसी अंधेरे कोने में चुपचाप थोड़ी देर सिसकियां ले मौन हो जाते हैं। इनकी नगण्य संख्या बेचैन करने वाली है। लोकतंत्र के अंधकारमय भविष्य के लिए यह खतरनाक पूर्व संकेत है। दिल तो तब चाख-चाख हो जाता है जब लोकतंत्र के नाम पर निर्वाचित ये लोग सीने पर 'जनप्रतिनिधि' का तमगा लगा शासक बन लोकतंत्र के साथ जबरदस्ती करते दिखते हैं। इनसे पछतावे और शर्म की उम्मीद तो नहीं की जा सकती। हां, उनसे यह अनुरोध जरूर है कि जब बेशर्म बन ही गए हैं तब कम से कम ये शासक 'लोक' शब्द को अपनी जुबां पर नहीं लाएं। लेकिन ये लोकतंत्र ही तो है जिसका जाप कर शासक जनता को मूर्ख बनाते रहते हैं। फिर भला ये इसका त्याग कैसे करेंगे?
ताजा प्रसंग केंद्रीय सरकार का नेतृत्व कर रही कांग्रेस की ओर से ऐसे ही एक बेशर्म प्रदर्शन का है। यह वही कांग्रेस दल है जिसने देश में संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली की नींव रखी। यह वही कांग्रेस दल है जो आज भी स्वयं को देश का अभिभावक दल प्रतिपादित कर मुदित होता रहता है, लोकतांत्रिक पायों को मजबूती प्रदान कर सुरक्षित रखने की कसमें खाता रहता है। फिर घोर लोकतांत्रिक प्रणाली विरोधी आचरण क्यों? महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के बाद सत्ता में पुन: वापसी का दावा करने वाले कांग्रेस दल में मुख्यमंत्री पद को लेकर आपाधापी मची है। अनेक दावेदार पैदा हो गए हैं। नामों को लेकर मीडिया में कयास का दौर जारी है। ऐसे में पार्टी के वकील प्रवक्ता मनु सिंघवी घोषणा करते हैं कि मुख्यमंत्री का चयन कांग्रेस आलाकमान अर्थात सोनिया गांधी करेंगी। क्यों? मुख्यमंत्री बहुमत प्राप्त पार्टी के विधायक दल का नेता बनता है। लोकतांत्रिक प्रणाली का तकाजा है कि विधायक दल स्वयं अपने नेता का चयन करे। अर्थात निर्वाचित विधायक नेता तय करें। फिर ऐसा क्यों कि आलाकमान अपनी पसंद से किसी को नामित करें। क्या यह लोकतांत्रिक भावना-परंपरा का अनादर नहीं? अभिभावक से तो अनुकरणीय आदर्श रखे जाने की अपेक्षा की जाती है लेकिन इस संबंध में कांग्रेस की नीति-प्रणाली लोकशाही के विपरीत राजशाही के सदृश है। ऐसे उदाहरण तो अनेक हैं किन्तु पड़ोसी आंध्रप्रदेश का उदाहरण अभी ताजा है। वहां के मुख्यमंत्री वाई.एस. राजशेखर रेड्डी की दुर्घटना में आकस्मिक मृत्यु के बाद कांग्रेस विधायक दल के लगभग सभी सदस्य, राज्य के कांग्रेस सांसद और मंत्रियों की आम राय के बावजूद उनके पुत्र जगनमोहन रेड्डी मुख्यमंत्री बनते नहीं दिख रहे हैं। कहां गया आम सहमति का सिद्धांत? महाराष्ट्र में भी ऐसा ही कुछ होगा। दिल्ली में बैठी कांग्रेस नेतृत्व अपनी 'पसंद' के व्यक्ति को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठा देंगी। चाहे विधायक दल के सदस्यों का बहुमत उस व्यक्ति के खिलाफ ही क्यों न हो? पार्टी कह सकती है कि यह उनका आंतरिक मामला है। यह ठीक है। लोग तो सिर्फ यही चाहते हैं कि लोकतांत्रिक प्रणाली के नाम पर व्यक्ति विशेष की पसंद को थोपने की परंपरा न चलाएं। पार्टी घोषणा कर दे कि हमने लोकशाही नहीं राजशाही का वरण कर लिया है। ऐसे में 'प्रणाली' पर अंतिम फैसला जनता स्वयं कर देगी।

Tuesday, October 20, 2009

फिर कटघरे में कानून का शासन!

संदेह शत-प्रतिशत स्वाभाविक है। 23 करोड़ रुपए के पीएफ घोटाले का मुख्य आरोपी आशुतोष अस्थाना की जेल में मौत कैसे हुई? सब कुछ ठीक-ठाक था, फिर अचानक वह मुर्दा कैसे हो गया? जेल अधिकारी कहते हैं, शायद उसने कोई जहरीली चीज खा ली होगी। कैसे संभव है यह? जेल में कथित जहरीली चीज पहुंची तो कैसे और अस्थाना ने उसे कैसे खा लिया? कहीं ऐसा तो नहीं कि उसे वह कथित जहरीली चीज खिला दी गई? जेल, पुलिस प्रशासन और इन सबसे ऊपर न्यायपालिका को यह घटना एक सीधी चुनौती है। कानून के शासन को सुनिश्चित करने की जिम्मेदार न्यायपालिका इस मामले में स्वयं कटघरे में है। इस बड़े पीएफ घोटाले की जांच कर रही सीबीआई की एक रिपोर्ट में सुप्रीम कोर्ट का एक जज, हाईकोर्ट के छह जज और निचली अदालतों के बारह जजों के घोटाले में शामिल होने की आशंका व्यक्त की गई थी। आरोप आशुतोष अस्थाना ने लगाए थे। तब इसी स्तंभ में टिप्पणी की गई थी कि न्यायपालिका से जुड़े लगभग तीन दर्जन लोगों का नाम घोटाले में आना ही पूरी न्यायपालिका के लिए शर्मनाक है। प्रशंसा करनी होगी सर्वोच्च न्यायालय की जिसने इस संवेदनशील मामले की जांच सीबीआई को सौंपी। लेकिन, वैसे खतरनाक तत्व समाज में मौजूद हैं जो सर्वोच्च न्यायालय तक की पहल को पैरों तले रौंद रहे हैं। अस्थाना की जेल में मौत कहीं इन्हीं तत्वों की करतूत तो नहीं? आशुतोष ने भारतीय न्यायपालिका के इस सबसे बड़े शर्मनाक घोटाले का पर्दाफाश करते हुए साफ-साफ कहा था कि उसने मात्र चार-पांच लाख रुपए ही अपने पास रखे, शेष करोड़ों रुपए न्याय की मूर्तियों ने हजम कर लिए थे। तब देश स्तब्ध रह गया था जब उसने देखा कि चार-पांच लाख रुपए हड़पने वाले अस्थाना को तो गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया किन्तु न्यायपालिका की पवित्रता को रौंदने वालों पर हाथ नहीं डाला गया। और अब स्वयं अस्थाना को मौत मिल गई। पुलिस प्रशासन को इस बात का जवाब देना होगा कि जब अस्थाना के परिवारवालों ने सूचना दी थी कि जेल में अस्थाना की जान को खतरा है तब उसे अतिरिक्त सुरक्षा मुहैया क्यों नहीं कराई गई? क्या पुलिस किसी दबाव में थी? यह संभव है। निचली अदालत से लेकर सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश घपले में शामिल बताए जा रहे थे। उनके प्रभाव की कल्पना की जा सकती है। क्या इस मामले में न्यायपालिका 'सीजर की पत्नी' की सदृश परीक्षा के लिए तैयार है? हालांकि, देश के कानून मंत्री ने पीएफ घोटाले की जांच जारी रखने की घोषणा की है किन्तु इससे ही शक के बादल नहीं छंटेंगे। अस्थाना की मौत की पूरी जांच हो। यह दोहराना ही होगा कि भूतकाल में ऐसी ही संदिग्ध मौतों पर से पर्दे नहीं उठ पाए हैं। अगर अस्थाना की मौत पर से भी रहस्य का पर्दा नहीं उठा तो, क्षमा करेंगे, आम लोगों का कानून के शासन पर से विश्वास उठ जाएगा। क्या हमारी न्यायपालिका यही चाहती है?

Monday, October 19, 2009

भाजपा को चाहिए मजबूत नेतृत्व!

आखिर क्या हो गया है पार्टी नेतृत्व को? धर्मांध कहते हैं कि इसे किसी की नजर लग गई है। दिल से जुड़े गंभीर सक्रिय कार्यकर्ता वर्तमान दुरवस्था के लिए पार्टी नेतृत्व को दोषी ठहरा रहे हैं। विभिन्न प्रदेशों में जी-जान से पार्टी को मजबूती प्रदान करने के लिए सक्रिय नेता गुस्से में हैं कि उनके श्रम पर पार्टी नेतृत्व पानी फेर रहा है। इसी कारण अपेक्षानुरूप फल नहीं मिल रहे हैं। बड़े नेता सार्वजनिक रूप से पार्टी की आलोचना करते देखे जा रहे हैं। लगता है उनके धीरज खत्म हो गए हैं। देश पर लगातार छह साल तक शासन करने वाली प्रमुख विपक्षी पार्टी की ऐसी दुखद स्थिति का कारण? यह सचमुच आश्चर्यजनक है कि देश के अनेक राज्यों में शासन कर रही यह पार्टी बिखरी-बिखरी क्यों दिख रही है। अनुशासन और मूल्य आधारित राजनीति करने का दम भरने वाली भारतीय जनता पार्टी के नेताओं का इस बिंदु पर मुंह छिपाना उनकी कायरता को रेखांकित कर रहा है। जिस पार्टी के नेताओं के शब्द कभी जनांदोलन का कारण बनते थे, उस पार्टी को आज घोर अनुशासनहीनता और मूल्यों से दूर संदिग्ध आचरण का सामना क्यों करना पड़ रहा है? जसवंत सिंह जैसे कद्दावर नेता को बर्खास्त करने वाला पार्टी नेतृत्व वसुंधरा राजे की अनुशासनहीनता और चुनौती के सामने अब तक नतमस्तक क्यों है? निर्देश-आदेश के बावजूद वसुंधरा राजस्थान विधानसभा में नेता (विपक्ष) के पद से इस्तीफा देने को तैयार नहीं हैं। अरुण शौरी, यशवंत सिन्हा, भुवनचंद खंडूरी द्वारा पूछे गए सवालों का माकूल जवाब पार्टी नहीं दे पा रही है। वसुंधरा ने तो पार्टी नेतृत्व को बिलकुल ठेंगा ही दिखा दिया है। पार्टी नेतृत्व लाचार क्यों है? पूर्व घोषित 22 से 29 अक्टूबर होने वाली राष्ट्रीय कार्यकारिणी का अचानक स्थगित कर दिया जाना क्या पार्टी नेतृत्व का मुद्दों से पलायन नहीं? इसी बैठक में वसुंधरा राजे के खिलाफ कार्रवाई की जाने की बातें कही जा रही थीं। महाराष्ट्र, हरियाणा और अरुणाचल प्रदेश के चुनाव परिणामों की समीक्षा भी होनी थी। कहीं वसुंधरा और संभावित चुनाव परिणामों से पार्टी नेतृत्व घबरा तो नहीं रहा है? अगर ऐसा है तब कमजोर और कायर पार्टी नेतृत्व को तुरंत बदल दिया जाए। राष्ट्र और समाज को समर्पित पार्टी की कमान दुर्बल हाथों में सौंपा नहीं जाना चाहिए। यह मांग समस्त लोकतंत्र प्रेमियों की है। वे चाहते हैं कि पार्टी नेतृत्व अब किसी समर्पित, कर्मठ नेता को सौंपा जाए ताकि देश के लोकतांत्रिक पन्नों में 'राष्ट्रीयता' और 'समर्पण' सुरक्षित रह सके।

Saturday, October 17, 2009

चीन की बंदरघुड़की, मजबूत भारत

तब राष्ट्रपति डा. राजेंद्र प्रसाद ने प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू को अगाह किया था। बात 50 के दशक के अंतिम दिनों की है। चीन तब तिब्बत पर कब्जा करने के अपने नापाक मंसूबे को अंजाम देने की ओर बढ़ रहा था। तिब्बत के सामरिक महत्व और भारत के साथ प्रगाढ़ संबंध के आलोक में राष्ट्रपति प्रसाद चाहते थे कि भारत हस्तक्षेप कर तिब्बत की मदद करे। प्रधानमंत्री नेहरू तटस्थ बने रहे। नतीजतन चीन ने तिब्बत पर कब्जा कर विश्व के नक्शे से उसका नाम मिटा दिया। भारत की वह एक बड़ी रणनीतिक पराजय थी। तब पं. नेहरू विश्व समुदाय में अपनी छवि एक शांतिदूत के रुप में स्थापित करने को व्यग्र थे।
मिस्र के कर्नल नासिर, यूगोस्लाविया के मार्शल टीटो और चीन के प्रधानमंत्री चाउ-इन-लाइ के साथ मिलकर पंचशील का सिद्धान्त प्रतिपादित कर पं. नेहरू संसार के लिए शांति का एक नया अध्याय लिखना चाहते थे। चीन के साथ मित्रता का आलम तो ऐसा था कि हिंदी-चीनी भाई-भाई का नारा भारत के घर-घर का नारा बन चुका था। तब स्कूली छात्र भी भारत-चीन की संयुक्त आबादी और सैन्यशक्ति की चर्चा कर गर्व महसूस किया करते थे। लेकिन हुआ क्या? चीन ने बगैर किसी उकसावे के भारत पर हमला किया और एक बड़े भू-भाग पर कब्जा कर लिया। बात 1962 की है। नेहरू को जब भारतीय सीमा में चीनी सैनिकों के घुसपैठ की जानकारी दी गई थी तब उन्होंने आवेश में आदेश दिया था कि उन्हें (चीनी सैनिक) खदेड़ दो। कहा जाता है कि नेहरू के उक्त आदेश पर चीनी राष्ट्रपति माओत्से-तुंग मुस्कुरा दिए थे। नेहरू का तब भारत में भी मजाक उड़ाया गया था। हद तो तब हो गई थी जब लोकसभा में पं. नेहरू ने टिप्पणी कर दी कि 'जिन भू-भाग पर चीन ने कब्जा कर लिया है उन पर घास का एक तिनका भी नहीं उगता।' तब सदन में महावीर त्यागी ने अपने गंजे सिर को दिखाते हुए कहा था कि 'इस पर कोई बाल नहीं उगता तो क्या मैं अपने सिर को काटकर फेंक दूं।' नेहरू निरुत्तर हो गए थे। इन घटनाओं की आज याद नेहरू की गलत विदेश नीति के संदर्भ में प्रासंगिक है। प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह की पिछली अरूणाचल प्रदेश की यात्रा पर चीनी आपत्ति एक अत्यंत ही खतरनाक संकेत है। हाल के दिनों में भारतीय सीमा में चीनी घुसपैठ की खबरें आती रही हैं। लेकिन आज फिर भारत के शासक पुरानी गलतियों को दोहराते दिख रहे हैं। खतरनाक यह भी है। घुसपैठ संबंधी मीडिया की रिपोर्टों को न केवल सरकार की ओर से खारिज किया गया बल्कि सेना के कुछ पूर्व बड़े अधिकारियों ने तुलनात्मक दृष्टि से चीन के मुकाबले भारत को एक कमजोर सैन्यशक्ति करार दिया। यह ठीक है कि आज का भारत 1962 का भारत नहीं है, जो अब चीन के सामने झुक जाएगा। चीन की सैन्यशक्ति भारत से अधिक भले ही हो किंतु इतनी नहीं कि वह भारत को 1962 की तरह पराजित कर सके। भारत भी सामरिक दृष्टि से आज इतना सक्षम है कि वह चीन को मुंहतोड़ जवाब दे सके। चीन अपनी उस पुरानी समझ का त्याग कर दे कि पूरी दुनिया वही चला रहा है। भारत को अब वह डरा-धमका नहीं सकता। अब सवाल यह कि भारत उसे बर्दाश्त क्यों कर रहा है? अगर नेहरू की कथित शांति नीति के आधार पर वह चीन से संबंध बनाए रखना चाहता है तो यह एक बड़ी भूल होगी। प्रधानमंत्री की अरूणाचल यात्रा का चीनी विरोध पूरे भारत देश के लिए अपमानजनक है। यह तो सीधे-सीधे सार्वभौमिकता को चुनौती है। इसे बर्दाश्त नहीं किया जाना चाहिए। अरूणाचल प्रदेश को विवादित क्षेत्र बताकर चीन तिब्बत की तरह उस पर कब्जा करने की तैयारी में है। इस आकलन को नजरअंदाज करना भविष्य में खतरनाक साबित हो सकता है। राजनयिक स्तर पर इस मुद्दे को उठा चीन से भारत स्पष्टीकरण पूछे। यह भारत का हक है। जरुरत पडऩे पर विश्वमंच पर भी चीन की बदनीयति की चर्चा हो। विश्व समुदाय में भारत की हैसियत अब एक सुगठित, मजबूत राष्ट्र की बन चुकी है। बल्कि सच तो यह है कि 1962 में चीन के हाथों पराजय के लगभग ढाई साल बाद ही 1965 में भारत में पाकिस्तानी आक्रमण का मुंहतोड़ जवाब दिया था। हमारी सेना तब लाहौर तक पहुंच चुकी थी। उसके बाद से लगातार भारत की सैन्यशक्ति मजबूत होती चली गई। 1971 में पाकिस्तान के साथ निर्णायक युद्ध प्रमाण है। फिर क्या हम चीन से डर रहे हैं? कोई कारण नहीं है। संभवत: हमारी सदाशयता को चीन कमजोरी समझ डराने की कोशिश कर रहा है। लेकिन अब माकूल समय है जब चीन को यह बता दिया जाना चाहिए कि भारत उनकी बंदरघुड़कियों से डरने वाला नहीं।

गुंडों की चुनौती, न्याय प्रणाली को!

...न्याय प्रणाली की ऐसी की तैसी और गुंडों की जय! इस आशय के उद्गार किसी और के नहीं, भारत के सर्वोच्च न्यायालय के एक माननीय न्यायधीश ने प्रकट किए हैं। क्या इसके बाद भी हम अपनी न्याय व्यवस्था पर गर्व कर सकते हैं? कोई भी टिप्पणी पीड़ादायक होगी। न्यायपालिका को हम न्याय मंदिर और न्यायाधीश को देवता मानते हैं- न्याय देवता! न्याय-व्यवस्था के उद्भव के साथ ऐसी मान्यता चली आ रही है। एक यही कारण है कि न्यायपालिका और न्यायाधीश पर टिप्पणी करने से अमूमन परहेज़ किया जाता है। लेकिन आलोच्य प्रसंग में स्वयं एक न्यायधीश ने न्याय प्रणाली पर प्रतिकूल टिप्पणी की है। उनके मन की पीड़ा को समझना कठिन नहीं। कुछ दिनों पूर्व स्वयं भारत के मुख्य न्यायाधीश वर्तमान न्याय प्रणाली का 'सीजर की पत्नि' होने पर संदेह प्रकट कर चुके हैं। अनेक ऐसे मामले अब तक सामने आ चुके हैं, जिन्होंने स्वयं अदालतों को कटघरे में खड़ा किया। ताज़ा प्रसंग थोड़ा पृथक है, किंतु न्याय प्रणाली की उपयोगिता को लेकर राष्ट्रीय बहस का आग्रही है। सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश न्यायमूर्ति आर. वी. रवींद्रन ने टिप्पणी की है कि अपने विवादों को निपटाने के लिए लोग न्याय प्रणाली से ज्य़ादा स्थानीय गुंडों पर भरोसा करने लगे हैं। निश्चय ही न्यायमूर्ति की इस टिप्पणी ने वर्तमान न्यायिक व्यवस्था में निहित दोष पर चोट की है। यह आज का सच है। बल्कि, यह सच न्यायमूर्ति रवींद्रन द्वारा प्रकट भावना से कहीं ज्य़ादा कड़वा है। इक्का-दुक्का सामर्थ्यवान ही विवादों के निपटारे के लिए गुंडों का सहारा नहीं ले रहे, सरकारी, अर्द्ध सरकारी व निजी बैंक, वित्तीय संस्था आदि भी कानून को धता बता गुंडों का सहारा ले रहे हैं। आए दिन हम ऐसी खबरों से रूबरू होते हैं। बैंक और अन्य वित्तीय संस्थान कर्ज संबंधी विवादों के निपटारे के लिए अदालत में न जाकर गुंडों का सहारा ले रहे हैं। कर्ज वसूली के लिए भी इन संस्थाओं ने बजाप्ता वेतन पर गुंडों को पाल रखा है। यह रोग फैलता हुआ ग्रामीण क्षेत्रों तक जा पहुंचा है। ग्राम पंचायत अब महत्वहीन हो चली हैं। गांव में भी आए दिन निपटारे के लिए मुस्टंडों का सहारा लिया जाने लगा है। महानगरों में तो ये दैनंदिन जीवन के अंग बन चुके हैं। मुंबई में 'अंडर वर्ल्ड' और कोलकाता में 'मस्तानों के गुर्गे' ऐसे कार्यों को अंजाम देते हैं। राज नेताओं, फिल्मी दुनिया और बड़े-बड़े औद्योगिक घरानों के विवादों को सुलझाने के लिए इन असामाजिक तत्वों की मदद ली जाती है। न्याय प्रणाली को ठेंगा दिखाते हुए अपना कानून चलाने वाले ऐसे तत्वों ने ही 'गुंडा राज' को अमली जामा पहनाया। क्यों और कैसे इस विकृति ने समाज में जन्म लिया। इसका एक कारण जो बार-बार रेखांकित हुआ है। अदालतों में मुकदमे के निपटारे में देरी और अनिश्चितता। न्यायमूर्ति रवींद्रन कहते हैं कि जब तीस साल तक मुकदमों के नतीजे नहीं निकलते हैं तब लोग मुकदमा करना ही क्यों चाहेंगे। ऐसी स्थिति में पीडि़त पक्ष गुंडों का सहारा लेते हैं क्योंकि उनके पास तुरंत निपटारा हो जाता है। तो क्या समाज इस व्यवस्था को स्वीकार कर ले? कदापि नहीं, यह तो पाप में भागीदारी बनने सदृश होगा। इसे स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए। अगर न्याय में विलंब ही इस पाप का कारण है तब यह सरकार का दायित्व हो जाता है कि तत्काल अदालतों और न्यायाधीशों की संख्या बढ़ाने की व्यवस्था करे। यह सुनिश्चित किया जाए कि न्याय सरल-सुलभ हो। सुनिश्चित यह भी किया जाना चाहिए कि लोग तो न्याय मंदिर तक पहुंचे, स्वयं न्याय भी लोगों के दरवाज़े तक पहुंचे। मुकदमों के त्वरित निपटारे में समस्या का हल मौजूद है। इस से पूर्व कि पूरी की पूरी न्याय प्रणाली से लोगों का विश्वास उठ जाए, समस्या के इस हल का वरण कर लिया जाए।

Thursday, October 15, 2009

'लालू स्वांग' न अपनाएं नीतिश!

कभी लालू प्रसाद यादव के 'फ्रेंड-फिलॉस्फर- गाइड' रहे बिहार के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार ने इस बार अपने प्रशंसकों को निराश किया है। पिछड़े बिहार में चाहे मामला विकास का हो या फिर कानून व्यवस्था का, नीतिश गंभीरता के साथ हर मोर्चे पर बिहार हित के लिए सक्रिय हैं। इनके विरोधी भी इस हेतु नीतिश की प्रशंसा करते हैं। पेशे से इंजीनियर नीतिश ने कभी भी मसखरेपन को तव्वजो नहीं दिया। विपक्ष के हमलों का जवाब नीतिश ने हमेशा अपने कार्यों से दिए। फिर ऐसा क्या हुआ जो उन्होंने सतही शब्दों में लालू यादव और रामविलास पासवान का मजाक उड़ा डाला। धीर-गंभीर नीतिश के व्यक्तित्व के लिए यह अशोभनीय है। कहीं ऐसा तो नहीं कि पिछले लोकसभा चुनावों में कांग्रेस, राष्ट्रीय जनता दल और लोजपा का सफाया करने के बाद विधानसभा के लिए संपन्न उपचुनाव में राजद और लोजपा के बेहतरीन प्रदर्शन से नीतिश अपना मानसिक संतुलन खो बैठे हैं? यह एक कड़ी टिप्पणी है किंतु नीतिश के ताजा आचरण से दु:खी ऐसे शब्दों के इस्तेमाल के लिए मैं मजबूर हूं। क्या कहा था लालू ने? अपने कार्यकर्ताओं को अनुशासन में रहने की सलाह ही तो दी थी उन्होंने! इसमें गलत क्या था? देर आयद, दुरुस्त आयद की तर्ज पर लालू के इस आह्वान की तो प्रशंसा की जानी चाहिए थी। ऐसा कर नीतिश एक आदर्श प्रस्तुत कर सकते थे। किंतु उन्होंने इसके लिए लालू का मजाक उड़ा स्वयं को सामान्य नेताओं की पंक्ति में खड़ा कर लिया। जानकार उन दिनों को अभी भूले नहीं है जब लालू प्रसाद यादव के प्रथम मुख्यमंत्रित्वकाल में नीतिश सर्वाधिक शक्तिशाली माने जाते थे। केंद्र में मंत्री रहते हुए नीतिश की बिहार पर पकड़ मजबूत थी। सच तो यह है कि तब मुख्यमंत्री के रुप में लालू के प्राय: सभी निर्णय 'नीतिश प्रभावित' हुआ करते थे। फिर आज अनुशासन के नाम पर लालू की आलोचना क्यों? यह कोई नहीं कहेगा कि लालू कभी अनुशासन प्रिय रहे हैं। यह भी कि लालू के इर्द-गिर्द हमेशा अनुशासनहीन-अराजक तत्वों का जमावड़ा रहा है। लालू की अपनी प्राथमिकताएं भी अनुशासन आधारित कभी नहीं रहीं। बावजूद इसके अब अगर वे चाहते हैं कि उनके कार्यकर्ता अनुशासन में रहें तब उनके इस कदम का विरोध क्यों? वह भी नीतिश कुमार की ओर से! सत्ता से हटने के बाद ही सही अगर लालू ने अनुशासन के महत्व को समझ लिया है तब अच्छा होता कि नीतिश अपने इस पुराने बड़े भाई की पीठ थपथपा प्रोत्साहित करते। सुबह का भूला जब शाम को लौट आता है तब उसका स्वागत करने की हमारी पुरानी संस्कृति रही है। नीतिश कुमार की पिछले दिनों एक सकारात्मक -उत्साहवर्धक राष्ट्रीय छवि बनी है। एक कुशल व ईमानदार प्रशासक के रूप में तेजी से भारतीय राजनीति के क्षितिज पर उभरने वाले नीतिश की चर्चा अब देश के एक संभावित प्रधानमंत्री के रूप में भी होने लगी है। फिर लालू बनने की राह पर नीतिश क्यों चल पड़े? यह पीड़ादायक है। नीतिश अपने महत्व को समझें और धीर-गंभीर आचरण का त्याग तो नहीं ही करें।

Wednesday, October 14, 2009

राजनीति का यह कैसा पतन !

नहीं, यह अकल्पनीय है! मतदाता को आकर्षित करने के लिए राजदल और राजनेता भ्रष्टाचार आधारित हथकंडे अपनाते देखे गए हैं। धनबल से वोट खरीदने से आगे बढ़ते हुए सत्ता-व्यवसाय से जुड़ा यह वर्ग मीडिया को खरीदने से भी बाज नहीं आया। वारांगनाओं की तरह अखबार मालिक कपड़े उतार चौराहों पर बिकने को तत्पर दिखे। कुछ अपवाद अवश्य थे, किन्तु नगण्य। वोट के लिए धन बरसाए गए, शराब की नदियां बहायी गईं और यह सब कुछ लुक-छिप कर नहीं खुले आम हुआ। वैसे यह कोई नई बात नहीं है। विगत चुनाव में भी ऐसे हथकंडे अपनाए जाते रहे हैं। हां, इस बार ऐसी नंगई बड़े पैमाने पर हुई। आश्चर्य इस पर भी नहीं । इलाज की गैरमौजूदगी में रोग तो बढ़ते ही हैं। इनसे पृथक चुनावी गंदगी का जो नया सच सामने आया उससे पूरा देश शर्मसार हुआ है। मतदाता को भ्रष्ट करने के साथ-साथ इस बार राजदल और उनके नेता अपने कार्यकर्ताओं को भी भ्रष्ट और पापी बनाने से नहीं चुके। खबर आई है कि विभिन्न दलों के उम्मीदवारों ने अपने कार्यकर्ताओं को लुभाने के लिए उन्हें वेश्याएं उपलब्ध कराईं। अर्थात उम्मीदवारों ने दाल मंडी के दलालों की भूमिका निभाई। मुंबई से प्रकाशित एक अंग्रेजी अखबार के अनुसार चुनावी थकान से दूर रखने के लिए नेताओं ने अपने कार्यकर्ताओं के लिए ऐसी व्यवस्था की । कार्यकर्ताओं के बलबूते चुनाव जीते जाते हैं यह ठीक है। उन्हें खुश रखने या मनोबल बढ़ाने के लिए नेताओं को वेश्याएं ही कैसे नजर आईं ! पार्टी सिद्धान्त , लोकतांत्रिक जरूरत, उम्मीदवार विशेष का व्यक्तित्व, सामाजिक अपेक्षाएं आदि अनेक ऐसी बातें हैं जिनसे कार्यकर्ताओं को सुसज्जित कर उन्हें चुस्त-दुरुस्त रखा जा सकता है। अपने पक्ष में माहौल बनाने के लिए कार्यकर्ताओं का समर्थन पाप के रास्ते लेना घृणास्पद है। इस नई प्रवृत्ति के प्रकाश में आने के बाद लोकतंत्र के भविष्य, स्वरुप, चरित्र को लेकर चिंतित होना अस्वाभाविक तो नहीं ही । लोग-बाग अब कहने लगे हैं, अगर यही लोकतंत्र है तो फिर पल्ला झाडि़ए और इससे तौबा करने के लिए तैयार हो जाइए। इसे नकारने वालों की लंबी फौज गलियों, कूचों पर दिखने लगी है। तब क्या देश लोकतंत्र के नाम पर मर्शिया पढऩे के लिए तैयार हो जाए? लेकिन नहीं ! हमारे लोकतंत्र की नींव इतनी कमजोर नहीं। इसे मजबूती प्रदान करने वाले युवा हाथ अभी मौजूद हैं। जरूरत इस बात की है कि इन युवा हाथों की पवित्रता कायम रखी जाए। अब सवाल यह कि, इस अहम् काम की जिम्मेदारी कौन ले। राजदलों और राजनेताओं से अपेक्षा बेकार है। लोकतंत्र के रक्षार्थ लिखन-बोलने वाला बुद्धिजीवी वर्ग लोकतंत्र की नींव पर प्रहार करने वाले अवांछित तत्वों से गलबहियां करते दिख रहा है। हां, कुछ आशा इस वर्ग में मौजूद अपवादों से अवश्य है। देश की आशाभरी निगाहें इन्हीं पर टिकी हैं। क्या ये लोग निराश करेंगे? ऐसा नहीं होना चाहिए। झूठ, मक्कारी और भ्रष्टाचार अगर राज-व्यवस्था की देन है तब इसे बदल डालने का अभियान चलाया जाना चाहिए। पतित मक्कारों के हाथों लोकतंत्र की बागडोर हम नहीं सौंप सकते। लोकतंत्र को वेश्या बाजार बनाने वालों को चौराहों पर फांसी दे दी जाए। कोई इसका विरोध नहीं करेगा। यह देश ऐसे गिरे हुए लोगों की बपौती नहीं। आह्वान है युवा पीढ़ी के लिए। उनके लिए अवसर है स्वयं को देश एवं लोकतंत्र के रक्षक की भूमिका में प्रस्तुत करने का। वे विलंब न करें, आगे आएं, लोकतंत्र की बागडोर अपने हाथों में ले लें। पवित्र लोकतंत्र की गरिमा को कायम रखें।

सकारात्मक सोच अपनायें राज !

बड़बोले राज ठाकरे आज होने वाले महाराष्ट्र विधान सभा चुनाव के मतदान को लेकर उत्साहित हैं। मीडिया के एक वर्ग ने उन्हें 'किंग मेकर' के रूप में बड़ा उछाला कि उनकी महत्वकांक्षाएं सातवें आसमान पर पहुंच गयीं। कानून को ठेंगा दिखाने की उनकी आदत पुरानी है। जब कभी उन्हें मौका मिला कानून और संविधान का मज़ाक उड़ाने से नहीं चूके। मुंबई में उत्तर भारतियों के विरूध्द अभियान चलाकर सस्ती लोकप्रियता बटोरने वाले राज ठाकरे यह भूल जाते हैं कि उनकी हरकतें वस्तुत: मवाली सरीखा है। जिस मीडिया ने आज उन्हें किंग मेकर निरूपित किया है वही मीडिया पिछले दिन उनकी हरकतों को गुंडागर्दी बता चुका है। समाज में क्षेत्रीय घृणा फैला कर राजनीति करने वाले राज ठाकरे किसी भी कोण से सभ्य नहीं माने जायेंगे। अपने चाचा शिव सेना प्रमुख बाल ठाकरे के चरणों में बैठे राजनीति का गुर सीखने वाले राज ठाकरे जब स्वमं बाल ठाकरे व उनके पुत्र अर्थात अपने भाई उध्दव ठाकरे के खिलाफ विष-वमन करने लगे हैं। जब इन के 'चरित्र' पर कुछ कहने की आवश्यकता शेष नहीं रह जाती। खबरों में बने रहने के लिए और संभवत: अपने हुल्लड़बाज़ अनुयायियों को अपने साथ बनाये रखने के लिए राज बेतुकी बातें करने के आदी हो गये प्रतीत होते हैं। शायद इसी लिए ऐन मतदान के मौके पर वे यह बोल गये कि उनके खिलाफ दर्ज मामलों की संख्या चाहे सौ का आंकड़ा क्यों न प्राप्त करले वे मराठी माणुस के मुद्दे का त्याग नहीं करेंगे। भूमि पुत्रों के हक में बातें कोई गुनाह नहीं है। ऐसा देश के अन्य भागों में भी होता रहा है किन्तु मुम्बई छोड़ देश के किसी अन्य क्षेत्र में स्थानीय के पक्ष में बाहरी पर हिंसक हमलों की बातें तो छोडिये उन्हें कभी अपमानित भी नहीं किया गया। एंव प्रदेश से दूसरे प्रदेश में बसे लोग शांतीपूर्वक अपना कार्य इस लिए कर पाते हैं कि उन्हें स्थानीय लोगों का स्नेह समर्थन प्राप्त है। मुम्बई में लाखों की संख्या में देश के प्राय: हर भाग से लोग आकर बसे हैं। पहले हम बड़ों की ही बातें कर लें। प्राय: सभी बड़े औद्योगिक घरानों के मालिक तथा संचालक प्रदेश से बाहर के हैं। स्थानीय की संख्या नगण्य है। राज ठाकरे और उनके हुड़दंगी अनुयायी इन घरानों को निशाना क्यों नहीं बनाते?
कारण बताने की ज़रूरत नहीं राज ठाकरे के पास इतनी हिम्मत है ही नहीं जिस दिन उन्होंने ऐसा करने की जुर्रत दिखाई राज ठाकरे एंड कंपनी की दुकानदारी बंद हो जायेगी। मराठी माणुस के पक्ष में गुनाह दर गुनाह करने को तैयार राज ठाकरे निशाने पर लेते हैं, छोटे, गरीब लोगों को जो मूलत: उत्तर भारत से आकर बसे हैं वे या तो दिहाड़ी पर काम करने वाले हैं या फिर छोटे मोटे रोज़गार कर अपना भरण पोषण करते हैं। टैक्सी, ऑटो रिक्षा चालक, दूध का व्यवसाय करने वाला वर्षों से मुम्बई में बसा यह वर्ग वस्तुत: मुम्बई की दैनंदिन जिंदगी का वाहन है। इनके विरूध्द हिंसक कार्रवाई कर राज ठाकरे किसी बहादुरी का परिचय नहीं दे रहे, बल्कि घोर कायरता का प्रदर्शन कर रहे हैं राज ठाकरे। मुंबई हो या कोलकाता हो, दिल्ली हो, चेन्नई हो या देश का अन्य कोई शहर सभी भारत देश के भाग हैं। भारत के हर नागरिक को कहीं भी किसी भी जगह जाकर बसने और काम काज करने का संवैधानिक अधिकार प्राप्त है। राज ठाकरे या किसी भी मुम्बईवासी को तो इस बात का गर्व होना चाहिये कि उनका शहर देश के जरूरतमंद को पनाह देता है, उनका पालन-पोषण करता है। अगर राजनीति ही करनी है तो राज ठाकरे इन लोगों को साथ लेकर राजनीति करे। उनके प्रभाव क्षेत्र में वृध्दि होगी, समर्थकों की विशाल फौज उनके लिए स्थाई कवच की भूमिका निभायेंगे। बेहतर हो राज ठाकरे ऐसी सकारात्मक सोच को अपनायें नकारात्मक सोच से परहेज़ करें।

Monday, October 12, 2009

लोकतंत्र के गले मे फांसी!

अब जब यह लगभग तय है कि लोकसभा और राज्य विधान सभाओं में करोड़पतियों-अरबपतियों का बोलबाला रहेगा, लोकतंत्र में 'लोक' की भागीदारी को लेकर चिंतित होना स्वाभाविक है। कोई भी इस बात से इत्तेफाक नही रखेगा कि देश की आजादी के सूत्रधारों और संविधान को अमली जामा पहनाने वाले हाथों ने लोक तंत्र के वर्तमान स्वरुप -चरित्र की कल्पना की होगी। कौन है ऐसी अवस्था का जिम्मेदार? निश्चय ही, देश के सभी राजनीतिक दल इसके अपराधी है। इस मुकाम पर कोर्ई संदेह का लाभ भी नही दिया जा सकता। हमारे शासक देश की आर्थिक संरचना का ताना-बाना कुछ इस कदर बुनते रहे कि समाज निरंतर अमीर और गरीब में विभाजित होता गया। गरीबों की स्थिति योजनाबद्ध तरीके से शासकों ने ऐसी कर दी कि वे सत्ता में भागीदारी से हमेशा-हमेशा के लिए वंचित रहें। अमीर वर्ग ने सभी क्षेत्रों मे अपना आधिपत्य जमाने के बाद सत्ता-सिंहासन पर अपनी गिद्ध-दृष्टि जमा दी। विडम्बना यह कि गरीबों के उत्थान का लोक लुभावन नारा दे कर ही अमीर वर्ग सत्ता की सीढिय़ां चढ़ता रहा। फिर, क्या आश्चर्य कि सरकार की आर्थिक नीति से लाभान्वित यही अमीर वर्ग होता रहा है। क्या कोई इस बात से इंकार करेगा कि इस संपन्न वर्ग की जरुरतों को ध्यान में रख कर ही सरकार की आर्थिक नीतियाँ बनती हैं, क्रियान्वित होती रही हैं। सच यही है। क्या आज देश के लगभग एक सौ आद्योगिक-व्यापारिक घरानों ने लगभग सवा सौ करोड़ आबादी की जेबों में हाथ नहीं डाल रखा है। उनकी जेबो को खाली नही कर रहे हैं। पूरे देश को उन्होंने अपना अपना कर्जदार नही बना लिया है? चाहे विद्यार्थी हो, किसान हो, सरकारी-गैरसरकारी कर्मचारी हो, दूध बेचने वाला गवली हो, अन्न-सब्जी बेचनेवाले दुकानदार हों, छोटे-बड़े-मझोले उद्यमी हों या फिर स्व-रोजगार योजना के तहत काम शुरु करने वाले उत्साही युवा हों, सभी इन घरानों के कर्जदार बन चुके हैं। षडय़ंत्र की बानगी ऐसी कि इन तबकों को आर्थिक परेशानियों में उलझा संपन्न शासक वर्ग ने लोकतंत्र के नाम पर राजनीतिक विरासत का नया अध्याय खोल दिया है। अब औद्योगिक घरानों की विरासत की तरह राजनीतिक घरानों में भी परिवार सत्ता की विरासत प्राप्त करने लगे हैं। निश्चय ही, यह लोकतंत्र का मजाक हैं, उसकी भावना के साथ बलात्कार है। यह भविष्य में चौराहे पर लोकतंत्र को फांसी पर लटका देगा। समाज का एक चिंतक वर्ग हैरान-परेशान है कि लोकतंत्र के पक्ष मे उक्त प्रवृत्ति के विरोध के स्वर कहां गायब हो गये? जवाब बहुत आसान है। विरोध अथवा चिंतन-मनन के प्राय: सभी मंचों पर भी को इन घरानों का कब्जा हो चुका है। गिने-चुने कुछ मंच बचे भी हैं, तो उनके स्वर इतने धीमे हैं कि संज्ञान लेने को कोई तैयार नही। तो क्या बौद्धिक चिंतन के क्षेत्र में कभी पूरे संसार को पथ दिखाने वाला भारत का बुध्दिजीवी वर्ग स्वयं अपने गले में फांसी का फंदा डाल लेगा? व्यग्र-बेचैन भारत का युवा वर्ग जवाब का आग्रही है।
देश के कुछ राज्यों में कल होने वाले चुनाव का प्रचार थमने के साथ ही सत्ता-सिंहासन को लेकर आपाधापी मची है। चुनाव प्रचार अभियान के दौरान धन-बल का बेशर्म प्रदर्शन सर्वत्र दृष्टिगोचर था। इनके खिलाफ कार्रवाई की कोई पहल नही हुई। कारण साफ है। संबंधित एजेंसियां अगर भ्रष्ट नहीं, तो करोड़पति उम्मीदवारों से प्रभावित तो हैं ही। व्यवस्था के विद्रूप चेहरे धन बलियों में भय नहीं, प्रोत्साहन ही पैदा करते हैं। लोकतंत्र के खिलाफ जारी षडय़ंत्र की भागीदार ही है तो यह व्यवस्था!

Sunday, October 11, 2009

यही तो है आज की राजनीति!

देश की राजनीति के असली चेहरे को रेखांकित करने के लिए अजीत दादा पवार का अभिनंदन। मराठा क्षत्रप शरद पवार के भतीजे अजीत पवार ने बगैर किसी लाग-लपेट के साफ-साफ कह दिया है कि, 'महत्वपूर्ण यह है कि सरकार बनाकर सत्ता पर कब्जा कैसे किया जाए। ' शाबाश, अजीत दादा। आपने बता दिया कि मूल्य, सिद्धान्त, नीति, चरित्र, आदर्श आदि-आदि की बातें वर्तमान राजनीति में कोई मायने नहीं रखती। अगर कुछ मायने रखती है तो वह है सत्ता और सिर्फ सत्ता। इसे हासिल करने के लिए राजनीतिक दल कुछ भी कर सकते हैं। महाराष्ट्र में इसी माह 13 तारीख को विधानसभा चुनाव के मतदान पड़ेंगे। चुनावी पंडितों ने खंडित जनादेश की भविष्यवाणी कर दी है। शायद हो भी ऐसा ही। जाहिर है तब सरकार बनाने के लिए जोड़-तोड़, खरीद-फरोख्त का बाजार गर्म होगा। इसी स्थिति को भांप राष्ट्रवादी कांग्रेस के अजीत पवार ने घोषणा कर दी है कि सरकार बनाने के लिए अगर जरूरत पड़ी तो उनकी पार्टी राज ठाकरे की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना का सहयोग लेने से नहीं हिचकेगी। उन्होंने मनसे को समान विचार वाली पार्टी करार दिया है। यह दु:खद है। अजीत पवार इस सत्य से अच्छी तरह परिचित हैं कि दिवंगत भिंडरावाले और प्रभाकरण की तरह राज ठाकरे भी कांग्रेस के एक मोहरा हैं। कभी इंदिरा गांधी ने पंजाब पर अपना आधिपत्य जमाने के लिए संत भिंडरावाले की मदद ही नहीं ली थी बल्कि उन्हें अच्छी तरह पाला-पोसा था। श्रीलंका में हिंसक अस्थिरता के लिए जिम्मेदार प्रभाकरण को भी परोक्ष में इंदिरा गांधी का सहयोग प्राप्त था। दोनों के हश्र से संसार वाकिफ है। एक इंदिरा गांधी की हत्या का कारण बना तो दूसरा राजीव गांधी की हत्या का। महाराष्ट्र में शिवसेना-भाजपा युति को सत्ता से दूर रखने के लिए कांग्रेस, शिवसेना से रूठ कर अलग हुए बाल ठाकरे के भतीजे राजठाकरे का इस्तेमाल कर रही है। पिछले लोकसभा चुनावों में नि:संदेह इस मोहरे ने कांग्रेस को लाभ पहुंचाया। राजनीति में कब, कौन, किसके साथ हमविस्तर होगा- यह बताना कठिन है। किंतु राजठाकरे की सेना को समान विचारों वाला दल बताकर अजीत पवार ने स्वयं अपनी पार्टी को कठघरे में खड़ा कर दिया है। क्या राकांपा भी राज ठाकरे की तरह जाति, धर्म और क्षेत्रियता की राजनीति कर रही है या करना चाहती है? जिस राज ने महान महाराष्ट्र को एक संकुचित प्रदेश के रुप में संसार के सामने पेश करने की कोशिश की है, उसे सभी नकार चुके हैं। हिंसा और घृणा के हथियार से प्रदेश में अराजकता पैदा कर सत्ता पर काबिज होने की 'राज ठाकरे नीति' को मान्यता नहीं दी जा सकती। स्वयं कांग्रेस इस नीति का विरोध कर चुकी है। फिर अजीत पवार अगर राजस्तुति कर रहे हैं तो उन्हीं के अनुसार, 'सत्ता पर कब्जे के लिए'। राजनीति में मूल्यों के गिरावट का यह एक घिनौना उदाहरण है। हालांकि देश में ऐसा पहले भी होता आया है। 70 के दशक में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के कथित कुशासन के खिलाफ जयप्रकाश नारायण की सम्पूर्ण क्रांति के अनेक योद्धा कांग्रेस नेतृत्व की केंद्र सरकार में शामिल हुए और सत्ता की मलाई खाई, आज भी खा रहे हैं। ऐसे में अजीत पवार की साफगोई की आलोचना न कर राजनीतिक मूल्यों के क्षरण पर बहस जरूरी है। पहल हो और तत्काल हो। अन्यथा, निश्चय मानिए भारतीय राजनीति का भावी चेहरा अत्यंत ही विद्रूप-कुरुप होगा। और लोकतंत्र बदल जाएगा जोक-तंत्र में।

Saturday, October 10, 2009

'हमाम में नंगों के बीच बेचारा शब्बीर'!

'कली बेच देंगे, चमन बेच देंगे
जमीं बेच देंगे, गगन बेच देंगे
अखबार मालिक में लालच जो होगी
तो श्मशान से ये कफन बेच देंगे'

जरा इन शब्दों पर गौर करें। इनमें निहित पीड़ा और संदेश को आप समझ लेंगे। ये शब्द शब्बीर अहमद विद्रोही नाम के एक समाजसेवी के हैं। महाराष्ट्र के आसन्न विधानसभा चुनाव में मध्य नागपुर क्षेत्र से निर्दलीय चुनाव मैदान में हैं। विद्रोही के अनुसार चूंकि सभी दलों के उम्मीदवार शोषक वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं, जनता के सच्चे हितैषी के रूप में वे प्रतीकात्मक चुनाव लड़ रहे हैं। शब्बीर वर्षों से इस क्षेत्र में गरीब, शोषित वर्ग के लिए संघर्ष करते रहे हैं। स्थानीय अखबार इनकी गतिविधियों की खबरों को निरंतर स्थान देते थे। अब जबकि ये चुनाव मैदान में हैं, इनकी पीड़ा इनकी ही जुबानी सुन लें। शब्बीर ने हमें पत्र लिखकर अपनी व्यथा व्यक्त की है।
वे लिखते हैं, 'मैं समाचार आपको दे रहा हूं। इसलिए कि 1857 देश की आजादी की बुनियाद है। आज अखबार भी पूंजीपतियों के गुलाम हो गए हैं। उसकी आजादी की लड़ाई की 1857 को ही लडऩी पड़ेगी। एक निर्दलीय उम्मीदवार को रूप में मेरी खबरों को कोई अखबार प्रकाशित नहीं कर रहे हैं। मैंने स्थानीय हिन्दी दैनिक समाचार पत्रों को अपने मतदाता संपर्क अभियान की खबरें भेजी, लेकिन उन संस्थानों की ओर से कहा गया कि आजकल 10 लाख का पैकेज है। जब आप देंगे तभी आपकी खबरें छपेंगी। मैं स्तब्ध रह गया। चुनाव में समाचार का अगर बाजारीकरण हो गया है तो आगे भी इसका व्यापारीकरण होना निश्चित है।'
शब्बीर ने खबरों के ऐसे गोरखधंधे की जानकारी जिलाधिकारी के माध्यम से चुनाव आयुक्त को दे दी है। उन्होंने सीबीआई की जांच की मांग करते हुए घोषणा की है कि अगर अखबारों और पैसा देने वाले उम्दवारों के खिलाफ उचित कार्रवाई नहीं हुई तो वे उच्च न्यायालय में एक याचिका दायर करेंगे।
शब्बीर के आरोप को एकबारगी खारिज नहीं किया जा सकता। जारी चुनाव अभियान में काला धन पानी की तरह बहाया जा रहा है। चुनाव आयोग द्वारा निर्धारित उम्मीदवारों के लिए खर्च सीमा मखौल की वस्तु बनकर रह गई है। कोई आंख का अंधा भी प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र में खर्च होने वाली विशाल राशि को देख-सुन सकता है। दिल्ली में कुछ पत्रकारों व बुद्धिजीवियों ने ऐसे खर्चों पर निगरानी के लिए एक संगठन बना रखा है। उनके लिए शब्बीर का खुला आरोप एक चुनौती है। और चुनौती है चुनाव आयोग, आयकर विभाग तथा अन्य संबंधित एजेंसियों के लिए भी। अगर ये अंधे और बहरे नहीं हैं तो हम इन्हें आमंत्रित करते हैं महाराष्ट्र के चुनाव क्षेत्रों में भ्रमण के लिए। कोई भी सतर्क-ईमानदार पर्यवेक्षक शब्बीर को आरोप में निहीत सच्चाई को पकड़ लेगा। चुनौती है दिल्ली में गठित संगठन को भी। वे अपने प्रतिनिधि भेजें। खबरों के गोरखधंधे को वे अपनी आंखों से देख पाएंगे। क्या ऐसा हो पाएगा। शायद नहीं। क्योंकि 'हमाम में सभी नंगे' की कहावत अभी जीवित है-दफन नहीं हुई।

हाँ यह राष्ट्रीय शर्म ही है!

सचमुच भारत अजूबों का देश है। यहाँ वह सब कुछ होता है-हो सकता है- जिन पर पहले तो नहीं बाद में आंसुओं की नदियां बहा दी जाती हैं । आंसू बहाना हमारे यहाँ एक कला है । मैं यहाँ फिल्मों की बात नही कर रहा। मैं उन 'देश प्रेमियों' की बातें कर रहा हूं जो देश की पूज्य महान आत्माओं की जयंतियों पर उन्हें याद कर दहाडें मार कर रोते है कि काश ऐसी महान आत्माएं आज हमारे बीच मौजूद होतीं। इन अवसरों पर आयोजित समारोहों में उन आत्माओं के गुणों की चर्चा कर अनुसरण करने की सलाह दे कर वक्ता गण तालियाँ बटोरते हैं । ऐसी महान आत्माओं की अनुपस्थिती के कारण सामाजिक मूल्य और चरित्र पतन पर अलंकारिक शब्दो में चिंता व्यक्त कर युवा पीढ़ी को यह बताया जाता है कि दुखद रूप से उनका मार्ग-दर्शन करने वाली ऐसी आत्माएं आज मौजूद नही है। हां , महान आत्माओं के चित्रों पर माल्यार्पण कर, धूप-बत्तियां जलाकर यह संदेश देने की कोशिश अवश्य की जाती है कि उनके प्रति हमारे दिलों में सम्मान मौजूद है। उनके पद चिन्हों पर चलने को पूरा देश उत्सुक है। इस बिंदु पर एक कड़वा सच। दो चार अपवाद छोड़ दें तों ये कथित देशप्रेमी मंच पर सभागृह से बाहर आते ही कुछ इस ढंग से संास लेते हैं जैसे बड़ी मुश्किल से किसी कैद से छूट कर बाहर निकले हों। शराब पी कर शराबबंदी भाषण देने और लिखने वालों की तरह इनका भी कोई चरित्र नही होता। फिर क्या आश्चर्य कि दक्षिण आफ्रिका में जोहांसबर्ग में अनेक भारतीयों की मौजूदगी में हमारे महान राष्ट्र के राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के ऐतिहासीक घर को फ्रांस की एक पर्यटक कंपनी ने खरीद लिया। प्रतिदिन नये-नये अरबपतियों, खरबपतियों को पैदा करने वाला यह भारत देश इस खबर पर शर्मिंदा होगा? आफ्रिका से चल कर यह खबर भारत पहुंची, लोगों ने पढा-सुना फिर भूल गये । क्यो नही भारत के किसी अमीरजादे ने भारत की इस धरोहर को खरीदने की कोशिश की?
सिर्फ पौने दो करोड़ में ही तो बिका महात्मा का घर। साफ है कि धन, भावना और राष्ट्र-सम्मान के बीच फर्क का वर्ग आकलन करने में अक्षम है। यह वर्ग करोड़ों रूपये में क्रिकेट खिलाडिय़ों को खरीदता है, कलाकारों की पेटिंग्स खरीदता है- ड्राईंगं रूम में सजाने को, खेल और मनोरजंन -कार्यक्रमों को प्रायोजित करता है । लेकिन वाह! राष्ट्रीय सम्मान के प्रतीक महात्मा गांधी के घर को कोई भारतीय खरीदने को तैयार नही हुआ । भारतीय धनवानों की प्राथमिकताएं पहले की तरह इस बार भी कटघरे में पहुँच गयी । इस मामले का सर्वाधिक शर्मनाक पहलू तो यह है कि कुछ दिनों पूर्व भारत के कोयला मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल ने कोल इंडिया के माध्यम से राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के इस निवास को खरीदने की घोषण की थी । इस पवित्र कार्य के लिये जायसवाल ने कोयला कर्मियों से एक दिन का वेतन देने का भी आह्वान किया था । कोयला मंत्री का निर्णय और आह्वान कहाँ काफूर हो गये? भारत सरकार के इस प्रतिनिधि से देश की जनता यह जानना चाहती है? शर्म आनी चाहिये हमारे ऐसे सत्ताधारियों को । एक ओर तो पांच-सात सितारा होटलों में लाखों रूपये प्रतिदिन के किराये से 'सूट' लेकर भारत की 'अमीरी' को प्रदर्शित करते हैं, दूसरी ओर विदेश स्थित राष्ट्रसम्मान पर भारतीय आधिपत्य के लिये दो करोड़ रूपये भी खर्च नही कर सकते । तब क्या हम यह अर्थ निकाल लें कि भारत सरकार समेत भारत का धनवान वर्ग राष्ट्रीय सम्मान की भावना से अनभिज्ञ है? शर्म करे यह वर्ग । इनकी कृतघ्नता से विश्व समुदाय में भारत एक बार फिर शर्मसार हुआ।

Thursday, October 8, 2009

नहीं, अब दलित 'वोट बैंक' नहीं!

चलिए, हम राहुल गांधी की इस बात को मान लेते हैं कि वे जाति-व्यवस्था में विश्वास नहीं रखते। उनकी इस बात को भी मान लेते हैं कि उनका दलित संपर्क अभियान कोई राजनीतिक हथकंडा नहीं है। और, मान यह भी लेते हैं कि उनके सम्पर्क अभियान को मीडिया ने दलित की टोपी पहना डाला। लेकिन उनके इस अभियान ने पार्टी के अद्र्धज्ञानियों को निश्चय ही चौराहों पर दिशाहीन दौड़ के लिए प्रेरित किया। बगैर समझे-बूझे पार्टी के इस तबके ने राहुल गांधी की पहल को 'दलित-नाटक' में बदल डाला। मेंढकी उछाल के लिए विख्यात मीडिया को तो मौका चाहिए था। उसने 'नाटक' के रूप में इसका भरपूर प्रचार किया। वह यह बताने से भी नहीं चूका कि विदर्भ में किसानों की आत्महत्या की गूंज के बीच जब आत्महत्या करने वाले एक किसान की विधवा के घर राहुल पहुंचे, उसके लिए भरपूर आर्थिक मदद की व्यवस्था की गई। लेकिन उसके तत्काल बाद संपन्न लोकसभा चुनाव में कांग्रेसी उम्मीदवार उस क्षेत्र से पराजित हो गया। सिर्फ उस क्षेत्र यवतमाल में ही कांग्रेस पराभूत नहीं हुई बल्कि आसपास के निर्वाचन क्षेत्रों में भी उसे मुंह की खानी पड़ी। मीडिया ने राहुल को यह बताकर शायद उत्तर प्रदेश में उनके नए अभियान को हतोत्साहित करने की कोशिश की। इस मुकाम पर राहुल की प्रशंसा की जानी चाहिए कि वे ऐसे आक्रमण के बावजूद विचलित नहीं हुए। उन्होंने साफ कर डाला कि राजनीतिक लाभ-हानि से इतर वे शोषित वर्ग के उत्थान के लिए अभियान चला रहे हैं और चलाते रहेंगे। एक दार्शनिक की भांति उन्होंने ऐसी टिप्पणी भी की कि जिस दिन उनकी सीखने की प्रक्रिया समाप्त हो जाएगी, उसी दिन उनकी मौत हो जाएगी। राजनीति में सक्रिय प्रवेश के बाद राहुल की गतिविधियों पर नजर रखने वालों में से एक मैं आज यह कह सकता हूं कि वे तेजी से राजनीतिक परिपक्वता प्राप्त करने की ओर अग्रसर हैं। हां, उन्हें यह अवश्य प्रमाणित करना होगा कि वे अपनी यात्रा में 'ईमानदार' रहेंगे। चूंकि उन्होंने सीखने की बात कही है तो यह जरूरी है कि वे विषय की बारीकी और शब्दों के अर्थ का गंभीर अध्ययन अवश्य करें। तिरुअनंतपुरम में उन्होंने एक उद्धरण प्रस्तुत करते हुए बताया कि वे एक चाय की दुकान चलाने वाले के पास गये लेकिन उससे यह नहीं पूछा कि क्या वह दलित है। यह अच्छी बात है किन्तु राहुलजी इस बात को हृदयस्थ कर लें कि जब तक समाज में यह 'दलित' शब्द जीवित रहेगा, वर्ग भेद भी जीवित रहेगा। बेहतर हो कि राहुलजी चायवाले की तरह अपने पूरे अभियान में यह सुनिश्चित करें कि दलित शब्द का इस्तेमाल कहीं ना हो। प्राचीन रूढि़वादी भारतीय समाज का रातोंरात कायाकल्प संभव नहीं, भारत की विशाल आबादी का वर्गीकरण हजारों वर्ष पहले हो चुका है। हां, आधुनिक सभ्य समाज इसका आग्रही नहीं है। किन्तु, इस व्यवस्था के खिलाफ निर्णायक लड़ाई के लिए गंभीरता से कोई सामने नहीं आता। शब्द और कर्म का फर्क इस मामले में जगजाहिर है। मुझे एक घटना आज भी झकझोर जाती है। बाबू जगजीवन राम तब रेल मंत्री थे। पटना में वे एक बार अपने एक पुराने मित्र के घर उनसे मिलने गए। चाय-नाश्ता हुआ, बातें हुईं। मैं यह देखकर स्तब्ध रह गया कि जगजीवन राम के जाने के पश्चात उनके मित्र के घर की महिलाओं ने उन बर्तनों को जिसमें उन्होंने नाश्ता किया था, बार-बार धोया, पोंछा और आग दिखाई- पवित्र करने के लिए। तब से और आज में फर्क तो है लेकिन ऐसी मानसिकता अभी पूर्णत: खत्म नहीं हुई है। ऐसी घटनाओं के बाद मायावती आरोप लगाती हैं कि दलित के घर से वापस लौट राहुल गांधी विशेष साबुन से स्नान करते हैं। इसे खत्म करना होगा। लेकिन इसके लिए जरूरत है राजनीतिक इमानदारी की। राहुल गांधी अगर सचमुच इस वर्ग के लोगों के उत्थान के प्रति गंभीर हैं, तब उन्हें यह सुनिश्चित करना होगा कि 'मुस्लिम वोट बैंक' की तरह 'दलित वोट बैंक' को अन्जाम न दिया जाए। वे सीख रहे हैं तो हम उन्हें बता दें कि हर दल की तरह उनकी कांग्रेस पार्टी भी फिलहाल 'दलित वोट बैंक' के आकर्षण से बंधी हुई है। यह एक सर्वविदित सचाई है। चुनौती है, राहुल गांधी को कि वे अपने शब्दों पर कायम रहते हुए जाति-व्यवस्था के खिलाफ वर्ग-विशेष की राजनीति करने से अपनी पार्टी कांग्रेस को रोक दें। शायद तब अन्य दल भी अनुसरण करने को बाध्य हो जाएं।

Tuesday, October 6, 2009

...तब 'सत्यभक्षी' बन जायेंगे अखबार!

कहते हैं कि प्रभाष जोशी अनेक युवा पत्रकारों के प्रेरणा-स्रोत हैं। मेरे मन में भी इस आकलन पर कोई संशय नहीं। यह दीगर है कि पत्रकारों का एक वर्ग इस बात को स्वीकार करने को तैयार नहीं। तथापि यह सच तो अपनी जगह कायम है कि प्रभाषजी पढ़े जाते हैं, सुने जाते हैं। ऐसे ही पढऩे वाले लोगों के मन में उठ रही एक शंका बेचैन कर रही है। जोशीजी लोकतंत्र के बाजार में बिक रहे पत्रकार और मुनाफे के लिए पत्रकारिता के हर सिद्धांत को ठेंगा दिखाने में अग्रणी समाचार पत्रों की खबर लेने का अभियान चला रहें है। ऐसे अखबारों में उन्होंने टाइम्स ऑफ इंडिया पर सीधा आरोप लगाया है कि उसने खबरों को पैसे ले कर छापने का काला धंधा शुरु किया है। इस बिंदु पर एतराज स्वाभाविक है। शायद दिल्ली में रहने के कारण उनकी नजर टाइम्स ऑफ इंडिया पर पड़ी। किंतु प्रभाषजी, आप जरा देश के विभिन्न भागों से निकल रहे बड़े-छोटे-मंझोले अखबारों द्वारा जारी खबरों के गोरखधंधे की छान-बीन करें तो पता चलेगा कि असल में पैसे लेकर खबरों को छापने का काला धंधा इन्होंने शुरू किया हुआ है। इसकी शुरूवात 1995 के विधानसभा चुनावों के साथ हुई थी।
चुनाव के दौरान उम्मीदवारों के खर्चों पर चुनाव आयोग और आयकर विभाग की कड़ी नजर के कारण अखबारों के मालिकों के साथ मिलकर उम्मीदवारों ने इस गोरखधंधे का इजाद किया। टाइम्स ऑफ इंडिया जैसा बड़ा अखबार भी अगर इस गोरखधंधे में शामिल हो गया है तब शायद वह दिन दूर नहीं जब चुनावी खबरें ही नहीं अन्य सभी खबरें भी 'भुगतानीÓ होंगी। चाहे खबरें राजनीति से जुड़ी हो या खेल,व्यापार,शिक्षा,मनोरंजन आदि-आदि क्षेत्रों से। और तब अखबार खबरों के मामलें में 'सत्यभक्षीÓ बनकर रह जायेंगे।
कहीं पढ़ा था कि कुछ अखबार सम्पादीय भी बेचने लगे हैं। फिर शेष क्या रह जायेगा। विभिन्न कॉरपोरेट घरानों द्वारा प्रकाशित 'हाउस मैगजिनÓ और अखबारों में काई फर्क नहीं बचेगा। जोशीजी एवं उनके मित्रों ने मीडिया पर लोक-निगरानी का लोक-संगठन खड़ा करने का निर्णय किया है। इसका स्वागत किया जाना चाहिये। किन्तु, ऐसा लोक-संगठन हमेशा विश्वसनीयता का आग्रही होगा। पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान खबरों के ऐसे गोरखधंधों के खिलाफ भी जोशीजी ने अभियान चलाया था तब स्वयं जोशीजी को अनेक लोगों ने कटघरें में खड़ा कर दिया था। उनके अभियान की ईमानदारी पर सवालिया निशान लगाये जाये। आरोप लगे कि उनका अभियान भेद-भाव से अछूता नहीं था। इस पाश्र्व में प्रभाष जोशी को अग्नि परिक्षा से गुजरना होगा। खबरों के ऐसे गोरखधंधे पर अंकुश लगाने की जिम्मेदारी से मुंह नहीं मोड़ा जाना चाहिये। सरकारी स्तर पर नियम-कानून बना एसा नहीं किया जा सकता। मै समझता हूं, स्वयं पाठकों को सामने आना होगा। क्योंकि, अगर यह प्रवृत्ति जारी रही तो अंतत: इसकी पीड़ा उसेही झेलनी है। सुबह-सुबह सत्य की जगह प्रायोजित खबरें उनके हिस्से में आयेगी। खबरों द्वारा ज्ञान-वृद्धि की तब कोई सोच भी नहीं सकता। उसे तो हर दिन मिलेगा सिर्फ झूठ और झूठ का पिटारा। जोशीजी व उनके मित्र ऐसे संभावित परिणाम से परीचित ही होंगे। फिर ऐसा क्यों कि कुछ राज्यों में चल रहे विधानसभा चुनाव अभियान के दौरान नहीं बल्कि इसके बाद ठोस कदम उठाने की बातें वे कर रहे हैं। चुनाव में अखबारों के बर्ताव का अध्ययन कर अगर वे चुनाव आयोग या प्रेस परिषद में शिकायत करते भी हैं तब मिलने वाले परिणाम की कल्पना कठिन नहीं। पिछले लोकसभा चुनाव के पश्चात ऐसे अध्ययन और शिकायत का हश्र देखने के बाद ताजा पहल के प्रति अगंभीरता आश्चर्यजनक नहीं। बेहतर होगा पाठकों की सहभागिता वाला कोई ऐसा अभियान चलाया जाये जो तार्किक परिणति पर पहुंचने तक अटूट रहे।

दफन हो गई सीबीआई की साख

केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) के पूर्व निदेशक जोगिंदरसिंह के इस दावे को कोई चुनौती देगा कि ''बोफोर्स आरोपियों के खिलाफ ठोस सबूत नहीं होने की बात सफेद झूठ है!ÓÓ हमारे देश की शीर्ष खुफिया जांच एजेंसी उसी सीबीआई के निदेशक रह चुके हैं जोगिंदरसिंह, जिसने बोफोर्स मामले को इस आधार पर मौत दे दी कि मुकदमा जारी रखना अनुचित होगा। अदालत में एजेंसी ने मामला खत्म करने का आवेदन सद् भावना और जनहित में दिया। यह कथन है सीबीआई का। लगभग 22 वर्ष पूर्व बोफोर्स मामले के उजागर होने के बाद आक्टिविया क्वात्रोकी मुख्य अभियुक्त बनाए गए थे। आरोप लगे थे कि क्वात्रोकी तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी की पत्नी अब कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी के काफी निकट हैं। 1986 मेें बोफोर्स दलाली मामले का विस्फोट होने के बाद स्वीडन के प्रधानमंत्री की रहस्यमय परिस्थितियों में हत्या कर दी गई थी, तब संदेह के अनेक बादल उमड़े थे। दलाली मामले में विपक्ष ने ही नहीं, सत्ता पक्ष के कुछ लोगों ने राजीव गांधी को सीधे कटघरे में खड़ा कर दिया था। राजीव मंत्रिमंडल के वरिष्ठ सदस्य विश्वनाथप्रतापसिंह बगावत कर बैठे। उन्होंने कांग्रेस छोड़ जनमोर्चा का गठन किया और 1989 के लोकसभा चुनाव में बोफोर्स को चुनाव का राष्ट्रीय मुद्दा बनाकर चुनौती दे डाली। कांग्रेस पराजित हुई और विश्वनाथप्रतापसिंह प्रधानमंत्री बने। तब कहा गया था कि चुनाव परिधाम सत्ता के भ्रष्टाचार के खिलाफ जनता का फैसला है। लोकतंत्र की वह बड़ी विजय थी। फिर आज उसी लोकतंत्र में ऐसा क्यों हो रहा है कि बोफोर्स पर सरकारी निर्णय घोर शासकीय अराजकता को चिन्हित कर रहा है। देश की सर्वोच्च खुफिया जांच एजेंसी सीबीआई को शासकों के पक्ष में रेंगते देखा जा रहा है। सीबीआई और सरकार के तर्कों को सीबीआई के ही एक पूर्व निदेशक चुनौती दे रहे हैं। सरकार के इस दावे को कि क्वात्रोकी के खिलाफ कोई सबूत नहीं है, जोगिंदरसिंह सफेद झूठ निरूपित कर रहे हैं। किसी स्वतंत्र संस्था से सर्वेक्षण करा लें, देश का बहुमत जोगिंदरसिंह के समर्थन में खड़ा मिलेगा। बोफोर्स प्रकरण के दो दशक की यात्रा के दौरान जो-जो तथ्य उभरकर सामने आए, वे चीख-चीखकर कह रहे हैं कि सीबीआई के पास पूरे प्रमाण तो हैं किंतु वह सरकार के दबाव में सबूतों को झुठला गई। सचमुच यह आश्चर्यजनक है कि जो दस्तावेज स्वयं बोफोर्स कंपनी ने सीबीआई व भारत सरकार को उपलब्ध कराए थे, उन्हीं दस्तावेजों को स्वयं सरकार ने झुठला दिया। हमें पीड़ा हो रही है किंतु उपलब्ध तथ्यों के आलोक में हम यह कहने को मजबूर हैं कि सीबीआई ने सत्ता केंद्र के एक पुराने एजेंडे को पूरा कर दिया। किस कीमत पर? स्वयं अपनी साख और विश् वसनीयता की कीमत पर? अर्थात् सिर्फ बोफोर्स का भूत ही मरा, सीबीआई की साख भी दफन हो गई।

नहीं! राहुलजी, आप सिर्फ पोते नहीं!

राहुल गांधी फिर चूक कर बैठे। देश और कांग्रेस के इतिहास का या तो इन्हें ज्ञान नहीं या फिर ये देश की पूरी जनता को अज्ञानी मान बैठे हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो राहुल गांधी उत्तरप्रदेश में अपने जनसंपर्क अभियान के दौरान यह कदापि नहीं कहते कि ''...मेरा परिवार एक बार जो ठान लेता है उसे पूरा करके ही छोड़ता है। यह मत भूलिए कि मैं इंदिरा गांधी का पोता हूं।ÓÓ इन शब्दों को उछालकर आखिर राहुल गांधी देश को क्या संदेश देना चाहते हैं? यह ठीक है कि इंदिरा गांधी ने देश को एक मजबूत नेतृत्व प्रदान किया था। अंतरराष्ट्रीय समुदाय में भारत को एक सम्मानजनक स्थान दिलवाया था। भारत की छवि एक शक्तिशाली देश के रूप में स्थापित की थी किंतु, सच यह भी है कि उन्हीं के शासनकाल में देश में आपातकाल की आड़ में भारत की जनता को उसके मौलिक अधिकारों से वंचित कर दिया गया था। आजाद भारत के हजारों नागरिकों को जेल की सींखचों के पीछे धकेल दिया गया था। ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ आजादी की लड़ाई में शिरकत करने वाले अनेक नेताओं, कलम के धनी लेखकों, पत्रकारों व बुद्धिजीवियों को भी महीनों जेलों में ठूंस दिया गया था। विधायिका और कार्यपालिका को तो छोडि़ए न्यायपालिका तक को उनकी औकात बताने की कोशिशें भी उस काल में की गईं थीं। आजाद भारत का लोकतंत्र तब मातम का स्याह चादर ओढ़ सिसकने को मजबूर था। यह सब इतिहास में दर्ज है। दर्ज यह भी है कि जब 1965 में तत्कालीन प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री ने टी.टी. कृष्णमाचारी को मंत्रिमंडल से हटा दिया था, तब इंदिरा गांधी ने टिप्पणी की थी ''...अब शायद मुझे भी अमेरिकी दबाव में बाहर का रास्ता दिखा दिया जाएगा।ÓÓ इंदिरा गांधी तब शास्त्री मंत्रिमंडल में सूचना मंत्री थें। यही नहीं, तब उन्होंने अपने विश्वस्त राजा दिनेशसिंह से यह मालूम करने के लिए कहा था कि इंग्लैंड में रहने पर क्या खर्च आएगा। जानकारी मिलने पर उन्होंने टिप्पणी की थी कि पिता जवाहरलाल नेहरू की पुस्तकों की रायल्टी से वह इंग्लैंड में वह अपने खर्च की व्यवस्था कर लेंगी। साफ है कि तब इंदिरा गांधी देश छोडऩे का मन बना रही थीं। राहुल गांधी को अगर इन बातों की जानकारी नहीं है तब वे प्रसिद्ध पत्रकार कुलदीप नैयर की पुस्तक 'द स्कूपÓ के पन्नों को पलट लें। किसी व्यक्ति विशेष का उद्धरण देने के पूर्व उसके इतिहास, उसके पाश्र्व, उसके चरित्र की जानकारी अवश्य हासिल कर लेना चाहिए। मैं इस बिंदु पर स्पष्ट कर देना चाहूंगा कि इंदिरा गांधी के इस पाश्र्व का उल्लेख करने के पीछे कोई दुर्भावना नहीं है। राहुल गांधी ने उप्र और हिंदुस्तान की तस्वीर बदलने की ठान ली है, यह अच्छी बात है। जातिय और धर्म से पृथक 'एक हिंदुस्तानÓ के पक्ष में बातें कर राहुल गांधी ने युवा पीढ़ी को एक निश्चित मार्ग दिखाया है। यह सराहनीय है, अनुकरणीय है। किंतु, अगर वे सचमुच जाति-धर्म, दल-परिवार से पृथक ईमानदारी से हिंदुस्तान अर्थात् भारत की तस्वीर बदलना चाहते हैं, तब उन्हें परिवार का मोह छोडऩा पड़ेगा। वे यह न भूलें कि हिंदुस्तान की संवेदनशील जनता 'मैंÓ के अहम् को बर्दाश्त नहीं करती। उप्र के पिछले विधानसभा चुनाव अभियान के दौरान जब उन्होंने बाबरी मस्जिद विध्वंस की चर्चा करते हुए यह कह डाला था कि अगर नेहरू-गांधी परिवार कोई व्यक्ति प्रधानमंत्री होता तो मस्जिद नहीं गिरती, तब उप्र की जनता ने कांग्रेस को पराजित कर उन्हें उत्तर दे दिया था। लोकतंत्र सामूहिक नेतृत्व का आग्रही होता है, व्यक्तिवादी नेतृत्व का नहीं। राहुल गांधी के सलाहकार (अगर हैं) इस बात की गांठ बांध लें और राहुल भी यह समझ लें कि अगर वे इंदिराजी के पोते के रूप में स्थापित होना चाहते हैं तब उन्हें इंदिराजी के जीवन के उन अंशों को आत्मसात् करना चाहिए जो एक कुशल समर्पित राजनेता एवं शासक के रूप में चिन्हित हैं। सत्ता-सुख के लिए लोकतंत्र विरोधी कृत्य की अपराधी इंदिरा गांधी के जीवन के स्याह अंशों को राहुल एक सीख के रुप में याद रखें। अन्यथा, इंदिरा गांधी के पोते के रूप में राष्ट्रीय स्वीकृति कठिन होगी।