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Sunday, March 28, 2010

जनता की याददाश्त को चुनौती न दें!

ऐसा क्यों है कि आज के पेशेवर राजनीतिक देश की सोच-समझ-ज्ञान को बेशर्मी से जब चाहा तब चुनौती दे डालते हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि इन लोगों ने देश की जनता को स्थाई रूप से मूर्ख और अल्पज्ञानी मान लिया है? देश की याददाश्त को भी ये ठेंगे पर रखने के आदी दिखने लगे हैं। इस वर्ग में पक्ष-विपक्ष दोनों के नेता शामिल हैं। यह सचमुच देश के लिए विचारणीय है। लगभग सवा सौ आबादी वाला भारत देश आखिर कब तक मुट्ठी भर ऐसे अल्पज्ञानी नेताओं के तमाचे सहता रहेगा। इन्हें जवाब दिया जाना चाहिए। ऐसा करारा जवाब कि भविष्य में ये देश की समझ को कम आंकने की गलती न दोहराएं।
गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी 8 वर्ष पूर्व के गुजरात दंगों की जांच के लिए गठित विशेष जांच दल (एसएईटी) के समझ उपस्थित क्या हुए कि नेताओं ने नैतिकता का झंडा ले ज्ञान बखारना शुरु कर दिया। कांग्रेस की ओर चुनौती दी गई कि यदि बीजेपी में जरा भी नौतिकता होती तो वह ऐसे उच्च पद को बदनाम किए जाने से पहले मोदी से पद से हटने को कहती। जांच टीम के समक्ष मोदी के पेश होने से संवैधनिक मुख्यमंत्री का पद बदनाम हुआ है। यह भी कहा गया कि जनता की नजर में मोदी दोषी हैं। अब कोई कांग्रेस से यह पूछे कि इंदिरा गांधी तो प्रधानमंत्री पद पर रहते हुए अदालत में हाजिर हुईं और मुकदमा हार भी चुकीं थीं। इसके बावजूद उन्होंने पद से इस्तीफा देना तो दूर, सत्ता में बने रहने के लिए देश को आपातकाल के हवाले कर दिया था। आम जनता से उनके मौलिक अधिकार छीन उसे न्याय से भी दूर कर दिया था। ऐसे में तुलनात्मक दृष्टि से नरेंद्र मोदी का मामला तो अत्यंत ही क्षीण है। मोदी के खिलाफ कोई मामला दर्ज नहीं है। उन्हें तो एक पीडि़त की शिकायत पर जांच दल ने पूछताछ के लिए बुलाया था। फिर कांग्रेसी किस आधार पर मोदी से इस्तीफे की मांग करने लगे। हास्यास्पद है उनकी मांग। रही बात मोदी के मुख्यमंत्रित्व काल में सांप्रदायिक दंगों की तो मैं चाहूंगा कि आरोप लगाने वाले इतिहास के पन्नों को पलटकर देख लें। स्पष्ट कर दूं कि मैं किसी भी प्रकार के दंगों का विरोधी हूं। खून-खराबे का समर्थन कोई भी समझदार नहीं कर सकता। जाति व संप्रदाय के नाम पर एक-दूसरे का गला काटने वाले सभ्य समाज के मानव हो ही नहीं सकते। वे तो दरिंदगी का प्रदर्शन करने वाले दरिंदे होते हैं। दंगों का शर्मनाक इतिहास पुराना है। अगर, दंगों के वक्त के शासन अथवा शासक को दोषी ठहराया जाए तो अनेक कड़वे सच उभर कर सामने आएंगे। हालांकि ऐसी तुलना को मैं गलत मानता हूं। किंतु जब अल्पज्ञानी या अधकचरे ज्ञान रखने वाले नेता देश को भ्रमित करने की कोशिश करते दिखते हैं, तब उन कड़वे सच से परदा तो उठाना ही होगा। आजादी के तत्काल बाद के दंगों को याद करें। लगभग 10 लाख हिंदु-मुसलमान बेरहमी से मौत के घाट उतार दिए गए थे। तब देश पर किसका शासन था? बेहतर हो जवाब कांग्रेस ही दे दे। प्रसंगवश 1984 के सिख विरोधी दंगों को भी उद्धृत करना चाहूंगा। तब लगभग 4 हजार सिख मार डाले गए थे। कौन थे मारने वाले? इसका जवाब भी कांग्रेस ही दे। मोदी पर आरोप लगाने वाले कह रहे हैं कि गुजरात दंगों की परिणति पर नरेंद्र मोदी ने प्रसन्नता जाहिर की थी। ठीक उसी प्रकार जैसे अब कहा जा रहा है कि 1992 में अयोध्या बाबरी मस्जिद ढ़ांचे को गिराए जाने पर लालकृष्ण आडवाणी ने प्रसन्नता व्यक्त करते हुए कहा था कि 'बहुत बढिय़ा'। अगर मोदी और आडवाणी के उपर लगाए गए येआरोप सही हैं तब इनकी निंदा होनीचाहिए। लेकिन इसके साथ ही 1947 और 1984 के दंगों के समय तब के प्रधानमंत्रियों की टिप्पणियों की निंदा भी होनी चाहिए। 1947 में प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु ने टिप्पणी की थी कि 'हम सिर कटाकर,सिर दर्द से छुटकारा पा रहे हैं।' क्या इसकी व्याख्या की जरूरत है? अब बात 1984 की। तब के प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने सिखों के संहार पर कोई अफसोस जाहिर करने की बजाए अपरोक्ष में संहार का समर्थन किया था, यह टिप्पणी कर कि '...जब कोई बड़ा वृक्ष गिरता है,तब धरती हिलती ही है।' अर्थात इंदिरा गांधी की एक सिख द्वारा हत्या कर दिए जाने के बाद सिख संहार पर आश्चर्य क्या? गुजरात दंगों की जांच के लिए विशेष जांच दल गठित करने वाले सुप्रीम कोर्ट से यह पूछा जाना चाहिए कि तब सिख संहार की जांच के लिए उसने विशेष दल का गठन क्यों नहीं किया? प्रधानमंत्री राजीव गांधी से तब पूछ ताछ क्यों नहीं की गई। संहार के 26 साल बाद भी संहार के असली दोषी बेखौफ घूम रहे हैं। बल्कि सच तो यह है कि जनता की नजरों में संहार के दषियों को सत्ता की कुर्सियां सौंपी गईं। आज मोदी से इस्तीफा मांगने वाले अपने गिरेबां में झांकें। जनता की यादादाश्त को चुनौती देने की हिमाकत न करें।

Saturday, March 27, 2010

स्वीकार्य नहीं लाचार न्यायपालिका!

नहीं! इसे स्वीकार करना सहज नहीं। देश का सर्वोच्च न्यायालय लाचार कैसे हो सकता है! संसदीय प्रणाली, संविधान और कानूनों में मौजूद अनेक छिद्रों के कारण उत्पन्न भ्रष्टाचार के दानव पर तब अंकुश कौन लगाएगा? विधायिका को संचालित करने वाले राजनेता और कार्यपालिका के वाहक अधिकारियों ने ही तो इस दानव को भोजन-पानी मुहैय्या कराया है। अब अगर न्यायपालिका की ओर से लाचारी के स्वर उभरते हैं तब देश को कौन बचा पाएगा! लोकतंत्र के इन तीन पायों को सुरक्षित-मजबूत रखने की जिम्मेदारी कोई लेगा? इन तीनों के अलावा चौथे स्तंभ के रूप में मान्यता प्राप्त 'प्रेस', जिसने मीडिया का शक्ल अख्तियार कर लिया है, से अपेक्षा तो है किंतु कुछ अपवाद छोड़ इसके सदस्य भी भोंपू बन रेंगते नजर आने लगे हैं। सुविधाभोगी बन जाने के कारण ये भ्रष्टों के साथ गलबहियां नहीं कर रहे हैं? तो क्या देश समर्पण की मुद्रा में तटस्थ अपने विनाश की प्रतीक्षा करे? नहीं, यह स्थिति भी स्वीकार्य नहीं। भारतीय न्यायपालिका तुलनात्मक दृष्टि से अभी भी स्वतंत्र है, मजबूत है। उनकी ओर से यदा-कदा निकलने वाले वेदना के स्वर का संज्ञान पूरा देश ले। मीडिया में मौजूद अपवादों को सम्मान दिया जाए, मजबूत किया जाए। यह मान कर चला जाए कि अभी भी विलंब नहीं हुआ है।
सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सिक्किम के मुख्यमंत्री पवन कुमार चामलिंग के खिलाफ जांच का निर्देश दिए जाने से इनकार के कारण ऐसे सवाल खड़े हुए हैं। सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय खंडपीठ का आदेश न्याय संगत हो सकता है, किंतु सहज स्वीकार नहीं किया जा सकता। न्यायालय का यह कहना भ्रमित करने वाला है कि याचिकाकर्ता के पास अगर मुख्यमंत्री के खिलाफ पर्याप्त कारण हैं तब वे जांच एजेंसी से संपर्क करें। न्यायालय का यह तर्क कि अगर वह मुख्यमंत्री के खिलाफ मामला चलाने का निर्देश देती है, तब वह गंभीर पूर्वाग्रह का कारण बन सकता है, तर्कसंगत नहीं है। इसके पूर्व अनेक मामलों में विभिन्न उच्च न्यायालयों व सर्वोच्च न्यायालय योग्यता के आधार पर मामले चलाने के निर्देश दे चुके हैं। नेताओं के खिलाफ भी, संस्थाओं के खिलाफ भी। अदालतें जब हस्तक्षेप कर ऐसे जांच के आदेश देती हैं, तब प्रभावित पक्ष की ओर से पूर्वाग्रह की बातें पहले भी की जाती रहीं हैं। यह तो एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। पूर्वाग्रह की आशंका को आधार बना अदालतें अगर अपनी जिम्मेदारी से पीछे हटती रहीं तब लोग-बाग किस दरवाजे पर दस्तक देंगे। सिक्किम के मुख्यमंत्री के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोप लगाए गए हैं। उसी प्रकार जिस प्रकार बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्र, लालू प्रसाद यादव, राबड़ी देवी, और महाराष्ट्र के ए. आर. अंतुले, हिमाचल के सुखराम, झारखंड के शिबू सोरेन, गुजरात के नरेंद्र मोदी, तामिलनाडू की जयललिता व रामविलास पासवान के खिलाफ लगे थे। इन सभी के खिलाफ जांच के निर्देश विभिन्न अदालतों ने जारी किए थे। तब तो अदालतों ने पूर्वाग्रह के कोण पर विचार नहीं किए थे। आज सिक्किम के मुख्यमंत्री के मामले में अदालत पीछे हट रही है, तब उनके इस कदम पर सवालिया निशान तो लगेंगे ही। अदालतों की तटस्थता, भ्रष्टाचार के दानव को तांडव करने में मददगार साबित होगी। अदालतों की लाचारी खतरनाक रूप से देश की लाचारी बन जाएगी। और तब नैतिकता, ईमानदारी, मूल्य-सिध्दांत के साथ-साथ लोकतंत्र, संविधान, कानून सभी मटियामेट हो जाएंगे। घोर अराजकता के बीच उदित भ्रष्टाचार खुलकर अट्टाहासें लगाता दिखेगा। संसदीय प्रणाली में अहम बल्कि निर्णायक भूमिका में मौजूद राजनीतिकों के लिए चरित्र अब कोई मायने नहीं रखता। फिर भ्रष्टाचार तो पनपेगा ही। बल्कि अब तो उसने विशाल वृक्ष का रूप ले लिया है। इनपर अंकुश लगाने तथा दंडित करने वाली संस्था न्यायपालिका ने स्वयं को असहाय बताकर भारतीय लोकतंत्र के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिन्ह खड़ा कर दिया है। सर्वोच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश मार्कण्डेय काटजू की इस टिप्पणी पर गौर करें-'हिंदुस्तान में सब लोग भ्रष्ट हैं। ये भ्रष्टाचार कभी ठीक नहीं हो सकता। मेरा वहम था कि मैं भ्रष्ट लोगों को ठीक कर सकता हंू। अब मैं समझ गया कि भ्रष्ट लोगों को ठीक करने का कोई चारा नहीं हैं।' न्यायमूर्ति काटजू के इन शब्दों में निहित लाचारी खतरनाक है। दु:ख तो इस बात का है कि सिक्किम के मुख्यमंत्री के मामले में भारत के मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली खंडपीठ द्वारा अपनाया गया रुख न्यायमूर्ति काटजू की लाचारी के एक कारण की पुष्टि कर गया।

Friday, March 26, 2010

अमिताभ, क्यों कहर है बरपा !

कॉंग्रेस पार्टी में ' परिवार' के आतंक का ताजा उदाहरण लोकतंत्र को चुनौती देने वाला है। यह पुन: चिन्हित हुआ कि कांग्रेस सोती है तो ' परिवार' के इशारे पर, जागती है तो ' परिवार' के इशारे पर। नहीं, मैं यहां संघ परिवार की बात नहीं कर रहा, मैं उस परिवार की बात कर रहा हूँ जो नई दिल्ली के 10 जनपथ में वास करता है। इंदिरा गांधी के समय कहा जाता था कि कांगे्रस शासित राज्यों के मुख्यमंत्री ' टायलेट' भी जाते थे तो उनकी अनुमति लेकर। बात मजाक की थी किन्तु कांग्रेस की नवसंस्कृति की परिचायक भी। कांग्रेसियों ने चूंकि उस संस्कृति को आत्मसात् कर लिया था, लोग-बाग अचंभित नहीं होते थे। महानायक अमिताभ बच्चन की मुंबई में एक सरकारी कार्यक्रम में उपस्थिति को लेकर मचा महासंग्राम आश्चर्यजनक है। सरकार में भागीदार राष्ट्रवादी कांग्रेस के लोकनिर्माण मंत्री जयदत्त क्षीरसागर ने बच्चन को निमंत्रित किया। बच्चन चले आए। बेचारे क्षीरसागर को क्या पता था कि कांग्रेस का दिल्ली नेतृत्व अमिताभ बच्चन को एक आतंकवादी से कम नहीं समझता? महाराष्ट्र में कांग्रेस नेतृत्व की सरकार के कार्यक्रम में अमिताभ की मौजूदगी पर उसने आंखें तरेरी। कांग्रेस में भूचाल आ गया। पूछा गया कि बच्चन को कार्यक्रम में आमंत्रित करने की हिमाकत किसने की? लोकनिर्माण मंत्री ने ताबड़-तोड़ बयान दे डाला कि '........निमंत्रण मैंने भेजा था ........ मुख्यमंत्री को इसकी जानकारी नहीं थी।' बेचारे मंत्री यहीं पर फंस गए। वे भूल गए कि उनसे यह तो नहीं पूछा गया था कि मुख्यमंत्री को आमंत्रण की जानकारी थी या नहीं। चोर की दाढ़ी में तिनका वाली कहावत यहां बिल्कुल सटीक साबित हुई। वैसे उलझ तो स्वयं मुख्यमंत्री भी गए। कह डाला कि अमिताभ बच्चन के संबंध में उन्हें भी कोई पूर्व सूचना नहीं थी। जबकि मुंबई के अखबारों में अमिताभ बच्चन के चित्र के साथ कार्यक्रम संबंधित विज्ञापन छपे थे। दरअसल कांग्रेस में किसी ने कल्पना नहीं की थी कि अमिताभ की कार्यक्रम में उपस्थिति को लेकर ऐसा बवाल खड़ा होगा। ये वही अमिताभ बच्चन हैं जो कभी अपने मित्र, देश के प्रधानमंत्री (तत्कालीन) राजीव गांधी, पत्नी सोनिया गांधी व उनके पारिवारिक मित्रों के मनोरंजन के लिए गाना गाया करते थे, नाच किया करते थे। लेकिन आज अमिताभ कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की आंखों की किरकिरी बने हुए हैं। इतनी कि गांधी परिवार उनका नाम भी नहीं सुनना चाहता। अब विचारणीय यह कि क्या एक व्यक्ति की पसंद-नापसंद के आधार पर कांग्रेस पार्टी संचालित होगी? अकादमिक दिलचस्पी के ऐसे सवाल पार्टी नेतृत्व को नहीं भाते। लोकतंत्र के आवरण तले व्यवहार के स्तर पर राजतंत्र अथवा परिवार तंत्र चलाने वाला व्यक्ति प्रथमत: स्वहित की सोचता है, देश अथवा पार्टी हित बाद में। इसके लिए वह साम-दाम-दंड-भेद किसी से परहेज नहीं करता। फिर पार्टी में व्याप्त भय पर आश्चर्य क्या? रीढ़विहीन अन्य नेता झुकने, रेंगने को तत्पर। अमिताभ बच्चन के मामले में यही तो हुआ है। कांग्रेस नेतृत्व की नापसंदगी के कारण अमिताभ को निशाने पर लिया गया, ' जो (व्यक्ति) हमारे विरोधियों के साथ खड़ा है, हमारी नाराजगी उससे है।' इस बयान के दो अर्थ निकलते हैं। एक तो अमिताभ बच्चन का भाजपा शासित गुजरात का ब्रांड एम्बेसेडर होना। दूसरा राष्ट्रवादी कांग्रेस के मंत्री द्वारा अमिताभ को आमंत्रित किया जाना।
भाजपा और राकांपा दोनों ने आमंत्रण को जायज ठहराते हुए बिलकुल सही रुख दर्शाया है। राष्ट्रवादी कांग्रेस की ओर से साफ कर दिया कि अमिताभ कोई आतंकी नहीं हैं, उन्हें आगे भी बुलाया जाता रहेगा। शरद पवार की पार्टी राष्ट्रवादी कांग्रेस के इस रुख पर कांग्रेस नेतृत्व के जवाब की प्रतीक्षा रहेगी। भाजपा ने भी साफ कर दिया कि सरकारी कार्यक्रम किसी दल विशेष का निजी कार्यक्रम नहीं होता। ऐसे कार्यक्रमों में विपक्ष सहित अन्य क्षेत्रों के लोग भी मौजूद रहते हैं। अमिताभ बच्चन उपस्थित हुए तब कांग्रेस नेतृत्व बेचैन क्यों हो गया? कार्यक्रम में कांग्रेसी मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण को प्रसन्न मुद्रा में अमिताभ बच्चन के साथ बातचीत करते सभी ने देखा। महाराष्ट्र कांग्रेस को अमिताभ की उपस्थिति पर कोई आपत्ति नहीं थी। जाहिर है कि कांग्रेस नेतृत्व की आपत्ति का कारण अमिताभ को लेकर 10 जनपथ की नितांत व्यक्तिगत कुंठा है। देश के सबसे बड़े राजनीतिक दल, केंद्र में सत्तारूढ़ कांग्रेस में गुम लोकतंत्र का यह ज्वलंत उदाहरण है। और उदाहरण है कांग्रेसियों के अंदर मर चुके स्वाभिमान का। मैंने कांग्रेस दल को हमेशा देश का अभिभावक दल माना है। खेद है कि अब अभिभावक कुंठा की हर सीमा पार कर चुका है। 'पर' से परे 'स्व' के आंचल में अठखेलियां करने वाला कांग्रेस नेतृत्व अब एक संवेदना शून्य 'हिटलर' मात्र बन के रह गया है।

Thursday, March 25, 2010

क्या अब द्रौपदी का चीरहरण जायज होगा?

न्यायालय के फैसलों पर राष्ट्रीय बहस बौद्धिकता में वृद्धि और जागरूक समाज को चिन्हित करती है। लेकिन जब फैसलों की गली-कूचों में लानत-मलानत होने लगे तब? न्याय के प्रति राष्ट्रीय संदेह को चिन्हित करता है, अस्वीकृति की आवाज बन जाता है। और चिन्हित करता है न्यायपालिका के पतन की शुरुआत को। यह अवस्था देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए खतरे की घंटी है। कोई आश्चर्य नहीं कि समाज में एक भयावह अराजक स्थिति का आगाज हो चुका है। और ऐसा विवाहपूर्व यौन संबंधों पर सर्वोच्च न्यायालय के ताजा फैसले के कारण।
सर्वोच्च न्यायालय की यह व्यवस्था कि विवाह के पूर्व सेक्स अपराध नहीं है और 'लीव इन' अर्थात् सहजीवन भी अपराध नहीं है, कानून की कसौटी पर भले ही न्यायसंगत लगे, समाज की कसौटी पर अनैतिक है, नाजायज है। इसके लिए अधिक तर्क की आवश्यकता नहीं। लिखित कानूनों से अलग परंपराओं को भारत सहित संसार की सभी अदालतों में मान्यता प्राप्त है। इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय की फैसला-पूर्व कार्यवाही अनेक सवालों को जन्म देती है। अदालत ने जीवन और स्वतंत्रता के मूल अधिकार का हवाला देते हुए वकील से पूछा कि विवाहपूर्व सेक्स और सहजीवन कानून की किस धारा के अंतर्गत अपराध है? साथ रहना तो जीने का अधिकार है। शायद अदालत में तो समाधानकारक जवाब नहीं दिया गया, प्रतिप्रश्न भी नहीं पूछे गए, किंतु अदालत के बाहर असहज सवालों की झडिय़ां लग गई हैं। एक अत्यंत ही असहज किन्तु मौजूं सवाल यह पूछा गया कि फैसला देने वाले जजों की बेटियां अगर ऐसा करती हैं तो क्या उनका परिवार उन्हें स्वीकार करेगा? पूछा यह भी जा रहा है कि अगर विवाहपूर्व सेक्स कोई अपराध नहीं, कानून सम्मत है तब अगर विवाह में लड़कियां दहेज में बच्चे भी साथ लेकर आएंगी तो क्या उन्हें स्वीकार किया जाएगा? अनेक जटिल सवाल पूछे जा रहे हैं। आवेश में ही सही, फैसला देने वाले जजों को ऐसे सुझाव भी दिए जा रहे हैं कि फैसले को मूर्त रूप देने की शुरुआत वे अपने परिवार से करें। यह घोर आपत्तिजनक है, स्वीकारयोग्य नहीं, बावजूद इसके ऐसी स्वस्फुर्त प्रतिक्रियाएं नजरअंदाज नहीं की जा सकतीं। अदालत का यह तर्क कि भगवान कृष्ण और राधा भी साथ रहे थे, सिर्फ आपत्तिजनक ही नहीं, फैसला देने वाले जजों की काबिलियत पर सवालिया निशान चस्पा रही है। द्रौपदी के चीरहरण को भारतीय समाज कभी भी जायज नहीं ठहरा पाएगा। चाहे तो सर्वोच्च न्यायालय आजमाकर देख ले। अदालत की अवमानना का खतरा मोल लेते हुए मैं इस टिप्पणी के लिए विवश हूं कि इस फैसले में कोई कुंठित मंशा तो निहीत नहीं है? कृष्ण और राधा को सेक्स पीडि़त युगल के समक्ष रखना रखना समाज के एक बड़े वर्ग की धार्मिक आस्था पर आघात है। क्या किसी धार्मिक आस्था पर चोट करना कानूनन अपराध नहीं है? यह समझ से परे है कि देश के सर्वोच्च न्यायालय के विद्वान न्यायाधीशगण इस तथ्य को विस्मृत कैसे कर गए? आज कृष्ण-राधा के पवित्र प्रेम को, अनुराग को सेक्स आधारित बदचलनी से जोड़ा जा रहा है। भविष्य में शायद अदालतें राज दरबार में द्रौपदी के चीरहरण को उद्धृत कर सत्ता से लेकर सड़क तक महिलाओं के चीरहरण को जायज ठहरा दें। अदालतें तब शायद ऐसा तर्क दें कि महाभारतकालीन शासक धृतराष्ट्र के दरबार में जब सत्ता पक्ष के सदस्य दुर्योधन भरे दरबार में द्रौपदी के वस्त्र उतारने की कोशिश कर सकते हैं तब कलियुग के वर्तमान दौर में सत्ताधारी संसद से लेकर सड़क तक किसी महिला का चीरहरण करने के लिए स्वतंत्र क्यों नहीं रह सकते? समाजवादी नेता मुलायमसिंह यादव ने तो यह कह भी डाला कि महिला आरक्षण लागू होने के बाद उद्योगपतियों और नेताओं की पत्नियां लोकसभा और विधानसभा में पहुंचेंगी और लोग उन्हें देखकर सीटियां बजाएंगे। ध्यान रहे कुछ विधानसभाओं के अंदर साडिय़ा खोलने की घटनाएं हो चुकी हैं। सत्ता से जुड़े निर्वाचित जनप्रतिनिधियों पर जबरिया सेक्स के आरोप लगते रहे हैं। इन कारणों से हत्याएं भी हो चुकी हैं। अगर जब आज अदालत कृष्ण-राधा के नाम पर उच्छंृखल सेक्स को जायज ठहरा रही है तब कल होकर सड़कों पर, सार्वजनिक स्थलों पर सेक्स के भौंडे प्रदर्शन को कौन रोकेगा? सर्वोच्च न्यायालय के ताजा फैसले को हम अस्वीकार करते हैं।

Monday, March 22, 2010

निजी इच्छा राष्ट्रीय इच्छा नहीं बन सकती!

क्या किसी व्यक्ति विशेष की नितांत निजी आकांक्षा पार्टी की आकांक्षा या राष्ट्र की आकांक्षा बन सकती है? कदापि नहीं। अगर ऐसा होने लगे तब राजदलों और देश में घोर अराजक स्थिति पैदा हो जाएगी। न अनुशासन रहेगा, न राष्ट्र विकास के प्रति कोई गंभीरता। ये समझ से परे है कि भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी के लिए परेशानियां पैदा करने की कोशिश करने वाले, जी हां, कोशिश करने वाले, इस हकीकत को क्यों नहीं समझ पा रहे। शायद वे समझना ही नहीं चाहते। कतिपय किंतु-परंतु के बावजूद भारतीय जनता पार्टी की आज भी एक विशिष्ट पहचान है तो अनुशासन और सिद्धांत के कारण। जिस दिन यह समाप्त हो गया, पार्टी खत्म हो जाएगी। क्योंकि तब लोग-बाग विकल्प की चाहत को भूल जाएंगे। गडकरी ने दो-टूक शब्दों में कह भी दिया है कि सभी को खुश करना संभव नहीं। राजनीति का यह एक व्यावहारिक सच है, नवगठित 'टीम गडकरी' से असंतुष्ट लोग इसे समझ लें। भारतीय जनता पार्टी देश का प्रमुख विपक्षी दल है। गठबंधन युग में गठित खिचड़ी सरकार के कारण मुख्य विपक्षी दल की भूमिका वस्तुत: राष्ट्रीय भूमिका के रूप में देखी जाती है। यह एक ऐसा सच है जो राष्ट्रीय सहयोग समर्थन का आग्रही है। अगर स्वयं पार्टी के कुछ लोग इसे नहीं समझ पा रहे तब बेहतर होगा कि वे पार्टी छोड़कर चले जाएं। हमारा संसदीय लोकतंत्र एक मजबूत-प्रभावी विपक्ष को देखना चाहता है। कमजोर, लचर विपक्ष लोकतंत्र को कमजोर करता है, निष्प्रभावी बना डालता है। सुप्रसिद्ध पत्रकार तवलीन सिंह ने बिल्कुल ठीक टिप्पणी की है कि भाजपा प्रमुख विपक्षी दल की भूमिका की चिंता करे। तवलीन दु:खी हैं कि इस मोर्चे पर भाजपा स्वयं को प्रभावी नहीं सिद्ध नहीं कर पा रही। उन्होंने उदाहरण देकर कहा है कि अगर भाजपा एक सशक्त, सजग विपक्षी दल की भूमिका में होती तब पंजाब में 6 हजार करोड़ टन गेहूं सड़ नहीं जाता। इस प्रसंग में सरकार का हास्यास्पद जवाब कि देश में अनाज गोदामों की कमी है, देश की समझ को चुनौती देने वाला है। विपक्ष इस बिंदु पर सरकार को कठघरे में खड़ा करने में नाकामयाब रहा। एक ओर जब देश में लगभग 50 प्रतिशत बच्चे कुपोषण के शिकार हैं, अनाज को सडऩे दिया जा रहा है, चूहों को खाने दिया जा रहा है। यह एक ऐसा मुद्दा था, जिस पर भाजपा पूरे देश का समर्थन प्राप्त कर सरकार को बचाव की मुद्रा में ला सकती थी। इसी प्रकार गंगा-यमुना नदियों की कथित सफाई के नाम पर हजारों करोड़ रुपयों के अपव्यय के मामले को भाजपा अपने और देश के हक में भुना सकती थी। तवलीन ने भाजपा की वर्तमान अवस्था को अस्त-व्यस्त, बिखरा-बिखरा चिह्निïत करते हुए इसकी पूरी जिम्मेदारी लालकृष्ण आडवाणी पर डाल दी है। उनका कहना है कि आडवाणी पार्टी को समाप्त करने पर तुले हैं। अब चुनौती गडकरी को है। यह बिल्कुल ठीक है कि पार्टी में सभी को खुश रखना किसी के लिए संभव नहीं है, लेकिन सच यह भी है कि पार्टी संक्रमण के जिस दौर से गुजर रही है, उसमें नेतृत्व से संतुलन और संयम अपेक्षित है। गडकरी के लिए चुनौतियां नई बात नहीं हैं। सांगठनिक क्षमता और मानव प्रबंधन में इन्हें महारत हासिल है। पार्टी के रथी-महारथी इस बात को अच्छी तरह जानते हैं। यही कारण है कि उनका एक वर्ग आरंभ से ही गडकरी को विचलित करने की कोशिश कर रहा है। वे जानते हैं कि नितिन गडकरी ने जिस दिन पांव जमा लिया, वे पांव अंगद के पांव बन जाएंगे। इनके अध्यक्ष बनने के पहले यही वर्ग इनके खिलाफ दुष्प्रचार अभियान को हवा दे रहा था। इनके अनुभव, इनकी राष्ट्रीय पहचान पर सवाल खड़े किए गए थे। लेकिन गडकरी ने अपने पहले मीडिया कांफ्रेंस और इंदौर अधिवेशन में अध्यक्ष के रूप में अपने पहले संबोधन से न केवल अपनी परिपक्वता बल्कि अपनी सोच और पार्टी के पुनर्गठन के प्रति दृढ़ता को चिह्निïत कर दिया था। पार्टी नेताओं, कार्यकर्ताओं को स्पष्ट संदेश दिया था कि 'आप अपनी लकीरें बड़ी करें, दूसरों की लकीरें छोटी न करें।' समझदारों के लिए वह इशारा काफी था। खेद है कि आज समझते हुए भी कुछ नेता अपनी नितांत व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा की वेदी पर पार्टी को होम करने की कोशिशें कर रहे हैं। ऐसा नहीं होना चाहिए। देश आज गंभीर आर्थिक संकट के दौर से गुजर रहा है, सीमाएं अशांत हैं, देश के अंदर प्रविष्ट आतंकी खौफनाक इरादों को अंजाम देने में जुटे हैं। पड़ोसी देशों की गिद्ध दृष्टियां हमारी आंतरिक हलचलों पर लगी हैं। ऐसे में जब देश प्रमुख विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी से अपेक्षा कर रहा है कि वह सत्तापक्ष को देश हित में सही रास्ते पर ले आएगी या फिर सत्तापक्ष की विफलता की स्थिति में उसे अपदस्थ कर देगी, पार्टी में मौजूद विघ्नसंतोषियों की पार्टी विरोधी हरकतें दु:खद हैं। ऐसे तत्व चेत जाएं। पार्टी नेतृत्व को मजबूत बनाने की जगह उसके लिए परेशानियां पैदा कर वस्तुत: ये लोग देशहित के खिलाफ काम कर रहे हैं। वाणी की स्वतंत्रता का यह अर्थ तो कदापि नहीं होता कि जयचंदों की फौज खड़ी कर दी जाए।

Sunday, March 21, 2010

राज्यसभा में मणिशंकर अय्यर!

लोकतंत्र और भारतीय संसद की गरिमा को धूल धूसरित किए जाने का सिलसिला लगता है थमने वाला नहीं। पीड़ा तब अधिक गहरी हो जाती है जब इस घोर आपत्तिजनक प्रक्रिया में राष्ट्रपति तक का नाम सामने आ जाता है। हालांकि इसके लिए दोषी सत्तापक्ष होता है। संसद के उच्च सदन राज्यसभा के लिए समाज के विशिष्ट क्षेत्रों यथा शिक्षा, विज्ञान, चिकित्सा, साहित्य, विधि, फिल्म, थियेटर, संगीत और सामाजिक क्षेत्रों में उल्लेखनीय योगदान देनेवाली विभूतियों को राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत किए जाने का प्रावधान है। उच्च सदन की गरिमा में वृद्धि के लिए यह व्यवस्था है। लेकिन खेद है कि सत्तापक्ष की ओर से इस गरिमा के सीने पर कील ठोकने की कोशिशें की जाती रही हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि यह भी उसी षडय़ंत्र का अंग है जिसके तहत लोकतांत्रिक संसदीय प्रणाली और संसदीय गरिमा की अवमानना की जा रही है। लोकतंत्र में सर्वोच्च सदन की प्रतिष्ठा को चूर-चूर करने की कोशिशें की जा रही हैं। हमारे राष्ट्र निर्माताओं, संविधान निर्माताओं की कल्पना के लोकतांत्रिक भारत की स्वच्छता पर ऐसी कालिमा!
ताजा तरीन मामला एक पूर्णकालिक राजनीतिक का है। पिछले लोकसभा चुनाव में पराजित मणिशंकर अय्यर को राष्ट्रपति ने उपर्युक्त विशिष्ट वर्ग के प्रतिनिधि के रूप में कैसे मनोनीत कर दिया? पिछले दरवाजे से संसद में घुसने का खेल तो पुराना है, जब लोकसभा चुनावों में जनता के द्वारा पराजित अर्थात्ï अस्वीकार कर दिए गए नेताओं को राज्यसभा का सदस्य बना दिया जाता है। बल्कि कई ऐसे पराजित लोग केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल किए गए, उन्हें महत्वपूर्ण मंत्रालयों की जिम्मेदारियां दी गईं। लेकिन अय्यर का मामला आश्चर्यजनक है। अगर इन्हें राज्यसभा में लाना ही था तो तमिलनाडु में रिक्त होनेवाली सीट से कांग्रेस आसानी से उन्हें निर्वाचित करवा सकती थी। तमिलनाडु विधानसभा में कांग्रेसी विधायकों की संख्या पर्याप्त है। यही नहीं, सहयोगी पार्टी डीएमके कांग्रेस के लिए एक और सीट छोडऩे के लिए तैयार हो गई है। अब सवाल कांग्रेस नेतृत्व से है कि जब अय्यर के गृहराज्य से वह राज्यसभा की दो सीटों पर आसानी से अपने उम्मीदवार को जीत दिला सकती है, तब उसने राष्ट्रपति का सहारा क्यों लिया? संवैधानिक प्रावधानों से छेड़छाड़ कर उसका मजाक क्यों उड़ाया? मणिशंकर अय्यर किसी दृष्टि से राष्ट्रपति द्वारा मनोनयन हेतु आवश्यक पात्रता को पूरा नहीं करते। एक सांसद के रूप में उनकी उपयोगिता को मैं चुनौती नहीं दे रहा, लेकिन जब मतदाता ने उन्हें अस्वीकार कर दिया था, तब राष्ट्रपति के द्वारा विशिष्ट पहचान देकर राज्यसभा में क्यों लाया गया? सत्ताधारी कांग्रेस नेतृत्व को क्या इस बात की जानकारी नहीं थी कि अय्यर को जिस रास्ते राज्यसभा में लाया गया, राजनीतिकों के लिए वह रास्ता बीस वर्ष पहले बंद कर दिया गया था। अय्यर सदृश राजनीतिकों को राष्ट्रपति की अनुकंपा से इसके पूर्व राज्यसभा में प्रवेश मिल चुका है। लेकिन बहुत पहले। मरागथम चंद्रशेखर को सन्ï 1970 और 1976 में तथा गुलाम रसूल कार को सन्ï 1984 में लाया गया था। इसके बाद सत्तापक्ष की ओर से जब भी राज्यसभा के लिए इस राह को अपनाने की कोशिश की गई, पूर्व के राष्ट्रपतियों ने आपत्तियां दर्ज करते हुए उसे अस्वीकार दिया था। फिर राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने सत्तापक्ष की नाजायज अनुशंसा को स्वीकार क्यों किया? अस्वीकार कर वापिस भेज देतीं तो देश की नजरों में निश्चय ही उनकी प्रतिष्ठा में वृद्धि होती! ऐसा नहीं कर प्रतिभा पाटिल ने इस अवधारणा की पुष्टि कर दी कि राष्ट्रपति मात्र एक 'रबर स्टैंप' होते हैं।
निश्चय ही यह लोकतंत्र का अपमान है, संविधान की अवमानना है। राष्ट्रपति के अधिकार का शासकीय दुरुपयोग है। मणिशंकर अय्यर के अलावा अन्य जिन चार विभूतियों को राष्ट्रपति ने मनोनीत किया, वस्तुत: उनका भी अपमान हुआ है। क्योंकि वह सभी अपने-अपने क्षेत्रों की वास्तविक विभूतियां हैं।

Friday, March 19, 2010

शत्रुघ्न सिन्हा की राजनीतिक चूक!

शत्रुघ्न सिन्हा मेरे मित्र हैं। ऐसे कि एक कार्यक्रम में उन्होंने मुझे 'फ्रेंड फिलास्फर एंड गाईड' कहकर संबोधित किया था। मुझे वो दिन भी याद है जब 1967 में बिहार में सूखे से पड़े अकाल की स्थिति का अवलोकन करने पटना पहुंचे सुप्रसिद्ध लेखक- पत्रकार व फिल्म निर्माता (स्व.) ख्वाजा अहमद अब्बास ने मुझे बताया था कि 'यह लड़का (शत्रुघ्न) पुणे फिल्म इंस्टीट्यूट का बेस्ट प्रोडक्ट है... यह बहुत तरक्की करेगा...... मैं इसे अपनी प्रस्तावित रंगीन फिल्म 'गेहूं और गुलाब' में मुख्य भूमिका देने जा रहा हूं।' तब शत्रुघ्न सिन्हा की कोई फिल्म रिलीज नहीं हुई थी। लेकिन अब्बास की पारखी आंखों ने उनमें छिपे कलाकार को पहचान लिया था। शत्रुघ्न ने तरक्की की, अभिनय के क्षेत्र में शीर्ष पर पहुंच गए। बेजोड़ माने जाने लगे। '70 के दशक के मध्य में जयप्रकाश आंदोलन से जुड़े, सक्रिय राजनीति में आए। अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्रित्व में भारतीय जनता पार्टी की सरकार में कैबिनेट मंत्री बने। दो बार राज्यसभा सदस्य रहे। इस बार पटना से चुनाव लड़ सीधे लोकसभा पहुंचे। कहने का तात्पर्य यह कि सिन्हा अभिनय और राजनीति के क्षेत्र में निरंतर सफलता के पायदान पार करते रहे। सीमित दायरे में ही सही मेरे जैसे शुभचिंतक उनकी सफलता के गवाह रहे, कायल रहे।
तथापि सिन्हा जैसे वरिष्ठ और परिपक्व नेता जब भाजपा के नए राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी की नवगठित टीम को 'पुरानी बोतल में नई शराब' की संज्ञा दें, तब आश्चर्य के साथ- साथ दु:ख पैदा करेगा ही। मेरी उनसे इस विषय पर बातें भी हुई। उन्होंने अपनी बातें रखीं। उनकी व्यक्तिगत पीड़ा राष्ट्रीय संदर्भ में स्वीकार योग्य नहीं लगी। राजनाथ सिंह के कार्यकाल के अंतिम दिनों का स्याह पक्ष कतिपय नेताओं में उत्पन्न अनुशासनहीनता थी। एक- दूसरे पर वार किए जा रहे थे, नीचा दिखाने की कोशिशें की जा रहीं थी। अनेक उदित गुटों के कारण पार्टी में अनुशासनहीनता बढ़ी। अराजक स्थिति पैदा हुई। कार्यकर्ताओं का मनोबल गिरा! निराशा जगी! हतोत्साह पनपा! अनुशासन और मूल्य आधारित राजनीति की अपनी विशिष्ट पहचान भाजपा खोने लगी। लोकसभा चुनाव में इसका खामियाजा सामने आया। पार्टी की शर्मनाक हार हुई और कांग्रेस की अप्रत्याशित जीत। भाजपा में नेतृत्व परिवर्तन हुआ, अपनी संगठन क्षमता के लिए विख्यात, परिश्रमी नितिन गडकरी राष्ट्रीय अध्यक्ष बने। पद संभालने के बाद उनका पहला ऐलान ही रहा कि पार्टी अनुशासन के साथ विकास के लिए राजनीति करेगी। इंदौर अधिवेशन में राष्ट्रीय अध्यक्ष के रूप में अपने पहले संबोधन में गडकरी ने पार्टी नेताओं को दो-टूक शब्दों में नसीहत दिया था कि 'आप अपनी लकीर बड़ी करें, दूसरों की लकीर छोटी न करें!' संदेश बिल्कुल साफ था। कार्यकर्ताओ में उत्साह पैदा हुआ, आम जनता ने इन शब्दों में भविष्य की स्वच्छ राजनीति की झलक देखी। आश्चर्य है कि हर दृष्टि से परिपक्व शत्रुघ्न सिन्हा इस संदेश में निहीत 'दर्शन' क्यों नहीं समझ पाए। अपनी बात रखना, पीड़ा व्यक्त करना एक बात है, आरोप लगाना दूसरी। अस्त-व्यस्त बिखरी पार्टी को एक-जुट कर 2014 के निर्धारित लक्ष्य की ओर बढ़ते गडकरी को सिन्हा जब छोटा-भाई और दोस्त मानते हैं, तो बेहतर होता कि वे थोड़ी प्रतीक्षा करते। यशवंत सिन्हा और सुषमा स्वराज को उद्धृत कर अपनी पीड़ा में सहभागी बनाना कदापि उचित नहीं था। यशवंत और स्वराज की अपनी पहचान है, अपना कद है। परिपक्व शत्रुघ्न सिन्हा निश्चय ही इस बार राजनीतिक चूक कर बैठे हैं। एक सच्चे मित्र का धर्म होता है कि वह यथार्थ से अपने मित्र को परिचित कराए। मैंने वही किया है। यथार्थ कड़वा हो सकता है, किंतु यकीनन 'कुनैन' भी यही साबित होगा।

Thursday, March 18, 2010

धन उद्योग-धंधों से कमाएं, मीडिया से नहीं!

एक विचित्र किंतु सुखद समागम हुआ, मीडिया में प्रविष्ट दानव (पेड-न्यूज) के वध के लिए। पत्रकार - चिंतक कुलदीप नैयर, भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी, महाराष्ट्र के गृहमंत्री आर. आर. पाटील और प्रसिद्ध उद्योगपति विको ग्रुप के अध्यक्ष गजानन पेंढारकर एक मंच से गरजे। अखबारों, न्यूज चैनलों पर इस दानव के दबाव पर चिंता प्रकट करते हुए इनके द्वारा दी गई चेतावनी कि लोकतंत्र का यह चौथा स्तंभ अपनी विशिष्ट पहचान खो रहा है, सामाजिक सरोकारों से पृथक पतनोन्मुख हो चुका है, पर मंथन अपेक्षित है। नागपुर में बढ़ते तापमान के बीच इस मुद्दे को गर्म करते हुए ऐसी आशंका व्यक्त की गई कि धन प्रभावित मीडिया कहीं जन-प्रभाव से दूर न हो जाए। 'पेड-न्यूज मीडिया के मूल चरित्र के लिए खतरा बनता जा रहा है। शायद अभी सुनने-पढऩे में अजीब लगे किंतु क्या यह खतरा मौजूद नहीं है कि आनेवाले दिनों में अखबार मुफ्त में बंटने लगे। कुलदीप नैयर दु:खी हैं कि 'पेड-न्यूज के दानव को प्रश्रय मीडिया के बड़े घरानों में ज्यादा मिला है। यह एक स्थापित सत्य है। अब जरा संभावित खतरों पर गौर करें। राजनेता और बड़े औद्योगिक घरानों को धन देकर अपनी मनमर्जी की खबरों को छपवा लेने और दिखला लेने का चस्का लग चुका है। जब ऐसी खबरों की संख्या बढ़ेगी, तब अखबारों और चैनलों में स्थानों के भाव बढ़ जाएंगे। मीडिया के संचालक पैकेज बनाकर मनमानी कीमतें वसूलने लगेंगे। खबरों के लिए, खबरों के शीर्षकों के लिए, उनमें दिए जाने वाले 'बाक्स आईटम के लिए, कोटेशन्स के लिए और छायाचित्रों के लिए अलग-अलग दर निर्धारित हो जाएंगे। खबरें छापने या दिखाने के लिए ही नहीं बल्कि खबरें नहीं छापने और नहीं दिखाने के लिए कीमतें तय हो जाएंगी। चूंकि ऐसे मदों में भुगतान करने वालों को व्यापक प्रसार भी चाहिए, दबाव में मालिक, अगर कानूनी बाध्यता न हो तब, अखबारों के मुफ्त वितरण के लिए मजबूर हो जाएंगे। धन तो वे प्रायोजित खबरों से वसूल ही लेंगे। तब शायद ऐसी अवस्था भी उत्पन्न हो जाए कि प्रथम पृष्ठ की मुख्य खबरें भी 'पेड-न्यूज के तहत प्रकाशित होने लगें। तब क्या प्रेस अर्थात मीडिया लोकतंत्र के चौथे पाए के लायक रह पाएगा? हरगिज नहीं। तब तो वह राजनेताओं और व्यवसायी घरानों के दलाल की भूमिका में होगा। कथित निष्पक्षता, निर्भीकता, समर्पण किसी कोने में सिसकते मिलेंगे। और यह सब होगा ज्यादा से ज्यादा धन अर्जित करने की लिप्सा के कारण। चूंकि इस व्याधि को मीडिया के संचालक सिंचित कर रहे हैं, समाजहित में, राष्ट्रहित में, पेशे की पवित्रता के हित में, पत्रकारीय मूल्यों के हित में और इन सबों से उपर लोकतंत्र के हित में संचालकगण पहल करें। धन कमाने के लिए तो उनके पास अन्य उद्योग धंधें मौजूद हैं, धन वहां से कमाएं, मीडिया से मान-सम्मान कमाएं। अन्यथा वे एक दिन पश्चाताप के आंसू बहाने को मजबूर हो जाएंगे। क्योंकि अन्य भारतीयों की तरह उनकी रगों में भी विशिष्ट भारतीय संस्कृति का रक्त ही प्रवाहित है और यह विशिष्ट रक्त लोकतंत्र को ध्वस्त होने नहीं देख सकता।

Tuesday, March 16, 2010

बिकाऊ पत्रकारिता से व्यथित नैयर!

निडर-निष्पक्ष पत्रकारिता के पर्याय व प्रतीक चिन्ह बन चुके कुलदीप नैयर बेचैन हैं कि आखिर पत्रकार बिक क्यों गए? नेता बिक जाते हैं, अधिकारी बिक जाते हैं, एक सीमा में ही सही न्यायपालिका भी बिक जाती है, लेकिन पत्रकार क्यों? श्री नैयर की जिज्ञासा का जवाब पत्रकार बिरादरी को ही देना है। क्या कोई चेहरा सामने आएगा? संदिग्ध है क्योंकि ऐसे चेहरे के लिए बेदाग होने की शर्त जो है।
श्री नैयर एक नए मराठी दैनिक 'लोकशाही वार्ता' के लोकार्पण के लिए आज दिल्ली से नागपुर पहुंचे। रात्रि भोजन पर नए अखबार के कुछ वरिष्ठ पत्रकारों की उपस्थिति में चर्चा हो रही थी। पत्रकारिता के वर्तमान बिकाऊ व पराजित चेहरों की विशाल मौजूदगी से व्यथित नैयर ने पूछा कि आखिर क्यों बिक जाते हैं पत्रकार? कौन सा लालच उन्हें बाध्य कर देता है? अगर वे बिके नहीं, झुके नहीं तब शासन उनका क्या बिगाड़ लेगा? अधिक से अधिक सत्ता उन्हें विभिन्न समितियों में लाभदायी सदस्यता से वंचित रखेगी या फिर विदेश यात्राओं से दूर रखेगी। कुछ विशेष सुविधाओं से भी सरकार उन्हें मरहूम रख सकती है। इससे ज्यादा तो कुछ नहीं ! निडर लेखन से प्रभावित वर्ग नाराज हो सकता है, दंडित करने के लिए छोटे-मोटे हथकंडे भी अपना सकता है, किंतु निर्णायक रूप से प्रताडि़त नहीं कर सकता। आपातकाल की अवधि को छोड़ दें तो देश में स्वतंत्र लेखन की छूट है। ऐसी अवस्था में बिकाऊ पत्रकारों की मौजूदगी पीड़ादायक है।
मुझे आज याद आ रही है लगभग 18 वर्ष पूर्व के एक पत्रकारीय समारोह की। समारोह में श्री नैयर व अंग्रेजी दैनिक द स्टेट्समैन के तत्कालीन संपादक एस. सहाय के साथ मंच पर अतिथि वक्ता के रूप में मैं भी मौजूद था। वह अवसर भी एक समाचार पत्र के विमोचन का था। अपने संबोधन श्री नैयर ने तब बड़ी ही पीड़ा के साथ कहा था कि ' आज अगर देश की दुर्दशा के लिए कोई जिम्मेदार है तो वे पालिटीशियंस हैं। मैंने इन पालिटीशियंस को बहुत नजदीक से नंगा देखा है।' तब मैंने अपने उद्बोधन में श्री नैयर के पीड़ा से सहमति तो जताई थी किंतु यह जोडऩे से स्वयं को नहीं रोक पाया था कि ' ... पालिटीशियंस के साथ-साथ पत्रकार भी देश की दुर्दशा के लिए बराबर के जिम्मेदार हैं। मैंने भी पत्रकारों को बहुत नजदीक से नंगा देखा है।' आज जब इतने वर्षों बाद श्री नैयर बिकाऊ पत्रकारिता पर दु:खी दिखाई दे रहे हैं तब निश्चय ही इस बीच उन्होंने भी पत्रकारों को भी ' नंगा' देख लिया होगा। बिरादरी का वर्तमान सच यही है।
नए अखबार के प्रबंध संपादक प्रवीण महाजन और उनके वरिष्ठ संपादकीय सहयोगियों से श्री नैयर ने अपेक्षा जाहिर की कि वे खबरों के चयन व अग्रलेख आदि में पत्रकारीय मूल्य व पेशे की पवित्रता का ध्यान रखेंगे, उन्हें वरीयता देंगे। दबाव आएंगे, प्रलोभन दिए जाएंगे, किंतु इनसे बचकर ही पाठकीय अपेक्षाओं की पूर्ति की जा सकती है। आज शासन से अधिक बड़े व्यवसायी घराने समाचार-पत्रों को प्रभावित कर रहे हैं। विज्ञापन के हथियार से ऐसे घराने पत्र-पत्रिकाओं को झुकाने की कोशिशें कर रहे हैं। दु:खद रूप से संसद तक में प्रविष्ट 'धन-प्रभाव' के कारण इन घरानों के हौसले बढ़ रहे हैं। सरकारी नीतियों को यह वर्ग प्रभावित करने लगा है। ऐसी खतरनाक स्थिति पैदा हो रही है, जिसमें पत्र-पत्रकारों के पैरों में बेडिय़ां दिखने लगे। अब यह फैसला पत्रकारों को लेना है कि वे इन दबावों के सामने समर्पण की मुद्रा में आ जाएं या फिर दबाव-प्रलोभन-लालच के मकडज़ाल को काट पत्रकारीय मूल्य के रक्षार्थ आदर्श प्रस्तुत करें। यह मुद्दा सिर्फ पत्रकारिता की गरिमा या पतन का ही नहीं है बल्कि संसदीय गरिमा व राष्ट्रीय अस्मिता का भी है। चुनौती है बिरादरी में मौजूद युवा-अनुभवी पत्रकारों को। आगे आएं वे। बिरादरी पर लग रहे कलंक को धो डालें-अनुकरणीय आदर्श प्रस्तुत कर। प्रलोभन को लात मारें, दबावों को झटक दें, लालच को दफना दें। बहुत आसान है यह। सिर्फ मन को समझाने की जरूरत है। जहां तक अन्य खतरों का सवाल है, निश्चय मानिए इस दिशा में ईमानदार पहल को आवश्यक सुरक्षा-कवच समाज अर्थात विशाल पाठक वर्ग मुहैय्या करा देगा।

Monday, March 15, 2010

पागल हो गए हैं कल्बे जव्वाद!

कभी-कभी जब धर्मगुरु अनर्गल प्रलाप करने लगते हैं तब धर्म विशेष के अनुयायी भ्रम के भंवर में फंस जाते हैं। आस्था और तथ्य में टकराव शुरु हो जाती है। समाज विभाजन का खतरा भी पैदा हो जाता है। क्या धर्मगुरु को ऐसी परिणति का पूर्वाभास नहीं होता? या कहीं वे किन्हीं कारणों से जान-बूझकर अपने अनुयायियों को भ्रम में तो नहीं डालते। शायद सच यही है।
शिया धर्मगुरु कल्बे जव्वाद की इस बात से भला किसे इत्तेफाक होगा कि औरतों का काम सिर्फ बच्चे पैदा करना है। विधायिका में महिलाओं के लिए प्रस्तावित आरक्षण का तीव्र विरोध करते हुए कल्बे जव्वाद ने टिप्पणी की है कि खुदा ने महिलाओं को अपने बच्चों का अच्छे से पालन-पोषण करने के लिए बनाया है न कि जनता के बीच भाषण देने के लिए। महिलाएं घुड़सवारी करने, बंदूक चलाने, शराब के कारखानों में काम करने या रैलियों में भाषण देने के लिए नहीं बनी हैं। इक्कसवीं सदी में इस धर्मगुरु के विचार को एक स्वर से सभी पागल का प्रलाप निरूपित कर खारिज कर रहे हैं तो बिल्कुल ठीक ही। शासन और प्रशासन में महिलाओं की महत्वपूर्ण भागीदारी से अनजान इस धर्मगुरु को इतिहास की भी जानकारी नहीं। आज से 774 वर्ष पहले सन 1236 में एक मुस्लिम महिला रजिया सुल्तान दिल्ली सल्तनत की सुल्तान बनीं थी। रजिया ने 1236 से 1240 तक दिल्ली सल्तनत पर प्रभावी शासन किया। इतिहास साक्षी है कि तुर्की मूल की रजिया को अन्य मुस्लिम राजकुमारियों की तरह सेना का नेतृत्व तथा प्रशासन के कार्यों में अभ्यास कराया गया ताकि जरूरत पडऩे पर उसका इस्तेमाल किया जा सके। धर्मगुरु कल्बे जव्वाद को यह भी याद दिलाना चाहूंगा कि जिस मुस्लिम संप्रदाय का वह प्रतिनिधित्व करते हैं, रजिया सुल्तान मुस्लिम व तुर्की इतिहास की पहली महिला शासक थीं। वह दिल्ली की सबसे शक्तिशाली शासक के रूप में जानी जाती थीं। शासन संभालने के बाद रजिया ने रीति-रिवाजों का त्याग कर पुरुषों की तरह सैनिकों का कोट पहनना पसंद किया था। अपनी राजनीतिक समझदारी और नीतियों से सेना तथा आम जनता का वे बखूबी ध्यान रखतीं थीं। युद्ध में वे बगैर नकाब के शामिल हुईं थीं। कल्बे जव्वाद ने पूरी महिला कौम को बच्चा पैदा करने की मशीन निरूपित कर पूरे संसार की महिलाओं का अपमान किया है। कोई आश्चर्य नहीं कि उन्हें स्वयं मुस्लिम महिलाओं के विरोध का सामना करना पड़ रहा है। खेद है कि जव्वाद को तो इस तथ्य की भी जानकारी नहीं कि मुस्लिम देश पाकिस्तान और बांग्लादेश की विधायिकाओं में निर्वाचित मुस्लिम महिला सदस्यों की संख्या भारत से दो गुनी-तीन गुनी अधिक है। जब इस्लामिक देश में महिलाएं राजनीति में इतनी बढ़-चढ़ कर हिस्सा ले रहीं हैं तब भारत में इसका विरोध करने वाले धर्मगुरु को पागल का प्रलाप ही तो कहेंगे। निश्चय ही मौलाना अपना मानसिक संतुलन खो बैठे प्रतीत होते हैं। भारत-पाकिस्तान-बांग्लादेश सहित संसार के अनेक देशों में महिला राष्ट्राध्यक्ष रह चुकीं हैं और हैं भी। प्रशासनिक क्षेत्रों में ही नहीं बल्कि सेना में भी पर्याप्त संख्या में महिलाएं महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां सफलतापूर्वक संभाल रहीं हैं। बल्कि सच तो यह है कि शिक्षा के क्षेत्र में महिलाओं ने पुरुषों को काफी पीछे छोड़ दिया है। महिलाएं बंदूकें ही नहीं चला रहीं, हवाई जहाज भी उड़ा रही हैं। मुख्य कार्यकारी अधिकारी (सीइओ) के रूप में अनेक महिलाएं बड़े व्यवसायी घरानों को उल्लेखनीय सफलता के साथ संचालित कर रहीं हैं। विधायिका और कार्यपालिका के साथ-साथ न्यायपालिका में भी उनकी सफल मौजूदगी चिह्नित हुई है। लगता है कल्बे जव्वाद किसी कुंठा के शिकार हैं, विकृति के शिकार हैं। राजनीति में महिलाओं के प्रवेश का विरोध करते हुए उन्होंने जिस प्रकार शराब के कारखानों में महिलाओं के काम करने पर आपत्ति दर्ज की है, इस शंका की पुष्टि करते हैं। बेहतर हो धर्म गुरु कल्बे जव्वाद इतिहास के पन्नों को पलटते हुए महिलाओं से संबंधित वर्तमान के सुखद सच को स्वीकार कर लें।

Sunday, March 14, 2010

...तो बदल डालें संविधान को!

मैं जानता हूं कि जिस मुद्दे को यहां उठाने जा रहा हूं वह नक्कारखाने में तूती का आवाज बन कर रह जाएगी। बावजूद इसके यह जोखिम मैं इसलिए उठा रहा हूं कि जनतंत्र के 'जन' को छोटा ही सही एक मंच तो मिले। सुनने और पढऩे में असहज और कड़वा तो लगेगा, लेकिन क्या इसे ईमानदार चुनौती मिल सकती है कि आज छद्म धर्मनिरपेक्षता की तरह छद्म जनतंत्र को सिंचित किया जा रहा है। अगर कोई इस सोच को एक पागल की सोच करार देना चाहे तो वह स्वतंत्र है, लेकिन मन-मस्तिष्क में उबलते सवाल का जवाब तो ढूंढऩा ही होगा। 'जनता का, जनता के लिए, जनता द्वारा' की गर्वयुक्त घोषणा के साथ तैयार भारतीय संविधान से संचालित संसदीय जनतांत्रिक प्रणाली में 'आम जन' क्या गुम नहीं है? क्या बरास्ता आम आदमी खास औरत तैयार नहीं की जा रही है? क्या जन प्रतिनिधि का तमगा सीने पर लगा भारतीय जनतंत्र और भारतीय संविधान की रक्षा की शपथ लेने वाला 'खास आदमी' आम आदमी के दयनीय जीवन-स्तर को सुधारने के प्रति गंभीर है? आम जनता के लिए आम बजट की अवधारणा के तहत संसद में प्रस्तुत बजट पर हमारे प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री संवेदना शून्य व्यक्ति की तरह, बेशर्मी की भाषा में बयान देते हैं कि 'हाँ, बजट से महंगाई बढ़ेगी, आम लोगों की तकलीफों में इजाफा होगा.........। परंतु यह एक ऐसा दीर्घकालिक कदम है जिससे देश का 'भविष्य' खुशहाल होगा।' क्या सचमुच? अगर इनकी बात सच साबित भी होती है, तब 'भविष्य' पर कब्जा आम आदमी का न होकर खास आदमी का ही होगा। आज का गरीब थोड़ी प्रगति के साथ कल भी गरीब ही रहेगा। और आज का अमीर अत्यधिक विस्तार के साथ कल और अमीर बनेगा। वर्तमान में महंगाई की मार से पीडि़त आम जन तब तक शायद दम भी तोड़ देगा। लाशों की सीढिय़ां बना उस पर चढ़ कथित सुनहरे भविष्य की प्राप्ति की कल्पना से ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं। फिर कौन प्रतीक्षा करेगा ऐसे खुशहाल 'भविष्य' की? आज का आम जन तो नहीं ही। संसदीय जनतंत्र में सर्वोच्च भारतीय संसद तो अपने निर्वाचित प्रतिनिधियों के सम्मान की रक्षा भी नहीं कर पा रही। यह कैसा संविधान और कैसा जनतंत्र, जिसमें संसद भवन के अंदर सांसदों को मार्शल द्वारा धकिया कर बाहर निकाला जाता है। अगर उन्होंने संसदीय गरिमा के विरूध्द आचरण किए थे तो उपलब्ध व्यवस्था के तहत उन्हें निलंबित कर दिया जाता, किसी को आपत्ति नहीं होती। अगर अपराध अक्षम्य हो तब कानून- सम्मत कार्रवाई करते हुए उनकी संसद की सदस्यता भी छीन ली जाती तो किसी को आपत्ति नहीं होती। लेकिन मार्शल के हाथों निकाल-बाहर किया जाना? किसी जनतंत्र में इसे स्वीकार नहीं किया जा सकता। प्रधानमंत्री कहते हैं कि पेट्रोलियम पदार्थों पर बढ़ी हुई कीमतें वापस नहीं ली जाएंगी, ऐसी घोषणा किसी जनतंत्र का निर्वाचित प्रधानमंत्री कदापि नहीं कर सकता। उनके शब्दों में एक राजतंत्रीय शासन का दंभ परिलक्षित था। ऐसा शासक ही आम जन की परवाह नहीं करता। हमारे प्रधानमंत्री संभवत: इस तथ्य को भूल गए हैं कि हमारी पूरी की पूरी व्यवस्था एक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा पर खड़ी है। सरकार न तो व्यवसायी है और न ही शासन कोई व्यवसाय। कोई आश्चर्य नहीं कि ऐसे शासन से तैयार अराजक समाज में धर्म, जाति, भाषा और क्षेत्रीयता के नाम पर अलगाववादियों की पंक्ति लंबी होती जा रही है। रोजी-रोटी की जुगत में परेशान आम जन का धार्मिक और भाषायी शोषण शुरू हो चुका है। मुस्लिम शिया समुदाय के एक मौलाना ने सार्वजनिक रूप से घोषणा कर दी है कि महिलाओं की सत्ता में भागीदारी की कोई जरूरत नहीं। उनका काम सिर्फ बच्चे पैदा करना है और वे यही करें। महिलाओं का क्या इससे बड़ा और अपमान हो सकता है? ऐसी विकृत सोच का कारण भी हमारी सामाजिक व्यवस्था ही है। धर्म विशेष के स्वयंभू नेता वर्तमान जनतांत्रिक आजादी का दुरूपयोग कर समाज को गुमराह करते हैं, अपनी राजनीति करते हैं। देश के विकास की गति में इजाफे का दावा कर समृध्द भारत की अवधारणा तो ठीक है किंतु क्या इस सत्य को कोई झूठला सकेगा कि 'भविष्य' के समृध्द भारत पर कब्जा संपन्न-समृध्द हाथों का ही होगा। आम जन तब भी पिछली पंक्ति में ही स्थान पा सकेगा। तब भी उसकी दयनीय अवस्था में सुधार लाने के लिए 'भविष्य' की नई-नई योजनाएं बनेंगी, गरीबी हटाओ के नारे तब भी लगते रहेंगे। सीमेंट की अट्टालिकाओं के नीचे थोड़े परिवर्तित रूप में गरीबों के रैन-बसेरा तब भी बिलखते मिलेंगे। और ये सब कुछ होगा उसी जनतंत्र के नाम पर, उसी जनता के नाम पर जिसके सीने को रौंदते हुए समृध्द, संपन्न शक्तिशाली पांव आज कदमताल कर रहे हैं। क्रांति की बातें करने वालों की आज कमी नहीं है। वे क्रांति चाहते भी हैं, समाज में आमूल-चूल परिवर्तन चाहतें हैं वे, संविधान और जनतंत्र की आड़ में निज स्वार्थ की रोटी सेंकनेवालों को वे दंडित भी करना चाहते हैं, व्यवहार के स्तर पर जनता के हित में जनतंत्र को क्रियाशील देखना चाहते हैं वे, हाशिए पर बैठा दिए गए सुपात्रों को उनका वाजिब हक दिलाना चाहते हैं, सबके लिए समान कानून की मूल कल्पना को साकार करना चाहते हैं ताकि सुसंपन्न व संपन्नहीन की विषमता समाप्त हो जाए। सबके लिए रोटी, कपड़ा, मकान स्थायी नारे बनकर न रह जाएं, शिक्षा, स्वास्थ्य-चिकित्सा सभी के लिए सुलभ रहें, विकास के लिए आवश्यक संसाधनों पर एकाधिकार समाप्त हो जाए, सभी को बराबर का अवसर मिले, न्याय सुलभ हो, उस पर विशिष्ट वर्ग का कब्जा न हो, सुशासन व कायदे-कानून की जिम्मेदार संस्थाएं एक सच्चे जनसेवक की भावना के साथ दायित्व निर्वहन करे, गरीब-अमीर, छोटे-बड़े, ऊंच-नीच की भावना को मौत मिले, ये वास्तविक जनतंत्र की जरुरतें हैं। भारतीय संविधान में इसकी व्यवस्था भी है। बावजूद इसके अगर संविधान निर्माण के छह दशक पश्चात भी जनतंत्र की जनता इनकी आग्रही ही है, तब इस संविधान को बदल डाला जाए। एक सौ से अधिक अवसर पर संशोधित वर्तमान संविधान की जगह नए संविधान के औचित्य को चुनौती नहीं दी जा सकती। निर्वाचित जनप्रतिनिधियों की जनता के प्रति जवाबदेही को सुनिश्चित किए जाने के उपाय किए जाने चाहिए। वर्तमान नियम-कानूनों में मौजूद छिद्र जब ऐसा नहीं होने दे रहे तब इन छिद्रों को बंद करने के उपाय तो ढूंढने ही होंगे।

Friday, March 12, 2010

'...तब भी पुरूष ही हावी रहेंगे'

''संयुक्त राज्य अमेरिका से डॉ. सुषमा नेथानी जानना चाहती हैं कि क्या हमारे देश के सभी सांसद सर्वश्रेष्ठ, योग्य हैं? क्या उनके लिए कोई मापदंड है? डॉ. नेथानी यह भी जानना चाहती हैं कि क्या लगभग डेढ़ सौ करोड़ की आबादी में हम 300 योग्य महिला पात्र नहीं ढूंढ़ सकते?'' इसी प्रकार महिला आरक्षण पर हो रहे हो-हल्ले से परेशान मंजुविनोद ने लालू और मुलायम यादव को उद्धृत करते हुए पूछा है कि क्या यही है हमारे नेताओं का चरित्र?
ये प्रतिक्रियाएं मेरे विगत कल के आलेख 'योग्यता की कीमत पर.....' प्राप्त हुई है। कुछ अन्य भी। मैं याद दिलाना चाहूंगा कि आलेख में स्पष्ट लिखा गया है कि अधिकतर पुरूष सांसद अयोग्य हैं, आपराधिक पाश्र्व के हैं, भ्रष्ट भी हैं वो। इन दोनों टिप्पणीकारों की भावनाओं का आदर करते हुए मैं उनका ध्यान आलेख में दिए गए उस तथ्य की ओर आकृष्ट करना चाहूंगा। अव्वल तो यह कि मैंने जिस योग्यता की सिफारिश की है, उसका आशय सिर्फ शैक्षणिक योग्यता नहीं है, मैंने राजनीतिक योग्यता की बात कही है।
हमारे लोकतंत्र में संसद को सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। वहां कानून बनाए जाते हैं, देश के भाग्य का निर्धारण किया जाता है। लगभग सवा सौ करोड़ की भारतीय आबादी का प्रतिनिधित्व लगभग आठ सौ जनप्रतिनिधि करते हैं। ऐसी महान जिम्मेदारी का बोझ अगर कुपात्र- अयोग्य कंधों पर डाल दिया जाए तब क्या होगा? वही, जो आज हो रहा है! कोई भी ईमानदार, निष्पक्ष समीक्षक इस तथ्य को नकार नहीं सकता कि भारतीय संसद में भ्रष्ट कुपात्रों को प्रवेश मिल चुका है। कौन दोषी है इसके लिए? निश्चय ही हमारी व्यवस्था, हमारी संसदीय प्रणाली और नियम कानून दोषी हैं और इस अवस्था के लिए स्वयं भारतीय संसद भी कम जिम्मेदार नहीं। पक्ष-विपक्ष दोनों समान रूप से दोषी हैं। मैं पहले भी लिख चुका हूं, आज फिर याद दिला रहा हूं, भारतीय संसद में पारित एक संकल्प की। आजादी के स्वर्ण जयंती के अवसर पर आहूत संसद के विशेष सत्र में ऐसा संकल्प पारित किया गया था कि राजनीतिक दल चुनावों में अपराधी अथवा आपराधिक पाश्र्व के व्यक्तियों को उम्मीदवार नहीं बनाएंगे। संकल्प को संसद की कार्रवाई पुस्तिका में बंद कर भूल गए सभी। प्राय: सभी बड़े- छोटे दल चुनावों में ऐसे कुपात्रों को उम्मीदवार बनाते रहे। क्यों? ये सभी संसद के अपराधी नही हैं? संसद व जनता के प्रति जबाबदेह पारित संकल्प के साक्षी जनप्रतिनिधि दंडित क्यों नहीं किए गए? संसद के संकल्प को मजाक बनानेवाले जनप्रतिनिधि संसद में आज भी मौजूद हैं तो कैसे? क्या ये जनता की सहनशीलता की परीक्षा ले रहे हैं? ऐसा नहीं होना चाहिए।
खैर, मूल मुद्दे पर! विधायिका में महिलाओं के आरक्षण पर उठे विवाद पर चर्चा हो रही थी। मैंने स्पष्ट कर दिया है कि योग्यता से मेरा आशय सुपात्र से था। महिलाएं 33 प्रतिशत क्या, 50 प्रतिशत या उससे भी अधिक आएं स्वागत है। लेकिन उनमें स्वावलंबन व आत्मविश्वास का वह मिश्रण जरूरी है, जिसके बलबूते 'पर-निर्भरता' के आरोप से वे मुक्त रह सकें। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने मजाक में ही सही महिलाओं की 'पर-निर्भरता' के कड़वे सच को रेखांकित कर दिया है। राज्यसभा में विधेयक के पारित होने के बाद उनकी इस टिप्पणी में कि, '...तब भी पुरूष ही हावी रहेंगे' में निहित संकेत को समझने में किसी को कठिनाई नहीं होगी। इस 'महिला सच' को दफनाए जाने की जरूरत है और यह तभी संभव होगा जब 'पर-निर्भरता' को आत्मनिर्भरता में बदल डाला जाए, जरूरत ऐसी ही सक्षम महिलाओं की है। योग्यता से मेरा आशय सिर्फ शैक्षणिक योग्यता नहीं है। बल्कि ऐसी महिलाओं से है जो स्वविवेक से फैसले ले सकें। परिवार के पुरूष सदस्यों के विचारों से ही वे संचालित न हों। पुरूष प्रधान समाज के वर्चस्व से मुक्त होकर ही राजनीति में प्रविष्ट महिलाएं राष्ट्रीय अपेक्षा की कसौटी पर खरी उतर सकेंगी। उन्हें इस कड़वे सच से बाहर निकलना होगा कि अधिकांश मामलों में पुरूष ही अब तक निर्वाचित महिला जनप्रतिधियों को संचालित करते रहे हैं।

Thursday, March 11, 2010

योग्यता की कीमत पर आरक्षण कितना उचित

क्या योग्यता कभी किसी आरक्षण की मोहताज रही है? जवाब दोहराना ही होगा 'कदापि नहीं'! फिर आरक्षण दर आरक्षण का घंटानाद क्यों? कोई अन्यथा न ले। मैं महिला या महिला आरक्षण विरोधी नहीं हूं। हां, योग्यता की कीमत पर किसी भी आरक्षण को मैं उचित नहीं मानता। सिर्फ जाति या लिंग के आधार पर आरक्षण राष्ट्रीय सोच का अपमान है, उसकी अवमानना है। चूंकि विधायिका में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण के पक्ष में राज्यसभा विधेयक पारित कर चुकी है, इस बहस ने जन्म लिया है। जिस दिन योग्यता अपात्रों के समक्ष नतमस्तक हो हाशिये पर चली जायेगी, उस दिन देश अराजकता में गुम हो जायेगा। महिला आरक्षण विधेयक को पेश कर पारित कराने का समय भी एक महत्वपूर्ण सवाल खड़ा कर रहा है। और वह है जनता के प्रति जवाबदेही का। अभी सांसदों के कार्यकाल का 4 साल शेष है। उदाहरण के लिए अगर कोई क्षेत्र महिलाओं के लिए आरक्षित कर दिया जाता है तब वहां का वर्तमान पुरुष सांसद क्या अपने शेष कार्यकाल में क्षेत्र के विकास के लिए कुछ कर पाएगा? यह संदिग्ध है। क्योंकि अगली बार क्षेत्र विशेष से उसे चुनाव नहीं लडऩा होगा। नतीजतन जवाबदेही से मुक्त होकर निश्चय ही वह निज स्वार्थपूर्ति करने लगेगा। क्योंकि अगले चुनाव जनता को जवाब देने के लिए वह उपलब्ध नहीं रहेगा। अव्वल तो मैं साफ साफ कह दूं कि महिला आरक्षण के पक्ष में भोंपू बजाने वाले, इतिहास रचने का शंखनाद करने वाले, एक स्वप्न को साक्षात करने का नारा बुलंद करनेवाले, स्त्री सशक्तिकरण पर लंबे-चौड़े भाषण देने वाले, अधिकांश लोगों ने मुंह पर मुखौटा धारण कर रखा है। राजनीति और सिर्फ वोट की राजनीति के लिए यह बढ़ चढ़ कर महिला भक्त बन रहे हैं। इनके दिल का चोर इसी स्वार्थ के कारण बाहर नहीं निकल पा रहा है। अगर ये सचमुच महिला उत्थान चाहते हैं, सत्ता में इनकी भागीदारी चाहते हैं तो मैं इनसे जानना चाहूंगा कि आजादी के पश्चात पिछले छ: दशकों में महिलाओं के उत्थान के लिए इन्होंने क्या किया? सभी उपलब्ध अवसरों पर कुंडली मार बैठे इन लोगों ने क्या इस आधी आबादी को पनपने का मौका दिया? भारतीय मतदाता सूची में 44 प्रतिशत महिला मतदाता होने के बावजूद संसद सहित अन्य विधान मंडलों में महिलाओं की उपस्थिति मात्र 11 प्रतिशत क्यों है? घोर रूढि़वादी मुस्लिम पाकिस्तान की विधायिका में महिलाओं की संख्या हमसे दोगुनी यानी 22 प्रतिशत है। महिलाओं को 33 प्रतिशत क्या मतदाता अनुपात के आधार पर 44 प्रतिशत प्रतिनिधित्व मिले, मुझे खुशी होगी, लेकिन शर्त वही, योग्यता! इस बिंदू पर यह पूछा जा सकता है कि क्या विधायिका में मौजूद सभी पुरूष सदस्य योग्य हैं? बिल्कुल नहीं! अधिकतर अयोग्य हैं, अपराधिक पाश्र्व के हैं। लेकिन इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि महिलाओं के लिए भी पुरूषों वाली सीढिय़ां उपलब्ध करवाई जायें। अगर इतिहास रचा जा रहा है, क्रांति का आगाज किया जा रहा है तब क्यों नहीं इसका रूख योग्यता की ओर मोड़ दिया जाए? आरक्षण करना चाहते हैं, तो पहल कीजिये, शिक्षा के क्षेत्र में महिलाओं के लिये अनुपातिक आरक्षण करें। इस आधी आबादी को पूर्णत: शिक्षित होने दें। इन्हें स्कूल कॉलेज की शिक्षा नि:शुल्क दें। पुस्तकें मुफ्त में दें। कल्याणकारी राज्य की अवधारणा के अनुरूप सरकार इन खर्चोे का वहन करे और पचास प्रतिशत नौकरियाँ महिलाओं के लिये आरक्षित करें। शिक्षित हो स्वावलंबी बनने का इनका मार्ग प्रशस्त होगा। आत्मविश्वास जागेगा इनमें, विधायिका के दरवाजे स्वत: खुल जायेंगे। योग्यता इनके लिये मार्ग प्रशस्त करेगी। वैसे दक्षिण एशिया के अनेक देश विधायिका में महिलाओं की मौजूदगी के मामले में संसार में सबसे आगे हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका के 223 वर्षों के इतिहास में आज तक कोई महिला राष्ट्राध्यक्ष नहीं बन सकीं। वहाँ राष्ट्रपति के पिछले चुनाव में हिलेरी क्लिंटन ने दावा पेश किया किंतु अमेरिका के कथित सभ्य शिक्षित समाज ने उन्हें अस्वीकार कर दिया। इंग्लैंड के इतिहास में एक बार मार्गरेट थैचर प्रधानमंत्री बनीं, किंतु वह एक अपवाद ही रहीं! जबकि हमारे इस क्षेत्र में रजिया सुल्तान से लेकर अब तक अनेक चेहरे सामने आते रहे। श्रीलंका में सर्वप्रथम श्रीमावो भंडारनायके पहली महिला राष्ट्रध्यक्ष बनीं, बाद में चंद्रिका कुमारतुंगा राष्ट्राध्यक्ष बनीं, इंदिरा गांधी भारत की प्रधानमंत्री बनीं, कट्टर इस्लामिक देश पाकिस्तान में बेनजीर भुट्टो प्रधानमंत्री पद पर आसीन रहीं, एक अन्य मुस्लिम बांग्लादेश में शेख हसीना प्रधानमंत्री हैं और मुख्य विपक्ष दल की नेता खालिदा जिया हैं। खालिदा वहाँ प्रधानमंत्री भी रह चुकी हैं। वर्तमान भारत में सत्तारूढ़ कांग्रेस की अध्यक्ष सोनिया गांधी हैं, तो लोकसभा में विपक्ष की नेता एक अन्य महिला सुषमा स्वराज हैं। सर्वोच्च राष्ट्रपति पद पर प्रतिभा पाटील के रूप में एक योग्य महिला आसीन हैं। क्या यह बताने की जरूरत है कि सफलता के इन पायदानों को इन विभूतियों ने आरक्षण के सहारे नहीं बल्कि योग्यता के सहारे पार किया है।महत्वपूर्ण योग्यता ही है। योग्यता को हाशिये पर रख किन्हीं अन्य कारणों से सत्ता पर कब्जा करने की होड़ में जयललिता, मायावती, राबड़ी देवी आदि के दर्दनाक उदय की परिणति सामने है। इनके शासन की संदिग्ध क्षमता और भ्रष्टाचार के कारनामों से पूरा देश परिचित है। फैसला जनता को करना होगा कि उन्हें महिला नेता के रूप में कुशल, योग्य चेहरे चाहिए या राबड़ीयों की फौज! यहाँ फिर पूछा जा सकता है कि भ्रष्ट तो पुरूष नेता भी रहे हैं, जवाब वही कि हाँ, रहे हैं और हैं भी, किंतु देश शासक के रूप में किसी महिला के माथे पर कलंक का टीका नहीं देखना चाहेगा। हमारे देश में नारी को एक विशिष्ट स्थान प्राप्त है, विद्या की देवी सरस्वती हैं, धन की देवी लक्ष्मी हैं और शक्ति की देवी दुर्गा। अर्थात विद्या, धन और शक्ति तीनों की स्त्रोत नारी ही है, संसार में कहीं भी नारी को ऐसा स्थान नहीं है।

Monday, March 8, 2010

धर्मावलंबी बनें धर्मांध नहीं!

आस्था के साथ ये कैसे- कैसे घात? नैतिक पतन का ऐसा वीभत्स प्रदर्शन! धर्म और गुरु के नामों की नंगई!धर्म के नाम पर दुकान खोल 'बाबागीरी' करने वालों की एक से बढ़कर एक करतूतें सामने आ रही हैं। कोई अंतराष्ट्रीय सैक्स रैकेट चला रहा है, कोई विश्रामकक्ष में किसी अभिनेत्री के साथ रासलीला में लिप्त है तो कोई जबरिया शादी करने के लिए एक छात्रा का अपहरण करने से बाज नहीं आता। लाखों भक्तों को कथित रूप से धार्मिक उपदेश देने वाले ऐसे बाबाओं के चेहरों से नकाब उतरने के बाद पूरा समाज स्तब्ध है। लेकिन इसमें आश्चर्य की क्या बात? जब समाज धर्मावलंबी की जगह धर्मांध बन जाए तभी तो कुकुरमुत्ते की तरह ऐसे ढोंगी बाबा उदित होते हैं। ऐसा नहीं हैं कि ढोंगी बाबा पहले नहीं हुए। यह तो मीडिया की सतर्कता और आधुनिक तकनीकी है जो इन दिनों ऐसे ढोंगियों की करतूतों को सार्वजनिक कर रही है। पहले ऐसी बातें आई गई हो जाती थीं। चर्चाएं होती थीं, एक सीमित दायरे में। 1977 में इलाहाबाद में महाकुंभ लगा था। कुछ ऐसा योग बना कि मैं लगातार 15 दिनों तक उस कुंभ का साक्षी बना। तब देवराहा बाबा की बड़ी चर्चा थी। प्रयास के झूसी में उनका कैंप लगा था। मैं उन्हीं के कैंप में उनके प्रधान शिष्य के साथ ठहरा था। तब बताया गया था कि करीब 125 साल बाद ऐसेे महाकुंभ का योग बना था। चारों शंकराचार्य सहित देश के प्राय: सभी साधु-संत, साध्वियां वहां कुंभ में पहुँची थीं। माँ अमृतामयी भी थीं। जिस दिन मैं कुंभ पहँुचा था, उसी दिन आपातकाल हटाए जाने और आम चुनाव कराए जाने की घोषणा हुई थी। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी, संजय गांधी और प्राय: सभी छोटे- बड़े नेता कुंभ में आए थे। याद दिला दूँ, इंदिरा गांधी उन दिनों माँ अमृतामयी द्वारा दिया गया रूद्राक्ष की माला धारण करतीं थी। जब कुंभ में इंदिराजी उनसे मिलने गईं, तब अमृतामयी माँ ने उनसे वह माला वापस ले ली। इस घटना की काफी चर्चा उन दिनों पत्र- पत्रिकाओं में हुई थी। इंदिरा गांधी देवराहा बाबा का आशीर्वाद लेने भी पहुंची। बाबा ने उन्हें अनदेखा किया। प्रधान शिष्य के अनुरोध पर अनमने भाव से बाबा ने प्रसाद स्वरूप कोई फल मचान से इंदिराजी की आंचल में डाल दिया था। संजय गांधी ने बाबा से अलग से मिलने के लिए समय मांगा। बिहार के एक मंत्री विलंब रात्रि में, जब बाबा मचान के उपर अपनी कुटिया के अंदर जा चुके थे, उनसे आशीर्वाद लेने पहुँचे। मेरे अनुरोध पर प्रधान शिष्य उन्हें लेकर बाबा के मचान के नीचे पहुॅचे। मंत्रीजी की जिज्ञासा का जवाब बाबा मचान के अंदर से ही दे रहे थे। बातचीत चल ही रही थी कि बीच में ही बाबा ने अंदर से कहा- अच्छा बचवा, अब तुम लोग जाओ, उ चमरा आ रहा है। जब हम बाहर निकले तो देखे कि बाबू जगजीवन राम चले आ रहे हैं। ये उद्हरण मैं आलोच्य संदर्भं में विशेष प्रयोजन से दे रहा हूं। मैं अपना समय व्यतीत करने के लिए एक पंक्ति से प्रतिदिन कुंभ में पधारे साधु- संत, साध्वियों का साक्षात्कार लेने निकल जाता था। शाम को जब वापस कैंप लौटता था, तब बाबा के प्रधान शिष्य मुस्कुराकर पूछते थे कि कितने 'दुकान' घूम कर आए? तब चकित हो उठता था। उससे ज्यादा आश्चर्य तब हुआ, जब देवराहा बाबा से प्रत्यक्ष मुलाकात हुई। बाबा ने राजनीति और सिर्फ राजनीति की बातें की, धर्म की नहीं। मन में अनेक शंकाएं उठी जब बाबा के मचान के नीचे बिहार के एक निलंबित वरिष्ठ आईएएस अधिकारी को देखा था। उक्त अधिकारी अपनी पत्नी की हत्या का आरोपी था। बाद में अदालत ने उसे दोषमुक्त करार दिया। एक अन्य ऐसे वरिष्ठ अधिकारी को देखा था, जो हाथ जोड़कर बाबा से एक व्यवसायी विशेष को मदद किए जाने का आदेश ग्रहण कर रहे थे। उक्त अधिकारी ने उस व्यवसायी को अनुग्रहित किया भी। इन बातों को याद करने का उद्देश्य यह कि ऐसी 'दुकानदारी' (क्षमा करेंगे यह शब्द बाबा के कैंप से ही मुझे मिले थे) कोई नई नहीं।
एक शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती का बयान आया है कि ऐसे ढोंगी बाबाओं से सख्ती से निपटा जाए। एक दूसरे शंकराचार्य की टिप्पणी आई है कि कुछ ऐसे शंकराचार्य हैं, जिन्हें राजनीतिक संरक्षण प्राप्त है। आरोप- प्रत्यारोप के बीच का सच यह रेखांकित हुआ है कि ढोंगी बाबाओं के दुकान अगर फल-फूल रहे हैं तो धर्मांधता और समाज की निर्बल मानसिकता के कारण। ऐसी स्थिति का भरपूर फायदा ढोंगी बाबाओं ने उठाया है और उठा रहे हैं। ये सिर्फ धन ही नहीं बटोर रहे हैं, महिलाओं के शारीरिक शोषण से आगे बढ़ते हुए वेश्यावृति भी कराने लगे हैं। अगर इसे रोकना है तो पहल समाज करे। कानून तो अपना काम करेगा किंतु उसमें मौजूद छिद्र आरोपियों को संरक्षण प्रदान कर देते हैं। जरूरत है कि समाज आस्थावान हो, धर्मावलंबी हो, किंतु धर्मांध नहीं।

Sunday, March 7, 2010

न हिन्दू न मुसलमान हिन्द है महान!

एक पुरानी बहस, कि सभी खूंखार अंतरराष्ट्रीय आतंकवादी मुसलमान ही क्यों हैं, के बीच एक नई बहस, कि भारत में आखिर असली मुसलमान है कौन? इसी से जुड़ा यह सवाल भी कि यह असली मुसलमान कहां गया? बहस मौजूं है, इसका समाधानकारक जवाब चाहिए।
द्विराष्ट्र सिद्धांत के आधार पर खंडित आजाद भारत जब संविधान सभा में अपने लिए संविधान तैयार कर रहा था तब अल्पसंख्यक घोषित हो चुके मुस्लिम समुदाय के हित में लंबी बहसें हुई थीं। बहुसंख्यक हिन्दू समुदाय के प्रगतिशील सदस्य मुसलमानों के लिए विशिष्ट पहचान की वकालत कर रहे थे। बल्कि सच तो यह है कि संविधान सभा के हिन्दू सदस्यों के बीच 'मुस्लिक समर्थक' दिखने की होड़ मची थी। यह जानना दिलचस्प होगा कि आखिर उस समय मुस्लिम समुदाय क्या सोच रहा था? डा. बाबासाहब आंबेडकर के साथ काम कर चुके सुप्रसिद्ध न्यायविद मोहम्मदअली करीम छागला (एम.सी. छागला) की एक प्रतिक्रिया तब की मुस्लिम सोच को चिन्हित करने के लिए काफी है। जब संविधान सभा में मुस्लिम बहुल जम्मू-कश्मीर को संविधान की धारा 370 के जरिये विशिष्ट दर्जा दिए जाने का प्रस्ताव आया तब छागला ने अत्यंत ही पीड़ा के साथ पूछा था कि ''हमें (मुस्लिम समुदाय) राष्ट्र की मुख्य धारा से अलग क्यों किया जा रहा है?'' छागला की वेदना वस्तुत: तब मुस्लिम समुदाय के बड़े वर्ग की वेदना थी। लेकिन तभी सत्ताधारियों ने इस समुदाय में अपने लिए वोट बैंक को भांप लिया था। वोट और सत्ता की चाहत में राष्ट्रहित को हाशिए पर रख दिया गया। और कड़वा सत्य यह कि सत्ताधारियों की इसी रणनीति ने मुसलमानों को अपने ही देश में दोयम दर्जे का नागरिक बना डाला। एक षडय़ंत्र के तहत इन्हें दबाकर रखा गया। आंसू बहाने को इन्हें मजबूर किया गया। फिर आंसू पोंछने के नाम पर कथित सहानुभूति के तहत तुष्टिकरण की चुनावी नीति का इजाद हुआ। क्या यह दोहराने की जरूरत है कि जारी तुष्टिकरण के दंश से स्वयं मुस्लिम समाज आज बेचैन है? विशाल मुस्लिम समाज को चुनौती है कि वह स्वयं को ईमानदारी के साथ राष्ट्र की मुख्य धारा से जुड़ जाने के लिए इस स्थिति का 'पोस्टमार्टम' करे। दोयम दर्जे के कथित लबादे को उतार फेंके। जलाकर खाक कर दे ऐसी सोच को। हिन्दुस्तान पर अन्य कौमों के साथ-साथ उनका भी बराबर का हक है। अब सवाल यह कि क्या ऐसा संभव है? जवाब है हां, संभव है।
इसके लिए पहली शर्त यह है कि मुस्लिम समुदाय अपने लिए विशिष्ट पहचान के लालच का त्याग कर दे। अपनी कट्टर रूढ़ीवादी छवि से निजात पा ले। एक ऐसी क्रांति का आगाज करे जिससे समुदाय की छवि को लेकर उत्पन्न वर्जनाएं तार-तार हो जाएं। राजनीतिक दलों द्वारा प्रचारित ऐसी धारणा, कि प्रत्येक मुसलमान अल्पसंख्यक है और वह चुनाव में मुस्लिम उम्मीदवार को ही अपना वोट देते हैं, मिथ्या साबित हो जाए। धर्म आधारित मतदान के आरोप को मुस्लिम समाज झूठ साबित कर दे। यह संभव है। स्वयं को मुसलमानों का प्रतिनिधि घोषित करने वाले लोग अन्य कौमों को विश्वास में लेकर ईमानदार पहल करें, उनकी छवि स्वत: राष्ट्रीयता से ओतप्रोत हो जाएगी। दोयम दर्जे की कोई भी हीन भावना को अपने पास फटकने न दे। बहुसंख्यक हिन्दुओं के समकक्ष उनकी भी पहचान बन जाएगी। सत्तालोलुप नेताओं, चाहे वे हिन्दू हों या मुसलमान, अपने पास न फटकने दें। इन्हीं के द्वारा बुने गए राजनीतिक व सामाजिक ताने-बाने के कारण आम मुसलमान अपने ही देश में स्वयं को उपेक्षित समझने लगे। वे राष्ट्र की मुख्य धारा से दूर होते चले गए। सच मानिए तो साम्प्रदायिकता की आग को भी हवा इन्हीं कारणों से मिली। अब बहुत हो गया। अब और नहीं। मुस्लिम समाज का शिक्षित-सहनशील नेतृत्व राजनीतिकों के जाल को काट नई सुबह का आगाज करे। भारत विभाजन के समय आजादी की लड़ाई के एक जांबाज मुस्लिम नेता अबुल कलाम आजाद ने दिल्ली की जामा मस्जिद से जो आह्ïवान किया था, उसकी याद करे। आजाद ने तब पाकिस्तान उदय पर लगभग बिलखते हुए कहा था कि ''जो चला गया, उसे भूल जा, हिन्द को अपनी जन्नत बना।'' स्मरण करें आजाद के इन शब्दों को, सभी दर्द हवा हो जाएंगे।

Wednesday, March 3, 2010

मुगालते में न रहें मकबूल फिदा हुसैन!

किस मुगालते में हैं पेंटर एम.एफ. हुसैन? स्वयं को बहलाना एक बात है, संसार को बेवकूफ बनाना दूसरी। मुस्लिम देश कतर की नागरिकता स्वीकार कर इतराते हुए हुसैन कह रहे हैं कि ''कतर में मैं पूरी आजादी का आनंद ले रहा हूं, यहां मेरी अभिव्यक्ति की आजादी पर किसी का अंकुश नहीं है।'' किस अभिव्यक्ति की आजादी की बात कर रहे हैं हुसैन? चुनौती है उन्हें कि जिस संयुक्त अरब अमीरात के कतर की नागरिकता उन्होंने स्वीकार की है, वहां के पूजनीय किसी देवता का नग्न-अश्लील चित्र बनाकर दिखाएं। अभिव्यक्ति की 'आजादी' की हकीकत उन्हें तुरंत नजर आ जाएगी। वहां के शासक, वहां के लोग उनके टुकड़े-टुकड़े काटकर समुद्र में फेंक देंगे। कोई नामलेवा भी नहीं रहेगा। हिम्मत है तो ऐसा कर दिखाएं। लेकिन कायर हुसैन ऐसा नहीं कर पाएंगे। हुसैन कहते हैं कि ''भारत मेरी मातृभूभि है, मैं अपनी मातृभूमि से घृणा नहीं कर सकता, लेकिन भारत ने ही मुझे खारिज कर दिया।'' बकवास कर रहे हैं हुसैन। भारत ने उन्हें खारिज नहीं किया। हुसैन ने ही भारत को खारिज किया। भारत का अपमान किया। भारत उनकी मातृभूमि है तो फिर उन्होंने भारत माता का नग्न-अश्लील चित्र बनाकर अपनी 'मां' का अपमान क्यों किया? भारत में हिन्दू देवी-देवताओं के रतिक्रिया-लिप्त अश्लील चित्र बनाने वाले हुसैन क्या कतर में वहां के आराध्यों के नग्न-अश्लील चित्र बनाएंगे? यह भारत देश ही है जिसने उन्हें यश और धन दिया। हुसैन तो नमक हराम निकले! झूठे भी हैं वो। भारत के बुद्धिजीवियों और कलाकारों पर आरोप लगा रहे हैं कि जब उन पर कथित दक्षिणपंथी ताकतें हमला कर रही थीं तब इस वर्ग ने उनका साथ नहीं दिया। मकबूल फिदा हुसैन, लगता है आप अपनी स्मरणशक्ति भी गंवा बैठे हैं। अरे, वह तो भारत के बुद्धिजीवी कलाकार ही थे जिन्होंने अपने 'चरित्र' के अनुरूप हुसैन का साथ दिया। आम जन क्रोधित थे, विरोध कर रहे थे। विरोधियों ने अदालत की शरण ली। कानून का सहारा लिया, उन पर हमले नहीं किए। यही तो है अनुकरणीय भारतीय संस्कृति। अगर हुसैन स्वयं को पाक साफ समझते थे तब उन्हें अदालत में हाजिर होकर कानूनी लड़ाई लडऩी चाहिए थी। परंतु एक अपराधी, वह भी कायर, सच का सामना करता भी तो कैसे? भाग गए हुसैन, भागकर पहुंचे एक कट्टर मुस्लिम क्षेत्र में। भारत माता सहित हिन्दू देवी-देवताओं के अश्लील चित्र बनाने वाले मकबूल फिदा हुसैन को तो वहां शरण मिलनी ही थी। हुसैन इस सच को स्वीकार करें, बकवास नहीं करें।
हुसैन का नया अवतार भारत के बुद्धिजीवियों का भी मुंह चिढ़ा रहा है। जब हुसैन ने भारत की बहुसंख्यक आबादी की आस्था और धार्मिक भावना पर चोट पहुंचाई थी, तब हमारे बुद्धिजीवी-कलाकार हुसैन के समर्थन में सड़कों पर निकल पड़े थे- अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर। अब क्या कहेंगे वे? एक और ताजा घटना आंखें खोल देने वाली है। बच्चों के एक पाठ्यपुस्तक में जिसस क्राइस्ट की एक तस्वीर छपी जिसमें उनके एक हाथ में सिगरेट और दूसरे हाथ में बीयर का डब्बा दिखाया गया। यह एक अत्यंत ही आपत्तिजनक कृत्य है। हम इसकी कड़े शब्दों में भत्र्सना करते हैं। इसके प्रकाशक और चित्रकार को तत्काल दंडित किया जाना चाहिए। क्रिश्चियन बहुल मेघालय के साथ-साथ देश के कुछ अन्य भागों में बवाल खड़ा हो गया। क्रोधित लोगों पर काबू पाने के लिए पुलिस को बल प्रयोग करना पड़ा- कफ्र्यू लगाना पड़ा। मेघालय में पुस्तक प्रकाशक के खिलाफ आपराधिक मामला दर्ज हुआ। पुस्तक तो तत्काल वापस ले ही ली गई, प्रकाशक की गिरफ्तारी की प्रक्रिया शुरू हो गई। प्रकाशक के समर्थन में अभिव्यक्ति की आजादी का तर्क देते हुए कोई बुद्धिजीवी कलाकार सामने नहीं आया! क्या सिर्फ इसालिए नहीं कि मामला हिन्दू देवी-देवताओं का न होकर जिसस क्राइस्ट का है। बिल्कुल यही बात है। यह भारत देश ही है जहां बहुसंख्यक हिन्दुओं की सहनशीलता, धैर्य और संयम बार-बार चोटिल होते रहते हैं। अल्पसंख्यक समुदाय तो मुदित होते ही रहेंगे।

Monday, March 1, 2010

हर भारतीय हिंदू हर हिंदू भारतीय!

पूर्वग्रही शायद न मानें। विभाजन के दस दशक बाद भी आज हिंदू शब्द के वास्तविक अर्थ से देश की बहुसंख्यक आबादी अनजान है। हिंदू शब्द को धर्म से जोड़ सांप्रदायिक रंग दे दिया गया है। 'गर्व से कहो कि हम हिंदू' का उद्घोष करने वालों की राष्ट्रीय नहीं, भारतीय नहीं, सांप्रदायिक घोषित कर दिया जाता है। फिर क्या आश्चर्य कि विशाल हिंदू समाज इस शब्द के प्रयोग पर दबा-सहमा दिखता है। छद्म धर्मनिरपेक्ष ताकतों ने इस पर राजनीति का मुलम्मा चढ़ाकर अपने लिए वोट बैंक तैयार कर लिए हैं। सत्ता, शासन पर कब्जा करते रहे हैं। क्या इससे बड़ी कोई विडंबना हो सकती है? सभी अल्पसंख्यक वर्ग अपने-अपने धर्म की बेखौफ न केवल मुनादी पीटते हैं, डंके की चोट पर प्रचार-प्रसार करते हैं। कुछ मामलों में धर्म परिवर्तन भी कराते रहते हैं। लेकिन इन पर उंगलियां नहीं उठाई जातीं। एक अकेला बहुसंख्यक बेचारा हिंदू समाज जिसने स्वयं को हिंदू कहा नहीं कि सांप्रदायिक घोषित कर दिया जाता है। जबकि अल्पसंख्यक के नाम पर अपने- अपने धर्मों का गुणगान करने वालों को धर्मनिरपेक्षता के तमगे से सुशोभित कर दिया जाता है। पूरे संसार में भारत देश ऐसी विडंबना का एक अकेला उदाहरण है। हिंदू शब्द के सही अर्थ की जानकारी लोगों को नहीं दी गई। शायद अनजाने में या फिर किसी षडयंत्र के तहत।
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत ने हिंदू शब्द की भ्रांति को दूर करने की कोशिश की है। उन्होंने यह चिन्हित किया है कि हिंदू शब्द का अर्थ किसी धर्म विशेष से नहीं बल्कि जीवन जीने की एक पध्दति से है। इसे विस्तार देते हुए भागवत ने बिल्कुल सही टिप्पणी की है कि सभी भारतीय हिंदू हैं। अगर कोई व्यक्ति हिंदू नहीं है तो वह भारतीय भी नहीं हो सकता। चूंकि हिंदू शब्द को धर्म-विशेष से जोड़कर देखने की परिपाटी बन गई है, मोहन भागवत की बातों को तत्काल स्वार्थी कट्टरपंथी तत्व सांप्रदायिक घोषित कर देंगे। राजनीति शुरू हो जाएगी। अल्पसंख्यकों के लिए तुष्टिकरण की नीति को अपनाने वाले राजनीति के खिलाड़ी भला भागवत की हिंदू परिभाषा को कैसे स्वीकार करेंगे। उनकी दूकानदारी जो बंद हो जाएगी। जिस दिन विशाल भारतीय समाज यह मान लेगा कि हिंदू जीवन जीने की एक पद्धति है, हिंदूत्व एक संस्कृति है, सांप्रदायिकता बनाम धर्म-निरपेक्षता का झगड़ा ही खत्म हो जाएगा। भारत को ज्ञानियों और बुध्दिजीवियों का देश कहा जाता है। यह वर्ग उनींदा क्यों है? हिंदू शब्द के वास्तविक अर्थ को घर-घर में क्यों नहीं पहुंचाता? यह तो उसका धर्म होना चाहिए। लेकिन फिर एक अन्य विडंबना। समाज का यह सभ्य, शिक्षित वर्ग सुविधाभोगी बन गया है- कुछ अपवाद छोड़कर। चुनौती है इन्हें, अपनी आत्मा में झांकें, भारतीयता को पहचानें, विवाद स्वत: समाप्त हो जाएगा। फिर एक ऐसे अनुकरणीय, आदर्श, सामाजिक सौहाद्र्र्र का उदय होगा जो भारत की सीमा लांघ पूरे संसार को जीवन- जीने की पद्धति से परिचित कराएगा।