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Tuesday, June 26, 2012

दिग्विजय और शिवानंद की राह न चलें बलवीर!


पता नहीं आज के नेताओं को क्या हो गया है! मतिभ्रम के शिकार ये नेता 'छपास' की भूख से आगे बढ़ 'बकवास' के रोग से ग्रसित दिखने लगे हैं। जद यू अध्यक्ष शरद यादव ने अपने दल के प्रवक्ताओं को बकवास करने से तो रोका, किंतु स्वयं दो कदम आगे बढ़ बकवास करने लगे। अपने दल के लिए कायदे-कानून या फिर नीति बनाने के लिए अध्यक्ष के रूप में उन्हें अधिकार प्राप्त हो सकता है। किंतु किसी दूसरे दल के लिए ऐसे फैसले लेने का अधिकार उन्हें किसने दिया। भाजपा अगला लोकसभा चुनाव किसके नेतृत्व में लड़ेगी और प्रधानमंत्री पद के लिए किसे नामित करेगी, इसका फैसला तो पार्टी नेतृत्व ही कर सकता है। राजग अध्यक्ष होने के बावजूद शरद यादव को ये अधिकार नहीं मिल जाता कि वे भाजपा के आंतरिक मामलों में दखल दें। कुछ दिनों पूर्व जदयू के कद्दावर नेता और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और उनके सहयोगी प्रवक्ता शिवानंद तिवारी ने भी ऐसी गलती की थी। स्वयं शरद यादव को यह नागवार लगा थाौर  उन्होंने अनावश्यक टिप्पणी करने से पार्टी नेताओं को परहेज बरतने का निर्देश दिया था। तब वे सही भी थे। किंतु, अब जब भाजपा के एक प्रवक्ता बलवीर पुंज ने गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की प्रशंसा में कुछ बातें कहीं तब, शरद यादव को मिर्ची कैसे लग गई। हांलाकि 2014 अभी दूर है। भाजपा के अंदर प्रधानमंत्री पद की उम्मीद्वारी को लेकर उठा बवंडर निश्वय ही अनावश्यक है। नरेंद्र मोदी को लक्ष्य बनाकर समर्थन  और विरोध में आ रहे बयान किसी भी कोण से राजनीतिक परिपक्वता को रेखांकित नहीं करते। लोकतंत्र की मूल भावना को भी ऐसे विचार चुनौती देते हैं। चुनावी राजनीति में जब रातों-रात मतदाता अपने विचार बदल लेता है, तब दो साल बाद के संभावित परिणाम पर कोई आज प्रधानमंत्री की नियुक्ति करने लगे, क्या हास्यास्पद नहीं? वैसे, राजनीतिक समीक्षक बलवीर पुंज की बातों पर भी संदेह प्रकट कर रहे हैं। पुंज ने जिस प्रकार नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा द्वारा आगामी चुनाव लड़े जाने की बात कही और मोदी को पार्टी की ओर से प्रधानमंत्री पद का उम्मीद्वार घोषित कर डाला, निश्चय ही ये पार्टी नेतृत्व द्वारा लिए गए निर्णय नहीं हैं। पेशे से पत्रकार बलवीर पुंज को भी संयम से काम लेना चाहिए। अपनी टिप्पणी के पूर्व उन्होंने पाटी नेतृत्व से अनुमति ली होगी या नेतृत्व को विश्वास में लिया होगा, ऐसा नहीं लगता। पार्टी नेतृत्व पहले ही घोषणा कर चुका है कि उचित समय पर इस संबंध में दल के नेता मिल-जुलकर फैसला लेंगे। इस पाश्र्व में बलवीर पुंज को दिग्विजय सिंह और शिवानंद तिवारी के मार्ग पर चलते देख आश्चर्य तो होगा ही!

Sunday, June 24, 2012

'नीयत' साफ नहीं है नीतीश की!

भाजपा नेतृत्व सावधान हो जाए! कभी बिहार को पूरे संसार की नजरों में 'कुख्यात' बना डालने वाले लालू प्रसाद यादव के पुराने सहयोगी और अब  जदयू के 'लाडले' बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अपनी उसी रणनीति को अंजाम दे रहे हैं जिसकी रूपरेखा उन्होंने पिछले बिहार विधानसभा चुनाव के पहले ही तैयार कर ली थी। तब विधानसभा चुनाव प्रचार के लिए गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को बिहार में नहीं आने देने की शर्त नीतीश ने यूं ही नहीं रखी थी। वे वस्तुत: भाजपा नेतृत्व को भड़का उसकी परीक्षा ले रहे थे। तब की राजनीतिक जरूरत के कारण भाजपा ने नीतीश की शर्त को मान लिया था। ना की हालत में नीतीश कांग्रेस के साथ हाथ मिलाने वाले थे। अगर चुनाव परिणाम अप्रत्याशित नहीं होते, भाजपा को 91 सीटों के साथ बड़ी सफलता नहीं मिलती, तब नीतीश अपना रंग उसी समय दिखा देते। तब नरेंद्र मोदी को बिहार-प्रवेश से वंचित रखने में सफल नीतीश अब अगर राष्ट्रीय परिदृश्य से मोदी को अलग रखने का मंसूबा पाल रहे हैं, तो अपनी संकुचित अवसरवादी सोच के कारण ही।
दबाव का यह नया खेल क्षेत्रीय राजनीति का कोई तुक्का मात्र नहीं है। राष्ट्रीय दलों को एक सोची-समझी योजना के तहत ये गंभीर चुनौतियां हैं। कांग्रेस नेतृत्व की केंद्रीय सरकार की हर मोर्चे पर विफलता के कारण देश की जनता भाजपा को विकल्प के रूप में देख रही है। चूंकि अनेक राज्यों में जनाधार की कमी के कारण भाजपा अकेले दम पर केंद्र में सरकार का गठन नहीं कर सकती, क्षेत्रीय दलों का सहयोग-समर्थन अपरिहार्य है। भाजपा की इस जरूरत को ध्यान में रखकर ही राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के सहयोगी जदयू और शिवसेना ने भाजपा पर अपने दबाव बढ़ा दिए हैं। अब इसे भयादोहन (ब्लैकमेलिंग) कहें या राजनीतिक अवसरवादिता, दोनों दलों ने विशेषकर जदयू ने आक्रामक रूप अपना लिया है। लेकिन इस प्रक्रिया में इन दोनों ने आक्रमण को प्रहसन भी बना डाला है। जरा गौर करें। जदयू के एकमात्र मुख्यमंत्री बिहार के नीतीश कुमार और उनके प्रवक्ता शिवानंद तिवारी अब धर्मनिरपेक्षता और सांप्रदायिकता की न केवल नई परिभाषा गढऩे लगे हैं, बल्कि राजग के सबसे बड़े घटक भाजपा को परामर्श देने लगे हैं कि प्रधानमंत्री पद के लिए उम्मीदवार कैसा हो। एक ताजा सर्वे के अनुसार, भारतीय नेताओं में सर्वाधिक लोकप्रिय गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को हिंदूवादी नेता निरूपित कर नीतीश और तिवारी ने यहां तक चेतावनी दे डाली थी कि अगर मोदी को प्रधानमंत्री का उम्मीदवार बनाया जाता है, तब वे राजग से अलग हो जाएंगे। आरोप और चेतावनी दोनों हास्यास्पद हैं। अव्वल तो यह कि भाजपा ने किसी को भी अपनी ओर से प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित नहीं किया  है। लोकसभा चुनाव में अभी दो वर्ष बाकी हैं। दूसरा यह कि 'हिंदूवादी नेता' से नीतीश-तिवारी का आशय क्या है? तीसरा यह कि ऐन राष्ट्रपति चुनाव के मौके पर ऐसे विवादास्पद बयान क्यों आए? इन प्रश्नों के उत्तर ढूंढऩे से पहले नीतीश कुमार और शिवानंद तिवारी के अतीत के संबंध में जान लेना जरूरी है। ये दोनों कभी बिहार में कुख्यात हो चुके लालूप्रसाद यादव के सहयोगी रहे हैं- बल्कि बिहार में लालू मंत्रिमंडल में मंत्री रह चुके हैं। सच तो यह है कि 1990 में लालू जब पहली बार मुख्यमंत्री बने, तब मंत्री नीतीश कुमार लालू के 'फ्रेंड-फिलास्फर-गाइड' के रूप में जाने जाते थे। लालू तब कोई भी फैसला बगैर नीतीश को विश्वास में लिये नहीं करते थे। नीतीश की स्वच्छ छवि का पूरा फायदा लालू ने तब उठाया था। ईमानदार और बेबाक नीतीश ने अंतत: स्वयं को लालू से अलग कर लिया। जदयू में गए, केंद्र में राजग सरकार में मंत्री बने, लालू के भ्रष्ट शासन के खिलाफ अभियान छेड़ा और भाजपा का सहयोग ले बिहार में मुख्यमंत्री बने।
अब बात शिवानंद तिवारी की। ब्रिटिश शासनकाल में एक सिपाही (कांस्टेबल), फिर स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और आचार्य नरेंद्र देव, जयप्रकाश नारायण, कृपलानी और डा. राममनोहर लोहिया की समाजवादी पार्टी के सदस्य, बिहार की पहली गैरकांग्रेसी सरकार (1967) के गृहमंत्री, हर दृष्टि से ईमानदार रामानंद तिवारी के पुत्र हैं शिवानंद तिवारी। छात्र जीवन में उनकी गतिविधियों की अनेक रोचक गाथाएं आज भी पटना के गली-मोहल्लों में अक्सर चर्चा का विषय बनती हैं। नीतीश की तरह लालू को छोड़ जदयू में शामिल शिवानंद जब कहते हैं कि प्रधानमंत्री का उम्मीदवार सेक्युलर हो और यह कि जिस प्रकार प्रणब मुखर्जी ने वित्त मंत्री के रूप में महंगाई पर काबू पाया, सत्ता में रहकर भाजपा नहीं कर सकती थी, तब निश्चय ही हास्य-प्रसंग बनता है। राष्ट्रपति के लिए कांग्रेसी उम्मीदवार प्रणब मुखर्जी को समर्थन की घोषणा करने वाले जदयू के नेता ने प्रणब का हास्यास्पद गुणगान कर दल की नीयत पर सवालिया निशान जड़ दिया है। हर दिन बढ़ रही कमरतोड़ महंगाई पर नियंत्रण का प्रमाणपत्र देकर प्रणब को हीरो बनाने वाले शिवानंद क्या जनता को बताएंगे कि देश के किस भाग में, किस मोहल्ले में, किस गली में, किस नुक्कड़ पर प्रणब ने महंगाई को थाम लिया है! देश की अर्थव्यवस्था को तार-तार कर देने वाली सरकार के अर्थ मंत्री प्रणब मुखर्जी स्वयं भी अपने लिये ऐसे महिमामंडन पर हंस रहे होंगे। रही बात सेक्युलर प्रधानमंत्री की, तो पहले शिवानंद यह बताएं कि सन 2002 में जिस गुजरात दंगे के लिए नरेंद्र मोदी को जिम्मेदार मानते हुए जदयू मोदी का विरोध कर रहा है, उस समय भाजपा के अटल बिहारी मंत्रिमंडल में शामिल नीतीश कुमार ने विरोध स्वरूप मंत्री पद का त्याग क्यों नहीं कर दिया था? तब तो नीतीश ने एक शब्द भी मोदी के खिलाफ नहीं बोले थे। अगर बात दंगों की ही की जाए तब गुजरात से कहीं अधिक भयावह 1984 के सिख विरोधी दंगों के लिए जिम्मेदार कांग्रेस के उम्मीदवार प्रणब का समर्थन नीतीश और शिवानंद क्यों कर रहे हैं। ये दोनों क्या भूल गए हैं कि कांग्रेस नेताओं की अगुवाई में हुए सिख विरोधी दंगे में अकेले दिल्ली में 3000 से अधिक सिखों को मौत के घाट उतार दिया गया था। धर्मनिरपेक्षता और सांप्रदायिकता की दुहाई देने वाले ये दोनों नेता आज जब कांग्रेस का साथ दे रहे हैं, तब समय आने पर जनता इनसे जवाब मांगेगी। नीतीश और शिवानंद अभी अपने अभियान के क्रम में लोकतंत्र की दुहाई देने से भी नहीं चूके हैं। जानबूझ कर इतिहास से मुंह मोड़ लेने वाले इन नेताओं  को याद दिलाया जाना चाहिए कि वे उसी कांग्रेस पार्टी के उम्मीदवार का समर्थन कर रहे हैं जिसने लोकतंत्र को रौंदते हुए देश पर आपातकाल थोपा था और आम जनता को उसके मौलिक लोकतांत्रिक अधिकारों से वंचित कर दिया था। यह वही कांग्रेस पार्टी है जिसने पहले 1982 में बिहार प्रेस बिल के जरिये और फिर 1988 में 'प्रेस अधिनियम' के जरिये प्रेस का मुंह बंद कर संविधान प्रदत्त अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को कैद करने की कोशिशें की थी। तब स्वयं नीतीश और शिवानंद ने कांग्रेस सरकार के इन कदमों का चिल्ला-चिल्ला कर विरोध किया था। जाहिर है कि आज जब ये दोनों न केवल राष्ट्रपति के लिए कांग्रेस उम्मीदवार का समर्थन कर रहे हैं बल्कि कांग्रेस का गुणगान कर रहे हैं, तब इनकी नीयत संदिग्ध है। कहीं पर निगाहें-कहीं पर निशाना की तर्ज पर ये गठबंधन की राजनीति के फायदे को अपने हित में हथियार के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं।

Tuesday, June 19, 2012

'सौदेबाजी' तो हुई ही है, मुलायम जी!


मुलायम सिंह यादव के इन्कार पर भला कोई विश्वास करे तो कैसे? उनकी सफाई कि राष्ट्रपति पद के लिए प्रणब मुखर्जी को समर्थन के पीछे कोई 'सौदेबाजी' नहीं की गई है, अविश्वसनीय है। कोई और क्या, स्वयं मुलायम सिंह की आत्मा जानती होगी कि वे झूठ बोल रहे हैं। घोर अवसरवादी और वंशवादी राजनीति के प्रेरक-पोषक मुलायम यादव बगैर स्वार्थ के ऐसा कोई कदम उठा ही नहीं सकते। स्वार्थपूर्ति चाहे व्यक्तिगत हो, परिवार की हो या पार्टी की। सौदेबाज मुलायम स्वहित से ही प्रेरित होते हैं।  अब चाहे इनके गुरु स्व. राम मनोहर लोहिया स्वर्ग में बैठे जितना भी आंसू बहा लें, मुलायम-परिवार का 'सुख-सागर' भरता ही जाएगा। ऐसी सौदेबाजी से मुलायम व उनका परिवार सदा लाभान्वित होता रहा है। ताजा राष्ट्रपति चुनाव तो उनके लिए अनेक अवसर लेकर आया है। शत-प्रतिशत अनुभवहीन पुत्र अखिलेश को उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पद पर बैठा स्वयं केंद्र की राजनीति करने वाले मुलायम जानते हैं कि नदी में रहकर मगर से बैर नहीं किया जा सकता। आंध्र प्रदेश के जगन मोहन रेड्डी का हश्र उनके सामने है। जगन ने कांग्रेस को चुनौती दी। आय से अधिक संपत्ति के एक मामले में आनन-फानन में सीबीआई ने उन्हें जेल में डाल दिया। मुलायम के ऊपर ऐसे अनेक मामले वर्षों से लंबित हैं। लेकिन वे न केवल जेल के बाहर हैं बल्कि हर सत्ता सुख को भोग रहे हैं। राष्ट्रपति के लिए उम्मीदवार के मामले में पहले ममता बनर्जी के कंधे पर हाथ रखा, बाद में ठेंगा दिखा दिया। आशावान ममता को न केवल अकेला छोड़ दिया बल्कि उन्हें 'मेरा' और 'हमारा' के बीच फर्क का पाठ पढ़ाया गया। क्या यह कांग्रेस के साथ हुई सौदेबाजी का अंश नहीं? अखिलेश को उत्तर प्रदेश चलाने के लिए केंद्र का समर्थन चाहिए तो महत्वाकांक्षी मुलायम को ब-रास्ता दिल्ली राष्ट्रीय राजनीति में पैर फैलाने का अवसर। संप्रग और सरकार से ममता के अलग होने पर रिक्त रेल मंत्रालय सहित मंत्रिपरिषद के पांच पदों पर मुलायम की नजरें टिकी हैं। दोनों हाथों से मलाई खाने की इच्छा रखने वाले मुलायम जानते हैं कि फिलहाल सोनिया गांधी का साथ देकर ही वे जेल से बाहर रह सत्ता सुख भोग सकते हैं। अपनी अवसरवादी सौदेबाजी से मुलायम पहले भी लाभान्वित होते रहे हैं। 1995 के जून महीने में जब उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव की सरकार अल्पमत में आ गई थी, तब बहुजन समाज पार्टी की मायावती को मुख्यमंत्री के रूप में शपथ लेनी थी। शपथ के एक दिन पूर्व 2 जून 1995 की शाम मुलायम सिंह यादव के समर्थकों ने बसपा के कई विधायकों पर कथित रूप से हमले किए और कुछ विधायकों का अपहरण कर लिया। इस घटना के बाद उत्तर प्रदेश सरकार ने राजस्व बोर्ड के अध्यक्ष को घटना संबंधी जांच का जिम्मा सौंपा। एक महीने बाद जांच रिपोर्ट सौंपी गई। रिपोर्ट में यह कहा गया था कि घटना में मुलायम सिंह यादव और बेनी प्रसाद वर्मा शामिल थे। नैतिकता का तकाजा था कि मुलायम को मंत्री पद से इस्तीफा दे देना चाहिए था लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। ध्यान रहे, तब मुलायम केंद्र में रक्षा मंत्री बन गए थे। लोगों को आज भी याद होगा कि उसी दौरान किस प्रकार देश के रक्षा मंत्री मुलायम ने अपने मंत्रिमंडलीय सहयोगी बेनी प्रसाद वर्मा तथा अन्य नेताओं के साथ न केवल विरोधियों को ललकारा और धमकी दी, बल्कि प्रेस को भी नहीं बख्शा। उन्होंने एक लाल दस्ता (रेड ब्रिगेड) के गठन की घोषणा करते हुए ऐलान किया था कि इसके सदस्यों के हाथों में लाठियां होंगी। मुलायम तब केंद्रीय स्तर पर बाहुबल की राजनीति के प्रेरक बने थे। बाद में मामला अदालत में भी गया। रक्षा मंत्री देश की 10 लाख सशस्त्र सेनाओं का नेतृत्व करता है जो देश की क्षेत्रीय अखंडता के लिए जिम्मेदार है। किन्तु तब रक्षा मंत्री मुलायम यादव नैतिकता से दूर इस्तीफे से इन्कार करते हुए अपनी जिद पर अड़े रहे। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में अपनी समाजवादी पार्टी की आशातीत सफलता से उनकी महत्वाकांक्षाएं और भी बलवती हो गई हैं। केंद्र में संप्रग सरकार की कमजोरी का भरपूर फायदा उठाते हुए मुलायम यादव सौदेबाजी करने लगे हैं। सरकार को बचाने के लिए मुलायम सिंह यादव की जरूरत के मद्देनजर केंद्र सरकार भी उन्हें चारा डालने को मजबूर है। दोनों पक्षों की जरूरतें ही हैं कि इस ताजा मामले में सौदेबाजी को मूर्त रूप दिया गया। मुलायम चाहे जितना इन्कार कर लें, देश जानता है कि उन्होंने अपने और अपने परिवार के निजी फायदे के लिए ऐसी सौदेबाजी की है। 

''.... मैं देख लूंगी'' से ''.... मैं नहीं डरूंगी'' तक


''.... मैं देख लूंगी!'' ये शब्द हैं तब की प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के। लगभग 43 वर्ष पूर्व 1969 में इंदिरा गांधी ने ऐसी शाब्दिक चेतावनी अपनी ही कांग्रेस पार्टी की कार्यकारिणी समिति को दी थी। आज चार दशक बाद केंद्र में कांग्रेस नेतृत्व की गठबंधन सरकार की एक सहयोगी तृणमूल कांग्रेस की अध्यक्ष व पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी दहाड़ रही हैं कि ''.... मैं किसी से नहीं डरती, मैं किसी के आगे नहीं झुकूंगी।'' विडंबना यह कि ये चेतावनियां दोनों महिला राजनेताओं ने राष्ट्रपति चुनाव की गहमागहमी के बीच दी। भारत की आजादी की पूर्व संध्या पर 14 अगस्त 1947 को पंडित जवाहरलाल नेहरू ने कहा था कि ''हम पुराने से नए में प्रवेश करते हैं, जब एक युग समाप्त होता है और लंबे समय से दबी हुई एक देश की आत्मा को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मिलती है।'' नेहरू की आत्मा आज निश्चय ही विलाप कर रही होगी, यह देख-सुन कर कि आज 'अभिव्यक्ति' को अवसरवादी संतुलन का हथियार बना दिया गया है। 
सुविधानुसार नैतिकता और मर्यादा की बेडिय़ों से इसे बांध दिया जाता है। सत्तारूढ़ संप्रग द्वारा राष्ट्रपति के लिए उम्मीदवार चयन की प्रक्रिया में ममता बनर्जी कांग्रेस व संप्रग अध्यक्ष सोनिया गांधी से मिलती हैं। बैठक पश्चात जब वह मीडिया को सोनिया की पसंद बताती हैं, तब कांग्रेस की ओर से उन पर मर्यादा भंग करने का आरोप लगता है। कहा गया कि उन्होंने विचाराधीन नामों को सार्वजनिक कर मर्यादा भंग की। ममता की ओर से स्पष्टीकरण आया कि सोनिया की सहमति से ही नाम सार्वजनिक किए गए। कांग्रेस मौन हो गई। साफ है कि आरोप गलत थे। मर्यादा और नैतिकता की बातें ममता के विरुद्ध वातावरण तैयार कर उन्हें नीचा दिखाने के लिए की गई थीं। मर्यादा की दुहाई देने वाले कांग्रेसी नेताओं को 1969 की याद कर लेनी चाहिए थी। आज तो मामला जटिल गठबंधन का है। तब केंद्र में कांग्रेस की बहुमत वाली सरकार थी। अति महत्वाकांक्षी प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने कांग्रेस संगठन की इच्छा को ठेंगे पर रखते हुए पार्टी द्वारा चयनित राष्ट्रपति उम्मीदवार नीलम संजीव रेड्डी के खिलाफ अपनी पसंद वी.वी. गिरी को खड़ा कर दिया था। दलीय अनुशासन और नैतिकता की धज्जियां उड़ाते हुए इंदिरा गांधी ने तब अपनी ही कांग्रेस पार्टी के उम्मीदवार के खिलाफ कथित 'अंतरात्मा की आवाज' पर मतदाता सांसदों और विधायकों से वोट डालने की अपील कर डाली। कांग्रेस इतिहास का वह एक सर्वाधिक काला अध्याय बन गया। सो, कम-अ•ा-कम कांग्रेस नैतिकता और मर्यादा की दुहाई तो न ही दे। पार्टी अनुशासन तोड़ कर मर्यादा का उल्लंघन कर तब इंदिरा गांधी अपने अभियान में सफल रही थीं- अपनी ही कांग्रेस पार्टी के अधिकृत उम्मीदवार को पराजित कर।
आज जब कांग्रेस बल्कि संप्रग के पास अपने उम्मीदवार प्रणब मुखर्जी को जिताने के लिए आवश्यक बहुमत नहीं है, पार्टी और गठबंधन क्या अवसरवादी खेल नहीं खेल रहा? ज्ञात श्रोतों से अधिक आय और संपत्ति के मामले में सीबीआई जांच का सामना कर रहे मुलायम सिंह यादव, ऐसे ही आरोप से जूझ रहीं मायावती और कुख्यात चारा घोटाले के महानायक लालू प्रसाद यादव के सहयोग से अपने उम्मीदवार को राष्ट्रपति भवन में आसीन कराने की कवायद क्या अवसरवादिता और अनैतिक साठगांठ को चिन्हित नहीं करता? निश्चय ही छल-कपट आधारित इस कवायद की परिणति किसी सुखद पवित्रता के रूप में तो नहीं ही होगी। बंगाल की शेरनी के रूप में परिचित ममता बनर्जी जब अपनी 'निडरता' को रेखांकित कर रही हैं, तब यहां भी किसी सुखद अंजाम की अपेक्षा नहीं की जा सकती। संप्रग की ओर से बंगाल के प्रणब मुखर्जी को आगे करना अगर अवसरवादी राजनीति की एक चाल है तो बंगाल की ममता बनर्जी द्वारा पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम को सामने करना भी सियासी चाल ही है। इस पूरे प्रकरण का सर्वाधिक दुखद पहलू है राष्ट्रपति पद की गरिमा को तार-तार करना। भारत जैसे गणराज्य का राष्ट्रपति तो सर्वमान्य होना चाहिए। इस पद और व्यक्ति को लेकर अवसरवादी सोच और सियासी चाल को स्वीकृति नहीं मिलनी चाहिए। डा. राजेंद्र प्रसाद, सर्वपल्ली राधाकृष्णन और जाकिर हुसैन की परंपरा को तोड़ व्यक्तिगत पसंद और नापसंद को महत्व दिये जाने का दुष्परिणाम ही है यह। दुखद रूप से देश ने फखरुद्दीन अली अहमद के रूप में ऐसा राष्ट्रपति भी देखा है जिसने संवैधानिक आवश्यकता को दरकिनार कर देश पर आपातकाल थोपने संबंधी आदेश पर आधी रात को हस्ताक्षर कर दिए थे। तब राष्ट्रपति भूल गए थे कि उनके हस्ताक्षर से आजाद भारत के नागरिकों को उनके मौलिक अधिकारों से वंचित किया जा रहा है। तब आजादी की लड़ाई के लाडले जेलों में बंद कर दिए गए थे। जन अभिव्यक्ति का माध्यम 'प्रेस' की जुबान पर ताले जड़ दिए गये थे। यही नहीं, ज्ञानी जैल सिंह के रूप में भी देश ने एक ऐसे राष्ट्रपति को देखा जिसने सार्वजनिक रूप से कहा था कि ''अगर इंदिरा गांधी उन्हें राष्ट्रपति भवन में झाड़ू लगाने का काम देतीं तो उसे भी स्वीकार कर लेते।'' राष्ट्रपति और राष्ट्रपति पद की मर्यादा को तब रौंदा गया था।
हम अतीत की याद वर्तमान और भविष्य को सुधारने के लिए करते हैं। मर्यादा और नैतिकता की बातें करने वाले इतिहास के पन्नों को उलट सचाई को जान लें। अभी भी समय है। राष्ट्रपति पद को विवादों से दूर रखने के लिए आम सहमति बनाएं। किसी व्यक्ति विशेष को निशाने पर लेकर राजनीतिक लाभ साधने की कवायद का त्याग करें। और अंत में, महत्वपूर्ण यह भी कि देश फैसला करे कि हमें एक महान राष्ट्र का महान नागरिक बनना है, न कि एक महान राष्ट्र में तुच्छ नागरिक बन कर रहना है।

Monday, June 18, 2012

ममता की व्यथा, राजनीति का सच!


''... राजनीति में नीति और नैतिकता खत्म हो गई है... सिर्फ पैसे का खेल चल रहा है... पैसा, पावर, घोटाले का बोलबाला है। '' पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री और तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी की इस व्यथा को क्या कोई चुनौती दे सकता है? संभव ही नहीं! ममता ने वर्तमान राजनीति के कड़वे सच को चिन्हित किया है। ममता की व्यक्तिगत ईमानदारी संदेह से परे है। समाज के प्रति उनका समर्पण और आमजन की सुख-समृद्धि की उनकी चाहत स्पष्टत: दृष्टिगोचर है। लंबे राजनीतिक संघर्ष के दिनों में भी पसीना बहा सड़कों पर आम कार्यकर्ता के साथ जनहित में मोर्चा संभालने वाली ममता पहले केंद्रीय मंत्री और अब पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री बनने के बाद भी बगैर किसी अहंकार के एक सामान्य महिला के रूप में शासन की बागडोर संभाल रही हैं। आलोचक उन्हें भले ही अक्खड़ कह लें, लेकिन ऐसा अक्खड़पन कोई ईमानदार व्यक्ति ही दिखा सकता है। हमेशा दोटूक बोलने वाली ममता ने जब वर्तमान राजनीति के सच को उकेरा है तब निश्चय ही अपने अनुभव के आधार पर ही। बिल्कुल ऐसा ही हुआ है। आजादी के बाद शासन के आरंभिक दौर को छोड़ दें तब ऐसे आरोप लगाने में कोई भी नहीं हिचकेगा कि वर्तमान राजनीति नैतिकता की पुरानी नींव की जगह अनैतिकता की नई नींव पर खड़ी है। निजी बैठकों में या फिर सार्वजनिक मंच से नैतिकता की दुहाई देने वाले नेता मन ही मन स्वयं पर हंसते हैं। चूंकि वे सचाई से अवगत होते हैं, अपने 'अभिनय' की सराहना में मुदित तो होंगे ही। चाहे सत्ता पक्ष हो या विपक्ष सभी सुविधानुसार नैतिकता की नई परिभाषा गढ़ लेते हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि नैतिकता के 'छूत' से बचने के लिए आज प्राय: सभी राजदल छद्म धर्मनिरपेक्षता, सांप्रदायिकता, जातीयता और क्षेत्रीयता जैसी संकीर्ण विचारधारा को ढाल बना लेते हैं। सत्ता वासना के इस खेल में सभी शामिल हैं। किसी एक दल का कोई व्यक्ति विशेष आज किसी दूसरे दल की दृष्टि में अछूत हो सकता है, किन्तु वही व्यक्ति विशेष जब पाला बदल उनके दल में शामिल हो जाता है तब वह पवित्र बन जाता है। निश्चय ही ये सब पैसा, पावर और घोटाले के खेल के ही अंग हैं। देश ने वह काल भी देखा है जब 1996 में लोकसभा में सबसे बड़ी पार्टी के रूप में विजय पाने वाली भारतीय जनता पार्टी ने केंद्र में सरकार तो बनाई किन्तु प्रधानमंत्री के रूप में अटलबिहारी वाजपेयी जैसे व्यक्ति के होने के बावजूद सरकार 13 दिन में ही गिर गई। तब 'सांप्रदायिक भाजपा' को समर्थन देने कोई दल सामने नहीं आया। किन्तु कुछ महीने बाद ही जब पुन: भाजपा सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी, तब लगभग दो दर्जन दल उसके सहयोगी बने। भाजपा अछूत से पवित्र बन गई। उसी काल में देश ने देखा कि कैसे सोनिया गांधी की कांग्रेस पार्टी ने प्रधानमंत्री इंद्र कुमार गुजराल की सरकार को इसलिए गिरा दिया कि उनके मंत्रिमंडल में द्रमुक भी शामिल थी। सोनिया गांधी के अनुसार, द्रमुक उनके पति राजीव गांधी की हत्या के लिए दोषी थी। लेकिन वही द्रमुक सोनिया गांधी के नेतृत्व में गठित संप्रग सरकार में आज भी शामिल है। ममता बिल्कुल सही हैं। नीति और नैतिकता को सभी दलों ने कूड़ेदान में डाल दिया है।
ममता यहां भी बिल्कुल सही हैं जब वे कहती हैं कि राजनीति में आज सिर्फ पैसे का खेल चल रहा है। लोकसभा, राज्यसभा, विधानसभा और विधान परिषद के लिए चयनित महानुभावों की सूचियों पर गौर करें। कुछ अपवाद छोड़ दें तो यही तथ्य उभर कर सामने आएगा कि इनके चयन के पीछे पैसा और सिर्फ पैसा का ही खेल रहा है। लोकसभा की तो छोड़ दें, विधान परिषद के चुनावों में भी करोड़ों का खेल होता है। क्या यह बताने की जरूरत है कि ऐसे धन का स्रोत कालाधन ही होता है? क्या यह भी बताने की जरूरत है कि ऐसे कालाधन भ्रष्टाचार द्वारा ही अर्जित किए जाते हैं? फिर ऐसे महान निर्वाचित प्रतिनिधियों से पवित्र लोकतंत्र की सुरक्षा अपेक्षा कोई करे तो कैसे? आज अगर पूरी की पूरी व्यवस्था सड़ कर बदबू पैदा कर रही है तो इसके लिए जिम्मेदार निश्चय ही हमारे ऐसे तथाकथित निर्वाचित प्रतिनिधि ही हैं। वे नाराज होंगे, खफा होंगे, उबलेंगे लेकिन यह कड़वा सच मोटी रेखाओं से चिन्हित रहेगा। और हां, अंत में ऐसे सच को एक सत्ता पक्ष की ओर से रेखांकित करने के लिए ममता बनर्जी को सलाम!