Sunday, February 22, 2009
अपनी गिरेबां में झांकें सोमनाथ चटर्जी
राजनीतिक भौंडेपन के वीभत्स प्रदर्शन पर लोकतंत्र अनेक बार रोया है. कोई आश्चर्य नहीं कि अब संसद के अंदर निर्वाचित जनप्रतिनिधियों के 'हुड़दंग' पर लोकसभाध्यक्ष ने बिफर कर उन्हें बिल्कुल नकारा करार दिया है. वैसे अध्यक्ष ने अब अपने शब्दों को वापस ले लिया है, किन्तु पूरा देश उनके शब्दों को उद्धृत कर सांसदों की भरत्सना कर रहा है. सांसदों को 'धेलालायक भी नहीं' निरूपति करने वाले अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी अपनी जगह बिल्कुल सही थे. किसी भी एजेंसी से राष्ट्रीय स्तर पर सर्वेक्षण का परिणाम लोकसभाध्यक्ष की बातों के समर्थन में निकलेगा. संसदीय कार्यवाही में बार-बार बाधा पहुंचाने वाले सांसद अपने आचरण से निश्चय ही लोकतंत्र की सफलता पर सवालिया निशान चस्पा देते हैं. तो क्या संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली का त्याग कर देना चाहिए? कदापि नहीं. मुठीभर 'धेलेलायक' कथित जनप्रतिनिधियों के आपत्तिजनक आचरण के समक्ष घुटने नहीं टेके जा सकते. जरूरत है ऐसे लोगों को लोकतंत्र प्रदत्त विशेषाधिकार से वंचित रखने की. ऐसे लोगों को सांसद का तमगा न मिल पाए, यह सुनिश्चित करना होगा. मैं यहां लोकसभा अध्यक्ष की भावना के साथ हूं कि ऐसे सांसद सार्वजनिक धन का उपयोग करने लायक नहीं हैं. ये सांसद देश की जनता का अपमान कर रहे हैं, उसे मूर्ख बना रहे हैं. तब फिर निंदनीय आचरण के अपराधियों के हाथों में लोकतंत्र की कमान क्यों रहे? एक अवसर पर चुनाव आयोग ने अनुशंसा की थी कि कानून तोडऩे वालों को कानून बनाने का हक नहीं मिलना चाहिए. लेकिन खेद है कि आयोग की अनुशंसा को रद्दी की टोकरी में डाल दिया गया. आयोग की छोडि़ए, स्वयं संसद के अंदर पारित वह प्रस्ताव भी रद्दी की टोकरी में सिसकने को मजबूर है जिसे सभी दलों ने विलक्षण सहमति से पारित किया था. आजादी की स्वर्ण जयंती समारोह के दौरान 26-31 अगस्त 1996 के बीच संसद के विशेष सत्र में सर्वसम्मत प्रस्ताव पारित हुआ था कि सभी दल राजनीति को अपराधिकरण से बचाने के लिए कृतसंकल्प होंगे. किन्तु अपराध और अपराधियों से गलबहियां करने वाले राजनीतिक दल भला ऐसे संकल्प को पूरा करते तो कैसे! फेंक दिया संकल्प को कचरे में.अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी भी तब संसद के सदस्य थे. उन्हें भी उस संकल्प की याद होगी. यहां मेरी शिकायत उनसे भी है. क्या अपने कार्यकाल में अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी को एक बार भी उस संकल्प की याद आई? मुझे खुशी होती, अगर अध्यक्ष चटर्जी अपने कार्यकाल के अंतिम सत्र में सांसदों पर दहाडऩे की जगह संसद में पारित संकल्प को पेश कर सभी दलों के नेताओं से जवाब-तलब करते. उन्होंने ऐसा नहीं किया. बार-बार 'हेडमास्टर' के रूप में स्वयं को प्रस्तुत करने वाले अध्यक्ष चटर्जी वस्तुत: संसद की गरिमा की रक्षा करने में स्वयं असमर्थ साबित हुए हैं. सर्वोच्च न्यायालय से टकराने की तत्परता दिखाने वाले अध्यक्ष तब मौन क्यों रह गए थे, जब सांसदों के वेतन-भत्ते में वृद्धि संबंधी विधेयक पेश किए जाते थे? आज सांसदों के वेतन-भत्ते को 'पानी में बहाए' जाने की बात करने वाले अध्यक्ष मुंबई उच्च न्यायालय के एक माननीय न्यायाधीश से सबक लें. माननीय न्यायाधीश ने अध्यादेश के माध्यम से बढ़ाए गए वेतन को लेने से इन्कार कर दिया है. वे प्रतीक्षा कर रहे हैं तत्संबंधी कानून बनाए जाने की. इसे कहते हैं अनुकरणीय नैतिकता. आपत्तिजनक आचरण के लिए अगर कोई छात्र दोषी करार दिया जाता है तो सवालिया निशान उसके शिक्षक पर भी स्वत: लग जाते हैं. इन पंक्तियों के लेखक की आंखों के सामने वे सारे दृश्य तैर रहे हैं जिनमें संसद में अनुशासन कायम रखने के लिए अध्यक्ष व्यग्र दिख रहे हैं. किन्तु परिणाम के खाते में शून्य देख अध्यक्ष की विफलता को रेखांकित करने की मजबूरी है. अगर सांसद छात्र अपेक्षा एवं कर्तव्य की कसौटी पर 'फेल' दिख रहे हैं तब हेडमास्टर के आसन पर बैठे अध्यक्ष भी, क्षमा करेंगे, 'फेल' ही दिख रहे हैं. संसद से बाहर निकल देश के गली-कूचों में फैले हताश लोकतंत्र के लिए अध्यक्ष को भी दोषी ठहराया जाएगा.
सांसदों के कथित आपत्तिजनक आचरण पर बार-बार इस्तीफे की धमकी देने वाले अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी क्या कभी अपने शब्दों पर कायम रहे? अध्यक्ष चटर्जी अपनी गिरेबां में झांक कर देखें. वहां उन्हें एक असहाय समझौतावादी वृद्ध सिसकता हुआ दिखाई देगा. फिर क्या आश्चर्य कि अंतिम हंसी सांसदों के पाले में ही गई.
Sunday, February 15, 2009
फिर फैसला हुआ, न्याय नहीं !
संविधान निरूपित कानून में समानता के बुनियादी सिद्धांत का लंगड़ा स्वरूप एक बार फिर सामने है. क्यों बेअसर होने लगे हैं ये सिद्धांत? विधि के शासन को असरदार ढंग से लागू करने में उत्प्रेरक की भूमिका निभाने वाली अदालतें मौन न रहें. न्यायिक सक्रियता का प्रभावी दौर बाधित न होने दें. मैं आज फिर मजबूर हूं, यह दोहराने के लिए कि मनोरमा कांबले हत्याकांड में फैसला तो हुआ, न्याय नहीं. सन् 1990 में इसी नागपुर में दो छात्रों की हत्या के मामले में अदालती फैसले पर लिखे गए अपने कॉलम का शीर्षक मैंने यही दिया था- फैसला हुआ, न्याय नहीं- तब भी सभी आरोपी बरी हो गए थे, आज भी सभी आरोपी ससम्मान बरी हो गए. अदालत ने मनोरमा कांबले की हत्या के सभी 8 आरोपियों को इसलिए बरी कर दिया कि अभियोजन पक्ष आरोप सिद्ध नहीं कर पाया. दूसरे शब्दों में कोई भी आरोपी मनोरमा की हत्या का दोषी नहीं पाया गया. अदालती आदेश को हम मान लेते हैं. लेकिन यह सवाल तो अपनी जगह अभी भी कायम है कि अगर बरी किए गए लोगों ने मनोरमा की हत्या नहीं की थी, तब आखिर उसकी हत्या किसने की? बलात्कार किन्होंने किया था? मनोरमा की लाश अभियुक्तों के घर पर मिली थी. आरंभ में बताया गया कि घर की सफाई करते समय बिजली का करंट लगने से उसकी मृत्यु हो गई थी. तब दलित-दमन के रूप में पूरे देश में मामले की गूंज हुई. लोगों में आक्रोश का ज्वार फूटा, दबाव बना और मनोरमा की दफन लाश को निकालकर पोस्टमार्टम किया गया. पाया गया कि मनोरमा के साथ सामूहिक बलात्कार कर हत्या कर दी गई थी. आरोपी गिरफ्तार किए गए. यहां यह बता दूं कि मामले को दबाने के आरोप में तब अनेक पुलिस अधिकारियों के खिलाफ बर्खास्तगी, निलंबन आदि कार्रवाइयां हुई थीं. यही नहीं, निचली अदालत के जजों के खिलाफ भी तब कार्रवाइयां हुई थीं. प्रसंगवश तब नागपुर के सत्र न्यायाधीश ने विलंब रात्रि को सभी आरोपियों को अपने घर से जमानत दे दी थी. पहले निलंबन और बाद में वह जज बर्खास्त कर दिया गया था. लेकिन आज अंतिम विजय तो आरोपियों की ही हुई! मैं अदालत की अवमानना नहीं कर रहा. अन्य लोगों की जिज्ञासा को अपने माध्यम से सामने रख रहा हूं. लोग अब यह जानना चाहते हैं कि जब आठों आरोपी निर्दोष हैं, तब मनोरमा के हत्यारे कौन हैं? बलात्कारी कौन हैं? न्याय के पक्ष में उचित होता यदि अदालत अभियुक्तों को बरी किए जाने के साथ ही मनोरमा के बलात्कारी हत्यारों को ढूंढ़ निकालने का आदेश भी जारी करती. बरी किए जाने के बाद हत्याकांड के आरोपियों की खुशी स्वाभाविक है, किन्तु मनोरमा की आत्मा? उसके परिवार, सगे-संबंधियों और समाज की जिज्ञासा?? अब किशोर हो चुके मनोरमा के बच्चे जानना चाहेंगे कि उनकी मां के हत्यारे-बलात्कारी कौन हैं? पुलिस जांच से यह पहले ही स्थापित हो चुका है कि मनोरमा के साथ सामूहिक बलात्कार हुआ था और उसकी हत्या की गई थी. क्या यह पुलिस और न्यायालय का दायित्व नहीं कि मनोरमा के बलात्कारी हत्यारों को खोज कर उन्हें दंडित किया जाए? अदालती आदेश के बाद निश्चय ही मनोरमा की आत्मा भी बेचैन होगी. यह पूरी की पूरी न्यायिक व्यवस्था को चुनौती है. विधि के शासन को चुनौती है. पुलिस-प्रशासन को चुनौती है. क्या यह दोहराने की जरूरत है कि न्यायिक व्यवस्था में लोगों की आस्था का खत्म होना लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए खतरनाक है. ये वे ही कांड हैं जिनकी तपिश में समाज करवट लेने को मजबूर हो जाता है. और इससे उत्पन्न ज्वाला पूरी की पूरी व्यवस्था को अपने आगोश में ले लेती है. समाज-देश-लोकतंत्र के संचालक क्या ऐसी दु:खद परिणति की प्रतीक्षा कर रहे हैं?
Saturday, February 7, 2009
रामलला-1
रामसेतु-2
भाजपा-3
दिल्ली से आए मेरे एक पत्रकार-मित्र ने मोबाइल फोन पर लगभग चीखते हुए जानकारी दी- ''....द कैट इज नाऊ आउट ऑफ द बैग.... राजनाथ सिंह ने कह दिया कि अयोध्या में राममंदिर बन कर रहेगा.... हमें मौके का इन्तजार है.... (और यह भी कि हम रामेश्वरम् में रामसेतु को टूटने नहीं देंगे)!'' मित्र 'ब्रेकिंग न्यूज' दे रहे थे. टेलीविजन पर उद् घोषक भी देश को यह बताने में जुट गए कि आखिर चुनाव के समय भाजपा को फिर राम ही याद आ गए. आनन-फानन में टी.वी. पर रामलला और रामसेतु को लेकर विशेष चर्चाएं शुरू कर दी गईं. विशेषज्ञों के महान विचार देश की जनता तक पहुंचाए जाने लगे. कुछ यूं जैसे भाजपा ने 'राम-विस्फोट' कर देश भर में दूषित साम्प्रदायिक हवा फैला दी. कुछ विशेषज्ञों ने अपने बॉडी लैंग्वेज से ऐसा संकेत भी दे डाला कि रामलला और रामसेतु पर चल कर भाजपा ने लोकसभा चुनाव में जीत को सुनिश्चित कर लिया है.
यहां नागपुर में मौजूद देश-विदेश से करीब 450 मीडिया-कर्मियों की परेशानी यह थी कि कुछ घंटे पहले ही वे अपने-अपने मुख्यालयों को ऐसी खबर भेज चुके थे कि भाजपा ने 'राम' का दामन छोड़ कर गांधी का दामन थाम लिया है. लेकिन भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने रामसेतु और रामलला के समक्ष नतमस्तक हो एक झटके में उन खबरों को झुठला दिया. रातोंरात भाजपा-रणनीतिकारों के विचार-परिवर्तन का कारण ढूंढऩा कठिन नहीं है. शुक्रवार को भाजपाध्यक्ष ने एक दार्शनिक की तरह साम्यवाद और पूंजीवाद के क्षरण से सीख लेते हुए नया मार्ग ढूंढऩे की वकालत की थी. मैं यहां यह चिह्नित कर दूं कि भाजपा राष्ट्रीय परिषद के लिए मौजूद लगभग 6000 प्रतिनिधियों में से छह प्रतिनिधि भी 'राजनाथ के गांधी दर्शन' को ग्रहण नहीं कर पाए थे. प्रतिनिधि तो प्रतीक्षा कर रहे थे किसी ऐसे गर्म मुद्दे की, जिसके बलबूते पार्टी लोकसभा चुनाव के नतीजों को अपने पक्ष में कर सके. तीसरा रास्ता ढूंढऩे के मूड में प्रतिनिधि नहीं दिखे. उन्हें तो मुद्दे के रूप में 'गर्म लावा' चाहिए था. प्रतिनिधियों के मूड को भांप रणनीतिकारों ने (कुछ ने बेमन से ही सही) 'राम' को चुनावी मैदान में उतारने का निर्णय ले लिया. प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठने को आतुर लालकृष्ण आडवाणी ने भी सहमति देने में विलंब नहीं किया. भाजपा अध्यक्ष के लगभग सवा घंटे के भाषण के दौरान 'बोर' हो रहे प्रतिनिधियों की तो बांछें खिल गईं. करतल ध्वनि में उन्होंने राजनाथ की घोषणा का स्वागत किया.
वस्तुत: प्रतिनिधियों ने रणनीतिकारों को उलझन से निकाल मार्ग दिखाया. भाजपा नेतृत्व भारत-पाकिस्तान के बीच बढ़ते तनाव में संभावित युद्ध को लेकर परेशान था. युद्ध की स्थिति में वे कांग्रेस के खाते में शानदार विजय देख रहे थे. तो क्या भाजपा राम मुद्दे को उछाल चुनाव जीत लेगी? 2 से 82 और फिर लगभग दो सौ सीटों पर विजयश्री दिलवाने वाला यह 'मुद्दा' पूर्व परीक्षित है. फिर पार्टी इस मुद्दे के कारण लगे साम्प्रदायिक लेबल से परहेज क्यों करे? धर्म और राजनीति का घालमेल बौद्धिक स्तर पर बहस को आमंत्रित करता रहा है. लेकिन कठोर या अरुचिकर सत्य यही है कि इसके विरोध में स्वर राजनीतिक मंच से ही उठते रहे हैं.
भारतीय समाज से धर्म को अलग नहीं किया जा सकता, लेकिन इसका राजनीतिक इस्तेमाल सामाजिक ताने-बाने को ध्वस्त करता रहा है. जिम्मेदार निश्चय ही राजनेता और राजनीतिक दल हैं. संसार के हर समाज में बहुसंख्यक सम्प्रदाय ही नहीं, अल्पसंख्यक सम्प्रदाय भी धर्म की संवेदनशीलता का आग्रही है. गलत है तो धर्म का विशुद्ध राजनीतिक इस्तेमाल. ऐसा नहीं होना चाहिए. जनसाधारण में मौजूद प्रबल धार्मिक भावनाओं पर राजनीतिक ठप्पा अनुचित है. बावजूद इसके यह सच सभी के हृदय को कचोट जाता है कि क्या हिन्दू, क्या मुसलमान और क्या सिख-ईसाई आदि सभी राजनीतिक स्वार्थ से वशीभूत धर्म का बेजा इस्तेमाल कर रहे हैं? बहुसंस्कृति पोषक भारतीय समाज के लिए यह अवस्था एक बड़ी चुनौती है. इस रोग की जड़ को पहचान निदान ढूंढ़े जाएं. इसकी खोज सभी राजदल करें- अगर सचमुच ये एक पंथनिरपेक्ष लोकतांत्रिक भारत में सर्वधर्म समभाव को फलता-फूलता देखना चाहते हैं. यह इसलिए नहीं कि भाजपा ने राममंदिर को चुनावी मुद्दा बनाया है. यह तो उन परिस्थितियों की परिणति है, जिसे भाजपा व कांग्रेस के साथ-साथ राजदल सींच रहे हैं. यह तो निर्विवाद है कि राममंदिर विवाद का समाधान न्यायालय द्वारा नहीं किया जा सकता. जनसामान्य की भावनाओं के मद्देनजर हर धर्म-सम्प्रदाय के लोग पहल कर इसका समुचित समाधान निकालें. भारत में तो मंदिरों के घंटे, मस्जिदों की अजान, गुरुद्वारों के कीर्तन और गिरिजाघरों की प्रार्थनाएं गुंजायमान रहती हैं. कोई स्पर्धा नहीं- कोई द्वेष नहीं! फिर विवाद क्यों?
- एस. एन. विनोद
8 फरवरी 2009
Friday, February 6, 2009
राजनीति के हमाम में ये नंगे!
हेडमास्टर सोम दा ने एक बार फिर देश को निराश किया है. औरों की तरह मैं भी दुखी हूं. सर्वोच्च प्रतिनिधि सभा के सिंहासन पर बैठा व्यक्ति जब स्वप्रतिपादित सिद्धांत का खंडन करता दिखे तब लोगबाग निराश तो होंगे ही. हां, मैं चर्चा लोकसभा अध्यक्ष मारक्सवादी सोमनाथ चटर्जी की ही कर रहा हूं. वे चाहे जितनी सफाई दे लें, अब आम लोगों की नजर में वे सत्ता सुख भोगी एक साधारण इंसान बनकर रह गए हैं. पिछले वर्ष केंद्र की संप्रग सरकार के विरूद्ध लोकसभा में पेश अविश्वास प्रस्ताव के दौरान अपने कपड़े उतार सत्तापक्ष का साथ देने वाले चटर्जी की छवि तभी दागदार बन गई थी. भारत के मुख्य चुनाव आयुक्त एन. गोपालास्वामी के मामले में सोम दा का ताजा बयान एक बार फिर उन्हें कटघरे में खड़ा कर देने वाला है. जरा उनके बयान की बानगी देखें- चुनाव आयुक्त नवीन चावला को हटाने की सिफारिश करने वाले मुख्य चुनाव आयुक्त की आलोचना करते हुए लोकसभाध्यक्ष कहते हैं कि 'हम अपना काम करने की बजाय खुद को दूसरे से बेहतर दिखाने में लगे हैं... हर एक संस्थान के लिए एक लक्ष्मण रेखा होनी चाहिये.'
लगता है सोम दा 'पर उपदेश कुशल बहुतेरे' वाली पुरानी कहावत को भूल गये हैं. गोपालास्वामी ने तो अपने संवैधानिक अधिकार का प्रयोग करते हुए संदिग्ध आचरण वाले अपने सहयोगी चुनाव आयुक्त नवीन चावला को हटाने की सिफारिश राष्ट्रपति से की थी. उन्होंने न तो स्वयं को दूसरों से बेहतर बताया और न ही किसी अन्य के दायित्व का निर्वहन किया. अब सोम दा स्वयं बता दें कि गोपालास्वामी के विशुद्घ कर्तव्य निर्वाह पर वे तिलमिला क्यों उठे? यह तो साफ है कि चुनाव आयोग लोकसभाध्यक्ष के अधिकार क्षेत्र में नहीं आता. जाहिर है कि स्वयं सोम दा दूसरे के कार्य क्षेत्र में टांग अड़ाने के अपराधी बन बैठे. क्यों ? इसका जवाब तो भविष्य में शायद लोकसभाध्यक्ष के रूप में उनका कार्यकाल समाप्त होने के बाद ही देश को मिलेगा. फिलहाल तो यही परिलक्षित है कि वे किसी 'लक्ष्य' को सामने रखकर केंद्र की संप्रग सरकार की अगुवा पार्टी कांग्रेस को खुश करने में लगे हैं. सोमदा, कृपया वचन और व्यवहार के अंतर को समझें- लोकसभा की लक्ष्मण रेखा को ठीक से पहचान लें - अपनी नसीहत को पहले खुद पर लागू करें- खुद को दूसरों से बेहतर साबित करने की ऐसी कोशिश आपके द्वारा ही प्रतिपादित सिद्धांत के विरूद्ध है. लेकिन अकेले सोमनाथ चटर्जी को ही आईना क्यों दिखाया जाए.
शासन में भ्रष्टाचार समाप्त कर इसे स्वच्छ और पारदर्शी बनाए रखने के लिए केंद्र सरकार ने सूचना के अधिकार के रूप में एक क्रांतिकारी पहल की थी. ऐसा लगा था कि अब आजाद देश के आजाद नागरिक को अपने शासकों के क्रिया कलापों तथा उससे संबंधित अन्य जानकारियां उपलब्ध हो सकेंगी. भ्रष्टाचार, अनियमितता व पक्षपात पर इससे अंकुश लग सकेगा. इसकी पारदर्शी रोशनी के भय से शासक प्रशासक स्वयं को पाक साफ रखने की कोशिश करेंगे. पारदर्शी शासन और समाज का एक नया युग इस कानून के द्वारा शुरू होगा. लेकिन यहां भी लोगों को निराशा मिलने लगी है. पहले तो न्यायाधीशों ने स्वयं को जनता के इस अधिकार की परिधि से बाहर कर दिया और अब प्रधानमंत्री कार्यालय मंत्रियों और उनके रिश्तेदारों को भी कानून से उपर रखने की जुगत करने लगा है. प्रधानमंत्री कार्यालय ने मंत्रियों और उनके रिश्तेदारों की संपत्ति का ब्यौरा देने से मना कर दिया है. जनता द्वारा निर्वाचित एक जनप्रतिनिधि मंत्री बनने के बाद ऐसे कानून की परिधि से बाहर क्यों? यह तो सूचना के अधिकार की मूल भावना के साथ बलात्कार है. मंत्रियों की संपत्ति के ब्यौरे की जानकारी से जनता को वंचित कर क्या प्रधानमंत्री कार्यालय अर्थात प्रधानमंत्री स्वयं मंत्रियों को संदिग्ध नहीं बना रहे. मंत्री बनने के बाद अवैध संपत्ति जमा करने के अनेक उदाहरण मौजूद हैं. ऐसी अवैध-अघोषित संपत्ति के कारण कुछ मंत्रियों के खिलाफ न्यायालय में मामले भी चलते रहे हैं. ऐसे मंत्रियों को उच्च स्तर पर संरक्षण क्यों? बात प्रधानमंत्री और उनके कार्यालय की उठी है तब अटल बिहारी वाजपेयी की याद जरूरी है. जब लोकपाल विधेयक पर संसद में बहस जारी थी तब प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने स्वयं पहल करते हुए सुझाव दिया था कि प्रधानमंत्री को भी लोकपाल की जांच की परिधि में रखा जाए. जनता के शासन का तकाजा भी यही है. खेद है कि कांग्रेस नेतृत्व की वर्तमान केंद्र सरकार ऐसी जरूरतों को या तो भूल गई है या भूलने का नाटक कर रही है. लोकतंत्र में ऐसा नैतिक पतन अंतत: आत्मघाती सिद्ध होता है. प्रसंगवश मैं इस बिंदू पर बुजुर्ग माकपा नेता और पश्चिम बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री ज्योति बसु के शब्दों को उद्धृत करना चाहूंगा. सुरभि बनर्जी ने ज्योति बसु की अधिकृत जीवनी में लिखा है कि राजनीति में नैतिकता के ह्रास की शुरुआत इंदिरा गांधी के शासन काल में ही हुई थी. क्या वर्तमान कांग्रेसी शासक इतिहास में ऐसे काले अध्याय से देश को मुक्ति दिलाएंगे? अन्यथा देश यह मान लेगा कि राजनीति के हमाम में सभी के सभी नंगे हैं.
Tuesday, February 3, 2009
लोकतंत्र के गालों पर भारद्वाज का तमाचा
मुख्य चुनाव आयुक्त एन. गोपालास्वामी को 'पालिटिकल बॉस' बनने से परहेज करने की नसीहत देने वाले केंद्रीय कानून मंत्री हंसराज भारद्वाज अपनी कमजोर याददाश्त को दुरुस्त कर लें. साथ ही पार्टी हित के अनुकूल कानून की व्याख्या करने से भी कानून मंत्री परहेज करें. देश में स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने की जिम्मेदारी का निर्वहन करने वाले चुनाव आयोग को क्या स्वयं कानून मंत्री 'पालिटिकल अखाड़ा' बनाने को तत्पर नहीं दिख रहे? किस नवीन चावला को वे मुख्य चुनाव आयुक्त बनाना चाहते हैं. भारद्वाज और उनकी सरकार न भूलें कि यह वही नवीन चावला हैं जिन्हें शाह आयोग (1977) ने किसी भी सार्वजनिक पद के लिए अयोग्य करार दिया था.
आपातकाल के दौरान दिल्ली के उपराज्यपाल के सचिव के रूप में तब कार्यरत चावला पर शाह आयोग ने यह भी टिप्पणी की थी कि उन्होंने (चावला) एक तानाशाह के रूप में आचरण किया और जनहित के खिलाफ अधिकारों का दुरुपयोग किया. भारद्वाज को अगर इन सब बातों की याद न हो तब उन्हें चावला की ताजा कारगुजारियों की याद दिला ही दें. कानून मंत्री को यह तो याद होगा ही कि चुनाव आयुक्त के पद पर आसीन नवीन चावला ने सन् 2006 में कुछ कांग्रेसी सांसदों की निधि से अपने एक पारिवारिक शैक्षणिक ट्रस्ट के लिए मोटी रकम प्राप्त की थी. यही नहीं, तब कांग्रेस शासित राजस्थान सरकार ने छह एकड़ जमीन आवंटित कर उन्हें अनुगृहीत किया था और ये वही नवीन चावला हैं जो आयोग की बैठक की कार्यवाहियों का ब्योरा बाथरूम में जाकर (बैठक जारी रहते हुए) मोबाइल फोन द्वारा कांग्रेसी नेताओं को दिया करते थे. इतने गंभीर व आपत्तिजनक आचरण के धारक नवीन चावला को मुख्य चुनाव आयुक्त बनाए जाने के पक्ष में मंतव्य देकर कानून मंत्री हंसराज भारद्वाज ने निश्चय ही न केवल चुनाव आयोग की गरिमा, निष्पक्षता व प्रतिष्ठा पर पक्षपात व कपट की कालिख उड़ेलने की कोशिश की है बल्कि लोकतंत्र के गालों पर झन्नाटेदार तमाचा भी मारा है. कानून मंत्री के ऐसे प्रयास की न केवल राष्टï्रीय निंदा होनी चाहिए बल्कि भारद्वाज को कानून मंत्री पद से तत्काल मुक्त कर देना चाहिए. नवीन चावला को हटाए जाने संबंधी मुख्य चुनाव आयुक्त एन. गोपालास्वामी की अनुशंसा को चुनौती देने वाले कानून मंत्री ने निश्चय ही अपनी कानूनी अज्ञानता का परिचय दिया है. भारतीय संविधान ने ऐसी अनुशंसा का अधिकार मुख्य चुनाव आयुक्त को दे रखा है. हां, अनुशंसा को मानना या न मानना सरकार की इच्छा पर निर्भर अवश्य करता है. ऐसी स्थिति में उचित तो यह होता कि सरकार मुख्य चुनाव आयुक्त द्वारा अनुशंसित प्रत्येक बिंदू की निष्पक्षता से पड़ताल कर उचित निर्णय लेती. कानून मंत्री ने ऐसा नहीं किया बल्कि वे और उनकी पार्टी कांग्रेस 'चोर की दाढ़ी में तिनका' की अवस्था में पहुंच तिलमिला उठी. इन लोगों ने मुख्य चुनाव आयुक्त को संविधान प्रदत्त अधिकार को ही चुनौती दे डाली. राजनेता के रूप में राजनीति प्रेरित बयान देकर इन लोगों ने अपने 'पक्षपात' व 'पूर्वाग्रह' को सार्वजनिक कर डाला.
साफ है चुनाव आयोग के राजनीतिकरण के अपराधी ये लोग ही हैं. चुनाव आयोग की ख्याति अंतरराष्टï्रीय स्तर पर है. संसार के कई देश अपने यहां निष्पक्षतापूर्वक चुनाव संपन्न कराने के लिए हमारे चुनाव आयोग को आमंत्रित करते हैं. चुनाव आयोग की इस सुख्याति को तार-तार कर केंद्रीय कानून मंत्री और उनकी कांग्रेस पार्टी ने भारत की प्रतिष्ठा को धूल-धूसरित किया है. वस्तुत: संवैधानिक संस्थओं की अवमानना का सिलसिला इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल में ही शुरू हो गया था. तब इंदिरा ने 25 अप्रैल 1973 को सुप्रीम कोर्ट के तीन न्यायाधीशों के.एन. हेगड़े, ए.एन. ग्रोवर और जे.एन. शेलट की वरीयता को नजरअंदाज कर न्यायाधीश ए.एन. रे को भारत का मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया था. पढऩे-सुनने में यह कड़वा तो लगेगा लेकिन सच यही है कि केंद्र की वर्तमान संप्रग सरकार संवैधानिक संस्थाओं के मामले में इंदिरा गांधी की राह पर चल पड़ी है. अपराधी बन बैठे हैं ये भारतीय लोकतंत्र के- भारतीय संविधान के. फिर इन्हें दंडित क्यों न किया जाए. भारत की राष्टï्रपति और भारत के सर्वोच्च न्यायालय के लिए भी यह चावला प्रकरण 'तेजाबी परीक्षण'
के रूप में सामने आएगा. भारतीय लोकतंत्र को सुपरिणाम की प्रतीक्षा है. साथ ही आसन्न आम चुनाव में जीत के लिए साम-दाम-दंड-भेद की नीति अपनाने वाली कांग्रेस के नेता देश की जनता की समझ को कम कर आंकने की भूल न करें.
Sunday, February 1, 2009
'हिन्दी समय' के असमय शब्द....!
यह भी खूब रही! भारत की कथित राष्ट्रभाषा हिन्दी को रोगी बना स्वयं चिकित्सक बन बैठे नामी-अनामी हस्ताक्षर 'समय' की पहचान करने-करवाने के लिए 120 घंटों तक एक मंच पर माथापच्ची करते दिखे. मंच प्रदान किया था वर्धा स्थित महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय ने. बता दूं कि यह वही विश्वविद्यालय है जो अपने जन्म से ही सरकारी खजाने के दुरुपयोग और राजनीति के लिए कुख्यात रहा है. क्या कुलपति, क्या प्रति-कुलपति, क्या शिक्षक और क्या छात्र, सभी शिकार और शिकारी की भूमिका निभाते रहे हैं. स्मृति, यथार्थ और कल्पना के घोषवाक्य के साथ आयोजित 'हिन्दी समय' के असमय शब्द आपको भी रोमांचित कर जाएंगे.
महाराष्ट्र की उपराजधानी नागपुर से 78 किलोमीटर दूर पश्चिम में महात्मा गांधी के आश्रम के लिए सुविख्यात वर्धा में स्थापित अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय द्वारा आयोजित 'हिन्दी समय' के समापन पश्चात 'परिणाम' को लेकर जारी अकादमिक चर्चा को फिलहाल मैं स्पर्श नहीं कर रहा. और न ही स्पर्श कर रहा हूं अनियमितता एवं दुव्र्यवस्था पर उठ रही उंगलियों का. मैं व्यथित हूं मंच के भित्तिचित्र पर उकेरे गए उन शब्दों को लेकर जो 'समय' के ठीक विपरीत असमय को चिह्नित कर रहे थे- यथार्थ से कोसों दूर. ज्ञान, अल्पज्ञान व अज्ञानता के घालमेल से निकले शब्द अनेक सीनों को वेध गए. मंच से कहा गया कि ''मुंबई में पिछले वर्ष 26 नवंबर की घटना के बाद कुछ लोग मोमबत्ती जलाकर अपने देशभक्त होने का भम्र पाल रहे हैं. विश्वविद्यालय के एक छात्र ने इन शब्दों की ओर मेरा ध्यान आकृष्ट कर मन की पीड़ा जताई.
मुंबई में आतंकी हमले में शहीद लोगों के प्रति मोमबत्ती जला श्रद्धांजलि देने वालों ने यह तो कभी नहीं कहा कि वे देशभक्ति का प्रदर्शन कर रहे हैं. भ्रम पालने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता. मोमबत्ती की रोशनी तो वस्तुत: उन स्याह चेहरों को चुनौती थी, जो आतंकवाद का खूनी खेल खेल रहे हैं- उन शहीदों की स्मृति को रोशनाई दी जा रही थी, जिनके जीवनदीप आतंकियों ने बुझा दिए थे. फिर 'देशभक्ति' को भ्रम के'कोष्ठक' में क्यों डालें? यह तो उन शहीदों का अपमान है. असमय शब्द ऐसी ही दुर्घटना के जनक बनते हैं. विद्वतगण अब भी तो चेत जाएं.
चूंकि अवसर और मंच 'समय' का था, दिल को फिर चोट पहुंची जब मंच से शब्द उठे कि 'आज अखबारों की स्थिति दयनीय होती जा रही है.... संपादकों के हाथ में कुछ भी नहीं बचा है.... पत्रकार स्वयं को असहाय महसूस कर रहा है,'' ये शब्द भी सचाई से दूर हैं. कौन कहता है कि अखबारों की स्थिति खस्ता है? 'अखबार' तो फल-फू ल रहे हैं. शायद अखबारों के मुद्रित कतिपय शब्दों में निहित तत्वों पर विद्वान वक्ता आपत्ति जाहिर कर रहे थे. लेकिन वे इसे स्पष्ट नहीं कर पाए. मैं बता दूं, अखबार के लिए शब्द मुहैया पत्रकार करते हैं- संचालक नहीं. वक्ता ने जिन शब्दों को लेकर चिंता व्यक्त की, वे शब्द भी पत्रकारों की कलम से ही निकलते हैं. शब्द निकलने की यह प्रक्रिया उसकी सोच से होकर गुजरती है. अगर शब्द आपत्तिजनक हैं, तब दोष निश्चय ही पत्रकार की सोच का है. पत्रकार आत्मचिंतन करें, अपने हृदय को टटोलें कि कहीं उन्होंने अपनी सोच को बंधक तो नहीं रखा- बेच तो नहीं डाला! ऐसे ईमानदार आत्मचिंतक के परिणाम को मैं अभी रेखांकित कर देता हूं- चिंतनीय स्थिति अखबारों की नहीं, खबरचियों की है. 'सोच' को बेच डालने वालों के विलाप पर सहानुभूति के शब्द कदापि नहीं उछलेंगे. निडर कलमची स्वयं को कभी भी असहाय महसूस नहीं करता. उसकी कलम से निकले शब्द समय सूचक होते हैं- असमय के वाहक नहीं.
अंत में दो शब्द 'हिन्दी समय विमर्श' के आयोजकों के लिए. कृपया ऐसे गंभीर आयोजन से सुपरिणाम की अपेक्षा रखने वालों को निराश न करें. और यह तभी संभव होगा, जब 'पात्रता' को सम्मान मिलेगा. यहां मैं स्वतंत्रता की पूर्व संध्या 14 अगस्त 1947 को दी गई डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन की चेतावनी की याद दिलाना चाहूंगा. तब उन्होंने आशंका व्यक्त की थी कि ''.... भविष्य में हमें बुरे दिनों का सामना करना पड़ेगा और 'सत्ता' योग्यता को पीछे छोड़ देगी.''
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