![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhIapqwcZzXn8lZLcptLvyx-perYHfpNaigFkSzyJk2dNy2iki-vbunCXXZqgPUjpRAW5-a9pSAZ37hCG1OKPYi_dhsoXN5JA7NBK5HbJkqtfwdKI6LzdZjSD8m0gTv6EUt8qiZn94JtVXy/s200/somnath-chatarji-gireban.gif)
राजनीतिक भौंडेपन के वीभत्स प्रदर्शन पर लोकतंत्र अनेक बार रोया है. कोई आश्चर्य नहीं कि अब संसद के अंदर निर्वाचित जनप्रतिनिधियों के 'हुड़दंग' पर लोकसभाध्यक्ष ने बिफर कर उन्हें बिल्कुल नकारा करार दिया है. वैसे अध्यक्ष ने अब अपने शब्दों को वापस ले लिया है, किन्तु पूरा देश उनके शब्दों को उद्धृत कर सांसदों की भरत्सना कर रहा है. सांसदों को 'धेलालायक भी नहीं' निरूपति करने वाले अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी अपनी जगह बिल्कुल सही थे. किसी भी एजेंसी से राष्ट्रीय स्तर पर सर्वेक्षण का परिणाम लोकसभाध्यक्ष की बातों के समर्थन में निकलेगा. संसदीय कार्यवाही में बार-बार बाधा पहुंचाने वाले सांसद अपने आचरण से निश्चय ही लोकतंत्र की सफलता पर सवालिया निशान चस्पा देते हैं. तो क्या संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली का त्याग कर देना चाहिए? कदापि नहीं. मुठीभर 'धेलेलायक' कथित जनप्रतिनिधियों के आपत्तिजनक आचरण के समक्ष घुटने नहीं टेके जा सकते. जरूरत है ऐसे लोगों को लोकतंत्र प्रदत्त विशेषाधिकार से वंचित रखने की. ऐसे लोगों को सांसद का तमगा न मिल पाए, यह सुनिश्चित करना होगा. मैं यहां लोकसभा अध्यक्ष की भावना के साथ हूं कि ऐसे सांसद सार्वजनिक धन का उपयोग करने लायक नहीं हैं. ये सांसद देश की जनता का अपमान कर रहे हैं, उसे मूर्ख बना रहे हैं. तब फिर निंदनीय आचरण के अपराधियों के हाथों में लोकतंत्र की कमान क्यों रहे? एक अवसर पर चुनाव आयोग ने अनुशंसा की थी कि कानून तोडऩे वालों को कानून बनाने का हक नहीं मिलना चाहिए. लेकिन खेद है कि आयोग की अनुशंसा को रद्दी की टोकरी में डाल दिया गया. आयोग की छोडि़ए, स्वयं संसद के अंदर पारित वह प्रस्ताव भी रद्दी की टोकरी में सिसकने को मजबूर है जिसे सभी दलों ने विलक्षण सहमति से पारित किया था. आजादी की स्वर्ण जयंती समारोह के दौरान 26-31 अगस्त 1996 के बीच संसद के विशेष सत्र में सर्वसम्मत प्रस्ताव पारित हुआ था कि सभी दल राजनीति को अपराधिकरण से बचाने के लिए कृतसंकल्प होंगे. किन्तु अपराध और अपराधियों से गलबहियां करने वाले राजनीतिक दल भला ऐसे संकल्प को पूरा करते तो कैसे! फेंक दिया संकल्प को कचरे में.अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी भी तब संसद के सदस्य थे. उन्हें भी उस संकल्प की याद होगी. यहां मेरी शिकायत उनसे भी है. क्या अपने कार्यकाल में अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी को एक बार भी उस संकल्प की याद आई? मुझे खुशी होती, अगर अध्यक्ष चटर्जी अपने कार्यकाल के अंतिम सत्र में सांसदों पर दहाडऩे की जगह संसद में पारित संकल्प को पेश कर सभी दलों के नेताओं से जवाब-तलब करते. उन्होंने ऐसा नहीं किया. बार-बार 'हेडमास्टर' के रूप में स्वयं को प्रस्तुत करने वाले अध्यक्ष चटर्जी वस्तुत: संसद की गरिमा की रक्षा करने में स्वयं असमर्थ साबित हुए हैं. सर्वोच्च न्यायालय से टकराने की तत्परता दिखाने वाले अध्यक्ष तब मौन क्यों रह गए थे, जब सांसदों के वेतन-भत्ते में वृद्धि संबंधी विधेयक पेश किए जाते थे? आज सांसदों के वेतन-भत्ते को 'पानी में बहाए' जाने की बात करने वाले अध्यक्ष मुंबई उच्च न्यायालय के एक माननीय न्यायाधीश से सबक लें. माननीय न्यायाधीश ने अध्यादेश के माध्यम से बढ़ाए गए वेतन को लेने से इन्कार कर दिया है. वे प्रतीक्षा कर रहे हैं तत्संबंधी कानून बनाए जाने की. इसे कहते हैं अनुकरणीय नैतिकता. आपत्तिजनक आचरण के लिए अगर कोई छात्र दोषी करार दिया जाता है तो सवालिया निशान उसके शिक्षक पर भी स्वत: लग जाते हैं. इन पंक्तियों के लेखक की आंखों के सामने वे सारे दृश्य तैर रहे हैं जिनमें संसद में अनुशासन कायम रखने के लिए अध्यक्ष व्यग्र दिख रहे हैं. किन्तु परिणाम के खाते में शून्य देख अध्यक्ष की विफलता को रेखांकित करने की मजबूरी है. अगर सांसद छात्र अपेक्षा एवं कर्तव्य की कसौटी पर 'फेल' दिख रहे हैं तब हेडमास्टर के आसन पर बैठे अध्यक्ष भी, क्षमा करेंगे, 'फेल' ही दिख रहे हैं. संसद से बाहर निकल देश के गली-कूचों में फैले हताश लोकतंत्र के लिए अध्यक्ष को भी दोषी ठहराया जाएगा.
सांसदों के कथित आपत्तिजनक आचरण पर बार-बार इस्तीफे की धमकी देने वाले अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी क्या कभी अपने शब्दों पर कायम रहे? अध्यक्ष चटर्जी अपनी गिरेबां में झांक कर देखें. वहां उन्हें एक असहाय समझौतावादी वृद्ध सिसकता हुआ दिखाई देगा. फिर क्या आश्चर्य कि अंतिम हंसी सांसदों के पाले में ही गई.