Thursday, September 30, 2010
सलाम हिन्दुस्तान!
पूरे देश के होंठों पर आज ये दो शब्द थिरक रहे हैं तो बिल्कुल सही ही। एक बार नहीं, बार-बार, हजार बार, आज हर जुबां से यही निकल रहा है-सलाम हिन्दुस्तान। अयोध्या में राम जन्मभूमि विवाद पर लगभग छह दशकों बाद आया हाईकोर्ट का फैसला किसी के खिलाफ नहीं है। अत्यंत ही संवेदनशील इस मुद्दे पर गुलाम भारत से लेकर आजाद भारत तक के शासक किसी फैसले से परहेज करते आए थे। उन्हें लगता था कि इस विवाद में हाथ डाला तो खुद के हाथ जल जाएंगे। धार्मिक आस्था से जुड़े इस मामले में राजनीति के प्रवेश ने दुखद रूप से एक सांप्रदायिक मोड़ दे दिया था। कोर्ट की राजनीति से जुड़ 'मंदिर-मस्जिद' विवाद इतना विस्फोटक बना कि इसने सांप्रदायिक आधार पर खून के खेल तक खेल डाले। लेकिन नमन हिन्दुस्तान की न्यायपालिका को जिसने सभी शंकाओं-कुशंकाओं की तपिश पर ठंडा जल डालते हुए विवाद का निपटारा कर डाला। फैसले की तिथि की घोषणा के साथ ही मीडिया में प्रचार का ऐसा दौर चला मानो फैसले के साथ ही पूरा का पूरा हिंदुस्तान देश विभाजन के कालखंड का हिंदुस्तान बन जाएगा। केंद्र से लेकर राज्य सरकारों की नींद उड़ गई थी। हर स्थिति से निपटने के लिए युद्ध स्तर पर तैयारियां की गईं। लेकिन बदलते हिंदुस्तान की अवाम ने फैसले के साथ ही यह दिखा दिया कि न उसे हिंदुस्तान की न्यायपालिका के प्रति सम्मान है-विश्वास है बल्कि हिंदुस्तान की प्राचीन अनुकरणीय संस्कृति पर गर्व भी है। फैसला आया तो किसी की जय-पराजय के रूप में नहीं बल्कि हिंदुस्तान और हिंदुस्तानियों के पक्ष में। अब एक और महत्वपूर्ण अपेक्षा। हिंदुस्तानियों के संयम ने जिस प्रकार पूरे विश्व के सामने हर दृष्टि से एक अनुकरणीय मिसाल पेश की है, एक पक्षकार सुन्नी वक्फ बोर्ड भी हिंदुस्तान के पक्ष में अनुकरणीय मिसाल पेश करे। फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने की जिद वह छोड़ दे। जब खुद उसके नेता यह कह रहे हैं कि फैसला न किसी पक्ष की हार है और न किसी पक्ष की जीत, तब इसे स्थायी समाधान मानने में अड़चन क्यों? हमारे हिंदुस्तान में मंदिर-मस्जिद, गिरिजाघर व गुरुद्वारों की मौजूदगी हर जगह है। सभी कौम के लोग पूरे सम्मान के साथ इन सभी धार्मिक स्थलों के सामने सिर झुकाते हैं। सर्वधर्म समभाव का अद्भुत स्थल है हिंदुस्तान। जब हाईकोर्ट वक्फ बोर्ड को भी विवादित भूमि का एक तिहाई देने का फैसला दिया है तब उसे सहर्ष स्वीकार किया जाए। सबूतों एवं साक्ष्योंं के आधार पर जब हाईकोर्ट ने विवादित गर्भगृह को रामलला का मान लिया तब उसे कोई चुनौती न दे। निर्मोही अखाड़े के दावे को स्वीकार करते हुये उसे भी एक तिहाई जगह देने का आदेश दिया है। पूरी विवादित भूमि को तीन हिस्सों में बांट, आबंटित करने का हाईकोर्ट का फैसला हर दृष्टि से न्याय के पक्ष में दिया गया फैसला है। हमें हिंदुस्तान पर अभिमान यूं ही नहीं है। दशकों पुराने इस विवाद का निपटारा चूंकि आपसी बातचीत के जरिये नहीं हो पा रहा था, मामला अदालत में चला गया। फैसले के पूर्व सभी पक्षों ने फैसला मानने का वचन दिया था। अब फैसला आ गया है और अदालत ने गर्भगृह पर रामभक्तों के अधिकार की पुष्टि कर दी तब कोई विवाद न हो। इसी प्रकार अदालत ने यह भी साफ कर दिया कि मस्जिद के पहले उस स्थान पर मंदिर था और वह मस्जिद निर्माण वस्तुत: इस्लाम के खिलाफ था तब इस पर भी कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। अब कोई नया विवाद खड़ा न करें। अदालती फैसले को सम्मान देते हुए उसे स्वीकार कर लिया जाए। बेहतर हो तीन महीने यथावत स्थिति के दौरान ही सभी पक्ष फैसले को स्वीकार करते हुए उसे क्रियान्वित कर डालें। सर्वोच्च न्यायालय की जरूरत ही न पड़े। और तब सही अर्थ में धर्मनिरपेक्ष हिंदुस्तान की गूंज पूरे विश्व में सुनी जा सकेगी।
Tuesday, September 28, 2010
सेक्स, पैसा, नेता और खेल!
अगर असलम शेर खान सच बोल रहे हैं तब खेल संगठनों से जुड़े राजनेतागण चुल्लूभर पानी में डूब मरें। क्या ऐसा करने की हिम्मत उनमें है? शायद नहीं। क्योंकि राजनीति की मोटी चमड़ी शर्म को नहीं बेशर्मी को पनाह देती है। भारत के लिए औपनिवेशिक शर्म राष्ट्रकुल खेल के बहाने ही सही खेल के एक और सच ने हमारे नेताओं की कलई अनावरित कर दी है। विभिन्न खेल संगठनों में नेताओं की दिलचस्पी पर भौंहें तनती रही हैं। लेकिन हॉकी आलिम्पियन और पूर्व केंद्रीय खेल मंत्री ने सीधे यह कहकर कि सेक्स और पैसे के लिए नेता ऐसे संगठनों से जुड़ते हैं, भूचाल ला दिया है। सचमुच यह आश्चर्यजनक है कि शरद पवार, विलासराव देशमुख, सुरेश कलमाड़ी, राजीव शुक्ला, लालू प्रसाद यादव, ज्योतिरादित्य सिंधिया, अरुण जेटली, मनोहर जोशी आदि नेताओं को क्रिकेट व अन्य खेलों से क्या लेना-देना रहा है जो ये इन संगठनों पर काबिज होने के लिए कुछ भी कर गुजरने को तैयार रहते हैं! एक भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड को ही लें। हजारों करोड़ रुपयों का वारा-न्यारा करने वाले इस संगठन पर आश्चर्यजनक रूप से नेताओं व अन्य गैरखिलाडिय़ों का कब्जा रहा है। निश्चय ही इसके पीछे ग्लैमर और पैसे का आकर्षण रहा है। वरना शरद पवार जैसे कद्दावर नेता, केंद्रीय मंत्री के पास इन संगठनों को चलाने के लिए समय कैसे मिल पाया? वे वर्षों भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के अध्यक्ष रहे और अब अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट परिषद के अध्यक्ष हैं। निश्चय ही राजनीति से इतर कोई चुंबकीय आकर्षण अवश्य है। इसी प्रकार यह पूछा जा सकता है कि लालू प्रसाद यादव, विलासराव देशमुख और अरुण जेटली जैसे राजनीति के 'फुलटाइमर' खेल संगठनों के लिए समय कैसे निकाल पाते हैं? यह निश्चय ही शोध का विषय है। मैं यह नहीं कहता कि असलम शेर खान के आरोप शतप्रतिशत सही हैं। बल्कि सच तो यह है कि हाल के दिनों में कतिपय खिलाडिय़ों ने सार्वजनिक रूप से यौन शोषण के आरोप नेताओं पर नहीं बल्कि गैरराजनीतिक खेल पदाधिकारियों पर लगाए हैं। लेकिन जहां तक अन्य आकर्षण का सवाल है, उससे मुंह नहीं मोड़ा जा सकता। भारत में क्रिकेट और हॉकी सबसे अधिक लोकप्रिय खेल हैं। इनमें खिलाडिय़ों के लिए प्रचुर धन भी है और राष्ट्रीय सम्मान भी। लेकिन क्या यह सच नहीं कि भारत जैसे विशाल देश में अनेक प्रतिभाएं अवसर से वंचित रह जाती हैं? खिलाडिय़ों के चयन को लेकर हमेशा संदेह प्रकट किए गए हैं। क्षेत्रीयता का दंश अनेक प्रतिभाओं को डंस चुका है। संगठन के शीर्ष पर राजनेताओं की मौजूदगी के कारण भी पक्षपात के आरोप लगते रहे हैं। और तो और, पैसे का लोभ ऐसा कि सट्टïेबाजी और मैच फिक्सिंग में भी खिलाडिय़ों के नाम शुमार किए जा चुके हैं। मोहम्मद अजहरुद्दीन, मनोज प्रभाकर और अजय जडेजा जैसे महान खिलाडिय़ों पर ऐसे आरोप लग चुके हैं। मोहम्मद अजहरुद्दीन को तो आजीवन प्रतिबंधित तक कर दिया गया। वैसे राजनीति के इस निराले खेल ने अजहरुद्दीन को लोकसभा में पहुंचा दिया है। लेकिन यह अलग विषय है। फिलहाल असलम शेर खान के आरोप के आलोक में बेहतर होगा कि इस पर बहस हो और खेल की पवित्रता के हक में कड़े कदम उठाए जाएं। इस दिशा में पहला कदम यह हो कि सभी खेल संगठनों को राजनेताओं के चंगुल से मुक्त किया जाए। खेलों से जुड़ी हस्तियों को ऐसी जिम्मेदारियां सौंपी जाएं। हमारे देश में सुनील गावसकर, कपिलदेव, के. श्रीकांत, रवि शास्त्री, मोहिन्दर अमरनाथ, धनराज पिल्ले, परगट सिंह आदि महान पूर्व खिलाड़ी मौजूद हैं। क्यों नहीं इनके अनुभव का लाभ खेल और खिलाडिय़ों को मिले। क्या इस पर कोई मतभेद हो सकता है कि राजनेताओं से कहीं अधिक अच्छे ढंग से ये खिलाड़ी खेल संगठनों का नेतृत्व करेंगे? पिछले दिनों संसद एवं संसद के बाहर ऐसी मांग उठी भी थी। असलम शेर खान के खुलासे के बाद तो यह और भी जरूरी प्रतीत होने लगा है। सरकार पहल करे। जरूरत पड़े तो कानून बनाकर खेल संगठनों को राजनेताओं के चंगुल से मुक्त कराया जाए। राजनेता राजनीति करें। यह उनका पेशा है। इस पर किसी को आपत्ति नहीं होगी। बल्कि खेल संगठनों से विलग होकर राजनेता मतदाता और देश के प्रति अधिक न्याय कर पाएंगे। इसी प्रकार जब पूर्व महान खिलाडिय़ों को खेल संगठनों के नेतृत्व का दायित्व सौंपा जाएगा, तभी खेल और खिलाडिय़ों के साथ सही न्याय हो पाएगा। प्रतिभाओं को न्याय मिलेगा, अवसर मिलेगा, तब निश्चय ही देश भी गौरवान्वित होगा।
Sunday, September 26, 2010
पत्रकारिता को बिकाऊ निरूपित न करें!
भारतीय पत्रकारिता का एक और कड़वा सच। विडंबना भी कह लें! लोकतंत्र के स्वघोषित चौथे स्तंभ में अयोग्य, अज्ञानी और ग्लैमरपसंद लोगों की भीड़ हो गई है। संपादक-संवाददाता पद पर ऐसे लोगों का कब्जा चिंता का विषय है। ये सब तथा और भी बहुत कुछ बोल गए पत्रकारिता की लंबी यात्रा कर राज्यसभा सदस्य बने तरुण विजय।
भारतीय जनता पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी की पीड़ा उनके प्रति सहानुभूति पैदा करती है। उनकी व्यथा यह है कि जो वे बोलते नहीं उसे उनके मुंह में डाल दिया जाता है। नागपुर से एक नए हिंदी साप्ताहिक 'भारत-वाणी' के विमोचन के अवसर पर पत्रकार और पत्रकारिता को चुनौती देने का अवसर इन दोनों राजनेताओं को मिला। तरुण विजय कुछ ज्यादा ही आक्रामक दिखे। यहां तक बोल गए कि आज पत्रकारिता बिक रही है। मैं उनके इस विचार से सहमत नहीं हूं। पत्रकारिता में दृढ़ अनुभव प्राप्त तरुण विजय संशोधन कर लें, पत्रकारिता बिकाऊ नहीं है। हां, इससे जुड़े कतिपय पत्रकार अवश्य बिकाऊ हैं। अर्थात् पत्रकारिता नहीं पत्रकार बिक रहे हैं। बिकाऊ वही वर्ग है जिसकी ओर तरुण विजय ने इशारा किया है। 'ग्लैमर, पावर और प्रिविलेज' के आकर्षण से पत्रकारिता में प्रवेश करनेवाला सहज ही भ्रष्ट नेताओं, व्यापारियों और अधिकारियों के चंगुल में फंस जाता है। इनका उपयोग-दुरुपयोग शुरू हो जाता है। तरुण विजय के इस विचार से मैं भी सहमत हूं कि आज संपादक नाम की संस्था धीरे-धीरे समाप्ति की ओर है। उनकी यह बात भी बिल्कुल सही है कि ऊंगलियों पर गिनने लायक संपादकों को छोड़ दें तो शेष संपादक संपादकीय दायित्व छोड़ संस्थान के अन्य हित को प्राथमिकता देते हैं। यह अवस्था निश्चय ही पत्रकारिता के लिए चिंताजनक है। अगर भारतीय पत्रकारिता को अपनी संपूर्णता में जीवित रहना है तो उसे ईमानदार आत्मचिंतन करना होगा। इसके लिए पहली शर्त यह है कि संपादक की सत्ता व उसकी पवित्रता कायम रखी जाए। तर्क दिये जाते हैं कि संपादक की कुर्सियों पर आज मालिकों की मौजूदगी के कारण इसकी पवित्रता खत्म हो रही है, संपादकीय दायित्व हाशिए पर चला गया है। क्योंकि आज का पेशेवर संपादक ही अपना दायित्व गरिमापूर्ण पत्रकारिता की नींव को चोटिल कर रहा है। जब नायक ही दायित्वहीन व भ्रष्ट होगा तब उसके सहयोगियों से ईमानदार दायित्व निर्वाह की अपेक्षा कैसे की जा सकती है? वह तो अपने संपादक का ही अनुसरण करेगा। तरुण विजय का यह आरोप कि भाषाज्ञान से दूर व्यक्ति संपादक और संवाददाता बन जाता है तो पत्रकारिता की इसी नवीन अवस्था के कारण! अयोग्यता और निष्क्रियता साथ-साथ चलती है। अयोग्य संपादक-संवाददाता निष्क्रिय ही तो साबित होगा। तरुण विजय के अनुसार देश में संभवत: चार-पांच संपादक ही संपादक कहलाने योग्य हैं। तरुण विजय यहां अतिरेक के शिकार प्रतीत हुए। संभवत: उनके जेहन में दिल्ली महानगर रहा होगा। देश के अन्य राज्यों के शहरों व कस्बों से प्रकाशित समाचारपत्रों-पत्रिकाओं में आज भी अनेक ऐसे संपादक मौजूद हैं जो महानगरीय सुविधाओं-प्रलोभनों से दूर अनेक कठिनाइयों, चुनौतियों का सामना करते हुए स्वस्थ, ईमानदार पत्रकारिता कर रहे हैं। लघु पत्र-पत्रिकाओं के अधिकांश संपादक पत्रकारीय आदर्श प्रस्तुत कर रहे हैं। सच लिखने का साहस अगर है तो इनमें। बल्कि सच तो यह है कि इनकी लेखनी से निकले शब्द, भाषा, तथ्य, निष्पक्षता और निडरता बड़े शहरों में कार्यरत संपादकों को हर पल चुनौती देती है। भारतीय पत्रकारिता का आकलन महानगर की पत्रकारिता के आधार पर नहीं किया जाना चाहिए। वस्तुत: भारतीय लोकतंत्र आज अगर सफल है तो उसका एक मुख्य कारण सशक्त भारतीय पत्रकारिता भी है। इसके पहले भी मैं कह चुका हूं, आज भी कहता हूं कि कृपया पत्रकारिता को कोई बिकाऊ निरूपित न करे।
भारतीय जनता पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी की पीड़ा उनके प्रति सहानुभूति पैदा करती है। उनकी व्यथा यह है कि जो वे बोलते नहीं उसे उनके मुंह में डाल दिया जाता है। नागपुर से एक नए हिंदी साप्ताहिक 'भारत-वाणी' के विमोचन के अवसर पर पत्रकार और पत्रकारिता को चुनौती देने का अवसर इन दोनों राजनेताओं को मिला। तरुण विजय कुछ ज्यादा ही आक्रामक दिखे। यहां तक बोल गए कि आज पत्रकारिता बिक रही है। मैं उनके इस विचार से सहमत नहीं हूं। पत्रकारिता में दृढ़ अनुभव प्राप्त तरुण विजय संशोधन कर लें, पत्रकारिता बिकाऊ नहीं है। हां, इससे जुड़े कतिपय पत्रकार अवश्य बिकाऊ हैं। अर्थात् पत्रकारिता नहीं पत्रकार बिक रहे हैं। बिकाऊ वही वर्ग है जिसकी ओर तरुण विजय ने इशारा किया है। 'ग्लैमर, पावर और प्रिविलेज' के आकर्षण से पत्रकारिता में प्रवेश करनेवाला सहज ही भ्रष्ट नेताओं, व्यापारियों और अधिकारियों के चंगुल में फंस जाता है। इनका उपयोग-दुरुपयोग शुरू हो जाता है। तरुण विजय के इस विचार से मैं भी सहमत हूं कि आज संपादक नाम की संस्था धीरे-धीरे समाप्ति की ओर है। उनकी यह बात भी बिल्कुल सही है कि ऊंगलियों पर गिनने लायक संपादकों को छोड़ दें तो शेष संपादक संपादकीय दायित्व छोड़ संस्थान के अन्य हित को प्राथमिकता देते हैं। यह अवस्था निश्चय ही पत्रकारिता के लिए चिंताजनक है। अगर भारतीय पत्रकारिता को अपनी संपूर्णता में जीवित रहना है तो उसे ईमानदार आत्मचिंतन करना होगा। इसके लिए पहली शर्त यह है कि संपादक की सत्ता व उसकी पवित्रता कायम रखी जाए। तर्क दिये जाते हैं कि संपादक की कुर्सियों पर आज मालिकों की मौजूदगी के कारण इसकी पवित्रता खत्म हो रही है, संपादकीय दायित्व हाशिए पर चला गया है। क्योंकि आज का पेशेवर संपादक ही अपना दायित्व गरिमापूर्ण पत्रकारिता की नींव को चोटिल कर रहा है। जब नायक ही दायित्वहीन व भ्रष्ट होगा तब उसके सहयोगियों से ईमानदार दायित्व निर्वाह की अपेक्षा कैसे की जा सकती है? वह तो अपने संपादक का ही अनुसरण करेगा। तरुण विजय का यह आरोप कि भाषाज्ञान से दूर व्यक्ति संपादक और संवाददाता बन जाता है तो पत्रकारिता की इसी नवीन अवस्था के कारण! अयोग्यता और निष्क्रियता साथ-साथ चलती है। अयोग्य संपादक-संवाददाता निष्क्रिय ही तो साबित होगा। तरुण विजय के अनुसार देश में संभवत: चार-पांच संपादक ही संपादक कहलाने योग्य हैं। तरुण विजय यहां अतिरेक के शिकार प्रतीत हुए। संभवत: उनके जेहन में दिल्ली महानगर रहा होगा। देश के अन्य राज्यों के शहरों व कस्बों से प्रकाशित समाचारपत्रों-पत्रिकाओं में आज भी अनेक ऐसे संपादक मौजूद हैं जो महानगरीय सुविधाओं-प्रलोभनों से दूर अनेक कठिनाइयों, चुनौतियों का सामना करते हुए स्वस्थ, ईमानदार पत्रकारिता कर रहे हैं। लघु पत्र-पत्रिकाओं के अधिकांश संपादक पत्रकारीय आदर्श प्रस्तुत कर रहे हैं। सच लिखने का साहस अगर है तो इनमें। बल्कि सच तो यह है कि इनकी लेखनी से निकले शब्द, भाषा, तथ्य, निष्पक्षता और निडरता बड़े शहरों में कार्यरत संपादकों को हर पल चुनौती देती है। भारतीय पत्रकारिता का आकलन महानगर की पत्रकारिता के आधार पर नहीं किया जाना चाहिए। वस्तुत: भारतीय लोकतंत्र आज अगर सफल है तो उसका एक मुख्य कारण सशक्त भारतीय पत्रकारिता भी है। इसके पहले भी मैं कह चुका हूं, आज भी कहता हूं कि कृपया पत्रकारिता को कोई बिकाऊ निरूपित न करे।
'नायक' पर वार को तत्पर ये 'खलनायक'!
सुबह-सुबह टेलीफोन पर एक मित्र द्वारा व्यक्त जिज्ञासा ने मन-मस्तिष्क को झिंझोड़ दिया। मित्र जानना चाहते थे कि भारत के राजनेता बराक ओबामा और हिलेरी क्लिंटन से सबक क्यों नहीं लेते! अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव में डेमोक्रेट पार्टी की तरफ से उम्मीदवारी के लिए साम-दाम-दंड-भेद के हथियारों से लैस एक-दूसरे के विरुद्ध लडऩे वाले राजनीति के ये योद्धा आज एकसाथ मिलजुलकर सरकार कैसे चला रहे हैं? राष्ट्रपति बनने के बाद कटुता त्यागकर अपनी प्रतिद्वंद्वी हिलेरी को सरकार में शामिल कर महत्वपूर्ण विदेश विभाग सौंप ओबामा ने सहृदयता और विश्वास की जो मिसाल कायम की, उसकी अनदेखी क्यों? हमारे राजनेता क्यों नहीं उनका अनुसरण कर पाते? निश्चय ही यह जिज्ञासा राजनीति के विद्यार्थियों को प्रेरित करेगी। वैसे मित्र ने महाशक्ति अमेरिका की हर क्षेत्र में सफलता के लिए इस अमेरिकी चरित्र को चिन्हित भी किया। प्रसंग था भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष नितिन गडकरी के 'मिशन-2014' और पार्टी के कुछ वरिष्ठ नेताओं के राजनीतिक अंत:पुर में पक रही खिचड़ी का। मित्र की इस जिज्ञासा ने यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि आखिर भाजपा जैसी बड़ी पार्टी के बड़े नेता अपनी ही पार्टी के मार्ग में गड्ढïे क्यों खोद रहे हैं? कहीं सिर्फ अहंï की तुष्टि के लिए ही तो नहीं? पिछले 2 चुनावों में नेताओं के अहंकार के कारण पराजित भाजपा का नया नेतृत्व अगर अगले चुनाव के लिए विजय का लक्ष्य निर्धारित कर रहा है तब उसके मार्ग में अवरोधक क्यों? यह ठीक है कि मन की दुष्प्रवृत्ति के बेलगाम होने पर ऐसे खलनायक का जन्म होता है जो अपने नायक की पीठ पर वार करने से नहीं चूकता। अगर पार्टी के कथित बड़े नेता इस दुष्प्रवृत्ति के शिकार हो गए हैं तो उनका इलाज किया जाना चाहिए। यह विचित्र है कि पार्टी के नए नेतृत्व को निर्णय क्षमता की कसौटी पर अयोग्य करार देने वाला पार्टी का यह गुट अब पार्टी हित में नेतृत्व द्वारा लिए जा रहे निर्णय पर बेचैन हो गया है। मैं यहां किसी की सोच को अथवा विचार प्रकट करने की स्वतंत्रता को चुनौती नहीं दे रहा। मेरी पीड़ा लोकतांत्रिक प्रणाली को पहुंचाई जा रही चोट और भारत के लोकतांत्रिक भविष्य को लेकर है। स्वतंत्रता संग्राम को नेतृत्व देने के नाम पर वर्षों मतदाता का भावनात्मक शोषण कर सत्ता प्राप्त करती रही कांग्रेस पार्टी चूंकि अब भारत और भारतीयता को भूलती जा रही है, राष्ट्रहित में उसका विकल्प आवश्यक है। भारत की विशिष्ट पहचान उसकी महान संस्कृति और सभ्यता रही है। ज्यादा विस्तार में न जाकर संक्षेप में यह रेखांकित किया जा सकता है कि कांग्रेस के विकल्प के रूप में आज देश का बहुमत भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में है। लोगों ने इसे सत्ता सौंपी थी लेकिन पार्टी के कतिपय नेताओं के अहंकार और तुच्छ स्वार्थी नीतियों के कारण पिछले दो चुनावों में इसे मुंह की खानी पड़ी। सत्ता सिंहासन अनायास कांग्रेस और उसके सहयोगियों की झोली में चला गया। वैश्विक स्पर्धा और विकास के नाम पर ऐसी नीतियां बनीं जिसने समाज में अमीरी और गरीबी के बीच खाई और चौड़ी कर दी। अमीरों का एक विशेष वर्ग तैयार कर उसे भारत बताया जाने लगा। जबकि हकीकत में गरीबों की फौज बढ़ती गई और गलत नीतियों के कारण पूरे देश में अराजक स्थिति पैदा हो गई। आतंकवाद के रूप में अलगाववादियों के पांव मजबूत हुए। देश पर और एक विभाजन का खतरा मंडराने लगा। अपने ही देश में लोगों को यह समझाने की जरूरत आन पड़ी कि सभी भारतीय हैं। इससे अधिक हास्यास्पद स्थिति और क्या हो सकती है। उत्तर-पूर्व के क्षेत्र हों या फिर जम्मू-कश्मीर, वहां असुरक्षा की बढ़ती भावना ने सरकार के प्रति विश्वास को डिगा दिया है। दुश्मन देश सक्रिय हो इस असहज स्थिति का लाभ उठाने का षडय़ंत्र रच रहे हैं। जम्मू-कश्मीर की जमीन पर अब 'आजादी' का नारा बुलंद होने लगा है। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था। निश्चय ही यह सब शासकों की गलत नीतियां, निज स्वार्थ और अदूरदर्शिता के कारण संभव हो पाया है। अब अगर देशवासी एक सशक्त राष्ट्रवादी विकल्प चाहते हैं तो बिल्कुल सही ही। भारतीय जनता पार्टी के लिए इससे अनुकूल अवसर और कुछ नहीं हो सकता। पार्टी के नए नेतृत्व ने इस अवसर को भांपकर ही 'मिशन-2014' का लक्ष्य निर्धारित किया है। मैं व्यक्तिगत जानकारी और अनुभव के आधार पर यह शब्दांकित करने की स्थिति में हूं कि पार्टी नेतृत्व के शीर्ष पद की आकांक्षा पालने वाले कथित बड़े नेतागण खलनायक की भूमिका में सक्रिय हैं। सार्वजनिक मंचों से नए नेतृत्व की प्रशंसा करने वाला यह वर्ग अपने विश्वस्तों से निजी बातचीत में मिशन को विफल बनाने का षडय़ंत्र रचता रहता है। लोकतंत्र के लिए यह एक अत्यंत ही दुखद घटना विकासक्रम है। अगर कोई मंदिर का महंत बनना चाहता है तो जरूरी तो यह है कि पहले मंदिर को सुरक्षित रखा जाए। फिर महंतगीरी के दावे किए जा सकते हैं। लेकिन यहां तो मंदिर को ही ढहाने को तत्पर ये दिख रहे हैं। पिछले दिनों नए नेतृत्व की ओर से एक सुखद संकेत यह अवश्य मिला कि उसने अपने विवेक का इस्तेमाल करते हुए सकारात्मक निर्णय लेना शुरू कर दिया है। ऐसे में मठाधीशों की बेचैनी पर कोई आश्चर्य नहीं। हां, नेतृत्व से पार्टी का आम कार्यकर्ता और पार्टी के प्रति समर्पित नेता यह अपेक्षा अवश्य कर रहा है कि मठाधीशों के वार से नेतृत्व अविचलित आगे बढ़ता रहेगा- जीवन के इस सत्य को समझकर कि भूतकाल का सत्य तो भोगा जा चुका है, अब वह वर्तमान के कटु सत्य का मंथन कर भविष्य के लिए एक नए शुद्ध सत्य को जन्म देगा।
Friday, September 24, 2010
पुस्तक संस्कृति : कौन सी, कैसी संस्कृति?
गांधी (असली गांधी अर्थात् मोहनदास करमचंद गांधी) की कर्मभूमि वर्धा के लोकसभा सदस्य दत्ता मेघे हैं। जानता तो वर्षों से हूं किन्तु आज उनका एक अद्ïभुत नूतन स्वरूप सामने आया। राजनीतिक हैं। अनेक शिक्षण संस्थाएं चलाते हैं। लोगों के दुख-सुख में शामिल होने वाले विशुद्ध सामाजिक जीव हैं। आज शुक्रवार दि. 24 सितंबर 2010 को नागपुर में राष्ट्रीय पुस्तक मेला का उद्घाटन उनके हाथों हुआ। इसमें कोई नई बात नहीं। मेरे लिए नया उनका उद्बोधन था। पूर्णत: गैरराजनीतिक विषय पर बोलने के दौरान मेघे ने यह स्वीकार किया कि जब वे स्कूल में पढ़ते थे तब उनके पास पुस्तकें खरीदने के लिए पैसे नहीं होते थे। वाचनालय में जाकर अध्ययन किया करते थे। मैं इसका उल्लेख हर दृष्टि से संपन्न किसी व्यक्ति के जीवन के आरंभिक काल के रूप में नहीं कर रहा। मैं इसे पुस्तक संस्कृति से जोड़कर देख रहा हूं। वह संस्कृति जिसे पुस्तक मेले द्वारा भारत के घर-घर में पुनस्र्थापित करने की कोशिश की जा रही है। जी हां, पुस्तक संस्कृति को पुनस्र्थापित करने का एक आंदोलन है यह। 'पुनस्र्थापित' इसलिए कि टेलीविजन के इस युग में पुस्तक संस्कृति लुप्तप्राय हो चुकी है। पहले जहां छोटे-बड़े हर घर में एक पुस्तक कोना हुआ करता था, अब उसका स्थान टेलीविजन ने ले लिया है। घर में काम करने वाली बाई के यहां भी पहले एक पुस्तक कोना हुआ करता था। अकादमिक दिलचस्पी रखने वाले वर्ग को छोड़ दें तो एक वर्ग ऐसा अवश्य है जिनके घर पुस्तकों के भंडार मिलेंगे। लेकिन क्षमा करेंगे, इस वर्ग के घरों में मौजूद पुस्तकों के रेक्स यह जताने के लिए होते हैं कि वे सुरुचि संपन्न शिक्षित परिवार के हैं। पुस्तकों को खोल कर पढऩे की जहमत यह वर्ग नहीं उठाता। पुस्तकों को उन्होंने शोभा की वस्तु बनाकर सजा रखा है। साधुवाद पुस्तक मेला के आयोजकों का जिन्होंने मृत पुस्तक संस्कृति को जीवित करने का बीड़ा उठाया है। ऐसा न हुआ तो वे वाचनालय शेष कहां रह जाएंगे जहां बालक दत्ता मेघे जैसे स्वाध्याय प्रवृत्तिवाले अशक्त जरूरतमंद पहुंचते हैं।
हां, एक बात और। जब बात पुस्तक संस्कृति की उठी है तब इस बात का भी फैसला हो जाए कि कौन सी और कैसी संस्कृति? पुस्तक का एक लेखक होता है, प्रकाशक होता है और विक्रेता होता है। लेखक अपने विवेक से विषय चयन कर विभिन्न रूपों में कलमबद्ध करता है। फिर वह प्रकाशक के दरवाजे दस्तक देता है या अगर लेखक कद्दावर हुआ तो प्रकाशक उसके दरवाजे पहुंचता है। इस मुकाम पर प्रकाशक के लिए अपने विवेक के सही इस्तेमाल की चुनौती होती है। चूंकि साहित्य समाज का दर्पण होता है, उसे पुस्तक के विषय पर ध्यान देना पड़ता है। प्रकाशन पश्चात विके्रता उसे पाठकों तक पहुंचाते हैं। उसकी भी जिम्मेदारी अहम हो जाती है। बल्कि सबसे अहम। पिछले दिनों ब्रिटेन के इतिहासकार जेड एडम्स लिखित पुस्तक 'गांधी: नेकेड एम्बीशन' विदेशों में जारी की गई। पुस्तक में महात्मा गांधी के सेक्स जीवन को लेकर चरित्र हनन किया गया। ऐतिहासिक सच के नाम पर लेखक ने घोर आपत्तिजनक बल्कि अश्लील बातें महात्मा गंाधी के विरुद्ध पुस्तक में बताई हैं। भारत के अनेक समाचार पत्र-पत्रिकाओं सहित हमारे 'दैनिक 1857' ने भी पुस्तक के कुछ अंश संक्षिप्त में प्रकाशित कर यह मांग की थी कि इस पुस्तक का प्रसार भारत में प्रतिबंधित किया जाए। संभव हो तो विदेशों में भी इसके प्रसार पर रोक की कोशिश की जाए। तब तक भारत में पुस्तक नहीं आई थी। कुछ राजनीतिक दलों के नेताओं, कार्यकर्ताओ ने हमारे समाचार प्रकाशन को गांधी का अपमान बताते हुए हिंसक आपत्ति दर्ज की। भीड़भरे चौराहे पर विरोध सभा लेकर हमारे 'दैनिक 1857' की प्रतियां जलाई गईं। हमारे लिए अपशब्दों के प्रयोग किए गए, जान से मारने की धमकियां दी गईं। यह वाकया मई माह के प्रथम सप्ताह का है। अब वही पुस्तक 'गांधी : नेकेड एम्बीशन' नागपुर सहित भारत के सभी शहरों में बिक रही है। पुस्तक के कुछ अंश को प्रकाशित करने वाले अखबार की प्रतियां जलाने वाले कथित गांधीवादी अब कहां हैं? पुस्तक विक्रेताओं के यहां उपलब्ध इस पुस्तक की होली क्यों नहीं जलाई जा रही? अब तो पूरी की पूरी पुस्तक देशवासियों को यह बतलाने के लिए उपलब्ध है कि महात्मा गांधी चरित्रहीन थे। मुझे वैसे मुखौटाधारी गांधीवादियों की चिंता नहीं। वे तब अखबार के खिलाफ षडय़ंत्र की राजनीति कर रहे थे और आज स्वार्थ की नपुंसक राजनीति ने उन्हें पुस्तक के खिलाफ कार्रवाई से रोक रखा है। मेरी चिंता पुस्तक संस्कृति की पवित्रता को कायम रखने को लेकर है। क्यों न पुस्तक विक्रेता स्वयं ऐसी आपत्तिजनक पुस्तक को बेचने से इन्कार कर दें? जब किसी संस्कृति को अश्लीलता की चुनौती मिलती है। तब वह संस्कृति पवित्र नहीं रह पाती। मुखौटाधारी गांधीवादी तो स्वार्थवश पहल नहीं करेंगे, पहल करें पुस्तक विके्रता या फिर भारत में उसके वितरक। लेखक या प्रकाशक को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का कवच नहीं दिया जा सकता। पुस्तक में जानबूझकर भारत के राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का चरित्र हनन किया गया है। अन्य गोरी चमड़ी वालों की तरह इस पुस्तक के लेखक जेड एडम्स को भी यह बर्दाश्त नहीं कि एक भारतीय महात्मा गांधी को विश्व इतिहास ने 'बेमिसाल' की उपमा कैसे दे रखी है? निश्चय ही अंग्रेज लेखक की यह पुस्तक हमारी पुस्तक संस्कृति की भागीदार नहीं हो सकती।
हां, एक बात और। जब बात पुस्तक संस्कृति की उठी है तब इस बात का भी फैसला हो जाए कि कौन सी और कैसी संस्कृति? पुस्तक का एक लेखक होता है, प्रकाशक होता है और विक्रेता होता है। लेखक अपने विवेक से विषय चयन कर विभिन्न रूपों में कलमबद्ध करता है। फिर वह प्रकाशक के दरवाजे दस्तक देता है या अगर लेखक कद्दावर हुआ तो प्रकाशक उसके दरवाजे पहुंचता है। इस मुकाम पर प्रकाशक के लिए अपने विवेक के सही इस्तेमाल की चुनौती होती है। चूंकि साहित्य समाज का दर्पण होता है, उसे पुस्तक के विषय पर ध्यान देना पड़ता है। प्रकाशन पश्चात विके्रता उसे पाठकों तक पहुंचाते हैं। उसकी भी जिम्मेदारी अहम हो जाती है। बल्कि सबसे अहम। पिछले दिनों ब्रिटेन के इतिहासकार जेड एडम्स लिखित पुस्तक 'गांधी: नेकेड एम्बीशन' विदेशों में जारी की गई। पुस्तक में महात्मा गांधी के सेक्स जीवन को लेकर चरित्र हनन किया गया। ऐतिहासिक सच के नाम पर लेखक ने घोर आपत्तिजनक बल्कि अश्लील बातें महात्मा गंाधी के विरुद्ध पुस्तक में बताई हैं। भारत के अनेक समाचार पत्र-पत्रिकाओं सहित हमारे 'दैनिक 1857' ने भी पुस्तक के कुछ अंश संक्षिप्त में प्रकाशित कर यह मांग की थी कि इस पुस्तक का प्रसार भारत में प्रतिबंधित किया जाए। संभव हो तो विदेशों में भी इसके प्रसार पर रोक की कोशिश की जाए। तब तक भारत में पुस्तक नहीं आई थी। कुछ राजनीतिक दलों के नेताओं, कार्यकर्ताओ ने हमारे समाचार प्रकाशन को गांधी का अपमान बताते हुए हिंसक आपत्ति दर्ज की। भीड़भरे चौराहे पर विरोध सभा लेकर हमारे 'दैनिक 1857' की प्रतियां जलाई गईं। हमारे लिए अपशब्दों के प्रयोग किए गए, जान से मारने की धमकियां दी गईं। यह वाकया मई माह के प्रथम सप्ताह का है। अब वही पुस्तक 'गांधी : नेकेड एम्बीशन' नागपुर सहित भारत के सभी शहरों में बिक रही है। पुस्तक के कुछ अंश को प्रकाशित करने वाले अखबार की प्रतियां जलाने वाले कथित गांधीवादी अब कहां हैं? पुस्तक विक्रेताओं के यहां उपलब्ध इस पुस्तक की होली क्यों नहीं जलाई जा रही? अब तो पूरी की पूरी पुस्तक देशवासियों को यह बतलाने के लिए उपलब्ध है कि महात्मा गांधी चरित्रहीन थे। मुझे वैसे मुखौटाधारी गांधीवादियों की चिंता नहीं। वे तब अखबार के खिलाफ षडय़ंत्र की राजनीति कर रहे थे और आज स्वार्थ की नपुंसक राजनीति ने उन्हें पुस्तक के खिलाफ कार्रवाई से रोक रखा है। मेरी चिंता पुस्तक संस्कृति की पवित्रता को कायम रखने को लेकर है। क्यों न पुस्तक विक्रेता स्वयं ऐसी आपत्तिजनक पुस्तक को बेचने से इन्कार कर दें? जब किसी संस्कृति को अश्लीलता की चुनौती मिलती है। तब वह संस्कृति पवित्र नहीं रह पाती। मुखौटाधारी गांधीवादी तो स्वार्थवश पहल नहीं करेंगे, पहल करें पुस्तक विके्रता या फिर भारत में उसके वितरक। लेखक या प्रकाशक को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का कवच नहीं दिया जा सकता। पुस्तक में जानबूझकर भारत के राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का चरित्र हनन किया गया है। अन्य गोरी चमड़ी वालों की तरह इस पुस्तक के लेखक जेड एडम्स को भी यह बर्दाश्त नहीं कि एक भारतीय महात्मा गांधी को विश्व इतिहास ने 'बेमिसाल' की उपमा कैसे दे रखी है? निश्चय ही अंग्रेज लेखक की यह पुस्तक हमारी पुस्तक संस्कृति की भागीदार नहीं हो सकती।
पंडित-मौलवी की भूमिका में राजनीतिक?
संभवत: सुप्रीम कोर्ट ने नैसर्गिक न्याय के पक्ष में रमेशचंद्र त्रिपाठी की याचिका पर सुनवाई का फैसला कर लिया। परंतु लोग यह जानना चाहेंगे कि इसी सुप्रीम कोर्ट ने एक दिन पूर्व बुधवार को याचिका खारिज करते हुए यह कैसे कहा था कि सुनवाई उनके अधिकार क्षेत्र के बाहर है? 24 घंटे के अंदर याचिका उनके अधिकार क्षेत्र में कैसे आ गई? हाल के दिनों में संदेहों के काले बादलों से घिरी न्यायपालिका को अपनी निष्पक्षता का प्रमाण देना होगा। उसे यह प्रमाणित करना ही होगा कि गुरुवार का निर्णय उसका अपना निर्णय है, वह सत्ता या किसी अन्य के दबाव में नहीं है। न्याय की यह अवधारणा कि न्याय सिर्फ हो नहीं बल्कि वह होता हुआ दिखे भी, लांछित न हो! आखिर कुछ दिनों तक अयोध्या की विवादित जमीन पर फैसले को स्थगित करने का आदेश देकर सुप्रीम कोर्ट न्याय के पक्ष में क्या हासिल कर लेगा? छह दशक पुराने इस मामले पर अदालती फैसले का इंतजार सभी कर रहे हैं। संबंधित पक्ष और पूरा देश चाहता है कि अदालती फैसला शीघ्र हो। हाईकोर्ट ने तो फैसले के लिए 24 सितंबर तारीख भी निर्धारित कर दी थी। सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करनेवाले त्रिपाठी चाहते हैं कि विवाद का निपटारा सभी पक्ष आपसी बातचीत से अदालत के बाहर कर दें। याचिकाकर्ता के अपने तर्क हो सकते हैं किंतु यह सत्य तो अपनी जगह मौजूद है कि भूतकाल में परस्पर बातचीत के सभी प्रयास विफल साबित हुए हैं। विवाद का राजनीतिकरण हो जाना इसका मुख्य कारण है। ईश्वर और अल्लाह के प्रति आस्था वस्तुत: सिर्फ दिखावे के लिए है। मंदिर-मस्जिद मुद्दे को सीधे-सीधे वोट की राजनीति से जोड़ दिया गया है। दु:खद रूप से इसी आधार पर हिंदू और मुसलमानों के बीच नफरत की दरार पैदा कर दी गई है। सत्तालोलुप राजदल और राजनेता सर्वधर्मसमभाव की अवधारणा को लतियाकर मंदिर-मंदिर, मस्जिद-मस्जिद का खेल खेलते रहे हैं। परस्पर सांप्रदायिक सद्भाव को मजबूत करने की जगह सांप्रदायिक घृणा को हवा दी गई है। धर्म के नाम पर देश-समाज को बंाटने का षडय़ंत्र भी रच दिया गया है। दोनों समुदायों में मौजूद कट्टरपंथी धार्मिक आस्था की कोमल व पवित्र भावनाओं का दोहन करते रहे! धार्मिक आस्था संबंधित कमजोरी का लाभ उठाया गया- देश की एकता एवं अखंडता की कीमत पर! जबकि हकीकत में दोनों संप्रदाय के लोग एक-दूसरे की धार्मिक आस्था का सम्मान करते हुए मिलजुलकर शांतिपूर्वक रहना चाहते हैं! यह तो राजनीतिकों और सत्ता के हाथों बिक चुके कट्टरपंथी हैं जो लोगों को बरगलाते रहते हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि अदालत के बाहर दोनों पक्षों के बीच मतैक्य नहीं हो पाया। समय-समय पर दंगे भड़के, दोनों संप्रदाय एक-दूसरे के खून के प्यासे बन गए। लेकिन यह भी सच है कि अदालती फैसले का सम्मान करने का आश्वासन दोनों पक्ष दे चुके हैं। फिर अदालती विलंब क्यों? 60 साल का अरसा एक लंबा अरसा है। हाईकोर्ट के तीनों न्यायाधीश फैसला सुनाने को तैयार बैठे हैं। इसमें कोई व्यवधान पैदा न किया जाये। यह तो स्वाभाविक है कि फैसले से कोई एक पक्ष असंतुष्ट बना रहेगा। उस पक्ष का इस्तेमाल कट्टरपंथी करना चाहेंगे। प्रयास यह हो कि अदालती फैसले का सम्मान दोनों पक्ष करें। मंदिर और मस्जिद के नाम पर किसी भी सभ्य समाज में खून-खराबा अनुचित है। ऐसे तत्वों के साथ कड़ाई बरती जाए। सिर्फ शासन के लिये यह संभव नहीं। समाज में आम लोगों को सामने आना होगा। सरकार की ओर से दिया जा रहा तर्क कि हाईकोर्ट के फैसले के बाद भी अपील के लिए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खुला रहेगा, समस्या के हल में मददगार नहीं हो सकता। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद इस बात की क्या गारंटी है कि असंतुष्ट पक्ष फैसले को स्वीकार कर ही लेगा? फिर क्या होगा? सुप्रीम कोर्ट के बाद तो अन्य कोई कोर्ट है नहीं। इसलिए बेहतर होगा कि हाईकोर्ट के फैसले को सम्मान देने के लिए दोनों पक्षों को प्रेरित किया जाए। यह संभव है, शर्त यह कि राजदल और राजनीतिज्ञ, पंडित और मौलवी की भूमिका में न आएं।
Thursday, September 23, 2010
भाजपा में सक्रिय ये विघ्नसंतोषी
किसी ने बिल्कुल ठीक कहा है कि सियासत को तवायफ का दुपट्टा कभी किसी की आंसुओं से गीला नहीं होता। अनेक 'गंध' मिलकर स्वच्छ वातावरण व उसकी पवित्रता को चुनौती देने वाली 'दुर्गन्ध' पैदा करता रहता है यह दुपट्टा। एक शाश्वत सत्य है। आश्चर्य है कि इस अटूट स्थापित सत्य से अच्छी तरह परिचित होने के बावजूद पक्ष-विपक्ष दोनों के कतिपय नेता अंजान बन इस सड़ांध को हवा दे रहे हैं। केन्द्र में सत्ता का नेतृत्व करने वाली कांग्रेस तो गूंगी, बहरी, अंधी बन इसे सहेज रही है। प्रधानमंत्री के मीडिया सलाहकार हरीश खरे ने सार्वजनिक रूप से कांग्रेस को निकम्मी-नालायक निरूपित कर शायद सच को चिन्हित कर दिया है। खरे के इस आकलन को क्या कांग्रेसी नेता चुनौती दे सकते हैं कि कांग्रेस का एकमात्र लक्ष्य चुनाव जीतना है। मूल्य-सिद्धांत, सेवा से कोई लेना-देना नहीं। खरे के आकलन पर प्रधानमंत्री के मौन को फिर हम स्वीकारोक्ति क्यों न मान लें?
प्रमुख विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी के कुछ बड़े नेता भी इस 'दुर्गन्ध' के पोषक बन गए हैं। मूल्य आधारित राजनीति करने का दावा करनेवाली भाजपा के वर्तमान नए नेतृत्व को सतर्क रहना होगा। दलदली दिल्ली में मठाधीश की भूमिका में राजनीति करनेवाले कुछ कथित बड़े नेता वही लोग हैं जिनकी निजस्वार्थ राजनीति के कारण सन् 2004 और 2009 में केन्द्रीय सत्ता कांग्रेस नेतृत्व के संप्रग की गोद में अनायास पहुंच गई। इन दोनों चुनावों में भाजपा की हार का कारण इन अहंकारी नेताओं की स्वार्थजनित नीतियां थीं। इन लोगों ने अपने स्वार्थ के आगे पार्टी व देशहित की बलि चढ़ा दी। इनका स्वार्थ नये युवा नेतृत्व को बर्दाश्त नहीं कर पा रहा है। नितिन गडकरी के रूप में भाजपा को प्राप्त नया राष्ट्रीय अध्यक्ष आशा की लौ तो जगा रहा किन्तु मठाधीशों का अहंकार व षडय़ंत्र पुन: पार्टी की विकास यात्रा के मार्ग में अवरोध पैदा कर रहे हैं। अगर बकौल हरीश खरे कांग्रेस का एकमात्र लक्ष्य येनकेन प्रकारेण चुनाव जीतना है तो भाजपा के इन मठाधीशों का एकमात्र लक्ष्य नितिन गडकरी के 'विजन 2014' को विफलता की खाई में फेंक देना है। हां, यही सच है- कड़वा सच है। पिछले 2 लोकसभा चुनावों में भाजपा का बंटाढार करने वाले ये मठाधीश भला यह कैसे बर्दाश्त कर लें कि गडकरी की संगठन कुशलता और दूरदृष्टि के परिणामस्वरूप सन् 2014 में भाजपा को सफलता मिल जाए। इनकी कलई जो खुल जाएगी। अध्यक्ष पद संभालने के पूर्व और पश्चात् इस 'गैंग' ने गडकरी को अनुभवहीन व अकुशल नेता के रूप में प्रचारित करवाने का षडय़ंत्र रचा था। बाद में मीडिया के अपने पिट्ठुओं द्वारा प्रचारित कराया गया कि गडकरी में निर्णयक्षमता का अभाव है। वे मठाधीशों के बंदी हैं। पूरे देश में पार्टी के बीच तालुका स्तर पर इस दुष्प्रचार को पहुंचाया गया। वस्तुत: यह 'गैंग' गडकरी की कार्यक्षमता व बुद्धिमत्ता को कम कर आंक रही थी। गडकरी के नजदीकी आश्वस्त थे कि सही समय पर सही निर्णय लेकर गडकरी पार्टी हित के ग्राफ को ऊपर ले जाएंगे। झारखंड में भाजपा नेतृत्व की सरकार के गठन ने इसे प्रमाणित भी कर दिया। कश्मीर के मुद्दे पर प्रधानमंत्री द्वारा आहूत सर्वदलीय बैठक में नितिन गडकरी के सकारात्मक विचारों को सुन स्वयं कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह स्तब्ध रह गए थे। भाजपा के मठाधीश बेचैन हो उठे। उन्होंने मीडिया में मौजूद अपने पिट्ठुओं की पीठें ठोंकी व उन्हें सक्रिय किया। भाजपा से जुड़े नागपुर के 2-3 व्यापारियों को निशाने पर लेकर दुष्प्रचार कर एक नया अभियान शुरू किया। नितिन गडकरी पर कार्पाेरेट घरानों का हित साधने का घिनौना आरोप लगाया गया। इस अभियान में मीडिया का एक वर्ग अनर्गल बातों को हवा देता रहा। मैं इस तथ्य को चिन्हित यूं ही नहीं कर रहा हूं। सिर्फ एक उदाहरण देना चाहूंगा। पिछले दिनों जब झारखंड के मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा नागपुर आए थे तब उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुख्यालय जाकर संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत से मुलाकात की थी। दिल्ली व अन्य शहरों से प्रकाशित एक बड़े अंग्रेजी दैनिक ने खबर छापी कि जब अर्जुन मुंडा संघ प्रमुख मोहन भागवत से मिलने गये थे तब गडकरी के नजदीकी एक उद्योगपति अजय संचेती भी मुंडा के साथ गए थे। बड़ी चालाकी से अखबार ने इस तथ्य को छुपा लिया कि संचेती भाजपा के राष्ट्रीय कार्यकारिणी के एक सदस्य भी हैं। खबर बिल्कुल झूठी थी। यह दावा इसलिए कि अर्जुन मुंडा के साथ संचेती नहीं बल्कि मैं स्वयं गया था- झारखंड का होने व अपने पुराने व्यक्तिगत संबंधों के कारण, भाजपा या संघ के कारण नहीं। दु:ख व आश्चर्य इस बात का है कि ऐसी खबरें भाजपा का ही एक वर्ग मीडिया में प्लांट करवा रहा है। कारण साफ है, यह वर्ग नितिन गडकरी से भयभीत है। उसे भय है कि अगर नितिन गडकरी की योजना सफल हुई तब सन् 2014 में भाजपा नेतृत्व का राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन केंद्रीय सत्ता में वापसी कर लेगा और तब नया युवा नेतृत्व भाजपा व देश को नई दिशा, नई पहचान देने में भी सफल रहेगा। आरंभ से गडकरी को अक्षम व अनुभवहीन करार देते रहने वाले विघ्नसंतोषियों की बेचैनी समझी जा सकती है। बेहतर हो कि नए अध्यक्ष नितिन गडकरी की योजना को क्रियान्वित करने में सहयोगी बनें। उनके विरुद्ध षडय़ंत्र रच बदनाम करने का अभियान त्याग दें। गडकरी जो कुछ कर रहे हैं, पार्टी व देशहित में कर रहे हैं।
प्रमुख विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी के कुछ बड़े नेता भी इस 'दुर्गन्ध' के पोषक बन गए हैं। मूल्य आधारित राजनीति करने का दावा करनेवाली भाजपा के वर्तमान नए नेतृत्व को सतर्क रहना होगा। दलदली दिल्ली में मठाधीश की भूमिका में राजनीति करनेवाले कुछ कथित बड़े नेता वही लोग हैं जिनकी निजस्वार्थ राजनीति के कारण सन् 2004 और 2009 में केन्द्रीय सत्ता कांग्रेस नेतृत्व के संप्रग की गोद में अनायास पहुंच गई। इन दोनों चुनावों में भाजपा की हार का कारण इन अहंकारी नेताओं की स्वार्थजनित नीतियां थीं। इन लोगों ने अपने स्वार्थ के आगे पार्टी व देशहित की बलि चढ़ा दी। इनका स्वार्थ नये युवा नेतृत्व को बर्दाश्त नहीं कर पा रहा है। नितिन गडकरी के रूप में भाजपा को प्राप्त नया राष्ट्रीय अध्यक्ष आशा की लौ तो जगा रहा किन्तु मठाधीशों का अहंकार व षडय़ंत्र पुन: पार्टी की विकास यात्रा के मार्ग में अवरोध पैदा कर रहे हैं। अगर बकौल हरीश खरे कांग्रेस का एकमात्र लक्ष्य येनकेन प्रकारेण चुनाव जीतना है तो भाजपा के इन मठाधीशों का एकमात्र लक्ष्य नितिन गडकरी के 'विजन 2014' को विफलता की खाई में फेंक देना है। हां, यही सच है- कड़वा सच है। पिछले 2 लोकसभा चुनावों में भाजपा का बंटाढार करने वाले ये मठाधीश भला यह कैसे बर्दाश्त कर लें कि गडकरी की संगठन कुशलता और दूरदृष्टि के परिणामस्वरूप सन् 2014 में भाजपा को सफलता मिल जाए। इनकी कलई जो खुल जाएगी। अध्यक्ष पद संभालने के पूर्व और पश्चात् इस 'गैंग' ने गडकरी को अनुभवहीन व अकुशल नेता के रूप में प्रचारित करवाने का षडय़ंत्र रचा था। बाद में मीडिया के अपने पिट्ठुओं द्वारा प्रचारित कराया गया कि गडकरी में निर्णयक्षमता का अभाव है। वे मठाधीशों के बंदी हैं। पूरे देश में पार्टी के बीच तालुका स्तर पर इस दुष्प्रचार को पहुंचाया गया। वस्तुत: यह 'गैंग' गडकरी की कार्यक्षमता व बुद्धिमत्ता को कम कर आंक रही थी। गडकरी के नजदीकी आश्वस्त थे कि सही समय पर सही निर्णय लेकर गडकरी पार्टी हित के ग्राफ को ऊपर ले जाएंगे। झारखंड में भाजपा नेतृत्व की सरकार के गठन ने इसे प्रमाणित भी कर दिया। कश्मीर के मुद्दे पर प्रधानमंत्री द्वारा आहूत सर्वदलीय बैठक में नितिन गडकरी के सकारात्मक विचारों को सुन स्वयं कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह स्तब्ध रह गए थे। भाजपा के मठाधीश बेचैन हो उठे। उन्होंने मीडिया में मौजूद अपने पिट्ठुओं की पीठें ठोंकी व उन्हें सक्रिय किया। भाजपा से जुड़े नागपुर के 2-3 व्यापारियों को निशाने पर लेकर दुष्प्रचार कर एक नया अभियान शुरू किया। नितिन गडकरी पर कार्पाेरेट घरानों का हित साधने का घिनौना आरोप लगाया गया। इस अभियान में मीडिया का एक वर्ग अनर्गल बातों को हवा देता रहा। मैं इस तथ्य को चिन्हित यूं ही नहीं कर रहा हूं। सिर्फ एक उदाहरण देना चाहूंगा। पिछले दिनों जब झारखंड के मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा नागपुर आए थे तब उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुख्यालय जाकर संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत से मुलाकात की थी। दिल्ली व अन्य शहरों से प्रकाशित एक बड़े अंग्रेजी दैनिक ने खबर छापी कि जब अर्जुन मुंडा संघ प्रमुख मोहन भागवत से मिलने गये थे तब गडकरी के नजदीकी एक उद्योगपति अजय संचेती भी मुंडा के साथ गए थे। बड़ी चालाकी से अखबार ने इस तथ्य को छुपा लिया कि संचेती भाजपा के राष्ट्रीय कार्यकारिणी के एक सदस्य भी हैं। खबर बिल्कुल झूठी थी। यह दावा इसलिए कि अर्जुन मुंडा के साथ संचेती नहीं बल्कि मैं स्वयं गया था- झारखंड का होने व अपने पुराने व्यक्तिगत संबंधों के कारण, भाजपा या संघ के कारण नहीं। दु:ख व आश्चर्य इस बात का है कि ऐसी खबरें भाजपा का ही एक वर्ग मीडिया में प्लांट करवा रहा है। कारण साफ है, यह वर्ग नितिन गडकरी से भयभीत है। उसे भय है कि अगर नितिन गडकरी की योजना सफल हुई तब सन् 2014 में भाजपा नेतृत्व का राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन केंद्रीय सत्ता में वापसी कर लेगा और तब नया युवा नेतृत्व भाजपा व देश को नई दिशा, नई पहचान देने में भी सफल रहेगा। आरंभ से गडकरी को अक्षम व अनुभवहीन करार देते रहने वाले विघ्नसंतोषियों की बेचैनी समझी जा सकती है। बेहतर हो कि नए अध्यक्ष नितिन गडकरी की योजना को क्रियान्वित करने में सहयोगी बनें। उनके विरुद्ध षडय़ंत्र रच बदनाम करने का अभियान त्याग दें। गडकरी जो कुछ कर रहे हैं, पार्टी व देशहित में कर रहे हैं।
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