संप्रग-प्रथम काल में एक कठपुतली प्रधानमंत्री के रूप में अपनी पहचान बनानेवाले प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह अपनी उस छवि से निजात पाने का भरसक प्रयत्न कर रहे हैं। इस सचाई से वाकिफ कि वर्तमान संप्रग-द्वितीय के बाद तृतीय में वे प्रधानमंत्री नहीं बनने वाले, मनमोहन सिंह की यह कवायद स्वाभाविक है। भारत जैसा विशाल लोकतांत्रिक देश प्रधानमंत्री के रूप में किसी कठपुतली प्रधानमंत्री को सहन कर भी नहीं सकता। कोई आश्चर्य नहीं कि उनके पिछले कार्यकाल को देश ने निहायत अप्रभावी निरूपित किया था। अब अगर मनमोहन सिंह अपनी छवि सुधारने को उतावले हो रहे हैं तब क्या यह आशा की जाए कि आम जनता के हक में वे कतिपय क्रांतिकारी कदम उठाएंगे? जब बातें आम जनता की होती हैं तब सिद्धांत से पृथक व्यवहार पर ध्यान दिया जाता है। चुनाव और सरकार गठन के पश्चात आम जनता की चिंता विशुद्ध रूप से घर-द्वार की हो जाती है। उसे आजीविका चलाने के लिए रोजगार चाहिए। बच्चों के लिए समुचित शिक्षा व्यवस्था चाहिए, स्वास्थ्य के लिए चिकित्सा चाहिए। सिर पर छत के रूप में एक मकान चाहिए, भयमुक्त समाज के लिए अच्छी विधि व्यवस्था चाहिए और चाहिए आत्मसम्मान! दु:खद रूप से अब तक मनमोहन सिंह की सरकार इन मामलों में अपेक्षानुरूप सफल नहीं कही जा सकती, बल्कि विफल कही जाएगी। महंगाई में बेतहाशा वृद्धि के कारण त्रस्त जनता के जख्मों पर हमारे वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी यह कहकर नमक छिड़क रहे हैं कि महंगाई और बढ़ेगी। मूल्यवृद्धि पर रोक के उपायों से पृथक ऐसे बयान निश्चय ही सरकार की नाकामी और बेरुखी के सूचक हैं। इसे बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। इस परिप्रेक्ष्य में प्रधानमंत्री द्वारा दिया गया संकेत कि डीजल के दाम और भी बढ़ सकते हैं, पीड़ादायक है। चोट पहुंची है सभी को।
मैं प्रधानमंत्री की जिस छवि सुधार कसरत की बातें कर रहा हूं वह औचित्यविहिन नहीं है। कुख्यात भोपाल गैस कांड के मुख्य अभियुक्त वारेन एंडरसन को देश से भगाये जाने और ताजा चर्चित प्रत्यर्पण के मामले में मनमोहन सिंह ने एक तरह से यह स्वीकार कर लिया कि दोषी कांग्रेस सरकार रही है। पूरे मामले में सरकार, राजनीतिक तंत्र और न्यायपालिका की सामूहिक विफलता को भी प्रधानमंत्री ने परोक्ष रूप से स्वीकार कर लिया है। एक पारदर्शी प्रधानमंत्री की तरह मनमोहन सिंह देश की न्यायप्रणाली में सुधार की जरूरत को भी रेखांकित कर रहे हैं। सर्वाधिक निडरता उन्होंने 1984 के सिख विरोधी दंगों पर दिखाई है। अत्यधिक विलंब से ही सही मनमोहन सिंह ने दो टूक शब्दों में ऐसी राय व्यक्त कर दी कि, ''1984 का दंगा नहीं होना चाहिए था।'' इसके पहले उन्होंने कभी भी दंगे पर ऐसी टिप्पणी नहीं की थी। उनकी टिप्पणी का निहितार्थ स्पष्ट है। उन्होंने एक सिरे से दंगे पर नाराजगी जाहिर की है। अब तक बताये जाते रहे कारणों को खारिज कर दिया है। याद दिला दूं कि तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की एक सिख अंगरक्षक द्वारा हत्या कर दिये जाने के बाद राजधानी दिल्ली सहित देश के अनेक भागों में सिख विरोधी दंगे भड़का दिये गये थे। दंगों का नेतृत्व आम जनता नहीं बल्कि कांग्रेसजनों ने ही किया था। अकेले दिल्ली में हजारों सिखों को मौत के घाट उतार दिया गया था। कहा गया कि इंदिरा गांधी की हत्या के विरोधस्वरूप उत्पन्न जनाक्रोश ने सिखों को निशाने पर लिया। लेकिन सच ऐसा नहीं था। एक भ्रमित सिख अंगरक्षक के कारण देश पूरे सिख समाज के खिलाफ नहीं जा सकता था। प्रत्यक्षदर्शी और अन्य प्रमाण मौजूद हैं यह सिद्ध करने के लिए कि कांग्रेसियों ने सिख विरोधी दंगे शुरू किये, सिखों के खिलाफ लोगों को भड़काया। दिल्ली के बड़े-बड़े कांग्रेसी नेता सिख विरोधी भीड़ का नेतृत्व करते देखे गये थे। और तो और इंदिरापुत्र नवनियुक्त प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने तब तक यह टिप्पणी कर कि ''जब बड़ा वृक्ष गिरता है तब धरती हिलती ही है'', दंगों का समर्थन कर दिया था। आज जब हमारे सिख प्रधानमंत्री 1984 के उस दंगे को अनुचित निरूपित कर रहे हैं तब निश्चय ही वे तब के कांग्रेस नेतृत्व की आलोचना भी कर रहे हैं। मनमोहन सिंह ने अपनी छवि सुधारने के लिए ही सही अपनी उक्त टिप्पणी के द्वारा एक कड़वे सच को चिन्हित कर दिया है। अब प्रतीक्षा रहेगी स्व. राजीव गांधी की पत्नी कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के मंतव्य की।
Tuesday, June 29, 2010
Sunday, June 27, 2010
महंगाई से पीडि़त ये भूखे-नंगे सांसद!
देश के लोकतंत्र के साथ एक और मजाक! पेट्रोल, डीजल, केरोसिन, रसोईगैस की कीमतों में इजाफा करवा महंगाई के लिए दरवाजे खोल देने वाली सरकार को अब चिंता महंगाई की मार से अपने निर्वाचित सांसदों को बचाने की हो गई है। यह करतब अपने देश में ही संभव है। निर्वाचित जनप्रतिनिधियों की ऐसी बेहयाई किसी और देश में नहीं देखी जाती। विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र की इस उपलब्धि पर सिर ही तो धुना जा सकता है! सचमुच महंगाई बढ़ रही है तो बेचारे भूखे-नंगे सांसद अपनी चिंता तो करेंगे ही! यह दीगर है कि घोषित तौर पर भी अधिकांश सांसद करोड़पति हैं-अरबपति हैं। प्रति वर्ष उनकी आय में बेतहाशा वृद्धि होती रही है। किन्तु जनता के बीच बेचारे भूखे-नंगे ही बने रहते हैं। विचारों से भी, कर्म से भी। ऐसे में जब सांसदों ने और बेहतर वेतन पैकेज की मांग की है तब जनआक्रोश पैदा होगा ही! यह अलग बात है कि ऐसे जनआक्रोश का कोई असर न तो सरकार पर होगा और न ही निर्वाचित सांसदों पर। कठोर व संवेदनाशून्य इनके दिल जनता के पक्ष में कभी नहीं पसीजते। फिर भी जनता इन्हें बर्दाश्त करती है। उदार भारतीय लोकतंत्र की यह विशेषता क्या स्थायी स्वरूप को प्राप्त कर लेगी?
सिफारिश की गई है कि सांसदों का मासिक वेतन 16,000 रु. से बढ़ाकर 80,001 रु. कर दिया जाए। यहां मामला सिर्फ वेतन वृद्धि का नहीं, अहं तुष्टि का भी है। सांसदों का वह अहं जो अपने सामने किसी को बड़ा नहीं देख सकता। 80,001 रु. की मांग का तुर्रा देखें! तर्क दिया गया है कि भारत सरकार के सचिव स्तर के सर्वोच्च वेतन 80,000 से सांसदों को 1 रु. अधिक मिलना चाहिए। सांसद नहीं चाहते कि किसी सरकारी अधिकारी-कर्मचारी को उनसे अधिक वेतन मिले। वे नहीं चाहते कि प्रोटोकॉल के अनुसार उन्हें सलाम ठोकने वाले किसी सरकारी कर्मचारी का वेतन उनसे अधिक हो! सांसदों के इस तर्क को जनता स्वीकार नहीं करेगी। अगर सांसद सचिव स्तर के अधिकारियों से अधिक वेतन चाहते हैं तब योग्यता और पात्रता को भी सांसदों के साथ जोड़ दिया जाना चाहिए। सरकारी अधिकारियों की तरह सांसदों के लिए जवाबदेही भी निश्चित हो। सांसदों से विशेषाधिकार वापस ले लिए जाएं, अन्य सुख-सुविधाएं भी छिन ली जाएं। जब ये सांसद जनप्रतिनिधि और जनसेवक के बीच के फर्क को नहीं समझ पा रहे तब इन्हें जनता बता देगी। सचिव के पद पर पहुंचा व्यक्ति एक विशेष शैक्षणिक योग्यता प्राप्त होता है। कठिन प्रतियोगी परीक्षा में सम्मानपूर्वक उत्तीर्ण होता है। प्रशासनिक गुर सीखने के लिए उसे प्रशिक्षण से गुजरना पड़ता है। उसकी जिम्मेदारी सुनिश्चित रहती है। अनुशासन में बंधा होता है वह। उसे सरकारी नौकर कहा जाता है। इनसे अधिक वेतन के आकांक्षी सांसद क्या अपने लिए ऐसी पात्रता और बंधन को स्वीकार करने तैयार हैं? सांसदों द्वारा स्वयं घोषित संपत्ति को देखने के बाद इनकी मांग को उचित नहीं ठहराया जा सकता। संसद में अब कोई दीन-हीन समाज सेवक नहीं पहुंच पाता। चुनाव लडऩे के लिए और फिर जीतने के लिए करोड़ों रुपये की जरूरत एक सच्चे, ईमानदार जनसेवक को संसद पहुंचने से रोक देती है। करोड़ों खर्च करने में समर्थ व्यक्ति ही आज संसद में पहुंच पाता है। सरकारी अधिकारियों के लिए वांछित योग्यता इनके लिए बंधनकारक नहीं। शैक्षणिक पात्रता कोई रुकावट नहीं। दुखद रूप से हमारे लोकतंत्र में सांसदों की योग्यता, पात्रता को हाशिये पर डाल धनबल की आवश्यकता को ही रेखांकित कर डाला है। निश्चय ही सांसदों की यह नई मांग लोकतंत्र की मूल भावना को मुंह चिढ़ाने वाली है।
सिफारिश की गई है कि सांसदों का मासिक वेतन 16,000 रु. से बढ़ाकर 80,001 रु. कर दिया जाए। यहां मामला सिर्फ वेतन वृद्धि का नहीं, अहं तुष्टि का भी है। सांसदों का वह अहं जो अपने सामने किसी को बड़ा नहीं देख सकता। 80,001 रु. की मांग का तुर्रा देखें! तर्क दिया गया है कि भारत सरकार के सचिव स्तर के सर्वोच्च वेतन 80,000 से सांसदों को 1 रु. अधिक मिलना चाहिए। सांसद नहीं चाहते कि किसी सरकारी अधिकारी-कर्मचारी को उनसे अधिक वेतन मिले। वे नहीं चाहते कि प्रोटोकॉल के अनुसार उन्हें सलाम ठोकने वाले किसी सरकारी कर्मचारी का वेतन उनसे अधिक हो! सांसदों के इस तर्क को जनता स्वीकार नहीं करेगी। अगर सांसद सचिव स्तर के अधिकारियों से अधिक वेतन चाहते हैं तब योग्यता और पात्रता को भी सांसदों के साथ जोड़ दिया जाना चाहिए। सरकारी अधिकारियों की तरह सांसदों के लिए जवाबदेही भी निश्चित हो। सांसदों से विशेषाधिकार वापस ले लिए जाएं, अन्य सुख-सुविधाएं भी छिन ली जाएं। जब ये सांसद जनप्रतिनिधि और जनसेवक के बीच के फर्क को नहीं समझ पा रहे तब इन्हें जनता बता देगी। सचिव के पद पर पहुंचा व्यक्ति एक विशेष शैक्षणिक योग्यता प्राप्त होता है। कठिन प्रतियोगी परीक्षा में सम्मानपूर्वक उत्तीर्ण होता है। प्रशासनिक गुर सीखने के लिए उसे प्रशिक्षण से गुजरना पड़ता है। उसकी जिम्मेदारी सुनिश्चित रहती है। अनुशासन में बंधा होता है वह। उसे सरकारी नौकर कहा जाता है। इनसे अधिक वेतन के आकांक्षी सांसद क्या अपने लिए ऐसी पात्रता और बंधन को स्वीकार करने तैयार हैं? सांसदों द्वारा स्वयं घोषित संपत्ति को देखने के बाद इनकी मांग को उचित नहीं ठहराया जा सकता। संसद में अब कोई दीन-हीन समाज सेवक नहीं पहुंच पाता। चुनाव लडऩे के लिए और फिर जीतने के लिए करोड़ों रुपये की जरूरत एक सच्चे, ईमानदार जनसेवक को संसद पहुंचने से रोक देती है। करोड़ों खर्च करने में समर्थ व्यक्ति ही आज संसद में पहुंच पाता है। सरकारी अधिकारियों के लिए वांछित योग्यता इनके लिए बंधनकारक नहीं। शैक्षणिक पात्रता कोई रुकावट नहीं। दुखद रूप से हमारे लोकतंत्र में सांसदों की योग्यता, पात्रता को हाशिये पर डाल धनबल की आवश्यकता को ही रेखांकित कर डाला है। निश्चय ही सांसदों की यह नई मांग लोकतंत्र की मूल भावना को मुंह चिढ़ाने वाली है।
Saturday, June 26, 2010
चिंता ''लोकशास्त्र'' की तो करें!
क्षमा करेंगे, यह हमारे अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री की समझ को खुली चुनौती है! पहले ही महंगाई के बोझ से झुकी कमर के साथ लंगड़ाने-कराहने वाली जनता के साथ यह एक क्रूर मजाक है! अर्थशास्त्र के किताबी ज्ञान व सिद्धांत की जानकारी मुझे नहीं, देश की सामान्य जनता को भी नहीं, घर का बजट बनानेवाली गृहिणियों को भी नहीं। केरोसिन का उपयोग करनेवाली गरीब जनता को तो कतई नहीं! इन्हें अगर जानकारी है तो सिर्फ इस बात की कि वे एक लोकतांत्रिक देश के नागरिक हैं और इस लोकतंत्र का संविधान उन्हें जीने के अधिकार के साथ-साथ रोटी, कपड़ा और मकान की उपलब्धता का वचन देता है। इन्हें यह मालूम है कि वे उस भारत देश के नागरिक हैं, जिसके शासन का अधिकार उन्होंने अपने निर्वाचित जनप्रतिनिधियों को दे रखा है। इस विश्वास के साथ कि वे एक सरल, सुलभ, शांत, सुरक्षित जीवन व्यतीत कर पायेंगे। लेकिन नहीं! शासक हर पल उनके साथ छल कर रहे हैं। दिल्ली स्थित संसद में बैठे हमारे जनप्रतिनिधि, सांसद और मंत्री के रूप में अतिविशिष्ट नागरिक बन संसार की सभी सुख-सुविधाओं का उपभोग कर रहे हंै। प्रभावित नहीं होने के बावजूद अपने वेतन भत्ते में दो गुनी-तीन गुनी वृद्धि कर लेते हैं। मजे की बात यह कि सदन के अंदर एक दूसरे की लानत-मलामत करनेवाला पक्ष-विपक्ष ऐसी वृद्धि के पक्ष में एकजुट हो जाता है। आम जनता अर्थात उन्हें निर्वाचित करनेवाली जनता की परेशानियों से इतर इनकी नजरें सिर्फ अपनी सुख-सुविधाओं पर ही रहती है। विडंबना यह भी कि इस प्रक्रिया में अपने मतदाता की वाजिब जरूरतों की कीमत पर ये जनप्रतिनिधि देश के बड़े धन्नासेठों की जरूरतों, लाभ के लिये व्यग्र दिखते हैं। क्या यही लोकतंत्र है, जहां ''लोक'' के पेट पर लात मार बड़े औद्योगिक घरानों को लाभ पहुंचाया जाय? फिर दोहरा दूं कि मैं यहां अर्थशास्त्र के सिद्धांत की बातें नहीं कर रहा। उस अलिखित ''लोकशास्त्र' की बातें कर रहा हूं जो लोकहित का आग्रही है। इस शास्त्र से प्रधानमंत्री सहित मंत्रिमंडल के उनके सहयोगी तो परिचित होंगे ही!
मनमोहन सिंह की सरकार ने एक बार फिर देश को निराश किया है। पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों को सरकारी नियंत्रण से मुक्त कर मुद्रास्फीति में वृद्धि का मार्ग प्रशस्त कर दिया गया है। सरकार के इस निर्णय के साथ ही न केवल पेट्रोल और डीजल बल्कि केरोसिन और रसोई गैस के दामों में भी भारी वृद्धि हो गई है। अंतरराष्ट्रीय बाजार में पेट्रो पदार्थों की कीमतों के सैद्धान्तिक तर्क को जनता के गले उतारने की कोशिश न की जाय! भारत की आम जनता अभी उतनी समृद्ध नहीं कि इस तर्क को स्वीकार कर महंगाई के बोझ को ढोने के लिए तैयार हो जाय। ये तर्क अर्थशास्त्रियों के लिये है। इसमें सिर खपाना उनका काम है लेकिन यह दायित्व भी उनका ही है कि देश की जनता को महंगाई से दूर उपभोक्ता वस्तुएं व अन्य जरूरी सामग्री सस्ते अर्थात आम जनता की 'जेब की क्षमता' के अनुरूप उपलब्ध हो। पेट्रोल-डीजल की कीमतें बढऩे से निश्चय ही उपभोक्ता, खाद्य व अन्य वस्तुओं की कीमतें बढ़ेंगी! क्या यह बताने की जरूरत है कि इसका सीधा असर आम जनता पर पड़ेगा? समृद्ध वर्ग तो अपनी जरूरतों की व्यवस्था कर ही लेता है उसके पास अनेक दरवाजे उपलब्ध हैं। पिसेगी बेचारी आम गरीब जनता। मध्यमवर्ग और निम्न मध्यम वर्ग हमेशा की तरह प्रताडि़त होगा। अंतरराष्ट्रीय बाजार में मूल्यों की दुहाई सरकार न दे। विदेश में लोगों की जीवन पद्धति, जरूरतों व उपलब्ध संसाधनों की तुलना भारत से नहीं की जानी चाहिए। उनकी आर्थिक स्थिति व हमारी आर्थिक स्थिति में बहुत फर्क है। उनकी साधन संपन्नता तो हमेशा हमारी दीनहीनता का मजाक उड़ाते रहती है। भारत सरकार इस परिप्रेक्ष्य में भारतीयों की सोचे, विश्व बाजार की नहीं! पेट्रोलियम पदार्थों में नई वृद्धि देश स्वीकार नहीं करेगा!
मनमोहन सिंह की सरकार ने एक बार फिर देश को निराश किया है। पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों को सरकारी नियंत्रण से मुक्त कर मुद्रास्फीति में वृद्धि का मार्ग प्रशस्त कर दिया गया है। सरकार के इस निर्णय के साथ ही न केवल पेट्रोल और डीजल बल्कि केरोसिन और रसोई गैस के दामों में भी भारी वृद्धि हो गई है। अंतरराष्ट्रीय बाजार में पेट्रो पदार्थों की कीमतों के सैद्धान्तिक तर्क को जनता के गले उतारने की कोशिश न की जाय! भारत की आम जनता अभी उतनी समृद्ध नहीं कि इस तर्क को स्वीकार कर महंगाई के बोझ को ढोने के लिए तैयार हो जाय। ये तर्क अर्थशास्त्रियों के लिये है। इसमें सिर खपाना उनका काम है लेकिन यह दायित्व भी उनका ही है कि देश की जनता को महंगाई से दूर उपभोक्ता वस्तुएं व अन्य जरूरी सामग्री सस्ते अर्थात आम जनता की 'जेब की क्षमता' के अनुरूप उपलब्ध हो। पेट्रोल-डीजल की कीमतें बढऩे से निश्चय ही उपभोक्ता, खाद्य व अन्य वस्तुओं की कीमतें बढ़ेंगी! क्या यह बताने की जरूरत है कि इसका सीधा असर आम जनता पर पड़ेगा? समृद्ध वर्ग तो अपनी जरूरतों की व्यवस्था कर ही लेता है उसके पास अनेक दरवाजे उपलब्ध हैं। पिसेगी बेचारी आम गरीब जनता। मध्यमवर्ग और निम्न मध्यम वर्ग हमेशा की तरह प्रताडि़त होगा। अंतरराष्ट्रीय बाजार में मूल्यों की दुहाई सरकार न दे। विदेश में लोगों की जीवन पद्धति, जरूरतों व उपलब्ध संसाधनों की तुलना भारत से नहीं की जानी चाहिए। उनकी आर्थिक स्थिति व हमारी आर्थिक स्थिति में बहुत फर्क है। उनकी साधन संपन्नता तो हमेशा हमारी दीनहीनता का मजाक उड़ाते रहती है। भारत सरकार इस परिप्रेक्ष्य में भारतीयों की सोचे, विश्व बाजार की नहीं! पेट्रोलियम पदार्थों में नई वृद्धि देश स्वीकार नहीं करेगा!
Friday, June 25, 2010
गलत है कि पूरा मीडिया बिक गया है!
'जेठमलानी की बद्तमीजी, मीडिया का मौन' में की गई टिप्पणियों पर प्राप्त प्रतिक्रियाएं वर्तमान के कड़वे सच को रेखांकित कर रही हैं! पूरी की पूरी व्यवस्था का कड़वा सच! प्राप्त अनेक प्रतिक्रियाओं में से एक विजय झा का उल्लेख करना चाहूंगा। विजय बहस चाहते हैं इस पर कि आज मीडिया जिस अंधी सुरंग में फंस चुका है, उससे कैसे निकले...? विजय यह भी जानना चाहते हैं कि जब कोई पत्रकार कांग्रेस का एजेंट बनकर किसी से असुविधाजनक सवाल करे, तब जवाब कैसा मिलेगा? विजय की जिज्ञासा है कि जब पूरा का पूरा मीडिया एक स्वर से जय सोनिया...जय मनमोहन...जय अंबानी...जय माल्या...का राग अलाप रहा हो, विपक्ष सीबीआई के डर से मूक बना हो, तो ऐसे माहौल में रामजेठमलानी ने सच बोलने का साहस कर गलत क्या किया?'' रामजेठमलानी के आचरण की आलोचना से इतर जिन लोगों ने मीडिया को आड़े हाथों लिया है उन सभी के विचार कमोबेश विजय के विचार से मिलते-जुलते हैं।
यह ठीक है कि आज मीडिया एक बड़े उद्योग की शक्ल ले चुका है। इसे चलाने के लिये बड़ी पंूजी की जरूरत पड़ती है। अर्थात मीडिया पर आधिपत्य पूंजीपतियों का ही है। किंतु यह पूर्ण सच नहीं कि पूरा का पूरा मीडिया सत्ता के हाथों बिक चुका है या पूंजीपति मालिकों के इशारे पर नाच रहा है। आज भी वैसे प्रकाशन संस्थान और वैसे मीडियाकर्मी, संपादक मौजूद हैं, जो लोकतंत्र के चौथे स्तंभ की पवित्रता को कायम रखने, उसकी अपेक्षाओं के अनुरूप कार्य निष्पादन के प्रति प्रतिबद्ध हैं। चाहे राजसत्ता हो या पूंजीपति मालिक, उनके अनुचित अथवा अनैतिक दबाव के सामने झुकने को वे तैयार नहीं। मूल्य आधारित तथ्य व उद्देश्यपरक लेखन इनकी विशेषता है। हां, यह ठीक है कि इनकी संख्या नगण्य है। भ्रष्ट व्यवस्था की व्याधियों ने इस पेशे के अधिकांश लोगों को अपने आगोश में जकड़ लिया है। भ्रष्ट राजनीतिकों और भ्रष्ट उद्योगपतियों, व्यवसायियों की तरह यह वर्ग भी धनपिपासु बन चुका है। पीड़ा तब गहरी हो जाती है जब इन लोगों को धन कमाने की सीमा लांघ सत्ता की सीढिय़ों पर चढ़ते देखता हूं! निश्चय ही इस मुकाम पर ये न केवल पत्रकारीय मूल्यों के साथ समझौता करते हैं, सिद्धांतों का सौदा करते हैं, बल्कि कलम को बेच या गिरवी रख रेंगने लगते हैं, बिलबिलाने लगते हैं! यह अवस्था अपवाद के रूप में मौजूद पत्रकारों के लिये निश्चय ही एक चुनौती है। उनके मार्ग में बाधाएं तो आती हैं। समाज व घर-परिवार के स्तर पर उन्हें अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है, दीन-हीन बन उन्हें तानों-कटाक्षों से भी दो-चार होना पड़ता है, मूर्ख व असफल भी निरूपित कर दिये जाते हैं ये लोग! बावजूद इसके ये धन या राजसत्ता के लोभ-प्रलोभन के जाल में नहीं फंसते! ये लेखन को कर्म मानते हैं। फिर दोहरा दूं कि ऐसे लोगों की संख्या नगण्य है! किंतु इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि निरुत्साहित, हताश हो मीडिया के परचम को पैरों तले रौंदने को छोड़ दिया जाय! पूंजी की जरूरत और महत्व के बीच ही पत्रकारीय मूल्यों की रक्षा और इसकी अपेक्षाओं की पूर्ति की दिशा में ईमानदार कार्यनिष्पादन के मार्ग ढूंढ़े जाने चाहिए। मैं अपने अनुभव के आधार पर यह रेखांकित करने की स्थिति में हूं कि अगर संपादक और पत्रकारीय बिरादरी के अन्य वरिष्ठ, ईमानदारी से प्रयास करें तब संचालक अर्थात मालिक भी बगैर किसी प्रलोभन में फंसे, बगैर किसी दबाव में आये पत्रकारीय मूल्यों की रक्षा कर सकता है, मीडिया संस्थाओं की गरिमा-मर्यादा को कायम रख सकता है। रही बात मुनाफे की तो पाठकीय स्वीकृति से मिली पहचान संस्थान को आर्थिक लाभ भी मिला देगी। सिर्फ संयम रखने की जरूरत है। जिस तरह लोकतंत्र में अंतत: निर्णायक जनता होती है, उसी प्रकार समाचार-पत्रों की दुनिया में निर्णायक पाठक ही होता है। औैर यही विशाल पाठकवर्ग ईमानदार-निडर पत्रकारों का सुरक्षा-कवच भी बनेगा।
यह ठीक है कि आज मीडिया एक बड़े उद्योग की शक्ल ले चुका है। इसे चलाने के लिये बड़ी पंूजी की जरूरत पड़ती है। अर्थात मीडिया पर आधिपत्य पूंजीपतियों का ही है। किंतु यह पूर्ण सच नहीं कि पूरा का पूरा मीडिया सत्ता के हाथों बिक चुका है या पूंजीपति मालिकों के इशारे पर नाच रहा है। आज भी वैसे प्रकाशन संस्थान और वैसे मीडियाकर्मी, संपादक मौजूद हैं, जो लोकतंत्र के चौथे स्तंभ की पवित्रता को कायम रखने, उसकी अपेक्षाओं के अनुरूप कार्य निष्पादन के प्रति प्रतिबद्ध हैं। चाहे राजसत्ता हो या पूंजीपति मालिक, उनके अनुचित अथवा अनैतिक दबाव के सामने झुकने को वे तैयार नहीं। मूल्य आधारित तथ्य व उद्देश्यपरक लेखन इनकी विशेषता है। हां, यह ठीक है कि इनकी संख्या नगण्य है। भ्रष्ट व्यवस्था की व्याधियों ने इस पेशे के अधिकांश लोगों को अपने आगोश में जकड़ लिया है। भ्रष्ट राजनीतिकों और भ्रष्ट उद्योगपतियों, व्यवसायियों की तरह यह वर्ग भी धनपिपासु बन चुका है। पीड़ा तब गहरी हो जाती है जब इन लोगों को धन कमाने की सीमा लांघ सत्ता की सीढिय़ों पर चढ़ते देखता हूं! निश्चय ही इस मुकाम पर ये न केवल पत्रकारीय मूल्यों के साथ समझौता करते हैं, सिद्धांतों का सौदा करते हैं, बल्कि कलम को बेच या गिरवी रख रेंगने लगते हैं, बिलबिलाने लगते हैं! यह अवस्था अपवाद के रूप में मौजूद पत्रकारों के लिये निश्चय ही एक चुनौती है। उनके मार्ग में बाधाएं तो आती हैं। समाज व घर-परिवार के स्तर पर उन्हें अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है, दीन-हीन बन उन्हें तानों-कटाक्षों से भी दो-चार होना पड़ता है, मूर्ख व असफल भी निरूपित कर दिये जाते हैं ये लोग! बावजूद इसके ये धन या राजसत्ता के लोभ-प्रलोभन के जाल में नहीं फंसते! ये लेखन को कर्म मानते हैं। फिर दोहरा दूं कि ऐसे लोगों की संख्या नगण्य है! किंतु इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि निरुत्साहित, हताश हो मीडिया के परचम को पैरों तले रौंदने को छोड़ दिया जाय! पूंजी की जरूरत और महत्व के बीच ही पत्रकारीय मूल्यों की रक्षा और इसकी अपेक्षाओं की पूर्ति की दिशा में ईमानदार कार्यनिष्पादन के मार्ग ढूंढ़े जाने चाहिए। मैं अपने अनुभव के आधार पर यह रेखांकित करने की स्थिति में हूं कि अगर संपादक और पत्रकारीय बिरादरी के अन्य वरिष्ठ, ईमानदारी से प्रयास करें तब संचालक अर्थात मालिक भी बगैर किसी प्रलोभन में फंसे, बगैर किसी दबाव में आये पत्रकारीय मूल्यों की रक्षा कर सकता है, मीडिया संस्थाओं की गरिमा-मर्यादा को कायम रख सकता है। रही बात मुनाफे की तो पाठकीय स्वीकृति से मिली पहचान संस्थान को आर्थिक लाभ भी मिला देगी। सिर्फ संयम रखने की जरूरत है। जिस तरह लोकतंत्र में अंतत: निर्णायक जनता होती है, उसी प्रकार समाचार-पत्रों की दुनिया में निर्णायक पाठक ही होता है। औैर यही विशाल पाठकवर्ग ईमानदार-निडर पत्रकारों का सुरक्षा-कवच भी बनेगा।
Wednesday, June 23, 2010
जेठमलानी की बद्तमीजी, मीडिया का मौन!
''... तुम मीडिया वालों को कांग्रेस ने खरीद रखा है ... तुम अनएज्युकेटेड हो ... अंग्रेजी नहीं जानते ...बदतमीज हो ...गेट आउट... निकल जाओ यहाँ से!'' ये अशिष्ट, आक्रामक शब्द हैं भारतीय जनता पार्टी के नवनिर्वाचित राज्यसभा सदस्य, जानेमाने ज्येष्ठ वकील राम जेठमलानी के। जेठमलानी ने सीधे तौर पर मीडिया को कांग्रेस का जरखरीद गुलाम और अशिक्षित बताते हुए स्टार न्यूज चैनल के वरिष्ठ संपादकीय सहयोगी दीपक चौरसिया को अपने घर से निकाल बाहर कर दिया। जेठमलानी यह टिप्पणी करने से नहीं चूके कि तुम मेरी मेहमाननवाजी का बेजा इस्तेमाल कर रहे हो। चौरसिया चैनल के एक कार्यक्रम के लिये रामजेठमलानी का साक्षात्कार लेने पूर्व निर्धारित समय पर गये थे। जेठमलानी अपनी सनक मिजाजी के लिये कुख्यात हैं। चौरसिया के पहले अन्य कुछ चैनलों के कार्यक्रम में भी वे बदतमीजी से पेश आ चुके हैं। सनकमिजाजी ऐसी कि 1990 में जब विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार से भाजपा ने समर्थन वापस ले लिया था और चंद्रशेखर कांग्रेस की मदद से सरकार बनाने की जुगत कर रहे थे (जो बाद में बनी भी) तब विरोध स्वरूप जेठमलानी चंद्रशेखर के घर के बाहर धरने पर बैठ गये थे। कहते हैं कि धरने पर बैठे जेठमलानी की कुछ बातों से चंद्रशेखर उग्र हो उठे थे। उन्होंने इशारा किया और फिर उनके एक समर्थक पहलवान नेता ने रामजेठमलानी की पिटाई कर डाली थी। लगता है जेठमलानी की आदतें गई नहीं हैं, सो उन्होंने दीपक चौरसिया के जरिये मीडिया को निशाने पर ले लिया। कांग्रेस सरकार को भ्रष्ट, चोर, बेईमान बतानेवाले जेठमलानी को भारतीय जनता पार्टी सहन करती रहे, हमें आपत्ति नहीं! किंतु जब वे मीडिया के साथ राज ठाकरे या शिवसैनिकों की तरह बदतमीजी ने पेश आते हैं, तब उन्हें उनकी हैसियत बताई जानी चाहिए। फिर दीपक चौरसिया और उनका चैनल स्टार न्यूज जेठमलानी की बदतमीजी पर तटस्थ क्यों बने रहे? अन्य मौकों पर अपने ऊपर कोई आक्रमण का हमेशा प्रतिवाद करनेवाला मीडिया जेठमलानी मुद्दे पर शांत क्यों? अगर यह रवैया उपेक्षा की श्रेष्ठ नीति की तहत अपनाया गया है, तब भी आसानी से यह किसी के गले से उतरनेवाली नहीं। जेठमलानी के द्वारा चौरसिया का अपमान किसी बंद कमरे में नहीं हुआ था। बल्कि सब कुछ कैमरे के सामने और लाखों लोगों ने पूरी घटना को टेलीविजन पर देखा भी। ऐसे में घटना की उपेक्षा सहज नहीं। ऐसे ''मौन'' को मीडिया ही स्वीकारोक्ति निरूपित करता आया है। तो क्या राम जेठमलानी के आरोप को स्टार न्यूज ने स्वीकार कर लिया है? विश्वास नहीं होता कि जेठमलानी के निहायत घटिया शब्दों को स्टार न्यूज जैसा प्रतिष्ठित चैनल स्वीकार कर ले। दीपक चौरसिया की पहचान एक निडर, लब्धप्रतिष्ठित पत्रकार के रूप में है। सटीक राजनीतिक विश्लेषण के लिये वे पहचाने जाते हैं। यह आश्चर्यजनक है कि पूरी घटना पर चौरसिया ने भी मौन साध रखा है। जेठमलानी जब उनके प्रश्न पर आपा खो बदतमीजी पर उतर आये थे, तब शांत रहकर चौरसिया ने अपनी शिष्टता का परिचय दिया था, यह तो ठीक है। किंतु जब जेठमलानी ने पूरे मीडिया को बिकाऊ बेईमान, अशिष्ट, गैरजिम्मेदार और अशिक्षित करार दिया, तब घटना के बाद किसी अन्य कार्यक्र्रम या मंच से विरोध तो होना ही चाहिए था। मैं पहले बता चुका हूं कि उपेक्षा की नीति यहां स्वीकार नहीं की जा सकती। जिन लाखों दर्शकों ने जेठमलानी को चौरसिया और मीडिया पर आरोप लगाते, गरजते-बरसते देखा, वे भी मीडिया के इस मौन पर अचंभित हैं। इस मौन को स्वीकारोक्ति माननेवालों की भी कमी नहीं है। कोई करेगा इनका प्रतिकार!
Sunday, June 20, 2010
नीतीश का बिहार, राहत का सच!
कुछ दिनों पूर्व ''नीतीश का बिहार.....'' शीर्षक के अंतर्गत की गईं मेरी टिप्पणियों पर कुछ मित्र नाराज हो गए थे। हालांकि वह आलेख बिहार के पत्रकारों और मीडिया संस्थानों को अतिरिक्त लाभ पहुंचाने, नीतीश की आलोचना करनेवाले मीडिया कर्मियों को प्रताडि़त किये जाने और सरकारी कोष का प्रचार के लिए अत्यधिक इस्तेमाल करने पर केंद्रित था। व्यक्तिगत रूप से नीतीश या नई उपलब्धियों के बीच बिहार की नई छवि पर कोई टिप्पणी नहीं की गई थी। हां, वैसी कुछ सूचनाओं को अवश्य समाहित किया था जिनमें नीतीश के दावों को चुनौती दी गई थी। तब कुछ मित्रों ने मुझ पर आक्षेप लगाया था कि नागपुर में रहने के कारण मैं बिहार से अंजान हूं। संभवत: उन मित्रों को यह जानकारी नहीं थी कि मेरा जन्म ही पटना में प्रिंटिंग मशीन की खडख़ड़ाहटों के बीच हुआ है। बहरहाल, बातें नीतीश की।
स्टार न्यूज चैनल ने रविवार की सुबह नीतीशकुमार के बिहार का एक कड़वा सच प्रसारित कर उनके दावों की पोल खोल दी। मानवीय संवेदना से दूर बिहार के बाढ़ पीडि़तों की दुर्दशा से पूरे देश को परिचित करवा दिया। संदर्भ था दो वर्ष पूर्व बिहार बाढ़ पीडि़तों के लिए गुजरात सरकार द्वारा भेजे गये पांच करोड़ रुपये की सहायता राशि को नीतीश द्वारा अब वापस कर देने का। इसके पाश्र्व की जानकारी सभी को है। नीतीश अब भारतीय जनता पार्टी को सांप्रदायिक व अछूत करार दे छद्मधर्मनिरपेक्षता का मुखौटा पहन मतदाता के बीच जाना चाहते हैं। अपनी सरकार की उपलब्धियों का अंशमात्र श्रेय भी वे सरकार की सहयोगी भाजपा को देने को तैयार नहीं। वर्तमान और अवसरवादी सुविधा की राजनीति में ऐसे करतब आश्चर्य पैदा नहीं करते। लेकिन गुजरात के पांच करोड़ वापस कर नीतीश ने स्वयं को और बिहार सरकार को कटघरे में खड़ा कर लिया है। स्टार न्यूज ने बाढ़ पीडि़तों की कथित राहत को नंगा कर देश के सामने प्रस्तुत कर दिया है। न्यूज चैनल ने सीधे प्रसारण के द्वारा दो वर्ष बाद भी बिहार बाढ़ पीडि़तों की बदहाली, राहत का अभाव और घुट-घुट कर जीते पीडि़तों के सच को चिन्हित कर दिया। दु:खी, क्रोधित बाढ़ पीडि़त शिकायत करते देखे गए कि राहत अभी भी उनसे कोसों दूर है। उनके सिर पर न तो छत है, न तन ढंकने के लिए कपड़े और न ही पेट की क्षुधा शांत करने के लिए पर्याप्त भोजन! प्रसारण में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को राजकोष खाली होने का रोना रोते भी दिखाया गया। अब सवाल यह कि गुजरात सरकार द्वारा दो वर्ष पूर्व भेजी गई सहायता राशि अभी तक बिना खर्च सुरक्षित कैसे रही? ऐसी और भी सहायता राशियां बिना खर्च सरकारी कोष में पड़ी रही होंगी? इसे क्या कहेंगे? बाढ़ पीडि़तों के प्रति नीतीश सरकार की उदासीनता, निष्क्रियता या फिर नीतीश व उनकी सरकार की असंवेदनशीलता! एक ओर तो नीतीश राहत के लिए खाली खजाने की दुहाई देते रहे, दूसरी ओर प्राप्त सहायता राशि का उपयोग नहीं कर पाये। ऐसी राशि का उपयोग पीडि़तों की सहायतार्थ अब तब क्यों नहीं किया गया? नीतीश को इसका जवाब देना ही होगा। गुजरात की सहायता राशि दो वर्ष बाद वापिस कर नीतीश ने अपने कद्दावर व्यक्तित्व को एक झटके में बौना बना डाला है। राजनीतिक स्वार्थ और व्यक्तिगत कुंठा का ऐसा भौंडा प्रदर्शन नीतीश जैसे व्यक्ति की ओर से हो यह आश्चर्यजनक है। गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के हाथ को हाथ में लिए अपने चित्र के प्रकाशित होने पर नीतीश का अब नाराज होना और प्रतिक्रिया स्वरूप गुजरात की सहायता राशि को वापस लौटाना हर दृष्टि से अनुचित है। अगर नीतीश को गुजरात से इतनी ही घृणा हो गई है तब उनसे एक और सवाल! बिहार में ठंड के दिनों में 'पछुआ हवा' की बड़ी चर्चा होती है। यह हवा गुजरात के समुद्री तट से होकर ही आती है। क्या नीतीश कुमार गुजरात की ओर से आ रही इस हवा को भी रोक देंगे?
स्टार न्यूज चैनल ने रविवार की सुबह नीतीशकुमार के बिहार का एक कड़वा सच प्रसारित कर उनके दावों की पोल खोल दी। मानवीय संवेदना से दूर बिहार के बाढ़ पीडि़तों की दुर्दशा से पूरे देश को परिचित करवा दिया। संदर्भ था दो वर्ष पूर्व बिहार बाढ़ पीडि़तों के लिए गुजरात सरकार द्वारा भेजे गये पांच करोड़ रुपये की सहायता राशि को नीतीश द्वारा अब वापस कर देने का। इसके पाश्र्व की जानकारी सभी को है। नीतीश अब भारतीय जनता पार्टी को सांप्रदायिक व अछूत करार दे छद्मधर्मनिरपेक्षता का मुखौटा पहन मतदाता के बीच जाना चाहते हैं। अपनी सरकार की उपलब्धियों का अंशमात्र श्रेय भी वे सरकार की सहयोगी भाजपा को देने को तैयार नहीं। वर्तमान और अवसरवादी सुविधा की राजनीति में ऐसे करतब आश्चर्य पैदा नहीं करते। लेकिन गुजरात के पांच करोड़ वापस कर नीतीश ने स्वयं को और बिहार सरकार को कटघरे में खड़ा कर लिया है। स्टार न्यूज ने बाढ़ पीडि़तों की कथित राहत को नंगा कर देश के सामने प्रस्तुत कर दिया है। न्यूज चैनल ने सीधे प्रसारण के द्वारा दो वर्ष बाद भी बिहार बाढ़ पीडि़तों की बदहाली, राहत का अभाव और घुट-घुट कर जीते पीडि़तों के सच को चिन्हित कर दिया। दु:खी, क्रोधित बाढ़ पीडि़त शिकायत करते देखे गए कि राहत अभी भी उनसे कोसों दूर है। उनके सिर पर न तो छत है, न तन ढंकने के लिए कपड़े और न ही पेट की क्षुधा शांत करने के लिए पर्याप्त भोजन! प्रसारण में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को राजकोष खाली होने का रोना रोते भी दिखाया गया। अब सवाल यह कि गुजरात सरकार द्वारा दो वर्ष पूर्व भेजी गई सहायता राशि अभी तक बिना खर्च सुरक्षित कैसे रही? ऐसी और भी सहायता राशियां बिना खर्च सरकारी कोष में पड़ी रही होंगी? इसे क्या कहेंगे? बाढ़ पीडि़तों के प्रति नीतीश सरकार की उदासीनता, निष्क्रियता या फिर नीतीश व उनकी सरकार की असंवेदनशीलता! एक ओर तो नीतीश राहत के लिए खाली खजाने की दुहाई देते रहे, दूसरी ओर प्राप्त सहायता राशि का उपयोग नहीं कर पाये। ऐसी राशि का उपयोग पीडि़तों की सहायतार्थ अब तब क्यों नहीं किया गया? नीतीश को इसका जवाब देना ही होगा। गुजरात की सहायता राशि दो वर्ष बाद वापिस कर नीतीश ने अपने कद्दावर व्यक्तित्व को एक झटके में बौना बना डाला है। राजनीतिक स्वार्थ और व्यक्तिगत कुंठा का ऐसा भौंडा प्रदर्शन नीतीश जैसे व्यक्ति की ओर से हो यह आश्चर्यजनक है। गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के हाथ को हाथ में लिए अपने चित्र के प्रकाशित होने पर नीतीश का अब नाराज होना और प्रतिक्रिया स्वरूप गुजरात की सहायता राशि को वापस लौटाना हर दृष्टि से अनुचित है। अगर नीतीश को गुजरात से इतनी ही घृणा हो गई है तब उनसे एक और सवाल! बिहार में ठंड के दिनों में 'पछुआ हवा' की बड़ी चर्चा होती है। यह हवा गुजरात के समुद्री तट से होकर ही आती है। क्या नीतीश कुमार गुजरात की ओर से आ रही इस हवा को भी रोक देंगे?
क्षेत्रीय घृणा का नीतीश आगाज!
क्या देश का मतदाता सचमुच विवेकहीन है? वह झूठ और सच के फर्क को समझ नहीं सकता? वह सिर्फ जाति और संप्रदाय का पक्षधर है? इतना कि राजदल जब चाहे इस मुद्दे पर उसका भावनात्मक शोषण कर लें? जाति और संप्रदाय के आधार पर राजदल मतदाता को विभाजित कर डालें? भाषा के नाम पर समाज में घृणा का जहर फैलाने में सफल हो जाएं? ताजातरीन घटना में यह देखकर हृदय चाक-चाक हो गया कि अब इनसे आगे बढ़ते हुए क्षेत्रीयता के आधार पर नफरत के बीज बोये जा रहे हैं सिर्फ राजनीतिक या चुनावी लाभ के लिए। दुख ज्यादा गहरा तब हो गया जब बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार इस क्षेत्रीय नफरत के झंडे के साथ अवतरित देखे गये। यह वही नीतीश कुमार हैं, जो भारतीय जनता पार्टी के साथ गठबंधन सरकार चला बिहार के माथे पर लगे अनेक काले धब्बों को साफ करने में सफल रहे हैं। बिहार प्रदेश आज एक तेज विकासशील राज्य के रूप में पहचान बना रहा है। कानून-व्यवस्था में अप्रत्याशित सुधार के कारण निवेश के द्वार खुले हैं। लेकिन लगता है मोदी का 'भूत, नीतीश के सिर चढ़ बोलने लगा है। अन्यथा वे बाढ़ पीडि़तों के लिए गुजरात सरकार द्वारा दिए गए 5 करोड़ रुपये वापस करने की घोषणा नहीं करते। ऐसा कर नीतीश ने संभवत: अंजाने ही स्वयं को मोदी की पंक्ति में खड़ा कर लिया है। बिहार और गुजरात के बीच अविश्वास की एक काली रेखा नीतीश ने खींच दी है। यह स्वयं बिहार को स्वीकार्य नहीं होगा। गुजरात को भी नहीं। बिहार और गुजरात के बीच ऐतिहासिक संबंध रहे हैं। इतिहास में दर्ज है कि महात्मा गांधी ने आजादी की लड़ाई को बिल्कुल नए रूप में गति दी थी तो बिहार के चंपारण से ही। चंपारण आंदोलन आजादी की जंग का एक महत्वपूर्ण अध्याय है। इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्रित्व में पैदा भ्रष्टाचार और कुशासन के खिलाफ जंग की शुरुआत तो गुजरात से हुई किन्तु उसे सफल निर्णायक मोड़ मिला बिहार के जयप्रकाश आंदोलन से। आज गुजरात में लाखों की संख्या में बिहारी वहां के विकास में सफल योगदान दे रहे हैं। क्या नीतीश इन लाखों बिहारियों को वापस बिहार बुलाना चाहते हैं? क्षेत्रीयता का ऐसा एहसास ही समाज विरोधी है, देशविरोधी है।
जिस अक्खड़पन व अहंकार के आरोप नीतीश मोदी पर लगाते रहे हैं, स्वयं नीतीश इन व्याधियों के शिकार हो गए। इसी बिंदु पर पहुंचकर यह सवाल खड़ा हो जाता है कि क्या राजनीति के मंच पर सिर्फ अवसरवादी-स्वार्थी ही खड़े हो सकते हैं? क्या कोई ईमानदारी से मूल्यों की रक्षा करते हुए नि:स्वार्थ जनसेवा कर राजनीति नहीं कर सकता? नरेन्द्र मोदी के प्रति नीतीश कुमार की कुंठा जगजाहिर है। पिछले बिहार विधानसभा चुनावों के दौरान नीतीश की इच्छा का आदर करते हुए भाजपा ने चुनाव प्रचार के लिए मोदी को बिहार नहीं भेजा था। नीतीश नहीं चाहते थे कि कट्टïर हिंदूवादी मोदी के कारण बिहार का मुस्लिम मतदाता उनसे दूर हो जाए। तब नीतीश की नीति सफल हुई। लेकिन इस बीच अपने शासनकाल के दौरान राज्य में उपलब्धियों का सारा श्रेय नीतीश ने अपने खाते में डाल लिया। भाजपा की असली चिंता यही है। उसने भी चुनावी स्वार्थ को प्राथमिकता दे अपनी रणनीति तैयार कर दी। नीतीश के इशारे को समझ भाजपा नेतृत्व ने राज्य में अकेले चुनाव लडऩे का मानस बना लिया है। ऐसा मानस नीतीश पहले ही बना चुके थे। दोनों अब धर्म और संप्रदाय के नाम पर चुनाव लड़ेंगे। नीतीश ने अगर अल्पसंख्यकों और पिछड़ों को लुभाना शुरू किया है तो दूसरी ओर भाजपा स्वाभाविक रूप से बहुसंख्यक वर्ग और उच्च जातियों को अपने पाले में करने की कड़ी कोशिश कर रही है। यह तो लगभग तय है कि भाजपा नरेन्द्र मोदी को 'स्टार प्रचारक, के रूप में बिहार में उतार रही है। बिहार में तब एक असहज चुनावी वातावरण तैयार होगा। दु:खद रूप से अल्पसंख्यक बनाम बहुसंख्यक और पिछड़ी बनाम अगड़ी के बीच विभाजक रेखा खिंचेगी। इससे उत्पन्न तनाव खून खराबे को भी आमंत्रित कर सकता है। दोषी दोनों पक्ष करार दिए जाएंगे, चिंता का विषय यही है। और तब मतदाता के विवेक की भी परीक्षा होगी।
जिस अक्खड़पन व अहंकार के आरोप नीतीश मोदी पर लगाते रहे हैं, स्वयं नीतीश इन व्याधियों के शिकार हो गए। इसी बिंदु पर पहुंचकर यह सवाल खड़ा हो जाता है कि क्या राजनीति के मंच पर सिर्फ अवसरवादी-स्वार्थी ही खड़े हो सकते हैं? क्या कोई ईमानदारी से मूल्यों की रक्षा करते हुए नि:स्वार्थ जनसेवा कर राजनीति नहीं कर सकता? नरेन्द्र मोदी के प्रति नीतीश कुमार की कुंठा जगजाहिर है। पिछले बिहार विधानसभा चुनावों के दौरान नीतीश की इच्छा का आदर करते हुए भाजपा ने चुनाव प्रचार के लिए मोदी को बिहार नहीं भेजा था। नीतीश नहीं चाहते थे कि कट्टïर हिंदूवादी मोदी के कारण बिहार का मुस्लिम मतदाता उनसे दूर हो जाए। तब नीतीश की नीति सफल हुई। लेकिन इस बीच अपने शासनकाल के दौरान राज्य में उपलब्धियों का सारा श्रेय नीतीश ने अपने खाते में डाल लिया। भाजपा की असली चिंता यही है। उसने भी चुनावी स्वार्थ को प्राथमिकता दे अपनी रणनीति तैयार कर दी। नीतीश के इशारे को समझ भाजपा नेतृत्व ने राज्य में अकेले चुनाव लडऩे का मानस बना लिया है। ऐसा मानस नीतीश पहले ही बना चुके थे। दोनों अब धर्म और संप्रदाय के नाम पर चुनाव लड़ेंगे। नीतीश ने अगर अल्पसंख्यकों और पिछड़ों को लुभाना शुरू किया है तो दूसरी ओर भाजपा स्वाभाविक रूप से बहुसंख्यक वर्ग और उच्च जातियों को अपने पाले में करने की कड़ी कोशिश कर रही है। यह तो लगभग तय है कि भाजपा नरेन्द्र मोदी को 'स्टार प्रचारक, के रूप में बिहार में उतार रही है। बिहार में तब एक असहज चुनावी वातावरण तैयार होगा। दु:खद रूप से अल्पसंख्यक बनाम बहुसंख्यक और पिछड़ी बनाम अगड़ी के बीच विभाजक रेखा खिंचेगी। इससे उत्पन्न तनाव खून खराबे को भी आमंत्रित कर सकता है। दोषी दोनों पक्ष करार दिए जाएंगे, चिंता का विषय यही है। और तब मतदाता के विवेक की भी परीक्षा होगी।
Saturday, June 19, 2010
पहले सुध पीडि़तों की लें!
भोपाल त्रासदी पर जारी 'राजनीति' वस्तुत: वर्तमान भारतीय राजनीति का आईना है। मुद्दों की जगह गैर मुद्दों पर बहस! यह वही खेल है जो हमेशा वास्तविक जरूरत को हाशिये पर रख तात्कालिक राजनीतिक लाभ के लिए खेला जाता है। देशहित से इतर स्वहित के लिए, तुच्छ राजनीतिक स्वार्थ पूर्ति के लिए।
लगभग ढाई दशक के बाद भोपाल गैस कांड पर आए फैसले ने पूरे देश को सकते में डाल दिया था। फिर यूनियन कार्बाइड के तत्कालीन चेअरमन वॉरेन एंडरसन के अमेरिका भाग जाने-भगा दिए जाने को लेकर नए-नए खुलासे होने लगे। मुख्य मुद्दा, कि नरसंहार के लिए जिम्मेदार लोगों को सिर्फ दो साल की सजा ही कैसे मिली, या फिर यह कि, मुख्य आरोपी एंडरसन को सजा से दूर कैसे रखा गया, गौण हो गया। हजारों-लाखों पीडि़त असहाय इस राजनीति को देख रहे हैं। आरोपियों को और कड़ी सजा मिले, पीडि़तों को उचित मुआवजा मिले, इस ओर कोई ध्यान नहीं दे रहा। केंद्र सरकार द्वारा गठित मंत्रियों का समूह शायद इन पर विचार करे। फिलहाल विपक्ष सहित सत्तापक्ष के कुछ नेता और मामले से जुड़े तब के अधिकारीगण यह स्थापित करने में जुटे हैं कि एंडरसन को सुरक्षित अमेरिका जाने देने में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी और मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह की मिलीभगत थी। अरुण नेहरू जैसे तब के कद्दावर नेता और राजीव के रिश्तेदार भी यही साबित करने में लगे हैं। कांग्रेस नेतृत्व से नजदीकी लोग बलि के बकरे की तलाश में जुट गए हैं। कोई अर्जुन सिंह को निशाने पर ले रहा है तो कोई तत्कालीन केंद्रीय गृहमंत्री नरसिंहराव को। मीडिया सहित पूरे देश को इसी बहस में उलझाकर रख दिया गया है। अगर यह साबित भी हो गया कि एंडरसन को भगाने में फलां-फलां का हाथ था, तो इससे पीडि़तों को क्या हासिल होगा? माना कि एंडरसन के पलायन की जिम्मेदारी तय की जानी चाहिए, किंतु आरोपियों को कड़ी सजा और उचित मुआवजे की मांग को हाशिये पर कैसे रखा जा सकता है? भोपाल के तत्कालीन कलेक्टर, एस.पी., सचिव, विमान के पायलट से लेकर अरुण नेहरू, दिग्विजय सिंह, सत्यव्रत चतुर्वेदी, मोतीलाल वोरा, तत्कालीन कैबिनेट सचिव एम.के. रसगोत्रा और अब नरसिंहराव के बड़े बेटे कांग्रेस नेता डॉ. रंगा राव के बयान से मीडिया पटा है। पीडि़तों के लिए राहत और एंडरसन सहित अन्य आरोपियों के लिए कड़ी सजा की मांग करनेवाले गैर सरकारी संगठनों की खबरें क्या समाचार पत्र और क्या टेलीविजन, सभी में उपेक्षित हैं। ऐसा कर मीडिया भी त्रासदी के प्रति असंवेदनशील बन गया प्रतीत होता है। सामाजिक सरोकार से दूर मीडिया का यह आचरण स्वयं में बहस का एक मुद्दा है। लेकिन इस पर नई बहस बाद में। फिलहाल गुजारिश यह है कि राजनीति के लिए राजनीति करनेवालों को छोड़ मीडिया पीडि़तों की सुध ले, आरोपियों को कड़ी सजा देने का अभियान चलाए। चूंकि एंडरसन को भगाने का कृत्य भी देशद्रोह की श्रेणी का अपराध है, उसके जिम्मेदार भी बख्शे नहीं जाएं। किंतु, प्राथमिकता के आधार पर पहले सुध पीडि़तों की ली जाए।
लगभग ढाई दशक के बाद भोपाल गैस कांड पर आए फैसले ने पूरे देश को सकते में डाल दिया था। फिर यूनियन कार्बाइड के तत्कालीन चेअरमन वॉरेन एंडरसन के अमेरिका भाग जाने-भगा दिए जाने को लेकर नए-नए खुलासे होने लगे। मुख्य मुद्दा, कि नरसंहार के लिए जिम्मेदार लोगों को सिर्फ दो साल की सजा ही कैसे मिली, या फिर यह कि, मुख्य आरोपी एंडरसन को सजा से दूर कैसे रखा गया, गौण हो गया। हजारों-लाखों पीडि़त असहाय इस राजनीति को देख रहे हैं। आरोपियों को और कड़ी सजा मिले, पीडि़तों को उचित मुआवजा मिले, इस ओर कोई ध्यान नहीं दे रहा। केंद्र सरकार द्वारा गठित मंत्रियों का समूह शायद इन पर विचार करे। फिलहाल विपक्ष सहित सत्तापक्ष के कुछ नेता और मामले से जुड़े तब के अधिकारीगण यह स्थापित करने में जुटे हैं कि एंडरसन को सुरक्षित अमेरिका जाने देने में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी और मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह की मिलीभगत थी। अरुण नेहरू जैसे तब के कद्दावर नेता और राजीव के रिश्तेदार भी यही साबित करने में लगे हैं। कांग्रेस नेतृत्व से नजदीकी लोग बलि के बकरे की तलाश में जुट गए हैं। कोई अर्जुन सिंह को निशाने पर ले रहा है तो कोई तत्कालीन केंद्रीय गृहमंत्री नरसिंहराव को। मीडिया सहित पूरे देश को इसी बहस में उलझाकर रख दिया गया है। अगर यह साबित भी हो गया कि एंडरसन को भगाने में फलां-फलां का हाथ था, तो इससे पीडि़तों को क्या हासिल होगा? माना कि एंडरसन के पलायन की जिम्मेदारी तय की जानी चाहिए, किंतु आरोपियों को कड़ी सजा और उचित मुआवजे की मांग को हाशिये पर कैसे रखा जा सकता है? भोपाल के तत्कालीन कलेक्टर, एस.पी., सचिव, विमान के पायलट से लेकर अरुण नेहरू, दिग्विजय सिंह, सत्यव्रत चतुर्वेदी, मोतीलाल वोरा, तत्कालीन कैबिनेट सचिव एम.के. रसगोत्रा और अब नरसिंहराव के बड़े बेटे कांग्रेस नेता डॉ. रंगा राव के बयान से मीडिया पटा है। पीडि़तों के लिए राहत और एंडरसन सहित अन्य आरोपियों के लिए कड़ी सजा की मांग करनेवाले गैर सरकारी संगठनों की खबरें क्या समाचार पत्र और क्या टेलीविजन, सभी में उपेक्षित हैं। ऐसा कर मीडिया भी त्रासदी के प्रति असंवेदनशील बन गया प्रतीत होता है। सामाजिक सरोकार से दूर मीडिया का यह आचरण स्वयं में बहस का एक मुद्दा है। लेकिन इस पर नई बहस बाद में। फिलहाल गुजारिश यह है कि राजनीति के लिए राजनीति करनेवालों को छोड़ मीडिया पीडि़तों की सुध ले, आरोपियों को कड़ी सजा देने का अभियान चलाए। चूंकि एंडरसन को भगाने का कृत्य भी देशद्रोह की श्रेणी का अपराध है, उसके जिम्मेदार भी बख्शे नहीं जाएं। किंतु, प्राथमिकता के आधार पर पहले सुध पीडि़तों की ली जाए।
Wednesday, June 16, 2010
गोरी चमड़ी के समक्ष घुटने टेकते नेता!
पत्रकार, लेखक, चिंतक डॉ. वेदप्रकाश वैदिक देश की वर्तमान दुरावस्था पर दुखी हैं। उनका हृदय रो रहा है। मेरे मित्र हैं, दुखी मैं भी हूं। वे जानना चाहते हैं कि हर मौके पर, चाहे अवसर यूनियन कार्बाइड द्वारा दी गई त्रासदी का हो, डाऊ केमिकल्स का हो या परमाणु हर्जाने का हो, हमारे नेता गोरी चमड़ी के आगे घुटने क्यों टेक देते हैं? यह वही सवाल है जिसका जवाब आजाद भारत का हर व्यक्ति चाहता है। बल्कि वह व्यक्ति भी जो इस दुखद प्रक्रिया का जाने-अनजाने हिस्सा बन चुका है, हिस्सा बन रहा है। जवाब स्वयं डा. वैदिक ने दे दिया है। उनके अनुसार- ''भारत अब भी अपनी दिमागी गुलामी से मुक्त नहीं हुआ है।''
बिल्कुल ठीक। यही तो जड़ है सारी व्याधियों का। मूल्यों के क्षरण का। राजनीतिकों के चारित्रिक पतन का- भ्रष्टाचार का। प्रशासनिक पंगुपन का। रिश्तों से दूर स्वार्थ की प्रभुता का। सामाजिक सरोकारों की बलि का। देश के मुकाबले विदेशी प्रेम का। वैदिकजी ने दुख-आक्रोश प्रकट किया है भोपाल त्रासदी की जिम्मेदार यूनियन कार्बाइड के चेयरमैन वॉरेन एंडरसन की 26 वर्ष पूर्व गिरफ्तारी, रिहाई और पलायन पर जारी घमासान पर। वैदिकजी हमेशा सम-सामयिक विषयों पर दोटूक टिप्पणी करते रहे हैं, माकूल संदर्भों के द्वारा देश का ज्ञान वर्धन भी। लेकिन बहुत दिनों के बाद वे गोरी चमड़ी को लेकर आक्रामक दिखे हैं। लेकिन बिल्कुल सही।
गोरी चमड़ी धारक वॉरेन एंडरसन को अमेरिका भगाने में सहायक चाहे राजीव गांधी हों, अर्जुन सिंह हों, कांग्रेस पार्टी हो या बाद के दिनों में उसके प्रत्यर्पण को लेकर शिथिलता बरतने वाली भाजपा नेतृत्व की केंद्र सरकार हो, सबके पीछे कारण वही एक है- गोरी चमड़ी के सामने नतमस्तक हो जाने की हमारी प्रवृत्ति। इसके पहले एक और गोरी चमड़ी धारक बोफोर्स कांड के मुख्य अभियुक्त ओट्टïावियो क्वात्रोच्चि को भी शासकों-प्रशासकों ने लगभग ऐसी ही परिस्थितियों में देश से बाहर निकल जाने दिया था। इतिहास के पन्नों को पलटें तब ऐसे अनेक दुखद प्रसंग सामने आ जाएंगे जब गोरी चमड़ी के सामने हमारे नेता देशहित को कुर्बान करते रहे हैं। आजादी के पहले भी ऐसा हुआ है और आजादी के बाद भी हो रहा है। मैं यह उल्लेख जानबूझकर कर रहा हूं। लोगों के दिलों में गोरी चमड़ी को लेकर अनेक सवाल मौजूद हैं। आजादी की लड़ाई के दौरान जब अंग्रेजी शासक 'फूट डालो और राज करो' की नीति पर चलते हुए देश में खून-खराबा करवा रहे थे तब भी स्वतंत्रता संग्राम के हमारे अनेक कथित बड़े नेता क्या ब्रिटिश हित नहीं साध रहे थे? भारत के पक्ष में आजादी का निर्णय हो जाने पर नेतृत्व को लेकर हमारे अनेक नेताओं की भूमिकाएं संदिग्ध रही हैं। भारत विभाजन के मसले पर भी हमारे नेताओं ने ब्रिटिश इच्छा के सामने क्या घुटने नहीं टेक दिए थे? आजादी के बाद आरंभिक वर्षों में जब देश नए भारत के निर्माण के सपने देख रहा था, हमारे नेता या तो अपना घर भर रहे थे या फिर विदेशी हित साध रहे थे। पिछले दो-ढाई दशक की घटनाएं इस संदर्भ में अत्यंत ही भयावह हैं। वैदिकजी कहते हैं कि भारतीय शासकों की चिंता भोपाल की लाशों से कहीं अधिक अमेरिकी पूंजी की थी। सो उन्होंने एंडरसन को अपना दामाद बना लिया। ऐसे में यह सोचना ही बेवकूफी है कि भारत सरकार एंडरसन को प्रत्यर्पित कर सजा दिलवाएगी। देश को आज भी अपरोक्ष में गोरी चमड़ी की नीतियां ही चला रही हैं। सामने कोई भी हो गोरी चमड़ी का सच झुठलाया नहीं जा सकता। क्या ऐसी मानसिक गुलामी से हम मुक्त नहीं हो सकते? क्या भारत पूर्णत: भारतीयों का नहीं बन सकता? संभव है। शर्त यह है कि गोरी चमड़ी के सच चाहे वह कितने भी कड़वे क्यों न हों आज की पीढ़ी को बताए जाएं। और नई पीढ़ी उनका अध्ययन-मनन कर भारत और भारतीयता को स्थापित करे। बहुभाषी, बहुसंस्कृति, बहुधर्मी भारत का एक ही रंग है और वह है भारतीयता।
बिल्कुल ठीक। यही तो जड़ है सारी व्याधियों का। मूल्यों के क्षरण का। राजनीतिकों के चारित्रिक पतन का- भ्रष्टाचार का। प्रशासनिक पंगुपन का। रिश्तों से दूर स्वार्थ की प्रभुता का। सामाजिक सरोकारों की बलि का। देश के मुकाबले विदेशी प्रेम का। वैदिकजी ने दुख-आक्रोश प्रकट किया है भोपाल त्रासदी की जिम्मेदार यूनियन कार्बाइड के चेयरमैन वॉरेन एंडरसन की 26 वर्ष पूर्व गिरफ्तारी, रिहाई और पलायन पर जारी घमासान पर। वैदिकजी हमेशा सम-सामयिक विषयों पर दोटूक टिप्पणी करते रहे हैं, माकूल संदर्भों के द्वारा देश का ज्ञान वर्धन भी। लेकिन बहुत दिनों के बाद वे गोरी चमड़ी को लेकर आक्रामक दिखे हैं। लेकिन बिल्कुल सही।
गोरी चमड़ी धारक वॉरेन एंडरसन को अमेरिका भगाने में सहायक चाहे राजीव गांधी हों, अर्जुन सिंह हों, कांग्रेस पार्टी हो या बाद के दिनों में उसके प्रत्यर्पण को लेकर शिथिलता बरतने वाली भाजपा नेतृत्व की केंद्र सरकार हो, सबके पीछे कारण वही एक है- गोरी चमड़ी के सामने नतमस्तक हो जाने की हमारी प्रवृत्ति। इसके पहले एक और गोरी चमड़ी धारक बोफोर्स कांड के मुख्य अभियुक्त ओट्टïावियो क्वात्रोच्चि को भी शासकों-प्रशासकों ने लगभग ऐसी ही परिस्थितियों में देश से बाहर निकल जाने दिया था। इतिहास के पन्नों को पलटें तब ऐसे अनेक दुखद प्रसंग सामने आ जाएंगे जब गोरी चमड़ी के सामने हमारे नेता देशहित को कुर्बान करते रहे हैं। आजादी के पहले भी ऐसा हुआ है और आजादी के बाद भी हो रहा है। मैं यह उल्लेख जानबूझकर कर रहा हूं। लोगों के दिलों में गोरी चमड़ी को लेकर अनेक सवाल मौजूद हैं। आजादी की लड़ाई के दौरान जब अंग्रेजी शासक 'फूट डालो और राज करो' की नीति पर चलते हुए देश में खून-खराबा करवा रहे थे तब भी स्वतंत्रता संग्राम के हमारे अनेक कथित बड़े नेता क्या ब्रिटिश हित नहीं साध रहे थे? भारत के पक्ष में आजादी का निर्णय हो जाने पर नेतृत्व को लेकर हमारे अनेक नेताओं की भूमिकाएं संदिग्ध रही हैं। भारत विभाजन के मसले पर भी हमारे नेताओं ने ब्रिटिश इच्छा के सामने क्या घुटने नहीं टेक दिए थे? आजादी के बाद आरंभिक वर्षों में जब देश नए भारत के निर्माण के सपने देख रहा था, हमारे नेता या तो अपना घर भर रहे थे या फिर विदेशी हित साध रहे थे। पिछले दो-ढाई दशक की घटनाएं इस संदर्भ में अत्यंत ही भयावह हैं। वैदिकजी कहते हैं कि भारतीय शासकों की चिंता भोपाल की लाशों से कहीं अधिक अमेरिकी पूंजी की थी। सो उन्होंने एंडरसन को अपना दामाद बना लिया। ऐसे में यह सोचना ही बेवकूफी है कि भारत सरकार एंडरसन को प्रत्यर्पित कर सजा दिलवाएगी। देश को आज भी अपरोक्ष में गोरी चमड़ी की नीतियां ही चला रही हैं। सामने कोई भी हो गोरी चमड़ी का सच झुठलाया नहीं जा सकता। क्या ऐसी मानसिक गुलामी से हम मुक्त नहीं हो सकते? क्या भारत पूर्णत: भारतीयों का नहीं बन सकता? संभव है। शर्त यह है कि गोरी चमड़ी के सच चाहे वह कितने भी कड़वे क्यों न हों आज की पीढ़ी को बताए जाएं। और नई पीढ़ी उनका अध्ययन-मनन कर भारत और भारतीयता को स्थापित करे। बहुभाषी, बहुसंस्कृति, बहुधर्मी भारत का एक ही रंग है और वह है भारतीयता।
Tuesday, June 15, 2010
'पेड न्यूज' से आगे 'सोल्ड वोट'!
वाकया दिलचस्प भी है और पीड़ादायक भी। लोकतंत्र के लिए शर्मनाक और निर्वाचित लोकप्रतिनिधियों को बाजारू-बिकाऊ निरूपित करनेवाला तो है ही। राज ठाकरे की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के विधायकों ने विधानपरिषद चुनाव में कांग्रेस-राकांपा उम्मीदवारों के पक्ष में मतदान किया। राज ठाकरे ने सार्वजनिक रूप से इसे स्वीकार भी किया। हां, कारण अवश्य यह बताया कि मनसे के चार निलंबित विधायकों की निलंबन वापसी के लिए उन्होंने ऐसा किया। अर्थात्ï कांग्रेस-राकांपा के साथ मनसे ने सौदेबाजी की! चालू भाषा में बोलें तो कांग्रेस-राकांपा के साथ 'डील' किया- वोट के बदले निलंबन वापसी की। मनसे के वोट की बदौलत कांग्रेस समर्थित चौथे उम्मीदवार विजय सावंत विजयी रहे। शिवसेना के अनिल परब चुनाव हार गए। लेकिन राजनीति के निराले रंग तो चमकने ही थे। राज ठाकरे की स्वीकारोक्ति के बाद कांग्रेस के मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण इस बात से ही पलट गए कि मनसे के विधायकों ने उनके उम्मीदवार को वोट दिए। अगर चव्हाण सच बोल रहे हैं, तब निश्चय ही राज ठाकरे झूठ बोल रहे हैं। इसी प्रकार अगर राज सच बोल रहे हैं, तब झूठ चव्हाण बोल रहे हैं। इस सच-झूठ का खुलासा आनेवाला समय कर देगा। संकेत मिलने शुरू हो गये हैं। राकांपा के छगन भुजबल के अनुसार मनसे के विधायकों की निलंबन वापसी की प्रक्रिया शुरू कर दी गई है। अगर निलंबन वापस होता है तब कथित 'डील' के आरोप को चुनौती नहीं दी जा सकेगी। राज ठाकरे के चाचा बाल ठाकरे और भाई उद्धव ठाकरे खुलेआम आरोप लगा चुके हैं कि राज ठाकरे ने धन लेकर अपने विधायकों के वोट बेचे। अगर राज की बात को मान लिया जाए तब, धन की जगह उन्होंने सत्तापक्ष के साथ अपने विधायकों के साथ निलंबन वापसी का 'डील' किया। मामला तब भी भ्रष्ट आचरण का बनता है। 'डील' भी 'रिश्वत' का ही एक रूप है। धन के आदान-प्रदान को ही रिश्वत नहीं कहते। किसी काम के एवज में उपकृत करना भी रिश्वत ही माना जाता है। राज ठाकरे और सत्ता पक्ष के नेता इस आरोप से बच नहीं सकते। महाराष्ट्र विधानसभा के अंदर समाजवादी पार्टी के विधायक अबू आजमी की पिटाई करने के आरोप में सत्ता पक्ष के प्रस्ताव पर मनसे के चार विधायकों को शेष कार्यकाल के लिए निलंबित कर दिया गया था। अब सत्ता पक्ष की ओर से निलंबन वापसी के पक्ष में पहल पर सवाल तो खड़े होंगे ही। मुख्यमंत्री के इन्कार के बाद भी राज ठाकरे ने निलंबन वापसी के एवज में वोट देने की बात दोहराई थी। विधान परिषद और राज्यसभा के चुनावों में विधायकों द्वारा धन लेकर वोट देने की बात आज आम हो गई है। झारखंड मुक्ति मोर्चा सांसद रिश्वत कांड लोकतंत्र के माथे पर एक कलंक के रूप में आज भी टीस मारता रहता है। यह घटना तो 90 के दशक की है। किंतु अब तो प्राय: सभी राज्यों में 'नोट के बदले वोट' का प्रचलन शुरू हो चुका है। कल बृहस्पतिवार 17 जून को होनेवाले राज्यसभा के द्विवार्षिक चुनाव में धन-बल की मौजूदगी को कोई भी देख सकता है। झारखंड में एक निर्दलीय उम्मीदवार ने नोटों से भरी थैली का मुंह खोल रखा है। एक वोट की कीमत करोड़ से अधिक लगाई जा रही है। चुनाव परिणाम आने दीजिए, सब कुछ साफ हो जाएगा। ऐसे चुनावों में मुख्यत: क्षेत्रीय दलों और निर्दलीयों की चंादी होती है। इन दिनों मीडिया में 'पेड न्यूज' की काफी चर्चा हो रही है। धन लेकर विज्ञापन की जगह समाचार छापने की नई प्रथा की चीख-चीख कर आलोचनाएं की जा रही हैं। अब 'पेड न्यूज' से आगे 'धन के बदले वोट' को क्या कहेंगे? एक प्रथा का रूप ले चुके इस व्यवहार को 'सोल्ड वोट' मान लिया जाना चाहिए। जिस प्रकार पेड न्यूज के मामले में मीडिया घराने आराम से बच निकलते हैं, उसी प्रकार 'सोल्ड वोट' के मामले में भी तो विधायक बेखौफ विचरते नजर आते हैं। मीडिया और जनप्रतिनिधि इस मुकाम पर बिल्कुल '.... मौसेरे भाई'' नजर आते हैं। कौन करेगा इस अवस्था पर विलाप?
Monday, June 14, 2010
सत्ता की साजिश है अर्जुन का बचाव!
मजबूर हूं इस टिप्पणी के लिए कि हमारे देश के वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी या तो स्वयं मूर्ख हैं या इतने शातिर कि उन्होंने पूरे देश को मूर्ख समझ रखा है। यूनियन कार्बाइड के भगौड़े चेअरमैन वारेन एंडरसन की 1984 में अमेरिका रवानगी पर प्रणब की सफाई को देश स्वीकार नहीं करेगा। इसी प्रकार कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की नाराजगी का भी कोई खरीदार सामने नहीं आएगा।
प्रणब ने मध्यप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह का कथित तौर पर बचाव करते हुए देश को यह समझाने की कोशिश की है कि कानून-व्यवस्था के मद्देनजर एंडरसन को भोपाल से बाहर भेजने का फैसला किया गया था। सोनिया गांधी नाराज हैं कि उनके पति, तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी का नाम इस मामले में क्यों लिया जा रहा है? इन दोनों बातों पर गौर करें। प्रणब का यह स्पष्टीकरण तब आया जब देश के लोग यह मान चुके हैं कि एंडरसन को भोपाल से दिल्ली और दिल्ली से अमेरिका भगाने में मुख्य रूप से राजीव गांधी और सहयोगी भूमिका के लिए अर्जुन सिंह दोषी हैं। स्वयं कांग्रेस का एक खेमा आम लोगों की इस सोच के साथ है। हां, सिर्फ चाटुकारिता को अपनी सफलता का मंत्र माननेवाले कुछ कांग्रेसी नेता चिल्ला-चिल्ला कर यह कहते रहे कि इस मामले में केंद्र या मध्यप्रदेश सरकार की कोई भूमिका नहीं थी। इनके अनुसार, राजीव गांधी की तो कतई नहीं। अब प्रणब मुखर्जी की स्वीकारोक्ति कि, एंडरसन को सरकार ने ही भोपाल से बाहर अर्थात्ï अमेरिका निकल जाने दिया, को किस रूप में लिया जाए? स्वयं प्रणब ने यह जता दिया कि इसके पूर्व कांग्रेस नेताओं द्वारा की जा रही बयानबाजी गलत थी। सरकार ने ही एंडरसन को अमेरिका भगाया। मैं प्रणब को शातिर यूं ही नहीं कह रहा। उनका ताजा बयान एक सोची-समझी साजिश का नतीजा है, बिल्कुल कांग्रेस संस्कृति के अनुरूप! चूंकि मध्यप्रदेश के लगभग सभी संबंधित अधिकारी इस आशय का बयान दे चुके हैं कि 'ऊपर के आदेश पर एंडरसन को न केवल छोड़ा गया बल्कि सकुशल भारत से निकल जाने दिया गया, इसे झुठलाना संभव नहीं हो रहा था। कांग्रेस नेतृत्व नहीं चाहता कि किसी भी तरह इस मामले में राजीव गांधी की लिप्तता प्रमाणित हो। अत: उसने बड़ी चतुराई से अर्जुन सिंह को सामने कर दिया, इस रूप में कि कांग्रेस उनके बचाव में आ गई है। प्रणब मुखर्जी ने कानून-व्यवस्था का मुद्दा उठाकर यही जताने की कोशिश की है कि एंडरसन को भोपाल से बाहर भेजने का निर्णय अर्जुन सिंह ने लिया था और बिल्कुल सही लिया था। सभी को मालूम है कि इन दिनों अर्जुन सिंह कांग्रेस नेतृत्व की उपेक्षा का शिकार बन हाशिये पर चल रहे हैं। कांग्रेस नेतृत्व से अपनी नाराजगी अर्जुन सिंह कई बार प्रकट कर चुके हैं। इस पाश्र्व में लोग आशा कर रहे हंै कि अर्जुन सिंह जब मुंह खोलेेंगे तब कांग्रेस नेतृत्व को कटघरे में खड़ा कर देंगे। कांग्रेस के लिए तब एक असहज स्थिति पैदा हो जाएगी। नरेंद्र मोदी, सोनिया गांधी को चुनौती दे चुके हैं कि भोपाल त्रासदी में मौतों के सौदागर का नाम बताएं। देश के लोग क्रोधित हैं कि हजारों लोगों की मौत और लाखों के अपंग हो जाने के जिम्मेदार को स्वयं सरकार ने देश से बाहर भगा दिया। कुछ माह बाद बिहार और फिर उत्तर प्रदेश व पं. बंगाल जैसे बड़े राज्यों में चुनाव होने हैं। अगर अर्जुन सिंह ने यह सच उगल दिया कि उन्होंने राजीव गांधी के आदेश पर एंडरसन को छुड़वाया और सरकारी विमान से दिल्ली पहुंचा दिया तब कांग्रेस का राजनीतिक नुकसान निश्चित है।
इसकी काट के लिए ही प्रणब मुखर्जी ने अर्जुन सिंह की कथित कार्रवाई को जायज ठहराया है। समीक्षकों को आशंका है कि संभवत: चुप्पी साधे हुए अर्जुन सिंह के साथ कांग्र्रेस नेतृत्व ने कोई राजनीतिक सौदेबाजी कर ली है, तभी प्रणब ने ऐसा बयान दिया है। अगर यह सच है तब देश के लोग विशेषत: मध्य प्रदेश के लोग राजनीतिक छल के शिकार बनेंगे। मृतात्माएं बेचैन होंगी और लाखों विकलांग बेबसी के आंसू बहाने पर मजबूर होंगे। इतिहास इसे लाशों की सौदेबाजी के रूप में दर्ज करेगा। सत्ता की हवस और शक्ति के दुरुपयोग का यह नया काला अध्याय लोकतंत्र को भी कलंकित करेगा। देश की लगभग सवा सौ करोड़ जनता क्या तब सिर्फ मूकदर्शक बनी रहेगी? यह कैसा लोकतंत्र, कैसा संविधान और कैसा कानून जिसमें आम 'लोक का हित नदारद है? आम लोगों के आंसुओं से तैयार संपन्न लोगों की मुस्कुराहटें क्या लोकतंत्र को मुंह नहीं चिढ़ा रहीं?
प्रणब ने मध्यप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह का कथित तौर पर बचाव करते हुए देश को यह समझाने की कोशिश की है कि कानून-व्यवस्था के मद्देनजर एंडरसन को भोपाल से बाहर भेजने का फैसला किया गया था। सोनिया गांधी नाराज हैं कि उनके पति, तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी का नाम इस मामले में क्यों लिया जा रहा है? इन दोनों बातों पर गौर करें। प्रणब का यह स्पष्टीकरण तब आया जब देश के लोग यह मान चुके हैं कि एंडरसन को भोपाल से दिल्ली और दिल्ली से अमेरिका भगाने में मुख्य रूप से राजीव गांधी और सहयोगी भूमिका के लिए अर्जुन सिंह दोषी हैं। स्वयं कांग्रेस का एक खेमा आम लोगों की इस सोच के साथ है। हां, सिर्फ चाटुकारिता को अपनी सफलता का मंत्र माननेवाले कुछ कांग्रेसी नेता चिल्ला-चिल्ला कर यह कहते रहे कि इस मामले में केंद्र या मध्यप्रदेश सरकार की कोई भूमिका नहीं थी। इनके अनुसार, राजीव गांधी की तो कतई नहीं। अब प्रणब मुखर्जी की स्वीकारोक्ति कि, एंडरसन को सरकार ने ही भोपाल से बाहर अर्थात्ï अमेरिका निकल जाने दिया, को किस रूप में लिया जाए? स्वयं प्रणब ने यह जता दिया कि इसके पूर्व कांग्रेस नेताओं द्वारा की जा रही बयानबाजी गलत थी। सरकार ने ही एंडरसन को अमेरिका भगाया। मैं प्रणब को शातिर यूं ही नहीं कह रहा। उनका ताजा बयान एक सोची-समझी साजिश का नतीजा है, बिल्कुल कांग्रेस संस्कृति के अनुरूप! चूंकि मध्यप्रदेश के लगभग सभी संबंधित अधिकारी इस आशय का बयान दे चुके हैं कि 'ऊपर के आदेश पर एंडरसन को न केवल छोड़ा गया बल्कि सकुशल भारत से निकल जाने दिया गया, इसे झुठलाना संभव नहीं हो रहा था। कांग्रेस नेतृत्व नहीं चाहता कि किसी भी तरह इस मामले में राजीव गांधी की लिप्तता प्रमाणित हो। अत: उसने बड़ी चतुराई से अर्जुन सिंह को सामने कर दिया, इस रूप में कि कांग्रेस उनके बचाव में आ गई है। प्रणब मुखर्जी ने कानून-व्यवस्था का मुद्दा उठाकर यही जताने की कोशिश की है कि एंडरसन को भोपाल से बाहर भेजने का निर्णय अर्जुन सिंह ने लिया था और बिल्कुल सही लिया था। सभी को मालूम है कि इन दिनों अर्जुन सिंह कांग्रेस नेतृत्व की उपेक्षा का शिकार बन हाशिये पर चल रहे हैं। कांग्रेस नेतृत्व से अपनी नाराजगी अर्जुन सिंह कई बार प्रकट कर चुके हैं। इस पाश्र्व में लोग आशा कर रहे हंै कि अर्जुन सिंह जब मुंह खोलेेंगे तब कांग्रेस नेतृत्व को कटघरे में खड़ा कर देंगे। कांग्रेस के लिए तब एक असहज स्थिति पैदा हो जाएगी। नरेंद्र मोदी, सोनिया गांधी को चुनौती दे चुके हैं कि भोपाल त्रासदी में मौतों के सौदागर का नाम बताएं। देश के लोग क्रोधित हैं कि हजारों लोगों की मौत और लाखों के अपंग हो जाने के जिम्मेदार को स्वयं सरकार ने देश से बाहर भगा दिया। कुछ माह बाद बिहार और फिर उत्तर प्रदेश व पं. बंगाल जैसे बड़े राज्यों में चुनाव होने हैं। अगर अर्जुन सिंह ने यह सच उगल दिया कि उन्होंने राजीव गांधी के आदेश पर एंडरसन को छुड़वाया और सरकारी विमान से दिल्ली पहुंचा दिया तब कांग्रेस का राजनीतिक नुकसान निश्चित है।
इसकी काट के लिए ही प्रणब मुखर्जी ने अर्जुन सिंह की कथित कार्रवाई को जायज ठहराया है। समीक्षकों को आशंका है कि संभवत: चुप्पी साधे हुए अर्जुन सिंह के साथ कांग्र्रेस नेतृत्व ने कोई राजनीतिक सौदेबाजी कर ली है, तभी प्रणब ने ऐसा बयान दिया है। अगर यह सच है तब देश के लोग विशेषत: मध्य प्रदेश के लोग राजनीतिक छल के शिकार बनेंगे। मृतात्माएं बेचैन होंगी और लाखों विकलांग बेबसी के आंसू बहाने पर मजबूर होंगे। इतिहास इसे लाशों की सौदेबाजी के रूप में दर्ज करेगा। सत्ता की हवस और शक्ति के दुरुपयोग का यह नया काला अध्याय लोकतंत्र को भी कलंकित करेगा। देश की लगभग सवा सौ करोड़ जनता क्या तब सिर्फ मूकदर्शक बनी रहेगी? यह कैसा लोकतंत्र, कैसा संविधान और कैसा कानून जिसमें आम 'लोक का हित नदारद है? आम लोगों के आंसुओं से तैयार संपन्न लोगों की मुस्कुराहटें क्या लोकतंत्र को मुंह नहीं चिढ़ा रहीं?
Sunday, June 13, 2010
अति आत्मविश्वास, अति महत्वाकांक्षा, अति अहंकार!
कुछ मामलों में अति आत्मविश्वास को भी स्वीकार किया जा सकता है। सहन किया जा सकता है। किन्तु अति महत्वाकांक्षा की उपज अति अहंकार को कदापि नहीं। महाज्ञानी, महाशक्तिशाली, अति संपन्न रावण के अंत का कारण यही अति अहंकार बना था। उनके सोने की लंका ध्वस्त हो गई थी तो रावण के अहंकार के कारण। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार इस तथ्य से अंजान नहीं हो सकते। फिर उन्होंने अहंकार को कैसे ग्रहण कर लिया? अगर मामला 'विनाशकाले विपरीत बुद्धि' का है तब तो कुछ कहना ही नहीं है। हां! यह दुख अवश्य सालता रहेगा कि अति पिछड़े बिहार को फिर से विकास की पटरी पर लाने में सफल, भ्रष्ट हो चुकी कानून-व्यवस्था की वापसी में सफल, कृषि, शिक्षा, उद्योग, स्वास्थ्य आदि क्षेत्रों में उल्लेखनीय सुधार में सफल मुख्यमंत्री नीतीशकुमार अहंकारी बन गठबंधन धर्म के साथ-साथ बिहार की संस्कृति को भी भूल गए। लगभग 5 वर्ष पूर्व धूमिल छवि वाले बिहार की बागडोर अगर नीतीश को मिली थी तो भारतीय जनता पार्टी के सहयोग से ही। यह जदयू-भाजपा गठबंधन की सरकार ही है जिसने बिहार को विश्व नक्शे पर एक बार फिर एक सुशासित प्रदेश के रूप में सम्मानजनक स्थान दिलाने में सफलता पाई। उम्मीद जगी कि अगले चुनाव में यह गठबंधन पुन: सत्तारूढ़ हो विकास की गाड़ी की निरंतरता कायम रखेगा। किन्तु ताजा घटनाक्रम इस विश्वास के मार्ग में अवरोध खड़े कर रहे हैं।
यह आश्चर्यकारक है कि भाजपा के एक बड़े नेता गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की बिहार में उपस्थिति को नीतीश पचा नहीं पाए। गुजरात सरकार द्वारा जारी एक विज्ञापन में नरेंद्र मोदी के साथ अपनी फोटो देख नीतीश का आपा खोना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं माना जाएगा। अगर मोदी से उन्हें इतना ही परहेज है, तब फिर उन्होंने मोदी के हाथ को हाथ में लेकर छायाकारों के लिए 'पोज' दिए ही क्यों थे ? क्या लुधियाना में मौजूद वे दूसरे मोदी थे? यही नहीं जब राजग सरकार में नीतीश रेलमंत्री थे, तब भी मोदी राजग का नेतृत्व कर रही भाजपा के एक कद्दावर नेता थे। क्या नीतीश को यह मालूम नहीं था? साफ है कि नीतीश कुमार हीन भावना से ग्रसित हो गए हैं। नरेंद्र मोदी के आभा मंडल को वे पचा नहीं पा रहे हैं। दुखद यह भी है कि नीतीश ने अपना आक्रोश तब व्यक्त किया जब पटना में भाजपा कार्यकारिणी की बैठक आयोजित थी। भाजपा के साथ गठबंधन सरकार का नेतृत्व कर रहे नीतीश कुमार यह भी भूल गए कि बिहार में मोदी मेहमान के रूप में आए हैं और नीतीश मेजबान हैं। बिहार की संस्कृति किसी अतिथि के अपमान की इजाजत नहीं देती। भाजपा नेताओं के लिए पूर्व निर्धारित रात्रि भोज के कार्यक्रम को रद्द कर नीतीश ने अशिष्टता का परिचय दिया है। बिहार की संस्कृति को लांछित किया है। अगर वे भाजपा के साथ चुनावपूर्व गठबंधन तोडऩा चाहते हैं, तब स्पष्ट घोषणा कर दें। मोदी को बहाना बनाकर वे ऐसी तुच्छ हरकतें न करें। छद्मधर्मनिरपेक्षता की असलियत अब सभी जान चुके हैं। नीतीश यह कैसे भूल गए कि बिहार के जिस विकास को लेकर वे स्वयं को महिमामंडित कर रहे हैं, वह संभव हो पाया है तो भाजपा के सहयोग के कारण ही! नरेंद्र मोदी अगर हिन्दू हृदय सम्राट के रूप में स्थापित हैं तो यह उनकी अपनी उपलब्धि है। कथित धर्मनिरपेक्ष तत्व उन्हें साम्प्रदायिक घोषित कर सकते हैं। किन्तु, इस हकीकत को नहीं झुठला सकते कि कांग्रेस सहित सभी दलों के पुरजोर विरोध-आक्रमण के बावजूद गुजरात की जनता ने उन्हें अपने सिर-आंखों पर बैठाया है। नीतीश को अगर बिहार के 16 प्र. श. मुस्लिम मतदाताओं की चिंता है तब क्षमा करेंगे, उन्हें राजनीतिक दृष्टि से अपरिपक्व की श्रेणी में रखा जाएगा। अव्वल तो धर्म-संप्रदाय के आधार पर वोट की चिंता ही गलत है। किसी भी धर्मविशेष के नाम पर वोट मांगने वाले धर्मनिरपेक्ष नहीं हो सकते। मुसलमानों को वोट बैंक समझने वालों की पंक्ति में स्वयं को खड़ा कर नीतीश अपनी अब तक की सारी उपलब्धियों पर पानी फेर देंगे। थोड़ी देर के लिए इस नीति को सही भी मान लिया जाए, तब भी गणित नीतीश के पक्ष में नहीं जाता। प्रदेश के 16 प्र.श. मुस्लिम वोट बैंक पर नीतीश अकेले कब्जा नहीं कर सकते। पिछले उपचुनावों के परिणाम इस तथ्य को रेखांकित कर चुके हैं कि लालू यादव का राष्ट्रीय जनता दल और कांग्रेस दोनों इस बैंक में सेंधमारी कर चुके हैं। आगे भी यह सफल होंगे। ऐसे में मुस्लिम वोट पर आधिपत्य जमाने की मशक्कत कहीं प्रतिउत्पादक न सिद्ध हो जाए। ऐसी स्थिति में 84 प्र. श. शेष मतदाताओं के सामने विभाजित 16 प्र.श. भला किसे लाभ पहुंचाएंगे? निश्चय ही नीतीश यहां चूक गए। उनके आचरण से भाजपा अगर आक्रमक हुई है तो बिल्कुल ठीक ही है। भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी की यह घोषणा बेमानी नहीं है कि भाजपा गठबंधन धर्म तो निभाएगी किन्तु आत्मसम्मान की कीमत पर नहीं।
यह आश्चर्यकारक है कि भाजपा के एक बड़े नेता गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की बिहार में उपस्थिति को नीतीश पचा नहीं पाए। गुजरात सरकार द्वारा जारी एक विज्ञापन में नरेंद्र मोदी के साथ अपनी फोटो देख नीतीश का आपा खोना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं माना जाएगा। अगर मोदी से उन्हें इतना ही परहेज है, तब फिर उन्होंने मोदी के हाथ को हाथ में लेकर छायाकारों के लिए 'पोज' दिए ही क्यों थे ? क्या लुधियाना में मौजूद वे दूसरे मोदी थे? यही नहीं जब राजग सरकार में नीतीश रेलमंत्री थे, तब भी मोदी राजग का नेतृत्व कर रही भाजपा के एक कद्दावर नेता थे। क्या नीतीश को यह मालूम नहीं था? साफ है कि नीतीश कुमार हीन भावना से ग्रसित हो गए हैं। नरेंद्र मोदी के आभा मंडल को वे पचा नहीं पा रहे हैं। दुखद यह भी है कि नीतीश ने अपना आक्रोश तब व्यक्त किया जब पटना में भाजपा कार्यकारिणी की बैठक आयोजित थी। भाजपा के साथ गठबंधन सरकार का नेतृत्व कर रहे नीतीश कुमार यह भी भूल गए कि बिहार में मोदी मेहमान के रूप में आए हैं और नीतीश मेजबान हैं। बिहार की संस्कृति किसी अतिथि के अपमान की इजाजत नहीं देती। भाजपा नेताओं के लिए पूर्व निर्धारित रात्रि भोज के कार्यक्रम को रद्द कर नीतीश ने अशिष्टता का परिचय दिया है। बिहार की संस्कृति को लांछित किया है। अगर वे भाजपा के साथ चुनावपूर्व गठबंधन तोडऩा चाहते हैं, तब स्पष्ट घोषणा कर दें। मोदी को बहाना बनाकर वे ऐसी तुच्छ हरकतें न करें। छद्मधर्मनिरपेक्षता की असलियत अब सभी जान चुके हैं। नीतीश यह कैसे भूल गए कि बिहार के जिस विकास को लेकर वे स्वयं को महिमामंडित कर रहे हैं, वह संभव हो पाया है तो भाजपा के सहयोग के कारण ही! नरेंद्र मोदी अगर हिन्दू हृदय सम्राट के रूप में स्थापित हैं तो यह उनकी अपनी उपलब्धि है। कथित धर्मनिरपेक्ष तत्व उन्हें साम्प्रदायिक घोषित कर सकते हैं। किन्तु, इस हकीकत को नहीं झुठला सकते कि कांग्रेस सहित सभी दलों के पुरजोर विरोध-आक्रमण के बावजूद गुजरात की जनता ने उन्हें अपने सिर-आंखों पर बैठाया है। नीतीश को अगर बिहार के 16 प्र. श. मुस्लिम मतदाताओं की चिंता है तब क्षमा करेंगे, उन्हें राजनीतिक दृष्टि से अपरिपक्व की श्रेणी में रखा जाएगा। अव्वल तो धर्म-संप्रदाय के आधार पर वोट की चिंता ही गलत है। किसी भी धर्मविशेष के नाम पर वोट मांगने वाले धर्मनिरपेक्ष नहीं हो सकते। मुसलमानों को वोट बैंक समझने वालों की पंक्ति में स्वयं को खड़ा कर नीतीश अपनी अब तक की सारी उपलब्धियों पर पानी फेर देंगे। थोड़ी देर के लिए इस नीति को सही भी मान लिया जाए, तब भी गणित नीतीश के पक्ष में नहीं जाता। प्रदेश के 16 प्र.श. मुस्लिम वोट बैंक पर नीतीश अकेले कब्जा नहीं कर सकते। पिछले उपचुनावों के परिणाम इस तथ्य को रेखांकित कर चुके हैं कि लालू यादव का राष्ट्रीय जनता दल और कांग्रेस दोनों इस बैंक में सेंधमारी कर चुके हैं। आगे भी यह सफल होंगे। ऐसे में मुस्लिम वोट पर आधिपत्य जमाने की मशक्कत कहीं प्रतिउत्पादक न सिद्ध हो जाए। ऐसी स्थिति में 84 प्र. श. शेष मतदाताओं के सामने विभाजित 16 प्र.श. भला किसे लाभ पहुंचाएंगे? निश्चय ही नीतीश यहां चूक गए। उनके आचरण से भाजपा अगर आक्रमक हुई है तो बिल्कुल ठीक ही है। भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी की यह घोषणा बेमानी नहीं है कि भाजपा गठबंधन धर्म तो निभाएगी किन्तु आत्मसम्मान की कीमत पर नहीं।
Saturday, June 12, 2010
राजीव का 'मेरा भारत महान'!
राजीव गांधी प्रतिपादित 'मेरा भारत महान' की आज बरबस याद आ रही है। सचमुच महान ही तो है यह लोकतांत्रिक भारत देश जहां का कानून मंत्री घोषणा करता है कि हजारों लोगों की मौत और लाखों लोगों के विकलांग हो जाने की त्रासदी के मामले को भारत की सर्वोच्च अदालत 'ट्रक दुर्घटना' में बदल देती है! और महानता यह भी कि सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश अवकाश प्राप्त करने के बाद आरोपी कंपनी यूनियन कार्बाइड द्वारा स्थापित एक ट्रस्ट के आजीवन चेयरमन बन जाते हैं! कानूनमंत्री वीरप्पा मोइली यह बताने से भी नहीं चूकते कि सरकार ने सबकुछ ठीकठाक किया, ढिलाई अदालत ने बरती। शाबास भारत देश! शाबास कानून मंत्री!
अब थोड़ा आगे बढ़ें। यूनियन कार्बाइड के मामले में अदालती फैसला आने के बाद स्वयं राजीव गांधी कटघरे में हैं। सत्तारूढ़ कांग्रेस के अनेक बड़े नेता, राजीव गांधी के तत्कालीन विशेष सचिव, मध्यप्रदेश के तत्कालीन जिलाधिकारी-पुलिस अधीक्षक सहित अन्य संबंधित अधिकारी राजीव गांधी की संलिप्तता (वारेन एंडरसन को अमेरिका भगाने के मामले में) की पुष्टि कर रहे हैं। मैं यहां विपक्षी दलों की चर्चा नहीं कर रहा। अन्य लोगों के अलावा नेहरू-गांधी परिवार के सदस्य और राजीव गांधी के मित्र अरुण नेहरू भी इस मत के हैं कि बगैर राजीव गांधी की जानकारी के एंडरसन अमेरिका नहीं भाग सकता था। महान भारत की गाथा यहीं खत्म नहीं होती। एक मंत्री हैं जयराम रमेश। भोपाल जाते हैं। वहां की मिट्टïी को हाथ में उठाकर प्रमाणपत्र देते हैं कि मिट्टïी तो स्वच्छ है, विषाक्त नहीं। भोपाल गैस त्रासदी के पीडि़तों की आत्माओं को चिढ़ाते हुए रमेश परोक्ष में यूनियन कार्बाइड को आरोपमुक्त करते हैं। 25 वर्षों बाद जयराम रमेश का यह प्रमाणपत्र पूरे देश की समझ को मुंह चिढ़ा रहा है। काश कि जयराम रमेश 2-3 दिसंबर 1984 की रात भोपाल में रात्रि व्यतीत कर रहे होते! तब शायद वे आज यूनियन कार्बाइड के पक्ष में प्रमाणपत्र देने के लिए मौजूद नहीं रहते। ये शब्द कड़वे लग सकते हैं किन्तु मैं मजबूर हूं। रमेश ने न केवल भोपाल गैस कांड के मृतकों की आत्माओं व अन्य पीडि़तों बल्कि पूरे देश का अपमान किया है। उन्हें क्षमा नहीं मिल सकती।
जरा रुकें। अभी बात खत्म नहीं हुई। राजीव गांधी के महान भारत की कथा अनंत है। आज जब पूरा भारत देश उक्त कांड से संबंधित खुलासे को लेकर (पढ़ें एंडरसन) उद्वेलित है, कांग्रेस दल विभाजित हो चुका है, विपक्ष आक्रामक मुद्रा में है, तब सत्ताशीर्ष के 3 स्तंभ प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और कांग्रेस पार्टी व देश के 'भविष्य' शक्तिशाली राहुल गांधी मौन हैं। क्यों? राहुल अपने पिता का और सोनिया अपने पति का बचाव क्यों नहीं कर रही? ये मामले के प्रति असंवेदनशील तो हो नहीं सकते। फिर क्या कारण है? जाहिर है कि ये दोनों किसी विशेष अवसर की प्रतीक्षा में हैं। संभवत: अर्जुन सिंह के मुंह खोलने की। कांग्रेस की ओर से मांग भी हो चुकी है कि अर्जुन सिंह अपना मुंह खोलें। जिस दिन अर्जुन सिंह अपना मुंह खोलेंगे उस दिन महान भारत की 'महानता' में एक नया अध्याय जुड़ जाएगा। अर्जुन सिंह अगर सच उगलेंगे तब कांग्रेस के उस स्याह पक्ष की पुष्टि हो जाएगी जो भारत के अमेरिकी गोद में लेट जाने की चुगली कर रहा है। अर्जुन सिंह एक असली क्षत्रिय की तरह हीरो बन जाएंगे। अगर एक अवसरवादी राजनीति की तरह पलटी मारते हुए अर्जुन सिंह राजीव गांधी का बचाव कर देते हैं तब विपक्ष ही नहीं पूरा देश कांग्रेस के नाम पर मुंह चिढ़ाता मिलेगा। सत्तालोलुप और धनपिपासु के रूप में कांग्रेस और अर्जुन सिंह 'महान भारत' की विडंबना बन जाएंगे।
अब थोड़ा आगे बढ़ें। यूनियन कार्बाइड के मामले में अदालती फैसला आने के बाद स्वयं राजीव गांधी कटघरे में हैं। सत्तारूढ़ कांग्रेस के अनेक बड़े नेता, राजीव गांधी के तत्कालीन विशेष सचिव, मध्यप्रदेश के तत्कालीन जिलाधिकारी-पुलिस अधीक्षक सहित अन्य संबंधित अधिकारी राजीव गांधी की संलिप्तता (वारेन एंडरसन को अमेरिका भगाने के मामले में) की पुष्टि कर रहे हैं। मैं यहां विपक्षी दलों की चर्चा नहीं कर रहा। अन्य लोगों के अलावा नेहरू-गांधी परिवार के सदस्य और राजीव गांधी के मित्र अरुण नेहरू भी इस मत के हैं कि बगैर राजीव गांधी की जानकारी के एंडरसन अमेरिका नहीं भाग सकता था। महान भारत की गाथा यहीं खत्म नहीं होती। एक मंत्री हैं जयराम रमेश। भोपाल जाते हैं। वहां की मिट्टïी को हाथ में उठाकर प्रमाणपत्र देते हैं कि मिट्टïी तो स्वच्छ है, विषाक्त नहीं। भोपाल गैस त्रासदी के पीडि़तों की आत्माओं को चिढ़ाते हुए रमेश परोक्ष में यूनियन कार्बाइड को आरोपमुक्त करते हैं। 25 वर्षों बाद जयराम रमेश का यह प्रमाणपत्र पूरे देश की समझ को मुंह चिढ़ा रहा है। काश कि जयराम रमेश 2-3 दिसंबर 1984 की रात भोपाल में रात्रि व्यतीत कर रहे होते! तब शायद वे आज यूनियन कार्बाइड के पक्ष में प्रमाणपत्र देने के लिए मौजूद नहीं रहते। ये शब्द कड़वे लग सकते हैं किन्तु मैं मजबूर हूं। रमेश ने न केवल भोपाल गैस कांड के मृतकों की आत्माओं व अन्य पीडि़तों बल्कि पूरे देश का अपमान किया है। उन्हें क्षमा नहीं मिल सकती।
जरा रुकें। अभी बात खत्म नहीं हुई। राजीव गांधी के महान भारत की कथा अनंत है। आज जब पूरा भारत देश उक्त कांड से संबंधित खुलासे को लेकर (पढ़ें एंडरसन) उद्वेलित है, कांग्रेस दल विभाजित हो चुका है, विपक्ष आक्रामक मुद्रा में है, तब सत्ताशीर्ष के 3 स्तंभ प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और कांग्रेस पार्टी व देश के 'भविष्य' शक्तिशाली राहुल गांधी मौन हैं। क्यों? राहुल अपने पिता का और सोनिया अपने पति का बचाव क्यों नहीं कर रही? ये मामले के प्रति असंवेदनशील तो हो नहीं सकते। फिर क्या कारण है? जाहिर है कि ये दोनों किसी विशेष अवसर की प्रतीक्षा में हैं। संभवत: अर्जुन सिंह के मुंह खोलने की। कांग्रेस की ओर से मांग भी हो चुकी है कि अर्जुन सिंह अपना मुंह खोलें। जिस दिन अर्जुन सिंह अपना मुंह खोलेंगे उस दिन महान भारत की 'महानता' में एक नया अध्याय जुड़ जाएगा। अर्जुन सिंह अगर सच उगलेंगे तब कांग्रेस के उस स्याह पक्ष की पुष्टि हो जाएगी जो भारत के अमेरिकी गोद में लेट जाने की चुगली कर रहा है। अर्जुन सिंह एक असली क्षत्रिय की तरह हीरो बन जाएंगे। अगर एक अवसरवादी राजनीति की तरह पलटी मारते हुए अर्जुन सिंह राजीव गांधी का बचाव कर देते हैं तब विपक्ष ही नहीं पूरा देश कांग्रेस के नाम पर मुंह चिढ़ाता मिलेगा। सत्तालोलुप और धनपिपासु के रूप में कांग्रेस और अर्जुन सिंह 'महान भारत' की विडंबना बन जाएंगे।
... तो जनता सिखा देगी सबक!
चाटुकार नेता अब और 'कोरस' न गाएं। दिग्विजय सिंह, वसंत साठे के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के विशेष सचिव रह चुके पी.सी. अलेक्जांडर ने, संकेत में ही सही, यह स्पष्ट कर दिया कि राजीव गांधी के कहने पर ही मध्यप्रदेश के तब के मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह ने वारेन एंडरसन को अमेरिका भगाया। इसके पहले मध्यप्रदेश के एक और अधिकारी आर.सी. जैन सार्वजनिक रूप से खुलासा कर चुके हैं कि अर्जुन सिंह ने मुख्य सचिव ब्रम्हस्वरूप को जो आदेश दिया था, वह राजीव गांधी के निर्देश पर और राजीव गांधी ने अमेरिका के दबाव में आकर निर्देश दिए थे। जैन ने यह खुलासा भी किया है कि तब अमेरिका के राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन ने एंडरसन के मामले में व्यक्तिगत रूप से सीधे हस्तक्षेप किया था। क्या यह बताए जाने की जरूरत है कि अमेरिका के राष्ट्रपति ने मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री नहीं बल्कि प्रधानमंत्री राजीव गांधी से बात की थी?
गांधी-नेहरू परिवार के कुछ अति वफादार अलेक्जांडर के इस खुलासे पर नाराज हैं! इन्हीं में से एक आर.के. धवन अलेक्जांडर के आरोपों को निराधार बता रहे हैं। एक पुरानी कहावत है कि 'बात उठेगी तो दूर तलक जाएगी।' धवन इसे न भूलें। इंदिरा गांधी की हत्या की जांच के लिए गठित कार्तिकेयन समिति की रिपोर्ट चाहे दबा दी गई हो, जिन लोगों को उक्त रिपोर्ट की जानकारी है वे धवन के कथित 'विश्वासघात' से परिचित हैं। उन्हें मालूम है कि जो आर.के. धवन इंदिरा गांधी के आशीर्वाद से उनकी छत्रछाया में 'शक्तिशाली' बने थे, उसी इंदिरा गांधी के साथ धवन ने क्या छल किया? आज धवन अलेक्जांडर के शब्दों का खंडन कर रहे हैं तो क्या आश्चर्य! जानकार पुष्टि करेंगे कि इंदिरा गांधी के समय में प्रधानमंत्री कार्यालय की छवि दागदार बनाने का 'श्रेय' आर.के. धवन के खाते में है। यह तो भारत देश है जहां आज भी तीन-तीन प्रधानमंत्रियों की मौत का सच दफन कर दिया गया। फिर एक अमेरिकी एंडरसन को बचा ले जाने संबंधी प्रधानमंत्री की मशक्कत पर परदा डालने का कृत्य कैसे नहीं दफन होगा? आज के चाटुकार नेता इसी मानसिकता के कारण पल-पल झूठ उगलते रहते हैं। लेकिन यह देश इतना भी अशक्त नहीं कि वह लोकतंत्र के नाम पर अत्याचार, भ्रष्टाचार के दोषियों को अनंतकाल तक बर्दाश्त करता रहे। सुगबुगाहट शुरू हो चुकी है। उसे सड़क पर निकलने भर की देरी है। अब प्रतीक्षा है अर्जुन सिंह के मुंह खोलने की? जिस दिन वे मुंह खोलेंगे, सच सामने आएगा और तब दूध का दूध, पानी का पानी स्वत: स्पष्ट हो जाएगा। यह देश भोपाल के हजारों अनाथ बच्चों, विधवाओं और अपंगों की छाती पर किसी को भी मूंग दलने की इजाजत नहीं देगा। एंडरसन को पुलिस के चंगुल से छुड़ा सुरक्षित अमेरिका भगाने के दोषी हर दृष्टि से देशद्रोही हैं। सत्ता के दुरुपयोग के अपराधी हैं ये। 15 हजार से अधिक लोगों के हत्यारे हैं ये। इनका अपराध अक्षम्य है। अगर सत्ता व कानून ने इनके खिलाफ कार्रवाई नहीं की तो निश्चय मानिए, जनता इन्हें सबक सिखाएगी।
गांधी-नेहरू परिवार के कुछ अति वफादार अलेक्जांडर के इस खुलासे पर नाराज हैं! इन्हीं में से एक आर.के. धवन अलेक्जांडर के आरोपों को निराधार बता रहे हैं। एक पुरानी कहावत है कि 'बात उठेगी तो दूर तलक जाएगी।' धवन इसे न भूलें। इंदिरा गांधी की हत्या की जांच के लिए गठित कार्तिकेयन समिति की रिपोर्ट चाहे दबा दी गई हो, जिन लोगों को उक्त रिपोर्ट की जानकारी है वे धवन के कथित 'विश्वासघात' से परिचित हैं। उन्हें मालूम है कि जो आर.के. धवन इंदिरा गांधी के आशीर्वाद से उनकी छत्रछाया में 'शक्तिशाली' बने थे, उसी इंदिरा गांधी के साथ धवन ने क्या छल किया? आज धवन अलेक्जांडर के शब्दों का खंडन कर रहे हैं तो क्या आश्चर्य! जानकार पुष्टि करेंगे कि इंदिरा गांधी के समय में प्रधानमंत्री कार्यालय की छवि दागदार बनाने का 'श्रेय' आर.के. धवन के खाते में है। यह तो भारत देश है जहां आज भी तीन-तीन प्रधानमंत्रियों की मौत का सच दफन कर दिया गया। फिर एक अमेरिकी एंडरसन को बचा ले जाने संबंधी प्रधानमंत्री की मशक्कत पर परदा डालने का कृत्य कैसे नहीं दफन होगा? आज के चाटुकार नेता इसी मानसिकता के कारण पल-पल झूठ उगलते रहते हैं। लेकिन यह देश इतना भी अशक्त नहीं कि वह लोकतंत्र के नाम पर अत्याचार, भ्रष्टाचार के दोषियों को अनंतकाल तक बर्दाश्त करता रहे। सुगबुगाहट शुरू हो चुकी है। उसे सड़क पर निकलने भर की देरी है। अब प्रतीक्षा है अर्जुन सिंह के मुंह खोलने की? जिस दिन वे मुंह खोलेंगे, सच सामने आएगा और तब दूध का दूध, पानी का पानी स्वत: स्पष्ट हो जाएगा। यह देश भोपाल के हजारों अनाथ बच्चों, विधवाओं और अपंगों की छाती पर किसी को भी मूंग दलने की इजाजत नहीं देगा। एंडरसन को पुलिस के चंगुल से छुड़ा सुरक्षित अमेरिका भगाने के दोषी हर दृष्टि से देशद्रोही हैं। सत्ता के दुरुपयोग के अपराधी हैं ये। 15 हजार से अधिक लोगों के हत्यारे हैं ये। इनका अपराध अक्षम्य है। अगर सत्ता व कानून ने इनके खिलाफ कार्रवाई नहीं की तो निश्चय मानिए, जनता इन्हें सबक सिखाएगी।
Wednesday, June 9, 2010
अब फैसला जनता करे!
क्या अब भी यह बताने की जरूरत है कि भोपाल के भक्षक के रक्षक कौन बने थे? दीवारों पर साफ-साफ लिख दिया गया है। पढ़ लें। सब कुछ आईने की तरह साफ है। हजारों निर्दोषों को मौत की नींद सुला देने वाले यूनियन कार्बाइड के प्रमुख वारेन एंडरसन को केंद्र व मध्यप्रदेश सरकार ने मिलकर बचाया था। तकनीकी तौर पर यह कह लें कि तत्कालीन सरकारों ने बचाया था।
उपलब्ध तथ्य इस आकांक्षा के आग्रही हैं कि केंद्र सरकार या तो एंडरसन को अमेरिका से प्रत्यापित कर भारत लाए, हत्याओं का मुकदमा चलाए, दंडित करे या फिर स्वयं सरकार देश की जनता से माफी मांग इस्तीफा दे दे। संभवत: विश्व की यह पहली घटना है जब किसी देश की सरकार ने अपने हजारों नागरिकों की मौत के जिम्मेदार को सुरक्षित निकल भागने का मार्ग सुलभ करा दिया हो। हमारा कानून किसी अपराधी को मदद करने वाले को भी अपराधी मानता है। इस मामले में मददगार और कोई नहीं तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी, तत्कालीन गृहमंत्री नरसिंह राव, मध्यप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह, मुख्य सचिव ब्रम्हस्वरूप और अब 'सॉरीÓ कहने वाले भारत तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश ए.एम. अहमदी बने थे। इनमें राजीव गांधी और नरसिंह राव तो अब इस दुनिया में नहीं रहे लेकिन उनकी पार्टी कांग्रेस की सरकार आज भी केंद्र में सत्तारूढ़ है। वैसे इन दिनों नैतिकता की बातें करना कोरी मूर्खता ही मानी जाती है। फिर भी चुनौती है उसे कि या तो वह भूल सुधार करते हुए अब भी एंडरसन व अन्यों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करे अथवा सत्ता का त्याग कर दे। सीबीआई के संयुक्त निदेशक बी.आर. लाल के बाद अब भोपाल के तत्कालीन जिलाधिकारी मोती सिंह ने भी सार्वजनिक रूप से खुलासा कर दिया है कि एंडरसन की गिरफ्तारी के बाद मध्यप्रदेश के तत्कालीन मुख्य सचिव ने उन्हें और भोपाल के पुलिस अधीक्षक को बुलाकर आदेश दिया था कि एंडरसन को छोड़ दिया जाए! तब एंडरसन को सिर्फ छोड़ा ही नहीं गया, एक अति विशिष्ट व्यक्ति की तरह उसे विशेष सरकारी विमान से दिल्ली पहुंचा दिया गया। दिल्ली पहुंचा एंडरसन तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैलसिंह से मिलता है, सत्ता पक्ष के अनेक वरिष्ठ नेताओं से भी मिलता है। कैसे और क्यों? इसका जवाब कौन देगा? अवकाश प्राप्त न्यायमूर्ति अहमदी अपने उस फैसले के लिए अब 'सॉरीÓ कह रहे हैं जिसके द्वारा उन्होंने अभियोजन पक्ष के मामले को बिल्कुल हलका बना डाला था। पहले आरोपियों के खिलाफ भारतीय दंड संहिता की धारा 304 (ढ्ढढ्ढ) के तहत मामला दायर हुआ था। इस धारा के अंतर्गत दोषी को 10 साल की सजा का प्रावधान है। लेकिन, इसके खिलाफ उद्योगपति केशव महिंद्रा व अन्य द्वारा दायर याचिका को स्वीकार करते हुए तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश ने धारा 304 ए के तहत मुकदमा चलाए जाने का आदेश दिया। इस धारा के प्रावधान के अनुसार दोषी को अधिकतम 2 साल की सजा दी जा सकती है। भोपाल की अदालत ने ऐसा ही किया। निश्चय ही भोपाल की अदालत विवश थी। उसे दोषी नहीं ठहराया जाना चाहिए। असली दोषी तो हमारे वे शासक हैं जो अमेरिका की गोद में बैठ भारतीय हित की अनदेखी कर रहे हैं। अनदेखी भी ऐसी कि आनेवाले दिनों में संभवत: भारत अमेरिकी रहमोकरम पर जीने को बाध्य हो जाए। इस मुकाम पर लोगों को पहल करने की चुनौती है। यह देश किसी व्यक्ति विशेष या दल विशेष की बपौती नहीं है। लोकतंत्र में सर्वोपरि जनता है। उसे अब सामने आना ही होगा। स्थिति अत्यंत ही विस्फोटक है। ऐसी कि अगर कल अमेरिका भारत की सीमा में घुस भारतीयों के जान-माल को हानि पहुंचाए तब भी शायद सरकार अमेरिकी हमलावरों को बचाती दिखेगी। अब फैसला देश की जनता करे कि क्या वह ऐसी संभावित दु:स्थिति को स्वीकार करेगी?
उपलब्ध तथ्य इस आकांक्षा के आग्रही हैं कि केंद्र सरकार या तो एंडरसन को अमेरिका से प्रत्यापित कर भारत लाए, हत्याओं का मुकदमा चलाए, दंडित करे या फिर स्वयं सरकार देश की जनता से माफी मांग इस्तीफा दे दे। संभवत: विश्व की यह पहली घटना है जब किसी देश की सरकार ने अपने हजारों नागरिकों की मौत के जिम्मेदार को सुरक्षित निकल भागने का मार्ग सुलभ करा दिया हो। हमारा कानून किसी अपराधी को मदद करने वाले को भी अपराधी मानता है। इस मामले में मददगार और कोई नहीं तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी, तत्कालीन गृहमंत्री नरसिंह राव, मध्यप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह, मुख्य सचिव ब्रम्हस्वरूप और अब 'सॉरीÓ कहने वाले भारत तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश ए.एम. अहमदी बने थे। इनमें राजीव गांधी और नरसिंह राव तो अब इस दुनिया में नहीं रहे लेकिन उनकी पार्टी कांग्रेस की सरकार आज भी केंद्र में सत्तारूढ़ है। वैसे इन दिनों नैतिकता की बातें करना कोरी मूर्खता ही मानी जाती है। फिर भी चुनौती है उसे कि या तो वह भूल सुधार करते हुए अब भी एंडरसन व अन्यों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करे अथवा सत्ता का त्याग कर दे। सीबीआई के संयुक्त निदेशक बी.आर. लाल के बाद अब भोपाल के तत्कालीन जिलाधिकारी मोती सिंह ने भी सार्वजनिक रूप से खुलासा कर दिया है कि एंडरसन की गिरफ्तारी के बाद मध्यप्रदेश के तत्कालीन मुख्य सचिव ने उन्हें और भोपाल के पुलिस अधीक्षक को बुलाकर आदेश दिया था कि एंडरसन को छोड़ दिया जाए! तब एंडरसन को सिर्फ छोड़ा ही नहीं गया, एक अति विशिष्ट व्यक्ति की तरह उसे विशेष सरकारी विमान से दिल्ली पहुंचा दिया गया। दिल्ली पहुंचा एंडरसन तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैलसिंह से मिलता है, सत्ता पक्ष के अनेक वरिष्ठ नेताओं से भी मिलता है। कैसे और क्यों? इसका जवाब कौन देगा? अवकाश प्राप्त न्यायमूर्ति अहमदी अपने उस फैसले के लिए अब 'सॉरीÓ कह रहे हैं जिसके द्वारा उन्होंने अभियोजन पक्ष के मामले को बिल्कुल हलका बना डाला था। पहले आरोपियों के खिलाफ भारतीय दंड संहिता की धारा 304 (ढ्ढढ्ढ) के तहत मामला दायर हुआ था। इस धारा के अंतर्गत दोषी को 10 साल की सजा का प्रावधान है। लेकिन, इसके खिलाफ उद्योगपति केशव महिंद्रा व अन्य द्वारा दायर याचिका को स्वीकार करते हुए तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश ने धारा 304 ए के तहत मुकदमा चलाए जाने का आदेश दिया। इस धारा के प्रावधान के अनुसार दोषी को अधिकतम 2 साल की सजा दी जा सकती है। भोपाल की अदालत ने ऐसा ही किया। निश्चय ही भोपाल की अदालत विवश थी। उसे दोषी नहीं ठहराया जाना चाहिए। असली दोषी तो हमारे वे शासक हैं जो अमेरिका की गोद में बैठ भारतीय हित की अनदेखी कर रहे हैं। अनदेखी भी ऐसी कि आनेवाले दिनों में संभवत: भारत अमेरिकी रहमोकरम पर जीने को बाध्य हो जाए। इस मुकाम पर लोगों को पहल करने की चुनौती है। यह देश किसी व्यक्ति विशेष या दल विशेष की बपौती नहीं है। लोकतंत्र में सर्वोपरि जनता है। उसे अब सामने आना ही होगा। स्थिति अत्यंत ही विस्फोटक है। ऐसी कि अगर कल अमेरिका भारत की सीमा में घुस भारतीयों के जान-माल को हानि पहुंचाए तब भी शायद सरकार अमेरिकी हमलावरों को बचाती दिखेगी। अब फैसला देश की जनता करे कि क्या वह ऐसी संभावित दु:स्थिति को स्वीकार करेगी?
अब फैसला जनता करे!
क्या अब भी यह बताने की जरूरत है कि भोपाल के भक्षक के रक्षक कौन बने थे? दीवारों पर साफ-साफ लिख दिया गया है। पढ़ लें। सब कुछ आईने की तरह साफ है। हजारों निर्दोषों को मौत की नींद सुला देने वाले यूनियन कार्बाइड के प्रमुख वारेन एंडरसन को केंद्र व मध्यप्रदेश सरकार ने मिलकर बचाया था। तकनीकी तौर पर यह कह लें कि तत्कालीन सरकारों ने बचाया था।
उपलब्ध तथ्य इस आकांक्षा के आग्रही हैं कि केंद्र सरकार या तो एंडरसन को अमेरिका से प्रत्यापित कर भारत लाए, हत्याओं का मुकदमा चलाए, दंडित करे या फिर स्वयं सरकार देश की जनता से माफी मांग इस्तीफा दे दे। संभवत: विश्व की यह पहली घटना है जब किसी देश की सरकार ने अपने हजारों नागरिकों की मौत के जिम्मेदार को सुरक्षित निकल भागने का मार्ग सुलभ करा दिया हो। हमारा कानून किसी अपराधी को मदद करने वाले को भी अपराधी मानता है। इस मामले में मददगार और कोई नहीं तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी, तत्कालीन गृहमंत्री नरसिंह राव, मध्यप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह, मुख्य सचिव ब्रम्हस्वरूप और अब 'सॉरीÓ कहने वाले भारत तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश ए.एम. अहमदी बने थे। इनमें राजीव गांधी और नरसिंह राव तो अब इस दुनिया में नहीं रहे लेकिन उनकी पार्टी कांग्रेस की सरकार आज भी केंद्र में सत्तारूढ़ है। वैसे इन दिनों नैतिकता की बातें करना कोरी मूर्खता ही मानी जाती है। फिर भी चुनौती है उसे कि या तो वह भूल सुधार करते हुए अब भी एंडरसन व अन्यों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करे अथवा सत्ता का त्याग कर दे। सीबीआई के संयुक्त निदेशक बी.आर. लाल के बाद अब भोपाल के तत्कालीन जिलाधिकारी मोती सिंह ने भी सार्वजनिक रूप से खुलासा कर दिया है कि एंडरसन की गिरफ्तारी के बाद मध्यप्रदेश के तत्कालीन मुख्य सचिव ने उन्हें और भोपाल के पुलिस अधीक्षक को बुलाकर आदेश दिया था कि एंडरसन को छोड़ दिया जाए! तब एंडरसन को सिर्फ छोड़ा ही नहीं गया, एक अति विशिष्ट व्यक्ति की तरह उसे विशेष सरकारी विमान से दिल्ली पहुंचा दिया गया। दिल्ली पहुंचा एंडरसन तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैलसिंह से मिलता है, सत्ता पक्ष के अनेक वरिष्ठ नेताओं से भी मिलता है। कैसे और क्यों? इसका जवाब कौन देगा? अवकाश प्राप्त न्यायमूर्ति अहमदी अपने उस फैसले के लिए अब 'सॉरीÓ कह रहे हैं जिसके द्वारा उन्होंने अभियोजन पक्ष के मामले को बिल्कुल हलका बना डाला था। पहले आरोपियों के खिलाफ भारतीय दंड संहिता की धारा 304 (ढ्ढढ्ढ) के तहत मामला दायर हुआ था। इस धारा के अंतर्गत दोषी को 10 साल की सजा का प्रावधान है। लेकिन, इसके खिलाफ उद्योगपति केशव महिंद्रा व अन्य द्वारा दायर याचिका को स्वीकार करते हुए तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश ने धारा 304 ए के तहत मुकदमा चलाए जाने का आदेश दिया। इस धारा के प्रावधान के अनुसार दोषी को अधिकतम 2 साल की सजा दी जा सकती है। भोपाल की अदालत ने ऐसा ही किया। निश्चय ही भोपाल की अदालत विवश थी। उसे दोषी नहीं ठहराया जाना चाहिए। असली दोषी तो हमारे वे शासक हैं जो अमेरिका की गोद में बैठ भारतीय हित की अनदेखी कर रहे हैं। अनदेखी भी ऐसी कि आनेवाले दिनों में संभवत: भारत अमेरिकी रहमोकरम पर जीने को बाध्य हो जाए। इस मुकाम पर लोगों को पहल करने की चुनौती है। यह देश किसी व्यक्ति विशेष या दल विशेष की बपौती नहीं है। लोकतंत्र में सर्वोपरि जनता है। उसे अब सामने आना ही होगा। स्थिति अत्यंत ही विस्फोटक है। ऐसी कि अगर कल अमेरिका भारत की सीमा में घुस भारतीयों के जान-माल को हानि पहुंचाए तब भी शायद सरकार अमेरिकी हमलावरों को बचाती दिखेगी। अब फैसला देश की जनता करे कि क्या वह ऐसी संभावित दु:स्थिति को स्वीकार करेगी?
उपलब्ध तथ्य इस आकांक्षा के आग्रही हैं कि केंद्र सरकार या तो एंडरसन को अमेरिका से प्रत्यापित कर भारत लाए, हत्याओं का मुकदमा चलाए, दंडित करे या फिर स्वयं सरकार देश की जनता से माफी मांग इस्तीफा दे दे। संभवत: विश्व की यह पहली घटना है जब किसी देश की सरकार ने अपने हजारों नागरिकों की मौत के जिम्मेदार को सुरक्षित निकल भागने का मार्ग सुलभ करा दिया हो। हमारा कानून किसी अपराधी को मदद करने वाले को भी अपराधी मानता है। इस मामले में मददगार और कोई नहीं तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी, तत्कालीन गृहमंत्री नरसिंह राव, मध्यप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह, मुख्य सचिव ब्रम्हस्वरूप और अब 'सॉरीÓ कहने वाले भारत तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश ए.एम. अहमदी बने थे। इनमें राजीव गांधी और नरसिंह राव तो अब इस दुनिया में नहीं रहे लेकिन उनकी पार्टी कांग्रेस की सरकार आज भी केंद्र में सत्तारूढ़ है। वैसे इन दिनों नैतिकता की बातें करना कोरी मूर्खता ही मानी जाती है। फिर भी चुनौती है उसे कि या तो वह भूल सुधार करते हुए अब भी एंडरसन व अन्यों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करे अथवा सत्ता का त्याग कर दे। सीबीआई के संयुक्त निदेशक बी.आर. लाल के बाद अब भोपाल के तत्कालीन जिलाधिकारी मोती सिंह ने भी सार्वजनिक रूप से खुलासा कर दिया है कि एंडरसन की गिरफ्तारी के बाद मध्यप्रदेश के तत्कालीन मुख्य सचिव ने उन्हें और भोपाल के पुलिस अधीक्षक को बुलाकर आदेश दिया था कि एंडरसन को छोड़ दिया जाए! तब एंडरसन को सिर्फ छोड़ा ही नहीं गया, एक अति विशिष्ट व्यक्ति की तरह उसे विशेष सरकारी विमान से दिल्ली पहुंचा दिया गया। दिल्ली पहुंचा एंडरसन तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैलसिंह से मिलता है, सत्ता पक्ष के अनेक वरिष्ठ नेताओं से भी मिलता है। कैसे और क्यों? इसका जवाब कौन देगा? अवकाश प्राप्त न्यायमूर्ति अहमदी अपने उस फैसले के लिए अब 'सॉरीÓ कह रहे हैं जिसके द्वारा उन्होंने अभियोजन पक्ष के मामले को बिल्कुल हलका बना डाला था। पहले आरोपियों के खिलाफ भारतीय दंड संहिता की धारा 304 (ढ्ढढ्ढ) के तहत मामला दायर हुआ था। इस धारा के अंतर्गत दोषी को 10 साल की सजा का प्रावधान है। लेकिन, इसके खिलाफ उद्योगपति केशव महिंद्रा व अन्य द्वारा दायर याचिका को स्वीकार करते हुए तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश ने धारा 304 ए के तहत मुकदमा चलाए जाने का आदेश दिया। इस धारा के प्रावधान के अनुसार दोषी को अधिकतम 2 साल की सजा दी जा सकती है। भोपाल की अदालत ने ऐसा ही किया। निश्चय ही भोपाल की अदालत विवश थी। उसे दोषी नहीं ठहराया जाना चाहिए। असली दोषी तो हमारे वे शासक हैं जो अमेरिका की गोद में बैठ भारतीय हित की अनदेखी कर रहे हैं। अनदेखी भी ऐसी कि आनेवाले दिनों में संभवत: भारत अमेरिकी रहमोकरम पर जीने को बाध्य हो जाए। इस मुकाम पर लोगों को पहल करने की चुनौती है। यह देश किसी व्यक्ति विशेष या दल विशेष की बपौती नहीं है। लोकतंत्र में सर्वोपरि जनता है। उसे अब सामने आना ही होगा। स्थिति अत्यंत ही विस्फोटक है। ऐसी कि अगर कल अमेरिका भारत की सीमा में घुस भारतीयों के जान-माल को हानि पहुंचाए तब भी शायद सरकार अमेरिकी हमलावरों को बचाती दिखेगी। अब फैसला देश की जनता करे कि क्या वह ऐसी संभावित दु:स्थिति को स्वीकार करेगी?
Tuesday, June 8, 2010
देशद्रोही हैं एंडरसन को बचाने वाले!
एक सीधा सवाल सरकार से और आम जनता से भी। 15 हजार से अधिक लोगों को मच्छरों की तरह मार डालने के अपराधी को बचाने वाले को सत्ता में बने रहने का अधिकार है? सत्ता पक्ष के ऐसे आपराधिक कृत्य पर क्या देश तटस्थ बना रहेगा? भोपाल गैस त्रासदी पर आए फैसले के बाद केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) के एक पूर्व वरिष्ठ अधिकारी बी.आर. लाल के आरोप को सच मानें तब यह साफ है कि सरकार ने भोपाल जनसंहार के मुख्य दोषी अमेरिकी कंपनी यूनियन कार्बाइड के प्रमुख वारेन एंडरसन को बचाने की कोशिश की थी। बल्कि बचा ले गई। क्योंकि अमेरिका ने साफ कह दिया है कि वह एंडरसन के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं करेगा। रही बात सरकार की तो हमारे कानून मंत्री वीरप्पा मोईली भले ही यह कहते फिरें कि एंडरसन के खिलाफ मामला बंद नहीं हुआ है, वह और उनकी केंद्र सरकार एंडरसन का कुछ नहीं बिगाड़ पाएगी। 89 वर्षीय एंडरसन अमेरिका में हैं और आराम से बेफिक्र हैं।
अभी कल ही मैंने अमेरिकी एंडरसन के मामले में सरकार की 'नीयतÓ पर संदेह प्रकट किया था। आज लाल के बयान से संदेह की पुष्टि हो गई। सीबीआई के इस पूर्व अधिकारी लाल का खुलासा सनसनीखेज व शर्मनाक है कि तब भारत सरकार के विदेश मंत्रालय ने सीबीआई को लिखित आदेश दिया था कि वह एंडरसन के प्रत्यर्पण के लिए जोर न दे। साफ है कि भारत सरकार एंडरसन को बचाना चाहती थी। यह एक अत्यंत ही विस्फोटक खुलासा है। सरकार को यह बताना ही होगा कि उसने 15 हजार से अधिक भारतीयों की हत्या के जिम्मेदार एंडरसन को क्यों बचाया? विदेश मंत्रालय ने सीबीआई को पत्र किसके निर्देश या इशारे पर लिखा था? यह तो निर्विवाद है कि निर्देश या संकेत उच्च स्तर से आए होंगे। कौन है वह व्यक्ति जिसे हजारों भारतीयों की मौत से ज्यादा एक अमेरिकी एंडरसन की फिक्र थी? सरकार को कारण भी बताना होगा। आज पूरा देश इस खुलासे पर उद्वेलित है। देश के लोग पूछ रहे हैं कि अगर भोपाल गैस कांड जैसी त्रासदी अमेरिका में हुई होती और कारक कोई भारतीय होता तो क्या अमेरिकी सरकार भारत की तरह मौन रहती? अदालती फैसले के बाद ही यह जाहिर हो गया था कि अभियोजन पक्ष ने जानबूझकर मामले को लचर व कमजोर बना डाला था। नतीजतन एंडरसन तो बच ही निकला, अन्य दोषी भी मात्र 2 साल की सजा पा सके। पीडि़तों के घावों पर नमक छिड़कते हुए दोषियों को तत्काल जमानत पर रिहा भी कर दिया गया। लेकिन अब और नहीं। भारत देश की जनता संयमी हो सकती है, नपुंसक कदापि नहीं। इस मामले में वह शांत रहने वाली नहीं। केंद्रीय कानून मंत्री वीरप्पा मोईली की दलील कि विदेश मंत्रालय के आदेश को अस्वीकार करते हुए सीबीआई को एंडरसन के खिलाफ कार्रवाई करनी चाहिए थी, एक हास्यास्पद बात है। हमारी राजनीतिक व्यवस्था अधिकारियों का मनोबल तोड़ती रही है। अनेक अधिकारियों ने समय-समय पर शासकों के खिलाफ कदम उठाने की कोशिशें की हैं किन्तु उन्हें प्रताडि़त कर कुचल डाला गया। बावजूद इसके बेहतर अवश्य होता अगर हिम्मत दिखाते हुए बी.आर. लाल उसी समय विदेश मंत्रालय के पत्र का खुलासा कर देते। मामला चूंकि हजारों नागरिकों की मौत का था, पूरा देश उन्हें अपने कंधों पर उठा लेता। उन्हें सुरक्षा कवच देश के लोग ही प्रदान करते। लाल वहां चूक गए। खैर अपनी गलती को सुधारते हुए उन्होंने अब खुलासा कर भारत सरकार की नीयत को कटघरे में खड़ा कर दिया है तो इसकी पूरी जांच कर सच को सामने लाया जाना चाहिए। अगर लाल का खुलासा सच साबित होता है तब विदेश मंत्रालय के तत्कालीन मंत्री व अधिकारियों के खिलाफ हजारों की हत्या के आरोपी को बचाने के आरोप में मामला चलाया जाना चाहिए। एंडरसन को बचाने वाले निश्चय ही देशद्रोही हैं।
अभी कल ही मैंने अमेरिकी एंडरसन के मामले में सरकार की 'नीयतÓ पर संदेह प्रकट किया था। आज लाल के बयान से संदेह की पुष्टि हो गई। सीबीआई के इस पूर्व अधिकारी लाल का खुलासा सनसनीखेज व शर्मनाक है कि तब भारत सरकार के विदेश मंत्रालय ने सीबीआई को लिखित आदेश दिया था कि वह एंडरसन के प्रत्यर्पण के लिए जोर न दे। साफ है कि भारत सरकार एंडरसन को बचाना चाहती थी। यह एक अत्यंत ही विस्फोटक खुलासा है। सरकार को यह बताना ही होगा कि उसने 15 हजार से अधिक भारतीयों की हत्या के जिम्मेदार एंडरसन को क्यों बचाया? विदेश मंत्रालय ने सीबीआई को पत्र किसके निर्देश या इशारे पर लिखा था? यह तो निर्विवाद है कि निर्देश या संकेत उच्च स्तर से आए होंगे। कौन है वह व्यक्ति जिसे हजारों भारतीयों की मौत से ज्यादा एक अमेरिकी एंडरसन की फिक्र थी? सरकार को कारण भी बताना होगा। आज पूरा देश इस खुलासे पर उद्वेलित है। देश के लोग पूछ रहे हैं कि अगर भोपाल गैस कांड जैसी त्रासदी अमेरिका में हुई होती और कारक कोई भारतीय होता तो क्या अमेरिकी सरकार भारत की तरह मौन रहती? अदालती फैसले के बाद ही यह जाहिर हो गया था कि अभियोजन पक्ष ने जानबूझकर मामले को लचर व कमजोर बना डाला था। नतीजतन एंडरसन तो बच ही निकला, अन्य दोषी भी मात्र 2 साल की सजा पा सके। पीडि़तों के घावों पर नमक छिड़कते हुए दोषियों को तत्काल जमानत पर रिहा भी कर दिया गया। लेकिन अब और नहीं। भारत देश की जनता संयमी हो सकती है, नपुंसक कदापि नहीं। इस मामले में वह शांत रहने वाली नहीं। केंद्रीय कानून मंत्री वीरप्पा मोईली की दलील कि विदेश मंत्रालय के आदेश को अस्वीकार करते हुए सीबीआई को एंडरसन के खिलाफ कार्रवाई करनी चाहिए थी, एक हास्यास्पद बात है। हमारी राजनीतिक व्यवस्था अधिकारियों का मनोबल तोड़ती रही है। अनेक अधिकारियों ने समय-समय पर शासकों के खिलाफ कदम उठाने की कोशिशें की हैं किन्तु उन्हें प्रताडि़त कर कुचल डाला गया। बावजूद इसके बेहतर अवश्य होता अगर हिम्मत दिखाते हुए बी.आर. लाल उसी समय विदेश मंत्रालय के पत्र का खुलासा कर देते। मामला चूंकि हजारों नागरिकों की मौत का था, पूरा देश उन्हें अपने कंधों पर उठा लेता। उन्हें सुरक्षा कवच देश के लोग ही प्रदान करते। लाल वहां चूक गए। खैर अपनी गलती को सुधारते हुए उन्होंने अब खुलासा कर भारत सरकार की नीयत को कटघरे में खड़ा कर दिया है तो इसकी पूरी जांच कर सच को सामने लाया जाना चाहिए। अगर लाल का खुलासा सच साबित होता है तब विदेश मंत्रालय के तत्कालीन मंत्री व अधिकारियों के खिलाफ हजारों की हत्या के आरोपी को बचाने के आरोप में मामला चलाया जाना चाहिए। एंडरसन को बचाने वाले निश्चय ही देशद्रोही हैं।
Monday, June 7, 2010
अब एक त्रासदी न्याय व्यवस्था की!
15,274 लोगों की मौत के जिम्मेदारों को 2 साल की कैद! वह भी लगभग 25 साल के बाद! भोपाल गैस कांड को दुनिया की सबसे बड़ी औद्योगिक त्रासदियों में से एक बताया गया है। अब अदालत के इस फैसले को एक त्रासदी निरूपित करने को हम मजबूर हैं। सचमुच यह न्याय का एक मजाक है। हमारी न्यायिक व्यवस्था का एक अत्यंत ही कमजोर और त्रासदीदायक पक्ष उजागर हुआ है। विलंबित न्याय के अन्याय में बदल जाने का एक स्याह उदाहरण भी है यह। पीडि़त लोग दुखी मन से इस फैसले को चुनौती देने की तैयारी कर रहे हैं। पीडि़तों की मदद के लिए सक्रिय संगठन अपने ढाई दशक के प्रयास के ऐसे हश्र से हतोत्साहित हैं। यह स्वाभाविक भी है। इस फैसले के कुछ दिन पूर्व भोपाल के चौराहों पर आरोपियों के पुतलों को फांसी पर लटकाने वाले अवाक् हो आरोपियों को टहलते देख रहे हैं। जी हां, सजा सुनाने के तत्काल बाद अदालत ने आरोपियों को निजी मुचलके पर जमानत दे दी। कहां तो इन्हें फांसी दिए जाने की आशा की जा रही थी, किन्तु अदालती आदेश ने सभी को निराश कर दिया। लोग अदालत के इस फैसले से स्वाभाविक रूप से संतुष्ट नहीं हैं। लेकिन पूरे मामले का अध्ययन करने पर पता चलेगा कि दोषी अदालत नहीं है।
जी हां। यही सच है। दोष है अभियोजन पक्ष और सीबीआई का। वर्षों की जांच के बाद इन लोगों ने पूरे मामले को इतना हलका बना डाला कि अदालत और कुछ कर ही नहीं सकती थी। आरोपियों को जिस धारा 304-ए के तहत दोषी पाया गया। उसमें सजा का अधिकतम प्रावधान ही 2 साल है। यहां अभियोजन पक्ष की कमजोरी या लापरवाही स्पष्ट है। यह आश्चर्यकारक ही नहीं, संदेहास्पद भी है कि यूनियन कार्बाइड कार्पोरेशन के अध्यक्ष वारेन एंडरसन के खिलाफ अभियोजन पक्ष ठोस मामला बनाने में विफल रहा। गैस कांड के बाद एंडरसन गिरफ्तार किए गए थे। जमानत पर रिहा होन के बाद वे फरार हो गए। अभियोजन पक्ष उन्हें पुन: अदालत में पेश करने में कामयाब नहीं हो पाया। नतीजतन अदालत ने एंडरसन को भगोड़ा घोषित कर दिया था। क्या हमारी जांच एजेंसियां इतनी अशक्त हैं कि 15 हजार से अधिक लोगों की मौत के लिए प्रमुख रूप से जिम्मेदार व्यक्ति को हथकड़ी नहीं पहना सकीं? उसके खिलाफ ठोस मामला नहीं बनाया जा सका? इस मुकाम पर उनकी नीयत पर संदेह उत्पन्न होना स्वाभाविक है। कहीं अमेरिका की कंपनी के चेयरमैन को जानबूझकर तो नहीं बख्श दिया गया? अगर ऐसा है तब इस कांड की जांच से जुड़े तमाम व्यक्तियों को 15 हजार लोगों की हत्या का सहयोगी घोषित कर दिया जाना चाहिए। सन् 2001 में अमेरिका के वल्र्ड ट्रेड सेंटर पर आतंकी हमले में लगभग 3000 लोगों के प्राण गए थे। भोपाल गैस कांड में इससे 5 गुना अधिक जानें गईं। अमेरिका की 9/11 की घटना के बाद की कार्रवाइयों को याद करें। अमेरिका ने आतंकियों के शरणस्थल अफगानिस्तान पर आक्रमण कर उसे तबाह कर डाला था। इतना कि आज भी अफगानिस्तान उस तबाही से उबर नहीं पाया है। लेकिन भारत के भोपाल में 15,000 से अधिक लोगों की मौत का मुख्य रूप से जिम्मेदार अमेरिकी स्वदेश वापस जा बेखौफ विचर रहा है। कुछ तार्किक अमेरिका व भोपाल की घटनाओं में फर्क दिखा सकते हैं। घटनाओं की प्रकृति में अंतर हो सकता है किन्तु लोगों के प्राणों में नहीं। मौत-मौत के बीच फर्क नहीं होता। आज जब भोपाल में गैस कांड के पीडि़त और वहां के तमाम लोग अदालत के फैसले से क्षुब्ध सड़क पर निकलने की तैयारी में हैं तब इसके संभावित दुष्परिणाम के लिए जिम्मेदार कौन होगा? अदालती फैसला चीख-चीख कर हमारी न्याय व्यवस्था में संशोधन की मांग कर रहा है। पहल हो और तत्काल हो। सजा की मूल अवधारणा ही अपराध की पुनरावृत्ति पर रोक से जुड़ी है। अगर भोपाल गैस त्रासदी जैसे फैसले आते रहे तब मौत के सौदागर भयभीत हों तो क्यों? न्याय व्यवस्था के खोखलेपन का फायदा वे उठाते ही रहेंगे।
जी हां। यही सच है। दोष है अभियोजन पक्ष और सीबीआई का। वर्षों की जांच के बाद इन लोगों ने पूरे मामले को इतना हलका बना डाला कि अदालत और कुछ कर ही नहीं सकती थी। आरोपियों को जिस धारा 304-ए के तहत दोषी पाया गया। उसमें सजा का अधिकतम प्रावधान ही 2 साल है। यहां अभियोजन पक्ष की कमजोरी या लापरवाही स्पष्ट है। यह आश्चर्यकारक ही नहीं, संदेहास्पद भी है कि यूनियन कार्बाइड कार्पोरेशन के अध्यक्ष वारेन एंडरसन के खिलाफ अभियोजन पक्ष ठोस मामला बनाने में विफल रहा। गैस कांड के बाद एंडरसन गिरफ्तार किए गए थे। जमानत पर रिहा होन के बाद वे फरार हो गए। अभियोजन पक्ष उन्हें पुन: अदालत में पेश करने में कामयाब नहीं हो पाया। नतीजतन अदालत ने एंडरसन को भगोड़ा घोषित कर दिया था। क्या हमारी जांच एजेंसियां इतनी अशक्त हैं कि 15 हजार से अधिक लोगों की मौत के लिए प्रमुख रूप से जिम्मेदार व्यक्ति को हथकड़ी नहीं पहना सकीं? उसके खिलाफ ठोस मामला नहीं बनाया जा सका? इस मुकाम पर उनकी नीयत पर संदेह उत्पन्न होना स्वाभाविक है। कहीं अमेरिका की कंपनी के चेयरमैन को जानबूझकर तो नहीं बख्श दिया गया? अगर ऐसा है तब इस कांड की जांच से जुड़े तमाम व्यक्तियों को 15 हजार लोगों की हत्या का सहयोगी घोषित कर दिया जाना चाहिए। सन् 2001 में अमेरिका के वल्र्ड ट्रेड सेंटर पर आतंकी हमले में लगभग 3000 लोगों के प्राण गए थे। भोपाल गैस कांड में इससे 5 गुना अधिक जानें गईं। अमेरिका की 9/11 की घटना के बाद की कार्रवाइयों को याद करें। अमेरिका ने आतंकियों के शरणस्थल अफगानिस्तान पर आक्रमण कर उसे तबाह कर डाला था। इतना कि आज भी अफगानिस्तान उस तबाही से उबर नहीं पाया है। लेकिन भारत के भोपाल में 15,000 से अधिक लोगों की मौत का मुख्य रूप से जिम्मेदार अमेरिकी स्वदेश वापस जा बेखौफ विचर रहा है। कुछ तार्किक अमेरिका व भोपाल की घटनाओं में फर्क दिखा सकते हैं। घटनाओं की प्रकृति में अंतर हो सकता है किन्तु लोगों के प्राणों में नहीं। मौत-मौत के बीच फर्क नहीं होता। आज जब भोपाल में गैस कांड के पीडि़त और वहां के तमाम लोग अदालत के फैसले से क्षुब्ध सड़क पर निकलने की तैयारी में हैं तब इसके संभावित दुष्परिणाम के लिए जिम्मेदार कौन होगा? अदालती फैसला चीख-चीख कर हमारी न्याय व्यवस्था में संशोधन की मांग कर रहा है। पहल हो और तत्काल हो। सजा की मूल अवधारणा ही अपराध की पुनरावृत्ति पर रोक से जुड़ी है। अगर भोपाल गैस त्रासदी जैसे फैसले आते रहे तब मौत के सौदागर भयभीत हों तो क्यों? न्याय व्यवस्था के खोखलेपन का फायदा वे उठाते ही रहेंगे।
Sunday, June 6, 2010
एक कुंठा है मोदी का बाल दिवस विरोध!
नहीं, मोदी की यह कोई जिज्ञासा नहीं, राजनीतिक या फिर व्यक्तिगत कुंठा है। विरोध के लिए विरोध है।
गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी में तेज है, जुझारुपन है, सुशासन के पक्ष में समर्पण है, और है संघर्ष का माद्दा। किन्तु जब शब्द व्यक्तिगत कुंठा या सिर्फ राजनीतिक कोहरे से आच्छादित हो जाएं तब ये सारे गुण संदिग्ध हो जाते हैं। पंडित जवाहरलाल नेहरू के जन्मदिन 14 नवंबर को बाल दिवस के रूप में मनाए जाने पर आपत्ति दर्ज करते हुए मोदी ने पूछ डाला है कि बाल दिवस से बच्चों का क्या भला हुआ है? निहायत बचकाना सवाल है ये! साफ है कि मोदी नहीं चाहते कि नेहरू के जन्मदिन को बाल दिवस के रूप में मनाया जाए। अब मोदी से पूछा जाना चाहिए कि उनके इस विरोध का औचित्य क्या है? यह तथ्य सर्वविदित है कि नेहरू को बच्चों से अत्यधिक प्यार था। बच्चे भी उन्हें बहुत प्यार करते थे। इसीलिए कृतज्ञ राष्ट्र ने नेहरू के जन्मदिवस को बाल दिवस का नाम दे दिया। इसमें गलत क्या था? हम अपने महापुरुषों को उनकी पुण्यतिथि पर या फिर बलिदान दिवस पर विभिन्न रूपों में स्मरण किया करते हैं। कृतज्ञ राष्ट्र ने इसे एक परंपरा के रूप में अपनाया है। इसी परंपरा के अंतर्गत डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्मदिन 5 सितंबर को शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है। महात्मा गांधी के जन्म दिन 2 अक्टूबर को अहिंसा दिवस और राजीव गांधी की जयंती 21 मई को बलिदान दिवस के रूप में मनाते हैं। राजनीतिक व विचारधारा के आधार पर विरोध स्वाभाविक है। लोकतंत्र में मतभेद भी होते हैं, मनभेद भी होते हैं। बावजूद इसके दलगत राजनीति महापुरुषों की स्मृति को, सम्मान को प्रभावित नहीं करती। यह हमारे देश की संस्कृति नहीं। नरेंद्र मोदी बाल दिवस पर बच्चों की भलाई पर सवालिया निशान लगाकर उपहास के पात्र बन गए हैं। ऐसे दिवस विशेष पर संबंधित महापुरुष की याद कर उनके आदर्श पर चलने का संकल्प लिया जाता है, प्रतिपादित सुविचारों के अनुसरण का संकल्प दोहराया जाता है। किसी लाभ की अपेक्षा नहीं की जाती। बाल दिवस पर बच्चे अपने चाचा नेहरू की याद कर प्रफुल्लित होते हैं, ज्ञान ग्रहण करते हैं। क्या यह लाभ नहीं? मोदी दलीय आधार पर नेहरू का विरोध करें, यह स्वाभाविक है। उनकी नीतियों का विरोध करें, स्वाभाविक है। किन्तु उनके जन्मदिन को बाल दिवस के रूप में मनाए जाने का विरोध करें, यह अनुचित है। राजनीति में विवाद पैदा कर प्रचार पाने का नुस्खा प्रचलन में है। किन्तु उसके स्तर पर ध्यान दिया जाना चाहिए। मोदी ऐसे मामलों में पहले भी विवादित रहे हैं। डाक्टर आंबेडकर की आलोचना करते हुए एक बार वे कह गए थे कि ''आंबेडकर कोई क्रांतिकारी नहीं थे।ÓÓ इसी प्रकार पिछड़े दलित को मंदबुद्धि बच्चे जैसा निरूपित कर मोदी अपनी कुंठा का परिचय दे चुके हैं। मोदी अपने राज्य गुजरात में सुशासन व विकास के लिए लोकप्रिय हो रहे हैं। बेहतर हो, वे अपनी ऊर्जा इन्हीं पर केंद्रित रखें। बाल दिवस की आलोचना कर खुद को बौना साबित न करें।
गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी में तेज है, जुझारुपन है, सुशासन के पक्ष में समर्पण है, और है संघर्ष का माद्दा। किन्तु जब शब्द व्यक्तिगत कुंठा या सिर्फ राजनीतिक कोहरे से आच्छादित हो जाएं तब ये सारे गुण संदिग्ध हो जाते हैं। पंडित जवाहरलाल नेहरू के जन्मदिन 14 नवंबर को बाल दिवस के रूप में मनाए जाने पर आपत्ति दर्ज करते हुए मोदी ने पूछ डाला है कि बाल दिवस से बच्चों का क्या भला हुआ है? निहायत बचकाना सवाल है ये! साफ है कि मोदी नहीं चाहते कि नेहरू के जन्मदिन को बाल दिवस के रूप में मनाया जाए। अब मोदी से पूछा जाना चाहिए कि उनके इस विरोध का औचित्य क्या है? यह तथ्य सर्वविदित है कि नेहरू को बच्चों से अत्यधिक प्यार था। बच्चे भी उन्हें बहुत प्यार करते थे। इसीलिए कृतज्ञ राष्ट्र ने नेहरू के जन्मदिवस को बाल दिवस का नाम दे दिया। इसमें गलत क्या था? हम अपने महापुरुषों को उनकी पुण्यतिथि पर या फिर बलिदान दिवस पर विभिन्न रूपों में स्मरण किया करते हैं। कृतज्ञ राष्ट्र ने इसे एक परंपरा के रूप में अपनाया है। इसी परंपरा के अंतर्गत डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्मदिन 5 सितंबर को शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है। महात्मा गांधी के जन्म दिन 2 अक्टूबर को अहिंसा दिवस और राजीव गांधी की जयंती 21 मई को बलिदान दिवस के रूप में मनाते हैं। राजनीतिक व विचारधारा के आधार पर विरोध स्वाभाविक है। लोकतंत्र में मतभेद भी होते हैं, मनभेद भी होते हैं। बावजूद इसके दलगत राजनीति महापुरुषों की स्मृति को, सम्मान को प्रभावित नहीं करती। यह हमारे देश की संस्कृति नहीं। नरेंद्र मोदी बाल दिवस पर बच्चों की भलाई पर सवालिया निशान लगाकर उपहास के पात्र बन गए हैं। ऐसे दिवस विशेष पर संबंधित महापुरुष की याद कर उनके आदर्श पर चलने का संकल्प लिया जाता है, प्रतिपादित सुविचारों के अनुसरण का संकल्प दोहराया जाता है। किसी लाभ की अपेक्षा नहीं की जाती। बाल दिवस पर बच्चे अपने चाचा नेहरू की याद कर प्रफुल्लित होते हैं, ज्ञान ग्रहण करते हैं। क्या यह लाभ नहीं? मोदी दलीय आधार पर नेहरू का विरोध करें, यह स्वाभाविक है। उनकी नीतियों का विरोध करें, स्वाभाविक है। किन्तु उनके जन्मदिन को बाल दिवस के रूप में मनाए जाने का विरोध करें, यह अनुचित है। राजनीति में विवाद पैदा कर प्रचार पाने का नुस्खा प्रचलन में है। किन्तु उसके स्तर पर ध्यान दिया जाना चाहिए। मोदी ऐसे मामलों में पहले भी विवादित रहे हैं। डाक्टर आंबेडकर की आलोचना करते हुए एक बार वे कह गए थे कि ''आंबेडकर कोई क्रांतिकारी नहीं थे।ÓÓ इसी प्रकार पिछड़े दलित को मंदबुद्धि बच्चे जैसा निरूपित कर मोदी अपनी कुंठा का परिचय दे चुके हैं। मोदी अपने राज्य गुजरात में सुशासन व विकास के लिए लोकप्रिय हो रहे हैं। बेहतर हो, वे अपनी ऊर्जा इन्हीं पर केंद्रित रखें। बाल दिवस की आलोचना कर खुद को बौना साबित न करें।
Saturday, June 5, 2010
...फिर भी लोकतंत्र जीवित रहेगा!
चाहें तो आप इनकार कर दें, विरोध दर्ज कर दें! देश की वर्तमान राजनीति को बहुत नजदीक से नंगा देखने के बाद मैं मजबूर हूं इस टिप्पणी के लिए कि भारत का लोकतंत्र आज अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है। मैं चर्चा उस लोकतंत्र की कर रहा हूं जिसकी कल्पना देश के कर्णधारों ने की थी, आजादी के बांकुरों ने की थी। मैं चर्चा उस लोकतंत्र की कर रहा हूं जिसमें 'लोक' को सर्वोच्च-सर्वोपरि माना गया था। कल्पना की गई थी कि आजाद लोकतांत्रिक भारत में सर्वाधिकार 'लोक' अर्थात् जनता के पास रहे। अपने भविष्य का निर्णय जनता स्वयं करेगी। हमारा संविधान जन-जन की सुध लेगा। कानून कमजोर तबकों की रक्षा करेगा। एक ऐसा 'समाजवाद' स्थापित होगा जिसमें सभी को समान अधिकार प्राप्त होंगे। कोई शोषित-उपेक्षित नहीं रहेगा। सभी के लिए समान अवसर उपलब्ध रहेंगे। न्याय का तराजू किसी के साथ भेदभाव नहीं करेगा। धर्म, जाति, क्षेत्र की अनेकता के बावजूद एक भारत होगा जहां सिर्फ भारतीय होंगे। कोई भेदभाव नहीं। लेकिन वर्तमान का राजनीतिक सच इन सब अवधारणाओं को ठेंगा दिखा रहा है, झुठला रहा है। लोकतंत्र में वह सब कुछ है सिवाय 'लोक' के। वास्तविक 'लोक' अर्थात् जन शोषित-पीडि़त, असहाय बन अपनी इस नियति पर सौ-सौ आंसू बहा रहा है। और इसके लिए अगर कोई जिम्मेदार है तो राजनीतिक अर्थात् पालिटिशियन्स!
राजनीति में भ्रष्टाचार, मूल्यों के क्षरण, चारित्रिक पतन, झूठ, छल-कपट, विश्वासघात, असहिष्णुता आदि पर एक प्रदेश के मंत्री के साथ लंबी चर्चा हुई। आदतन मैं उदाहरण दे-दे कर इन व्याधियों को रेखांकित कर रहा था। मंत्री महोदय हां में हां मिला रहे थे। बातचीत के बाद जब बाहर निकला तब मेरे साथ गए मेरे सहयोगी ने विनम्रतापूर्वक टिप्पणी की कि ''भाईसाहब, बातें तो आप ठीक कह रहे थे किन्तु किनके सामने? ...ये भी तो उसी जमात के हैं!'' सहयोगी सही थे। यही तो है आज की राजनीति का कड़वा सच।
अछूता कोई भी दल नहीं। व्यक्तिगत स्तर पर अपवाद स्वरूप कुछ हस्ताक्षरों की मौजूदगी अवश्य संभावित है। अभी पिछली रात ही एक क्षेत्रीय दल के बड़े नेता ने अपने सहयोगी बड़े राष्ट्रीय दल के आचरण पर नाराजगी व्यक्त करते हुए टिप्पणी की कि ''विवाह कर पत्नी की तरह रहा जा सकता है, रखैल की तरह नहीं।'' नेताजी नाराज थे कि उक्त बड़े दल ने उनके प्रदेश से एक धन्नासेठ को राज्यसभा के लिए उम्मीदवार बना डाला है। जाहिर है धन्नासेठ उम्मीदवार बने तो अपने 'धन' के बल पर! क्षेत्रीय दल के नेताजी को यह स्वीकार नहीं हुआ। अगले कुछ दिनों में संभवत: वे बड़े दल से संबंध विच्छेद भी कर लेंगे। लेकिन यह सचाई तो कायम रह ही गई कि धनबल का इस्तेमाल माननीय सांसद बनने के लिए हो रहा है। पूरा देश घूम लें। राज्यसभा के द्विवार्षिक चुनाव में आपको धनबल और सिर्फ धनबल का बोलबाला दिखेगा। सरकारी यंत्रणाएं निरीह, विस्मित नेत्रों से मतदाता विधायकों की नीलामी देख रही हैं। विधायक अपनी बोलियां खुद लगवा रहे हैं। करोड़ों में स्वयं को नीलाम करने वाले ऐसे जनप्रतिनिधि क्या लोकतंत्र के प्रतिनिधि हो सकते हैं? इन्हें खरीदने वाले संभावित सांसद संसद में फिर आम जन की आवाज कैसे बन पाएंगे? धन व्यय कर वोट खरीदने वाले तो धन अर्जित करने का ही सोचेंगे! उन लोगों को उपकृत करेंगे जो इनके धनस्रोत हैं! चूंकि ये सब लेनदेन काले धन से होगा, ये सभी भ्रष्टाचार के जनक-पोषक ही तो माने जाएंगे! निश्चय ही ये सभी लोकतंत्र के हत्यारे हैं। लोकतंत्र के नाम पर कलंक हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि आज लोकतंत्र सौ-सौ आंसू रो रहा है अपने अस्तित्व को बचाने के लिए।
अब यक्ष प्रश्न यह कि इस लोकतंत्र की रक्षा कौन करे, कैसे करे? ऐसे अपराधियों की विशाल संख्या को क्या मु_ीभर अपवाद चुनौती दे पाएंगे? मुकाबला कर सकेंगे? मैं समझता हूं, यह संभव है। महात्मा गांधी और जयप्रकाश नारायण रास्ता दिखा चुके हैं। जनबल की आह्लïादकारी निर्णायक भूमिका को 'फायरबैं्रड' ममता बनर्जी ने अभी-अभी रेखांकित किया है। धनबल-बाहुबल को पराजित करने में वे सफल रही हैं। चूंकि लोकतंत्र ही आजाद भारत का 'प्राण' है, देश इसे कभी मरने नहीं देगा।
राजनीति में भ्रष्टाचार, मूल्यों के क्षरण, चारित्रिक पतन, झूठ, छल-कपट, विश्वासघात, असहिष्णुता आदि पर एक प्रदेश के मंत्री के साथ लंबी चर्चा हुई। आदतन मैं उदाहरण दे-दे कर इन व्याधियों को रेखांकित कर रहा था। मंत्री महोदय हां में हां मिला रहे थे। बातचीत के बाद जब बाहर निकला तब मेरे साथ गए मेरे सहयोगी ने विनम्रतापूर्वक टिप्पणी की कि ''भाईसाहब, बातें तो आप ठीक कह रहे थे किन्तु किनके सामने? ...ये भी तो उसी जमात के हैं!'' सहयोगी सही थे। यही तो है आज की राजनीति का कड़वा सच।
अछूता कोई भी दल नहीं। व्यक्तिगत स्तर पर अपवाद स्वरूप कुछ हस्ताक्षरों की मौजूदगी अवश्य संभावित है। अभी पिछली रात ही एक क्षेत्रीय दल के बड़े नेता ने अपने सहयोगी बड़े राष्ट्रीय दल के आचरण पर नाराजगी व्यक्त करते हुए टिप्पणी की कि ''विवाह कर पत्नी की तरह रहा जा सकता है, रखैल की तरह नहीं।'' नेताजी नाराज थे कि उक्त बड़े दल ने उनके प्रदेश से एक धन्नासेठ को राज्यसभा के लिए उम्मीदवार बना डाला है। जाहिर है धन्नासेठ उम्मीदवार बने तो अपने 'धन' के बल पर! क्षेत्रीय दल के नेताजी को यह स्वीकार नहीं हुआ। अगले कुछ दिनों में संभवत: वे बड़े दल से संबंध विच्छेद भी कर लेंगे। लेकिन यह सचाई तो कायम रह ही गई कि धनबल का इस्तेमाल माननीय सांसद बनने के लिए हो रहा है। पूरा देश घूम लें। राज्यसभा के द्विवार्षिक चुनाव में आपको धनबल और सिर्फ धनबल का बोलबाला दिखेगा। सरकारी यंत्रणाएं निरीह, विस्मित नेत्रों से मतदाता विधायकों की नीलामी देख रही हैं। विधायक अपनी बोलियां खुद लगवा रहे हैं। करोड़ों में स्वयं को नीलाम करने वाले ऐसे जनप्रतिनिधि क्या लोकतंत्र के प्रतिनिधि हो सकते हैं? इन्हें खरीदने वाले संभावित सांसद संसद में फिर आम जन की आवाज कैसे बन पाएंगे? धन व्यय कर वोट खरीदने वाले तो धन अर्जित करने का ही सोचेंगे! उन लोगों को उपकृत करेंगे जो इनके धनस्रोत हैं! चूंकि ये सब लेनदेन काले धन से होगा, ये सभी भ्रष्टाचार के जनक-पोषक ही तो माने जाएंगे! निश्चय ही ये सभी लोकतंत्र के हत्यारे हैं। लोकतंत्र के नाम पर कलंक हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि आज लोकतंत्र सौ-सौ आंसू रो रहा है अपने अस्तित्व को बचाने के लिए।
अब यक्ष प्रश्न यह कि इस लोकतंत्र की रक्षा कौन करे, कैसे करे? ऐसे अपराधियों की विशाल संख्या को क्या मु_ीभर अपवाद चुनौती दे पाएंगे? मुकाबला कर सकेंगे? मैं समझता हूं, यह संभव है। महात्मा गांधी और जयप्रकाश नारायण रास्ता दिखा चुके हैं। जनबल की आह्लïादकारी निर्णायक भूमिका को 'फायरबैं्रड' ममता बनर्जी ने अभी-अभी रेखांकित किया है। धनबल-बाहुबल को पराजित करने में वे सफल रही हैं। चूंकि लोकतंत्र ही आजाद भारत का 'प्राण' है, देश इसे कभी मरने नहीं देगा।
Friday, June 4, 2010
झूठ बोला था, झूठ बोल रहे हैं
आईपीएल नीलामी और शरद पवार से जुड़े सनसनीखेज नए खुलासे के बाद भी पवार का अपने पुराने कथन पर अडिग रहना चोरी और सीनाजोरी का शर्मनाक मंचन ही तो है! वैसे अब कोई किसी राजनीतिक (पालिटिशियन) से सचाई, ईमानदारी, नैतिकता की अपेक्षा भी नहीं करता। लेकिन जब देश के शासक बने बैठे ये लोग हर दिन बेशर्मी के साथ झूठ, बेइमानी, छल-फरेब के पाले में दिखें तब इन पर अंकुश तो लगाना ही होगा। अन्यथा एक दिन ये पूरे देश को ही नीलाम कर डालेंगे। अगर इन्हें बेलगाम छोड़ दिया गया तो ये देश के अस्तित्व के लिए ही खतरा बन जाएंगे।
ताजा खुलासे के अनुसार आईपीएल की पुणे फे्रंचाइजी के लिए सिटी कार्पोरेशन की ओर से इसके प्रबंध निदेशक ने बोली लगाई थी। सिटी कार्पोरेशन में केंद्रीय कृषि मंत्री शरद पवार, उनकी पत्नी और बेटी की हिस्सेदारी है। क्या यह इस बात को प्रमाणित नहीं करता कि आईपीएल की पुणे फे्रंचाइजी की बोली में पवार और उनके परिवार के सदस्य परोक्ष रूप से शामिल थे? लेकिन पवार पहले की तरह अब भी यही राग अलाप रहे हैं कि आईपीएल से उनका और उनके परिवार का कोई लेना-देना नहीं है। पिछले अपै्रल माह में भी पवार और उनके परिवार की ओर से ऐसा ही दावा किया गया था। अब नए खुलासे के बाद कंपनी के प्रबंध निदेशक से कहलवाया जा रहा है कि फें्रचाइजी के लिए कंपनी की ओर से बोली लगाने का फैसला उनका निजी था, कंपनी के किसी अन्य डाइरेक्टर का इससे कोई संबंध नहीं। प्रबंध निदेशक अनिरुद्ध देशपांडे सहमे हुए भाव में, देश की जनता की समझ को चुनौती देते हुए, बता रहे हैं कि उन्हें व्यक्तिगत रूप से फ्रेंचाइजी की बोली लगानी थी किन्तु टेंडर प्राप्ति की तिथि बीत जाने के कारण वे ऐसा नहीं कर पाए। अत: उन्होंने कंपनी के नाम से पहले लिए गए टेंडर पेपर का इस्तेमाल किया। क्या देशपांडे के इस तर्क पर आप विश्वास करेंगे? कोई बेवकूफ भी नहीं करेगा। अगर सिटी कार्पोरेशन की दिलचस्पी बोली में नहीं थी तब पहले टेंडर पेपर क्यों खरीदे गए थे? क्या कोई कंपनी अपने नाम पर जारी टेंडर पेपर का इस्तेमाल किसी निजी व्यक्ति को करने के लिए दे सकती है? क्या नीलाम करने वाली संस्था, इस मामले में आईपीएल, किसी दूसरे के नाम पर जारी टेंडर पेपर का इस्तेमाल करने की अनुमति किसी तीसरी पार्टी को दे सकती है? जाहिर है कि सिटी कार्पोरेशन के प्रबंध निदेशक अनिरुद्ध देशपांडे, केंद्रीय कृषि मंत्री शरद पवार को बचाने की कोशिश कर रहे हैं। कारण स्पष्ट है। अगर थोड़ी देर के लिए देशपांडे की बात को सच मान लिया जाए तब क्या वे बताएंगे कि जब अप्रैल माह में पवार व उनके परिवार पर आरोप लगे थे, तब उन्होंने ऐसी सफाई क्यों नहीं दी थी? तब वे मौन क्यों रह गए थे? आज जब अंग्रेजी दैनिक 'टाइम्स ऑफ इंडिया' ने सिटी कार्पोरेशन में शरद पवार और उनके परिवार के सदस्यों के शेयर होने की बात का खुलासा किया, हंगामा बरपा, तब उन्होंने मुंह क्यों खोला? तब शरद पवार और उनकी सांसद बेटी सुप्रिया सुले ने भी आईपीएल नीलामी से किसी भी तरह के जुड़ाव से साफ इन्कार किया था। अब पवार अपने 'पावर' का इस्तेमाल कर चाहे तो मामले को एक बार फिर दफनाने में सफल हो जाएं किन्तु देश ने उनके झूठ को पकड़ लिया है। राजनीति में नवअंकुरित अपनी बेटी सुप्रिया को भी अपने झूठ में शामिल कर पवार ने राजनीति में नैतिकता के पतन का एक अशोभनीय, निंदनीय प्रमाण पेश कर डाला है। देश के प्रधानमंत्री पद के दावेदार का ऐसा आचरण!
ताजा खुलासे के अनुसार आईपीएल की पुणे फे्रंचाइजी के लिए सिटी कार्पोरेशन की ओर से इसके प्रबंध निदेशक ने बोली लगाई थी। सिटी कार्पोरेशन में केंद्रीय कृषि मंत्री शरद पवार, उनकी पत्नी और बेटी की हिस्सेदारी है। क्या यह इस बात को प्रमाणित नहीं करता कि आईपीएल की पुणे फे्रंचाइजी की बोली में पवार और उनके परिवार के सदस्य परोक्ष रूप से शामिल थे? लेकिन पवार पहले की तरह अब भी यही राग अलाप रहे हैं कि आईपीएल से उनका और उनके परिवार का कोई लेना-देना नहीं है। पिछले अपै्रल माह में भी पवार और उनके परिवार की ओर से ऐसा ही दावा किया गया था। अब नए खुलासे के बाद कंपनी के प्रबंध निदेशक से कहलवाया जा रहा है कि फें्रचाइजी के लिए कंपनी की ओर से बोली लगाने का फैसला उनका निजी था, कंपनी के किसी अन्य डाइरेक्टर का इससे कोई संबंध नहीं। प्रबंध निदेशक अनिरुद्ध देशपांडे सहमे हुए भाव में, देश की जनता की समझ को चुनौती देते हुए, बता रहे हैं कि उन्हें व्यक्तिगत रूप से फ्रेंचाइजी की बोली लगानी थी किन्तु टेंडर प्राप्ति की तिथि बीत जाने के कारण वे ऐसा नहीं कर पाए। अत: उन्होंने कंपनी के नाम से पहले लिए गए टेंडर पेपर का इस्तेमाल किया। क्या देशपांडे के इस तर्क पर आप विश्वास करेंगे? कोई बेवकूफ भी नहीं करेगा। अगर सिटी कार्पोरेशन की दिलचस्पी बोली में नहीं थी तब पहले टेंडर पेपर क्यों खरीदे गए थे? क्या कोई कंपनी अपने नाम पर जारी टेंडर पेपर का इस्तेमाल किसी निजी व्यक्ति को करने के लिए दे सकती है? क्या नीलाम करने वाली संस्था, इस मामले में आईपीएल, किसी दूसरे के नाम पर जारी टेंडर पेपर का इस्तेमाल करने की अनुमति किसी तीसरी पार्टी को दे सकती है? जाहिर है कि सिटी कार्पोरेशन के प्रबंध निदेशक अनिरुद्ध देशपांडे, केंद्रीय कृषि मंत्री शरद पवार को बचाने की कोशिश कर रहे हैं। कारण स्पष्ट है। अगर थोड़ी देर के लिए देशपांडे की बात को सच मान लिया जाए तब क्या वे बताएंगे कि जब अप्रैल माह में पवार व उनके परिवार पर आरोप लगे थे, तब उन्होंने ऐसी सफाई क्यों नहीं दी थी? तब वे मौन क्यों रह गए थे? आज जब अंग्रेजी दैनिक 'टाइम्स ऑफ इंडिया' ने सिटी कार्पोरेशन में शरद पवार और उनके परिवार के सदस्यों के शेयर होने की बात का खुलासा किया, हंगामा बरपा, तब उन्होंने मुंह क्यों खोला? तब शरद पवार और उनकी सांसद बेटी सुप्रिया सुले ने भी आईपीएल नीलामी से किसी भी तरह के जुड़ाव से साफ इन्कार किया था। अब पवार अपने 'पावर' का इस्तेमाल कर चाहे तो मामले को एक बार फिर दफनाने में सफल हो जाएं किन्तु देश ने उनके झूठ को पकड़ लिया है। राजनीति में नवअंकुरित अपनी बेटी सुप्रिया को भी अपने झूठ में शामिल कर पवार ने राजनीति में नैतिकता के पतन का एक अशोभनीय, निंदनीय प्रमाण पेश कर डाला है। देश के प्रधानमंत्री पद के दावेदार का ऐसा आचरण!
Thursday, June 3, 2010
धनबल-बाहुबल के मुकाबले जनबल!
स्वस्थ लोकतंत्र के एक अत्यंत ही सुखद घटनाक्रम पर ध्यान दिया आपने? जी हाँ, मैं चर्चा कर रहा हूं पश्चिम बंगाल के स्थानीय निकाय के चुनाव परिणाम की। वहां सिर्फ चुनाव में हार-जीत की स्थापित परंपरा आगे नहीं बढ़ी है। लोकतंत्र का एक मजबूत पक्ष उभरकर सामने आया है। एक ऐसा पक्ष जिसकी प्रतीक्षा पिछले साठ वर्षों से हमारा लोकतंत्र करता आया है। कहने को तो प्राय: प्रत्येक राजनीतिक दल भी प्रतीक्षारत रहे हैं। किंतु कड़वा सच यह कि गंभीरता तो दूर किसी ने दिल से प्रतीक्षा नहीं की। यहां तक कि संसद में भी तत्संबंधी संकल्प पारित किये गये, किंतु सिर्फ दिखावे के लिये। कभी भी संकल्प को मूर्त रूप देने की कोशिश नहीं की गई। जी, मैं चुनाव में धनबल और बाहुबल की मौजूदगी की बातें कर रहा हूं। लोकतंत्र के नाम पर कलंक ये दोनों 'बल' वयस्क मताधिकार की मूल अवधारणा को लगभग समाप्त कर चुके हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि आज संसद और विधानसभाओं में जनप्रतिनिधि के रूप में अनेक दागदार उपस्थिति दर्ज करा चुके हंै। इनके खिलाफ भाषण होते हैं, लेख लिखे जाते हैं, किंतु सब व्यर्थ! ऐसे दागदारों की संख्या दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। विरोध करनेवाले नदारद हैं। ऐसी दु:स्थिति के बीच तृणमुल कांग्रेस की ममता बॅनर्जी आशा की किरण बनकर उभरी हंै। जी हां, ममता ने यह जता दिया कि दृढ़ इच्छाशक्ति के साथ धनबल, बाहुबल पर काबू पाया जा सकता है। पश्चिम बंगाल निकाय चुनाव में वामपंथी दलों ने इन बलों का खुलकर इस्तेमाल किया था। लगभग तीन दशक से निरंतर सत्ता में रहने वाले वामपंथी दल साम, दाम, दंड, भेद के साथ चुनाव मैदान में उतरते आये हैं। मतदाता को अपने पक्ष में प्रभावित करने के लिए ये लोग मर्यादा भंग करने में सदैव आगे रहे हैं। नाराज मतदाता को प्रताडि़त करने की लंबी फेहरिस्त है। लेकिन अब तक इन्हें निर्णायक अथवा प्रभावी चुनौती कोई दल नहीं दे सका। एक समय था जब प्रियरंजन दास मुंशी, सोमेन मित्रा, सुब्रतो मुखर्जी, राजेश खेतान आदि कांगे्रस के युवा तुर्क के रुप में उभर वामदलों के खिलाफ सक्रिय हुए थे। लेकिन कांग्रेस की युवा चौकड़ी दलीय गुटबाजी के कारण वामदलों के लिये गंभीर चुनौती नहीं बन सकी। वामदल मुक्त खेलते रहे। लेकिन कांग्रेस से अलग हुई ममता बॅनर्जी ने वामदलों के खिलाफ मोर्चा खोला, जेहाद बोल दिया। पिछला लोकसभा चुनाव और अब स्थानीय निकाय चुनाव, धनबल-बाहूबल को ममता बॅनर्जी ने जनबल से मात दिया है। ममता ने यह प्रमाणित कर दिया कि लोकतंत्र में सर्वोच्च ''लोक'' अर्थात 'जन ' ही है। लेकिन इस बल का समर्थन किसी व्यक्ति अथवा दल को तभी मिलता है जब वह हर स्वार्थ ,प्रलोभन से दूर जनता के साथ खड़ा रहे। ममता बॅनर्जी ने ऐसा कर दिखाया है। नतीजा सामने है। वामदलों अर्थात सत्ता का कोई भी हथकंडा काम नहीं आया। जनता ने ममता का साथ दिया, वे विजयी रहीं। लोकतंत्र के भविष्य के लिये यह एक सुखद संकेत है। और संदेश है अन्य राजनीतिक दलों को कि वे लोकतंत्र के पवित्रता की रक्षा के लिये सिर्फ ''लोक'' का सहारा लें। धनबल-बाहुबल के मुकाबले जनबल को अपना सुरक्षा कवच बनायें। लेकिन ममता बॅनर्जी के लिये भी एक परामर्श! उनका यह कथन कि ''लड़ाई,लड़ाई होती है, दुश्मनी में दोस्ती नहीं''। आंशिक रुप से स्वीकार्य है। ममताजी! दुश्मनी में दोस्ती करके देखें। आपके पांव स्थानीय निकाय से आगे बढ़ विधानभवन तक पहुंच ही जायेंगे।
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