अगर ममता बनर्जी के आरोप में दम है तब राजनीति के इस घिनौने पक्ष को तत्काल मौत दे दी जाए। विलंब की स्थिति में निर्दोष और आम लोगों के खून से हमारी धरती लाल होती रहेगी, इतिहास बदरंग हो जाएगा। सत्ता की राजनीति करने वाले छल-कपट, जातीयता, साम्प्रदायिकता, क्षेत्रीयता और धनबल-बाहुबल का इस्तेमाल करते रहे हैं। ये आचरण अब आश्चर्य पैदा नहीं करते। सत्ता में बने रहने के लिए अदालती आदेश को धता बता एक प्रधानमंत्री देश को आपातकाल के हवाले कर चुकी हैं। एक राष्ट्रीय दल सत्ता में बने रहने के लिए एक वैसे क्षेत्रीय दल के साथ सत्ता में भागीदारी करता है जिसे पूर्व में वह अपने नेता की हत्या का षडय़ंत्रकारी निरूपित कर चुका होता है। यह सत्ता की अवसरवादी राजनीति ही है जिसने लालू प्रसाद यादव, शिबू सोरेन, मधु कोडा, सुखराम, मायावती आदि को फलने-फूलने दिया। क्वात्रोची और नीरा राडिया जैसे दलाल पैदा हुए। किंतु ताजा दृष्टांत स्तब्धकारी है।
रेलमंत्री ममता बनर्जी का आरोप है कि झाडग़्राम रेल हादसा वस्तुत: एक राजनीतिक साजिश की परिणति है। तो क्या लगभग 150 निर्दोष लोग राजनीतिक स्वार्थवश मौत की नींद सुला दिए गए? ममता बनर्जी कुछ ऐसा ही मानती हैं। अब यह पता लगाया जाना जरूरी है कि साजिशकर्ता कौन हैं! अगर सिर्फ 'राजनीति' के लिए ममता बनर्जी ऐसी आशंका प्रकट कर रही हैं तब वे स्वयं एक गलत आचरण की दोषी मानी जाएंगी। हालांकि उन्होंने सीधे तौर पर नाम नहीं लिया लेकिन उनका इशारा निश्चय ही पश्चिम बंगाल में सत्तारूढ़ वामपंथियों की ओर है। चूंकि आरोप ममता बनर्जी लगा रही हैं, प्रमाण उन्हें ही देना होगा। वामपंथी तो आरोप को खारिज करेंगे ही। विस्फोट कर निर्दोषों को मौत देने की घटना देशद्रोह की श्रेणी की है। इसे बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) ने इसकी जांच करने की पहल की है, इसका स्वागत है। लेकिन शर्त यह कि जांच पूर्णत: निष्पक्ष हो। सीबीआई के दुरुपयोग पर इन दिनों बहस जारी है। अगर सीबीआई की जांच भी राजनीति प्रेरित हो गई तब जो झूठ सच बनकर सामने आएगा, उस पर भला कोई कैसे विश्वास करेगा? एक और विस्मयकारी तथ्य! रेलमंत्री तो माओवादियों को निशाने पर लेने का संकेत दे रही हैं। राज्य के आला पुलिस अधिकारी दुर्घटनास्थल के आसपास माओवादियों की मौजूदगी की बातें कर रहे हैं। तब फिर रेलवे की ओर से जो एफआईआर दर्ज कराई गई उसमें माओवादियों का जिक्र क्यों नहीं है? क्या यह आश्चर्यजनक नहीं है? एफआईआर में इसे साधारण तोडफ़ोड़ की घटना निरूपित किया जाना अनेक शंकाओं को जन्म दे रहा है। बहरहाल मैं चाहूंगा कि पूरी घटना की निष्पक्ष जांच तो हो ही, सभी राजनीतिक दल व संगठन अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए निर्दोष लोगों की बलि लेने से परहेज करें।
Monday, May 31, 2010
Sunday, May 30, 2010
नीतीश और बिहार पर सार्थक बहस
'नीतीश का बिहार , नीतीश के पत्रकार' में बिहार की वर्तमान पत्रकारिता पर की गई मेरी टिप्पणी पर अनेक प्रतिक्रियाएं मिली हैं। विभिन्न ब्लॉग्स पर भी टिप्पणियां की जा रहीं हैं। कुछ सहमत हैं, कुछ असहमत हैं। एक स्वस्थ- जागरूक समाज में ऐसी बहस सुखद है। लेकिन मेरी टिप्पणी से उत्पन्न भ्रम को मैं दूर करना चाहूंगा।
अव्वल तो मैं यह बता दूं कि अपने आलेख में मैंने कहीं भी बिहार अथवा नीतीश कुमार की आलोचना विकास के मुद्दे पर नहीं की है। मेरी आपत्ति उन पत्रकारों के आचरण पर है जो कथित रुप से सच पर पर्दा डाल एकपक्षीय समाचार दे रहें हैं या विश्लेषण कर रहें हैं। कथित इसलिए कि मेरा पूरा का पूरा आलेख एक पत्रकार मित्र द्वारा दी गई जानकारी पर आधारित था । अगर वह जानकारी गलत है तो मैं अपने पूरे शब्द वापस लेने को तैयार हूं। और अगर सच है तब पत्रकारिता के उक्त कथित पतन पर व्यापक बहस चाहूंगा। उक्त मित्र के अलावा अनेक पत्रकारों सहित विभिन्न क्षेत्रों के लोगों ने भी मुख्यमंत्री नीतीश कुमार द्वारा पत्रकारों को प्रलोभन के जाल में फांस लेने की जानकारियां दी हैं। मेरे आलेख पर विभिन्न ब्लॉग्स में ऐसी टिप्पणियां भी आ रहीं हैं। फिर दोहरा दूं, अगर पत्रकारों के संबंध में आरोप सही हैं तब उनकी आलोचना होनी ही चाहिए।
'उसका सच' ब्लॉग पर भाई सुरेंद्र किशोरजी का साक्षात्कार पढ़ा। सुरेंद्र किशोरजी मेरे पुराने मित्र हैं। उनकी पत्रकारीय ईमानदारी को कोई चुनौती नहीं दे सकता। ठीक उसी प्रकार जैसे नीतीश कुमार की व्यक्तिगत ईमानदारी पर कोई सवाल खड़ा नहीं किया जा सकता। सुरेंद्रजी की बातों पर अविश्वास नहीं किया जा सकता लेकिन अगर पत्रकारों को प्रलोभन और प्रताडि़त किए जाने की बात प्रमाणित होती हैं तब निश्चय मानिए, सुरेंद्र किशोरजी उनका समर्थन नहीं करेंगे।
किसी ने टिप्पणी की है कि मैं नागपुर में रहकर राज ठाकरे की भाषा बोलने लगा हूं। उन्हें मैं क्षमा करता हूं कि निश्चय ही मेरे पाश्र्व की जानकारी नहीं होने के कारण उन्होंने टिप्पणी की होगी। मेरे ब्लॉग के आलेख पढ़ लें तो उन्हें मालूम हो जाएगा कि राज ठाकरे सहित ठाकरे परिवार पर मैं क्या लिखता आया हूं। 1991 में, जब उन दिनों बाल ठाकरे के खिलाफ लिखने की हिम्मत शायद ही कोई करता था, मैंने अपने स्तंभ में 'नामर्द' शीर्षक के अंतर्गत उनकी तीखी आलोचना की थी। क्योंकि तब शिवसैनिकों ने मुंबई में पत्रकारों के मोर्चे पर हथियारों के साथ हमला बोला था। पत्रकार मणिमाला पर घातक हथियार से हमला बोला गया था। मेरी टिप्पणी से क्रोधित दर्जनों शिवसैनिकों ने मेरे आवास पर हमला बोल दिया था। आज भी उत्तर भारतीयों के खिलाफ राज ठाकरे के घृणित अभियान पर कड़ी टिप्पणियों के लिए मुझे जाना जाता है।
सभी जान लें, बिहार की छवि और विकास की चिंता मुझे किसी और से कम नहीं है। हां, अगर अपनी बिरादरी अर्थात पत्रकार बिकाऊ दिखेंगे तब उन पर भी मेरी कलम विरोध स्वरुप चलेगी ही। लालूप्रसाद यादव का उल्लेख मैंने जिस संदर्भ में किया है उस पर बहस जरूरी है। लालू ने पत्रकारीय मूल्य को चुनौती दी है। उन्हें जवाब तो देना ही होगा।
अव्वल तो मैं यह बता दूं कि अपने आलेख में मैंने कहीं भी बिहार अथवा नीतीश कुमार की आलोचना विकास के मुद्दे पर नहीं की है। मेरी आपत्ति उन पत्रकारों के आचरण पर है जो कथित रुप से सच पर पर्दा डाल एकपक्षीय समाचार दे रहें हैं या विश्लेषण कर रहें हैं। कथित इसलिए कि मेरा पूरा का पूरा आलेख एक पत्रकार मित्र द्वारा दी गई जानकारी पर आधारित था । अगर वह जानकारी गलत है तो मैं अपने पूरे शब्द वापस लेने को तैयार हूं। और अगर सच है तब पत्रकारिता के उक्त कथित पतन पर व्यापक बहस चाहूंगा। उक्त मित्र के अलावा अनेक पत्रकारों सहित विभिन्न क्षेत्रों के लोगों ने भी मुख्यमंत्री नीतीश कुमार द्वारा पत्रकारों को प्रलोभन के जाल में फांस लेने की जानकारियां दी हैं। मेरे आलेख पर विभिन्न ब्लॉग्स में ऐसी टिप्पणियां भी आ रहीं हैं। फिर दोहरा दूं, अगर पत्रकारों के संबंध में आरोप सही हैं तब उनकी आलोचना होनी ही चाहिए।
'उसका सच' ब्लॉग पर भाई सुरेंद्र किशोरजी का साक्षात्कार पढ़ा। सुरेंद्र किशोरजी मेरे पुराने मित्र हैं। उनकी पत्रकारीय ईमानदारी को कोई चुनौती नहीं दे सकता। ठीक उसी प्रकार जैसे नीतीश कुमार की व्यक्तिगत ईमानदारी पर कोई सवाल खड़ा नहीं किया जा सकता। सुरेंद्रजी की बातों पर अविश्वास नहीं किया जा सकता लेकिन अगर पत्रकारों को प्रलोभन और प्रताडि़त किए जाने की बात प्रमाणित होती हैं तब निश्चय मानिए, सुरेंद्र किशोरजी उनका समर्थन नहीं करेंगे।
किसी ने टिप्पणी की है कि मैं नागपुर में रहकर राज ठाकरे की भाषा बोलने लगा हूं। उन्हें मैं क्षमा करता हूं कि निश्चय ही मेरे पाश्र्व की जानकारी नहीं होने के कारण उन्होंने टिप्पणी की होगी। मेरे ब्लॉग के आलेख पढ़ लें तो उन्हें मालूम हो जाएगा कि राज ठाकरे सहित ठाकरे परिवार पर मैं क्या लिखता आया हूं। 1991 में, जब उन दिनों बाल ठाकरे के खिलाफ लिखने की हिम्मत शायद ही कोई करता था, मैंने अपने स्तंभ में 'नामर्द' शीर्षक के अंतर्गत उनकी तीखी आलोचना की थी। क्योंकि तब शिवसैनिकों ने मुंबई में पत्रकारों के मोर्चे पर हथियारों के साथ हमला बोला था। पत्रकार मणिमाला पर घातक हथियार से हमला बोला गया था। मेरी टिप्पणी से क्रोधित दर्जनों शिवसैनिकों ने मेरे आवास पर हमला बोल दिया था। आज भी उत्तर भारतीयों के खिलाफ राज ठाकरे के घृणित अभियान पर कड़ी टिप्पणियों के लिए मुझे जाना जाता है।
सभी जान लें, बिहार की छवि और विकास की चिंता मुझे किसी और से कम नहीं है। हां, अगर अपनी बिरादरी अर्थात पत्रकार बिकाऊ दिखेंगे तब उन पर भी मेरी कलम विरोध स्वरुप चलेगी ही। लालूप्रसाद यादव का उल्लेख मैंने जिस संदर्भ में किया है उस पर बहस जरूरी है। लालू ने पत्रकारीय मूल्य को चुनौती दी है। उन्हें जवाब तो देना ही होगा।
भाजपा नेताओं का यह कैसा दीवानापन!
''तेरे दीवानों का कम होगा
अब ना दीवानापन
ऐ वतन, मेरे वतन,
अच्छे वतन, प्यारे वतन।''
कभी एजाज सिद्दीकी के इन शब्दों को अपने होंठों पर निरंतर सम्मान देने वाले भाजपा के कतिपय नेताओं को अब हो क्या गया है?अनुशासन के नाम पर या फिर तथाकथित छवि के नाम पर स्वनामधन्य नेता भले ही स्वीकार न करें किंतु यह सच चीख-चीख कर अपनी उपस्थिति दर्ज कर रहा है कि भारतीय जनता पार्टी के अंत:पुर में खड़ी हर दीवार में साजिश की इबारत लिखी जा रही है! कभी अनुशासन और मूल्य आधारित राजनीति की प्रतीक के रूप में सुख्यात इस पार्टी के बुजुर्ग नेतागण स्वर्णिम 'दल-इतिहास' को तोड़ कलंक और साजिश का नया इतिहास लिखने पर उतारू हैं। देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के साथ सैद्धांतिक- वैचारिक मतभेद के कारण मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे भारतीय जनसंघ (अब भारतीय जनता पार्टी) की स्थापना करने वाले डा. श्यामाप्रसाद मुखर्जी की अब भला यह नेता याद क्यों करें? दूसरों से भिन्न पार्टी का दावा करते रहे इन नेताओं ने वस्तुत: उस कांग्रेस संस्कृति का वरण कर लिया है जिसकी आलोचना ये पानी पी-पी कर करते रहे हैं। फिर क्या आश्चर्य कि जिस भाजपा को देश की जनता ने कांग्रेस के विकल्प के रूप में सम्मान दिया उसी भाजपा के शीर्ष नेतागण आज भाजपा की मिट्टी पलीद करने पर आमादा हैं!
झारखंड की घटनाएं इसकी पुष्टि कर रही हैं। इन नेताओं के अहम्ï और निजी स्वार्थ ने ही भाजपा को आराम से चल रही राज्य सरकार से अलग होने पर मजबूर कर दिया। हां! झारखंड और भाजपा का सच यही है।
ज्यादा विस्तार में जाने की जरूरत नहीं! पूरे घटनाक्रम का लब्बो-लुबाब यह कि अपेक्षाकृत युवा, तेज तर्रार, सांगठनिक क्षमता के धनि, दूरदृष्टिधारक, कर्मठ, नितिन गडकरी को ये नेता पार्टी के सफल अध्यक्ष के रूप में स्थापित नहीं होने देना चाहते। पूरे घटना विकास क्रम को अत्यंत निकट से देखने के पश्चात मैं इसी निष्कर्ष पर पहुंचा हूं। झारखंड में इन लोगों ने पार्टी को सिर्फ सत्ता से ही अलग नहीं किया, प्रदेश में पार्टी को आम जनता की नजरों में गिरा डाला। इतना कि अगले चुनाव में पार्टी को सीटों की संख्या के लिए नहीं बल्कि अपने अस्तित्व की रक्षा की लड़ाई लडऩी होगी। और यह सब किया गया पार्टी अध्यक्ष गडकरी की छवि को धूमिल करने के लिए। यह भूलकर कि उनका यह षडय़ंत्र अंतत: पूरी पार्टी अर्थात्ï उनके लिए भी आत्मघाती सिद्ध होगा। सभी को साथ लेकर चलने की उदार गडकरी नीति को इन लोगों ने गडकरी की कमजोरी मान लिया। सो षडय़ंत्र रचे गए गडकरी को नीचा दिखाने के लिए। गडकरी को ये क्या रिपोर्ट देते हैं, इसकी जानकारी तो नहीं, आम जनता में फैल रहे संदेश की जानकारी है। संदेश यह फैला है कि, कथित बड़े नेता पार्टी के अस्तित्व की कीमत पर ही सही अध्यक्ष के रूप में गडकरी को सफल होते देखना नहीं चाहते। इसी वर्ष झारखंड के पड़ोसी बिहार में विधानसभा चुनाव होने हैं। भाजपा वहां जद (यू) के साथ गठबंधन सरकार में शामिल है। अगर झारखंड के 'कलंक' को धोया नहीं गया, तब शायद भाजपा को वहां वर्तमान विधायकों की संख्या को बचाए रखना मुश्किल होगा। चुनावी पंडितों की मानें तो वर्तमान के 55 में से अधिकांश सीटों पर उसे नुकसान का मुंह देखना होगा। जातिरोग से पीडि़त बिहार का वर्तमान राजनीतिक सच अत्यंत ही कड़वा है। जद (यू) के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार मौके की तलाश में हैं। भाजपा में प्रदेश स्तर पर परस्पर विरोधी अनेक गुट सक्रिय हैं। भाजपा के पूर्व राष्ट्रीय नेतृत्व के वफादार वहां भी गडकरी की छवि को धूमिल करने की दिशा में प्रयत्नशील हैं। अगर चुनाव परिणाम पार्टी की अपेक्षा के प्रतिकूल गया तब षडय़ंत्रकारी गडकरी के खिलाफ मुखर हो उठेंगे। इन संभावनाओं के बीच यक्षप्रश्न यह कि क्या नितिन गडकरी यह सब कुछ घटित होते देखते रहेंगे? पूरे मामले का सुखद पहलू यह अवश्य है कि षडय़ंत्रकारी नेताओं से अलग पार्टी कार्यकर्ता नये अध्यक्ष नितिन गडकरी के साथ हैं। फिर क्यों नहीं गडकरी कार्यकर्ताओं की विशाल फौज की कमान सीधे अपने हाथ में ले लेते? नेताओं के तुष्टीकरण का प्रयास अब वे छोड़ दें। कार्यकर्ताओं से सीधे संवाद स्थापित करें। नेतृत्व करें उनका! उनका मनोबल बढ़ाएं। इंदौर सम्मेलन में दिये गये अपने उद्बोधन को याद करें। कार्यकर्ताओं का उत्साह हिलोरें मारने लगेगा। और तब साजिश की दीवारें स्वत: ध्वस्त हो जाएंगी।
अब ना दीवानापन
ऐ वतन, मेरे वतन,
अच्छे वतन, प्यारे वतन।''
कभी एजाज सिद्दीकी के इन शब्दों को अपने होंठों पर निरंतर सम्मान देने वाले भाजपा के कतिपय नेताओं को अब हो क्या गया है?अनुशासन के नाम पर या फिर तथाकथित छवि के नाम पर स्वनामधन्य नेता भले ही स्वीकार न करें किंतु यह सच चीख-चीख कर अपनी उपस्थिति दर्ज कर रहा है कि भारतीय जनता पार्टी के अंत:पुर में खड़ी हर दीवार में साजिश की इबारत लिखी जा रही है! कभी अनुशासन और मूल्य आधारित राजनीति की प्रतीक के रूप में सुख्यात इस पार्टी के बुजुर्ग नेतागण स्वर्णिम 'दल-इतिहास' को तोड़ कलंक और साजिश का नया इतिहास लिखने पर उतारू हैं। देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के साथ सैद्धांतिक- वैचारिक मतभेद के कारण मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे भारतीय जनसंघ (अब भारतीय जनता पार्टी) की स्थापना करने वाले डा. श्यामाप्रसाद मुखर्जी की अब भला यह नेता याद क्यों करें? दूसरों से भिन्न पार्टी का दावा करते रहे इन नेताओं ने वस्तुत: उस कांग्रेस संस्कृति का वरण कर लिया है जिसकी आलोचना ये पानी पी-पी कर करते रहे हैं। फिर क्या आश्चर्य कि जिस भाजपा को देश की जनता ने कांग्रेस के विकल्प के रूप में सम्मान दिया उसी भाजपा के शीर्ष नेतागण आज भाजपा की मिट्टी पलीद करने पर आमादा हैं!
झारखंड की घटनाएं इसकी पुष्टि कर रही हैं। इन नेताओं के अहम्ï और निजी स्वार्थ ने ही भाजपा को आराम से चल रही राज्य सरकार से अलग होने पर मजबूर कर दिया। हां! झारखंड और भाजपा का सच यही है।
ज्यादा विस्तार में जाने की जरूरत नहीं! पूरे घटनाक्रम का लब्बो-लुबाब यह कि अपेक्षाकृत युवा, तेज तर्रार, सांगठनिक क्षमता के धनि, दूरदृष्टिधारक, कर्मठ, नितिन गडकरी को ये नेता पार्टी के सफल अध्यक्ष के रूप में स्थापित नहीं होने देना चाहते। पूरे घटना विकास क्रम को अत्यंत निकट से देखने के पश्चात मैं इसी निष्कर्ष पर पहुंचा हूं। झारखंड में इन लोगों ने पार्टी को सिर्फ सत्ता से ही अलग नहीं किया, प्रदेश में पार्टी को आम जनता की नजरों में गिरा डाला। इतना कि अगले चुनाव में पार्टी को सीटों की संख्या के लिए नहीं बल्कि अपने अस्तित्व की रक्षा की लड़ाई लडऩी होगी। और यह सब किया गया पार्टी अध्यक्ष गडकरी की छवि को धूमिल करने के लिए। यह भूलकर कि उनका यह षडय़ंत्र अंतत: पूरी पार्टी अर्थात्ï उनके लिए भी आत्मघाती सिद्ध होगा। सभी को साथ लेकर चलने की उदार गडकरी नीति को इन लोगों ने गडकरी की कमजोरी मान लिया। सो षडय़ंत्र रचे गए गडकरी को नीचा दिखाने के लिए। गडकरी को ये क्या रिपोर्ट देते हैं, इसकी जानकारी तो नहीं, आम जनता में फैल रहे संदेश की जानकारी है। संदेश यह फैला है कि, कथित बड़े नेता पार्टी के अस्तित्व की कीमत पर ही सही अध्यक्ष के रूप में गडकरी को सफल होते देखना नहीं चाहते। इसी वर्ष झारखंड के पड़ोसी बिहार में विधानसभा चुनाव होने हैं। भाजपा वहां जद (यू) के साथ गठबंधन सरकार में शामिल है। अगर झारखंड के 'कलंक' को धोया नहीं गया, तब शायद भाजपा को वहां वर्तमान विधायकों की संख्या को बचाए रखना मुश्किल होगा। चुनावी पंडितों की मानें तो वर्तमान के 55 में से अधिकांश सीटों पर उसे नुकसान का मुंह देखना होगा। जातिरोग से पीडि़त बिहार का वर्तमान राजनीतिक सच अत्यंत ही कड़वा है। जद (यू) के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार मौके की तलाश में हैं। भाजपा में प्रदेश स्तर पर परस्पर विरोधी अनेक गुट सक्रिय हैं। भाजपा के पूर्व राष्ट्रीय नेतृत्व के वफादार वहां भी गडकरी की छवि को धूमिल करने की दिशा में प्रयत्नशील हैं। अगर चुनाव परिणाम पार्टी की अपेक्षा के प्रतिकूल गया तब षडय़ंत्रकारी गडकरी के खिलाफ मुखर हो उठेंगे। इन संभावनाओं के बीच यक्षप्रश्न यह कि क्या नितिन गडकरी यह सब कुछ घटित होते देखते रहेंगे? पूरे मामले का सुखद पहलू यह अवश्य है कि षडय़ंत्रकारी नेताओं से अलग पार्टी कार्यकर्ता नये अध्यक्ष नितिन गडकरी के साथ हैं। फिर क्यों नहीं गडकरी कार्यकर्ताओं की विशाल फौज की कमान सीधे अपने हाथ में ले लेते? नेताओं के तुष्टीकरण का प्रयास अब वे छोड़ दें। कार्यकर्ताओं से सीधे संवाद स्थापित करें। नेतृत्व करें उनका! उनका मनोबल बढ़ाएं। इंदौर सम्मेलन में दिये गये अपने उद्बोधन को याद करें। कार्यकर्ताओं का उत्साह हिलोरें मारने लगेगा। और तब साजिश की दीवारें स्वत: ध्वस्त हो जाएंगी।
Tuesday, May 25, 2010
क्या कांग्रेस मृत हो चुकी है!
सवाल और जवाब दोनों लोकतंत्र की मूल भावना को चुनौती दे रहे हैं। इनमें राजतंत्रीय प्रणाली की बू मौजूद है। अनायास एक सवाल भी उत्पन्न हो गया कि क्या कांग्रेस पार्टी मृत हो चुकी है?
कुछ मित्र कभी-कभी मुझ पर आरोप लगा देते हैं कि मैं कांग्रेस और गांधी-नेहरू परिवार का आलोचक हूं। ये आरोप बिल्कुल गलत हैं। मेरे अंदर कोई पूर्वाग्रह नहीं। वस्तुनिष्ठ व तथ्यपरक लेखन अथवा टिप्पणी के क्रम में प्रतिकूल रूप से अगर कोई व्यक्ति-दल प्रभावित होता है तो मैं विवश हूं। कांग्रेस चूंकि केन्द्र सरकार का नेतृत्व कर रही है और गांधी-नेहरू परिवार संगठन के शीर्ष पर है, स्वाभाविक रूप से इनकी गतिविधियों पर हमारी नजर रहती है। प्रतिकूल व कड़ी टिप्पणी के लिए ये अवसर भी दे देते हैं। सोमवार को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अपने पत्रकार-सम्मेलन में फिर ऐसा अवसर दे दिया।
एक पत्रकार ने युवा सांसद व कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी को देश की बागडोर सौंपे जाने संबंधी सवाल पूछ लिया। हालांकि मेरी आपत्ति तो सवाल पर ही है किन्तु राजनीति व कांग्रेस के वर्तमान सच व संस्कृति के आलोक में सवाल पूछने वाले पत्रकार को बख्शा जा सकता है। लेकिन प्रधानमंत्री का जवाब? प्रधानमंत्री ने राहुल की तारीफ के पुल बांधते हुए न केवल उन्हें कैबिनेट मंत्री पद के लिए उपयुक्त पात्र निरूपित किया, बल्कि यह भी कहा कि किसी युवा के लिए जगह खाली करने में उन्हें खुशी होगी। प्रधानमंत्री ईमानदारी से बताएं कि राहुल गांधी के अतिरिक्त किसी 'अन्य युवा' के लिए वे प्रधानमंत्री की कुर्सी खाली करने के लिए तैयार हैं? सवाल ही पैदा नहीं होता। उनकी नजरों में तो प्रधानमंत्री पद के लिए सिर्फ एक उपयुक्त युवा है और वे हैं राहुल गांधी। आज से लगभग 3 वर्ष पूर्व उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव प्रचार अभियान के दौरान प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह युवा राहुल गांधी को 'देश का भविष्य' घोषित कर चुके थे। तभी राहुल गांधी की योग्यता-पात्रता पर सवाल खड़े हुए थे। आज भी पूछा जाता है कि कांग्रेस में क्या गांधी-नेहरू परिवार के बाहर शीर्ष नेतृत्व के लिए कोई अन्य सुपात्र मौजूद नहीं है? यह बहस ही बेमानी है। कांग्रेस संस्कृति ने पूरे दल को कुछ इस रूप में लाचार बना डाला है कि कोई अन्य संगठन व सरकार के शीर्ष नेतृत्व की कभी चाहत ही न रख पाए। अन्य सभी सिर्फ अनुयायी बनकर रहने को मजबूर हैं। प्रधानमंत्री का यह कहना, कि राहुल गांधी को वे मंत्रिमंडल में शामिल कराना चाहते हैं लेकिन राहुल इसके लिए तैयार नहीं होते, राहुल को महिमामंडित करने के अभियान का एक अंग है। जिस प्रकार राजीव गांधी कांग्रेस महासचिव के पद से सीधे प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठे थे, राहुल गांधी भी संभवत: सीधे प्रधानमंत्री की कुर्सी पर ही आसीन होंगे। मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाने के पीछे सोनिया गांधी का मकसद भी था कि इस अवधि में राहुल परिपक्व हो जाएं। क्या यह लोकतंत्र से पृथक राजतंत्र का आभास नहीं देता? मैं यह नहीं कहता कि राजीव-सोनिया का पुत्र होने के नाते राहुल गांधी प्रधानमंत्री पद के लिए अयोग्य हैं। योग्यता किसी के लिए बंधनकारी नहीं हो सकती। आपत्ति सुनियोजित अभियान चलाकर राहुल गांधी को महिमामंडित कर शीर्ष पर पहुंचाने पर है। अगर तुलनात्मक रूप से राहुल गांधी उपलब्ध अन्य कांग्रेस नेताओं से बेहतर हैं तो लोकतांत्रिक पद्धति से वे प्रधानमंत्री बनें। इस पर किसी को आपत्ति नहीं होगी। आपत्ति है इस आभास पर, इस संकेत पर कि गांधी-नेहरू परिवार का कोई सदस्य ही सत्ताशीर्ष पद के लिए एकमात्र योग्य सुपात्र है। लोकतंत्र की मूल भावना को इससे चोट पहुंचती है। इस तथ्य को नहीं भूला जाना चाहिए कि 1966 में लालबहादुर शाी की मौत के बाद इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से ही कांग्रेस का जनाधार शनै:-शनै: घटता चला गया। इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री बनने के बाद 1967 के आम चुनाव में अनेक महत्वपूर्ण बड़े राज्यों में कांग्रेस का सफाया हो गया। पहली बार उन राज्यों में गैर-कांग्रेसी सरकारें बनीं। बीच के इतिहास से सभी परिचित हैं। उन्हें दोहराना नहीं चाहूंगा। वर्तमान का सच यह है कि कांग्रेस आज केन्द्र में खिचड़ी गठबंधन सरकार का नेतृत्व करने विवश है। पश्चिम बंगाल, बिहार, झारखंड, उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड, उड़ीसा, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, गुजरात, तमिलनाडु, कर्नाटक जैसे बड़े राज्यों में गैर-कांग्रेसी सरकारें कायम हैं। कांग्रेसजन इस कठोर दलीय वास्तविकता पर आत्मचिंतन करें। घटते जनाधार के कारणों पर विचार करें। छवि की चिंता करें। चाटुकारिता की संस्कृति का त्याग कर ही प्रभावी हल ढूंढा जा सकता है। शायद शब्द के अर्थ से अंजान प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने राहुल गांधी का गुणगान करते हुए यह कह डाला कि ''वह (राहुल) कांग्रेस पार्टी को पुनर्जीवित करने के लिए अपने कत्र्तव्यों का निर्वहन कर रहे हैं।'' तो क्या कांग्रेस पार्टी मृत हो चुकी है? जवाब प्रधानमंत्री ही दे दें।
कुछ मित्र कभी-कभी मुझ पर आरोप लगा देते हैं कि मैं कांग्रेस और गांधी-नेहरू परिवार का आलोचक हूं। ये आरोप बिल्कुल गलत हैं। मेरे अंदर कोई पूर्वाग्रह नहीं। वस्तुनिष्ठ व तथ्यपरक लेखन अथवा टिप्पणी के क्रम में प्रतिकूल रूप से अगर कोई व्यक्ति-दल प्रभावित होता है तो मैं विवश हूं। कांग्रेस चूंकि केन्द्र सरकार का नेतृत्व कर रही है और गांधी-नेहरू परिवार संगठन के शीर्ष पर है, स्वाभाविक रूप से इनकी गतिविधियों पर हमारी नजर रहती है। प्रतिकूल व कड़ी टिप्पणी के लिए ये अवसर भी दे देते हैं। सोमवार को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अपने पत्रकार-सम्मेलन में फिर ऐसा अवसर दे दिया।
एक पत्रकार ने युवा सांसद व कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी को देश की बागडोर सौंपे जाने संबंधी सवाल पूछ लिया। हालांकि मेरी आपत्ति तो सवाल पर ही है किन्तु राजनीति व कांग्रेस के वर्तमान सच व संस्कृति के आलोक में सवाल पूछने वाले पत्रकार को बख्शा जा सकता है। लेकिन प्रधानमंत्री का जवाब? प्रधानमंत्री ने राहुल की तारीफ के पुल बांधते हुए न केवल उन्हें कैबिनेट मंत्री पद के लिए उपयुक्त पात्र निरूपित किया, बल्कि यह भी कहा कि किसी युवा के लिए जगह खाली करने में उन्हें खुशी होगी। प्रधानमंत्री ईमानदारी से बताएं कि राहुल गांधी के अतिरिक्त किसी 'अन्य युवा' के लिए वे प्रधानमंत्री की कुर्सी खाली करने के लिए तैयार हैं? सवाल ही पैदा नहीं होता। उनकी नजरों में तो प्रधानमंत्री पद के लिए सिर्फ एक उपयुक्त युवा है और वे हैं राहुल गांधी। आज से लगभग 3 वर्ष पूर्व उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव प्रचार अभियान के दौरान प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह युवा राहुल गांधी को 'देश का भविष्य' घोषित कर चुके थे। तभी राहुल गांधी की योग्यता-पात्रता पर सवाल खड़े हुए थे। आज भी पूछा जाता है कि कांग्रेस में क्या गांधी-नेहरू परिवार के बाहर शीर्ष नेतृत्व के लिए कोई अन्य सुपात्र मौजूद नहीं है? यह बहस ही बेमानी है। कांग्रेस संस्कृति ने पूरे दल को कुछ इस रूप में लाचार बना डाला है कि कोई अन्य संगठन व सरकार के शीर्ष नेतृत्व की कभी चाहत ही न रख पाए। अन्य सभी सिर्फ अनुयायी बनकर रहने को मजबूर हैं। प्रधानमंत्री का यह कहना, कि राहुल गांधी को वे मंत्रिमंडल में शामिल कराना चाहते हैं लेकिन राहुल इसके लिए तैयार नहीं होते, राहुल को महिमामंडित करने के अभियान का एक अंग है। जिस प्रकार राजीव गांधी कांग्रेस महासचिव के पद से सीधे प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठे थे, राहुल गांधी भी संभवत: सीधे प्रधानमंत्री की कुर्सी पर ही आसीन होंगे। मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाने के पीछे सोनिया गांधी का मकसद भी था कि इस अवधि में राहुल परिपक्व हो जाएं। क्या यह लोकतंत्र से पृथक राजतंत्र का आभास नहीं देता? मैं यह नहीं कहता कि राजीव-सोनिया का पुत्र होने के नाते राहुल गांधी प्रधानमंत्री पद के लिए अयोग्य हैं। योग्यता किसी के लिए बंधनकारी नहीं हो सकती। आपत्ति सुनियोजित अभियान चलाकर राहुल गांधी को महिमामंडित कर शीर्ष पर पहुंचाने पर है। अगर तुलनात्मक रूप से राहुल गांधी उपलब्ध अन्य कांग्रेस नेताओं से बेहतर हैं तो लोकतांत्रिक पद्धति से वे प्रधानमंत्री बनें। इस पर किसी को आपत्ति नहीं होगी। आपत्ति है इस आभास पर, इस संकेत पर कि गांधी-नेहरू परिवार का कोई सदस्य ही सत्ताशीर्ष पद के लिए एकमात्र योग्य सुपात्र है। लोकतंत्र की मूल भावना को इससे चोट पहुंचती है। इस तथ्य को नहीं भूला जाना चाहिए कि 1966 में लालबहादुर शाी की मौत के बाद इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से ही कांग्रेस का जनाधार शनै:-शनै: घटता चला गया। इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री बनने के बाद 1967 के आम चुनाव में अनेक महत्वपूर्ण बड़े राज्यों में कांग्रेस का सफाया हो गया। पहली बार उन राज्यों में गैर-कांग्रेसी सरकारें बनीं। बीच के इतिहास से सभी परिचित हैं। उन्हें दोहराना नहीं चाहूंगा। वर्तमान का सच यह है कि कांग्रेस आज केन्द्र में खिचड़ी गठबंधन सरकार का नेतृत्व करने विवश है। पश्चिम बंगाल, बिहार, झारखंड, उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड, उड़ीसा, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, गुजरात, तमिलनाडु, कर्नाटक जैसे बड़े राज्यों में गैर-कांग्रेसी सरकारें कायम हैं। कांग्रेसजन इस कठोर दलीय वास्तविकता पर आत्मचिंतन करें। घटते जनाधार के कारणों पर विचार करें। छवि की चिंता करें। चाटुकारिता की संस्कृति का त्याग कर ही प्रभावी हल ढूंढा जा सकता है। शायद शब्द के अर्थ से अंजान प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने राहुल गांधी का गुणगान करते हुए यह कह डाला कि ''वह (राहुल) कांग्रेस पार्टी को पुनर्जीवित करने के लिए अपने कत्र्तव्यों का निर्वहन कर रहे हैं।'' तो क्या कांग्रेस पार्टी मृत हो चुकी है? जवाब प्रधानमंत्री ही दे दें।
Sunday, May 23, 2010
कुलदीप नैयर से इस्तीफा लिया था गोयनका ने!
क्या जेपी की संपूर्ण क्रांति बेमानी थी! - 3 (अंतिम)
हां ! जेपी ने अपने प्राणों की आहुति दे दी। अपनों द्वारा किए गए विश्वासघात को वे झेल नहीं पाए। गांधी और जेपी की मौत में सिर्फ एक फर्क था। गांधी के सीने मेें गोली मारी गई जबकि जेपी के सीने के अंदर दिल ने आहत हो काम करना बंद कर दिया। अपनों द्वारा दी गई असहनीय चोट मौत में तब्दील तो होती ही है। लेकिन कुर्बानियां कुछ औरों की भी ली गईं।
प्रख्यात पत्रकार और अंग्रेजी दैनिक इंडियन एक्सपे्रस के तत्कालीन संपादक कुलदीप नैयर की बलि भी ली गई। कुलदीप नैयर आपातकाल के दौरान 19 महीने जेल में बंद रहे थे। निर्भीक, निष्पक्ष, तथ्यपरक पत्रकारिता के प्रतीक कुलदीप नैयर ने कभी सत्ता से नापाक समझौता नहीं किया। इंडियन एक्सपे्रस के मालिक (स्व.) रामनाथ गोयनका भी अपनी निडरता और (कु) व्यवस्था के खिलाफ एक प्रखर योद्धा के रूप में जाने जाते थे। लेकिन एक समय ऐसा आया जब वे दबाव के सामने झुक गए। क्या यह बताने की जरूरत है कि दबाव तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की ओर से आया था? जयप्रकाश आंदोलन और पूरे आपातकाल के दौरान सरकार के विरुद्ध लडऩे वाले इंडियन एक्सपे्रस के मालिक रामनाथ गोयनका आपातकाल की समाप्ति के बाद झुकने को क्यों मजबूर हुए? क्या आर्थिक नुकसान के कारण उनकी सहनशक्ति ने जवाब दे दिया था? गोयनका ने अपने संपादक कुलदीप नैयर को बुलाकर जब इस्तीफा देने को कहा तब नैयर स्तब्ध रह गए थे। उन्हें विश्वास नहीं हुआ। पहले तो उन्होंने सोचा शायद गोयनका उनके साथ मजाक कर रहे हैं। लेकिन नहीं। गोयनका गंभीर थे- परेशान थे। उन्होंने सपाट शब्दों में नैयर से कहा कि ''तुम रिजाइन कर दो....मैं अब और बर्दाश्त नहीं कर सकता..... बहुत नुकसान हो चुका है।'' भौंचक कुलदीप नैयर तब परेशान गोयनका के चेहरे को निहारते रह गए थे। गोयनका की पेरशानी को समझ नैयर ने इस्तीफा दे दिया। हां, इंडियन एक्सप्रेस में लिखते रहने की बात गोयनका ने अवश्य स्वीकार कर ली। लेखन व पत्रकारीय आजादी के पुरोधा के रूप में स्थापित रामनाथ गोयनका की ऐसी स्थिति की जानकारी शायद युवा पत्रकारों को क्या, वरिष्ठ पत्रकारों को भी नहीं होगी। लेकिन यह सच है और कड़वा सच यह कि पूरे जयप्रकाश आंदोलन और आपातकाल के दौरान सत्ता के प्रलोभन और दबाव के सामने नहीं झुकने वाले रामनाथ गोयनका को भी अंतत: 'दबाब' के सामने झुकना पड़ा, व्यवस्था के मकडज़ाल के शिकार बनने को मजबूर होना पड़ा। कुलदीप नैयर से संबंधित इस घटना का उदाहरण मैं एक खास मकसद से दे रहा हूं।
चूंकि आज समय का आगाज है, कि युवा वर्ग 'क्रांति' अर्थात् परिवर्तन के लिए सामने आए, उसे क्रांति के दुर्गम पथ की जानकारी मिलनी चाहिए। कुलदीप नैयर ने संपादक के पद से इस्तीफा अवश्य दिया। किन्तु कलम को गिरवी नहीं रखा। कुशासन और भ्रष्टाचार के विरुद्ध उनकी कलम आज भी आग उगलती है। संपूर्ण क्रांति के अंतिम हश्र पर जेपी निराश नहीं हुए थे। चारों ओर से सत्तालोलुपों, खुशामदियों, अवसरवादियों की लंबी पंक्ति को देख जेपी ने टिप्पणी की थी कि 'रात चाहे कितनी ही अंधेरी हो, प्रभात तो फूटकर ही रहता है।' हां, यह एक शाश्वत सत्य है। किन्तु समाज व देश में नव प्रभात स्वत: नहीं फूटता। तटस्थ रह उसकी प्रतीक्षा नहीं की जानी चाहिए। सामाजिक क्रांति नैसर्गिक क्रांति का अनुसरण नहीं करती। ऐसा होने पर तो मानव के पुरुषार्थ के लिए, समाज की प्रगति के लिए और परिवर्तन के लिए कोई स्थान ही नहीं रह जाएगा। ऐसी अवस्था पर जेपी ने पुन: बलिदान का आह्ïवान किया था। आज का भारत हर क्षेत्र में जिस तेजी से प्रगति की ओर गतिमान है, खेद है कि उससे भी अधिक गति से भ्रष्टाचार, कुशासन और अनैतिकता पैर पसार रहे हैं। इन पर अंकुश जरूरी है। आज जेपी नहीं हैं तो क्या हुआ? देश के हर गली-कूचों में युवाओं की फौज मौजूद है। अनुभवी-अधेड़ बुजुर्ग मौजूद हैं उनके मार्गदर्शन के लिए। दोनों मिलकर पहल करें। भ्रष्टाचारमुक्त शासन और भयमुक्त समाज की स्थापना की दिशा में कदमताल करें। निर्भीकता से, ईमानदारी से लक्ष्य प्राप्त होगा। अवश्य प्राप्त होगा। इतिहास गवाह है कि जब-जब ऐसी अवस्था आई, देश के युवाओं ने करिश्मा कर दिखाया है। भारत देश किसी व्यक्ति, दल या संगठन की बपौती नहीं। भारतीयों से बने भारत पर अधिकार सभी का है। इसे लूटने वाले हाथों को बेदम कर देना होगा। इतना कि भारत के चेहरे पर कालिख पोतने की ताकत उन हाथों में शेष न रह जाए। तब सारा संसार देखेगा संपूर्ण क्रांति के ओजस्व को। विश्व समुदाय भी सलाम करेगा इस क्रांति को।
हां ! जेपी ने अपने प्राणों की आहुति दे दी। अपनों द्वारा किए गए विश्वासघात को वे झेल नहीं पाए। गांधी और जेपी की मौत में सिर्फ एक फर्क था। गांधी के सीने मेें गोली मारी गई जबकि जेपी के सीने के अंदर दिल ने आहत हो काम करना बंद कर दिया। अपनों द्वारा दी गई असहनीय चोट मौत में तब्दील तो होती ही है। लेकिन कुर्बानियां कुछ औरों की भी ली गईं।
प्रख्यात पत्रकार और अंग्रेजी दैनिक इंडियन एक्सपे्रस के तत्कालीन संपादक कुलदीप नैयर की बलि भी ली गई। कुलदीप नैयर आपातकाल के दौरान 19 महीने जेल में बंद रहे थे। निर्भीक, निष्पक्ष, तथ्यपरक पत्रकारिता के प्रतीक कुलदीप नैयर ने कभी सत्ता से नापाक समझौता नहीं किया। इंडियन एक्सपे्रस के मालिक (स्व.) रामनाथ गोयनका भी अपनी निडरता और (कु) व्यवस्था के खिलाफ एक प्रखर योद्धा के रूप में जाने जाते थे। लेकिन एक समय ऐसा आया जब वे दबाव के सामने झुक गए। क्या यह बताने की जरूरत है कि दबाव तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की ओर से आया था? जयप्रकाश आंदोलन और पूरे आपातकाल के दौरान सरकार के विरुद्ध लडऩे वाले इंडियन एक्सपे्रस के मालिक रामनाथ गोयनका आपातकाल की समाप्ति के बाद झुकने को क्यों मजबूर हुए? क्या आर्थिक नुकसान के कारण उनकी सहनशक्ति ने जवाब दे दिया था? गोयनका ने अपने संपादक कुलदीप नैयर को बुलाकर जब इस्तीफा देने को कहा तब नैयर स्तब्ध रह गए थे। उन्हें विश्वास नहीं हुआ। पहले तो उन्होंने सोचा शायद गोयनका उनके साथ मजाक कर रहे हैं। लेकिन नहीं। गोयनका गंभीर थे- परेशान थे। उन्होंने सपाट शब्दों में नैयर से कहा कि ''तुम रिजाइन कर दो....मैं अब और बर्दाश्त नहीं कर सकता..... बहुत नुकसान हो चुका है।'' भौंचक कुलदीप नैयर तब परेशान गोयनका के चेहरे को निहारते रह गए थे। गोयनका की पेरशानी को समझ नैयर ने इस्तीफा दे दिया। हां, इंडियन एक्सप्रेस में लिखते रहने की बात गोयनका ने अवश्य स्वीकार कर ली। लेखन व पत्रकारीय आजादी के पुरोधा के रूप में स्थापित रामनाथ गोयनका की ऐसी स्थिति की जानकारी शायद युवा पत्रकारों को क्या, वरिष्ठ पत्रकारों को भी नहीं होगी। लेकिन यह सच है और कड़वा सच यह कि पूरे जयप्रकाश आंदोलन और आपातकाल के दौरान सत्ता के प्रलोभन और दबाव के सामने नहीं झुकने वाले रामनाथ गोयनका को भी अंतत: 'दबाब' के सामने झुकना पड़ा, व्यवस्था के मकडज़ाल के शिकार बनने को मजबूर होना पड़ा। कुलदीप नैयर से संबंधित इस घटना का उदाहरण मैं एक खास मकसद से दे रहा हूं।
चूंकि आज समय का आगाज है, कि युवा वर्ग 'क्रांति' अर्थात् परिवर्तन के लिए सामने आए, उसे क्रांति के दुर्गम पथ की जानकारी मिलनी चाहिए। कुलदीप नैयर ने संपादक के पद से इस्तीफा अवश्य दिया। किन्तु कलम को गिरवी नहीं रखा। कुशासन और भ्रष्टाचार के विरुद्ध उनकी कलम आज भी आग उगलती है। संपूर्ण क्रांति के अंतिम हश्र पर जेपी निराश नहीं हुए थे। चारों ओर से सत्तालोलुपों, खुशामदियों, अवसरवादियों की लंबी पंक्ति को देख जेपी ने टिप्पणी की थी कि 'रात चाहे कितनी ही अंधेरी हो, प्रभात तो फूटकर ही रहता है।' हां, यह एक शाश्वत सत्य है। किन्तु समाज व देश में नव प्रभात स्वत: नहीं फूटता। तटस्थ रह उसकी प्रतीक्षा नहीं की जानी चाहिए। सामाजिक क्रांति नैसर्गिक क्रांति का अनुसरण नहीं करती। ऐसा होने पर तो मानव के पुरुषार्थ के लिए, समाज की प्रगति के लिए और परिवर्तन के लिए कोई स्थान ही नहीं रह जाएगा। ऐसी अवस्था पर जेपी ने पुन: बलिदान का आह्ïवान किया था। आज का भारत हर क्षेत्र में जिस तेजी से प्रगति की ओर गतिमान है, खेद है कि उससे भी अधिक गति से भ्रष्टाचार, कुशासन और अनैतिकता पैर पसार रहे हैं। इन पर अंकुश जरूरी है। आज जेपी नहीं हैं तो क्या हुआ? देश के हर गली-कूचों में युवाओं की फौज मौजूद है। अनुभवी-अधेड़ बुजुर्ग मौजूद हैं उनके मार्गदर्शन के लिए। दोनों मिलकर पहल करें। भ्रष्टाचारमुक्त शासन और भयमुक्त समाज की स्थापना की दिशा में कदमताल करें। निर्भीकता से, ईमानदारी से लक्ष्य प्राप्त होगा। अवश्य प्राप्त होगा। इतिहास गवाह है कि जब-जब ऐसी अवस्था आई, देश के युवाओं ने करिश्मा कर दिखाया है। भारत देश किसी व्यक्ति, दल या संगठन की बपौती नहीं। भारतीयों से बने भारत पर अधिकार सभी का है। इसे लूटने वाले हाथों को बेदम कर देना होगा। इतना कि भारत के चेहरे पर कालिख पोतने की ताकत उन हाथों में शेष न रह जाए। तब सारा संसार देखेगा संपूर्ण क्रांति के ओजस्व को। विश्व समुदाय भी सलाम करेगा इस क्रांति को।
क्या जेपी की संपूर्ण क्रांति बेमानी थी? - 2
संपूर्ण क्रांति तो समाज में आमूलचूल परिवर्तन का एक सर्वमान्य आंदोलन था। जी हां, सर्वमान्य। अंग्रेजी साप्ताहिक 'ब्लिट्जÓ के संपादक आर.के. करंजिया हमेशा से जयप्रकाश और उनके दर्शन के आलोचक रहे थे। लेकिन जब जेपी ने संपूर्ण क्रांति का नारा बुलंद किया तब अपनी नीति के बिल्कुल खिलाफ जाकर करंजिया ने जेपी व उनके आंदोलन का समर्थन किया था। कोई आश्चर्य नहीं कि तब इंदिरा गांधी की कांग्रेस के युवा तुर्क चंद्रशेखर सहित अनेक वरिष्ठ नेताओं ने जयप्रकाश का साथ दिया था। तब देश के बच्चे-बच्चे की जुबान पर संपूर्ण क्रांति का नारा था। हर व्यक्ति तब देश में एक नई प्रभात की प्रतीक्षा करने लगा था। भ्रष्टाचार मुक्त शासन, वर्ग विहीन समाज, सभी के लिए समान पाठ्यक्रम- रोजगार आधारित शिक्षा नीति, सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन के पक्ष में क्रांति का आगाज था जेपी आंदोलन। जयप्रकाशजी ने संपूर्ण क्रांति को स्पष्ट करते हुए बताया था कि सामाजिक क्रांति, आर्थिक क्रांति, राजनीतिक क्रांति, सांस्कृतिक क्रांति, वैचारिक अथवा बौद्धिक क्रांति, शैक्षणिक क्रांति और आध्यात्मिक क्रांति जैसी 7 क्रांतियां मिलकर संपूर्ण क्रांति होती है। आर्थिक क्रांति, समाज की आर्थिक रचना तथा आर्थिक संस्थाओं में क्रांतिकारी परिवर्तन और उनका नया क्रांतिकृत रूप जेपी ने स्पष्ट किया था। क्रांति शब्द से परिवर्तन और नवनिर्माण दोनों ही अभिप्रेत हैं। उनसे पूछा गया था, कि परिवर्तनशील जगत में जब हर कुछ का नित नवीनीकरण होता रहता है तब क्रांति या क्रांतिकारी परिवर्तन से क्या अभिप्रेत है? जेपी ने जवाब दिया था कि क्रांति या क्रांतिकारी परिवर्तन बहुत शीघ्र गति से होता है। और परिवर्तन बड़ा दूरगामी और मूलगामी होता है- कभी-कभी ऐसा कि परिवर्तित वस्तु में गुणात्मक परिवर्तन हो जाता है। इन्हीं सब को लेकर जेपी ने देश में संपूर्ण क्रांति का स्वप्न देखा था। उनका उद्घोष था - 'संपूर्ण क्रांति अब नारा है, भावी इतिहास हमारा है!Ó किंतु अंतत: हुआ क्या? जेपी का पल्लू पकड़ इंदिरा गांधी व कांग्रेस जैसी शक्तिशाली व्यक्ति व पार्टी को सत्ता से दूर फेंक कोई प्रधानमंत्री बना, कोई उपप्रधानमंत्री बना। सत्ता की वस्तुत: बंदरबाट हुई। जेपी के साथ विश्वासघात किया उनके अनुयायियों ने। देश की जनता को धोखा दिया जेपी के उन चेलों ने। सभी नारे-सभी वादे धरे के धरे रह गए। राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की पंक्तियां कि ''... सिंहासन खाली करो कि जनता आती हैÓÓ सफल तो हुईं किंतु इन शब्दों को बुलंद करने वालों ने कुछ ऐसा मुखौटा धारण किया कि उनकी पहचान भी गुम हो गई। अच्छा ही हुआ, चेहरे विद्रुप जो हो गए थे! संपूर्ण क्रांति को संपूर्ण प्रतिक्रांति ने लील लिया। जेपी को हाशिए पर रख जी-हुजूर, कायर, बुजदिल अंग्रिम पंक्ति में बैठ विहंसते दिखे। यही नहीं, व्यंग्यबाण छोड़े गए कि 'आसमान के सितारे तोडऩे चले थे, गिरे हैं अब जाकर नर्क में।Ó आहत जेपी ने फिर भी आशा नहीं छोड़ी थी। उनका जवाब था कि दुनिया में जो कुछ किया है, वह सितारें तोडऩे वालों ने ही किया है, भले ही उसके लिए उन्हें प्राणों का मूल्य चुकाना पड़ा है।
क्या आश्चर्य! जेपी को भी प्राणों का मूल्य चुकाना पड़ा! (जारी)
क्या आश्चर्य! जेपी को भी प्राणों का मूल्य चुकाना पड़ा! (जारी)
Saturday, May 22, 2010
क्या जेपी की संपूर्ण क्रांति बेमानी थी?
आज राजीव गांधी की याद आ रही है। उनकी पुण्यतिथि पर आयोजित कार्यक्रम व विज्ञापन उनका स्मरण दिला रहे हैं। स्वाभाविक रूप से उनकी याद आई तब इंदिरा गांधी की भी याद आई। और तब याद आए जयप्रकाश नारायण और याद आया आपातकाल अर्थात्ï इमरजन्सी। इन यादों के बीच मुखर हुई संपूर्ण क्रांति। जयप्रकाश आंदोलन को आरंभ से अंत तक अत्यंत ही नजदीक से देखने के कारण देश की वर्तमान दशा-दिशा को लेकर अनेक सवाल मन-मस्तिष्क में हलचल पैदा कर रहे हैं। जयप्रकाश आंदोलन के दिनों की राष्ट्रीय अवस्था बल्कि दुर्दशा के आलोक में वर्तमान अवस्था की तुलना स्वाभाविक है। सवाल इसी बिन्दु पर कुलांचे मारता है। वह पूछता है कि जब उन दिनों की तुलना में आज की अवस्था हजारों गुणा अधिक बदतर है तब समाज व देश सुसुप्तावस्था में कैसे है? कहां है वह युवा वर्ग, कहां है उनका जोश, कहां है क्रांति की वह आग और कहां है समाज से भ्रष्टाचार को समूल नष्ट कर देने का जज्बा, कहां है कुशासन के खिलाफ सड़कों पर निकल नारा बुलंद करने वाले चेहरे? भ्रष्टाचार और कुशासन को मुद्दा बनाकर ही तो जयप्रकाश नारायण ने संपूर्ण क्रांति का बिगुल बजाया था। देशहित में, लोकतंत्र के हित में, आम जनता के हित में विषय की गंभीरता और आंदोलन की जरूरत को स्वीकार करते हुए पूरा देश जयप्रकाश नारायण के जिहाद के साथ हो चला था। आंदोलन के प्रति आम लोगों के जनसमर्थन से भयभीत होकर और जनहित विरोधी, लोकतंत्र विरोधी स्वार्थियों के दबाव में तब प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश को आंतरिक आपातकाल के हवाले कर दिया था। बाह्य आपातकाल तो पहले से था ही, आंतरिक आपातकाल के दौरान आम जनता को संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकारों से वंचित कर दिया गया। न्यायपालिका को झुकने को मजबूर कर दिया गया। प्रेस सेंसरशिप लागू कर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता खत्म कर दी गई, लोगों को जानने के अधिकार से वंचित कर दिया गया था। लोकतंत्र लगभग खत्म कर दिया गया था। वही सबकुछ हो रहा था जो एक राजतंत्र में ही अपेक्षित हो सकता था। जयप्रकाश नारायण सहित सभी बड़े नेता बंदी बना लिए गए थे। लेकिन अविचलित देश की जनता ने मोर्चा संभाला। गली-मोहल्ले के स्तर पर नए-नए नेतृत्व सामने आए। शासकीय अत्याचार, प्रताडऩा झेलते हुए इन्होंने संपूर्ण क्रांति के अलख को जगाए रखा। वह आम जनता की एकजुटता और कुशासन के खिलाफ अदम्य संघर्ष ही था जिससे प्रभावित होकर पंडित जवाहरलाल नेहरू की सगी बहन अर्थात् प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की बुआ विजयालक्ष्मी पंडित भी सरकार के खिलाफ सड़कों पर उतर आई थीं। पूरा देश तब जेपी आंदोलनमय हो गया था। स्वतंत्रतापूर्व आजादी की लड़ाई के बाद वस्तुत: वह आजादी की दूसरी लड़ाई ही थी। तब मसीहा महात्मा गांधी थे, इस बार जयप्रकाश नारायण। दोनों नेताओं ने चूंकि कभी भी सत्ता की राजनीति नहीं की थी, लोगों ने इन पर विश्वास किया। इनकी हर आवाज का साथ दिया। अंग्रेज जब वापस चले गए तब इंदिरा गांधी कहां टिकतीं। आपातकाल वापस लिया। लोकतंत्र की पुनस्र्थापना के लिए चुनाव कराने को वे बाध्य हुईं। क्रोधित जनता ने चुनाव में इंदिरा गांधी और उनकी पार्टी को सत्ता से दूर फेंक दिया। केंद्र में पहली बार गैरकांग्रेसी सरकार स्थापित हुई। वामपंथियों को छोड़ अन्य सभी राजनीतिक दल अपनी पहचान का त्याग कर एक झंडे के नीचे आ गए थे। भारत में तब एक नया इतिहास रचा गया था। लेकिन इतिहास ने स्वयं को दोहराया भी। पहली आजादी के बाद अकृतज्ञ की तरह महात्मा गांधी के साथ अविश्वास किया गया। दूसरी आजादी के बाद जयप्रकाश नारायण भी छले गए। जिस प्रकार महात्मा गांधी को उनके ही अनुयायियों ने उपेक्षित किया, उसी प्रकार जयप्रकाश नारायण को भी उनके ही अनुयायियों ने धोखा दिया। लेकिन क्या देश सचमुच उन्हें भूल जाए? प्रचार माध्यमों की चिल्ल-पों के बीच मुद्दे जिस तेजी से सामने आते हैं, उसी तेजी से मौत को भी प्राप्त कर लेते हैं। तो क्या 'संपूर्ण क्रांति' बेमानी थी? नहीं! कदापि नहीं! (जारी)
Thursday, May 20, 2010
नीतीश का बिहार, नीतीश के पत्रकार!
अब इस विडंबना पर हंसूं या रोऊं? एक समय था जब पत्रकार राजनेताओं अर्थात्ï पॉलिटिशियन्स को भ्रष्ट, चोर, दलाल निरूपित किया करते थे। वैसे करते तो आज भी हैं, किंतु अब राजनेता पत्रकारों को भ्रष्ट, चोर, दलाल, निरूपित करने लगे हैं। क्यों और कैसे पैदा हुई ऐसी स्थिति? तथ्य बतात हैं कि स्वयं पत्रकार ऐसे अवसर उपलब्ध करवा रहे हैं। इस संदर्भ में बिहार से कुछ विस्फोटक जानकारियां प्राप्त हुईं। प्रचार तंत्रों को दागदार-कलंकित-पिछड़े बिहार की जगह स्वच्छ, समृद्ध और विकासशील बिहार दिख रहा है! बिहार से बाहर रहने वाले बिहारीजन प्रदेश की इस नई छवि से स्वाभाविक रूप से पुलकित हैं। किंतु परदे के पीछे का सच पत्रकार बिरादरी के लिए भयावह है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के कार्यकाल के लगभग साढ़े चार वर्ष पूर्ण हो चुके हैं। इस अवधि में बिहार के अखबार, वहां कार्यरत पत्रकार और विभिन्न टीवी चैनल नीतीश कुमार और बिहार का ऐसा चेहरा प्रस्तुत करते रहे मानो बिहार विकास के पायदान पर निरंतर छलांगें लगाता जा रहा है! जबकि साक्ष्य मौजूद हैं कि इसके पूर्व यही पत्रकार बिरादरी अन्य मुख्यमंत्रियों और बिहार को पिछड़ा, निकम्मा और एक अपराधी राज्य निरूपित करती रही थी। फिर अचानक क्या हो गया? क्या सचमुच नीतीश कुमार ने बिहार की तस्वीर बदल डाली है? बिहार अपराध मुक्त और बिहारी भयमुक्त हो चुके हैं? अब जातीय संघर्ष से दूर बिहार एक विकसित प्रदेश का दर्जा प्राप्त करने की ओर अग्रसर है? इस जिज्ञासा का जवाब लगभग 15 वर्ष पूर्व संपादक के पद से अवकाश प्राप्त कर चुके एक वरिष्ठ पत्रकार ने विगत कल सुबह दिया। जवाब से मैं स्तब्ध रह गया! उन्होंने कहा कि, ''नीतीश कुमार का बिहार विकास के लिए नहीं अपितु पत्रकारों के विनाश के लिए जाना जाएगा।'' नीतीश कुमार ने अपने कार्यकाल में अखबारों, चैनलों और पत्रकारों का मुंह बंद रखने के लिए अपनी ओर से कोई कसर नहीं छोड़ी है। बिल्कुल बंधुआ मजदूर बना रखा है उन्हें। नीतीश और बिहार का गुणगान करने पर बिरादरी खुश है- सुखी है। आरोप है कि वे सबकुछ कर रहे हैं सिवाय पत्रकारीय ईमानदारी के। कोई आश्चर्य नहीं कि इस तथ्य पर परदा डाल दिया गया है कि बिहारवासी नीतीश कुमार से क्रोधित हैं और अगले विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार की पार्टी (जदयू) की खटिया खड़ी होने वाली है।
कहते हैं यदाकदा जिन पत्रकारों ने सच को उजागर करने की कोशिश की, या तो उनका तबादला हो गया या तो फिर प्रबंधन की ओर से उन्हें शांत कर दिया गया। अखबारों, चैनलों को विज्ञापन के अलावा निजी तौर पर पत्रकारों को खुश रखने के लिए धन पानी की तरह बहाया गया। लेकिन कैसे? एक वरिष्ठ पत्रकार मित्र की जुबान में सुन लें- ''....पांच लाख का विज्ञापन तो दिया जाता है किंतु साथ में पांच जूतों का बोनस भी।'' और तुर्रा यह कि पत्रकार खुशी-खुशी सह रहे हैं, स्वीकार कर रहे हैं।
बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री और राष्ट्रीय जनता दल के अध्यक्ष लालूप्रसाद यादव ने बिहार के विकास के मुद्दे पर पत्रकारों को चुनौती दी है। लेकिन उनकी चुनौती को कोई स्वीकार नहीं कर रहा है। कारण स्पष्ट है। बंद मुंह खोलें तो कैसे? लालू ने एक वरिष्ठ पत्रकार के नवनिर्मित बंगले पर निर्माण खर्च का ब्यौरा सार्वजनिक रूप से मांगा है। स्वीमिंग पुल की सुविधायुक्त बंगला उस पत्रकार की माली हैसियत के दायरे में तो नहीं ही आता है। इसी प्रकार एक दैनिक में छपी उस रिपोर्ट को लालू ने चुनौती दी है जिसमें छोटे से शहर की एक लड़की को बिहार की कथित उपलब्धियों पर गर्व करते प्रस्तुत किया गया था। लालू ने चुनौती दी है कि संपादक उक्त लड़की को प्रस्तुत करें। लालू के अनुसार पूरी की पूरी यह 'स्टोरी' कपोलकल्पित है और लड़की एक काल्पनिक पात्र! उसका कोई वजूद ही नहीं है। अगर लालू का आरोप सही है तो निश्चय ही वह अखबार और संपादक नीतीश कुमार की दलाली कर रहा है। अविश्वसनीय तो लगता है जब सुनता हंू कि नीतीश कुमार सरकारी खजाने से सैकड़ों करोड़ रुपये समाचारपत्रों, टी.वी. चैनलों और पत्रकारों को उपकृत करने के लिए खर्च कर चुके हैं। क्या इस आरोप की जांच के लिए कभी कोई पहल होगी? उपकृत पत्रकार तो नहीं ही करेंगे, लेकिन अपवाद की श्रेणी में मौजूद ईमानदार पवित्र हाथ तो पहल कर ही सकते हैं।
कहते हैं यदाकदा जिन पत्रकारों ने सच को उजागर करने की कोशिश की, या तो उनका तबादला हो गया या तो फिर प्रबंधन की ओर से उन्हें शांत कर दिया गया। अखबारों, चैनलों को विज्ञापन के अलावा निजी तौर पर पत्रकारों को खुश रखने के लिए धन पानी की तरह बहाया गया। लेकिन कैसे? एक वरिष्ठ पत्रकार मित्र की जुबान में सुन लें- ''....पांच लाख का विज्ञापन तो दिया जाता है किंतु साथ में पांच जूतों का बोनस भी।'' और तुर्रा यह कि पत्रकार खुशी-खुशी सह रहे हैं, स्वीकार कर रहे हैं।
बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री और राष्ट्रीय जनता दल के अध्यक्ष लालूप्रसाद यादव ने बिहार के विकास के मुद्दे पर पत्रकारों को चुनौती दी है। लेकिन उनकी चुनौती को कोई स्वीकार नहीं कर रहा है। कारण स्पष्ट है। बंद मुंह खोलें तो कैसे? लालू ने एक वरिष्ठ पत्रकार के नवनिर्मित बंगले पर निर्माण खर्च का ब्यौरा सार्वजनिक रूप से मांगा है। स्वीमिंग पुल की सुविधायुक्त बंगला उस पत्रकार की माली हैसियत के दायरे में तो नहीं ही आता है। इसी प्रकार एक दैनिक में छपी उस रिपोर्ट को लालू ने चुनौती दी है जिसमें छोटे से शहर की एक लड़की को बिहार की कथित उपलब्धियों पर गर्व करते प्रस्तुत किया गया था। लालू ने चुनौती दी है कि संपादक उक्त लड़की को प्रस्तुत करें। लालू के अनुसार पूरी की पूरी यह 'स्टोरी' कपोलकल्पित है और लड़की एक काल्पनिक पात्र! उसका कोई वजूद ही नहीं है। अगर लालू का आरोप सही है तो निश्चय ही वह अखबार और संपादक नीतीश कुमार की दलाली कर रहा है। अविश्वसनीय तो लगता है जब सुनता हंू कि नीतीश कुमार सरकारी खजाने से सैकड़ों करोड़ रुपये समाचारपत्रों, टी.वी. चैनलों और पत्रकारों को उपकृत करने के लिए खर्च कर चुके हैं। क्या इस आरोप की जांच के लिए कभी कोई पहल होगी? उपकृत पत्रकार तो नहीं ही करेंगे, लेकिन अपवाद की श्रेणी में मौजूद ईमानदार पवित्र हाथ तो पहल कर ही सकते हैं।
बिकाऊ पत्र, बिकाऊ पत्रकार, बिकाऊ पत्रकारिता!!!
एक बड़े समाचारपत्र समूह के संपादक पिछले दिनों दिल्ली में युवा पत्रकारों से मुखातिब थे। बड़ा समूह... बड़ा संपादक! उत्साहित युवा पत्रकारों की अपेक्षाएं हिलोरें मार रही थीं, पत्रकारिता में कुछ अनुकरणीय ग्रहण करने की लालसा और पत्रकारीय मूल्यों के विस्तार के पक्ष में कुछ नया सुनने की कामना में। लेकिन युवा पत्रकारों को निराशा मिली। धक्का पहुंचा उन्हें। बल्कि स्वयं को छला महसूस करने को विवश हो गये वे पत्रकार।
'पेड न्यूज' पर चर्चा के दौरान उस संपादक महोदय ने अप्रत्यक्ष ही 'पेड न्यूज' का समर्थन कर डाला। उनका तर्क था कि, '''पेड न्यूज' का दैत्य तब प्रकट हुआ था जब समाचार-पत्र उद्योग मंदी के भयानक दौर से गुजर रहा था। स्वयं को जीवित रखने के लिए अखबारों ने 'पेड न्यूज' का दामन थामा।'' संपादक का कुतर्क यहीं नहीं रुका। 'पेड न्यूज' की जरूरत को चिन्हित करते हुए उन्होंने उपस्थित पत्रकारों से पूछ डाला कि, ''...जब आप कभी जंगल में रास्ता भटक जाएं, भूखे-प्यासे हों, तब क्या आप भोजन के लिए शाकाहारी व मांसाहारी में फर्क करेंगे?'' अर्थात् जो भी मिलेगा उसका भक्षण कर डालेंगे। शर्म...शर्म! तो क्या कथित मंदी के दौर में अखबारों ने अतिरिक्त धनउगाही के लिए 'पेड न्यूज' का सहारा लिया? मैं इस तर्क को स्वीकार करने को तैयार नहीं। 'पेड न्यूज' को स्वीकार करनेवाले प्रत्यक्षत: दो नंबर अर्थात् काले धन की समानांतर अर्थव्यवस्था के भागीदार हैं। जिस 'पेड न्यूज' प्रणाली का समर्थन उस संपादक महोदय ने किया उन्हें यह तो मालूम होगा ही कि 'पेड न्यूज' का न तो कोई देयक (बिल) बनता है और न ही भुगतान के रूप में प्राप्त धनराशि को किसी खाते में दिखाया जाता है। सारा लेन-देन काले धन से होता है। ऐसे में क्या पत्र और पत्रकार पत्रकारीय मूल्यों की बलि नहीं चढ़ा देते? आदर्श और सिद्धांत की बातें करने का हक इनसे स्वत: छिन जाता है। अगर इस मार्ग से धन अर्जित करना है तो फिर कोई अखबार मालिक, संपादक या पत्रकार मूल्य, सिद्धांत, ईमानदारी, आदर्श की बातें न करें। घोषवाक्य के रूप में अपने-अपने अखबारों मेें छाप डालें कि, 'अखबार पूर्णत: व्यावसायिक है, बिकाऊ है, खरीद लो।' फिर पाठक अर्थात् समाज लोकतंत्र के इस कथित चौथे स्तंभ से अपेक्षाएं बंद कर देगा। वह मान लेगा कि अखबार और पत्रकार भी अन्य व्यवसाय की तरह काले धन से प्रभावित हैं। मूल्य, ईमानदारी, आदर्श, सिद्धांत की इनकी बातें ढकोसला मात्र हैं।
जहां तक कथित मंदी की बात है, मैं आज भी यह मानने को तैयार नहीं कि कथित आर्थिक मंदी के दौर में कोई बड़ा अखबार समूह वास्तव में प्रतिकूल रूप से प्रभावित हुआ था। सच तो यह है कि एक सुनियोजित 'प्रचार' कर मंदी का हौवा खड़ा किया गया था। मीडिया संस्थानों ने उसका फायदा उठा कर्मचारियों की छंटनियां कीं। मंदी के बहाने कर्मचारियों का 'ऑफलोड' कर अपने खर्च को घटा, आमदनी बढ़ाने का रास्ता ढूंढा गया। 'पेड न्यूज' के पक्ष में 'मंदी' का बहाना वस्तुत: एक कुतर्क के अलावा कुछ नहीं।
हां, संपादक महोदय ने यह अवश्य ही ठीक कहा कि वर्तमान दौर में निष्ठा संस्थागत न होकर व्यक्तिगत हो चली है। इस स्थिति पर बहस की जरूरत है। क्योंकि मूल्यों में गिरावट का यह भी एक बड़ा कारण है। कोई आश्चर्य नहीं कि आज पत्रकारों का एक बड़ा वर्ग पत्रकारीय दायित्व से पृथक नई भूमिका में अवतरित है। मुख्यत: उस भूमिका में जिसके आकर्षण की शिकार महिमामंडित पत्रकार बरखा दत्त तक हो चुकी हैं। कलम के धनि के रूप में अब तक चर्चित वीर सांघवी हो चुके हैं। खबर आई है कि राजधानी दिल्ली में पत्रकारों की इस नई भूमिका पर बहस आयोजित है। इस पहल का स्वागत है। लेकिन, मैं चाहंूगा कि बहस की यह शुरुआत प्रथम और अंतिम बनकर न रह जाए। देश के हर भाग में इस पर सार्थक बहस हो। सिलसिला तब तक चले जब तक यह तार्किक परिणति पर नहीं पहुंच जाती।
'पेड न्यूज' पर चर्चा के दौरान उस संपादक महोदय ने अप्रत्यक्ष ही 'पेड न्यूज' का समर्थन कर डाला। उनका तर्क था कि, '''पेड न्यूज' का दैत्य तब प्रकट हुआ था जब समाचार-पत्र उद्योग मंदी के भयानक दौर से गुजर रहा था। स्वयं को जीवित रखने के लिए अखबारों ने 'पेड न्यूज' का दामन थामा।'' संपादक का कुतर्क यहीं नहीं रुका। 'पेड न्यूज' की जरूरत को चिन्हित करते हुए उन्होंने उपस्थित पत्रकारों से पूछ डाला कि, ''...जब आप कभी जंगल में रास्ता भटक जाएं, भूखे-प्यासे हों, तब क्या आप भोजन के लिए शाकाहारी व मांसाहारी में फर्क करेंगे?'' अर्थात् जो भी मिलेगा उसका भक्षण कर डालेंगे। शर्म...शर्म! तो क्या कथित मंदी के दौर में अखबारों ने अतिरिक्त धनउगाही के लिए 'पेड न्यूज' का सहारा लिया? मैं इस तर्क को स्वीकार करने को तैयार नहीं। 'पेड न्यूज' को स्वीकार करनेवाले प्रत्यक्षत: दो नंबर अर्थात् काले धन की समानांतर अर्थव्यवस्था के भागीदार हैं। जिस 'पेड न्यूज' प्रणाली का समर्थन उस संपादक महोदय ने किया उन्हें यह तो मालूम होगा ही कि 'पेड न्यूज' का न तो कोई देयक (बिल) बनता है और न ही भुगतान के रूप में प्राप्त धनराशि को किसी खाते में दिखाया जाता है। सारा लेन-देन काले धन से होता है। ऐसे में क्या पत्र और पत्रकार पत्रकारीय मूल्यों की बलि नहीं चढ़ा देते? आदर्श और सिद्धांत की बातें करने का हक इनसे स्वत: छिन जाता है। अगर इस मार्ग से धन अर्जित करना है तो फिर कोई अखबार मालिक, संपादक या पत्रकार मूल्य, सिद्धांत, ईमानदारी, आदर्श की बातें न करें। घोषवाक्य के रूप में अपने-अपने अखबारों मेें छाप डालें कि, 'अखबार पूर्णत: व्यावसायिक है, बिकाऊ है, खरीद लो।' फिर पाठक अर्थात् समाज लोकतंत्र के इस कथित चौथे स्तंभ से अपेक्षाएं बंद कर देगा। वह मान लेगा कि अखबार और पत्रकार भी अन्य व्यवसाय की तरह काले धन से प्रभावित हैं। मूल्य, ईमानदारी, आदर्श, सिद्धांत की इनकी बातें ढकोसला मात्र हैं।
जहां तक कथित मंदी की बात है, मैं आज भी यह मानने को तैयार नहीं कि कथित आर्थिक मंदी के दौर में कोई बड़ा अखबार समूह वास्तव में प्रतिकूल रूप से प्रभावित हुआ था। सच तो यह है कि एक सुनियोजित 'प्रचार' कर मंदी का हौवा खड़ा किया गया था। मीडिया संस्थानों ने उसका फायदा उठा कर्मचारियों की छंटनियां कीं। मंदी के बहाने कर्मचारियों का 'ऑफलोड' कर अपने खर्च को घटा, आमदनी बढ़ाने का रास्ता ढूंढा गया। 'पेड न्यूज' के पक्ष में 'मंदी' का बहाना वस्तुत: एक कुतर्क के अलावा कुछ नहीं।
हां, संपादक महोदय ने यह अवश्य ही ठीक कहा कि वर्तमान दौर में निष्ठा संस्थागत न होकर व्यक्तिगत हो चली है। इस स्थिति पर बहस की जरूरत है। क्योंकि मूल्यों में गिरावट का यह भी एक बड़ा कारण है। कोई आश्चर्य नहीं कि आज पत्रकारों का एक बड़ा वर्ग पत्रकारीय दायित्व से पृथक नई भूमिका में अवतरित है। मुख्यत: उस भूमिका में जिसके आकर्षण की शिकार महिमामंडित पत्रकार बरखा दत्त तक हो चुकी हैं। कलम के धनि के रूप में अब तक चर्चित वीर सांघवी हो चुके हैं। खबर आई है कि राजधानी दिल्ली में पत्रकारों की इस नई भूमिका पर बहस आयोजित है। इस पहल का स्वागत है। लेकिन, मैं चाहंूगा कि बहस की यह शुरुआत प्रथम और अंतिम बनकर न रह जाए। देश के हर भाग में इस पर सार्थक बहस हो। सिलसिला तब तक चले जब तक यह तार्किक परिणति पर नहीं पहुंच जाती।
Tuesday, May 18, 2010
झारखंड पर कोई दया करेगा?
क्या अब भी झारखंड पर कोई दया करेगा? झारखंड, राजनीतिक-रोगग्रस्त है। पीडि़त है। कठोर शब्द और आशंका के लिए मैं मजबूर हंू। झारखंड प्रदेश गठन के पूर्व पृथक झारखंड आंदोलन के दौरान अन्य लोगों के साथ-साथ मैं भी पृथक राज्य के पक्ष में तर्क दिया करता था कि अलग राज्य बनने पर वहां उपलब्ध नैसर्गिक संसाधनों के बलबूते झारखंड कालांतर में देश का सर्वाधिक समृद्ध राज्य बन जाएगा। लेकिन सत्ताधारियों ने निराश किया। राज्य निर्माण के बाद विकास के उलट लूट-खसोट का ऐसा तांडव शुरू हुआ कि 'समृद्ध झारखंड' का स्वप्न देखनेवाले सौ-सौ आंसू रोने को मजबूर हो गए। वन एवं खनिज संपदा पर सत्ता से साठगांठ कर व्यापारी-दलाल दिनदहाड़े डाके डालते रहे। राज्य के विकास की जगह उपलब्ध नैसर्गिक संसाधनों को लूट ये तत्व अपना घर भरते रहे। प्रदेश को कंगाल बनाने की साजिश में अनेक बड़े बाहरी उद्योगपति भी शामिल थे। वहां जारी राजनीतिक अस्थिरता के पीछे भी इन्हीं साजिशकर्ताओं के हाथ रहे। स्थिर एवं मजबूत सरकार इन्हें बर्दाश्त नहीं।
यह ठीक है कि पिछले तीन सप्ताह से जारी राजनीतिक गतिरोध अब समाप्त हो गया। किंतु भविष्य पर चस्पा यक्षप्रश्न तो कायम ही है! चक्रीय आधार पर पहले 28 महीने भाजपा की और फिर शेष 28 महीने झारखंड मुक्ति मोर्चा के नेतृत्व की सरकार का तय फार्मूला कितना सफल होता है, इसका जवाब भविष्य में मिलेगा। बहरहाल कठिन परीक्षा के दौर से भाजपा और झामुमो दोनों को गुजरना होगा। विशेषकर भाजपा को। चूंकि पिछले तीन सप्ताह की राजनीतिक अस्थिरता से भाजपा की छवि विकृत हुई है, उसे सावधान रहना होगा। कुछ माह बाद पड़ोसी बिहार में चुनाव हो रहे हैं। भाजपा के नए राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी की असली परीक्षा बिहार के चुनावों में ही होगी। दिल्ली की दलदली राजनीति का स्वाद चख रहे गडकरी को अब कड़ा रुख अपनाना ही होगा। झारखंड की घटना के बाद उनकी आंखें अवश्य ही खुल गई होंगी। झारखंड मामले में जिस राजनीतिक अपरिपक्वता का प्रदर्शन किया गया उससे लोग आश्चर्यचकित हैं।
पहले शिबू सोरेन की सरकार से समर्थन वापसी की घोषणा, फिर रोक, फिर झामुमो पर दबाव - सौदेबाजी, फिर घोषणा कि शेष साढ़े चार वर्ष के लिए भाजपा का ही मुख्यमंत्री होगा। चक्रीय आधार पर सत्ता में भागीदारी की झामुमो पेशकश को मानने से पहले इनकार और अंत में तैयार होना आदि घटनाओं ने भाजपा का मजाक बना डाला। मैं यह मानने को कतई तैयार नहीं कि भाजपा का शीर्ष नेतृत्व अपरिपक्व है। फिर ऐसी हास्यास्पद स्थिति क्यों? पिछले दिनों मैं झारखंड में था। राजनीति से सरोकार रखनेवाला प्रत्येक व्यक्ति चकित मिला कि भाजपा स्वयं अपनी कब्र खोदने को व्यग्र क्यों है? नेतृत्व के मुद्दे पर भाजपा के अंदरूनी घमासान की चर्चा गली-चौराहों पर हो रही थी। प्रदेशहित में सभी की चाहत एक स्थिर सरकार की दिखी। किंतु शीर्ष नेतृत्व में मौजूद स्वार्थी तत्व सिर्फ अपना हित देख रहे थे। पार्टी की हो रही फजीहत की इन लोगों ने जानबूझकर अनदेखी की। सामान्य कार्यकर्ता हैरान-परेशान दिखा। अध्यक्ष गडकरी की ओर से प्रदेशहित में सार्थक निर्णय की आशा वे कर रहे थे। पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा को मुख्यमंत्री के पद पर मनोनीत किए जाने से प्रदेशहित में सुशासन की आशा बंधी है। झारखंड मुक्ति मोर्चा के साथ अपने पुराने संबंध का लाभ उठा अर्जुन मुंडा एक स्थिर सरकार प्रदान करेंगे ऐसी आशा की जा सकती है। किंतु शर्त यह कि भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व में मौजूद कथित बड़े नेता अपने स्वार्थ मुंडा पर ने थोपें। वन, खनिज संपदा की लूट में साजिशकर्ताओं के पीठ पर हाथ न रखें। दबावमुक्त अर्जुन मुंडा ही सुशासन दे पाएंगे, प्रदेश को विकास की ओर ले जा सकेंगे। हां, इस प्रक्रिया में सत्ता में हिस्सेदार झारखंड मुक्ति मोर्चा विशेषत: शिबू सोरेन की भावनाओं का पूरा आदर हो यह भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए। यह भूलना घातक होगा कि झारखंड और झारखंड मुक्ति मोर्चा एक-दूसरे के पूरक हैं।
यह ठीक है कि पिछले तीन सप्ताह से जारी राजनीतिक गतिरोध अब समाप्त हो गया। किंतु भविष्य पर चस्पा यक्षप्रश्न तो कायम ही है! चक्रीय आधार पर पहले 28 महीने भाजपा की और फिर शेष 28 महीने झारखंड मुक्ति मोर्चा के नेतृत्व की सरकार का तय फार्मूला कितना सफल होता है, इसका जवाब भविष्य में मिलेगा। बहरहाल कठिन परीक्षा के दौर से भाजपा और झामुमो दोनों को गुजरना होगा। विशेषकर भाजपा को। चूंकि पिछले तीन सप्ताह की राजनीतिक अस्थिरता से भाजपा की छवि विकृत हुई है, उसे सावधान रहना होगा। कुछ माह बाद पड़ोसी बिहार में चुनाव हो रहे हैं। भाजपा के नए राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी की असली परीक्षा बिहार के चुनावों में ही होगी। दिल्ली की दलदली राजनीति का स्वाद चख रहे गडकरी को अब कड़ा रुख अपनाना ही होगा। झारखंड की घटना के बाद उनकी आंखें अवश्य ही खुल गई होंगी। झारखंड मामले में जिस राजनीतिक अपरिपक्वता का प्रदर्शन किया गया उससे लोग आश्चर्यचकित हैं।
पहले शिबू सोरेन की सरकार से समर्थन वापसी की घोषणा, फिर रोक, फिर झामुमो पर दबाव - सौदेबाजी, फिर घोषणा कि शेष साढ़े चार वर्ष के लिए भाजपा का ही मुख्यमंत्री होगा। चक्रीय आधार पर सत्ता में भागीदारी की झामुमो पेशकश को मानने से पहले इनकार और अंत में तैयार होना आदि घटनाओं ने भाजपा का मजाक बना डाला। मैं यह मानने को कतई तैयार नहीं कि भाजपा का शीर्ष नेतृत्व अपरिपक्व है। फिर ऐसी हास्यास्पद स्थिति क्यों? पिछले दिनों मैं झारखंड में था। राजनीति से सरोकार रखनेवाला प्रत्येक व्यक्ति चकित मिला कि भाजपा स्वयं अपनी कब्र खोदने को व्यग्र क्यों है? नेतृत्व के मुद्दे पर भाजपा के अंदरूनी घमासान की चर्चा गली-चौराहों पर हो रही थी। प्रदेशहित में सभी की चाहत एक स्थिर सरकार की दिखी। किंतु शीर्ष नेतृत्व में मौजूद स्वार्थी तत्व सिर्फ अपना हित देख रहे थे। पार्टी की हो रही फजीहत की इन लोगों ने जानबूझकर अनदेखी की। सामान्य कार्यकर्ता हैरान-परेशान दिखा। अध्यक्ष गडकरी की ओर से प्रदेशहित में सार्थक निर्णय की आशा वे कर रहे थे। पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा को मुख्यमंत्री के पद पर मनोनीत किए जाने से प्रदेशहित में सुशासन की आशा बंधी है। झारखंड मुक्ति मोर्चा के साथ अपने पुराने संबंध का लाभ उठा अर्जुन मुंडा एक स्थिर सरकार प्रदान करेंगे ऐसी आशा की जा सकती है। किंतु शर्त यह कि भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व में मौजूद कथित बड़े नेता अपने स्वार्थ मुंडा पर ने थोपें। वन, खनिज संपदा की लूट में साजिशकर्ताओं के पीठ पर हाथ न रखें। दबावमुक्त अर्जुन मुंडा ही सुशासन दे पाएंगे, प्रदेश को विकास की ओर ले जा सकेंगे। हां, इस प्रक्रिया में सत्ता में हिस्सेदार झारखंड मुक्ति मोर्चा विशेषत: शिबू सोरेन की भावनाओं का पूरा आदर हो यह भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए। यह भूलना घातक होगा कि झारखंड और झारखंड मुक्ति मोर्चा एक-दूसरे के पूरक हैं।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ बलात्कार!
जवाब चाहिए इन सवालों के। क्या धनबल और बाहुबल सच को कैद कर सकता है? अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ बलात्कार कर सकता है? बौद्धिक आजादी के आंदोलन को कुचल सकता है?
पिछले दिनों इस स्तंभ की अनुपस्थिति के दौरान कुछ नकली गांधीवादियों और नकली कांग्रेसियों ने इस अखबार के विरोध का एक भौंडा प्रदर्शन किया। जी हां, इस अखबार की प्रतियां जलानेवाले और निषेध सभा में अपशब्दों का इस्तेमाल करनेवाले, हिंसा की बातें करने वाले निश्चय ही न तो गांधीवादी हो सकते हैं और न ही असली कांग्रेसी। बावजूद इसके मेरा उन लोगों के प्रति आभार कि उन्होंने इस अखबार के घोष वाक्य 'एक आंदोलन बौद्धिक आजादी का' की सार्थकता चिन्हित कर दी है। इस अखबार ने बौद्धिक आजादी का आंदोलन यूं ही नहीं छेड़ा है। ऐसे ही मंद बुद्धिधारकों, भ्रष्ट बुद्धिधारकों और छुटभैये राजनेताओं के कारण आज बौद्धिकता कैद है। तुच्छ निजी स्वार्थ के कारण ऐसे तत्व मूल विषय अथवा समस्या से आम लोगों का ध्यान हटाकर गैरमुद्दों के अंधकूप में लोगों को धकेल देते हैं। मुखौटाधारी ये तत्व गांधी का नाम बेचते हैं और अपने दल-नेतृत्व का नुकसान करते हैं। क्या अचरज कि 1989 में लोकसभा में सबसे बड़ा दल होने के बावजूद अल्पमत के कारण तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने सरकार के गठन से इन्कार कर दिया! जनादेश का आदर करते हुए उन्होंने विपक्ष में बैठना पसंद किया था। किंतु आज? क्या बताने की जरूत है कि गैरवफादार नकली कांग्रेसियों की बहुतायत के कारण राजीव गांधी की पत्नी सोनिया गांधी जोड़-तोड़ कर गठबंधन सरकार के लिए मजबूर कर दी गई हैं। सच को कैद कर गांधी और कांग्रेस के नाम पर अपनी दुकानदारी चलाने वाले इन तत्वों को चुनौती है कि वे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के झंडावरदार महात्मा गांधी और पंडित जवाहरलाल नेहरू के पुतलों को जलाकर इस आजादी का निषेध करें। हिम्मत है? नहीं। कायर ये तत्व ऐसा नहीं कर पाएंगे। ऐसा करने से तो उनकी दुकानें ही बंद हो जाएंगी।
कुछ जानकार बता रहे हैं कि असल में निषेध-धरना की पहल करनेवाले लोग स्वयं एक षडय़ंत्र के शिकार बन गए। षडय़ंत्र रचा गया था उन तत्वों के द्वारा जो 'दैनिक 1857' की लोकप्रियता व तेवर से असहज हो उठे हैं। वे चैन की नींद नहीं ले पा रहे। स्वस्थ प्रतिस्पर्धा के अर्थ से अंजान इन तत्वों ने गांधी के नाम पर कुछ कांग्रेसी नताओं-कार्यकर्ताओं को भड़का दिया। हमने तो 'दैनिक 1857' के प्रकाशन के साथ ही ऐलान कर दिया था कि यह दैनिक पाठकों के लिये एक अतिरिक्त समाचार पत्र के रूप में निकाला जा रहा है। किसी से कोई स्पर्धा नहीं। बिल्कुल भिन्न, पृथक। लेकिन पूर्वाग्रही इस भावना को समझें तो कैसे? जिन गांधी के नाम पर इन तत्वों ने चिल्ल-पों ंमचाया, गांधीभक्त होने का नगाड़ा पीटा उन्होंने आज तक विवादित पुस्तक 'गांधी:नेकेड एंबिशन' पुस्तक पर प्रतिबंध लगाने की मांग क्यों नहीं की? विभिन्न वेबसाइट पर गांधीजी की सेक्स लाइफ से संबंधित अनेक घोर आपत्तिजनक सामग्री मौजूद है। कुछ तो सचित्र भी! आज की युवा पीढ़ी 'नेट' से चिपकी रहती है। उनके मन-मस्तिष्क में महात्मा गांधी के चरित्र को लेकर जो संदेह एकत्रित हो रहे हैं उसे रोकने की दिशा में इन कथित गांधीभक्तों ने अब तक क्या किया? इन्हें प्रतिबंधित किये जाने की मांग क्या इन्होंने कभी की? 'दैनिक 1857' के पूर्व बहुप्रसारित अंग्रेजी दैनिक टाइम्स ऑफ इंडिया, इंडियन एक्सपे्रस, मिड डे और लोकप्रिय मराठी साप्ताहिक लोकप्रभा जैड एडम्स की पुस्तक 'गांधी : नेकेड एंबिशन' के अंश प्रकाशित कर चुके थे। गांधी भक्तों ने इन अखबारों-पत्रिका का निषेध क्यों नहीं किया? इनकी प्रतियां क्यों नहीं जलाईं? इनकी पाठक संख्या तो लाखों में है। कारण ढूंढने के लिए विशेष व्यायाम की जरूरत नहीं। इन अखबारों-पत्रिका को छेडऩे की हिम्मत ये कर ही नहीं सकते। इनकी पूरी की पूरी दुकानदारी जो बंद हो जाती! साफ है 'दैनिक 1857' को निशाने पर लिए जाने की मंशा कुछ और थी। लेकिन 'दैनिक 1857' अविचलित है। इस दैनिक का रक्षा कवच इसका विशाल पाठक वर्ग है। मुखौटाधारियों के प्रहार का जवाब देने में सक्षम है यह पाठक वर्ग। हमें पहल करने की कोई जरूरत नहीं है। निषेध-धरना और अखबार की होलिका दहन के पश्चात की घटनाओं ने पाठकीय मंच की शक्ति को रेखांकित भी कर दिया है।
पिछले दिनों इस स्तंभ की अनुपस्थिति के दौरान कुछ नकली गांधीवादियों और नकली कांग्रेसियों ने इस अखबार के विरोध का एक भौंडा प्रदर्शन किया। जी हां, इस अखबार की प्रतियां जलानेवाले और निषेध सभा में अपशब्दों का इस्तेमाल करनेवाले, हिंसा की बातें करने वाले निश्चय ही न तो गांधीवादी हो सकते हैं और न ही असली कांग्रेसी। बावजूद इसके मेरा उन लोगों के प्रति आभार कि उन्होंने इस अखबार के घोष वाक्य 'एक आंदोलन बौद्धिक आजादी का' की सार्थकता चिन्हित कर दी है। इस अखबार ने बौद्धिक आजादी का आंदोलन यूं ही नहीं छेड़ा है। ऐसे ही मंद बुद्धिधारकों, भ्रष्ट बुद्धिधारकों और छुटभैये राजनेताओं के कारण आज बौद्धिकता कैद है। तुच्छ निजी स्वार्थ के कारण ऐसे तत्व मूल विषय अथवा समस्या से आम लोगों का ध्यान हटाकर गैरमुद्दों के अंधकूप में लोगों को धकेल देते हैं। मुखौटाधारी ये तत्व गांधी का नाम बेचते हैं और अपने दल-नेतृत्व का नुकसान करते हैं। क्या अचरज कि 1989 में लोकसभा में सबसे बड़ा दल होने के बावजूद अल्पमत के कारण तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने सरकार के गठन से इन्कार कर दिया! जनादेश का आदर करते हुए उन्होंने विपक्ष में बैठना पसंद किया था। किंतु आज? क्या बताने की जरूत है कि गैरवफादार नकली कांग्रेसियों की बहुतायत के कारण राजीव गांधी की पत्नी सोनिया गांधी जोड़-तोड़ कर गठबंधन सरकार के लिए मजबूर कर दी गई हैं। सच को कैद कर गांधी और कांग्रेस के नाम पर अपनी दुकानदारी चलाने वाले इन तत्वों को चुनौती है कि वे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के झंडावरदार महात्मा गांधी और पंडित जवाहरलाल नेहरू के पुतलों को जलाकर इस आजादी का निषेध करें। हिम्मत है? नहीं। कायर ये तत्व ऐसा नहीं कर पाएंगे। ऐसा करने से तो उनकी दुकानें ही बंद हो जाएंगी।
कुछ जानकार बता रहे हैं कि असल में निषेध-धरना की पहल करनेवाले लोग स्वयं एक षडय़ंत्र के शिकार बन गए। षडय़ंत्र रचा गया था उन तत्वों के द्वारा जो 'दैनिक 1857' की लोकप्रियता व तेवर से असहज हो उठे हैं। वे चैन की नींद नहीं ले पा रहे। स्वस्थ प्रतिस्पर्धा के अर्थ से अंजान इन तत्वों ने गांधी के नाम पर कुछ कांग्रेसी नताओं-कार्यकर्ताओं को भड़का दिया। हमने तो 'दैनिक 1857' के प्रकाशन के साथ ही ऐलान कर दिया था कि यह दैनिक पाठकों के लिये एक अतिरिक्त समाचार पत्र के रूप में निकाला जा रहा है। किसी से कोई स्पर्धा नहीं। बिल्कुल भिन्न, पृथक। लेकिन पूर्वाग्रही इस भावना को समझें तो कैसे? जिन गांधी के नाम पर इन तत्वों ने चिल्ल-पों ंमचाया, गांधीभक्त होने का नगाड़ा पीटा उन्होंने आज तक विवादित पुस्तक 'गांधी:नेकेड एंबिशन' पुस्तक पर प्रतिबंध लगाने की मांग क्यों नहीं की? विभिन्न वेबसाइट पर गांधीजी की सेक्स लाइफ से संबंधित अनेक घोर आपत्तिजनक सामग्री मौजूद है। कुछ तो सचित्र भी! आज की युवा पीढ़ी 'नेट' से चिपकी रहती है। उनके मन-मस्तिष्क में महात्मा गांधी के चरित्र को लेकर जो संदेह एकत्रित हो रहे हैं उसे रोकने की दिशा में इन कथित गांधीभक्तों ने अब तक क्या किया? इन्हें प्रतिबंधित किये जाने की मांग क्या इन्होंने कभी की? 'दैनिक 1857' के पूर्व बहुप्रसारित अंग्रेजी दैनिक टाइम्स ऑफ इंडिया, इंडियन एक्सपे्रस, मिड डे और लोकप्रिय मराठी साप्ताहिक लोकप्रभा जैड एडम्स की पुस्तक 'गांधी : नेकेड एंबिशन' के अंश प्रकाशित कर चुके थे। गांधी भक्तों ने इन अखबारों-पत्रिका का निषेध क्यों नहीं किया? इनकी प्रतियां क्यों नहीं जलाईं? इनकी पाठक संख्या तो लाखों में है। कारण ढूंढने के लिए विशेष व्यायाम की जरूरत नहीं। इन अखबारों-पत्रिका को छेडऩे की हिम्मत ये कर ही नहीं सकते। इनकी पूरी की पूरी दुकानदारी जो बंद हो जाती! साफ है 'दैनिक 1857' को निशाने पर लिए जाने की मंशा कुछ और थी। लेकिन 'दैनिक 1857' अविचलित है। इस दैनिक का रक्षा कवच इसका विशाल पाठक वर्ग है। मुखौटाधारियों के प्रहार का जवाब देने में सक्षम है यह पाठक वर्ग। हमें पहल करने की कोई जरूरत नहीं है। निषेध-धरना और अखबार की होलिका दहन के पश्चात की घटनाओं ने पाठकीय मंच की शक्ति को रेखांकित भी कर दिया है।
Monday, May 17, 2010
अपना 'मुहावरा' भूल गए लालू!
अगर यह विडंबना है तो इसे संपूर्णता में स्वीकार करें। संशय तब पैदा होता है जब भावना और नीयत को समझने में भूल हो जाए। तब विस्फोट होता है। पिछले दिनों राजनीति और मीडिया में कुछ ऐसा ही हुआ। भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी अपने कुछ शब्दों को लेकर निशाने पर लिए गए। मीडिया के दो बड़े नाम बरखा दत्त और वीर सांघवी अपने कथित भ्रष्ट आचरण के कारण सुर्खियों में रहे।पहले बात गडकरी की। सत्ता द्वारा सीबीआई के दुरुपयोग के संदर्भ में गडकरी कह बैठे कि उनके (सीबीआई) डर से लालू यादव और मुलायमसिंह यादव '.....' की तरह सोनियाजी और कांग्रेस के तलवे चाटने लगे हैं। हालांकि गडकरी ने एक मुहावरे की तरह शब्दों का प्रयोग किया था, किंतु उनकी मूल भावना से इतर शब्द विशेष को पकड़कर मीडिया ने सूली पर चढ़ा दिया। मुद्दों की तलाश में व्यग्र रहनेवाले लालू और मुलायम को मौका मिल गया। गडकरी की भावना और नीयत के तह में जाने की उन्होंने जरूरत नहीं समझी। हल्ला बोल दिया!! हालांकि गडकरी ने तत्काल अपनी मंशा को स्पष्ट करके एक सुसंस्कारी राजनीतिक की तरह न केवल खेद जताया बल्कि शब्द भी वापस ले लिए। कायदे से विषय यहीं समाप्त हो जाना चाहिए था। मुलायम ने बड़प्पन का परिचय देते हुए अपनी ओर से मामला खत्म करने की घोषणा कर डाली। लेकिन अडिय़ल लालू नहीं माने। बरास्ता जयप्रकाश आंदोलन राजनीति में प्रविष्ट लालू यादव वैसे अब किसी भी कोण से जेपी शिष्य नहीं रह गए हैं। अनेक घोटालों में फंस चुके लालू के लिए केंद्रीय सत्ता के सामने दूम हिलाना मजबूरी बन चुकी है। किंतु उनका कद ऊंचा हो जाता अगर मुलायम की तरह उन्होंने भी बड़प्पन दिखाया होता। चंूकि लालू भावना और नीयत के खेल के भुक्तभोगी रह चुके हैं, उन्हें तो मुलायम के पहले ही बड़प्पन दिखाना चाहिए था। बात उन दिनों की है जब लालू यादव चारा घोटाला कांड में पटना के जेल में बंद थे। चूंकि मामले में अनेक राजनीतिक कोण भी जुड़ गए थे, मैं उनसे मिलने जेल गया था। यह वह काल था जब लालू जनता दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे और केंद्र में उनके दल के नेतृत्व की सरकार थी। एच.डी. देवगौड़ा प्रधानमंत्री थे। लालू और देवगौड़ा के बीच मतभेद की खबरें प्राय: प्रतिदिन सुर्खियां बनती थीं। बातचीत के दौरान लालू ने दुखी मन से देवगौड़ा के साथ मतभेद के मुख्य कारण की जानकारी दी। लालू ने बताया कि एक बार जनता दल के कुछ लोग देवगौड़ा के संबंध में उनसे चर्चा कर रहे थे। लालू के अनुसार चर्चा के दौरान किसी ने टिप्पणी की थी कि, ''...उस कालिया (देवगौड़ा) पर विश्वास नहीं करना चाहिए।'' लालू ने याद करते हुए मुझे बताया था कि ,''... मेरे मुंह से तब यूं ही निकल पड़ा कि वे (देवगौड़ा) नाग हैं क्या?'' फिर क्या था! दल के कुछ लोगों ने तत्कालीन प्रधानमंत्री देवगौड़ा से चुगली कर डाली कि लालू तो आपको नाग अर्थात्ï सांप कहकर बुलाते हैं। देवगौड़ा बिफर पड़े और वहीं से दोनों के बीच मतभेद बढ़ गये, दूरियां बढ़ गईं। मतभेद इतना तीव्र कि जनता दल दो फाड़ हो गया। लालू ने अलग से राष्ट्रीय जनता दल गठित कर दिया। लालू ने स्वयं कहा था कि उनकी देवगौड़ा को अपमानित करने की कोई मंशा नहीं थी। नाग शब्द का प्रयोग उन्होंने एक मुहावरे के रूप में किया था।आज गडकरी के संदर्भ में मुझे लालू यादव के वे शब्द याद आ रहे हैं। यह सवाल भी रह-रहकर कौंध रहा है कि जब लालू शब्दों में निहीत भावना और नीयत के यथार्थ को समझते हैं, उसे सही मायने में परिभाषित कर सकते हैं तब फिर गडकरी के मामले में वे जिद्दी कैसे बन बैठे? अगर इसके पीछे सिर्फ राजनीति है तब मैं चाहूंगा कि राजनीतिक लाभ के लिए लालू यादव कोई और मुद्दा ढूंढें। मुलायम की तरह वे भी बड़प्पन दिखा दें। विषय पर इतिश्री जड़ दें। उनका कद ऊंचा ही होगा, नीचा नहीं। पत्रकार बरखा दत्त और वीर सांघवी का अपराध अक्षम्य है। उन्होंने तो पूरी की पूरी पत्रकार बिरादरी के चरित्र पर ही सवालिया निशान जड़ दिये हैं। युवा पत्रकारों के 'आदर्श' इन दोनों ने स्वयं को सत्ता की दलाल नीरा राडिया की पंक्ति में खड़ा कर घृणा का पात्र बना डाला। ऐसा नहीं होना चाहिए था। संपर्कों का लाभ बिरादरी को नई ऊंचाइयों तक पहुंचाने की बजाय उन्होंने सोने के सिक्कों के लिए 'आदर्श' का ही सौदा कर लिया। सचमुच प्रेस कौंसिल के अध्यक्ष तब गलत नहीं थे जब उन्होंने आज की पत्रकारिता को वेश्यावृत्ति से जोड़कर प्रस्तुत किया था। निश्चय ही बरखा और सांघवी की तरह उन्हें अन्य घिनौने उदाहरण भी मिले होंगे। बरखा और सांघवियों की मीडिया में बहुतायत मौजूदगी पेशे को कलंकित कर रही है। अब समय आ गया है जब बिरादरी के लोग अपने हौल-खौल मौजूद ऐस दागी पत्रकारों को पहचान कर उन्हें न केवल बेनकाब करें बल्कि धकिया कर बिरादरी से बाहर कर दें। पेशे की पवित्रता और विश्वसनीयता को कायम रखने के लिए ऐसा कठोर कदम उठाना ही होगा।
Sunday, May 2, 2010
गडकरी के लिए निर्णय की घड़ी
क्या सचमुच नैतिकता, ईमानदारी, मूल्य, सरोकार, रिश्ते, धर्म, सचाई, संवेदना, विश्वास, समर्पण, प्रतिबद्धता, त्याग, मित्रता, सौहाद्र्र जैसे शब्द और इनके निहितार्थ बेमानी हो गए हैं? पूरे समाज-देश पर इनके विपरीतार्थ शब्दों के कब्जे को देखते हुए मस्तिष्क में यह सवाल हथौड़े की चोट सरीखा प्रहार कर रहा है। मेरी इस वेदना का समाधान मेरे एक मित्र अपने ढंग से किया करते हैं। वे तर्क देते हैं धर्मशास्त्र में वर्णित कलियुग का। कहते हैं, जो कुछ समाज में घट रहा है वह सब कलियुग के लिए निर्धारित है। ऐसा होना था सो हो रहा है। शास्त्रों में साफ-साफ लिखा है कि कलियुग में झूठ-छल-कपट-अनाचार का बोलबाला होगा। चारों ओर पाप ही पाप नजर आएगा। यहां तक कि सारे पवित्र रिश्ते भी तार-तार हो जाएंगे। जब इनकी अति हो जाएगी तब पाप का घड़ा पूरा भर फूट जाएगा। इसके साथ ही कलियुग का अर्थात् ऐसे पापों का अंत होगा। तो क्या इसे पूर्व निर्धारित नियति मानकर हम मौन रहें, तटस्थ बने रहें? मुझे यह स्वीकार्य नहीं। जब ईश्वर ने मानव योनि में जन्म दिया है तब मानवीय संवेदना, सभ्यता और इनसे जुड़ी अपेक्षाओं का आदर तो करूंगा ही। मित्र का तर्क है कि अगर ऐसा किया तब दुर्घटनाग्रस्त हो जाऊंगा! चिंता नहीं। मैं इसके लिए तैयार हूं।
पिछले दिन दिल्ली में था। झारखंड के राजनीतिक संग्राम में खिंची तलवारों को देखकर विस्मित रह गया। महाभारत के पांडव-कौरव के सामने तो लक्ष्य निर्धारित थे। इस महासंग्राम में अपने ही पक्ष के लोगों पर छुपा वार होते देखा। अहं और निज स्वार्थ के लिए पार्टी, देश और लोकतंत्र के हित के विरुद्ध व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए पार्टी की छवि को दागदार बनाते देखा, लोकतंत्र को कलंकित करते देखा। यहां मैं बात भारतीय जनता पार्टी और झारखंड मुक्ति मोर्चा की कर रहा हूं। दोनों का गठबंधन झारखंड प्रदेश में सत्तारूढ़ है। मोर्चा के संस्थापक शिबू सोरेन मुख्यमंत्री हैं। पारिवारिक और राजनीतिक कारणों से 'अस्वस्थ' शिबू सोरेन अर्थात् गुरुजी से एक भूल हुई। भाजपा को असहज स्थिति का सामना करना पड़ा। गुरुजी ने न केवल क्षमा मांगी बल्कि मुख्यमंत्री पद से इस्तीफे की पेशकश भी कर डाली। यह पेशकश भी कर दी कि भाजपा चाहे तो मुख्यमंत्री पद भी ले ले। स्थिति की नाजुकता को भांप भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी प्रदेश में सोरेन सरकार से समर्थन वापसी के निर्णय पर पुनर्विचार करते हुए मामले को सुलझाने में जुट गए। पल-पल परिवर्तित घटना विकासक्रम से पाठक परिचित होंगे। मेरी पीड़ा कुछ और है। भाजपा के कद्दावर नेताओं को अपने-अपने अहं की तुष्टि के लिए पार्टी की छवि की चिंता से निर्लिप्त देखा। कांग्रेस के मुकाबले राष्ट्रीय विकल्प के रूप में तेजी से स्थापित हो रही भाजपा के मार्ग में इन नेताओं को अवरोधक खड़े करते देखा। आश्चर्य हुआ यह देखकर कि ये सभी पार्टी के भविष्य को लेकर चिंतित नहीं बल्कि चिंता इस बात की कि आक्रामक गडकरी का लक्ष्य 2014 सफल न हो। और यह भी कि पार्टी की कोई भी उपलब्धि गडकरी के खाते में न जाए और विफलताओं के लिए सारा की सारा देाष गडकरी के सिर पर हो। अगर यह सब भी कलियुग के पूर्व निर्धारित नियति के अंश हैं तब भी गडकरी को मुकाबले के लिए आगे आना ही होगा। दिल्ली की दलदली राजनीति से अब तक वे बखूबी परिचित हो चुके होंगे। अगर वे इस दलदल को पीछे छोड़ अपने लक्ष्य को प्राप्त करना चाहते हैं तो कठोर निर्णय लेने ही होंगे। उदार समन्वय-सहयोग तो ठीक है किन्तु सफलता के लिए 'स्व-निर्णय' को चिन्हित करना ही होगा। गडकरीजी, अब और विलंब नहीं। अब कठोर निर्णय ही आपको पार्टी अध्यक्ष के रूप में राजनीतिक सफलता दे पाएंगे। अब घड़ी निर्णय की है, चूके नहीं।
पिछले दिन दिल्ली में था। झारखंड के राजनीतिक संग्राम में खिंची तलवारों को देखकर विस्मित रह गया। महाभारत के पांडव-कौरव के सामने तो लक्ष्य निर्धारित थे। इस महासंग्राम में अपने ही पक्ष के लोगों पर छुपा वार होते देखा। अहं और निज स्वार्थ के लिए पार्टी, देश और लोकतंत्र के हित के विरुद्ध व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए पार्टी की छवि को दागदार बनाते देखा, लोकतंत्र को कलंकित करते देखा। यहां मैं बात भारतीय जनता पार्टी और झारखंड मुक्ति मोर्चा की कर रहा हूं। दोनों का गठबंधन झारखंड प्रदेश में सत्तारूढ़ है। मोर्चा के संस्थापक शिबू सोरेन मुख्यमंत्री हैं। पारिवारिक और राजनीतिक कारणों से 'अस्वस्थ' शिबू सोरेन अर्थात् गुरुजी से एक भूल हुई। भाजपा को असहज स्थिति का सामना करना पड़ा। गुरुजी ने न केवल क्षमा मांगी बल्कि मुख्यमंत्री पद से इस्तीफे की पेशकश भी कर डाली। यह पेशकश भी कर दी कि भाजपा चाहे तो मुख्यमंत्री पद भी ले ले। स्थिति की नाजुकता को भांप भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी प्रदेश में सोरेन सरकार से समर्थन वापसी के निर्णय पर पुनर्विचार करते हुए मामले को सुलझाने में जुट गए। पल-पल परिवर्तित घटना विकासक्रम से पाठक परिचित होंगे। मेरी पीड़ा कुछ और है। भाजपा के कद्दावर नेताओं को अपने-अपने अहं की तुष्टि के लिए पार्टी की छवि की चिंता से निर्लिप्त देखा। कांग्रेस के मुकाबले राष्ट्रीय विकल्प के रूप में तेजी से स्थापित हो रही भाजपा के मार्ग में इन नेताओं को अवरोधक खड़े करते देखा। आश्चर्य हुआ यह देखकर कि ये सभी पार्टी के भविष्य को लेकर चिंतित नहीं बल्कि चिंता इस बात की कि आक्रामक गडकरी का लक्ष्य 2014 सफल न हो। और यह भी कि पार्टी की कोई भी उपलब्धि गडकरी के खाते में न जाए और विफलताओं के लिए सारा की सारा देाष गडकरी के सिर पर हो। अगर यह सब भी कलियुग के पूर्व निर्धारित नियति के अंश हैं तब भी गडकरी को मुकाबले के लिए आगे आना ही होगा। दिल्ली की दलदली राजनीति से अब तक वे बखूबी परिचित हो चुके होंगे। अगर वे इस दलदल को पीछे छोड़ अपने लक्ष्य को प्राप्त करना चाहते हैं तो कठोर निर्णय लेने ही होंगे। उदार समन्वय-सहयोग तो ठीक है किन्तु सफलता के लिए 'स्व-निर्णय' को चिन्हित करना ही होगा। गडकरीजी, अब और विलंब नहीं। अब कठोर निर्णय ही आपको पार्टी अध्यक्ष के रूप में राजनीतिक सफलता दे पाएंगे। अब घड़ी निर्णय की है, चूके नहीं।
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