Monday, May 17, 2010
अपना 'मुहावरा' भूल गए लालू!
अगर यह विडंबना है तो इसे संपूर्णता में स्वीकार करें। संशय तब पैदा होता है जब भावना और नीयत को समझने में भूल हो जाए। तब विस्फोट होता है। पिछले दिनों राजनीति और मीडिया में कुछ ऐसा ही हुआ। भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी अपने कुछ शब्दों को लेकर निशाने पर लिए गए। मीडिया के दो बड़े नाम बरखा दत्त और वीर सांघवी अपने कथित भ्रष्ट आचरण के कारण सुर्खियों में रहे।पहले बात गडकरी की। सत्ता द्वारा सीबीआई के दुरुपयोग के संदर्भ में गडकरी कह बैठे कि उनके (सीबीआई) डर से लालू यादव और मुलायमसिंह यादव '.....' की तरह सोनियाजी और कांग्रेस के तलवे चाटने लगे हैं। हालांकि गडकरी ने एक मुहावरे की तरह शब्दों का प्रयोग किया था, किंतु उनकी मूल भावना से इतर शब्द विशेष को पकड़कर मीडिया ने सूली पर चढ़ा दिया। मुद्दों की तलाश में व्यग्र रहनेवाले लालू और मुलायम को मौका मिल गया। गडकरी की भावना और नीयत के तह में जाने की उन्होंने जरूरत नहीं समझी। हल्ला बोल दिया!! हालांकि गडकरी ने तत्काल अपनी मंशा को स्पष्ट करके एक सुसंस्कारी राजनीतिक की तरह न केवल खेद जताया बल्कि शब्द भी वापस ले लिए। कायदे से विषय यहीं समाप्त हो जाना चाहिए था। मुलायम ने बड़प्पन का परिचय देते हुए अपनी ओर से मामला खत्म करने की घोषणा कर डाली। लेकिन अडिय़ल लालू नहीं माने। बरास्ता जयप्रकाश आंदोलन राजनीति में प्रविष्ट लालू यादव वैसे अब किसी भी कोण से जेपी शिष्य नहीं रह गए हैं। अनेक घोटालों में फंस चुके लालू के लिए केंद्रीय सत्ता के सामने दूम हिलाना मजबूरी बन चुकी है। किंतु उनका कद ऊंचा हो जाता अगर मुलायम की तरह उन्होंने भी बड़प्पन दिखाया होता। चंूकि लालू भावना और नीयत के खेल के भुक्तभोगी रह चुके हैं, उन्हें तो मुलायम के पहले ही बड़प्पन दिखाना चाहिए था। बात उन दिनों की है जब लालू यादव चारा घोटाला कांड में पटना के जेल में बंद थे। चूंकि मामले में अनेक राजनीतिक कोण भी जुड़ गए थे, मैं उनसे मिलने जेल गया था। यह वह काल था जब लालू जनता दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे और केंद्र में उनके दल के नेतृत्व की सरकार थी। एच.डी. देवगौड़ा प्रधानमंत्री थे। लालू और देवगौड़ा के बीच मतभेद की खबरें प्राय: प्रतिदिन सुर्खियां बनती थीं। बातचीत के दौरान लालू ने दुखी मन से देवगौड़ा के साथ मतभेद के मुख्य कारण की जानकारी दी। लालू ने बताया कि एक बार जनता दल के कुछ लोग देवगौड़ा के संबंध में उनसे चर्चा कर रहे थे। लालू के अनुसार चर्चा के दौरान किसी ने टिप्पणी की थी कि, ''...उस कालिया (देवगौड़ा) पर विश्वास नहीं करना चाहिए।'' लालू ने याद करते हुए मुझे बताया था कि ,''... मेरे मुंह से तब यूं ही निकल पड़ा कि वे (देवगौड़ा) नाग हैं क्या?'' फिर क्या था! दल के कुछ लोगों ने तत्कालीन प्रधानमंत्री देवगौड़ा से चुगली कर डाली कि लालू तो आपको नाग अर्थात्ï सांप कहकर बुलाते हैं। देवगौड़ा बिफर पड़े और वहीं से दोनों के बीच मतभेद बढ़ गये, दूरियां बढ़ गईं। मतभेद इतना तीव्र कि जनता दल दो फाड़ हो गया। लालू ने अलग से राष्ट्रीय जनता दल गठित कर दिया। लालू ने स्वयं कहा था कि उनकी देवगौड़ा को अपमानित करने की कोई मंशा नहीं थी। नाग शब्द का प्रयोग उन्होंने एक मुहावरे के रूप में किया था।आज गडकरी के संदर्भ में मुझे लालू यादव के वे शब्द याद आ रहे हैं। यह सवाल भी रह-रहकर कौंध रहा है कि जब लालू शब्दों में निहीत भावना और नीयत के यथार्थ को समझते हैं, उसे सही मायने में परिभाषित कर सकते हैं तब फिर गडकरी के मामले में वे जिद्दी कैसे बन बैठे? अगर इसके पीछे सिर्फ राजनीति है तब मैं चाहूंगा कि राजनीतिक लाभ के लिए लालू यादव कोई और मुद्दा ढूंढें। मुलायम की तरह वे भी बड़प्पन दिखा दें। विषय पर इतिश्री जड़ दें। उनका कद ऊंचा ही होगा, नीचा नहीं। पत्रकार बरखा दत्त और वीर सांघवी का अपराध अक्षम्य है। उन्होंने तो पूरी की पूरी पत्रकार बिरादरी के चरित्र पर ही सवालिया निशान जड़ दिये हैं। युवा पत्रकारों के 'आदर्श' इन दोनों ने स्वयं को सत्ता की दलाल नीरा राडिया की पंक्ति में खड़ा कर घृणा का पात्र बना डाला। ऐसा नहीं होना चाहिए था। संपर्कों का लाभ बिरादरी को नई ऊंचाइयों तक पहुंचाने की बजाय उन्होंने सोने के सिक्कों के लिए 'आदर्श' का ही सौदा कर लिया। सचमुच प्रेस कौंसिल के अध्यक्ष तब गलत नहीं थे जब उन्होंने आज की पत्रकारिता को वेश्यावृत्ति से जोड़कर प्रस्तुत किया था। निश्चय ही बरखा और सांघवी की तरह उन्हें अन्य घिनौने उदाहरण भी मिले होंगे। बरखा और सांघवियों की मीडिया में बहुतायत मौजूदगी पेशे को कलंकित कर रही है। अब समय आ गया है जब बिरादरी के लोग अपने हौल-खौल मौजूद ऐस दागी पत्रकारों को पहचान कर उन्हें न केवल बेनकाब करें बल्कि धकिया कर बिरादरी से बाहर कर दें। पेशे की पवित्रता और विश्वसनीयता को कायम रखने के लिए ऐसा कठोर कदम उठाना ही होगा।
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3 comments:
बढ़िया ...नेताओं के बारें में यह कहना ठीक होगा की हाथी के दांत खाने के और दिखने के और
इसे भी देख ले www.jugaali.blogspot.com
वेश्याबिर्ती से भी बदतर हालत में पत्रकारिता को पहुँचाने वाले पत्रकार को सरे आम फांसी की सजा दी जानी चाहिए ,क्योकि ये जघन्य अपराध की परिभाषा में आता है और इस कुकर्म से सारा देश नरक बन गया है /
अब आपको भी बरखा जी का नोटिस मिलने ही वाला है..
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