Thursday, December 31, 2009
कांग्रेस की वर्षगांठ, राहुल का नववर्ष!
मैंने दिल्ली के अपने पत्रकार मित्रों से जानकारी लेनी चाही तो वे सिर्फ रहस्यमय मुस्कान ही दे पाए। हां, यह अवश्य बताया कि इसमें अजूबा क्या है? देश की भोली-भाली गरीब जनता के बीच 'गांधी' बन पहुंचने वाले राहुल गांधी इस सच को जान गए हैं कि गरीब, शोषित बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक वर्ग की सुध लेकर ही चुनावी वैतरणी पार कर सकते हैं। सभा, समारोह, संसद की उपयोगिता सीमित है। फिर क्या आश्चर्य कि जब संसद में बाबरी मस्जिद विध्वंस संबंधी लिबरहान आयोग की रिपोर्ट पर गरमागरम बहस चल रही थी, राहुल गांधी अलीगढ़ में मुस्लिम छात्रों को संबोधित कर रहे थे! और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह थे विदेश दौरे पर। 'गांधी दर्शन' कथित रुप से आत्मसात कर लेने वाले राहुल गरीबों की झोपडिय़ों में जा उनके साथ चाय पीते हैं, भोजन करते हैं। ठीक उसी तरह जैसा कभी लालू प्रसाद यादव किया करते थे। फर्क यह है कि राहुल के झोपड़ी में पहुंचने से पूर्व सुरक्षाकर्मी झोपड़ी की न केवल साफ-सफाई कर दिया करते हैं बल्कि उस गरीब परिवार की झोपड़ी में अच्छे खाद्य पदार्थ भी पहुंचा दिया करते हैं। लालू के लिए ऐसी व्यवस्था नहीं की जाती थी। वे अचानक पहुंचते थे और जो उपलब्ध रहता था उसे खा-पी लिया करते थे। किन्तु उनका 'नाटक' बेअसर रहा। जनता ने उन्हें, उनकी पार्टी को नकार दिया। बिहार में उनकी सत्ता समाप्त हुई और बाद में केंद्रीय शासन से भी अलग कर दिए गए। राहुल के भविष्य पर अभी कोई टिप्पणी नहीं। लालू और नेहरु-गांधी परिवार में फर्क तो है ही। नेहरु-गांधी परिवार के प्रति आकर्षण कांग्रेस पार्टी की अतिरिक्त शक्ति है। पार्टी की 125वीं वर्षगांठ समारोह में कांग्रेस और नेहरु गांधी परिवार का राष्ट्र निर्माण व विकास में योगदान पर लंबे चौड़े भाषण दिए गए। यहां तक तो ठीक था। किंतु जब आर्थिक सुधार और उदार अर्थनीति के लिए राजीव गांधी को श्रेय दिया गया तब लोगों की भौंहे तन गई। आर्थिक सुधारों के लिए राजीव गांधी को श्रेय दिए जाने से बड़ा झूठ और कुछ नहीं हो सकता। वह भी प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह की उपस्थिति में। वह तो नरसिम्हा राव थे जिन्होंने 1991 में प्रधानमंत्री बनने के बाद डॉ. मनमोहन सिंह को वित्तमंत्री बनाया। राव ने तब डॉ. सिंह के साथ मिलकर आर्थिक सुधार की रूपरेखा तैयार की। उदारवादी नीति को अपनाया। आर्थिक सुधार के क्षेत्र में वस्तुत: तब क्रांति का बीजारोपण हुआ था। मुझे अच्छी तरह याद है सन 2004 में नरहिम्हा राव की दिल्ली में मृत्यु के बाद शोक प्रकट करते हुए प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने कहा था, 'नरसिम्हा राव देश में आर्थिक सुधार के जनक थे।' खेद है कि उसी मनमोहन सिंह की मौजूदगी में आर्थिक क्रांति का श्रेय राव से छीनकर राजीव गांधी को दे दिया गया। इस अवसर पर प्रधानमंत्री का मौन शर्मनाक था। लेकिन, परिवारवाद को सिंचित कर रही कांग्रेस पार्टी की संस्कृति किसी अन्य को महिमामंडित किए जाने की अनुमति नहीं देती। बेचारे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह क्या करते! क्या लोकतांत्रिक भारत अपनी इस अवस्था पर गर्व करे?
Wednesday, December 30, 2009
अपेक्षा एक स्थिर झारखंड की!
जवाब पहले सवाल का, पृथक राज्य के रूप में अस्तित्व में आने के बाद से ही झारखंड राजनीतिक षड्यंत्र का शिकार होता रहा है। सभी ने षडयंत्र रच खनिज व वन संपदा में अद्वितीय इस प्रदेश को लूटा। मुझे याद है, झारखंड आंदोलन का वह काल जब आंदोलनकारी नेता गर्व के साथ दलील दिया करते थे कि राज्य बनने पर झारखंड अपने संसाधनों से देश का सर्वाधिक समृद्ध राज्य बन जाएगा। उस दावे के आधार मजबूत थे लेकिन झारखंड का दुर्भाग्य कि जिन हाथों में नेतृत्व गया उनकी प्राथमिकता लूट की रही, विकास और सुशासन को हाशिए पर रख दिया गया। पिछले छह मुख्यमंत्री चाहे जितना भी दावा कर लें, इस तथ्य को झुठलाया नहीं जा सकता है कि किसी ने भी झारखंड में विकास के लिए गंभीर प्रयास नहीं किए। कारण चाहे जो भी हो राजनीतिक अस्थिरता की दुहाई देकर वे अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकते।
झारखंड के उपरोक्त सच के आलोक में खंडित जनादेश ने एक बार फिर खतरे की घंटी बजा दी। शिबू सोरेन अपने डेढ़ दर्जन विधायकों के साथ मुख्यमंत्री पद के दावेदार बने। कांग्रेस व उसकी सहयोगी बाबूलाल मरांडी के नेतृत्व वाले झारखंड विकास मोर्चा ने सोरेन का साथ देने से इंकार किया तो अपने स्वार्थवश कांग्रेस नेतृत्व पहले से ही सोरेन के खिलाफ था। कारण स्पष्ट है, दोहराने की जरूरत नहीं। बाबूलाल मरांडी आदिवासियों के बीच सोरेन के विकल्प के रूप में स्वयं को स्थापित कर रहे हैं, ऐसे में वे सोरेन का साथ कैसे देते? इसके पूर्व मधु कोड़ा की सरकार और फिर राष्ट्रपति शासन से त्रस्त झारखंड ऐसा कोई खतरा लेने को तैयार नहीं था। भाजपा नेतृत्व ने प्रदेश हित में कड़ा फैसला करते हुए सोरेन को समर्थन दे दिया। 82 सदस्यीय विधानसभा में आजसू के 5 विधायकों के साथ भाजपा, झामुमो के 44 विधायकों का बहुमत राज्य को स्थिर सरकार देने में सक्षम है। भाजपा पर यह आरोप कि उसने सिर्फ सत्ता के लिए अवसरवादी निर्णय लिया है, तर्क संगत नहीं। अगर भाजपा समर्थन नहीं देती तब कि स्थिति की कल्पना कीजिए। प्रदेश राष्ट्रपति शासन के अधीन होता और पुन: चुनाव होते। निश्चय ही ऐसी अवस्था प्रदेश के हित में नहीं होती। मतदाता के साथ छल भी होता या इस बात की भी कोई गारंटी नहीं थी कि पुनर्मतदान पश्चात किसी एक दल को बहुमत मिल ही जाता। भाजपा ने जोखिम उठाया, यह ठीक है किन्तु प्रयोग के तौर पर ही सही विकास के नारे के साथ राजनीतिक स्थिरता प्रदान करने की पहल की।
जहां तक सरकार के स्थायित्व का सवाल है यह तो तय है कि गठबंधन के तीनों घटकों में समय-समय पर मनमुटाव, संघर्ष, विवाद होंगे, खींचतान भी होगी, आरोप-प्रत्यारोप के बावजूद वर्तमान सरकार दीर्घायु होगी, अल्पायु नहीं। झारखंड मुक्ति मोर्चा का नेतृत्व अर्थात शिबू सोरेन कभी डगमगाए भी तो उसे संतुलित करने के लिए भाजपा और आजसू तट पर मिलेंगे। झारखंड की त्रासदी देखते हुए ये तीनों अस्थिरता की डगर पर चलने की हिम्मत नहीं कर सकते। मतदाता के विश्वास से अब जो भी खिलवाड़ करेगा। उसे फिर कोई पनाह नहीं देगा। चूंकि अगले वर्ष पड़ोसी बिहार में चुनाव होना है, भाजपा अपने नए अध्यक्ष नितिन गडकरी के घोष वाक्य 'विकास के लिए राजनीति' के मार्ग पर चलेगी और तब झारखंड मुक्ति मोर्चा और आजसू भी स्वयं को एक दूसरे से अधिक विकासोन्मुख साबित करने की होड़ शुरु कर देंगे। ऐसी स्थिति झारखंड के लिए निश्चय ही हितकारी साबित होगी। सत्ता के लालच के बावजूद अगले चुनाव को ध्यान में रखते हुए शायद ही इन तीनों में से कोई मतदाता के साथ विश्वासघात से इंकार करे। राज्य विकास की ओर अग्रसर होगा तब शिबू सोरेन का कथित स्याह अतीत भी स्वच्छ हो जाएगा।
Tuesday, December 29, 2009
एक 'मर्द' शीला बाकी सब...?
अब उस मुद्दे पर जिसे आधार बनाकर बाल ठाकरे ने यह ताजा टिप्पणी की है। शीला दीक्षित की प्रशंसा करने वाले ठाकरे कहते हैं कि किसी जमाने में कांग्रेस पार्टी में इंदिरा गांधी एकमात्र मर्द थीं। कांग्रेस में इन दिनों शीला दीक्षित एकमात्र मर्द हैं, इसलिए कि शीला दीक्षित ने दिल्ली में पर-प्रांतीयों की बढ़ती भीड़ के खिलाफ कठोर भूमिका अपनाई है। निर्भीक होकर शीला दीक्षित ने कहा है कि पड़ोसी राज्यों से आने वालों के कारण दिल्ली की समस्या बढ़ रही है। ठाकरे मतानुसार, शीला ने जो बात दिल्ली के लिए कही है, वही बात पूरी तरह से मुंबई पर भी लागू होती है। यहां दो बातें स्पष्ट हैं एक तो यह कि ठाकरे की स्मरण-शक्ति क्षीण हो गई है, दूसरी ठाकरे अभी भी मुंबई को अपनी जागीर समझने की भूल कर रहे हैं।
यह ठीक है कि शीला दीक्षित ने पर-प्रांतीयों के विषय में ऐसी टिप्पणी की थी किंतु ठाकरे साहब आपको याद दिला दूं कि उनकी टिप्पणी से जो बवाल उठा था, उसके 24 घंटे के अंदर शीला दीक्षित ने माफी मांगते हुए अपने शब्दों को वापस ले लिया था। निश्चय ही कोई निडर 'मर्द' ऐसा नहीं करता। यह कैसा मर्द जो 24 घंटे में ही अपने उगले को निगल माफी मांग ले। शीला दीक्षित ने वस्तुत: एक अच्छे व निष्पक्ष शासक की तरह गलती का एहसास करते हुए क्षमा मांगी थी। यह एक अच्छा राजनीतिक गुण है। अगर बाल ठाकरे पर-प्रांतीयों के कारण दिल्ली की समस्या को मुंबई की समस्या बताते हैं और शीला दीक्षित को मर्द मानते हैं तो अविलंब शीला की तरह सार्वजनिक रूप से क्षमा मांगें। तब वे भी मर्द कहलाएंगे। शीला को आदर्श मानने वाले बाल ठाकरे क्या ऐसा करने को तैयार है?
प्रसंगवश, इससे संबंधित एक और वाकये की बाल ठाकरे को याद दिला दूं। जिन दिनों शीला दीक्षित ने उपरोक्त टिप्पणी की थी, उन्हीं दिनों दिल्ली के उप राज्यपाल ने एक आदेश निकाल दिया था कि दिल्ली में किसी अन्य राज्यों द्वारा जारी 'ड्रायविंग लायसेंस' वैध नहीं माने जाएंगे। अर्थात, महाराष्ट्र राज्य में जारी लायसेंस को भी सही मानने से दिल्ली के उप राज्यपाल ने इनकार कर दिया था। यानी, दिल्ली के उप राज्यपाल की नजर में महाराष्ट्र भी अविश्वसनीय था। क्या बाल ठाकरे इस पर कोई टिप्पणी करना चाहेंगे? उक्त आदेश पर भी बवाल मचा और विवश उप राज्यपाल को अपना आदेश वापस लेना पड़ा। इन तथ्यों की मौजूदगी के बावजूद बाल ठाकरे द्वारा शीला दीक्षित को उद्धृत करना निश्चय ही एक हास्यापद कृत्य है?
Monday, December 28, 2009
भाजपा-शिवसेना हाथ मिलाएं, मजबूती से
शिबू सोरेन के झारखंड मुक्ति मोर्चा को भाजपा ने समर्थन की घोषणा की नहीं कि 'विद्वान समीक्षक' और विरोधी पक्ष सक्रिय हो गए। अखबारों में ऐसे समीक्षकों ने लिखा कि मूल्यों की दुहाई देने वाली भाजपा भी सिद्धांतहीन गठबंधन कर बैठी। टीवी चैनलों पर पुराने फुटेज दिखाए जाने लगे, जिनमें लोकसभा में विपक्ष के नेता के रूप में लालकृष्ण आडवाणी को तब के केंद्रीय मंत्री शिबू सोरेन के खिलाफ दहाड़ते दिखाया गया। संसद के बाहर तेजतर्रार सुषमा स्वराज को शिबू सोरेन की बखिया उधेड़ते हुए यह कहते हुए दिखाया गया कि ऐसे व्यक्ति को मंत्री बने रहने का कोई अधिकार नहीं है। यह भी दिखाया गया कि भाजपा के नए राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी ने किन जोरदार शब्दों में विकास और मूल्यों की राजनीति की बातें कही थीं। सभी का एकमात्र उद्देश्य भाजपा को 'पार्टी विथ द डिफरेंस' संबंधी दावे की याद दिलाई जाए। मैं इसे एक स्वस्थ आलोचना के रूप में देख रहा हूं। शुभचिंतक ऐसी बातों को सामने लाकर संशोधन की कामना करते हैं। झारखंड अपने निर्माण के समय से ही दुविधा में जीता आया है। राज्य गठन के बाद से पिछले 9 वर्षों में 6 मुख्यमंत्री बने। एक के बाद एक सरकारें गिरीं, सत्ता के लिए छीना-झपटी, घात-प्रतिघात होते रहे, नेताओं के भ्रष्टाचार कुछ यूं उजागर हुए कि राष्ट्रीय स्तर पर उन्हें सुर्खियां मिली। फिर क्या आश्चर्य कि सभी राजनीतिक दल जनता की नजरों में संदिग्ध बन बैठे। अस्थिरता के न रूकने वाले दौर के कारण कोई भी सरकार अपने कार्यकाल का सकारात्मक प्रभाव नहीं छोड़ पाई। कोई भी पार्टी इतना दम-खम नहीं दिखा सकी कि लोग-बाग उसे शासन की बागडोर सौंपने को तैयार हों। खंडित जनादेश इसी स्थिति की परिणति है। ऐसे में भाजपा ने अपनी ओर से पहल कर शिबू सोरेन को समर्थन देने का निर्णय लिया है, तब स्थिरता के पक्ष में उन्हें समय और अवसर दिया जाना चाहिए। मैं पहले जब भी अवसर मिला, इस तथ्य को रेखांकित करता रहा हूं कि एक सरलहृदयी क्रांतिकारी शिबू सोरेन हमेशा साजिशों के शिकार होते रहे हैं या फिर उनकी सरलता और उदारता का बेजा इस्तेमाल कर राजनीतिक दलों ने उनका उपयोग किया। भाजपा नेतृत्व को शिबू के इस पाश्र्व को ध्यान में रखते हुए उन्हें 'सु-शासन' के पक्ष में तैयार करना होगा, प्रेरित करना होगा। शासन के व्यवहार में आने वाली वर्जनाओं को हाशिए पर रख झारखंड के 'गुरूजी' के 'सपनों के झारखंड' को मूर्त रूप देने के लिए परस्पर सहयोग व विश्वास जरूरी है। झारखंड की जनता वस्तुत: शिबू की तरह सरलहृदयी व उदार है। उसके आगोश में कोई भी शरण ले सकता है। शर्त यह है कि उसकी पीठ में छुरा न भोंका जाए। राजनीतिक स्थिरता की स्थापना के लिए भी परस्पर विश्वास-सहयोग जरूरी है। इस आग्रह को भाजपा, झाारखंड मुक्ति मोर्चा, जद(यू) और आजसू भी हृदयस्थ कर लें।
Sunday, December 27, 2009
बेशर्म तिवारी का यह कैसा महिमामंडन!
Saturday, December 26, 2009
छेड़छाड़ ही नहीं, हत्या के अपराधी हैं 'राठौर'!
Friday, December 25, 2009
तेलंगाना : कमजोर एवं विवश केंद्र सरकार
Thursday, December 24, 2009
अब होगी शिबू सोरेन की असली परीक्षा!
Wednesday, December 23, 2009
फिर कटघरे में न्याय प्रणाली!
नि:संदेह इस मामले में अदालत की भूमिका ने न्याय की मूल भावना को चोट पहुंचाई है। विलंबित और संदिग्ध न्याय ने इस जरूरत को मजबूती प्रदान की है कि भारतीय न्याय व्यवस्था सुधार की आग्रही है।
आज से 19 वर्ष पूर्व 14 साल की उभरती हुई टेनिस खिलाड़ी रुचिका गिरौत्रा के यौन उत्पीडऩ का आरोप तब के पुलिस महानिरीक्षक एसपीएस राठौड पर लगा था। चश्मदीद गवाह के रूप में रुचिका की एक मित्र मधु सामने आई और न्याय के लिए 19 वर्षों तक डटी रही। उसने पुलिस और अदालत को रुचिका के साथ छेड़छाड़ की घटना का सविस्तार वर्णन किया था। लेकिन पूरा मामला 19 वर्षों तक चला और सजा सुनाई गई मात्र छह माह जेल। यही नहीं सजा सुनाए जाने के 10 मिनट के अंदर राठौड को जमानत मिल गई। यानी राठौड जेल नहीं भेजे गए। इस घटना ने एक बार फिर यही तो सिद्ध किया है कि रसूखदार बड़ा से बड़ा अपराध कर बच निकलते हैं। धन बल और संपर्क शक्ति उन्हें बचा ले जाते हैं। इंकार तो किए जाएंगे किन्तु रुचिका के मामले में ये आरोप हर कोण से सही दिख रहे हैं। एक 14 साल की बच्ची के साथ राज्य के एक बड़े पुलिस अधिकारी की छेड़छाड़ यानी यौन शोषण अत्यंत ही गंभीर अपराध है। पूरा का पूरा पुलिस प्रशासन उन्हें बचाने में लगा रहा। यही नहीं, 1990 की इस घटना के बाद 3 वर्षों तक न केवल मामले को दबाने की कोशिश की जाती रही बल्कि रुचिका के परिवार के सदस्यों को प्रताडि़त भी किया गया। रुचिका का एक भाई चोरी के आरोप में जेल भेज दिया गया। परिवार की प्रताडऩा, अपने साथ किए गए दुव्र्यवहार और आरोपी पुलिस अधिकारी को बेखौफ घूमते देख क्षोभ, अपमान और ग्लानी की मारी रुचिका ने आत्महत्या कर ली। किन्तु शाबास मधु! अनेक दबाव और प्रलोभनों से अविचलित यह चश्मदीद गवाह 19 वर्षों तक अडिग रही। यहां तक कि आस्ट्रेलिया से वह भारत आई किन्तु न्याय के हाथों उसे निराशा हाथ लगी। यह ठीक है कि पूर्व डीजीपी राठौड को अदालत ने दोषी पाया किंतु अल्प सजा दिए जाने के कारण अदालत खुद कटघरे में खड़ी नजर आ रही है। न्याय की मूल भावना कि न्याय न केवल हो बल्कि वह होता हुआ दिखे भी, इस मामले में नदारद है। अदालत के फैसले से समाज में अत्यंत ही गलत संदेश गया है। बहस छिड़ गई है कि क्या सचमुच न्याय सिर्फ रसूखदारों की मदद करती है? सभी के लिए समान न्याय की अवधारणा कैसे गुम हो गई? जिस दिन यह स्थापित हो गया कि न्यायपालिका छोटे-बड़ों में भेद करती है, न्याय मंदिर की पवित्रता समाप्त हो जाएगी। लोगों का विश्वास न्याय मंदिर में बैठे 'देवताओं’ पर से उठ जाएगा। यह स्थिति अत्यंत ही खतरनाक है। अगर तत्काल न्यायपालिका अपनी खोती जा रही विश्वसनीयता को वापस प्राप्त नहीं कर लेती तो इसके प्रतिउत्पादक परिणाम भयंकर होंगे। मुठीभर रसूखदार-धनबली अपनी रक्षा नहीं कर पाएंगे। मैं दोहरा दूं कि यहां उन संभावनाओं की चर्चा कर रहा हूं जो गली-कूचों में दीवारों पर लिखी जा रही हैं। गरीबों की फटी एडिय़ों वाले पांव का मुकाबला रसूखदारों के कोमल पांव कभी नहीं कर सकते। भागने में असमर्थ यह वर्ग तब समर्पण कर देगा। डर सिर्फ इस बात का है कि ऐसी अवस्था में विलंब के कारण 'रुचिकाओं’ की संख्या कहीं बढ़ती न जाए। न्यायपालिका पर देश को भरोसा है। यह अवश्य है कि हर क्षेत्र की तरह न्याय के क्षेत्र में भी कतिपय काले भेडिय़ों को प्रवेश मिल गया है। फिर देर किस बात की? इन्हें पहचानें और अलग कर दें। न्यायपालिका की पवित्रता के लिए यह जरूरी है।
एक अनुकरणीय पहल अनिवार्य मतदान!
गुजरात की नरेंद्र मोदी सरकार की अनिवार्य मतदान के लिए की गई ऐतिहासिक पहल क्या अनुकरणीय नहीं है? फिर तथाकथित बुद्धजीवियों के एक वर्ग की ओर से आलोचना क्यों? मुझे याद है 1996 का आम चुनाव। तब मैं दिल्ली में था। मतदान के दिन सुख्यात पत्रकार व समीक्षक कुलदीप नैयर ने एक मतदान केंद्र पर मतदाताओं की पंक्ति की ओर देखकर टिप्पणी की थी कि इनमें से अधिकांश अपरिपक्व हैं। इनमें वह वर्ग नदारद है जो मत और शासन के महत्व को समझता है। इसके बाद ऐसी मांग उठती रही कि कानून बनाकर मतदान को अनिवार्य कर दिया जाए। इस मांग को समर्थन मिला, किसी कोने से विरोध नहीं हुआ। क्योंकि यह सच मुंह बाये सामने खड़ा दिखा कि मतदान के अधिकार का प्रयोग करने वाला अधिकांश मतदाता जाति, धर्म, दबाव, प्रलोभन और बयार से प्रभावित है। शिक्षित, समझदार मतदाताओं का बड़ा वर्ग मतदान के दिन अपने घरों में बैठ अवकाश का लुत्फ उठाता है। चाय, कॉफी की चुस्कियों के बीच लोकतंत्र, चुनाव और सत्ता पर बहस करेंगे, भाषण देंगे। किन्तु यह कथित समझदार वर्ग सत्ता निर्माण की प्रक्रिया से स्वयं को अलग रखता है। फिर क्या आश्चर्य कि आज देश की लोकतांत्रिक प्रक्रिया राजनीतिक दल केंद्रित हो गई है? मोदी सरकार ने पहल कर स्थानीय निकाय और पंचायत चुनाव के लिए मतदान को अनिवार्य कर दिया है। कोई इसमें मीन-मेख न निकाले। राजनीति के माइक्रोस्कोप से न देखें। यह वह अनुकरणीय पहल है जो लेाकतांत्रिक प्रक्रिया को मतदान केंद्रित बनाएगी। 'ड्राइंग रूम पालिटिक्स' की चर्चाएं बेमानी हो जाएंगी। चूंकि गुजरात के बने कानून में नकारात्मक मतदान का भी प्रावधान रखा गया है, यह आरोप नहीं लगेगा कि मतदाता की इच्छा के विरुद्ध किसी को बाध्य किया गया। स्वतंत्र सोच संबंधी जनतंत्र की मूल भावना की रक्षा भी होगी। बावजूद इसके अगर कोई इसकी आलोचना कर रहा है तो सिर्फ इसलिए कि इस ऐतिहासिक पहल का श्रेय नरेंद्र मोदी के खाते में जा रहा है। उनकी असली चिंता यही है। ऐसा नहीं होना चाहिए। दलगत राजनीति और व्यक्तिगत पसंद-नापसंद से इतर गुजरात की इस पहल का अनुकरण कर राष्ट्रीय स्तर पर आम चुनावों के लिए भी अनिवार्य मतदान सुनिश्चित किया जाए।
Monday, December 21, 2009
एक न्यायाधीश 'दलित' कैसे हो सकता है!
चुनौती गडकरी के लिए नहीं, कांग्रेस के लिए है!
Saturday, December 19, 2009
भाजपा की दशा-दिशा और गडकरी
रही बात दिल्ली चौकड़ी और सहयोग-समर्थन की, तब मैं यह बता देना चाहूंगा कि ये सारी बातें कपोल-कल्पित हैं। दिल्ली में मौजूद सभी वरिष्ठ नेता पार्टी के अनुशासन से ही नहीं बंधे हुए हैं, बल्कि पार्टी हित में उनके समर्पण को कोई चुनौती नहीं दे सकता। हां, मानव हैं तो मानवीय भूल के अपराधी यदाकदा वे बन जा सकते हैं। लेकिन, उनकी नीयत असंदिग्ध है। जिस बिखराव के दौर से भाजपा अभी गुजर रही है, उसे समेट एक सार्थक दिशा देने को सभी आतुर हैं- दिल्ली और बाहर के सभी नेता-कार्यकर्ता। कोई भी परिवर्तन से उभरे नए नेतृत्व के पीठ में छुरा नहीं भोंकेगा। परिवर्तन की सचाई को सभी जान लें। यह कहना बिलकुल गलत है कि दिल्ली का कोई धड़ा अध्यक्ष पद पर नितिन गडकरी के चयन से नाराज है। दिल्ली में प्रविष्ट एक नए चेहरे के प्रति उत्सुकता को नाराजगी निरूपित करना गलत है और फिर यह सच भी तो चिन्हित है कि भारतीय जनता पार्टी में ताजा परिवर्तन संघ की इच्छा-पूर्ति व योजना का कार्यान्वयन है। प्रेरक शक्ति के रूप में लालकृष्ण आडवाणी मौजूद हैं- अटलबिहारी वाजपेयी के आशीष के हाथ उपलब्ध हैं। राजनाथसिंह का अनुभव और सुषमा स्वराज तथा अरूण जेटली की प्रखरता कायम है। कोई शक-शुबहा नहीं, किंतु-परंतु की भी गुंजाइश नहीं। जिस आशा और विश्वास के साथ नितिन गडकरी का चयन किया गया है, वे पूरे होंगे। गडकरी पार्टी की दशा-दिशा को संवारने के लिए सार्थक संवाहक बनेंगे- समय आने पर देश के भी।
Friday, December 18, 2009
'पेड न्यूज' और निर्वाचन आयोग
पाप की सीढिय़ां पापघर में जाकर समाप्त होती हैं। इन पर चढऩे वाले पांव पापीयों के ही होते हैं। लोकतंत्र का यह एक ऐसा 'कोढ़' है जिसकी तत्काल शल्यक्रिया की जानी चाहिए। मुख्य चुनाव आयुक्त और उनके दोनों सहयोगी आयुक्त 'पेड न्यूज' के अर्थ से अच्छी तरह परिचित होंगे ही। इसे परिभाषित करने में चुनाव आयोग पूर्णत: सक्षम है। संविधान ने उसे अपार शक्तियां प्रदान की हैं। किसी भी जांच एजेंसी को तलब करने का अधिकार प्राप्त है। फिर, 'पेड न्यूज' के मामले में कार्रवाई से टालमटोल क्यों? जरूरत है, वे किसी दबाव में न आएं। दलीय पक्षपात से दूर रहें। संसदीय लोकतंत्र में अपने महत्व को पहचाने आयोग। इस 'कोढ़' से देश को मुक्ति दिलाए। ऐसा कर आयोग लोकतंत्र के दो महत्वपूर्ण पायों-विधायिका और प्रेस दोनों को पापमुक्त कर पवित्र करने का पुण्यलाभ भी उठा सकता है।
Thursday, December 17, 2009
न्यायपालिका, विधायिका और न्याय
अज्ञानी नेता, बेबस मनसे विधायक!
अब बात निलंबित मनसे विधायकों के मगरमच्छी आंसुओं की। अपनी 'गुंडागर्दी' पर अभी भी गर्व करने वाले इन अज्ञानियों को अब कौन समझाए कि इन चारों के लिए निर्वाचन क्षेत्रों के करीब 20 लाख मतदाताओं ने इन्हें इसलिए नहीं चुना था कि वे विधानसभा के अंदर 'गुंडागर्दी' का मंचन करें। उन्हें दुख है कि वे जनता की समस्याओं को, विकास से संबंधित मांगों को विधानसभा में नहीं उठा पा रहे हैं। आश्चर्य है कि एक ओर तो ये जनता की समस्याओं, क्षेत्र के विकास आदि मुद्दों को विधानसभा में उठाए जाने संबंधी अपने दायित्व को रेखांकित कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर मुंबई में विधानसभा के अंदर अपने घोर आपत्तिजनक व असंसदीय कृत्य पर गर्व भी महसूस कर रहे हैं। कौन करेगा इन पर विश्वास? उन्हें चुनने वाली जनता भी अब इन पर विश्वास नहीं करेगी। निलंबन के आदेश की शर्तों के अनुसार ये निलंबित विधायक विधान मंडल परिसर के आस-पास भी नहीं फटक सकते। बावजूद इसके ये विधान मंडल के सिर्फ दरवाजे तक ही नहीं पहुंचे, बल्कि गालियां बकते हुए सुरक्षा कर्मियों के साथ बदतमीजियां भी कीं। निश्चय ही जनता ने इस हेतु इन्हें नहीं चुना है। निलंबन वापस लिए जाने के अनुरोध के पूर्व ये पश्चाताप करें। आचरण में सुधार लाएं। और जनता को विश्वास दिलाएं कि वे एक सही, अनुशासित जनप्रतिनिधि के रूप में आगे से पेश आएंगे। मनसे विधायक ऐसा कर पाएंगे, यह संदिग्ध है। कारण स्पष्ट है। अपने कृत्य पर शर्म की जगह गर्व का सार्वजनिक प्रदर्शन करने वाले ये विधायक बेचारे अपने नेतृत्व के हाथों भी मजबूर हैं। जब निलंबन के पश्चात नेता राज ठाकरे इनका सार्वजनिक अभिनंदन करते हैं, तब ये बेचारे अपनी 'गुंडागर्दी' पर गर्व कैसे न करें!
Tuesday, December 15, 2009
नहीं चव्हाणजी, नहीं! यहां गलत हैं आप!!
Monday, December 14, 2009
चूक गया कांग्रेस नेतृत्व!
पूरे मामले पर संजीदगी के साथ गौर करें। स्पष्ट नजर आएगा कि वस्तुत: कांग्रेस नेतृत्व इस सचाई को भूल गया है कि केंद्र में एक अकेली कांग्रेस पार्टी की सरकार नहीं बल्कि गठबंधन की खिचड़ी सरकार है। वह यह भी भूल जाती है कि अनेक राज्यों में अब गैरकांग्रेसी सरकारें स्थापित हैं। ऐसे में कांग्रेस का केंद्रीय नेतृत्व जब हकीकत से परे स्वयं को जवाहर-इंदिरा के जमाने की अवस्था में पहुंचा निर्णय लेने लगता है, तब दुर्घटनाएं तो होंगी ही। वह जमाना और था जब केंद्रीय नेतृत्व ने निर्णय लिया और पार्टी के लोगों ने मान लिया। आंध्र की ताजा घटना प्रमाण है कि केंद्रीय नेतृत्व का अब राष्ट्रव्यापी दबदबा नहीं रहा। पार्टी इस तथ्य को भूल रही है कि ताजा घटना विकासक्रम वस्तुत: स्व. राजशेखर रेड्डी के पुत्र जगन रेड्डी को मुख्यमंत्री बनाए जाने के विरु द्ध पार्टी नेतृत्व के निर्णय की परिणति है। आलाकमान का वह निर्णय अब प्रतिउत्पादक सिद्ध हो रहा है। बहुमत बल्कि एकमत की राय को रद्दी की टोकरी में फेंक कांग्रेस आलाकमान ने जगन को रोक दिया था। तब नवनिर्वाचित सांसद जगन शांत तो हो गए थे किन्तु उनके समर्थकों में बेचैनी बरकरार रही। ऐसा नहीं है कि जगन अपने प्रदेश में बहुत लोकप्रिय हैं। वह तो राजशेखर रेड्डी का आभामंडल था, क्षेत्र में प्रभाव था, उनके प्रति लोगों के दिलों में अप्रतिम आदर था, जिस कारण न केवल पार्टी के विधायक-सांसद बल्कि आंध्र की आम जनता भी जगन को मुख्यमंत्री के रूप में देखना चाहती थी। यहां बता दूं कि अगर राजशेखर रेड्डी जीवित रहते, तब आने वाले दिनों में उनका नाम आंध्रप्रदेश के पर्याय के रूप में स्थापित होता। उनकी लोकप्रियता और नेतृत्व की छाप काफी गहरी थी। उनके बगैर कांग्रेस का आंध्र में नेतृत्व संभवत: गौण हो जाता। ठीक उसी तरह जैसे आज तमिलनाडु में डीएमके और एआईडीएमके के समक्ष कांग्रेस तुच्छ की स्थिति में है। कांग्रेस नेतृत्व इस परिप्रेक्ष्य में तेलंगाना की ताजा स्थिति का मूल्यांकन करे। अपनी हैसियत को पहचाने। वर्तमान नेतृत्व इंदिरा गांधी सदृश किसी 'आयरन लेडी' के हाथों में नहीं है। तेलंगाना की आग फैले, इसके पूर्व पार्टी और शासन के स्तर पर सकारात्मक निर्णय ले लिया जाए। आंध्रप्रदेश के लोग अभी यह भूले नहीं हैं कि स्वयं आंध्रप्रदेश के लिए पोट्टी श्रीरामुलु आमरण अनशन पर बैठ अपनी प्राणाहुति दे चुके हैं। चंद्रशेखर राव संभवत: उन्हीं से प्रेरणा लेकर अनशन पर बैठे थे। तब पोट्टी की मांग मरणोपरांत ही सही, पंडित नेहरू ने मान ली थी। आज अनशनकारी राव की मांग जब सिद्धांत रूप में मान ली गई है, तब किसी भी कारणवश पीछे हटना आत्मघाती सिद्ध होगा।
Sunday, December 13, 2009
चिदंबरम अर्थात सरकार के शब्दों को सम्मान दें प्रधानमंत्री!
Saturday, December 12, 2009
विदर्भ राज्य' से अब कोई छल न करे!
तेलंगाना का उल्लेख मैं यहां विदर्भ के संबंध में कर रहा हूं। तेलंगाना के पक्ष में आरंभिक खबर आने के बाद ही सुखद रूप से सभी राजनीतिक दलों के नेता, सांसद, विधायक मिलकर पृथक विदर्भ के लिए आवाज उठाने लगे हैं। यह एक शुभ संकेत है। भय सिर्फ इस बात का है कि कहीं एक बार फिर यह सक्रियता क्षणिक उफान मात्र न सिद्ध हो जाए। पुन: 'किन्तु-परंतु-यदि' के ताने-बाने में यह उलझकर न रह जाए। चेतावनी है उन्हें, इस बार वे विदर्भ की जनभावना का मर्दन करने की कोशिश न करें। विदर्भवासी अब इसे बर्दाश्त नहीं करेंगे। क्षेत्र में मौजूद नेताओं की लंबी पंक्ति इस तथ्य को अच्छी तरह समझ ले। दलीय दबाव या अन्य प्रलोभन के आगे अगर वे झुक कर अगर पुन: 'विदर्भ की कुर्बानी' देते हैं तब यहां की जनता उन्हें दुत्कार किसी नए नेतृत्व को तलाश लेगी। बेहतर हो, पृथक विदर्भ राज्य के पुराने सपने को साकार करने की दिशा में दलीय प्रतिबद्धता व निज स्वार्थ का त्याग कर सभी एक साथ कदमताल करें। अन्यथा विदर्भवासी उनके कदमों को भी निशाने पर लेने से नहीं चूकेंगे।
विदर्भ राज्य' से अब कोई छल न करे!
तेलंगाना का उल्लेख मैं यहां विदर्भ के संबंध में कर रहा हूं। तेलंगाना के पक्ष में आरंभिक खबर आने के बाद ही सुखद रूप से सभी राजनीतिक दलों के नेता, सांसद, विधायक मिलकर पृथक विदर्भ के लिए आवाज उठाने लगे हैं। यह एक शुभ संकेत है। भय सिर्फ इस बात का है कि कहीं एक बार फिर यह सक्रियता क्षणिक उफान मात्र न सिद्ध हो जाए। पुन: 'किन्तु-परंतु-यदि' के ताने-बाने में यह उलझकर न रह जाए। चेतावनी है उन्हें, इस बार वे विदर्भ की जनभावना का मर्दन करने की कोशिश न करें। विदर्भवासी अब इसे बर्दाश्त नहीं करेंगे। क्षेत्र में मौजूद नेताओं की लंबी पंक्ति इस तथ्य को अच्छी तरह समझ ले। दलीय दबाव या अन्य प्रलोभन के आगे अगर वे झुक कर अगर पुन: 'विदर्भ की कुर्बानी' देते हैं तब यहां की जनता उन्हें दुत्कार किसी नए नेतृत्व को तलाश लेगी। बेहतर हो, पृथक विदर्भ राज्य के पुराने सपने को साकार करने की दिशा में दलीय प्रतिबद्धता व निज स्वार्थ का त्याग कर सभी एक साथ कदमताल करें। अन्यथा विदर्भवासी उनके कदमों को भी निशाने पर लेने से नहीं चूकेंगे।
Friday, December 11, 2009
अब तो जागो विदर्भवादी!
Wednesday, December 9, 2009
कोई हवा न दे सांप्रदायिक चिनगारी को!
Tuesday, December 8, 2009
कौन बनाएगा मुस्लिम को प्रधानमंत्री?
राहुल गांधी कह रहे हैं कि भारत में योग्यता के आधार पर कोई मुस्लिम प्रधानमंत्री बन सकता है। वे यह भी कह रहे हैं कि महात्मा गांधी उनके राजनीतिक आदर्श हैं। वे उनके अनुयायी हैं। चूंकि, इन दिनों राहुल गांधी के शब्द पार्टी और सरकार के शब्द माने जाते हैं, उन्हें गंभीरता से लिया जाएगा। शंका सिर्फ यह कि वे ऐसा कहीं अति-उत्साह में तो नहीं कह रहे हैं। इसका जवाब तो भविष्य में मिलेगा, फिलहाल बहस का मुद्दा यह कि क्या सचमुच योग्यता के आधार पर कभी कोई मुस्लिम प्रधानमंत्री बन सकेगा? महात्मा गांधी को अपना राजनीतिक आदर्श घोषित करने वाले राहुल गांधी से यह भी पूछा जाएगा कि ब्रिटिश शासन से मुक्ति के बाद महात्मा गांधी की पसंद सर्वाधिक सक्षम, सुपात्र मुस्लिम नेता मोहम्मद अली जिन्ना प्रधानमंत्री क्यों नहीं बन पाए? इतिहास गवाह है कि महात्मा गांधी चाहते थे कि जिन्ना प्रधानमंत्री बनें। क्या यह बताने की जरूरत है कि अगर गांधी की इच्छानुसार जिन्ना को प्रधानमंत्री बना दिया जाता, तब न तो देश का बंटवारा होता और न ही लगभग 10 लाख हिंदू-मुस्लिमों का सांप्रदायिक दंगों में कत्ल-ए-आम होता, लेकिन तब कांग्रेस के पंडित जवाहरलाल नेहरू सहित अन्य हिंदू नेता जिन्ना के नाम पर तैयार नहीं हुए थे। उन्हें देश का बंटवारा मंजूर था, लेकिन प्रधानमंत्री के पद पर मोहम्मद अली जिन्ना मंजूर नहीं थे। क्या राहुल गांधी को यह पता है कि देश विभाजन का फैसला कर लेने के बाद पंडित जवाहरलाल नेहरू ने कहा था,''हम सिर कटाकर सिरदर्द से छुटकारा पा रहे हैं।
'' कौन था वह 'सिरदर्द।' बता दूं कि नेहरू के लिए वह सिरदर्द और कोई नहीं, जिन्ना ही थे। नतीजतन देश का टुकड़ा हुआ, हिंदू-मुसलमानों ने एक-दूसरे की गर्दनें काटीं। बंटवारे के बाद अवश्य नेहरू गांधी की पसंद बने। लेकिन, तब भी बहुमत की राय को ठेंगा दिखाते हुए, लोकतांत्रिक प्रक्रिया के साथ छल किया गया था। युवा राहुल गांधी में अनेक संभावनाएं मौजूद हैं। देश के हर गली-कूचों में, हर वर्ग, हर संप्रदाय के बीच पहुंचकर उनकी सुध लेने वाले राहुल गांधी में नि:संदेह देश का भविष्य निहित है, ऐसे में जरूरी यह है कि वे इतिहास के पन्नों को पलटकर गांधी-नेहरू की गलतियों को रद्दी की टोकरी में फेंक दें, उनका अनुसरण करने की भूल न करें। भारत देश हमेशा लोकतांत्रिक देश रहेगा। राहुल यह न भूलें कि लोकतंत्र में किसी एक व्यक्ति की इच्छा को नहीं, 'लोक'की इच्छा को वरीयता दी जाती है। एक व्यक्ति की इच्छा राज-तंत्र का आग्रही होता है, लोकतंत्र का नहीं। कांग्रेस का नेतृत्व जब वे कर रहे हैं, तब इसकी विवादित संस्कृति का चोला फेंक दें, इसके लिए जरूरी है कि वे चाटुकारों से दूर रहें, स्वविवेक का इस्तेमाल करें। ये चाटुकार हमेशा उन्हें भ्रमित करते रहेंगे। उत्तरप्रदेश के पिछले विधानसभा चुनाव के दौरान राहुल गांधी ने जब यह कहा था कि 1992 में अगर नेहरू-गांधी परिवार का प्रधानमंत्री होता तब अयोध्या में विवादित बाबरी मस्जिद का ढांचा नहीं गिरता। तो क्या पूरी कांग्रेस पार्टी में सिर्फ नेहरू-गांधी ही धर्म-निरपेक्ष हैं? संदेश तो यही गया था। राहुल गांधी तब यह भूल गए थे कि वे घोर सांप्रदायिक वक्तव्य दे रहे हैं। निश्चय ही चाटुकारों ने उन्हें ऐसा समझाया होगा। दूर रहें इनसे वे। ये तत्व कभी भी उन्हें गड्ढे में धकेल देंगे या आग में झोंक देंगे। कांग्रेस पार्टी को आज भी देश में, स्वतंत्रता आंदोलन के पाश्र्व के कारण, अभिभावक दल माना जाता है। ऐसे में यह अपेक्षा अनुचित कदापि नहीं कि एक अभिभावक दल का एक अभिभावक सहयोगियों से विचार-विमर्श तो करे लेकिन निर्णय स्वविवेक से ले।
Sunday, December 6, 2009
जाति-व्यवस्था के पाप से मुक्ति!
व्यवस्था और सरकारी आतंक!
सामाजिक जागरूकता और मीडिया की 'वास्तविकता' पर आज सुख्यात सामाजिक कार्यकर्ता गिरीश गांधी भी निराश दिखे। एक प्रसंग में उन्होंने मुझसे पूछा कि आप जो बेबाक लिखते हैं, उससे आपको क्या मिलता है? उनकी इस जिज्ञासा का आधार मीडिया का वर्तमान 'सच' था। अपने सामाजिक और पत्रकारीय दायित्व बताने पर उन्होंने शून्य परिणाम को रेखांकित करते हुए निर्णय दे डाला कि इस देश में कुछ नहीं होने वाला। पिछले 4 दशक से अपनी जिंदगी के हर पल को समाज को समर्पित करने वाले व्यक्ति के मुख से ऐसी निराशाजनक बातें निकले, तब यह आमंत्रण है नये सिरे से पूरी व्यवस्था पर पुनर्विचार हेतु राष्ट्रीय बहस का। क्या कोई इस हेतु पहल करेगा? प्रतीक्षा रहेगी।
Saturday, December 5, 2009
राजेंद्र प्रसाद की स्मृति में कोई दिवस?
राजेंद्र बाबू को विदेश यात्रा की अनुमति नेहरू मंत्रिमंडल बिरले ही दिया करता था। छोटे-छोटे देशों की यात्रा पर ही राजेंद्र प्रसाद जा सके थे। नेहरू नहीं चाहते थे कि विश्व समुदाय में राजेंद्र बाबू की आभा-विद्वता चमके। 1961 में एक बार राजेंद्र बाबू गंभीर रूप से बीमार पड़े। बचने की उम्मीद कम थी। लाल बहादुर शास्त्री ने नेहरू से अंतिम संस्कार के लिए स्थल चयन पर बातचीत की। शास्त्री और नेहरू दोनों मोटरकार से जगह देखने निकले। शास्त्री ने महात्मा गांधी के समाधि स्थल की बगल की खाली जगह को चुना। नेहरू ने तपाक से कहा कि नहीं, नहीं, इसे तो मैंने अपने लिए सुरक्षित रखा है। बाद में उसी स्थान 'शांतिवन' पर नेहरू का अंतिम संस्कार किया गया। 1962 में अवकाश प्राप्त कर डॉ. राजेंद्र प्रसाद पटना के सदाकत आश्रम में रहने लगे। उसी वर्ष चीन ने भारत पर आक्रमण किया और भारत की रक्षा व्यवस्था और सैन्य शक्ति की पोल खुल गई। पटना के गांधी मैदान में एक बड़ी जनसभा का आयोजन किया गया था। आचार्य कृपलानी, राममनोहर लोहिया के साथ-साथ डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने भी सभा को संबोधित किया। राजेंद्र प्रसाद के बारे में यह मशहूर था कि वे कभी गुस्सा नहीं करते थे लेकिन उस दिन की सभा में कृपलानी-लोहिया के साथ प्रसाद भी गुस्से में देखे गए। नेहरू और तत्कालीन रक्षा मंत्री वी. के. मेनन पर सभी जमकर बरसे। श्रोताओं के मूड से साफ था कि सभी चीन के हाथों पराजय पर भारत सरकार से क्रोधित थे। उस दिन आधी रात को पं. नेहरू विशेष विमान से दिल्ली से पटना पहुंचे। हवाई अड्डे से सीधे सदाकत आश्रम पहुंचकर राजेंद्र बाबू से मिलकर अनुरोध किया कि कम से कम वे लोहिया-कृपलानी का साथ न दें। नेहरू भयभीत थे कि अगर डॉ. प्रसाद खुलकर सरकार के विरोध में खड़े हो गए तब केंद्र सरकार और कांग्रेस पार्टी के लिए मुसीबतें पैदा हो जाएंगी। वक्त की नजाकत को देखते हुए राजेंद्र बाबू शांत रह गए थे। नेहरू की कुंठा राजेंद्र बाबू की मृत्यु के पश्चात भी जारी रही। 1963 में राजेंद्र बाबू की मृत्यु पटना में हुई। नेहरू अंतिम संस्कार में शामिल नहीं हुए। जब उन्हें जानकारी मिली कि राष्ट्रपति डॉ. राधाकृष्णन अंतिम संस्कार में शामिल होने पटना जा रहे हैं तब उन्होंने टेलीफोन कर उन्हें मना किया। राधाकृष्णन ने नेहरू की बात नहीं मानी। उन्होंने कहा कि ''मैं तो जाऊंगा ही और मेरा सुझाव है कि आप भी चलें''। नेहरू ने इनकार कर दिया। पहले से निर्धारित किसी प्रदेश में आयोजित जनसभा को उन्होंने प्राथमिकता दी-देश के प्रथम राष्ट्रपति के अंतिम संस्कार को नहीं। डॉ. प्रसाद के प्रति नेहरू की कुंठा से दोनों के नजदीकी अच्छी तरह परिचित थे। मैनेजर पांडे कहते हैं, चूंकि डॉ. प्रसाद के परिवार से कोई राजनीति में नहीं आया, इसलिए वे उपेक्षित रहे। डॉ. प्रसाद के बड़े बेटे मृत्युंजय प्रसाद ने पटना स्थित जीवन बीमा निगम से संभागीय प्रबंधक के रूप में अवकाश प्राप्त किया। हां, 1977 में आपातकाल के बाद घोषित चुनाव में अवश्य वे जनता पार्टी की टिकट पर लोकसभा के लिए निर्वाचित हुए। 1980 के चुनाव में वे खड़े नहीं हुए। दूसरे एवं तीसरे बेटे धनंजय प्रसाद व जनार्दन प्रसाद छपरा में लगभग उपेक्षित जिंदगी जीते रहे। थोड़ी-बहुत खेती बाड़ी और एक स्थानीय बस परमिट से आजीविका चलाते थे वे। राजेंद्र प्रसाद के परिवार तथा किसी भी रिश्तेदार ने उनके पद का लाभ नहीं उठाया। राजेंद्र प्रसाद स्वयं तो नहीं ही चाहते थे, नजदीकी रिश्तेदार भी राष्ट्रपति पद की गरिमा पर कोई आंच नहीं आने देना चाहते थे। फिर यह देश इतना कृतघ्र कैसे हो गया कि डॉ. राजेंद्र प्रसाद जैसे आदर्श पुरूष की स्मृति में कोई 'दिवस' समर्पित नहीं कर पाया? चाटुकारिता और वंशवाद का वर्तमान दौर वस्तुत: डॉ. प्रसाद जैसी महान विभूति की उपस्थिति को बर्दाश्त नहीं करता। आजाद भारत के लोकतंत्र का यह एक स्याह अध्याय है।
Friday, December 4, 2009
राजेंद्र प्रसाद की स्मृति में कोई दिवस?
Thursday, December 3, 2009
राज ठाकरे का नया अपराध !
एक महत्वपूर्ण बात और। राज ठाकरे ने हिंदी के संबंध में 'ज्ञान' का बखान अपनी पार्टी महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के समक्ष किया। नवनिर्वाचित विधायकों को विधायकी की जानकारी और शिष्ट आचरण करने के निर्देश की जगह भाषाई घृणा का पाठ पढ़ाने वाले राज ठाकरे गुनाहगारों की मदद के गुनाहगार भी बन गए। अशिष्ट और असंसदीय आचरण के कारण निलंबित विधायकों का सत्कार कर ठाकरे ने निश्चय ही जान-बूझकर पूरी विधानसभा और अध्यक्ष को ठेंगा दिखाया है। उनका यह कृत्य विधानसभा की अवमानना है। सर्वोच्च न्यायालय को राज ठाकरे की उद्दंडता के विरुद्ध उठाए गए कदमों की जानकारी देने वाली महाराष्ट्र सरकार क्या उनके इस नए अपराध का संज्ञान लेगी?
Wednesday, December 2, 2009
ये कैसे 'अगंभीर' सांसद !
Tuesday, December 1, 2009
कोड़ा का सच कभी सामने आएगा
Monday, November 30, 2009
बहस हो कि सांप्रदायिक कौन!
रही बात सांप्रदायिकता की तो चूंकि दोनों बड़े दलों, कांग्रेस व भाजपा, में अपेक्षाकृत युवा नेतृत्व के पक्ष में बयार बह रही है, यह माकूल समय है जब इस बात का फैसला हो जाए कि यह सांप्रदायिकता आखिर है क्या और सांप्रदायिक कौन है? वर्तमान राजनीति के हमाम से जब भी सांप्रदायिकता के बुलबुले उठते हैं, निशाने पर भाजपा व संघ परिवार रहता है। क्या यह नैसर्गिक न्याय के खिलाफ नहीं? हिंदुत्व की बात करने वाले को सांप्रदायिक और किसी और धर्म की बात करने वाले को धर्मनिरपेक्ष निरूपित करने की परिपाटी अब खत्म होनी चाहिए। आज की पीढ़ी यह भी जानना चाहती है कि हिंदू-मुसलमान के नाम पर देश के बंटवारे के पक्षधर धर्मनिरपेक्ष कैसे हो गए? इस पर राष्ट्रीय बहस हो और हमेशा के लिए फैशन के रूप में प्रचलित सांप्रदायिक शब्द के प्रयोग पर विराम लग जाए। युवा पीढ़ी और देश के भविष्य के लिए यह जरूरी है। सभी राजनीतिक दल, सामाजिक संस्थाएं और मीडिया इसके लिए पहल करें। तार्किक परिणिति पर पहुंचने तक बहस चले- बिल्कुल निष्पक्ष, तथ्य परक, बेबाक। दलगत लाभ-हानि के विचार त्याग कर ही यह संभव हो सकता है। अगर सचमुच भारत के राजनीतिक दल देश में सर्वधर्म समभाव और सांप्रदायिक सौहार्द्र चाहते हैं, तब वे आगे आएं- बगैर किसी पूर्वाग्रह के, बगैर किसी दुर्भावना के। अन्यथा अयोध्या और बाबरी मस्जिद और फिर लिबरहान आयोग जैसी खबरें बनती रहेंगी, कोई हल कभी नहीं निकलेगा।