Wednesday, December 2, 2009
ये कैसे 'अगंभीर' सांसद !
तो ऐसे हैं हमारे निर्वाचित जनप्रतिनिधि! इनके सीने पर चस्पा है सांसद का तमगा। भारतीय संसद के सम्माननीय सदस्य हैं ये। भारीभरकम वेतन-भत्ता। रेल-हवाई जहाज से मुफ्त यात्रा की सुविधा। हर जगह प्राथमिकता के आधार पर उपलब्ध सुख-सुविधा। दिल्ली में शानदार आवास और दैनंदिन कामकाज के लिए उपलब्ध सहायक-सेवक। विशेषाधिकार के अंतर्गत अनेक मामलों में विशिष्ट कानूनी संरक्षण। लगभग 115 करोड़ भारत की आबादी का संसद में प्रतिनिधित्व करते हैं ये 795 सांसद। आश्चर्य है कि हमारे ये सांसद इस महत्वपूर्ण तथ्य से अनभिज्ञ कैसे हैं। जी हां! अनभिज्ञ हैं ये अपनी जिम्मेदारियों से। अनभिज्ञ हैं ये देश व जनता के प्रति अपनी जवाबदेही से। अनभिज्ञ हैं ये इस तथ्य से कि उनके कपड़ों की सफेदी और राजसी ठाठबाट के खर्चे आम नागरिक की जेब से ही आते हैं। संसद की कार्यवाही पर होने वाले लाखों-करोड़ों के व्यय का बोझ भी जनता की जेबें सहन करती हैं। फिर ये इतने लापरवाह कैसे हो गए? संसद में प्रश्र पूछने की कागजी औपचारिकता पूर्ण करने के बावजूद प्रश्रकाल में इनकी अनुपस्थिति निश्चय ही संसद के प्रति इनकी अगंभीरता चिन्हित करती है। बल्कि यह संसद की अवमानना है। फिर क्यों नहीं ऐसे सदस्यों के खिलाफ कार्रवाई की जाए? संसदीय प्रणाली व संविधान में अगर ऐसा कोई कानूनी प्रावधान नहीं है तब संशोधन कर ऐसी व्यवस्था की जाए। क्या लोकसभा के अध्यक्ष और राज्यसभा के सभापति यह सुनिश्चित करेंगे? पिछले सोमवार को लोकसभा में प्रश्नकाल के दौरान 32 सांसदों द्वारा पूछे गए प्रश्र जब सामने आए तब पता चला कि उनमें से सिर्फ 2 सदस्य उपस्थित थे। क्या यह संसद की अवमानना नहीं? जब सदन के अंदर हो-हल्ला करने वाले सदस्यों के खिलाफ कार्रवाई की जाती है, उन्हें बाहर कर दिया जाता है, उन्हें निलंबित कर दिया जाता है, तब ऐसी ही कार्रवाई इन सांसदों के खिलाफ क्यों नहीं? बल्कि इन सांसदों का अपराध तो कहीं अधिक गुरुत्तर है। ऐसी ही स्थितियां निर्वाचित जनप्रतिनिधियों को वापस बुलाए जाने के अधिकार की मांग को मजबूत करती हैं। मतदाता निश्चय ही ऐसा अधिकार चाहेगा। क्योंकि निर्वाचित जनप्रतिनिधि यहां मतदाता से विश्वासघात करते दिख रहे हैं। देश का सबसे बड़ा लोकतंत्र ऐसी स्थिति को कैसे और क्यों स्वीकार करे? देश किसी की बपौती नहीं। लोकतंत्र पर किसी का एकाधिकार नहीं हो सकता। निर्वाचित जनप्रतिनिधि भी यह गांठ बांध लें कि वे देश के लिए अपरिहार्य कदापि नहीं हैं। जनता के विश्वास पर अगर वे खरे नहीं उतरते हैं तब वह दिन दूर नहीं जब दंडित करने के लिए मतदाता 5 वर्षों तक प्रतीक्षा नहीं करेंगे। जब भारतीय संविधान जनता का, जनता के लिए, जनता के द्वारा तैयार है तब सर्वोच्च भारतीय संसद पर भी अधिकार अंतत: जनता का ही है। जरूरत पडऩे पर जनता दोषी जनप्रतिनिधियों को दंडित करने के लिए तत्संबंधी संविधान संशोधन के पक्ष में सरकार को मजबूर कर देगी। कांगे्रस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने प्रश्रकाल के दौरान संसद में अनुपस्थित अपनी पार्टी के सांसदों की सूची मंगाई है। यह संकेत है कि पार्टी मुखिया ने इस मामले को गंभीरता से लिया है। अन्य दलों के नेता भी इसका अनुसरण करें और यह सुनिश्चित करें कि भविष्य में उनके सांसद संसद को अगंभीर नहीं बनने देंगे, संसद को मखौल नहीं बनने देंगे।
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