-2 अंतिम
आज यह बात अजीब तो लगेगी, किंतु आंशिक रूप से ही सही यह सच है कि डॉ. राजेंद्र प्रसाद के व्यक्तित्व ने नेहरू के अंदर एक नकारात्मक कुंठा पैदा कर दी थी। अनेक घटनाएं प्रमाणbebak 5 december part-2 के रूप में मौजूद हैं। नेहरू नहीं चाहते थे कि राजेंद्र प्रसाद के व्यक्तित्व को प्रचार-प्रसार मिले। उन्हें देश-विदेश अर्थात् घर और बाहर दोनों जगह लोगों से दूर रखने की कोशिश की जाती थी। इसके लिए स्वयं नेहरू ही पहल करते थे। डॉ. आंबेडकर की दिल्ली में मृत्यु के पश्चात उनका अंतिम संस्कार 7 दिसंबर 1956 को मुंबई की चौपाटी पर किया गया। प्रसाद और नेहरू दोनों उपस्थित थे। महाराष्ट्र की परंपरा के अनुसार, संस्कार स्थल पर शोकसभा का आयोजन किया गया। जब नेहरू को यह पता चला कि वक्ताओं में डॉ. प्रसाद का भी नाम है तब वे बेचैन हो उठे। उन्होंने सीधे राजेंद्र बाबू को ही यह कहकर बोलने से रोकने की कोशिश की कि 'राष्ट्रपति के लिए उचित नहीं होगा'। राजेंद्र बाबू ने यह जवाब देकर कि ''यह महान आत्मा इसकी अधिकारी है'' नेहरू को निरूत्तर कर दिया। इसी तरह एक बार राजेंद्र बाबू काशी विश्वनाथ मंदिर दर्शन के लिए गए। पारिवारिक परंपरानुसार उन्होंने मंदिर में प्रधान पुरोहित के गंगाजल से चरण धोए। नेहरू ने तब पत्र लिखकर आपत्ति जताई। वही पुराना आलाप कि राष्ट्रपति को ऐसा शोभा नहीं देता। राजेंद्र बाबू ने जवाब भेजा दिया कि निजी धार्मिक आस्था राष्ट्रपति पद पर तिरोहित नहीं की जा सकती। आज राष्ट्रपति की बार-बार विदेश यात्रा पर किसी को आश्चर्य नहीं होता।राजेंद्र बाबू को विदेश यात्रा की अनुमति नेहरू मंत्रिमंडल बिरले ही दिया करता था। छोटे-छोटे देशों की यात्रा पर ही राजेंद्र प्रसाद जा सके थे। नेहरू नहीं चाहते थे कि विश्व समुदाय में राजेंद्र बाबू की आभा-विद्वता चमके। 1961 में एक बार राजेंद्र बाबू गंभीर रूप से बीमार पड़े। बचने की उम्मीद कम थी। लाल बहादुर शास्त्री ने नेहरू से अंतिम संस्कार के लिए स्थल चयन पर बातचीत की। शास्त्री और नेहरू दोनों मोटरकार से जगह देखने निकले। शास्त्री ने महात्मा गांधी के समाधि स्थल की बगल की खाली जगह को चुना। नेहरू ने तपाक से कहा कि नहीं, नहीं, इसे तो मैंने अपने लिए सुरक्षित रखा है। बाद में उसी स्थान 'शांतिवन' पर नेहरू का अंतिम संस्कार किया गया। 1962 में अवकाश प्राप्त कर डॉ. राजेंद्र प्रसाद पटना के सदाकत आश्रम में रहने लगे। उसी वर्ष चीन ने भारत पर आक्रमण किया और भारत की रक्षा व्यवस्था और सैन्य शक्ति की पोल खुल गई। पटना के गांधी मैदान में एक बड़ी जनसभा का आयोजन किया गया था। आचार्य कृपलानी, राममनोहर लोहिया के साथ-साथ डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने भी सभा को संबोधित किया। राजेंद्र प्रसाद के बारे में यह मशहूर था कि वे कभी गुस्सा नहीं करते थे लेकिन उस दिन की सभा में कृपलानी-लोहिया के साथ प्रसाद भी गुस्से में देखे गए। नेहरू और तत्कालीन रक्षा मंत्री वी. के. मेनन पर सभी जमकर बरसे। श्रोताओं के मूड से साफ था कि सभी चीन के हाथों पराजय पर भारत सरकार से क्रोधित थे। उस दिन आधी रात को पं. नेहरू विशेष विमान से दिल्ली से पटना पहुंचे। हवाई अड्डे से सीधे सदाकत आश्रम पहुंचकर राजेंद्र बाबू से मिलकर अनुरोध किया कि कम से कम वे लोहिया-कृपलानी का साथ न दें। नेहरू भयभीत थे कि अगर डॉ. प्रसाद खुलकर सरकार के विरोध में खड़े हो गए तब केंद्र सरकार और कांग्रेस पार्टी के लिए मुसीबतें पैदा हो जाएंगी। वक्त की नजाकत को देखते हुए राजेंद्र बाबू शांत रह गए थे। नेहरू की कुंठा राजेंद्र बाबू की मृत्यु के पश्चात भी जारी रही। 1963 में राजेंद्र बाबू की मृत्यु पटना में हुई। नेहरू अंतिम संस्कार में शामिल नहीं हुए। जब उन्हें जानकारी मिली कि राष्ट्रपति डॉ. राधाकृष्णन अंतिम संस्कार में शामिल होने पटना जा रहे हैं तब उन्होंने टेलीफोन कर उन्हें मना किया। राधाकृष्णन ने नेहरू की बात नहीं मानी। उन्होंने कहा कि ''मैं तो जाऊंगा ही और मेरा सुझाव है कि आप भी चलें''। नेहरू ने इनकार कर दिया। पहले से निर्धारित किसी प्रदेश में आयोजित जनसभा को उन्होंने प्राथमिकता दी-देश के प्रथम राष्ट्रपति के अंतिम संस्कार को नहीं। डॉ. प्रसाद के प्रति नेहरू की कुंठा से दोनों के नजदीकी अच्छी तरह परिचित थे। मैनेजर पांडे कहते हैं, चूंकि डॉ. प्रसाद के परिवार से कोई राजनीति में नहीं आया, इसलिए वे उपेक्षित रहे। डॉ. प्रसाद के बड़े बेटे मृत्युंजय प्रसाद ने पटना स्थित जीवन बीमा निगम से संभागीय प्रबंधक के रूप में अवकाश प्राप्त किया। हां, 1977 में आपातकाल के बाद घोषित चुनाव में अवश्य वे जनता पार्टी की टिकट पर लोकसभा के लिए निर्वाचित हुए। 1980 के चुनाव में वे खड़े नहीं हुए। दूसरे एवं तीसरे बेटे धनंजय प्रसाद व जनार्दन प्रसाद छपरा में लगभग उपेक्षित जिंदगी जीते रहे। थोड़ी-बहुत खेती बाड़ी और एक स्थानीय बस परमिट से आजीविका चलाते थे वे। राजेंद्र प्रसाद के परिवार तथा किसी भी रिश्तेदार ने उनके पद का लाभ नहीं उठाया। राजेंद्र प्रसाद स्वयं तो नहीं ही चाहते थे, नजदीकी रिश्तेदार भी राष्ट्रपति पद की गरिमा पर कोई आंच नहीं आने देना चाहते थे। फिर यह देश इतना कृतघ्र कैसे हो गया कि डॉ. राजेंद्र प्रसाद जैसे आदर्श पुरूष की स्मृति में कोई 'दिवस' समर्पित नहीं कर पाया? चाटुकारिता और वंशवाद का वर्तमान दौर वस्तुत: डॉ. प्रसाद जैसी महान विभूति की उपस्थिति को बर्दाश्त नहीं करता। आजाद भारत के लोकतंत्र का यह एक स्याह अध्याय है।
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