Friday, December 4, 2009
राजेंद्र प्रसाद की स्मृति में कोई दिवस?
तीन दिसंबर को छोटे स्तर पर ही सही एक बहस छिड़ी थी कि 'राष्ट्रीय सम्मान' की पात्रता क्या हो? व्यक्ति विशेष की योग्यता, देश के लिए योगदान, आदर्श व्यक्ति या जाति विशेष अथवा वंशवाद। देश के प्रथम राष्ट्रपति और भारतीय संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ. राजेंद्र प्रसाद के जन्मदिन पर यह बात उठी। जाने-माने साहित्यकार और समालोचक मैनेजर पांडेय की टिप्पणी आई कि ''चूंकि डॉ. राजेंद्र प्रसाद के परिवार का कोई व्यक्ति राजनीति में नहीं आया, इसलिए वे उपेक्षित हैं। वंशवाद को कभी प्रश्रय नहीं देने वाले राजेंद्र प्रसाद की ऐसी उपेक्षा अफसोसनाक है।'' कहा गया कि महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, सर्वपल्ली राधाकृष्णन, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी के सम्मान में तो दिवस समर्पित किए गए हैं किंतु स्वतंत्रता आंदोलन में अमूल्य योगदान देने वाले राजेंद्र प्रसाद इससे वंचित हैं। मैनेजर पांडेय की भावना गलत नहीं है। यह सचमुच दु:खद है कि ऊपर उल्लेखित विभूतियों के नाम पर देश में शासन की ओर से 'दिवस' घोषित है किंतु अनेक मामलों में अद्वितीय राजेंद्र प्रसाद की स्मृति में सरकार की ओर से कोई 'दिवस' घोषित नहीं है। ऐसे में सवाल तो उठेंगे ही। क्या कोई सफाई दे पाएगा? चूंकि सवाल पूछने वाला वर्ग ही अत्यंत छोटा है, किसी महिमामंडित वंश का प्रतिनिधित्व तो नहीं करता। शासकीय स्तर पर सवाल का संज्ञान भी कोई नहीं ले रहा। मैनेजर पांडेय की बातों में दम है। आजादी पूर्व दो बार भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष रह चुके डॉ. राजेंद्र प्रसाद की विद्वता के सामने कोई टिक नहीं पाता था। शांति और सादगी की प्रतिमूर्ति राजेंद्र प्रसाद जब प्रेसीडेंसी कॉलेज कलकत्ता (कोलकाता) में छात्र थे, तब परीक्षा में उनकी उत्तर-पुस्तिका जांचने वाले प्राध्यापक की टिप्पणी को याद करें। प्राध्यापक ने उत्तर-पुस्तिका में लिख दिया था कि ''The examinee is better than the examiner'' ब्रिटिश शासनकाल व आजाद भारत में भी किसी छात्र को अब तक ऐसा सम्मान नहीं मिल पाया। यह उनकी विद्वता ही थी कि भारतीय संविधान के निर्माण के लिए बनी संविधान सभा के अध्यक्ष पद पर उनका निर्वाचन किया गया। प्रसंगवश, जो बाबासाहेब आंबेडकर भारतीय संविधान के शिल्पकार के रूप में स्थापित हुए, वे संविधान सभा के सदस्य, डॉ. प्रसाद की पहल पर ही बने। विधि संबंधी डॉ. आंबेडकर के ज्ञान के कायल थे डॉ. प्रसाद। डॉ. प्रसाद की पहल पर ही डॉ. आंबेडकर को संविधान का प्रारूप तैयार करने वाली समिति का अध्यक्ष बनाया गया था। संविधान स्वीकृति के पश्चात राष्ट्रपति पद के लिए उनके चयन पर सभी एकमत थे। हां, यह सच जरूर है कि पंडित जवाहरलाल नेहरू की निजी राय सर्वपल्ली डॉ. राधाकृष्णन के पक्ष में थी, लेकिन राजेंद्र बाबू के पक्ष में अन्य सभी के समर्थन को देख वे चुप रह गए। 1957 में जब पुन: राष्ट्रपति के निर्वाचन का समय आया, तब पंडित नेहरू ने दक्षिण प्रदेशों के मुख्यमंत्रियों को एक पत्र लिखा। पत्र में उन्होंने डॉ. राधाकृष्णन का नाम तो नहीं नहीं लिया किंतु ऐसी इच्छा व्यक्त की थी कि अगला राष्ट्रपति कोई दक्षिण भारतीय हो। नेहरू चाहते थे कि दक्षिण के मुख्यमंत्री ऐसी मांग करें, लेकिन उन्हें निराशा हाथ लगी। दक्षिण के सभी मुख्यमंत्रियों ने जवाब भेज दिया कि जब तक राजेंद्र प्रसाद उपलब्ध हैं, उन्हें ही राष्ट्रपति बनना चाहिए। राजेंद्र प्रसाद 1957 में दोबारा राष्ट्रपति चुने गए। ऐसी थी उनकी राष्ट्रीय स्वीकार्यता व लोकप्रियता। नेहरू के विरोध को जानकार उनकी कुंठा बताते हैं। तो क्या पंडित नेहरू राजेंद्र प्रसाद की विद्वता से भयभीत रहते थे?
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4 comments:
आज अखबार के एक कोने में खबर है ...राजेंद्र बाबू के समाधि स्थल को दर्शनीय बनाया जायेगा,देर से ही सही..अच्छी खबर है.हमारे देश में गांधी जी के अलावा अन्य सभी को महत्त्व ना देने की परम्परा रही है..
भारत के प्रथम राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद के 125 वें जन्म दिन पर आपका यह आलेख बहुत ही समयोचित और सटीक है। सबसे पहले तो हम उन्हें श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं। आज तो ऐसा लगता है कि वे प्रायः भुला ही दिए गए हैं। उनके ऐसा सादगी भरा जीवन बिताने वाला शायद ही कोई दूसरा हुआ हो। पढ़ाई में हमेशा अव्वल रहने वाले राजेन्द्र बाबू कहा करते थे, “यद्यपि मैंने अपनी पढ़ाई अंग्रेजी के अक्षरों को सीखने से आरंभ की थी पर मेरा विश्वास है कि यदि शिक्षा को प्रभावशाली बनाना है तो वह जनता की भाषा में ही दी जानी चाहिए।”
शिक्षा के ढ़ांचे में बदलाब लाने और जनता की भाषा में शिक्षा दिए जाने के हिमायती राजेन्द्र बाबू ने 1950 में ही ग्राम्य विश्व विद्यालय खोले जाने की वकालत की थी। वे रट्टामार पढ़ाई के खिलाफ थे। आज जब शिक्षा व्यवस्था में परिवर्तन की बहस चारो ओर हो रही है, इस विषय पर राजेन्द्र बाबू के विचार काफी प्रासंगिक हो जाते हैं।
हम भूल गए उनकी विरासत को दोंतों !
बड़ा बेगाना हुआ ग़ालिब अपने ही शहर में !!
अफ़सोस....... !!
इतिहास में दर्ज है कि जब राजेन्द्र बाबू महात्मा गांधी के सम्पर्क में आए थे तब वे वकालात करते थे और उस समय उनकी फीस दस हजार रू थी। स्वतंत्रता के आंदोलन में उन्होंने सारा वैभव त्याग दिया। उनकी तुलना यदि किसी से हो सकती है तो वे केवल दो महापुरुषों से हो सकती है एक महात्मा गाँधी तो दूसरे सरदार पटेल। आज जिस परिवार को ही क्षितिज दिया जा रहा है वे तो केवल अवसरवादी राजनीति का हिस्सा भर हैं।
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