दुखी मन से ही सही इस सच को स्वीकार करना पड़ रहा है कि अनेक संभावनाओं से परिपूर्ण राज ठाकरे भरी जवानी में अपना मानसिक संतुलन खो बैठे हैं। बाल ठाकरे में इसके लक्षण तो बुढ़ापे में पाए गए किंतु राज तो बेचारे अभी जवान हैं। अगर कोई इस निष्कर्ष को गलत को साबित कर दे तो निश्चय ही वह दूसरी संभावना को झूठ नहीं साबित कर पाएगा। और यह दूसरी संभावना है कि राज ठाकरे एक ऐसे शातिर दिमाग का धारक है जो अपनी राजनीति चमकाने के लिए देश और संविधान को रौंदने में नहीं हिचकता। जिस प्रदेश महाराष्ट्र की राजधानी मुंबई पर वह अपनी बपौती का दावा करता है, उसकी महान संस्कृति, उसके वैभव, उसके साहित्य और इतिहास के साथ हर दिन, हर पल खिलवाड़ करने से नहीं चूकता यह शख्स। कोई शातिर दिमागधारी ही अपनी अज्ञानता को अपने अनुयायियों पर थोप उन्हें मूर्ख बनाए रखेगा। राज ठाकरे ने अपनी पार्टी के विधायकों को ज्ञान दिया कि हिंदी देश की राष्ट्रभाषा बिलकुल नहीं है और यह कि हिंदी भाषा के बराबर ही हर राज्य की भाषा का महत्व है। अब राज जैसे अज्ञानी को कोई यह समझाएगा कि देश की राजभाषा ही राष्ट्रभाषा मानी जाती है? संविधान का उल्लेख करने वाले राज ठाकरे भारतीय संविधान के अनु'छेद 343(1) को पढ़ लें। इस अनु'छेद के अनुसार, देवनागरी में लिखित हिंदी संघ की राजभाषा है। अब अगर राज ठाकरे 'संघ' का अर्थ नहीं समझते तो कोई क्या करे? वैसे खीझ तो हो रही है किंतु उन्हें बता दूं कि संघ का अर्थ भारत देश है। देश के बहुभाषी व बहुसंस्कृति स्वरूप के कारण अन्य क्षेत्रीय भाषाओं को भी संवैधानिक दर्जा दिया गया। त्रि-भाषा फार्मूला के द्वारा हिंदी के साथ अंग्रेजी व क्षेत्रीय भाषाओं के प्रयोग की छूट दी गई। किंतु, पूरे भारतीय संघ को एक सूत्र में बांधे रखने के लिए हिंदी और सिर्फ हिंदी को राजभाषा का दर्जा दिया गया। देश की भाषाई एकता के पक्ष में क्षेत्रीय भाषाओं को सम्मान दिया गया क्योंकि हिंदी का किसी के साथ कोई बैर नहीं। लेकिन, क्षेत्रीयता व धर्म की राजनीति करने वाले कतिपय संकुचित विचार के राजनीतिकों ने अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए भाषा की राजनीति शुरू कर दी। एक ऐसी राजनीति जिसने देश की एकता और अखंडता पर सीधे प्रहार करने शुरू कर दिए। दक्षिण, विशेषकर तमिलनाडु, में सर्वप्रथम इसका राजनीतिकरण हुआ। अत्यंत ही दु.खद रूप से भाषा और क्षेत्रीयता के आधार पर वहां गठित राजनीतिक दलों ने राजनीतिक सफलताएं तो प्राप्त कीं लेकिन स्वयं को शेष भारत से लगभग अलग-थलग कर लिया। समाज में क्षेत्रीय और भाषाई घृणा के विष घोल डाले। ठाकरे एंड कंपनी अब उन्हीं के मार्ग पर चलते हुए भाषा और क्षेत्रीयता के जहर के सहारे समाज को छिन्न-भिन्न करने पर तुली है। अराजकता और वैमनस्य को सिंचित कर रही है। ठाकरे राजनीति करना चाहते हैं, करें। सत्ता प्राप्त करना चाहते हैं, जरूर करें। किंतु, इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए भाषा को जहरीला न बनाएं- सामाजिक एकता को खंडित न करें।
एक महत्वपूर्ण बात और। राज ठाकरे ने हिंदी के संबंध में 'ज्ञान' का बखान अपनी पार्टी महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के समक्ष किया। नवनिर्वाचित विधायकों को विधायकी की जानकारी और शिष्ट आचरण करने के निर्देश की जगह भाषाई घृणा का पाठ पढ़ाने वाले राज ठाकरे गुनाहगारों की मदद के गुनाहगार भी बन गए। अशिष्ट और असंसदीय आचरण के कारण निलंबित विधायकों का सत्कार कर ठाकरे ने निश्चय ही जान-बूझकर पूरी विधानसभा और अध्यक्ष को ठेंगा दिखाया है। उनका यह कृत्य विधानसभा की अवमानना है। सर्वोच्च न्यायालय को राज ठाकरे की उद्दंडता के विरुद्ध उठाए गए कदमों की जानकारी देने वाली महाराष्ट्र सरकार क्या उनके इस नए अपराध का संज्ञान लेगी?
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nice
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