Monday, January 26, 2009
'भविष्य' राहुल के बहाने 'वर्तमान' पर कब्जा??
प्रधानमंत्री पद के लिए आधा दर्जन से अधिक इच्छुकों की मौजूदगी के बीच शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी में लगता है कि एक अलग प्रकार की खिचड़ी पक रही है. एक ऐसी खिचड़ी जिसकी सुगंध योजनाबद्ध तरीके से सोनिया गांधी के खेमे में पहुंचाई जा रही है. निगाहें और निशाने तय हैं. चतुर पवार का आज्ञाकारी खेमा योजना की सफलता को लेकर आश्वस्त है. अन्यथा पवार की राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी के महासचिव डी.पी. त्रिपाठी कांग्रेस के युवा महासचिव सोनिया पुत्र राहुल गांधी को देश का वर्तमान व भविष्य निरूपित नहीं करते. याद दिला दूं कि यह वही शरद पवार हैं, जिन्होंने 1999 में सोनिया गांधी के नेतृत्व को चुनौती देते हुए विद्रोह का बिगुल बजाया था. 15 मई 1999 को कांग्रेस कार्यकारिणी समिति की बैठक में विदेशी मूल का मुद्दा उठाते हुए पवार ने सोनिया को संबोधित करते हुए कहा था, 'कांग्रेस आपके विदेशी मूल के मुद्दे पर भाजपा के प्रचार का जवाब देने में सफल नहीं हो पाई है, हमें इस बात को गंभीरता से लेना चाहिए.' पवार की इस बात को आगे बढ़ाते हुए उसी बैठक में पी.ए. संगमा ने कहा था, 'जब लोग पूछते हैं कि भारत में 98 करोड़ नागरिक होने के बावजूद कांग्रेस प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में एक भी योग्य भारतीय को क्यों नहीं खोज पाई तो हमारे पास कोई जवाब नहीं होता. मुझे लगता है कि वे सही हैं.' इसके बाद के घटनाक्रम से देश परिचित है. पवार, संगमा कांग्रेस से अलग हुए और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी का गठन किया. ध्यान रहे विदेशी मूल के साथ-साथ पवार समर्थक तब 'परिवारवाद' का भी विरोध कर रहे थे. ऐसे में जब पवार की पार्टी राहुल गांधी को देश का वर्तमान और भविष्य बता रही है तो क्या अकारण? बिल्कुल नहीं! त्रिपाठी के बयान पर गौर करें. राहुल में 'भविष्य' देखने वाले त्रिपाठी उसी स्वर में यह बताने से नहीं चूके कि शरद पवार में प्रधानमंत्री बनने की पूरी क्षमता है. त्रिपाठी यह भी याद दिला गए कि जब चंद्रशेखर और गुजराल मुट्ठी भर सांसदों के सहयोग से प्रधानमंत्री बन सकते थे तो पवार क्यों नहीं? इस मुकाम पर पवार खेमा अपनी योजना पर से आवरण हटाता दिख रहा है. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, अर्जुन सिंह, प्रणब मुखर्जी और दिग्विजय सिंह पहले ही राहुल गांधी में प्रधानमंत्री की पात्रता के लिए आवश्यक सभी गुण देश को बता चुके हैं. यह निर्विवादित है कि कांग्रेस की इस मंडली ने शीर्ष नेतृत्व की सहमति के बाद ही राहुल का नाम उछाला है. कांग्रेस संस्कृति से परिचित लोगों को इसमें कोई अजूबा नहीं दिखेगा. स्वार्थपरक, अवसरवादी राजनीति के ऐसे किस्से आम हैं. लोगों को आश्चर्य पवार की पार्टी की इस नई पहल पर है. अचानक राकांपा को राहुल में देश का वर्तमान और भविष्य कैसे नजर आने लगा? प्रधानमंत्री बनने की पवार की महत्वाकांक्षा पहले से जगजाहिर है, लेकिन यह तो तय है कि अकेले राकांपा के बलबूते पवार कभी प्रधानमंत्री नहीं बन सकते. उनकी पार्टी की ओर से चंद्रशेखर और इंद्रकुमार गुजराल का उद्धरण पेश करना महत्वपूर्ण है. इन दोनों को कांग्रेस का बाहर से समर्थन प्राप्त था. सच यह भी है कि कुछ महीनों के अंदर कांग्रेस ने समर्थन वापस लेकर इन्हें भूतपूर्व बना दिया था. कहीं शरद पवार चंद्रशेखर-गुजराल की 'गति' प्राप्त करना तो नहीं चाहते? शायद सच यही है. आसन्न लोकसभा चुनाव के संभावित परिणाम को भांपकर पवार प्रधानमंत्री बनने संबंधी अपनी अधूरी इच्छा को पूरी करना चाहते हैं. अगर कुछ अप्रत्याशित नहीं हुआ तो- चुनावी पंडितों के अनुसार- कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी दोनों प्रमुख दलों के सांसदों की संख्या घटेगी. ऐसी स्थिति में क्षेत्रीय दलों की शक्ति में इजाफा होगा.
वामदल, बहुजन समाज पार्टी, समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, द्रमुक और अन्नाद्रमुक जैसी पार्टियां तब सौदेबाजी को तत्पर दिखेंगी. कांग्रेस से नाराज वामदलों पर पवार की दृष्टि लगी हुई है. मुलायम सिंह से उनके मधुर संबंध रहे हैं. मायावती, जयललिता को साधने में उन्हें दिक्कत नहीं होगी. अर्थात तीसरी शक्ति के नेता के रूप में पवार अपनी दावेदारी पेश कर सकते हैं. परंतु तब जरूरत पड़ेगी कांग्रेस व भाजपा में से एक के समर्थन की. कांग्रेस के साथ महाराष्ट्र में गठबंधन और यूपीए का अंग होने के कारण पवार कांग्रेस का समर्थन चाहेंगे. जाहिर है राहुल गांधी को 'भविष्य' बताकर पवार 'वर्तमान' पर सौदेबाजी करेंगे. अपने राजनीतिक जीवन में पोषित स्वप्न को अल्पावधि के लिए ही सही पूरा करने को व्यग्र शरद पवार की चिंता अपनी राजनीतिक विरासत को लेकर भी है. पुत्री सुप्रिया सुले को अपने निर्वाचन क्षेत्र बारामती से चुनाव लड़वाने की घोषणा यूं ही नहीं की गई है. कोई आश्चर्य नहीं कि भविष्य में राहुल गांधी की एक विश्वसनीय सलाहकार के रूप में सुप्रिया स्थापित हो जाएं. भारतीय लोकतंत्र के इस 'रंग' पर तब आप अचंभित होंगे?
Thursday, January 22, 2009
ओबामा ने नहीं, अमेरिका ने रचा इतिहास
इतिहास रचा गया! बिल्कुल ठीक! इतिहास बराक ओबामा ने रचा, इसे स्वीकार करने में मुझे संकोच है. यूं भारत के प्राय: सभी समाचार-पत्र और टेलीविज़न चैनल पिछले दो दिनों देश को शिक्षित करते देखे गए कि 'ओबामा ने इतिहास रचा.' मैं समझता हूं ये अतिरेकी उद्गार है. अति उत्साह में ऐसा ही होता है. गुब्बारे के पिचक जाने के बाद ऐसे उत्साही कलमची स्वयं ही संशोधन को आतुर हो उठेंगे. इस आकलन को चिह्नित करने में खतरा सिर्फ अकादमिक ही है. वे हमला कर सकते हैं. ऐसे खतरे को झेलने के लिए तैयार मैं अब उस व्यापक सच को रेखांकित कर देता हूं. सच यह है कि इतिहास अश्वेत ओबामा ने नहीं, श्वेत अमेरिका ने लिखा है. उस अमेरिका ने जिसमें श्वेत-आबादी 80 प्रतिशत है- अश्वेत सिर्फ 13 प्रतिशत हैं. यह वही महाशक्ति अमेरिका है, जिसके लोकतंत्र ने अभी मात्र 44 वर्ष पूर्व (1965) अश्वेतों को मत देने का अधिकार प्रदान किया. इसके पूर्व वे मताधिकार से वंचित थे. अश्वेतों की ओर से इसके लिए ओबामा के वैचारिक गुरु मार्टिन लूथर किंग ने निर्णायक लड़ाई लड़ी थी.
अश्वेत क्रांति का इतिहास लगभग 150 साल पुराना है. अश्वेतों की मांग के कारण अमेरिका गृहयुद्ध तक झेल चुका है. खून-खराबे हुए थे. अश्वेतों के खिलाफ तब बहुसंख्यक एकजुट थे. आज उन्हीं श्वेतवर्णों ने अश्वेत बराक ओबामा को अपना भविष्य निर्धारित करने का अधिकार सौंप दिया है.
सदी के महानायक के रूप में महिमामंडित कर रहे हैं- शांतिदूत के रूप में चित्रित कर रहे हैं- संकट मोचक बता रहे हैं. दोहरा दूं, ये सब अमेरिका के बहुसंख्यक श्वेत कर रहे हैं- सिर्फ 13 प्रतिशत अश्वेत नहीं! इतिहास यहीं रचा गया. खैर जब इतिहास रचा गया, तब आशाओं-अपेक्षाओं के बीज तो अंकुरित होंगे ही. एक ओबामा की 'कृपा' का आज पूरा संसार अभिलाषी है.
ओबामा ने राष्ट्रपति पदग्रहण के पश्चात बातें कुछ कही ही ऐसी हैं. अमेरिका को उन्होंने क्रिश्चियन, यहूदी, मुसलमानों और हिन्दुओं का देश घोषित किया है. निवर्तमान राष्ट्रपति जार्ज डब्ल्यू. बुश की विदेश नीति को अस्वीकार करते हुए इराक से अमेरिकी फौजों की वापसी के संकेत दिए हैं. विश्वव्यापी आतंकवाद के खिलाफ निर्णायक लड़ाई की जरूरत जताई. एक महान चिन्तक की तरह ओबामा ने बताया कि अमेरिका की विविधताओं भरी विरासत ही उनकी ताकत है. हर भाषा और संस्कृति उन्हें आकार देती है. विश्व-महाशक्ति के रूप में विश्व-शांति की दिशा में अमेरिका की भूमिका को भी उन्होंने रेखांकित किया.
हमारे भारत में मौजूद विदेशी मामलों के विशेषज्ञ 'ओबामा-उदय' को भारत के लिए हितकारी मान रहे हैं. इस बिन्दु पर सहज-जिज्ञासा यह कि क्या सचमुच अमेरिका, भारत का मित्र साबित होगा? तटस्थ विश्लेषक चूंकि अब तक इस बात पर अड़े थे कि अमेरिका कभी भी भारत का मित्र नहीं हो सकता, एक नई बहस ने जन्म ले लिया है. पाकिस्तान ने तो ओबामा के कतिपय विचारों पर अपनी आपत्ति दर्ज भी कर दी है. दक्षिण एशिया में शांति की पहली शर्त ही है भारत-पाक के बीच मित्रता! इसके पक्ष में भारत-पाकिस्तान की ओर से बड़े-बड़े वक्तव्य आते हैं. लेकिन हमारी आज़ादी और पाकिस्तान उदय के साथ ही गुम 'मित्रता' को ढूंढ़ वापस लाने की ईमानदार कोशिश कभी किसी ने की है? राजनीतिक लाभ-हानि के जोड़-घटाव में शासकों ने दुश्मनी अथवा तनाव को ही तरज़ीह दी है. अमेरिका ने इस विवाद में राजनीति से अधिक अपने आर्थिक-हित को प्राथमिकता दी. अपनी आंतरिक सुरक्षा को बड़ी चतुराई से अमेरिका ने इस विवाद के साथ जोड़ दिया. अमेरिका की यह नीति अब तक सफल रही है. ओबामा इस सचाई से अच्छी तरह परिचित हैं कि इसी अमेरिकी नीति के कारण अमेरिका पर बहुचर्चित 9/11 आतंकी हमले के बाद फिर कोई हमला नहीं हुआ. क्या अमेरिका की इस 'कूटनीति' की 'सफल यात्रा' को ओबामा विराम देने का जोखिम उठा पाएंगे? और स्पष्ट कर दूं- अमेरिका की इस 'सुरक्षा' की गारंटी दक्षिण एशिया में जारी अशांति ही है.
इराक से अमेरिकी फौजों की वापसी तो हो जाएगी, किन्तु क्या ओबामा इराक को सद्दाम हुसैन वापस कर पाएंगे? हर तरह से यह प्रमाणित हो चुका है कि इराक पर अमेरिकी हमला, सद्दाम की मौत, वहां सत्तापलट अमेरिकी 'हवस' के कारण हुई. किसी लोकतांत्रिक-क्रांति के कारण नहीं! ध्यान रहे, ओबामा के राष्ट्रपति चुने जाने के बाद उनके सलाहकार हमारे कश्मीर को 'समस्या' निरूपित कर चुके हैं. भारत किसी मुगालते में न रहे. यह मान कर चलें कि अश्वेत ओबामा की पहली चिन्ता श्वेत अमेरिका के हित की ही होगी. बेहतर हो- मजबूत हो रहा भारत, स्वयं को और मजबूत करे. लक्ष्य महाशक्ति का आसन हो!
Monday, January 19, 2009
गूंगे कब सच बोलेंगे...?
समाचार-पत्रों के सामान्य पाठकों और टेलीविजन समाचार चैनलों के सामान्य दर्शकों को छोड़ दें तो गंभीर पाठक व दर्शक हैरान-परेशान हैं कि वे क्या पढ़ें, क्या देखें और क्या सुनें! इनके बीच के चिंतक-वर्ग की चिंता तो कभी-कभी उस दार्शनिक के दरवाजे पर दस्तक देने लगती है, जो बंद कमरे में किसी विषय को सोचते-सोचते उन्मादी बन अपने सिर के बालों को नोचता रहता है. क्या ऐसी अवस्था की जिम्मेदारी को कोई सुनिश्चित करेगा? अभी पिछले रविवार, 18 जनवरी 2009 को लोगों ने टेलीविजन पर खबर देखी और सोमवार, 19 जनवरी 2009 को समाचार-पत्रों में पढ़ा कि देश के प्रधानमंत्री अपने ड्राइविंग लाइसेंस के नवीकरण के लिए स्वयं परिवहन कार्यालय पहुंचे. खबरों में यह रेखांकित किया गया कि प्रधानमंत्री ने न केवल 'सादगी' का परिचय दिया, बल्कि यह संदेश भी दिया कि नियम-कानून सभी नागरिक के लिए समान हैं, सभी कानून का आदर करें. यह भी बताया गया कि प्रधानमंत्री द्वारा स्थापित मिसाल का अनुसरण अन्य नेता करें.
एक अन्य खबर संजय दत्त से संबंधित दिखी. संजय दत्त यह बता रहे थे कि ''मैं लखनऊ की तस्वीर बदल दूंगा,'' और यह कि ''प्रिया अब 'दत्त' नहीं हैं, दत्त सिर्फ वे और उनकी पत्नी मान्यता ही हैं.'' खबरें यह भी प्रसारित हो रही थीं कि प्रधानमंत्री पद के लिए व्यापार जगत की पहली पसंद डॉ. मनमोहन सिंह हैं. एक अन्य खबर- इंटरनेट पर लोकप्रियता के मामले में 'सत्यम' के कुख्यात बी. रामालिंगा राजू ने अमेरिका के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति बराक ओबामा को पीछे छोड़ दिया है और खबर यह भी दिखी कि 1983 में भारत को क्रिकेट का विश्वविजेता बनाने वाले कपिल देव सम्मान के रक्षार्थ लड़ाई लड़ रहे हैं. परस्पर विरोधी एवं कुछ प्रायोजित खबरों को देख पाठक-दर्शक अचंभित रहे.
76 वर्षीय प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह की इस पहल को 'नौटंकी' बताने वालों की भी कमी नहीं है. क्या सचमुच? मैं फिलहाल इस वर्ग का साथ नहीं दे प्रधानमंत्री को संदेह का लाभ देने को तैयार हूं. क्योंकि यह तो तय है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को इससे कोई राजनीतिक लाभ नहीं मिलने जा रहा. उन्होंने स्वयं को कभी राजनीतिक माना भी नहीं. शायद वे 'राजा और रंक' दोनों को समान अधिकार को चिह्नित करना चाहते थे- सभी के लिए समान कानून का संदेश देना चाहते थे- नैतिकता के पायदान में एक और पाया जोडऩा चाहते थे! चिंतक इस बिन्दु पर पहुंच जिज्ञासु बन गए हैं. वे यह भी चाहते हैं कि डॉ. मनमोहन सिंह नैतिकता और कानून के आईने के सामने खड़े होकर उनकी जिज्ञासा का जवाब दें. क्या ये वही मनमोहन सिंह नहीं हैं, जिन्होंने सन् 1991 में असम से राज्यसभा का चुनाव लडऩे के लिए गलत शपथ-पत्र दाखिल कर यह घोषणा की थी कि वे उस राज्य (असम) के स्थायी निवासी हैं? चूंकि तब कानूनी रूप से बाध्यकारी था कि किसी उम्मीदवार को उस राज्य का स्थायी निवासी होना चाहिए, मनमोहन सिंह ने गलत शपथ-पत्र दाखिल किया. मीडिया के एक प्रकाशस्तंभ कुलदीप नैयर ने सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी. सरकार ने पूर्व प्रभाव से नियम-कानून बदल दिए. नैयर की याचिका खारिज कर दी गई. मीडिया गूंगा बना रहा.क्या तब मनमोहन कानून का पालन कर रहे थे? नैतिकता का झंडा लहरा रहे थे? हरगिज नहीं! उन्होंने तब गलत शपथ-पत्र दाखिल कर अपराध किया था, अनैतिकता का सहारा लिया था. फिर, जब रविवार को अवकाश के दिन परिवहन कार्यालय खुलवा कर अपने लाइसेंस के नवीकरण के लिए प्रधानमंत्री पहुंचते हैं, तब कानून और नैतिकता पर चिंतक पुनर्विचार तो करेंगे ही! मीडिया संज्ञान इस बात का ले, न कि मनमोहन सिंह की 'कथित सादगी' का!
अभी कुछ दिन पहले जब व्यापार जगत के दो बड़े स्तंभ- अनिल अंबानी और सुनील मित्तल ने गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को लालकृष्ण आडवाणी के मुकाबले बेहतर प्रधानमंत्री का उम्मीदवार निरूपित किया, तब मीडिया जगत ने इस खबर को कुछ यूं उछाला, जैसे भारतीय जनता पार्टी में दोफाड़ हो गई हो. बात यहीं खत्म नहीं हुई, तत्काल एक अंग्रेजी दैनिक समाचार-पत्र का कथित सर्वेक्षण सामने लाया गया कि वस्तुत: उद्योग जगत की पसंद मनमोहन सिंह ही हैं- मोदी नहीं. मोदी को आखिरी पायदान पर रखते हुए सर्वेक्षण में उनके ऊपर राहुल गांधी को बिठाया गया. अब बेचारा पाठक-वर्ग किसे सच माने! लखनऊ की तस्वीर बदल देने की घोषणा करने वाले संजय दत्त की खबरों में मीडिया बड़ी चतुराई से यह बताने से नहीं चूका कि मुंबई में जन्मे, पले-बढ़े और अभिनय के क्षेत्र में आकाश की ऊंचाई छूने वाले संजय को लखनऊ से लडऩे का नैतिक अधिकार है- क्योंकि संजय की नानी 30 के दशक में लखनऊ की एक मशहूर 'नर्तकी' थीं. जाहिर है कि आने वाले दिनों में इस जानकारी का 'उपयोग' मीडिया को अनुगृहीत करते हुए संजय विरोधी अपने ढंग से करेंगे. 'दत्त' को आधार बना भाई-बहन के बीच उत्पन्न दरार पारिवारिक मुद्दा हो सकता है, राजनीतिक नहीं.
जब पिछले दिनों शिवसेना के कार्यकारी अध्यक्ष उद्धव ठाकरे ने डंके की चोट पर ऐलान किया था कि ''हां, यह मुंबई मेरे बाप की है,'' तब गर्म-बहस से मीडिया ने परहेज कर लिया था. उद्धव ने मुंबई के अतिरिक्त पुलिस आयुक्त के.एल. प्रसाद के उस कथन को चुनौती दी थी, जिसमें उन्होंने कहा था कि ''मुंबई किसी के बाप की नहीं है.'' देश की आर्थिक राजधानी मुंबई किसी के बाप की अर्थात् किसी की जागीर हो भी नहीं सकती. लेकिन इस पर बहस नहीं हुई. विवाद पर फैसले से मीडिया ने हाथ खींच लिये. कारण??? कपिल देव के 'संघर्ष' को भी मीडिया ने वस्तुत: स्पर्श मात्र कर छोड़ दिया. जबकि कपिल देव इसके अधिकारी थे.
अनेक सवाल हैं जो मीडिया को-उस मीडिया को, जिससे देशहित में जनांदोलन खड़ा कर उन्हें नेतृत्व प्रदान करने की अपेक्षा है-कठघरे में खड़ा कर रहे हैं. क्या मीडिया देश के ऐसे सवालों पर गूंगा बना रहेगा? इस बिन्दु पर कवि कुमार विनोद की ये दो पंक्तियां बार-बार मेरे सामने आ रही हैं-
सब सिंहासन डोलेंगे,
गूंगे जब सच बोलेंगे!
कब जुबान खुलेगी गूंगों की? क्या कभी खुलेगी भी! कब बोलेंगे वे सच? सच बोलने और सच सुनने की हिम्मत को कोई 'मौत' न दें.
एस.एन. विनोद 20-01-09
(इसे मराठी में पढऩे के लिए लॉग ऑन करें- www.deshonnati.com)
Thursday, January 15, 2009
न्यायदेवता कठघरे में क्यों...?
न्यायपालिका और न्यायाधीश दोनों ऐसे संवेदनशील संबोधन हैं, जिन पर प्रतिकूल टिप्पणी को 'अवमानना' के दायरे में डाल दिया जाता है. अमूमन इन पर टिप्पणी करने से परहेज कर लिया जाता है. लेकिन लोकहित में खतरा उठा अनेक समीक्षक अपनी दृष्टि में 'सच' को सार्वजनिक कर देते हैं. कुछ मामलों में ऐसे लोगों ने न्यायपालिका की नाराजगी भी झेली है. कुछ दण्डित हुए हैं. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तब कोष्ठक की टोकरी में डाल दी जाती रही. लेकिन यह अपेक्षा तो अपनी जगह आज भी मजबूती से कायम है कि न्यायाधीश को 'सीज़र की पत्नी' की तरह शक-ओ-शुबहा से परे होना चाहिए. फिर ऐसा क्यों कि आए दिन कतिपय न्यायाधीशों पर कथित रूप से भ्रष्टाचार के आरोप लग रहे हैं? उनके खिलाफ जांच की कार्रवाई की जा रही है, पदोन्नति रोकी जा रही है. न्यायमंदिर में न्याय की कुर्सी पर बैठे न्यायाधीश को भगवान मानने वाला यह देश ऐसी घटनाओं से आहत है. ऐसे अनेक मामलों के बीच 'गाजियाबाद पीएफ घोटाला' न्यायपालिका के लिए एक बड़े शर्म के रूप में सामने आया है. हालांकि सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश ने कहा है कि इस भविष्य निधि घोटाले में किसी न्यायाधीश को अभियुक्त नहीं बनाया गया है. तथापि मामले की सीबीआई जांच से न्यायप्रणाली की गरिमा तार-तार हुई है.
23 करोड़ रु. के पीएफ घोटाले की शुरुआती जांच रिपोर्ट से लोकतंत्र के इस तीसरे स्तंभ में प्रविष्ट भ्रष्टाचार अथवा अनियमितता की पुष्टि होती है. न्यायपालिका से जुड़े लगभग तीन दर्जन लोगों का नाम इस घोटाले में आना ही पूरी न्याय व्यवस्था के लिए शर्मनाक है. लेकिन सर्वोच्च न्यायालय की प्रशंसा करनी होगी, जिसने इस संवेदनशील मामले की जांच सीबीआई को सौंपी थी. यह मामला अकेला नहीं है. हाल के दिनों में अनेक ऐसे मामले सामने आए हैं, जिनमें न्यायाधीश शक के घेरे में आए- उनके खिलाफ जांच व दण्डात्मक कदम उठाए गए. क्यों हो रहा है ऐसा?
जाहिर है कि इस रोग के फैलने का मुख्य कारण शुरुआत में संकेत मिलने के बावजूद अनदेखा कर देना है. हां, यही सच है. यह सब अचानक नहीं हो रहा है. वस्तुत: इसकी शुरुआत के संकेत 70 के दशक के आरंभ में मिलने शुरू हो गए थे. यह वह काल था, जब समाज के विभिन्न क्षेत्रों में मूल्यों में गिरावट स्पष्टत: परिलक्षित होने लगी थी. न्यायाधीश की निष्ठा पर गंभीर सवालिया निशान लगा जब 1982 में बहरुल इस्लाम का मामला सामने आया. पटना अर्बन को-ऑपरेटिव बैंक से संबंधित एक मामले में तत्कालीन मुख्यमंत्री डॉ. जगन्नाथ मिश्र पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे थे. निचली अदालत और कुछ न्यायालय से होता हुआ मामला सर्वोच्च न्यायालय पहुंचा था. न्यायमूर्ति बहरुल इस्लाम, न्यायमूर्ति आर.वी. मिश्र और न्यायमूर्ति वी.डी. तुलजापुरकर की खंडपीठ ने मामले की सुनवाई की. न्यायमूर्ति बहरुल इस्लाम और न्यायमूर्ति मिश्र के बहुमत के फैसले से डॉ. जगन्नाथ मिश्र बच गए. इन दोनों न्यायाधीशों से असहमति व्यक्त करते हुए न्यायमूर्ति तुलजापुरकर ने अपने फैसले में कहा था कि प्रथम दृष्ट्या डॉ. मिश्र के खिलाफ मामला बनता है और उनके खिलाफ जालसाजी और भ्रष्टाचार के मुकदमे की सुनवाई होनी चाहिए. इस फैसले में तथ्यात्मक गलतियों और भ्रांतिपूर्ण मान्यताओं के आधार पर पुनर्विचार याचिका दायर हुई. इस बीच न्यायमूर्ति बहरुल इस्लाम ने सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश पद से इस्तीफा दे दिया.
अब जरा गौर करें. इस्तीफे के अगले ही दिन बहरुल इस्लाम कांग्रेस(इ) में शामिल हो गए. डॉ. जगन्नाथ मिश्र इसी पार्टी में थे. बहरुल इस्लाम को तत्काल असम के बारपेटा संसदीय क्षेत्र से लोकसभा चुनाव के लिए कांग्रेस(इ) का टिकट दे दिया गया. बहरुल इस्लाम का कार्यकाल छह सप्ताह बाद खत्म होना था. लेकिन उन्होंने प्रतीक्षा नहीं की. साफ है कि इस्लाम जल्दबाजी में थे. वे छह सप्ताह प्रतीक्षा भी नहीं कर सके. साफ है कि उन्होंने पहले ही असम से चुनाव लडऩे का मन बना लिया था और कांग्रेस से टिकट मिलने को सुनिश्चित कर लिया था. यह घटना तब सभी अखबारों की सुर्खियां बनी थी.
आज जब न्यायपालिका से जुड़े कथित भ्रष्टाचार की खबरें सामने आ रही हैं, तब मुझे भारत के एक पूर्व मुख्य न्यायाधीश पी.एन.भगवती द्वारा 26 नवंबर 1985 को विधि दिवस के अवसर पर दिए एक भाषण के उस अंश की याद आ रही है, जिसमें उन्होंने कहा था- ''मुझे यह देखकर बहुत ही पीड़ा हुई है कि न्यायिक प्रणाली करीब-करीब ढहने के कगार पर है. ये बहुत ही कठोर शब्द हैं जो मैं इस्तेमाल कर रहा हूं, लेकिन बहुत ही व्यथित होकर मैंने ऐसा कहा है.'' अब जबकि प्राय: प्रत्येक दिन लोकतंत्र के इस तीसरे स्तंभ के लड़खड़ाने की खबरें सामने आ रही हैं. क्या यह आशा की जाए कि सभी शक-ओ-शुबहो से ऊपर हमारी न्यायपालिका 'सीज़र की पत्नी' की तरह बेदाग साबित होने के लिए तत्पर होगी! गाजियाबाद पीएफ घोटाला पूरी न्यायपालिका के लिए 'सीज़र की पत्नी' की परीक्षा सदृश ही है.
Tuesday, January 13, 2009
खबरदार, सरकार ऐसी हिमाकत न करे ....!
मीडिया को अपने इशारे पर नचाने की सरकारी साजि़श पर मैं स्तब्ध हूं. क्या मनमोहन सरकार कोई निर्णय लेने के पूर्व इतिहास के पन्नों को नहीं पलटती? या वह जानबूझकर अन्जान होने का स्वांग करती है! हालांकि प्रधानमंत्री के रूप में डॉ. मनमोहन सिंह की दयनीय स्थिति को देखकर कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि प्रधानमंत्री को जानबूझकर अंधेरे में रखा जाता है. लेकिन यह उम्रदराज प्रधानमंत्री अपनी आंखों के सामने घटित घटनाओं को कैसे भूल गया? मैं बात पूर्व में मीडिया पर लगाए गए अंकुश की कर रहा हूं, ऐसे प्रयासों की कर रहा हूं.
सन् 1982 में 'बिहार प्रेस विधेयक' और सन् 1988 में केन्द्र की राजीव गांधी सरकार द्वारा प्रेस के खिलाफ लाए गए 'मानहानि विधेयक' के राष्ट्रव्यापी विरोध और उनकी मौत की घटना को क्या सरकार भूल गयी! लगता ऐसा ही है, जो उसने एक बार फिर मीडिया पर सरकारी नियंत्रण की कोशिश की है- 'काला कानून' बनाने की ओर अग्रसर है. यह ठीक है कि इस बार वह शुरुआत समाचार पत्र-पत्रिकाओं से नहीं, बल्कि टीवी चैनलों से करने जा रही है. इस प्रस्तावित 'काले कानून' के लिए उसके पास बहाने के रूप में पिछले वर्ष के अंत में मुंबई पर हुए आतंकी हमले की घटना उपलब्ध है. आतंकी हमले के कतिपय टीवी कवरेज पर न केवल आम जनता, बल्कि स्वयं मीडिया से जुड़े लोगों के बीच भी नाराज़गी थी. सरकार के सलाहकार- मूर्ख सलाहकार- उस नाराज़गी का इस्तेमाल प्रस्तावित 'काले कानून' को जायज़ ठहराने के पक्ष में करने की सोच रहे हैं. इन तत्वों को वस्तुत: मीडिया की स्वतंत्रता, विशेषकर उसकी बेबाकी रास नहीं आती. ऐसे अज्ञानी, अर्धज्ञानी तत्व, अपनी व सरकार की काली करतूतों पर परदा डाले रखने के लिए मीडिया की ज़ुबान पर ताला और आंखों पर पट्टी बंधी देखना चाहते हैं..
संभवत: यही कारण है कि उन्होंने मीडिया को एक बार फिर 'सेन्सरशिप' के दायरे में लाने की योजना बनाई है. तीन दशक पूर्व आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी की सरकार प्रेस के खिलाफ 'सेन्सर' लगाने की हिमाकत कर चुकी थी. नतीजतन तब सही-सच्ची खबरों का स्थान, अफवाहों ने लेकर न केवल इंदिरा गांधी, बल्कि केन्द्र की उनकी कांग्रेस सरकार को उखाड़ फेंका था. आज़ादी के बाद केन्द्र में पहली बार सत्ता से दूर हो कांग्रेस, विपक्ष में बैठने को मज़बूर हुई थी. 70 के दशक के मुकाबले चालू दशक, मुखर-आक्रामक मीडिया का गवाह है. केन्द्र की मिलीजुली खिचड़ी सरकार में शामिल छोटे-बड़े राजनीतिक दल व उनके नेता मीडिया की सक्रियता से हमेशा बेनकाब होते रहे हैं. अब जब, लोकसभा चुनाव सिर पर हैं, इन मंदबुद्धि नेताओं ने पहले टीवी चैनलों पर अंकुश लगाने का मन बनाया है, सरकार कानून बना कर यह सुनिश्चित करना चाह रही है कि 'नेशनल क्राइसिस' और 'इमरजेन्सी सिचुएशन' में टीवी न्यूज चैनल सिर्फ सरकार द्वारा मुहैया कराए गए 'फुटेज' ही दिखाएं. अर्थात् टीवी चैनलों के पत्रकारों की खबरों को रद्दी में डाल 'सरकारी संवाददाताओं' की खबरों को ही दिखाया जाए. टीवी चैनलों के संवाददाताओं को अविश्वसनीय बनाने और 'सरकारी संवाददाताओं' को विश्वसनीय बनाने की यह चाल हमें स्वीकार्य नहीं! हम इसका निषेध करते हैं. क्या यह आपातकाल में लगाए गए 'सेन्सर' की पुनरावृत्ति नहीं होगी? तब ऐसा ही हुआ था. टीवी चैनल (सरकारी दूरदर्शन को छोड़) तो उस समय नहीं थे, अखबारों के दफ्तरों में सरकारी नुमाइंदे बैठ खबरों की पड़ताल करते थे, उनके द्वारा स्वीकृत खबरें ही प्रकाशित होती थीं. विरोध करने वाले दंडित किए गए- अनेक संपादक व पत्रकार जेलों में ठूंस दिए गए थे. इतिहास के उन काले अध्यायों से देश परिचित है. यहां दोहराने की जरूरत नहीं. मेरी आपत्ति ताजे प्रस्तावित कानून को लेकर है. क्योंकि अगर ऐसा कानून बन जाता है, तब सरकार नए कानून के प्रावधानों को सुविधानुसार अपने पक्ष में परिभाषित कर वैसे हर जन आंदोलन, आतंकी घटनाओं, दंगे, अपहरण व बंधक आदि घटनाओं का वास्तविक प्रसारण रोक देगी, जिनसे सरकार की छवि प्रतिकूल रूप से प्रभावित होने की संभावना हो. सरकार आसानी से ऐसे मामलों को 'इमरजेन्सी सिचुएशन' निरूपित कर देगी. सरकार का यह कदम न केवल मीडिया से उसके अधिकारों को छीनना होगा, बल्कि देश को वास्तविकता की जानकारी से वंचित करना भी होगा. निश्चय ही यह लोकतंत्र व संविधान की मूल भावना को चुनौती होगी. देश इसे कतई बर्दाश्त नहीं करेगा. सरकार के सलाहकार चेत जाएं. यह ठीक है कि मुंबई हमले के कवरेज के दौरान कुछ टीवी चैनलों ने गैर-जिम्मेदारी का परिचय दिया था, किन्तु इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि उन गलतियों को आधार बना सरकार पूरी मीडिया को अपना गुलाम बनाने की साजि़श रचे! सरकार यह न भूले कि देश के लोकतंत्र और संविधान की रक्षा का गुरुत्तर दायित्व मीडिया निभाता है, राजनीतिक दल या उनके अर्धज्ञानी नेता नहीं! भारतीय लोकतंत्र का व्यावहारिक सच यही है.
एस.एन. विनोद 13-01-09
Monday, January 12, 2009
राहुल की 'ताजपोशी' करें, लेकिन ....!
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के 'रसोईघर' के 'बर्तन' आपस में टकरा कर विचित्र शोर पैदा कर रहे हैं. किसी कोने से 'राहुल-राहुल' की गूंज उठती है, तो किसी कोने से ''.... चुप, अभी नहीं....!'' कांग्रेस के घर से उठ रहा यह शोर चूंकि प्रधानमंत्री की कुर्सी पर जाकर टिक जाता है, देश की उत्सुकता स्वाभाविक है. कांग्रेस की संस्कृति से परिचित लोगों को इस पर कोई आश्चर्य नहीं हुआ. वस्तुत: इस तरह के 'शोर' एक सोची-समझी रणनीति के तहत पैदा किए जाते हैं. ऐसे शोर से प्राप्त प्रतिक्रियाओं के आकलन के बाद 'नेतृत्व' संबंधित मुद्दे पर अंतिम फैसला लेता है. वह फैसला, जिसके बीजारोपण से शोर पैदा कर पार्टी एवं देश की नब्ज़ को टटोला जाता है.
देश के अगले प्रधानमंत्री के रूप में राहुल का नाम उछाल कर पार्टी नेतृत्व देश की प्रतिक्रिया जानना चाहता है. ठीक उसी तरह जैसे इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्रित्वकाल में एक बार उनके मंत्रिमंडल के एक सदस्य वसंत साठे ने 'लिमिटेड डिक्टेटरशिप' (सीमित तानाशाही) का जुमला छोड़ा था. जब देश भर में तीखी प्रतिक्रिया हुई, तब सुझाव को व्यक्तिगत बताते हुए साठे पीछे हट गए थे. इंदिरा गांधी के कहने पर ही 1982 में बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री डॉ. जगन्नाथ मिश्र ने प्रेस की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने हेतु 'बिहार प्रेस विधेयक' लाया था. वह इंदिरा गांधी का ही प्रयोग था, जिसकी सफलता के बाद पूरे देश में प्रेस के पैरों में बेडिय़ां बांधने की योजना बनाई गई थी. तब प्रेस व जनता सड़क पर उतर आई थी. अंतत: सरकार झुकी, विधेयक वापस हुआ.
राहुल गांधी और प्रधानमंत्री की कुर्सी को लेकर पिछले उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव के समय से ही ऐसा 'कांग्रेस प्रयोग' जारी है. स्वयं प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने उत्तरप्रदेश की एक चुनावी सभा में घोषणा की थी कि ''राहुल देश के भविष्य हैं.'' लेकिन जब कुछ दिनों पूर्व केन्द्रीय मंत्री अर्जुन सिंह ने प्रधानमंत्री पद के लिए राहुल का नाम उछाला, तब कांग्रेस नेतृत्व की ओर से अर्जुन के वक्तव्य को खारिज कर दिया गया. बल्कि कांग्रेस में अर्जुन विरोधी खेमा यह कहने से नहीं चूका कि राहुल गांधी की संभावना को धूल-धूसरित करने के लिए ऐसा 'कुटिल वक्तव्य' दिया गया है. 10-जनपथ की नाराजगी भी तब सामने आई थी. तब प्रणव मुखर्जी ने भी अर्जुन के वक्तव्य पर नाराजगी जाहिर की थी. लेकिन कांग्रेस की जारी नई संस्कृति अपने ही बड़े नेताओं के कपड़े उतारने से नहीं हिचकती.
प्रणव मुखर्जी का बयान आया कि ''राहुल गांधी प्रधानमंत्री बनेंगे.... अपने पिता राजीव गांधी के पदचिह्नों पर चलेंगे.... जब प्रफुल्लकुमार महंत और अमर अब्दुल्ला कम उम्र में मुख्यमंत्री बन सकते हैं, तब राहुल प्रधानमंत्री क्यों नहीं?'' क्या प्रणव ने अपनी मर्जी से ऐसा बयान दिया था? मैं मानने को तैयार नहीं. ये वही प्रणव मुखर्जी हैं, जिन्होंने राजीव गांधी की मृत्यु के पश्चात प्रधानमंत्री पद पर अपना दावा ठोका था- सोनिया के नाम का विरोध किया था! बात यहीं खत्म नहीं होती, प्रणव के बयान के एक दिन पूर्व कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह ने भी बयान दिया था कि राहुल गांधी शीघ्र ही प्रधानमंत्री बन सकते हैं. पूर्व में अर्जुन सिंह के ऐसे बयान पर तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त करने वाले प्रणव-दिग्विजय को अचानक राहुल प्रधानमंत्री कैसे नज़र आने लगे? ध्यान रहे, अर्जुन के बयान के बाद स्वयं सोनिया गांधी ने राहुल की 'संभावना' पर जारी अटकलों पर यह कहकर विराम लगा दिया था कि ''वह अभी छोटा है.'' प्रणव के ताजे बयान में न केवल दो मुख्यमंत्रियों के कम आयु का होने पर जोर दिया गया है, बल्कि यह भी कहा गया कि राजीव गांधी 40 वर्ष की आयु में प्रधानमंत्री बने थे. निश्चय ही प्रणव की जुबान नहीं फिसल रही थी. अब प्रणव जब अपने बयान से पलट रहे हैं, तब कोई भी समीक्षक बेखौफ यह कह डालेगा कि प्रणव के दोनों बयान, वसंत साठे के बयानों की तरह 'प्रयोगवादी' हैं!
यहां तक तो ठीक है. मेरी चिंता इस बात को लेकर है कि एक सौ करोड़ से अधिक की आबादी वाला भारत देश, एक पार्टी-विशेष के मुट्ठी भर चाटुकारों का सहज 'मस्खरी-स्थल' कैसे बन जाता है? विवेकशून्य तो कदापि नहीं है यह देश! भारतीय लोकतंत्र में शासन के हर दरवाजे पर कोई भी दस्तक दे सकता है- राहुल भी! किसी को आपत्ति नहीं होगी, आपत्ति के स्वर उठ रहे हैं, तो चाटुकारों की भाटगीरी पर! और फिर, लुका-छिपी का खेल तो सिर्फ बच्चों को ही शोभा देता है.
Sunday, January 11, 2009
Friday, January 9, 2009
अपनी बात (संदर्भ : और दूसरा गांधी... पर प्राप्त प्रतिक्रियाएं! )
आपके स्पष्ट विचार को पढ़कर अच्छा लगा. अपने विचारों को दोटूक शब्दों में निडरतापूर्वक रखने का मैं हमेशा हिमायती रहा हूं. जहां तक शिबू सोरेन को दूसरा गांधी निरूपित करने का सवाल है, मेरे स्तंभ को पुन: पढ़ें, आप पाएंगे कि 70 के दशक में सोवियत संघ और चीन में शिबू के संबंध में जो लिखा गया, मैंने अपने लेख में उसका हवाला दिया है. शिबू के संबंध में स्तंभ में दी गई जानकारियां इतिहास में दर्ज हैं. रही बात वर्तमान 'राजनीतिक शिबू सोरेन' की तो उनके क्रिया कलाप और पतन अलग विषय हैं. शिबू के पतन पर पूर्व में मैं सविस्तार लिख भी चुका हूं. तब रांची में एक पत्रकार के रूप में सक्रिय मैं उनके राजनीतिक पतन का साक्षी भी हूं. शिबू के इस पक्ष पर कोई मतभेद भी नहीं हो सकता, लेकिन यह भी सच है कि आदिवासियों की नजर में शिबू आज भी दिशोम गुरु हैं. आप संथाल क्षेत्र में जाकर इसे महसूस भी कर सकते हैं, जहां आज भी गुरुजी राजनीति के पर्याय हैं. जहां तक बात खलनायकी की है तो गांधी को भी इससे वंचित नहीं रखा गया है। उनकी भी आलोचना क्या कम होती है? चाहे प्रधानमंत्री पद के लिए बहुमत की पसंद सरदार बल्लभ भाई पटेल को किनारे कर गांधी द्वारा जवाहर लाल नेहरू को नामित करने का मामला हो या कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में चुने जाने के बाद सुभाषचंद्र बोस को इस्तीफे के लिए विवश करने का मामला, गांधी पर अक्सर उंगलियां उठाई जाती रहीं. आजादी पूर्व कांग्रेस अध्यक्षों के चुनाव में बहुमत की उपेक्षा कर नेहरू की व्यक्तिगत पसंद-नापसंद को तवज्जो देने और लोकतांत्रिक पद्धति से निर्वाचित कुछ अध्यक्षों को इस्तीफे के लिए विवश करने के कारण गांधी आलोचना के शिकार बने। गांधी की ख्याति और सम्मान की पराकाष्ठा इसलिए भी हो गई, क्योंकि आजादी की लड़ाई उनके नेतृत्व में जीती गई थी. अगर यह लड़ाई वह हार जाते तो आलोचना की हद के बारे में भी सोचा जा सकता है. दुर्भाग्य से शिबू का सामाजिक संघर्ष अंजाम तक नहीं पहुंच सका, लेकिन सीमित दायरे में ही सही, उन्होंने गांधी की तरह प्रयत्न तो किया. मैं उस पंथ का हिमायती हूं कि अगर किसी को बुरे कर्मों के लिए दंडित किया जाए तो अच्छे कर्मों के लिए उसकी उसी हद तक सराहना भी की जाए.
अपने तर्कों से 'आज के शिबू' को हीरो बनाना मेरा मकसद कतई नहीं है, लेकिन इतिहास को झुठलाया भी नहीं जा सकता। मेरी ताजा टिप्पणी झारखंड को लूटने वाले उन तत्वों के खिलाफ है, जिन्होंने मिलकर शिबू को पराजित किया. किसी की पतन गाथा तब तक पूरी नहीं होती, जब तक इतिहास में दर्ज उसके पाश् र्व की जानकारी नहीं दी जाती.
-एस. एन. विनोद
अपने तर्कों से 'आज के शिबू' को हीरो बनाना मेरा मकसद कतई नहीं है, लेकिन इतिहास को झुठलाया भी नहीं जा सकता। मेरी ताजा टिप्पणी झारखंड को लूटने वाले उन तत्वों के खिलाफ है, जिन्होंने मिलकर शिबू को पराजित किया. किसी की पतन गाथा तब तक पूरी नहीं होती, जब तक इतिहास में दर्ज उसके पाश् र्व की जानकारी नहीं दी जाती.
-एस. एन. विनोद
... और हार गया भारत का 'दूसरा गांधी'!
चौंकिए नहीं, झारखंड विधानसभा के लिए उपचुनाव में मुख्यमंत्री शिबू सोरेन की हार नहीं हुई है. हारा है भारत का 'दूसरा गांधी'! हारा है झारखंड के लाखों आदिवासियों का गुरु! हारा है झारखंड का शेर! हारा है झारखंड का जनक! और हारा है लाखों आदिवासी महिलाओं का वह आराध्य, जिसके पैर धो, चरणामृत पान कर वे महिलाएं प्रार्थना करती थीं कि ईश्वर उन्हें, शिबू सदृश-पुत्र दें! कैसे हो गया यह? क्या शिबू पर से उनके अनुयायियों का विश्वास खत्म हो गया? क्या शिबू अब आदिवासियों के नेता नहीं रहे? आदिवासी महिलाओं के आराध्य नहीं रहे? क्या सचमुच झारखंड को अब उनकी जरूरत नहीं रही- उनकी लोकप्रियता खत्म हो गयी?
ये सारे प्रश्न शिबू सोरेन की चुनाव में पराजय के बाद उठ खड़े हुए. मुख्यमंत्री के रूप में चुनाव लड़ पराजित होने की यह देश की दूसरी घटना है. इसके पूर्व उत्तरप्रदेश के एक मुख्यमंत्री टी.एन. सिंह चुनाव हार चुके हैं. लेकिन इन दोनों की तुलना नहीं की जा सकती. शिबू को बहुत नजदीक से देखने के कारण मैं स्तंभित तो हूं, किन्तु चकित नहीं. जानकारी के लिए बता दूं कि ये वही शिबू सोरेन हैं, जिनके लिए 70 के दशक में तत्कालीन सोवियत संघ और चीन में लिखा गया था कि ''शिबू सोरेन भारत के दूसरे गांधी हैं.'' आदिवासियों पर जुल्म के खिलाफ सफल संघर्ष करने वाले शिबू सोरेन ने तत्कालीन छोटा नागपुर संथाल परगना (झारखंड) के अपने इलाके में सूदखोर महाजनों और शराब के व्यापारियों पर कहर बरपाया था. तभी वे 'गुरुजी' बने थे. पृथक झारखंड राज्य के लिए मृतप्राय आंदोलन में शिबू ने ही जान फूंकी थी. वैसे झारखंड में अनेक प्रभावशाली नेता हुए, किन्तु झारखंड राज्य के लिए निर्णायक लड़ाई शिबू ने ही लड़ी. लाखों अनुयायी इनकी एक पुकार पर मर-मिटने को तैयार रहते थे. फिर वह शिबू मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठने के बाद उपचुनाव कैसे हार गया? मुझे यह चिह्नित करने में तनिक भी संकोच नहीं कि पराजय गुरु शिबू सोरेन की नहीं, बल्कि 'मुख्यमंत्री शिबू सोरेन' की हुई है. हां, सच यही है. सरल-हृदयी शिबू कुटिल राजनीति के शिकार हुए हैं. सभी पर विश्वास करने वाले शिबू यह नहीं समझ पाए कि झारखंड की अकूत वन्य एवं खनिज संपदा पर गिद्ध-दृष्टि जमाए ठेकेदार व सत्ता के दलाल सत्ता-सिंहासन पर उन्हें बैठे देखना नहीं चाहते. इनके षडय़ंत्र के शिकार शिबू तब भी हुए थे, जब इनके खिलाफ कथित आपराधिक मामलों को कुरेद-कुरेद कर निकाला गया था. इन्हें न तो केन्द्रीय मंत्री बनने के बाद और न ही मुख्यमंत्री बनने के बाद एक पल के लिए भी चैन से रहने दिया गया.
हां, झारखंड की संपदा को लूटने वाले तत्व एकजुट हो गए. सच तो सामने आएगा ही, मैं अभी बता दूं कि शिबू सोरेन को हराने में इनके पुराने चेलों के अलावा मुख्य भूमिका सरकार समर्थक कांग्रेस और राष्ट्रीय जनता दल ने निभाई है. केन्द्र में संप्रग सरकार के खिलाफ अविश्वास मत के दौरान एक सौदेबाजी के अंतर्गत शिबू को झारखंड का मुख्यमंत्री पद सौंपा गया था. लेकिन जानकार पुष्टि करेंगे कि न केवल राष्ट्रीय जनता दल के लालू प्रसाद यादव, बल्कि कांग्रेस के स्थानीय नेता भी शिबू के खिलाफ थे. शिबू सोरेन को तब इनका समर्थन अस्थायी 'युद्ध-विराम' था. चुनावी युद्ध में कसम तोड़ते हुए इन लोगों ने अपने मन की पूरी कर ली. लेकिन मैं दोहरा दूं कि पराजय शिबू सोरेन की नहीं, बल्कि 'लोक-लाज' की हुई है. जीत हुई है राजनीति को 'बाजार' बनाने वाले फरेबियों की, मक्कारों की और दलालों की! प्रथम गांधी की हत्या के बाद द्वितीय गांधी की पराजय पर रुदन तो होगा ही! और हां, रुदन करेंगे वे नक्सली भी जिनसे राष्ट्र की मुख्य धारा से जुड़ जाने का आह्वान शिबू ने किया था
Tuesday, January 6, 2009
'मंद बुद्धि' के रोगी न बनें पाटिल!
संसद पर हमले के दोषी अफज़ल गुरु को तत्काल फांसी दिए जाने की मांग को राजनीति-प्रेरित बताकर देश के पूर्व गृहमंत्री शिवराज पाटिल आखिर क्या बताना चाहते हैं, क्या संदेश देना चाहते हैं? मामले को और उलझाते हुए पाटिल ऐसी टिप्पणी भी कर बैठे कि ''राजीव गांधी हत्याकांड का मामला भी अभी लंबित है. फिर अफज़ल गुरु का मामला ही क्यों उठाया जा रहा है?'' पाटिल की असली 'नीयत' की तो अभी जानकारी नहीं, किंतु लोग उनकी इस टिप्पणी पर कि ''लोगों को मारने में क्या बहादुरी है?'' स्पष्टीकरण अवश्य चाहेंगे. कहीं पाटिल अफज़ल को फांसी की सज़ा दिए जाने संबंधी सर्वोच्च न्यायालय की पुष्टि पर सवालिया निशान तो नहीं लगा रहे! अगर ऐसा नहीं है, तब सभी जानना चाहेंगे कि अफज़ल के लिए उनके मन में अचानक सहानुभूति कैसे पैदा हो गई?
नेता बनने में विफल अभिनेता गोविंदा की तरह यह सिर्फ जुबान फिसलने का मामला नहीं है. लोकसभा चुनाव के लिए कांग्रेस की टिकट को लेकर मुंबई कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष कृपाशंकर सिंह की एक टिप्पणी पर गोविंदा ने फिल्मी अंदाज में प्रतिक्रिया व्यक्त की थी कि ''मैं किसी छोटे नेता की बातों पर ध्यान नहीं देता.'' अर्थात् गोविंदा की नजरों में कृपाशंकर सिंह एक छोटे नेता हैं. राजनीतिक पचड़े से दूर रहने वाले भी गोविंदा की इस बात पर हंस पड़े थे. मैं यहां शिवराज पाटिल की तुलना गोविंदा से हरगिज नहीं कर रहा. पाटिल राजनीतिक अखाड़े के एक मंजे हुए खिलाड़ी हैं. वे केंद्रीय गृहमंत्री के अलावा लोकसभा के अध्यक्ष भी रह चुके हैं. ऐसे में पाटिल के शब्दों को हल्के से नहीं लिया जा सकता. फिर पाटिल ने ऐसी टिप्पणी क्यों की? साफ है कि अफज़ल प्रकरण को राजनीति-प्रेरित बताने वाले पाटिल स्वयं ही 'राजनीति' कर रहे हैं.
इस मामले से जैश-ए-मोहम्मद के नेता अज़हर मसूद की रिहाई को जोडऩा राजनीति ही तो है. क्या पाटिल अफज़ल की रिहाई की प्रतीक्षा कर रहे हैं? या फिर 'दबाव के कारण' मज़बूर हो गृहमंत्री पद छोडऩे वाले शिवराज पाटिल, राजीव गांधी हत्याकांड के मामले को छेड़ कोई नया गुल खिलाना चाहते हैं! अगर ऐसा है तो भारत की गंदी राजनीति का एक और कुरूप चेहरा सामने आएगा. यह ठीक है कि किसी को मारने में कोई बहादुरी नहीं है, तब क्या पाटिल चाहते हैं कि फांसी की सज़ा का प्रावधान ही समाप्त हो जाए! इस विचार पर देश में सहमति के व्यापक स्वर उठ सकते हैं. यह पहले से ही राष्ट्रीय बहस का एक मुद्दा बना हुआ है. देश का जनमत फांसी की सज़ा के विरोध में है. लेकिन जब तक देश के कानून में ऐसी सजा का प्रावधान है तब इसे रोका नहीं जा सकता. हालांकि देश की अदालतें इन दिनों जघन्यतम मामलों में ही फांसी की सजा सुना रही हैं.
मय सबूत जब अपराध जघन्यतम प्रमाणित हो जाता है, तब ही प्रावधानों के अनुरूप अदालत फांसी की सजा सुनाती है. सज़ा सुनाने वाले न्यायाधीश अपराधी के दुश्मन नहीं होते. न्याय की कुर्सी पर बैठ आंखों में पट्टी बांध अदालत न्याय करती है. यह प्रक्रिया कानून का स्वाभाविक विकास है.
क्या है यह कानून और विकास?
प्राचीन काल में समाज, वस्तुत: किसी कानून से नहीं, बल्कि शक्ति से परिचालित था. लेकिन जब दुर्बलों पर 'शक्ति' अत्याचार करने लगी, तब एक बंधनकारी कानून की आवश्यकता महसूस हुई और कानून बनाए गए. कानून-व्यवस्था लागू करने के लिए राजा बने. तब राजा को ही ईश्वर का प्रतिनिधि मान उसके द्वारा दिए गए दंड को समाज स्वीकार करता था. इसी को कानून का स्वाभाविक विकास माना गया. धीरे-धीरे सामाजिक विकास के साथ यह सवाल खड़ा हुआ कि सजा या दंड का उद्देश्य क्या है?- बदला लेना, या सुधार करना! ऐसे विचार उभर कर सामने आए कि अपराधियों को दंड देने का मुख्य उद्देश्य उसका सुधार करना और भविष्य में होने वाले अपराधों की जड़ से समाप्ति होना चाहिए. आधुनिक सभ्य समाज इसका पक्षधर है.
यह ठीक है कि समाज का एक वर्ग अभी भी फांसी की सज़ा का पक्षधर है. फांसी के पक्ष में इस वर्ग की दलील है कि इससे अन्य मनुष्यों को न केवल शिक्षा मिलेगी, वरन् समाज ऐसे निर्दयी हत्यारों से मुक्त हो जाएगा. प्रत्येक व्यक्ति के दिल में मनुष्य-मात्र की जीवन-रक्षा का उच्च विचार प्रस्फुटित होगा. इस सज़ा पर अभी भी विश्व-स्तर पर बहसें जारी हैं. किंतु हम यह मानने को तैयार नहीं कि शिवराज पाटिल, अपने वक्तव्य द्वारा फांसी की सज़ा के औचित्य पर नई बहस चाहते हैं. निश्चय ही उनकी 'नीयत' कुछ और है. मंत्री पद छिन जाने से दु:खी व क्रुद्ध पाटिल बेहतर हो संयम बरतें! राजनीतिक हैं, तो राजनीति करें, किसी को कोई आपत्ति न होगी, किंतु अपने पाश्र्व को देखते हुए देश के कानून और न्यायालय को चुनौती न दें! संसद पर हमले के अपराधी के प्रति (अनजाने में ही सही) सहानुभूति व्यक्त कर वे अब तक अर्जित अपनी प्रतिष्ठा को गंवा देंगे! क्या पाटिल ऐसा चाहेंगे?
एस.एन. विनोद
7 दिसंबर 2009
नेता बनने में विफल अभिनेता गोविंदा की तरह यह सिर्फ जुबान फिसलने का मामला नहीं है. लोकसभा चुनाव के लिए कांग्रेस की टिकट को लेकर मुंबई कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष कृपाशंकर सिंह की एक टिप्पणी पर गोविंदा ने फिल्मी अंदाज में प्रतिक्रिया व्यक्त की थी कि ''मैं किसी छोटे नेता की बातों पर ध्यान नहीं देता.'' अर्थात् गोविंदा की नजरों में कृपाशंकर सिंह एक छोटे नेता हैं. राजनीतिक पचड़े से दूर रहने वाले भी गोविंदा की इस बात पर हंस पड़े थे. मैं यहां शिवराज पाटिल की तुलना गोविंदा से हरगिज नहीं कर रहा. पाटिल राजनीतिक अखाड़े के एक मंजे हुए खिलाड़ी हैं. वे केंद्रीय गृहमंत्री के अलावा लोकसभा के अध्यक्ष भी रह चुके हैं. ऐसे में पाटिल के शब्दों को हल्के से नहीं लिया जा सकता. फिर पाटिल ने ऐसी टिप्पणी क्यों की? साफ है कि अफज़ल प्रकरण को राजनीति-प्रेरित बताने वाले पाटिल स्वयं ही 'राजनीति' कर रहे हैं.
इस मामले से जैश-ए-मोहम्मद के नेता अज़हर मसूद की रिहाई को जोडऩा राजनीति ही तो है. क्या पाटिल अफज़ल की रिहाई की प्रतीक्षा कर रहे हैं? या फिर 'दबाव के कारण' मज़बूर हो गृहमंत्री पद छोडऩे वाले शिवराज पाटिल, राजीव गांधी हत्याकांड के मामले को छेड़ कोई नया गुल खिलाना चाहते हैं! अगर ऐसा है तो भारत की गंदी राजनीति का एक और कुरूप चेहरा सामने आएगा. यह ठीक है कि किसी को मारने में कोई बहादुरी नहीं है, तब क्या पाटिल चाहते हैं कि फांसी की सज़ा का प्रावधान ही समाप्त हो जाए! इस विचार पर देश में सहमति के व्यापक स्वर उठ सकते हैं. यह पहले से ही राष्ट्रीय बहस का एक मुद्दा बना हुआ है. देश का जनमत फांसी की सज़ा के विरोध में है. लेकिन जब तक देश के कानून में ऐसी सजा का प्रावधान है तब इसे रोका नहीं जा सकता. हालांकि देश की अदालतें इन दिनों जघन्यतम मामलों में ही फांसी की सजा सुना रही हैं.
मय सबूत जब अपराध जघन्यतम प्रमाणित हो जाता है, तब ही प्रावधानों के अनुरूप अदालत फांसी की सजा सुनाती है. सज़ा सुनाने वाले न्यायाधीश अपराधी के दुश्मन नहीं होते. न्याय की कुर्सी पर बैठ आंखों में पट्टी बांध अदालत न्याय करती है. यह प्रक्रिया कानून का स्वाभाविक विकास है.
क्या है यह कानून और विकास?
प्राचीन काल में समाज, वस्तुत: किसी कानून से नहीं, बल्कि शक्ति से परिचालित था. लेकिन जब दुर्बलों पर 'शक्ति' अत्याचार करने लगी, तब एक बंधनकारी कानून की आवश्यकता महसूस हुई और कानून बनाए गए. कानून-व्यवस्था लागू करने के लिए राजा बने. तब राजा को ही ईश्वर का प्रतिनिधि मान उसके द्वारा दिए गए दंड को समाज स्वीकार करता था. इसी को कानून का स्वाभाविक विकास माना गया. धीरे-धीरे सामाजिक विकास के साथ यह सवाल खड़ा हुआ कि सजा या दंड का उद्देश्य क्या है?- बदला लेना, या सुधार करना! ऐसे विचार उभर कर सामने आए कि अपराधियों को दंड देने का मुख्य उद्देश्य उसका सुधार करना और भविष्य में होने वाले अपराधों की जड़ से समाप्ति होना चाहिए. आधुनिक सभ्य समाज इसका पक्षधर है.
यह ठीक है कि समाज का एक वर्ग अभी भी फांसी की सज़ा का पक्षधर है. फांसी के पक्ष में इस वर्ग की दलील है कि इससे अन्य मनुष्यों को न केवल शिक्षा मिलेगी, वरन् समाज ऐसे निर्दयी हत्यारों से मुक्त हो जाएगा. प्रत्येक व्यक्ति के दिल में मनुष्य-मात्र की जीवन-रक्षा का उच्च विचार प्रस्फुटित होगा. इस सज़ा पर अभी भी विश्व-स्तर पर बहसें जारी हैं. किंतु हम यह मानने को तैयार नहीं कि शिवराज पाटिल, अपने वक्तव्य द्वारा फांसी की सज़ा के औचित्य पर नई बहस चाहते हैं. निश्चय ही उनकी 'नीयत' कुछ और है. मंत्री पद छिन जाने से दु:खी व क्रुद्ध पाटिल बेहतर हो संयम बरतें! राजनीतिक हैं, तो राजनीति करें, किसी को कोई आपत्ति न होगी, किंतु अपने पाश्र्व को देखते हुए देश के कानून और न्यायालय को चुनौती न दें! संसद पर हमले के अपराधी के प्रति (अनजाने में ही सही) सहानुभूति व्यक्त कर वे अब तक अर्जित अपनी प्रतिष्ठा को गंवा देंगे! क्या पाटिल ऐसा चाहेंगे?
एस.एन. विनोद
7 दिसंबर 2009
Saturday, January 3, 2009
'अंकल सैम' के दोगलेपन से सावधान !
अमेरिका के 'यू टर्न' पर आश्चर्य व्यक्त करने वालों के प्रति मुझे सहानुभूति है. वैसे इनका भोलापन क्षम्य है. इसी स्तंभ में अभी कुछ दिनों पूर्व मैंने साफ-साफ लिखा था कि ''अमेरिका कभी भी भारत का मित्र नहीं हो सकता.'' किन्हीं कारणों से भारत की मौजूदा सरकार अगर उस पर विश्वास कर रही है, तो धोखा खाने के लिए तैयार रहे. 'अंकल सैम' के दोगलेपन से पूरा संसार परिचित है. हथियारों और लाशों के सौदागर अमेरिकी शासक आरंभ से ही पाकिस्तान के पक्ष में भारत को धोखा देते रहे हैं. चाहे पाकिस्तान के साथ सन् 1971 का युद्ध हो, या आतंकवाद के खिलाफ पाकिस्तान को सबक सिखाने की बात; अमेरिका ने पाकिस्तान का ही साथ दिया. हां, समय-समय पर शब्दों की चाशनी से हमें भरमाने की कोशिश अवश्य करता रहा है. सन् 1971 में तो उसने अपने सातवें जंगी बेड़े को पाकिस्तानी मदद के लिए भेज भी दिया था. वह तो तत्कालीन दूसरी महाशक्ति सोवियत संघ था, जिसके भारत के पक्ष में कड़े तेवर के कारण अमेरिका ने अपने जंगी बेड़े को आधे रास्ते से वापस बुला लिया था. सन् 1962 में जब चीन ने हम पर आक्रमण किया था, तब बड़ी आशा के साथ पं. जवाहरलाल नेहरू ने अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति जॉन केनेडी से मदद मांगी थी. केनेडी ने तब सिर्फ 'ना' ही नहीं कहा, बल्कि आहत नेहरू को यह कहने से भी नहीं चूके थे कि ''हमारे नागरिक भारतीयों को हेय दृष्टि से देखते हैं क्योंकि उन्होंने आपके मंत्रियों को अमेरिका में 'वेश्यालय' से बाहर आते देखा है.'' नेहरू के दिल पर तब पहुंची चोट की कल्पना सहज है. आज जब अभी कुछ दिनों पूर्व तक भारत के पक्ष में कायम पाकिस्तान विरोधी रुख से पलटते हुए अमेरिका अब यह कह रहा है कि ''मुंबई हमले के संदिग्धों पर पाकिस्तान मुकदमा अपने यहां ही चलाये.'' अर्थात् उन अपराधियों को भारत को सौंपने की जरूरत नहीं है! इसे क्या माना जाए? सिर्फ 'यू टर्न' के रूप में चिह्नित कर शोक मनाने से काम नहीं चलेगा. चिंतन करें, अमेरिकी 'नीयत' साफ दिख जाएगी. अमेरिका न तो भारत-पाकिस्तान के बीच मित्रता देखना चाहता है और न ही इस क्षेत्र में शांति. आतंकवाद के खिलाफ जंग की आड़ में वह अपनी सुरक्षा और एशिया के इस क्षेत्र में अशांति का षडय़ंत्र रचता रहा है.
जरा गौर करें, 11 सितंबर 2001 को अमेरिका स्थित वल्र्ड ट्रेड सेंटर पर आतंकवादी हमले के बाद उस देश में आज तक कोई दूसरा हमला नहीं हुआ है. उसने तालिबानियों के खिलाफ निर्णायक सैनिक कार्रवाई करने की कोशिश की. पाकिस्तानी भूभाग में आतंकवादियों के खिलाफ कथित जंग के लिए सैनिक अड्डे बनाये. अत्याधुनिक हथियारों के साथ बड़ी संख्या में अमेरिकी सैनिक वहां मौजूद हैं. बीच-बीच में उनके युद्धक विमान पाकिस्तान- अफगानिस्तान की सीमा पर गोले बरसाते रहते हैं. लेकिन यह सच भी उभर कर सामने आया है कि इस बीच भारत में भी और पाकिस्तान में भी खूनी तांडव को आतंकवादियों ने बखूबी अंजाम दिये. दोनों देशों में हजारों लोग इस तांडव की बलि चढ़े. दोनों देश के शासक एक-दूसरे को दोषी ठहराते रहे.
पाकिस्तानी शासक सिर्फ इस बात पर मुदित होते रहे कि आतंकवाद के खिलाफ युद्ध के नाम पर अमेरिका उसे खरबों डॉलर की मदद देता रहा. विश्व में पाकिस्तान की छवि अमेरिका के पिछलग्गू के रूप में स्थापित हुई. पाकिस्तान के आंतरिक मामलों में अमेरिकी हस्तक्षेप की बातें अब सुर्खियां नहीं बनतीं. दूसरी ओर भारत की संप्रग सरकार ने परमाणु ऊर्जा के मुद्दे पर खुलेआम अमेरिका के पक्ष में राग अलापा, उससे ऐसी धारणा बनी थी कि संकट के समय वह हमारा साथ देगा. बल्कि संप्रग सरकार ने देश को कुछ इस रूप में आश्वस्त भी किया था. लेकिन क्या हुआ? उनके आरंभिक समर्थन से उत्साहित भारत ने जब पाकिस्तान पर दबाव बनाया कि वह मुंबई हमले के दोषियों को सौंप दे, तब ऐन मौके पर अमेरिका पलट गया. अमेरिका की इस कुटिलता को पहचानने में भूल नहीं करनी चाहिए. इस बिंदु पर हम सीधे प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को कठघरे में खड़ा करना चाहेंगे. अमेरिका के साथ परमाणु करार को लेकर देशवासियों के प्रचंड विरोध को रद्दी की टोकरी में डाल समझौता संपन्न करने वाले मनमोहन सिंह अब देश को क्या बताएंगे?
डॉ. मनमोहन सिंह के इस ताजा बयान पर कि ''आतंकवाद के खिलाफ सरकार किसी भी हद तक जाने को तैयार है'', मैं कोई प्रफुल्लित टिप्पणी करना नहीं चाहूंगा. 'आर-पार' या 'निर्णायक' के उदघोष से यह कहीं एक नरम बयान ही है. प्रधानमंत्री अमेरिका के 'यू टर्न' पर मौन धारण करते हुए आतंकवाद को जड़ से उखाड़ फेंकने की बात कह कर दिलासा देने की कोशिश न करें. एक सौ करोड़ से अधिक की आबादी वाला भारत देश किसी 'मनमोहनी दिलासे' के भ्रम में पडऩे वाला नहीं. अगर हम सचमुच सक्षम हैं, तब आतंकवाद की पोषण-स्थली पाकिस्तान को मजबूर करें कि वह हमारे अपराधियों को हमें सौंप दे! प्रत्यर्पण संधि या 'अमेरिकी आदेश' इसके आड़े न आये. अगर अमेरिका का अनुसरण करना ही है तो 9/11 हमले के बाद उसके द्वारा तालिबान के खिलाफ उठाये गए कदमों का अनुसरण करें. अमेरिका की तरह भारत भी तब आतंकवादी हमले से शायद निजात पा जाये. और अब तो पूर्व राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम जैसे 'मिसाइल मैन' भी कह रहे हैं कि ''हमला करो, आतंकवादी ठिकानों को नेस्तनाबूद करो!'' फिर...???
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