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Monday, January 19, 2009

गूंगे कब सच बोलेंगे...?


समाचार-पत्रों के सामान्य पाठकों और टेलीविजन समाचार चैनलों के सामान्य दर्शकों को छोड़ दें तो गंभीर पाठक व दर्शक हैरान-परेशान हैं कि वे क्या पढ़ें, क्या देखें और क्या सुनें! इनके बीच के चिंतक-वर्ग की चिंता तो कभी-कभी उस दार्शनिक के दरवाजे पर दस्तक देने लगती है, जो बंद कमरे में किसी विषय को सोचते-सोचते उन्मादी बन अपने सिर के बालों को नोचता रहता है. क्या ऐसी अवस्था की जिम्मेदारी को कोई सुनिश्चित करेगा? अभी पिछले रविवार, 18 जनवरी 2009 को लोगों ने टेलीविजन पर खबर देखी और सोमवार, 19 जनवरी 2009 को समाचार-पत्रों में पढ़ा कि देश के प्रधानमंत्री अपने ड्राइविंग लाइसेंस के नवीकरण के लिए स्वयं परिवहन कार्यालय पहुंचे. खबरों में यह रेखांकित किया गया कि प्रधानमंत्री ने न केवल 'सादगी' का परिचय दिया, बल्कि यह संदेश भी दिया कि नियम-कानून सभी नागरिक के लिए समान हैं, सभी कानून का आदर करें. यह भी बताया गया कि प्रधानमंत्री द्वारा स्थापित मिसाल का अनुसरण अन्य नेता करें.
एक अन्य खबर संजय दत्त से संबंधित दिखी. संजय दत्त यह बता रहे थे कि ''मैं लखनऊ की तस्वीर बदल दूंगा,'' और यह कि ''प्रिया अब 'दत्त' नहीं हैं, दत्त सिर्फ वे और उनकी पत्नी मान्यता ही हैं.'' खबरें यह भी प्रसारित हो रही थीं कि प्रधानमंत्री पद के लिए व्यापार जगत की पहली पसंद डॉ. मनमोहन सिंह हैं. एक अन्य खबर- इंटरनेट पर लोकप्रियता के मामले में 'सत्यम' के कुख्यात बी. रामालिंगा राजू ने अमेरिका के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति बराक ओबामा को पीछे छोड़ दिया है और खबर यह भी दिखी कि 1983 में भारत को क्रिकेट का विश्वविजेता बनाने वाले कपिल देव सम्मान के रक्षार्थ लड़ाई लड़ रहे हैं. परस्पर विरोधी एवं कुछ प्रायोजित खबरों को देख पाठक-दर्शक अचंभित रहे.
76 वर्षीय प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह की इस पहल को 'नौटंकी' बताने वालों की भी कमी नहीं है. क्या सचमुच? मैं फिलहाल इस वर्ग का साथ नहीं दे प्रधानमंत्री को संदेह का लाभ देने को तैयार हूं. क्योंकि यह तो तय है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को इससे कोई राजनीतिक लाभ नहीं मिलने जा रहा. उन्होंने स्वयं को कभी राजनीतिक माना भी नहीं. शायद वे 'राजा और रंक' दोनों को समान अधिकार को चिह्नित करना चाहते थे- सभी के लिए समान कानून का संदेश देना चाहते थे- नैतिकता के पायदान में एक और पाया जोडऩा चाहते थे! चिंतक इस बिन्दु पर पहुंच जिज्ञासु बन गए हैं. वे यह भी चाहते हैं कि डॉ. मनमोहन सिंह नैतिकता और कानून के आईने के सामने खड़े होकर उनकी जिज्ञासा का जवाब दें. क्या ये वही मनमोहन सिंह नहीं हैं, जिन्होंने सन् 1991 में असम से राज्यसभा का चुनाव लडऩे के लिए गलत शपथ-पत्र दाखिल कर यह घोषणा की थी कि वे उस राज्य (असम) के स्थायी निवासी हैं? चूंकि तब कानूनी रूप से बाध्यकारी था कि किसी उम्मीदवार को उस राज्य का स्थायी निवासी होना चाहिए, मनमोहन सिंह ने गलत शपथ-पत्र दाखिल किया. मीडिया के एक प्रकाशस्तंभ कुलदीप नैयर ने सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी. सरकार ने पूर्व प्रभाव से नियम-कानून बदल दिए. नैयर की याचिका खारिज कर दी गई. मीडिया गूंगा बना रहा.क्या तब मनमोहन कानून का पालन कर रहे थे? नैतिकता का झंडा लहरा रहे थे? हरगिज नहीं! उन्होंने तब गलत शपथ-पत्र दाखिल कर अपराध किया था, अनैतिकता का सहारा लिया था. फिर, जब रविवार को अवकाश के दिन परिवहन कार्यालय खुलवा कर अपने लाइसेंस के नवीकरण के लिए प्रधानमंत्री पहुंचते हैं, तब कानून और नैतिकता पर चिंतक पुनर्विचार तो करेंगे ही! मीडिया संज्ञान इस बात का ले, न कि मनमोहन सिंह की 'कथित सादगी' का!
अभी कुछ दिन पहले जब व्यापार जगत के दो बड़े स्तंभ- अनिल अंबानी और सुनील मित्तल ने गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को लालकृष्ण आडवाणी के मुकाबले बेहतर प्रधानमंत्री का उम्मीदवार निरूपित किया, तब मीडिया जगत ने इस खबर को कुछ यूं उछाला, जैसे भारतीय जनता पार्टी में दोफाड़ हो गई हो. बात यहीं खत्म नहीं हुई, तत्काल एक अंग्रेजी दैनिक समाचार-पत्र का कथित सर्वेक्षण सामने लाया गया कि वस्तुत: उद्योग जगत की पसंद मनमोहन सिंह ही हैं- मोदी नहीं. मोदी को आखिरी पायदान पर रखते हुए सर्वेक्षण में उनके ऊपर राहुल गांधी को बिठाया गया. अब बेचारा पाठक-वर्ग किसे सच माने! लखनऊ की तस्वीर बदल देने की घोषणा करने वाले संजय दत्त की खबरों में मीडिया बड़ी चतुराई से यह बताने से नहीं चूका कि मुंबई में जन्मे, पले-बढ़े और अभिनय के क्षेत्र में आकाश की ऊंचाई छूने वाले संजय को लखनऊ से लडऩे का नैतिक अधिकार है- क्योंकि संजय की नानी 30 के दशक में लखनऊ की एक मशहूर 'नर्तकी' थीं. जाहिर है कि आने वाले दिनों में इस जानकारी का 'उपयोग' मीडिया को अनुगृहीत करते हुए संजय विरोधी अपने ढंग से करेंगे. 'दत्त' को आधार बना भाई-बहन के बीच उत्पन्न दरार पारिवारिक मुद्दा हो सकता है, राजनीतिक नहीं.
जब पिछले दिनों शिवसेना के कार्यकारी अध्यक्ष उद्धव ठाकरे ने डंके की चोट पर ऐलान किया था कि ''हां, यह मुंबई मेरे बाप की है,'' तब गर्म-बहस से मीडिया ने परहेज कर लिया था. उद्धव ने मुंबई के अतिरिक्त पुलिस आयुक्त के.एल. प्रसाद के उस कथन को चुनौती दी थी, जिसमें उन्होंने कहा था कि ''मुंबई किसी के बाप की नहीं है.'' देश की आर्थिक राजधानी मुंबई किसी के बाप की अर्थात् किसी की जागीर हो भी नहीं सकती. लेकिन इस पर बहस नहीं हुई. विवाद पर फैसले से मीडिया ने हाथ खींच लिये. कारण??? कपिल देव के 'संघर्ष' को भी मीडिया ने वस्तुत: स्पर्श मात्र कर छोड़ दिया. जबकि कपिल देव इसके अधिकारी थे.
अनेक सवाल हैं जो मीडिया को-उस मीडिया को, जिससे देशहित में जनांदोलन खड़ा कर उन्हें नेतृत्व प्रदान करने की अपेक्षा है-कठघरे में खड़ा कर रहे हैं. क्या मीडिया देश के ऐसे सवालों पर गूंगा बना रहेगा? इस बिन्दु पर कवि कुमार विनोद की ये दो पंक्तियां बार-बार मेरे सामने आ रही हैं-
सब सिंहासन डोलेंगे,
गूंगे जब सच बोलेंगे!

कब जुबान खुलेगी गूंगों की? क्या कभी खुलेगी भी! कब बोलेंगे वे सच? सच बोलने और सच सुनने की हिम्मत को कोई 'मौत' न दें.
एस.एन. विनोद 20-01-09
(इसे मराठी में पढऩे के लिए लॉग ऑन करें- www.deshonnati.com)

2 comments:

संगीता पुरी said...

सही है।

चलते चलते said...

समाचारों को लेकर आपने सही चीरफाड़ किया है। लेकिन सब खेल बेनिफिट का है और मीडिया के आला अधिकारी, पत्रकार और मालिक इससे अछूते नहीं हैं। यदि जबान होती और दिमाग तो बात ही कुछ और होती। यहां तो हर साख पर उल्‍लू बैठे हैं जो बगैर सोचे समझें खबरें मार रहे हैं, खबरें दे नहीं रहे हैं।