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Thursday, September 29, 2016

प्रधानमंत्री : परिवर्तन और परिपक्वता!



पहली बार हां यह पहला अवसर है जब नरेंद्र दामोदरदास मोदी ने राजनीतिक परिपक्वता का परिचय देते हुए न केवल देशवासियों को आश्वस्त करने में सफल रहे बल्कि पाकिस्तान को ठोस चेतावनी भी दे दी। उरी में पाकिस्तानी घुसपैठियों द्वारा 18 भारतीय जवानों को मौत की नींद सुलाने की घटना के बाद पूरे देश में उठा जनाक्रोश और विभिन्न खबरिया चैनलों के 'युद्ध-कक्ष से छोड़े जा रहे बमों-मिसाइलों के बीच सभी आशा कर रहे थे कि प्रधानमंत्री मोदी सेना को कूच का आदेश देंगे। रक्षामंत्री मनोहर पर्रिकर ने साफ शब्दों में सेना को कह दिया था कि उरी का बदला लें। सत्तारुढ भाजपा के एक महामंत्री राम माधव ने तो एक दांत के बदले पूरे जबड़े को उखाड़ डालने का आह्वान कर डाला था। ऐसे में जब घटना के एक सप्ताह बाद प्रधानमंत्री मोदी केरल में एक आम रैली को संबोधित करने वाले थे, ऐसा वातावरण बनाया गया कि प्रधानमंत्री सभा मंच से ही युद्ध की घोषणा कर देंगे। गैर जिम्मेदार मीडिया और अतिउत्साही राजनेताओं ने मिलकर प्रधानमंत्री को उकसाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ा था। लेकिन साधुवाद कि प्रधानमंत्री मोदी भावावेग से दूर व्यवहारिक जमीन पर जमे रहे। जाल में नहीं फंसे । युद्ध की कथित उपलब्धियों की जगह उन्होंने देश की आर्थिक नींव को पुख्ता करने की नीति को प्राथमिकता दी। ऐसा ही होना चाहिए था। प्रधानमंत्री ने बुद्धिमानी का परिचय दिया।
उकसावे से दूर जब प्रधानमंत्री ने पाकिस्तान को ललकारा कि वह भारत के साथ गरीबी और बेरोजगारी के मोर्चे पर युद्ध कर ले, तब वस्तुत: उन्होंने भारत और स्वयं अपनी परिवर्तित नीति को चिन्हित किया। युद्ध की नकारात्मक उपलब्धियों के ऊपर प्रधानमंत्री ने विकास की सकारात्मक उपलब्धियों को वरीयता दी। दलीय आधार पर आलोचनाओं को छोड़ दें तो नरेंद्र मोदी को इस नीति का पक्षधर आरंभ से ही माना जाएगा। मई 2014 में लोकसभा चुनाव के पूर्व ही नरेंद्र मोदी ने सुझाव दिया था कि भारत और पाकिस्तान को गरीबी और बेरोजगारी के खिलाफ लडऩा चाहिए। इसी प्रकार ठीक दो वर्ष पश्चात मई 2016 में पठानकोट हमले के बाद मोदी ने ऐसी ही बात कही थी। आज पुन: दो वर्ष पश्चात केरल में मोदी ने वस्तुत: अपनी उसी सोच को दोहराया जब उन्होंने पाकिस्तान को गरीबी और बेरोजगारी के मोर्चे पर युद्ध के लिए ललकारा। कतिपय राजनीतिक समीक्षक मोदी की इस सोच को मजबूरी भी निरुपित कर सकते हैं। किंतु  कोई भी समझदार< परिवर्तित विश्व परिदृश्य में सीधे युद्ध के पक्ष में हाथ नहीं उठा सकता। विशेषकर वह भारत जो विकास के आर्थिक पथ पर दौडऩे वालों में सबसे आगे है। विश्व की एक बड़ी आर्थिक शक्ति बनने की दिशा में अनेक योजनाओं पर भारत एक साथ कदम ताल कर रहा है।  आर्थिक रुप से सक्षम विश्व केबड़े देश आज अगर भारत के प्रति उदार  दृष्टि और सोच रखने लगे हैं तो निहित मजबूत आर्थिक संभावना को भांप कर ही। पिछले दिनों अपनी अर्थव्यवस्था को मजबूती प्रदान करने के लिए भारत ने अनेक ऐतिहासिक कदम उठाए। अपनी आर्थिक नीतियों में आमूलचूल परिवर्तन करते हुए अनेक क्षेत्रों में शत-प्रतिशत सीधे पूंजी निवेश को अनुमति प्रदान की। ऐतिहासिक इसलिए कि विपक्ष में रहते हुए भाजपा ने ऐेसे कदमों का कभी घोर विरोध किया था। लेकिन वर्तमान की वैश्विक मांग के आगे राजनीतिक हठधर्मिता का त्याग कर यथार्थ को स्वीकार करना ही पड़ता है। नरेंद्र मोदी की भारत सरकार ने ऐसा ही किया। आने वाले दिनों में इतिहासकार राष्ट्रहित में इसे एक सर्वथा उचित कदम निरुपित करेंगे।
जहां तक 'उरी दंश का सवाल है, प्रधानमंत्री ने साफ कर दिया है कि देश इसे नहीं भूलेगा< दोषी दंडित होंगे। पाकिस्तान को विश्व समुदाय से अलग-थलग करने की नीति को सफल कर बदला लिया जा सकता है। युद्धोन्माद पर काबू पाते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने पाकिस्तान को जो चुनौती दी है उसमें अनेक संदेश निहित हैं। आर्थिक रुप से अत्यंत विपन्न पाकिस्तान सक्षम भारत का मुकाबला नहीं कर सकता। कश्मीर के बहाने भारत के खिलाफ छद्म युद्ध जारी रखने वाला पाकिस्तान इस सचाई से अच्छी तरह परिचित है। अपनी कमजोर स्थिति से भी वाकिफ है पाकिस्तान । भारत को उकसाते रहना उसकी रणनीति का एक अंग है। प्रधानमंत्री मोदी ने बिलकुल सही कदम उठाते हुए पाकिस्तान को एक कोने में 'अकेला खड़ा करने की नीति बनाई है। कोई आश्चार्य नहीं है कि अंतत: बलतिस्तान की तरह एक दिन पूरी की पूरी पाकिस्तानी अवाम अपने शासकों के खिलाफ सड़क पर उतर आये। चूंकि, पाकिस्तानी भी अब पिछले 70 वर्षों की पीड़ा से छुटकारा चाहते है, उन्हें भी अब 'विकास, आर्थिक विकास चाहिए। भारत विरोधी अपने शासकों की नीति का रहस्य पाकिस्तानी अवाम अब अच्छी तरह समझ चुकी है।

मुसलमान : ‘मन परीवर्तन’ के मायने?




क्या हिंदू राष्ट्र की मूल अवधारणा को भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने फिलहाल हाशिये पर रख दिया है? ‘ फिलहालइसलिए कि इन दोनों के जीवन का उद्देश्य ही हिंदू राष्ट्र की स्थापना है। अब इसे लोकतांत्रित भारत की संवैधानिक मजबूरी कहें या सत्ता वासना की पूर्ति हेतु  अस्थायी समझौता, दोनों ने लगता है इस योजना को लंबित रखने का निर्णय लिया है। इस निष्कर्ष के कारण मौजूद हैं।
 मन की बातकरने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस सचाई से अच्छी तरह परिचित है कि अंतर्मन की अभिव्यक्ति के पूर्व मस्तिष्क को एक ऐसे द्वंद्व से गुजरना पड़ता है जहां हर शंका, सवाल और जवाब अनेक प्रतिप्रश्न और प्रति उत्तर से टकारते हैं। यह मानव प्रकृति का एक शाश्वत सत्य है। मस्तिष्क को नियंत्रित करने वाले तत्व निर्धारित वैचारिक परिधि के अंदर किंतु-परंतु के अनेक असहज सवाल से टकराते हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ताजा वक्तव्य ने कि मुसलमानों कोवोट की मंडी समझा जाए, उनसे घृणा करते हुए अपना समझा जाए, ऐसे ही एक द्वंद्व को जन्म दे दिया है। स्वाभाविक त्वरित शंका कि क्या प्रधानमंत्री अपने शब्दों के प्रति गंभीर हैं? शंका यह कि कहीं प्रधानमंत्री स्वयं चुनावी राजनीति की किसी रणनीति के तहतवोट मंडीका आलिंगन तो नहीं कर रहे? सवाल दर सवाल यह भी कि कहीं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने वैश्विक आभा मंडल को एक नया रुप प्रदान करने की लालसा के अंतर्गत नेहरु-अटल का अनुसरण तो नहीं करना चाहते? आगे सवाल यह भी कि क्या राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने भी मोदी की ताजा रणनीति को अपना पूर्ण समर्थन दे दिया है? हिंदू-मुसलमान की जनसंख्या पर सवाल उठाने वाले संघ प्रमुख मोहन भागवत क्या हिंदू राष्ट्र की अपनी सार्वजनिक  अवधारणा का त्याग कर देगे। हिंदु राष्ट्र से इतर वर्तमान धर्म निरपेक्ष भारत की हिमायत करते रहेंगे? प्रश्न जटिल हैं, उत्तर सरल नहीं। शंका समाधान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के आचरण करेंगे। फिलहाल मंथन यह कि आखिर प्रधानमंत्री मोदी ने मुसलमानों के प्रति विश्वास व्यक्त करने के लिए यह समय क्यों चुना ?
संभवत: कश्मीर और पाकिस्तान की ताजा यही वे दो घटनाएं हैं, जिनके कारण केवल कश्मीर बल्कि शेष भारत तथा विश्व मुस्लिम समुदाय की नजरों में दिल्ली अविश्वसनीय बन बैठा है। कड़़वा, अत्यंत ही कड़वा सच है यह। निठ्ठले चिंतकों का आकलन नहीं, तथ्याधारित इमानदार निष्कर्ष है यह कि हाल के दिनों में मुस्लिम समुदाय में केवल असुरक्षा की भावना बढ़ी है, बल्कि वह केंद्रीय सत्ता की नीयत को लेकर वे संशकित हैं। कश्मीर पहले भी अशांत रहा है। अलगाववादी ताकतें समय-समय पर सिर उठाती रही हैं।  सीमा पार से घुसपैठ और मुठभेड़ की घटनाएं होती रही है। लेकिन दो वर्ष पूर्व और आज की स्थिति में विशाल फर्क भी साफ-साफ नजर आता है। तब अलगाववादी ताकतों, पाकिस्तानी घुसपैठियों के खिलाफ  दिल्ली की सत्ता के साथ स्थानीय कश्मीरी कदम ताल कर रहे थे। आज वे कदम पीछे हट गये हैं। कारण, वही अविश्वास और असुरक्षा! इस घटना विकासक्रम से शेष भारत भी प्रभावित हुआ। गोरक्षा और गोमांस की घटनाओं ने आग में घी का काम किया। यह संयोग हो सकता है किंतु सच कि इन सभी घटनाओं ने मिलकर एक ऐसा असहज वातावरण पैदा कर दिया जिसमें मुस्लिम समाज वर्तमान केंद्रीय सत्ता विरोधी बनने को मजबूर हो गया। भारतीय संविधान के अंतर्गत शासन करने को मजबूर केंद्रीय सत्ता की बेचैनी स्वभाविक है। ऐसे अविश्वास और विरोध के बीच सर्वमान्य कुशल शासक बनना संभव नहीं है। इस तथ्य की मौजूदगी में कि लोकतांत्रिक भारत किसी एक संप्रदाय विशेष का नहीं बल्कि विभिन्न धर्म-संप्रदायों के आधिपत्य का भारत है, किसी एक संप्रदाय की उपेक्षा संभव नहीं है। सभी धर्म-संप्रदाय, वर्ग, जाति को साथ लेकर, विश्वास में लेकर ही लोकतांत्रिक भारत की सत्ता की बागडोर कोई संभाल सकता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मोहन भागवत दोनों इस सचाई को अच्छी तरह समझ चुके हैं। लोकतांत्रिक भारत में सत्ता पर काबिज होना है, सत्ता पर बने रहना है तो विशाल मुस्लिम समुदाय को साथ लेकर ही चलना होगा। चूंकि, लंबी मशक्कत के बाद लोकसभा में पूर्ण बहुमत प्राप्त कर भारतीय जनता पार्टी सत्ता में आई है वह इससे वंचित होना कैसे चाहेगी।सबका साथ-सबका विकासकी अपनी घोषित नीति का विस्तार करते हुए भाजपा समाज पर राष्ट्रव्यापी पकड़ मजबूत करना चाहेगी? यह दोहराना ही होगा कि विभिन्न धर्म-संप्रदाय, जातियों के समूह से बना समाज  सर्वांगीण विकास का आग्रही है। यह किसी एक संप्रदाय का समर्थन या विरोध कर संभव नहीं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी संघ प्रमुख मोहन भागवत अब इस तथ्य को भलीभांति समझ चुके हैं। विशेषकर जब प्रधानमंत्री मोदी ने संपूर्ण भारत राष्ट्र के पुनर्निर्माण की दिशा में दीर्घकालिक योजनाएं बना उन पर क्रियान्वयन शुरू कर दिया है तब किसी भी अल्पकालिक सत्ता की संभावना को दूर रखना ही होगा। ताजा घोषितमुस्लिम पंचायतमोदी की इसी योजना की एक कड़ी है। वे चाहते हैं कि राष्ट्रीय स्तर पर कश्मीर सहित पूरे देश के मुसलमान भाजपा की सत्ता के प्रति कोई अविश्वास पालें। कल्याणकारी योजनाओं के द्वारा प्रधानमंत्री मोदी मुस्लिम समाज को सुरक्षा और विकास के मोर्चे पर पूर्णत: आश्वस्त करना चाहते हैं। यह ठीक है कि इस प्रक्रिया में मोदी को केवल विपक्ष बल्कि अपने घर के भीतर से विरोध और भीतरघात का सामना करना पड़ेगा। किंतु दृढ़ प्रतिज्ञ मोदी जब ठान लेते है, तब ठान लेते हैं। अविचलित अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के मार्ग में आने वाले हर अवरोधक को समाप्त करने की क्षमता उनमें है। संघ प्रमुख मोहन भागवत भी मोदी के इस नए संकल्प में उनके साथ हैं। सत्ता नियंत्रण और नीति निर्धारक की भूमिका में भागीदार संघ भी अपनी इस नई उपलब्धि से महरुम होना नहीं चाहेगा। देश को किए गए वादों को निभाने के लिए भी यह जरुरी है।

Friday, September 23, 2016

'बुद्ध’ और 'युद्ध’ के बीच!




निर्विवाद है कि उरी में सेना मुख्यालय पर हमला पाकिस्तानी हमला था। संदेह प्रकट करनेवाले, सबूत इकट्ठा करने की बातें करने वाले वस्तुत: समय का अपव्यय करेंगे। पाकिस्तानी शासकों ने  सुनियोजित रूप में हमारे इस सेना मुख्यालय पर हमला बोला। ठीक उसी प्रकार जैसे सन 2001 में भारतीय संसद भवन पर हमला बोला गया था। जैसे सन 2008 में मुंबई में हमला बोला गया था।  प्रमाण मिल चुके हैं कि ये सभी हमले पाकिस्तान ने करवाए थे। उरी के पूर्व इसी वर्ष के आरम्भ में पठानकोट स्थित भारतीय वायुसेना स्टेशन  पर पाकिस्तान ने हमला कराया था।  सबूत मौजूद हैं कि सभी हमले  पाकिस्तान ने किए थे। फिर हमलावर को लेकर नये सबूत जुटाने का व्यायाम और जवाबी कार्रवाई के प्रति शिथिलता क्यों?
उरी पर हमले के बाद उत्पन्न राष्ट्रीय उन्माद पाकिस्तान को सबक सिखाने का पक्षधर है। पूरे देश में पाकिस्तान के विरुद्ध गुस्से की लहर है। 'अब बहुत हो चुकाके उछ्वास के साथ प्रत्येक भारतीय पाकिस्तान के खिलाफ निर्णायक कदम उठाए जाने की इच्छा रखता है। भारत सक्षम है। भारतीय वायुसेना के अध्यक्ष सार्वजनिक घोषणा कर चुके हैं कि भारत 30 मिनट में पाकिस्तान का सफाया करने में सक्षम है। भारत सरकार के मंत्री कह रहे हैं कि एक दांत के बदले पूरा जबड़ा उखाड़ लिया जाना चाहिए। सत्तारूढ़ भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह पाकिस्तान को सजा देने की बात कह चुके हैं। पूर्व सेनाध्यक्ष राज्यमंत्री वी.के.सिंह आश्वस्त हैं कि पाक को कड़ा जवाब दिया जाएगा। थोड़ा पीछे चलें तो 2014 के आम चुनाव अभियान के दौरान स्वयं नरेंद्र मोदी ने जनता के बीच पाकिस्तान विरोधी भावनाओं को जमकर भुनाया था। आतंकी हमलों के प्रति तत्कालीन कांग्रेस नेतृत्व की केंद्र सरकार की कथित शिथिलता पर मोदी ने जमकर तब निशाने साधे थे। और तब ही अमित शाह ने कहा था कि नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद  कोई भी आतंकी भारतीय सीमा में प्रवेश करने की हिम्मत नहीं कर पाएगा।
इन पाश्र्व में जब पूरा देश पाकिस्तान को सबक सिखाने को व्यग्र है, भारतीय सेना की ओर से यह कहा जाना कि कार्रवाई होगी लेकिन, वक्त और जगह हम तय करेंगे, हमें आश्वस्त तो करता है किंतु असमंजस भी पैदा कर रहा है। आम जनता के लिए कार्रवाई का अर्थ युद्ध है। वह पाकिस्तान के खिलाफ युद्ध चाहती है।  युद्धोन्माद पैदा हो भी चुका है। किंतु, व्यावहारिक तथ्य यह कि आनन-फानन में युद्ध के मैदान में कूदा नहीं जा सकता। वैश्विक परिदृष्य भारत-पाक के बीच युद्ध के खिलाफ है। महाशक्ति अमेरिका और उसके सहयोगियों तथा चीन के सामरिक और आर्थिक हित दोनों देशों के साथ जुड़े हुए हैं। इनके अलावा यह खतरनाक सचाई भी मौजूद है कि दोनों परमाणु शक्ति संपन्न देश हैं। ऐसे में युद्ध की परिणति की कल्पना कठिन नहीं। पाकिस्तान को छोड़ हम अपने देश की बात करें तो विकासशील भारत किसी युद्ध में जाने की स्थिति में नहीं है। पिछले कुछ वर्षों से हम आर्थिक मजबूती के लिए विकास के नये-नये आयाम ढूंढ रहे हैं, उन पर कदमताल भी कर रहे हैं। सभी जानते हैं कि युद्ध हमें वर्षों पीछे ढकेल देगा। उरी सेना मुख्यालय पर हमले के बाद प्रधानमंत्री ने इस संभावित दुखद परिणति पर अपने सहयोगी सेना अधिकारियों के साथ चर्चा अवश्य की होगी। संभवत: इन्हीं बातों और देश की जनता में व्याप्त उन्माद को देखते हुए सरकार की ओर से पाक के विरुद्ध कड़े कदम उठाए जाने की बात तो कही गई किंतु समय तय नहीं हुआ। लेकिन पेंच कुछ और भी हैं।
2001 में हमारी संसद पर हमला कर पाकिस्तान ने बड़ी चुनौती दी थी। संसद पर हमले को देशवासियों ने  भारत पर हमला निरुपित किया था। देशवासी सही थे। राजधानी दिल्ली के सर्वाधिक सुरक्षित स्थल में प्रवेश कर संसद पर हमला? अकल्पनीय और हमारे लिए शर्मनाक भी। बावजूद इसके तब हमने पाकिस्तान के खिलाफ  जवाबी कार्रवाई क्यों नहीं की थी? उरी पर हमले से कहीं बड़ा हमला था वह तब भारतीय संसद को निशाने पर लिया गया था। कहते हैं तत्कालीन प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी ने त्वरित प्रतिक्रिया में पाकिस्तान के खिलाफ सैन्य कार्रवाई को मंजूरी दे दी थी। लगभग 5 लाख भारतीय सैनिक तब पश्चिमी सीमा पर तैनात भी कर दिए गए थे। खतरे को भांप पाकिस्तान ने भी अफगानिस्तान में अमेरिकी सैन्य कार्रवाई को मदद कर रही अपनी सेना की टुकडिय़ों को वापस बुला भारतीय सीमा पर तैनात कर दिया था। तब दोनों देश नये-नये परमाणु शक्ति संपन्न देश बने थे। परमाणु युद्ध की संभावना से चिंतित अमेरिका ने तब हस्तक्षेप किया, वाजपेयी पीछे हट गये।
अब यक्षप्रश्न यह कि क्या उरी के अपमान को भी सहन कर लिया जाएगा? पाकिस्तान को सबक सिखाए जाने संबंधी भारतीय भावना और सरकारी आश्वासन खटाई में डाल दिये जाएंगे? माना कि प्रत्यक्ष युद्ध में अनेक पेच हैं, किंतु 'अप्रत्यक्षके भी तो अनेक दरवाजे हैं। देश की भावना का आदर करते हुए प्रधानमंत्री मोदी को 'बुद्धऔर 'युद्धके बीच कोई दरवाजा ढूंढऩा ही होगा।