भारतीय न्यायपालिका ने पुन: देश को आश्वस्त कर दिया कि भारतीय लोकतंत्र में नागरिकों के अधिकार सुरक्षित रहेंगे। आजाद भारत का आजाद नागरिक अपने मन की बात कहने के लिए आजाद है और आजाद रहेगा। अभिव्यक्ति की आजादी अपनी मर्यादा में सुरक्षित रहेगी, कोई अंकुश नहीं लगा सकता। सबसे बड़ी बात यह कि यदि कोई सरकार की कड़ी आलोचना भी करता है तो वह देशद्रोह या मानहानि के कानून के तहत अपराध नहीं माना जाएगा। भारत के सर्वोच्चय न्यायालय की ताजा व्यवस्था से देश आश्वस्त हुआ है कि देश में लोकतांत्रिक नागरिक अधिकार अक्षुण्ण रहेंगे।
हाल के दिनों में देशद्रोह और मानहानि के बढ़ते मामलों को लेकर राष्ट्रीय स्तर पर एक नई बहस शुरू हो गई है। मानहानि के मामले तो खैर अनेक कारणों से निरंतर दायर होते रहे हैं किंतु, देशद्रोह के मामलों में अचानक हाल के दिनों में आई वृद्धि से सभी चिंतित हैं। अकेले सन 2014 में देशद्रोह के 47 मामले दर्ज किए गए थे। इस सिलसिले में 58 लोगों की गिरफ्तारियां भी हुई थीं। लेकिन, इनमें से सिर्फ एक ही को अदालत में दोषी सिद्ध किया जा सका। शेष मामले खारिज हो गए। इससे स्पष्ट है कि देशद्रोह संबंधी कानून का दुरुपयोग किया गया। गुजरात के हार्दिक पटेल और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के कन्हैया कुमार मामले के कारण भी देशद्रोह का मुद्दा बहस का विषय बना। पुलिस अर्थात सरकार की ओर से विरोध के स्वर को दबाने के लिए देशद्रोह का आरोप लगाया जाना असंवैधानिक ही नहीं अमानवीय भी है। हार्दिक और कन्हैया को लेकर पूरे देश में छिड़ी बहस से भी निष्कर्ष यही निकला कि सत्ता ने देशद्रोह संबंधी कानूनी प्रावधान का दुरुपयोग किया है। भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में विरोध के स्वर को दबाना या अभिव्यक्ति की आजादी पर अंकुश कदापि स्वीकार नहीं किया जा सकता। आजाद भारत की नींव ही अभिव्यक्ति की आजादी पर खड़ी है। यह दोहराना ही होगा कि यही वह आजादी है जो हमारे लोकतंत्र को मजबूत करती रही है। फिर इस पर अंकुश कैसे? क्या हम लोकतंत्र के विरोधी हैं? सवाल ही नही पैदा होता।
सर्वोच्च न्यायालय ने एक गैरसरकारी संगठन की ओर से दायर याचिका पर व्यवस्था देते हुए स्पष्ट कर दिया कि सरकार की कड़ी आलोचना भी मानहानि और देशद्रोह नहीं हो सकता। याचिका में देशद्रोह संबंधी आईपीसी की धारा 124-ए के दुरुपयोग पर ध्यान देने के लिए शीर्ष अदालत से हस्तक्षेप की मांग की गई थी और दलील दी गई थी कि डर पैदा करने और असहमति को दबाने के मद्देनजर इस तरह के आरोप गढ़े जा रहे हैं। याचिका में कहा गया था कि विद्वानों, कार्यकर्ताओं, विद्यार्थियों के खिलाफ देशद्रोह के मामले बढ़े हैं, जिनमें सबसे ताजा मामला 'एमनेस्टी इंडिया’ पर कश्मीर पर एक चर्चा आयोजित करने को लेकर लगाए गए देशद्रोह के आरोप का है। सर्वोच्च न्यायालय ने इस पर सन 1962 में केदारनाथ सिंह बनाम बिहार राज्य के मामले में 5 न्यायधीशों की संविधान पीठ के फैसले को उद्धृत करते हुए स्पष्ट कर दिया कि सरकार की आलोचना करने का अधिकार नागरिक को प्राप्त है और ऐसे मामले मानहानि और देशद्रोह की श्रेणी में नहीं आते। अब केंद्र सरकार को चाहिए कि लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की आजादी के पक्ष में ऐसे कड़े निर्देश जारी करे जिससे आईपीसी की धारा 124-ए का कोई दुरुपयोग न कर सके और लोकतंत्र के प्रहरी आवश्यकता अनुसार सरकार के किसी कदम पर अपने विचार निडरतापूर्वक रखने को आजाद रह सकें।
No comments:
Post a Comment