अब इसे संयोग कहें, विडंबना कह लें या सुविचारित रणनीति! ऐसा हुआ और लोगबाग भौचक हैं। ज्योतिष, शेयर ब्रोकर और हिंदुत्व के झंडाबरदार अमित शाह को भारतीय जनता पार्टी द्वारा दोबारा अध्यक्ष पद सौंपे जाने के साथ ऐसी जिज्ञासा बरबस उठ खड़ी हुई।
जून 2015 ! जब अमित शाह ने बिहार चुनाव का बिगुल बजाने पटना के गांधी मैदान में पहली चुनावी रैली का आयोजन किया। तब, पटना साहिब से भाजपा के सांसद शत्रुघ्न सिन्हा को आमंत्रित नहीं किया गया था। बिहारी बाबू के नाम से विख्यात नेता- अभिनेता की उपेक्षा को बिहारियों ने अपना अपमान समझा। अन्य बातों के साथ 'बिहारी बाबू' भी भाजपा की शर्मनाक पराजय का एक कारण बने। शत्रुघ्न विरोधी मुंह छुपाने के लिए भले ही सार्वजनिक रूप से इस 'कारण' को स्वीकार नहीं कर रहे, परंतु इस कड़वे सच को निगलने के लिए वे मजबूर हैं।
24 जनवरी 2016 ! ' निर्विरोध '- 'निर्विवाद ' अध्यक्ष के रूप में अमित शाह की दोबारा ताजपोशी की पटकथा लिखी जा चुकी थी, मंच तैयार था, तब भाजपा मार्गदर्शक मंडल के मुखिया लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी व शांताकुमार नदारद थे। दिल्ली का अशोक रोड स्थित भाजपा मुख्यालय दुल्हन की तरह सजा था, भगवा झंडे लहरा रहे थे, शंखनाद से पूरा परिसर गुंजायमान था। तब लोगों की निगाहें इन्हें ढूंढ रही थी। मालूम हुआ कि मार्गदर्शक मंडल के ये मुखिया मार्ग नहीं भूले थे, मार्ग इनसे छीन लिया गया था। आडवाणी, जोशी, शांताकुमार को पार्टी के इस सर्वाधिक महत्वपूर्ण मौके पर आमंत्रित नहीं किया गया था। जानकार समीक्षकों ने तब टिप्पणी की कि ऐसा कर अमित शाह ने बगैर किसी परिवर्तन के अपनी वर्तमान कार्यशैली को ही अंगीकार करने का संकेत दे दिया। तो क्या बिहार की तरह पार्टी के लिए नकारात्मक परिणाम ही चाहेंगे अमित शाह? इस लखटकिया सवाल का जवाब सिर्फ शाह ही दे सकते हैं। भाजपा के प्रति समर्थन, सहानुभूति रखनेवालों की बेचैनी का समाधान उन्हें ही करना होगा। असहज सवाल का जवाब सहज नहीं है।
सवाल मार्गदर्शक मंडल की उपयोगिता पर उठने लगे हैं। आडवाणी आदि को अपनी ताजपोशी पर आमंत्रित नहीं करनेवाले अमित शाह आशीर्वाद लेने आडवाणी के घर पर जरुर पहुंचे। बड़े-बुजुर्गों के आशीर्वाद के महत्व से परिचित अमित शाह ने आशीर्वाद की औपचारिकता तो पूरी कर ली, किंतु उन्हें जल्द और बहुत जल्द पार्टी और देश को 'मार्गदर्शक मंडल' की उपयोगिता पर उठे सवालों का निराकरण करना होगा।
2014 लोकसभा चुनावों में ऐतिहासिक विजय प्राप्त करने बाद जब सत्ता और संगठन दोनों की चूलें अपने हाथों में रखने का फैसला नरेन्द्र मोदी ने किया था तभी आडवाणी सहित अन्य बुजुर्गों को हाशिये पर रखने का फैसला कर लिया गया था। भला आडवाणी आदि की उपस्थिति में 51 वर्षीय अमित शाह संगठन की कमान कैसे संभाल सकते थे? सो, सम्मानजनक - आकर्षक 'मार्गदर्शक मंडल' का मंच तैयार कर आडवाणी को उसका मुखिया घोषित कर दिया गया। मुरली मनोहर जोशी, शांताकुमार के साथ -साथ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी व गृहमंत्री राजनाथ सिंह भी इसके सदस्य बनाये गए। प्रधानमंत्री और गृहमंत्री को शामिल कर 'मार्गदर्शन मंडल' को एक गंभीर मंच के रुप में चिन्हित करने की कोशिश की गई। लेकिन, आज जब लगभग दो वर्ष पूरे होने जा रहे हैं, 'मार्गदर्शक मंडल' की अब तक एक भी बैठक नहीं हुई। संकेत साफ है कि सत्ता और संगठन दोनों को 'मार्गदर्शक मंडल' के 'मार्गदर्शन' की जरुरत नहीं।
आडवाणी के लिए प्रधानमंत्री सहित अन्य बड़े नेता-मंत्री सम्मान प्रकट करते हुए जब आदरणीय-अनुकरणीय निरुपित करते हैं तब अध्यक्ष की ताजपोशी जैसे महत्वपूर्ण अवसर पर उपेक्षा क्यों? और फिर आशीर्वाद लेने के लिए दरवाजे पर दस्तक देना ! मूर्ख न तो अमित शाह है और ना ही लालकृष्ण आडवाणी। देश की जनता तो कतई नहीं!
अब बहुत हो गया ! समाज में कहावत प्रचलित है कि जिस परिवार में बड़े-बुजुर्गों और नारी का आदर-सम्मान नहीं होता, वह घर- परिवार बिखर जाता है, टूट जाता है। अमित शाह संभवत: इस तथ्य से परिचित होने के कारण ही आडवाणी के घर उनका आशीर्वाद लेने पहुंचे। लेकिन सवाल अनुत्तरित रह जाता है कि फिर 'मार्गदर्शक मंडल' क्यों? जब आडवाणी की भूमिका 'आशीर्वाद ' देने तक सीमित कर दी गई है, 'मार्गदर्शक' आडवाणी की क्या जरुरत? बहलाने- फुसलाने की अवस्था में तो आडवाणी या उनके सरीखे बुजुर्ग को तो डाला नहीं जा सकता। दिखावे के लिए मार्गदर्शक रुपी सम्मानजनक संबोधन की अपरिहार्यता तो दूर तात्कालिक उपयोगिता भी कचरे की पेटी में रुदन को मजबूर है। अब इसे और 'नाटकीय' न बनाया जाये। इसके पूर्व कि 'नाटक' 'अपमान ' का स्थान ले ले, 'मार्गदर्शक' की तिलांजलि दे दी जाये। लालकृष्ण आडवाणी हो, मुरली मनोहर जोशी हो, शांताकुमार हो, यशवंत सिन्हा हो या अन्य कोई; वर्षों की तपस्या से अर्जित उनके 'सम्मान' को सुरक्षित रखा जाए। उनके इस सम्मान पर आंच नहीं आये, यह सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी वर्तमान नेतृत्व की है। अत:, बेहतर हो या तो मार्गदर्शक मंडल को व्यवहार के स्तर पर सक्रिय बनाया जाये या पूर्णत: तिलांजलि दे वर्तमान मार्गदर्शकों को उनके कद के अनुरुप 'आशीर्वाद ' की भूमिका में ससम्मान रखा जाये। बेहतर यह भी होगा कि ऐसे किसी निर्णय के पूर्व 'मार्गदर्शक मंडल' को भी विश्वास में लिया जाये।
अमित शाह अपनी जिम्मेदारी के बोझ को महसूस कर रहे होंगे। जिम्मेदारी कोई साधारण नहीं। 'परिवर्तन' के पक्ष में अंगड़ाई लेते भारत की दशा- दिशा को निर्धारित करने की अहम जिम्मेदारी है यह। भाजपा और देश की अपेक्षाएं हिलोरे मार रही हैं, अपेक्षाएं राष्ट्रीय हैं। यह अवस्था अनेक अवरोधकों से टकरा उन्हें मार्ग से हटाने की चुनौती है।
वर्ष 2014 से 2015 के अंत तक की अमित-यात्रा सहज नहीं, संघर्ष व चुनौतीपूर्ण रही है। आरंभिक सफलता के बाद विफलता से भी दो-चार होना पड़ा है। प्रशंसा- आलोचनाएं यात्रा की साथी रहीं है। बावजूद इसके उनके नेतृत्व में पुन: विश्वास प्रकट कर पार्टी ने संगठन की कमान सौंपी है तो उन्हें चुनौतियों का सामना अपनी सूझबूझ व सटीक रणनीति से करना होगा। यही वह मुकाम हैं जहां आम सहमति और सामूहिक नेतृत्व की उपयोगिता चिन्हित होती है। कांटों का ताज धारण करनेवाले अमित शाह इस तथ्य से अपरिचित तो नहीं ही होंगे।
जून 2015 ! जब अमित शाह ने बिहार चुनाव का बिगुल बजाने पटना के गांधी मैदान में पहली चुनावी रैली का आयोजन किया। तब, पटना साहिब से भाजपा के सांसद शत्रुघ्न सिन्हा को आमंत्रित नहीं किया गया था। बिहारी बाबू के नाम से विख्यात नेता- अभिनेता की उपेक्षा को बिहारियों ने अपना अपमान समझा। अन्य बातों के साथ 'बिहारी बाबू' भी भाजपा की शर्मनाक पराजय का एक कारण बने। शत्रुघ्न विरोधी मुंह छुपाने के लिए भले ही सार्वजनिक रूप से इस 'कारण' को स्वीकार नहीं कर रहे, परंतु इस कड़वे सच को निगलने के लिए वे मजबूर हैं।
24 जनवरी 2016 ! ' निर्विरोध '- 'निर्विवाद ' अध्यक्ष के रूप में अमित शाह की दोबारा ताजपोशी की पटकथा लिखी जा चुकी थी, मंच तैयार था, तब भाजपा मार्गदर्शक मंडल के मुखिया लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी व शांताकुमार नदारद थे। दिल्ली का अशोक रोड स्थित भाजपा मुख्यालय दुल्हन की तरह सजा था, भगवा झंडे लहरा रहे थे, शंखनाद से पूरा परिसर गुंजायमान था। तब लोगों की निगाहें इन्हें ढूंढ रही थी। मालूम हुआ कि मार्गदर्शक मंडल के ये मुखिया मार्ग नहीं भूले थे, मार्ग इनसे छीन लिया गया था। आडवाणी, जोशी, शांताकुमार को पार्टी के इस सर्वाधिक महत्वपूर्ण मौके पर आमंत्रित नहीं किया गया था। जानकार समीक्षकों ने तब टिप्पणी की कि ऐसा कर अमित शाह ने बगैर किसी परिवर्तन के अपनी वर्तमान कार्यशैली को ही अंगीकार करने का संकेत दे दिया। तो क्या बिहार की तरह पार्टी के लिए नकारात्मक परिणाम ही चाहेंगे अमित शाह? इस लखटकिया सवाल का जवाब सिर्फ शाह ही दे सकते हैं। भाजपा के प्रति समर्थन, सहानुभूति रखनेवालों की बेचैनी का समाधान उन्हें ही करना होगा। असहज सवाल का जवाब सहज नहीं है।
सवाल मार्गदर्शक मंडल की उपयोगिता पर उठने लगे हैं। आडवाणी आदि को अपनी ताजपोशी पर आमंत्रित नहीं करनेवाले अमित शाह आशीर्वाद लेने आडवाणी के घर पर जरुर पहुंचे। बड़े-बुजुर्गों के आशीर्वाद के महत्व से परिचित अमित शाह ने आशीर्वाद की औपचारिकता तो पूरी कर ली, किंतु उन्हें जल्द और बहुत जल्द पार्टी और देश को 'मार्गदर्शक मंडल' की उपयोगिता पर उठे सवालों का निराकरण करना होगा।
2014 लोकसभा चुनावों में ऐतिहासिक विजय प्राप्त करने बाद जब सत्ता और संगठन दोनों की चूलें अपने हाथों में रखने का फैसला नरेन्द्र मोदी ने किया था तभी आडवाणी सहित अन्य बुजुर्गों को हाशिये पर रखने का फैसला कर लिया गया था। भला आडवाणी आदि की उपस्थिति में 51 वर्षीय अमित शाह संगठन की कमान कैसे संभाल सकते थे? सो, सम्मानजनक - आकर्षक 'मार्गदर्शक मंडल' का मंच तैयार कर आडवाणी को उसका मुखिया घोषित कर दिया गया। मुरली मनोहर जोशी, शांताकुमार के साथ -साथ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी व गृहमंत्री राजनाथ सिंह भी इसके सदस्य बनाये गए। प्रधानमंत्री और गृहमंत्री को शामिल कर 'मार्गदर्शन मंडल' को एक गंभीर मंच के रुप में चिन्हित करने की कोशिश की गई। लेकिन, आज जब लगभग दो वर्ष पूरे होने जा रहे हैं, 'मार्गदर्शक मंडल' की अब तक एक भी बैठक नहीं हुई। संकेत साफ है कि सत्ता और संगठन दोनों को 'मार्गदर्शक मंडल' के 'मार्गदर्शन' की जरुरत नहीं।
आडवाणी के लिए प्रधानमंत्री सहित अन्य बड़े नेता-मंत्री सम्मान प्रकट करते हुए जब आदरणीय-अनुकरणीय निरुपित करते हैं तब अध्यक्ष की ताजपोशी जैसे महत्वपूर्ण अवसर पर उपेक्षा क्यों? और फिर आशीर्वाद लेने के लिए दरवाजे पर दस्तक देना ! मूर्ख न तो अमित शाह है और ना ही लालकृष्ण आडवाणी। देश की जनता तो कतई नहीं!
अब बहुत हो गया ! समाज में कहावत प्रचलित है कि जिस परिवार में बड़े-बुजुर्गों और नारी का आदर-सम्मान नहीं होता, वह घर- परिवार बिखर जाता है, टूट जाता है। अमित शाह संभवत: इस तथ्य से परिचित होने के कारण ही आडवाणी के घर उनका आशीर्वाद लेने पहुंचे। लेकिन सवाल अनुत्तरित रह जाता है कि फिर 'मार्गदर्शक मंडल' क्यों? जब आडवाणी की भूमिका 'आशीर्वाद ' देने तक सीमित कर दी गई है, 'मार्गदर्शक' आडवाणी की क्या जरुरत? बहलाने- फुसलाने की अवस्था में तो आडवाणी या उनके सरीखे बुजुर्ग को तो डाला नहीं जा सकता। दिखावे के लिए मार्गदर्शक रुपी सम्मानजनक संबोधन की अपरिहार्यता तो दूर तात्कालिक उपयोगिता भी कचरे की पेटी में रुदन को मजबूर है। अब इसे और 'नाटकीय' न बनाया जाये। इसके पूर्व कि 'नाटक' 'अपमान ' का स्थान ले ले, 'मार्गदर्शक' की तिलांजलि दे दी जाये। लालकृष्ण आडवाणी हो, मुरली मनोहर जोशी हो, शांताकुमार हो, यशवंत सिन्हा हो या अन्य कोई; वर्षों की तपस्या से अर्जित उनके 'सम्मान' को सुरक्षित रखा जाए। उनके इस सम्मान पर आंच नहीं आये, यह सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी वर्तमान नेतृत्व की है। अत:, बेहतर हो या तो मार्गदर्शक मंडल को व्यवहार के स्तर पर सक्रिय बनाया जाये या पूर्णत: तिलांजलि दे वर्तमान मार्गदर्शकों को उनके कद के अनुरुप 'आशीर्वाद ' की भूमिका में ससम्मान रखा जाये। बेहतर यह भी होगा कि ऐसे किसी निर्णय के पूर्व 'मार्गदर्शक मंडल' को भी विश्वास में लिया जाये।
अमित शाह अपनी जिम्मेदारी के बोझ को महसूस कर रहे होंगे। जिम्मेदारी कोई साधारण नहीं। 'परिवर्तन' के पक्ष में अंगड़ाई लेते भारत की दशा- दिशा को निर्धारित करने की अहम जिम्मेदारी है यह। भाजपा और देश की अपेक्षाएं हिलोरे मार रही हैं, अपेक्षाएं राष्ट्रीय हैं। यह अवस्था अनेक अवरोधकों से टकरा उन्हें मार्ग से हटाने की चुनौती है।
वर्ष 2014 से 2015 के अंत तक की अमित-यात्रा सहज नहीं, संघर्ष व चुनौतीपूर्ण रही है। आरंभिक सफलता के बाद विफलता से भी दो-चार होना पड़ा है। प्रशंसा- आलोचनाएं यात्रा की साथी रहीं है। बावजूद इसके उनके नेतृत्व में पुन: विश्वास प्रकट कर पार्टी ने संगठन की कमान सौंपी है तो उन्हें चुनौतियों का सामना अपनी सूझबूझ व सटीक रणनीति से करना होगा। यही वह मुकाम हैं जहां आम सहमति और सामूहिक नेतृत्व की उपयोगिता चिन्हित होती है। कांटों का ताज धारण करनेवाले अमित शाह इस तथ्य से अपरिचित तो नहीं ही होंगे।