ये अनायास नहीं है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में दूसरे क्रमांक पर आसीन भैयाजी जोशी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को 'राजधर्म' की याद दिलायी। हालांकि उन्होंने इसके साथ ही प्रधानमंत्री के अब-तक के कार्यों की प्रशंसा करते हुए उनकी पीठ भी थप-थपा दी। लेकिन इसे मैं 'कटू वचन' व 'मधुर वचन' के सामंजस्य से संबंधित को 'लॉलीपॉप दे पुचकारने की बात मानता हूं। संभवत: कालांतर में यही सच भी साबित हो।
यह कटू सत्य अब प्रत्यक्ष है कि 2014 के लोकसभा चुनाव में देश की जनता ने नरेंद्र मोदी के नेतृत्व के प्रति जो आशा और विश्वास जताया था, उसे लेकर अब निराशा व्याप्त है। मोदी सरकार के लगभग 20 महीने का कार्यकाल किसी सुखद 'रिपोर्ट कार्ड' से दूर है। लोगबाग चकित हैं कि जिस तेज गति के साथ मोदी सरकार का ग्राफ ऊंचा उठा था, उससे भी कहीं ज्यादा तेज गति से ग्राफ नीचे कैसे गिर रहा है? सरकारी आंकड़ों की बाजीगरी से दूर लोग ऐसा क्यों मान बैठे कि सरकार हर मोर्चे पर अब तक विफल रही है, विफल हो रही है? जहां आंतरिक सुरक्षा तार-तार दिख रही है, वहीं विदेश नीति ऐसी कि पिद्दी नेपाल भी हमें आंखें दिखा रहा है। महान अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा के साथ हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कथित प्रगाढ़ मित्रता के बावजूद अमेरिका की प्राथमिकता सूची में भारत के मुकाबले पाकिस्तान ऊपर है। आर्थिक मोर्चे पर हालात और भी गंभीर हैं। कुछ बड़े औद्योगिक-व्यावसायिक घरानों में तो दैनिक दिवाली दृष्टिगोचर है किंतु, अन्य घराने तबाही के मुहाने पर हैं। उत्पादन घट रहा है। निर्यात घट रहा है। वादे के ठीक उलट डॉलर के मुकाबले हमारा रुपया दिन-ब-दिन 'दीन-हीन' होता जा रहा है। इसी तरह दावों के विपरीत महंगाई रुकने का नाम नहीं ले रही, बेराजगारों से रोजगार अभी भी दूर है। एक ओर कृषि उत्पादन घटा है तो दूसरी ओर जमाखोरों की चांदी है। पूंजी निवेश और पूंजी नियोजन को लेकर बड़े-बड़े दावे तो किए जा रहे हैं किंतु इस मोर्चे पर भी सरकार को उल्लेखनीय सफलता मिलती नहीं दिख रही। स्याह भविष्य की आशंका से निम्न या मध्यम वर्ग भयभीत है। शायद यही कारण है कि पूरा देश आज सहमा-सहमा सा है। विचारणीय है कि ऐसी स्थिति कैसे पैदा हो गई?
प्रधानमंत्री मोदी की नीयत पर कोई सवाल नहीं है। उनकी राष्ट्रहित के प्रति कटिबद्धता और घोषित योजनाओं के क्रियान्वयन के प्रति समर्पण पर भी कोई सवाल नहीं। तो फिर क्या कमी या कमजोरी उनके सलाहकारों और क्रियान्वयन की जिम्मेदार एजेंसियों में है? इस बिंदू पर मंथन जरूरी है।
सत्ता और संगठन में संघ की भूमिका, बल्कि निर्णायक भूमिका, असंदिग्ध है। इस सचाई की मौजूदगी में भैयाजी जोशी द्वारा 'राजधर्म' और 'धर्मदंड' को रेखांकित किया जाना? ध्यान रहे सन 2002 में नरेंद्र मोदी के मुख्यमंत्रित्व काल में गुजरात के सांप्रदायिक दंगों के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने मोदी को राजधर्म निभाने की सलाह दी थी। तब मोदी की कार्यशैली और नीयत दोनों को लेकर सवाल खड़े हुए थे। आज बात राजधर्म से आगे बढ़ते हुए 'धर्मदंड' की भी की जा रही है। भैयाजी जोशी का मानना कि 'राजधर्म' का निर्वाह शासक को करना होता है जबकि 'धर्मदंड' जनता निर्धारित करती है, महत्वपूर्ण है। महत्वपूर्ण वह संदर्भ भी है, जिसकी धरातल पर भैयाजी जोशी ने सवाल पैदा किया है। ज्यादा घुमाने की जरूरत नहीं, संदेश साफ है कि अगर मोदी सरकार जन अपेक्षानुरुप 'राजधर्म' का पालन नहीं करती तो जनता 'धर्मदंड' के अनुरूप दंडित करने को तत्पर मिलेगी। मोदी सरकार के शासन को अभी तीन वर्ष शेष हैं। देश ने सरकार के कार्यों का मूल्यांकन शुरू कर दिया है। मोदी सरकार के पास वस्तुत: अब जन-भावना को पुन: अपने पक्ष में करने के लिए सिर्फ एक साल शेष है। क्योंकि आखिरी के दो वर्ष पूर्णत: चुनावी वर्ष होंगे। उस कालखंड में उठाया गया कोई भी कदम या घोषणा, चुनावी वादे या शिगूफे के रूप में लिए जाएंगे। मोदी सरकार इसे न भूले।
प्रधानमंत्री मोदी, स्वयं प्रचारक होने के नाते संघ-चरित्र से अच्छी तरह परिचित हैं। दिल्ली विधानसभा चुनाव के समय किरण बेदी को लेकर संघ की नाराजगी का मामला हो या बिहार चुनाव के समय संघ प्रमुख मोहन भागवत द्वारा उठाए गए आरक्षण का मामला, दोनों में अपरोक्ष-संदेश थे, जिन्हें नरेंद्र मोदी समझ पाने में विफल रहे। या फिर जान बूझकर ना-समझ बने रहे। परिणाम सत्ता-संगठन, दोनों के लिए दु:खदायी रहे। मुजफ्फरनगर, दादरी, मालदा और ताजा-तरीन हैदराबाद विश्वविद्यालय के एक दलित छात्र की आत्महत्या प्रकरण सिर्फ संयोग की उत्पत्ति नहीं हैं। इनके प्रति संघ के रूख को नजरअंदाज कर मोदी सरकार फिर धोखा खाएगी। इसके पहले, 2014 के लोकसभा चुनाव प्रचार और भाजपा विजय के बाद 'नमो-नमो' की गूंज पर संघ प्रमुख भागवत की कठोर प्रतिक्रिया को भी प्रधानमंत्री न भूलें। संघ अपने घोषित/अघोषित एजेंडे को मूर्तरूप देने के लिए कुछ भी कर सकता है। विकास और हिंदुत्व के बीच तालमेल स्थापित कर जनहित में कदम उठा कर ही इस संभावित 'अपघात' से बचा जा सकता है। क्या संघ प्रचारक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस तथ्य से अनजान हैं? बेहतर हो, प्रधानमंत्री समेत सत्ता और संगठन का शीर्ष नेतृत्व व सलाहकार 'राजधर्म' और 'धर्मदंड' में निहित संदेश को समझें और व्यापक राष्ट्रहित में ठोस कदम उठाएं। शब्दों की खुराक की जरूरत अब न तो जनता को है और न ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को!
यह कटू सत्य अब प्रत्यक्ष है कि 2014 के लोकसभा चुनाव में देश की जनता ने नरेंद्र मोदी के नेतृत्व के प्रति जो आशा और विश्वास जताया था, उसे लेकर अब निराशा व्याप्त है। मोदी सरकार के लगभग 20 महीने का कार्यकाल किसी सुखद 'रिपोर्ट कार्ड' से दूर है। लोगबाग चकित हैं कि जिस तेज गति के साथ मोदी सरकार का ग्राफ ऊंचा उठा था, उससे भी कहीं ज्यादा तेज गति से ग्राफ नीचे कैसे गिर रहा है? सरकारी आंकड़ों की बाजीगरी से दूर लोग ऐसा क्यों मान बैठे कि सरकार हर मोर्चे पर अब तक विफल रही है, विफल हो रही है? जहां आंतरिक सुरक्षा तार-तार दिख रही है, वहीं विदेश नीति ऐसी कि पिद्दी नेपाल भी हमें आंखें दिखा रहा है। महान अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा के साथ हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कथित प्रगाढ़ मित्रता के बावजूद अमेरिका की प्राथमिकता सूची में भारत के मुकाबले पाकिस्तान ऊपर है। आर्थिक मोर्चे पर हालात और भी गंभीर हैं। कुछ बड़े औद्योगिक-व्यावसायिक घरानों में तो दैनिक दिवाली दृष्टिगोचर है किंतु, अन्य घराने तबाही के मुहाने पर हैं। उत्पादन घट रहा है। निर्यात घट रहा है। वादे के ठीक उलट डॉलर के मुकाबले हमारा रुपया दिन-ब-दिन 'दीन-हीन' होता जा रहा है। इसी तरह दावों के विपरीत महंगाई रुकने का नाम नहीं ले रही, बेराजगारों से रोजगार अभी भी दूर है। एक ओर कृषि उत्पादन घटा है तो दूसरी ओर जमाखोरों की चांदी है। पूंजी निवेश और पूंजी नियोजन को लेकर बड़े-बड़े दावे तो किए जा रहे हैं किंतु इस मोर्चे पर भी सरकार को उल्लेखनीय सफलता मिलती नहीं दिख रही। स्याह भविष्य की आशंका से निम्न या मध्यम वर्ग भयभीत है। शायद यही कारण है कि पूरा देश आज सहमा-सहमा सा है। विचारणीय है कि ऐसी स्थिति कैसे पैदा हो गई?
प्रधानमंत्री मोदी की नीयत पर कोई सवाल नहीं है। उनकी राष्ट्रहित के प्रति कटिबद्धता और घोषित योजनाओं के क्रियान्वयन के प्रति समर्पण पर भी कोई सवाल नहीं। तो फिर क्या कमी या कमजोरी उनके सलाहकारों और क्रियान्वयन की जिम्मेदार एजेंसियों में है? इस बिंदू पर मंथन जरूरी है।
सत्ता और संगठन में संघ की भूमिका, बल्कि निर्णायक भूमिका, असंदिग्ध है। इस सचाई की मौजूदगी में भैयाजी जोशी द्वारा 'राजधर्म' और 'धर्मदंड' को रेखांकित किया जाना? ध्यान रहे सन 2002 में नरेंद्र मोदी के मुख्यमंत्रित्व काल में गुजरात के सांप्रदायिक दंगों के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने मोदी को राजधर्म निभाने की सलाह दी थी। तब मोदी की कार्यशैली और नीयत दोनों को लेकर सवाल खड़े हुए थे। आज बात राजधर्म से आगे बढ़ते हुए 'धर्मदंड' की भी की जा रही है। भैयाजी जोशी का मानना कि 'राजधर्म' का निर्वाह शासक को करना होता है जबकि 'धर्मदंड' जनता निर्धारित करती है, महत्वपूर्ण है। महत्वपूर्ण वह संदर्भ भी है, जिसकी धरातल पर भैयाजी जोशी ने सवाल पैदा किया है। ज्यादा घुमाने की जरूरत नहीं, संदेश साफ है कि अगर मोदी सरकार जन अपेक्षानुरुप 'राजधर्म' का पालन नहीं करती तो जनता 'धर्मदंड' के अनुरूप दंडित करने को तत्पर मिलेगी। मोदी सरकार के शासन को अभी तीन वर्ष शेष हैं। देश ने सरकार के कार्यों का मूल्यांकन शुरू कर दिया है। मोदी सरकार के पास वस्तुत: अब जन-भावना को पुन: अपने पक्ष में करने के लिए सिर्फ एक साल शेष है। क्योंकि आखिरी के दो वर्ष पूर्णत: चुनावी वर्ष होंगे। उस कालखंड में उठाया गया कोई भी कदम या घोषणा, चुनावी वादे या शिगूफे के रूप में लिए जाएंगे। मोदी सरकार इसे न भूले।
प्रधानमंत्री मोदी, स्वयं प्रचारक होने के नाते संघ-चरित्र से अच्छी तरह परिचित हैं। दिल्ली विधानसभा चुनाव के समय किरण बेदी को लेकर संघ की नाराजगी का मामला हो या बिहार चुनाव के समय संघ प्रमुख मोहन भागवत द्वारा उठाए गए आरक्षण का मामला, दोनों में अपरोक्ष-संदेश थे, जिन्हें नरेंद्र मोदी समझ पाने में विफल रहे। या फिर जान बूझकर ना-समझ बने रहे। परिणाम सत्ता-संगठन, दोनों के लिए दु:खदायी रहे। मुजफ्फरनगर, दादरी, मालदा और ताजा-तरीन हैदराबाद विश्वविद्यालय के एक दलित छात्र की आत्महत्या प्रकरण सिर्फ संयोग की उत्पत्ति नहीं हैं। इनके प्रति संघ के रूख को नजरअंदाज कर मोदी सरकार फिर धोखा खाएगी। इसके पहले, 2014 के लोकसभा चुनाव प्रचार और भाजपा विजय के बाद 'नमो-नमो' की गूंज पर संघ प्रमुख भागवत की कठोर प्रतिक्रिया को भी प्रधानमंत्री न भूलें। संघ अपने घोषित/अघोषित एजेंडे को मूर्तरूप देने के लिए कुछ भी कर सकता है। विकास और हिंदुत्व के बीच तालमेल स्थापित कर जनहित में कदम उठा कर ही इस संभावित 'अपघात' से बचा जा सकता है। क्या संघ प्रचारक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस तथ्य से अनजान हैं? बेहतर हो, प्रधानमंत्री समेत सत्ता और संगठन का शीर्ष नेतृत्व व सलाहकार 'राजधर्म' और 'धर्मदंड' में निहित संदेश को समझें और व्यापक राष्ट्रहित में ठोस कदम उठाएं। शब्दों की खुराक की जरूरत अब न तो जनता को है और न ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को!
No comments:
Post a Comment