Thursday, November 18, 2010
सत्ता के लिए आपराधिक समझौते!
सत्ता पाने के लिए या सत्ता में बने रहने के लिए किसी भी हद तक जाकर अनैतिक समझौते किए जाने का इतिहास पुराना है। सत्तारूढ़ संप्रग और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने बार-बार इसे दोहराया है। इस प्रक्रिया में सोनिया अपने दिवंगत पति राजीव गांधी के सिद्धांत को उनके द्वारा प्रस्तुत आदर्श उदाहरण को भी भूल गईं। बल्कि, जानबूझकर भूलती रहीं। 1989 के लोकसभा चुनाव में राजीव गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस पराजित हुई, लेकिन सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरने के बावजूद उसने सरकार बनाने का दावा नहीं किया। राजीव गांधी ने तब विपक्ष में बैठना स्वीकार किया था। अगर राजीव गांधी चाहते तब जोड़-तोड़कर सरकार का गठन कर प्रधानमंत्री बन सकते थे। राष्ट्रपति द्वारा तद्हेतु आमंत्रण को राजीव गांधी ने ठुकरा दिया था। इसके ठीक विपरीत सन्ï 2004 में बहुमत नहीं मिलने के बावजूद सोनिया गांधी ने पहल कर कांग्रेस के नेतृत्व में अनेक छोटे-बड़े दलों की मिलीजुली सरकार का गठन किया। सन्ï 2009 में भी ऐसा ही किया गया। सन्ï 2004 में सरकार गठन हेतु किया गया समझौता तो नैतिकता के हर मानक को मुंह चिढ़ाने वाला था। बिहार के कुख्यात चारा घोटाला के मुख्य आरोपी लालू प्रसाद यादव के राष्ट्रीय जनता दल का सहयोग लेने से कांग्रेस पीछे नहीं हटी। बल्कि, लालू को मंत्रिमंडल में शामिल कर रेल मंत्रालय का महत्वपूर्ण विभाग सौंपा गया। क्या यह याद दिलाने की जरूरत है कि चारा घोटाला को लेकर सोनिया गांधी सहित कांग्रेस के सभी छोटे-बड़े नेता लालू यादव को भ्रष्टाचार का दानव निरूपित किया करते थे? लालू यादव की उस घोटाले में गिरफ्तारी भी हो चुकी थी। भ्रष्टाचार और हत्या जैसे अपराध के आरोपी झारखंड मुक्ति मोर्चा के शिबू सोरेन की भी सहायता तब सोनिया गांधी ने ली थी। सोरेन को मंत्री बना कोयला जैसा महत्वपूर्ण विभाग सौंपा गया। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के मंत्रिमंडल में तब अनेक दागी चेहरे शामिल किए गए थे। क्या यह दोहराने की जरूरत है कि ऐसे समझौते सिर्फ सत्तावासना की पूर्ति के लिए किए गए थे। ए. राजा को वर्षों भ्रष्टाचार व लूट की छूट प्रधानमंत्री ने दे रखी थी, तो सिर्फ सत्ता में बने रहने के लिए ही। अब तो यह प्रमाणित हो चुका है कि 2 जी स्पेक्ट्रम के मामले में स्वयं प्रधानमंत्री ने नियमों में छूट दी थी। एक अत्यंत ही सनसनीखेज खुलासे में यह तथ्य सामने आया है कि 2 जी स्पेक्ट्रम के लिए गठित मंत्रियों के समूह (जीओएम) के कार्यक्षेत्र में हस्तक्षेप करते हुए स्वयं प्रधानमंत्री ने ए. राजा के दबाव में समूह के कुछ अधिकार छीन लिए थे। इसके बाद ही ए. राजा ने मनमाने दर पर स्पेक्ट्रम के लाइसेंस जारी किए थे। प्रधानमंत्री निश्चय ही 2 जी स्पेक्ट्रम के घोटाले में शामिल माने जाएंगे। चाहे उन्होंने जानबूझकर ऐसा किया हो या फिर सत्ता की मजबूरी में, अपराध तो उन्होंने किया ही है। मंगलवार को भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (कैग) को उसकी 150वीं वर्षगांठ पर नसीहत देते हुए प्रधानमंत्री ने जब यह कहा कि आलोचना और गलती ढूंढऩे, तुक्केबाजी करने और तर्कसंगत अनुमान लगाने, क्षम्य त्रुटि और जानबूझकर की गई गलती में बहुत कम अंतर होता है, प्रधानमंत्री अपरोक्ष में अपने अपराध पर परदा डाल रहे थे। यह भूलकर कि 2 जी स्पेक्ट्रम के मामले में उनकी 'भूल' कोई क्षम्य त्रुटि नहीं बल्कि, जानबूझकर किया गया अपराध है। उन्होंने देश के राजस्व के 1,76,000 करोड़ रुपयों की लूट की छूट दी थी। देश के कुल राजस्व घाटा (3.81 लाख करोड़) की एक तिहाई इस राशि से देश का न केवल राजस्व घाटा कम होता बल्कि धन के अभाव में लंबित विकास की अनेक योजनाओं पर काम शुरू किया जा सकता था। लेकिन सोनिया गांधी और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह दोनों ने वरीयता 'सत्ता' को दी, समझौते कर भ्रष्टाचार को सिंचित किया, भ्रष्ट मंत्री और अधिकारियों को संरक्षण प्रदान किया। सत्ता और सिर्फ सत्ता के लिए किए गए ऐसे समझौते अपराध हैं, अक्षम्य अपराध हैं।
Wednesday, November 17, 2010
क्या अब प्रधानमंत्री इस्तीफा देंगे?
अगर अब भी प्रधानमंत्री कार्यालय या केंद्र सरकार हटाए गए संचार मंत्री ए. राजा का बचाव करती है तब, क्षमा करेंगे, उन्हें सत्ता में बने रहने का कोई अधिकार नहीं है। मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट ने साफ शब्दों में कह दिया कि तथ्यों की मौजूदगी के बावजूद आरोपी मंत्री राजा के खिलाफ जानबूझकर कार्रवाई नहीं की गई। सुब्रमण्यम स्वामी ने राजा के खिलाफ मामला दर्ज किए जाने की अनुमति मांगी थी, जिस पर प्रधानमंत्री कार्यालय 2 साल निष्क्रिय बैठा रहा। सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट के विद्वान न्यायाधीश ने अत्यंत ही तल्खशब्दों में टिप्पणी की है कि स्वामी की शिकायत हवाई नहीं है। क्या इससे यह प्रमाणित नहीं होता कि स्वयं प्रधानमंत्री ने ए. राजा को बचाने की कोशिश की? लगभग 1 लाख 76 हजार करोड़ रुपयों के राजस्व घोटाले के मामले में 2 वर्षों तक चुप्पी स्वयं प्रधानमंत्री को कटघरे में खड़ा कर रही है। मीडिया द्वारा परत-दर-परत मामले को उभारने और संसद में विपक्ष के कड़े आक्रामक रवैये के बाद राजा से इस्तीफा तो ले लिया गया किंतु इससे न तो राजा का अपराध खत्म हो जाता है और न ही मंत्रिमंडल की सामूहिक जिम्मेदारी की अवधारणा के आधार पर प्रधानमंत्री सहित पूरा मंत्रिमंडल जिम्मेदारी से हाथ झटक सकता है। दोषी सभी हैं। प्रधानमंत्री अधिक! चूंकि 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाला सन् 2009 में नए मंत्रिमंडल के गठन के पूर्व ही सार्वजनिक हो चुका था, मनमोहन सिंह ने अपने दूसरे मंत्रिमंडल में पुन: न केवल राजा को शामिल किया बल्कि वही दूरसंचार विभाग भी दे दिया, घोटाले में प्रधानमंत्री बराबर के भागीदार माने जाएंगे। सीबीआई और आयकर विभाग के दस्तावेज इस सवाल का जवाब देंगे। राजा ने कुख्यात 'फिक्सरÓ नीरा राडिया की सहायता ली थी। सीबीआई दस्तावेजों के अनुसार राडिया ने राजा को मंत्री बनवाने और दूरसंचार विभाग ही दिलवाने में दो प्रख्यात पत्रकार बरखा दत्त और वीर सांगवी की मदद ली थी। इनकी कोशिशों के बाद ही राजा दूरसंचार विभाग के मंत्री बने। जाहिर है, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने ऐसे प्रभाव या दबाव में ही राजा को पुन: मंत्री बनाया था। स्वच्छ छवि और किसी भी प्रभाव से इतर काम करने का दावा करनेवाले मनमोहन सिंह अगर सुब्रमण्यम स्वामी की याचिका पर 2 साल चुप बैठे रहे तो क्या अचरज? 2-जी स्पेक्ट्रम जैसा महाघोटाला अगर फलता-पनपता रहा तो निश्चय ही प्रधानमंत्री की जानकारी में ही! प्रधानमंत्री इससे इन्कार नहीं कर सकते। कांग्रेस महासचिव राहुल गंाधी दावा करते रहे हैं कि सरकार में भ्रष्टाचारियों के लिए कोई स्थान नहीं है। भ्रष्टाचार को स्वयं अंजाम देना ही किसी को भ्रष्टाचारी नहीं बनाता, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष इसके मददगार भी भ्रष्टाचारी माने जाएंगे। क्या राहुल गांधी उपलब्ध तथ्यों के आधार पर प्रधानमंत्री से इस्तीफा मांगेगे? ऐसी नैतिकता दिखाने का साहस राहुल में नहीं है। चूंकि मनमोहन सिंह ने केंद्र सरकार को बचाए रखने के लिए पहले मजबूरी में डीएमके के राजा को मंत्री बनाया और बाद में मजबूरी में उन्हें कायम रखा! कांग्रेस के अंदरूनी सूत्र जब यह तर्क देते हैं तो बड़ा दु:ख होता है। सत्ता में बने रहने के लिए भ्र्रष्टाचार के पक्ष में देशहित के साथ समझौता एक राष्ट्रीय अपराध है। डीएमके के सामने कांग्रेस का नतमस्तक होना एक त्रासदी से कम नहीं है। बता दूं कि यह वही कांग्रेस है जिसने 1997 में प्रधानमंत्री इंद्रकुमार गुजराल की सरकार से सिर्फ इसलिए समर्थन वापस ले लिया था, क्योंकि उसमें डीएमके भी शामिल कर ली गई थी। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने तब कहा था कि जो डीएमके पार्टी उनके पति राजीव गांधी की हत्या की जिम्मेदार रही है, उससे युक्त सरकार को समर्थन कैसे दिया जा सकता है? तब सोनिया की बात ठीक लगी थी, लेकिन सत्ता पर कब्जा करने के लिए उसी सोनिया गांधी ने सन् 2004 में अपने पति की कथित हत्यारी डीएमके को सरकार में शामिल कर लिया! सत्ता पाने के लिए किसी भी हद तक समझौते का यह एक अत्यंत ही घृणित उदाहरण है। ऐसे में डीएमके के घोटालेबाज भ्रष्ट मंत्री के पापों पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह परदा डालते रहे तो सत्ता में बने रहने के मजबूरी के कारण ही!
Thursday, November 11, 2010
...तब तो लोकतंत्र ही खत्म हो जाएगा!
एक बार फिर लोकतंत्र आहत हुआ -परिभाषा के विपरित आचरण देखकर! लोकतंत्र के आज के पहरूओं के कृत्य पर लोकतंत्र के शिल्पकार सौ-सौ आंसू बहाने पर मजबूर हैं। ऐसा क्यों, कि लोकतंत्र के तानेबाने में, लोकतांत्रिक संविधान, लोकतांत्रिक व्यवस्था और लोकतांत्रिक सरकार की मौजूदगी तो है किंतु इसके संरक्षक-प्रतिनिधि बेशर्मी से इसकी पूरी अवधारणा को नंगा करने पर तुले है?
ठेठ देहाती शब्दों में कहूँ तो लोकतंत्र के ऐसे कथित जनप्रतिनिधि अब नंगई पर उत्तर आए हैं। प्रतिकार करनेवाले स्वर गुम हैं - हाथ गायब हैं। क्यों उत्पन्न हुई ऐसी स्थिति? क्या पूरा का पूरा देश लोकतंत्र विरोधी आचरण करने वाले ऐसे तत्वों के सामने आत्मसमर्पण कर चुका है? अगर हाँ, तो क्यों और कैसे? विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र हमारे भारत देश के सभी वासियों को चुनौती है कि वे इसका सही समाधानकारक उत्तर ढूँढें। कठीन नहीं, सहज है यह ! घोर व्यक्तिगत स्वार्थ और महत्वकांक्षा का त्याग कर हम ऐसा कर सकते हैं। समाधान के रुप में जो सच सामने आयेगा उसका वरण् कर हम लोकतंत्र के मूल स्वरुप की पुनस्र्थापना कर पायेंगे।
दु:खद रुप से प्रसंग महाराष्ट्र प्रदेश के नये मुख्यमंत्री के चयन का है। भ्रष्टाचार के आरोप में मुख्यमंत्री पद से हटाए गए अशोक चव्हाण की जगह पृथ्वीराजसिंह चव्हाण को 'नियुक्त' किया गया। जी हाँ! नियुक्ति ही हुई उनकी। लोकतांत्रिक प्रक्रिया से उनका निर्वाचन नहीं हुआ। दिखावे के लिए कांग्रेस आलाकमान ने अपने दूत मुंबई भेज विधायकों की इच्छा जानी। लेकिन सभी जानते हैं कि दूतों के आदेश का पालन करते हुए विधायकों ने एक पंक्ति का प्रस्ताव पारित कर कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को मुख्यमंत्री की नियुक्ति के लिए अधिकृत कर दिया। विधायकों की 'सर्वसम्मत इच्छा' के नाम पर पहले से तय पृथ्वीराजसिंह चव्हाण को विधायक दल का नेता अर्थात् मुख्यमंत्री घोषित कर दिया गया। मैं यहां पृथ्वीराज की पात्रता-योग्यता को चुनौती नहीं दे रहा। उपलब्ध इच्छितों और प्रदेश की जरुरत के मापदंड पर वे मुख्यमंत्री के रुप में निश्चय ही खरे साबित होंगे। मेरी पीड़ा और आपत्ति लोकतंात्रिक प्रक्रिया को दी जा रही मौत को लेकर है। क्योंकि इसकी निरंतरता एक दिन लोकतंत्र को ही खत्म कर देगी। क्या देश ऐसा चाहेगा? हरगिज नहीं! फिर क्यों नहीं कांग्रेस सहित अन्य सभी दलों में प्रविष्ट लोकतंत्र विरोधी ऐसी प्रवृत्ति को कुचल दिया जाता? पंडित जवाहरलाल नेहरू और लाल बहादुर शास्त्री के कार्यकाल में ऐसा कभी नहीं हुआ। तब हर प्रदेश के विधायक अपना नेता चुनने के लिए स्वतंत्र होते थे। एक से अधिक इच्छुकों की मौजूदगी में बाजाप्ता लोकतांत्रिक ढंग से मतदान हुआ करते थे। बहुमत प्राप्त व्यक्ति विधायक दल का नेता अर्थात् मुख्यमंत्री चुना जाता था। उपर से कभी भी नेता थोपे नहीं जाते थे। प्रदेश सरकारों की स्थिरता और तब कांग्रेस की लोकप्रियता का एक बड़ा कारण यह भी था। तब और आज में कोई तुलनात्मक अध्ययन करवा लें, कांग्रेस की लोकप्रियता व प्रभाव में क्षरण के ये कारण सामने आ जायेंगे। कोई खुलकर विरोध न करें लेकिन लोकतंत्र विरोधी आचरण को देश की जनता बर्दाश्त नहीं करती। यह तो सचमुच लोकतांत्रिक भावना के विपरित है कि कोई और गैर विधायक, विधायक दल का नेता चुना जाय! वह भी लोकतांत्रिक प्रक्रिया के 'नाटक' के मंचन के साथ!
ठेठ देहाती शब्दों में कहूँ तो लोकतंत्र के ऐसे कथित जनप्रतिनिधि अब नंगई पर उत्तर आए हैं। प्रतिकार करनेवाले स्वर गुम हैं - हाथ गायब हैं। क्यों उत्पन्न हुई ऐसी स्थिति? क्या पूरा का पूरा देश लोकतंत्र विरोधी आचरण करने वाले ऐसे तत्वों के सामने आत्मसमर्पण कर चुका है? अगर हाँ, तो क्यों और कैसे? विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र हमारे भारत देश के सभी वासियों को चुनौती है कि वे इसका सही समाधानकारक उत्तर ढूँढें। कठीन नहीं, सहज है यह ! घोर व्यक्तिगत स्वार्थ और महत्वकांक्षा का त्याग कर हम ऐसा कर सकते हैं। समाधान के रुप में जो सच सामने आयेगा उसका वरण् कर हम लोकतंत्र के मूल स्वरुप की पुनस्र्थापना कर पायेंगे।
दु:खद रुप से प्रसंग महाराष्ट्र प्रदेश के नये मुख्यमंत्री के चयन का है। भ्रष्टाचार के आरोप में मुख्यमंत्री पद से हटाए गए अशोक चव्हाण की जगह पृथ्वीराजसिंह चव्हाण को 'नियुक्त' किया गया। जी हाँ! नियुक्ति ही हुई उनकी। लोकतांत्रिक प्रक्रिया से उनका निर्वाचन नहीं हुआ। दिखावे के लिए कांग्रेस आलाकमान ने अपने दूत मुंबई भेज विधायकों की इच्छा जानी। लेकिन सभी जानते हैं कि दूतों के आदेश का पालन करते हुए विधायकों ने एक पंक्ति का प्रस्ताव पारित कर कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को मुख्यमंत्री की नियुक्ति के लिए अधिकृत कर दिया। विधायकों की 'सर्वसम्मत इच्छा' के नाम पर पहले से तय पृथ्वीराजसिंह चव्हाण को विधायक दल का नेता अर्थात् मुख्यमंत्री घोषित कर दिया गया। मैं यहां पृथ्वीराज की पात्रता-योग्यता को चुनौती नहीं दे रहा। उपलब्ध इच्छितों और प्रदेश की जरुरत के मापदंड पर वे मुख्यमंत्री के रुप में निश्चय ही खरे साबित होंगे। मेरी पीड़ा और आपत्ति लोकतंात्रिक प्रक्रिया को दी जा रही मौत को लेकर है। क्योंकि इसकी निरंतरता एक दिन लोकतंत्र को ही खत्म कर देगी। क्या देश ऐसा चाहेगा? हरगिज नहीं! फिर क्यों नहीं कांग्रेस सहित अन्य सभी दलों में प्रविष्ट लोकतंत्र विरोधी ऐसी प्रवृत्ति को कुचल दिया जाता? पंडित जवाहरलाल नेहरू और लाल बहादुर शास्त्री के कार्यकाल में ऐसा कभी नहीं हुआ। तब हर प्रदेश के विधायक अपना नेता चुनने के लिए स्वतंत्र होते थे। एक से अधिक इच्छुकों की मौजूदगी में बाजाप्ता लोकतांत्रिक ढंग से मतदान हुआ करते थे। बहुमत प्राप्त व्यक्ति विधायक दल का नेता अर्थात् मुख्यमंत्री चुना जाता था। उपर से कभी भी नेता थोपे नहीं जाते थे। प्रदेश सरकारों की स्थिरता और तब कांग्रेस की लोकप्रियता का एक बड़ा कारण यह भी था। तब और आज में कोई तुलनात्मक अध्ययन करवा लें, कांग्रेस की लोकप्रियता व प्रभाव में क्षरण के ये कारण सामने आ जायेंगे। कोई खुलकर विरोध न करें लेकिन लोकतंत्र विरोधी आचरण को देश की जनता बर्दाश्त नहीं करती। यह तो सचमुच लोकतांत्रिक भावना के विपरित है कि कोई और गैर विधायक, विधायक दल का नेता चुना जाय! वह भी लोकतांत्रिक प्रक्रिया के 'नाटक' के मंचन के साथ!
Wednesday, November 10, 2010
अब एक मजबूत प्रधानमंत्री !
शाबाश मनमोहन सिंह, शाबाश....!!! कम-अज-कम (फिलहाल) अब कोई मनमोहन सिंह को एक 'कमजोर प्रधानमंत्री' के रुप में तो संबोधित नहीं ही करेगा। विगत सोमवार को नई दिल्ली में जब मनमोहन सिंह अमेरिकी राष्टपति बराक ओबामा के साथ मीडिया से रू-ब-रू थे तब उनका सख्त दो टूक लहजा एक मजबूत देश के मजबूत प्रधानमंत्री की मौजूदगी को चिन्हित कर रहा था। मनमोहन सिंह के वे आलोचक भी भौचक्क रह गए जो प्रधानमंत्री पर अमेरिका के समक्ष नतमस्तक घुटने टेकने का आरोप लगाते रहे हैं। विनिवेश से लेकर परमाणु उर्जा तथा अनेक राजनीतिक व राजनयिक मामलों में मनमोहन सिंह अमेरिका के सामने गिडगिड़ाते नजर आते हैं। इस पाश्र्व में बराक ओबामा की भारत यात्रा के परिणाम को लेकर आलोचक-समीक्षक बहुत आश्वस्त नहीं थे। लेकिन विगत सोमवार ने एक नए मनमोहन सिंह को पेश किया। मनमोहन सिंह ने जब अमेरिकी राष्ट्रपति की तरफ रुख कर टिप्पणी की कि, ''मिस्टर प्रेसिडेंट, हम भारतीय नौकरी चोरी नहीं करते!'', तब ओबामा ही नही टेलीविजन पर कार्यवाही को देखनेवाला प्रत्येक भारतीय पहले तो स्तब्ध फिर प्रसन्न उछल पड़ा। पाकिस्तान और आतंकवाद के मुद्दे पर भी प्रधानमंत्री ने कह डाला कि आतंकवाद और बातचीत दोनों एकसाथ नहीं चल सकता। निश्चय ही मनमोहन सिंह ने राष्ट्रीय भावना को प्रदर्शित किया। इसमें दो राय नहीं कि भारत पूरे संसार के लिए अब एक अपरिहार्य व बड़ी आर्थिक और सामरिक शक्ति बन चुका है। उसकी उपेक्षा अब संभव नहीं। बावजूद इसके अगर शक्तिशाली अमेरिका चीन तथा तुलनात्मक दृष्टि से कमजोर पाकिस्तार अगर रह-रहकर हमें चुनौती देते हैं तो सिर्फ हमारी बटी हुई ताकत के कारण! केंद्र में खिचड़ी सरकार की जरुरतों के मद्देनजर नीतियों के साथ किए जा रहे समझौते हमें कमजोर बना देते हंै। नितियों की विफलता के लिए स्वयं शासक मिलीजुली सरकार के साझा कार्यक्रमों को दोषी ठहराने में नहीं हिचकते। एक मजबूत व स्थिर केंद्र सरकार की अपरिहार्यता के बावजूद खंडित जनादेश इस जरुरत को पूरा नहीं होने देते। अब समय आ गया है, जब मतदाता इस विडंबना को समझ निर्णायक कदम उठाएं।
Sunday, November 7, 2010
यथास्थिति से संतुष्ट हम!
''अंकल सॅम'' के वारिस ओबामा और क्या करते? भारत आकर वे वही सब कर रहे हैं, कह रहे हैं, जो पहले के अमेरिकी राष्ट्राध्यक्षों ने किया। ओबामा को कोई दोष न दे। उन्होंने तो भारत की धरती पर पांव रखते ही दो टूक शब्दों में घोषणा कर दी कि अमेरीकी हितों के साथ कोई समझौता नहीं किया जा सकता। फिर ओबामा से ऐसी शिकायत क्यों कि उन्होंने एक आतंकवादी राष्ट्र के रूप में पाकिस्तान का नाम क्यों नहीं लिया? सुरक्षा परिषद में भारत की स्थाई सदस्यता पर ओबामा की चुप्पी (अब तक) पर भी सवाल इस आलोक में निरर्थक है। यह सवाल भी फिर बेकार ही है कि मुंबई के ताज होटल पर पाकिस्तानी आतंकवादियों के हमले के सूत्रधार डेविड कोलमन हेडली के मामले में ओबामा लगातार झूठ क्यों बोलते रहे हैं? कोई पूछ कर देख ले, ओबामा सीधे इनके जवाब नहीं देंगे। अमेरिकी नीति उन्हें इसकी इजाजत नहीं देती। अब सवाल यह कि फिर हमने अर्थात भारत ने उनसे ऐसी अपेक्षाएं की ही क्यों की थी? वस्तुत: यह हमारी अमेरिका के प्रति आसक्ति और समर्पण आधारित सोच की परिणति है। हमारा सरल दिल भावनाओं के साथ बह जाता है। बौद्धिक रूप से अभी भी गुलाम हमारा मन-मस्तिष्क सचाई पर परदा डाल देता है। अमेरिका और ओबामा के सच के साथ भी हमने ऐसा ही किया। आतंकवाद के खिलाफ जंग में हमारा साथ देने की घोषणा करनेवाले ओबामा और उनका देश अमेरिका सामरिक कारणों से पाकिस्तान को व्यवहार के स्तर पर नाराज कर ही नहीं सकता। और अब आर्थिक कारणों से वह भारत को भी नाराज करने की स्थिति में नहीं है।
भारत और पाकिस्तान दोनों उसकी मजबूरी बन चुके हैं। अन्यथा, मुंबई के हमलावरों को माफी के लायक नहीं माननेवाले ओबामा पाकिस्तान का नाम लेने से स्वयं को नहीं बचा लेते! अमेरिकी खुफिया एजंसियों द्वारा इस तथ्य की पुष्टि किए जाने के बावजूद कि आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई के नाम पर पाकिस्तान को दी गई आर्थिक एवं सैन्य सहायता का भारत के खिलाफ उपयोग किया गया, ओबामा की अमेरीकी सरकार ने पुन: पाकिस्तान को 2 अरब डालर की सहायता क्यों की?
अब यह सच सामने आ चुका है कि मुंबई पर 26/11 के हमले की योजना को अंजाम दिलवाने वाले हेडली के संबंध में अमेरिकी खुफिया एजंसियों को पूर्व जानकारी थी। अगर अमेरीकी एजंसियां भारत को पहले सतर्क कर देतीं तब आतंकवादी अपने मनसूबे को पूरा करने में सफल नहीं होते। उन्हें पहले ही गिरफ्त में ले लिया जाता। इस तथ्य के उजागर होने के बावजूद ओबामा ऐसा दावा कैसे कर गए कि दोनों देशों की खुफिया एजंसियों के बीच बेहतर तालमेल है? और तो और, अमेरिका अभी भी हेडली को हमें सौंपने को तैयार नहीं है। ठीक उसी प्रकार जैसे भोपाल त्रासदी के मुख्य अभियुक्त वॉरन एंडरसन को वह भारत को सौंपने को तैयार नहीं। अमेरीकी कथनी और करनी में फर्क का इतिहास पुराना है। ओबामा भारत से वापस जायेंगे अमेरीकी हितों का पुलिंदा लेकर! अमेरिका वापस जाकर वे अपने देशवासियों को 'सफल भारत यात्रा' का विवरण दे अपने लिए फूल-हार बटोर लेंगे। अमेरीकी यह जानकर प्रसन्न हो जायेंगे कि उनके राष्ट्रपति ने भारत को यह एहसास करवा दिया कि अमेरिका दुनिया का सबसे शक्तिशाली एवं धनि देश है। भारत सरकार पूर्व की भांति यथास्थिति में संतुष्ट रहेंगी।
भारत और पाकिस्तान दोनों उसकी मजबूरी बन चुके हैं। अन्यथा, मुंबई के हमलावरों को माफी के लायक नहीं माननेवाले ओबामा पाकिस्तान का नाम लेने से स्वयं को नहीं बचा लेते! अमेरिकी खुफिया एजंसियों द्वारा इस तथ्य की पुष्टि किए जाने के बावजूद कि आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई के नाम पर पाकिस्तान को दी गई आर्थिक एवं सैन्य सहायता का भारत के खिलाफ उपयोग किया गया, ओबामा की अमेरीकी सरकार ने पुन: पाकिस्तान को 2 अरब डालर की सहायता क्यों की?
अब यह सच सामने आ चुका है कि मुंबई पर 26/11 के हमले की योजना को अंजाम दिलवाने वाले हेडली के संबंध में अमेरिकी खुफिया एजंसियों को पूर्व जानकारी थी। अगर अमेरीकी एजंसियां भारत को पहले सतर्क कर देतीं तब आतंकवादी अपने मनसूबे को पूरा करने में सफल नहीं होते। उन्हें पहले ही गिरफ्त में ले लिया जाता। इस तथ्य के उजागर होने के बावजूद ओबामा ऐसा दावा कैसे कर गए कि दोनों देशों की खुफिया एजंसियों के बीच बेहतर तालमेल है? और तो और, अमेरिका अभी भी हेडली को हमें सौंपने को तैयार नहीं है। ठीक उसी प्रकार जैसे भोपाल त्रासदी के मुख्य अभियुक्त वॉरन एंडरसन को वह भारत को सौंपने को तैयार नहीं। अमेरीकी कथनी और करनी में फर्क का इतिहास पुराना है। ओबामा भारत से वापस जायेंगे अमेरीकी हितों का पुलिंदा लेकर! अमेरिका वापस जाकर वे अपने देशवासियों को 'सफल भारत यात्रा' का विवरण दे अपने लिए फूल-हार बटोर लेंगे। अमेरीकी यह जानकर प्रसन्न हो जायेंगे कि उनके राष्ट्रपति ने भारत को यह एहसास करवा दिया कि अमेरिका दुनिया का सबसे शक्तिशाली एवं धनि देश है। भारत सरकार पूर्व की भांति यथास्थिति में संतुष्ट रहेंगी।
Friday, November 5, 2010
राहुल गांधी की परिपक्वता?
राहुल गांधी मानते हैं कि राजनीतिक रूप से वे उन लोगों से ज्यादा परिपक्व हैं जो उन्हें 'बच्चाÓ समझते हैं। अगर यह सच है तो उन्हें सलाम। लेकिन अब उनके सामने चुनौती अपने शब्दों को सच साबित करने की है। और यह तभी संभव हो पाएगा जब वे मन, वचन, कर्म से उन चाटुकारों को स्वयं से दूर रखें जिन्हें वे 15 मिनट के अंदर पार्टी से निकाल बाहर करने की घोषणा कर चुके हैं। इसके लिए जरूरी है कि वे स्वाध्याय की प्रवृत्ति को संरक्षित कर स्वयं अध्ययन करें, दूसरों द्वारा बताए-सुझाए गए शब्दों पर न चलें। अपने लिए राजनीतिक परिपक्वता की बात उन्होंने बिहार चुनाव अभियान के दौरान कही। शंका भी यहीं से उठी। इसी चुनाव अभियान के दौरान राहुल एक जगह यह कह बैठे कि ''बिहार के चमकने का श्रेय नीतीश (मुख्यमंत्री) को नहीं जाता है।ÓÓ याद दिला दूं कि बिहार में ही राहुल कुछ दिनों पूर्व यह कह चुके हैं कि ''बिहार में कोई विकास नहीं हो रहा है... प्रदेश पिछड़ा का पिछड़ा है।ÓÓ अब सच क्या है? अगर बिहार में कोई विकास नहीं हुआ, कोई बदलाव नहीं हुआ तब फिर राहुल किस 'चमकÓ के श्रेय से नीतीशकुमार को वंचित करना चाह रहे हैं? साफ है कि बिहार चमक रहा है अर्थात्ï विकास हुआ है- हो रहा है। राहुल गांधी तथ्यों से दूर एक अत्यंत ही अपरिपक्व राजनीतिक की भांति व्यवहार कर रहे हैं। अपने पक्ष में परिपक्वता का उनका दावा खोखला है। मैं यहां उनकी नीयत पर शक नहीं कर रहा। उस सचाई को रेखांकित कर रहा हूं जो नागपाश बन राहुल गांधी को जकड़ चुकी है। उन्हें इससे मुक्त होना पड़ेगा। अन्यथा उन्हें हर अवसर पर शातिर राजनीतिक शर्मिंदा करते रहेंगे। परस्पर विरोधाभासी वक्तव्य दिलाकर उन्हें कटघरे में खड़ा करते रहेंगे। जहां तक बिहार और कांग्रेस के भविष्य का प्रश्न है, राहुल गांधी को पहले सच की खोज करनी पड़ेगी। उस सच की जो चीख-चीखकर कह रहा है कि प्रदेश में अब पार्टी को सर्वमान्य नेतृत्व की जरूरत है। आर्थिक दृष्टि से अत्यंत ही पिछड़ा यह प्रदेश दुखद रूप से जात-पात के जहर का शिकार है। झारखंड के अलग होने के बाद इसकी आय का स्रोत भी लगभग बंद हो चुका था। अगर विभाजन के समय ही प्रदेश में कृषि पर ध्यान दिया जाता तो बिहार डेनमार्क बन अत्यधिक समृद्ध हो जाता। लेकिन अगर ऐसा नहीं हो पाया तो इसका मुख्य कारण सत्ता में व्याप्त भ्रष्टाचार और वहां कांग्रेस का प्रभावहीन हो जाना रहा। उत्तरप्रदेश की तरह कभी बिहार भी कांग्रेस का गढ़ रहा था। किन्तु जातीय राजनीति ने धीरे-धीरे इसे निगल लिया। कांग्रेस नेतृत्व किन्हीं कारणों से जानबूझकर इसे अनदेखा करता गया। परिणाम सामने है। राहुल गांधी तो प्रयास कर रहे हैं किन्तु जनसमर्थन अभी भी कोसों दूर है। राहुल का प्रयास इसलिए फलदायक नहीं हो सकता कि उन्हें यथार्थ से दूर रखा जा रहा है। जातीय समीकरण के नाम पर आधारहीन नेताओं को प्रश्रय दे राहुल गांधी दल को मजबूती नहीं दे पाएंगे। प्रदेश कांग्रेस आमूलचूल परिवर्तन का आग्रही है। राहुल इस सच को भी जान लें कि बिहार कभी भी पूर्वाग्रही नहीं रहा है। उसने हमेशा ईमानदार नेतृत्व का साथ दिया है। भ्रष्टाचार उसे सहन नहीं। कोई आश्चर्य नहीं कि भ्रष्टाचार और कुशासन के खिलाफ जयप्रकाश नारायण ने इसी बिहार की धरती से सफल 'संपूर्ण क्रांतिÓ का संचालन किया था। उनकी क्रांति को राष्ट्रीय समर्थन मिला था और तब इंदिरा गांधी जैसी शक्तिशाली नेता व उनकी पार्टी कांग्रेस को पराजय का मुंह देखना पड़ा था। लेकिन इंदिरा के क्षमा मांग लेने के बाद बिहार ने फिर उनका साथ भी दिया था। परंतु कांग्रेस इस भावना को समझ नहीं पाई। उसने फिर बिहार की उपेक्षा की। नतीजतन आज कांग्रेस वहां अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है। राहुल का लक्ष्य युवाओं को साथ ले पार्टी को पुनर्जीवित करने का है। लेकिन यही काफी नहीं। पहले वे दिल्ली के चाटुकारों से छुटकारा पा प्रदेश स्तर पर सर्वमान्य नेतृत्व ढूंढें- इस मुकाम पर जातीय समीकरण को दूर रखें। प्रदेश का इतिहास गवाह है कि जातीय आधार पर अल्पमत में रहने के बावजूद प्रदेश में समय-समय पर अच्छे कुशल नेतृत्व सामने आ चुके हैं। राहुल इस तथ्य को ध्यान में रख सरलता-सहजता से लोगों के पास जाएं। लोगों के बीच से नेतृत्व तलाशें, लोगों के विश्वास को जीतें। हां, इस बात को हमेशा ध्यान में रखें कि वहां के लोग सरलता को स्वीकार करते हैं, चालबाजी को नहीं। बेहतर हो राहुल तत्काल इसे समझ लें।
साम्प्रदायिकता को हवा न दे कांग्रेस!
देश सावधान हो जाए। विशेषकर युवा पीढ़ी। देश को सांप्रदायिकता की आग में झोंकने और फिर टुकड़े करने की साजिश रची जा रही है। ठीक आजादी के पूर्व की भांति। 'फूट डालो राज करोÓ की ब्रिटिश (कु) नीति को कब्र से निकाल संजीवनी पिलाई जा रही है। इस बार कोई गोरा ब्रिटिश हाथ नहीं, भारतीय हाथ इसे अंजाम दे रहे हैं। धिक्कार है ऐसी भारतीय नस्लों को जो अपनी ही धरती के खिलाफ रचे जा रहे षडय़ंत्र में शामिल हैं- सिर्फ तात्कालिक निज स्वार्थ पूर्ति के लिए। जरा इन घटना विकासक्रमों पर गौर करें। राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन में भारतीय करदाताओं के 70,000 करोड़ रुपये का घोटाला। मुंबई में गठित आदर्श सोसाइटी में आबंटन की प्रक्रिया में सैनिकों की विधवाओं, उनके पीडि़त परिवारों के बदन से उनके हिस्से के कपड़े छिन लेने की शर्मनाक घटना। हजारों करोड़ रुपये का 2-जी स्पेक्ट्रम आदि घोटालों की घटनाओं पर सत्तारूढ़ कांगे्रस का मौन। किन्तु उसी कांग्रेस द्वारा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को आतंकवादी संगठन घोषित करना! अयोध्या की विवादित जमीन (राममंदिर-बाबरी मस्जिद) के मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले की मूल भावना को हाशिये पर रख कांगे्रस द्वारा यह घोषित करना कि मस्जिद विध्वंस करने वालों को माफी नहीं मिल जाती! यह प्रचारित करना कि फैसले से मुसलमानों की भावना आहत हुई है! यह भी प्रचारित करना कि उच्च न्यायालय का दरवाजा खुला है! जब फैसले को पूरा देश सराह रहा था, कांगे्रस द्वारा फैसले के खिलाफ मुस्लिम संगठनों को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती देने के लिए उकसाना! और अब जबकि पूरा देश घोर भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी कांगे्रस नेतृत्व से दोषियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की अपेक्षा कर रहा था, उन्हें दंडित किए जाने की प्रतीक्षा कर रहा था, कांग्रेस नेतृत्व ने इन सभी पापों पर परदा डाल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को आतंकवादी और भारतीय जनता पार्टी को सांप्रदायिक साबित करने की मुहिम छेड़ दी! लानत है ऐसी सोच पर और लानत है ऐसे तत्वों पर। बात इतनी सरल भी नहीं। अमीरों के लिए एक इंडिया और गरीबों के लिए दूसरा भारत की बातें करने वाले कांगे्रस महासचिव राहुल गांधी बाबर से लेकर कलावती तक की बातें करते हैं, साथ ही भारत में प्रतिबंधित आतंकवादी संगठन सिमी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को तराजू के एक ही पलड़े में रख देते हैं। गांव-गांव में पहुंचकर गरीबों की सुध लेने का ढोंग करते हैं, ट्रेन के साधारण डिब्बे में यात्रा कर स्वयं को गरीब भारत का हिस्सा बताने की कोशिश करते हैं। किन्तु जब बात राष्ट्रीय एकता-अखंडता की आती है तब सांप्रदायिकता और आतंकवाद उनके सिर चढ़ बोलने लगता है। यह देश के लोकतंत्र के खिलाफ एक गहरी साजिश है। केंद्रीय सत्ता का नेतृत्व करने वाली कांग्रेस नहीं चाहती कि राष्ट्रीय स्तर पर उसका कोई विकल्प तैयार हो। विकल्प के रूप में केंद्रीय सत्ता का नेतृत्व कर चुकी भारतीय जनता पार्टी को जमींदोज करने की चाल चली जा रही है। लोकतंत्र में स्वस्थ राजनीतिक प्रतिस्पर्धा का तो स्वागत है किन्तु अलोकतांत्रिक देश विरोधी हथकंडों का कदापि नहीं। अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की विगत मंगलवार को हुई बैठक की कार्यवाही हर दृष्टि से देश के लोकतांत्रिक बुनियादी ढांचे को आहत करने वाली है। अयोध्या पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले के बाद सांप्रदायिक सौहाद्र्र के पक्ष में देश ने जो एकजुटता दिखाई थी, उसे तोडऩे की कोशिश कर रही है कांगे्रस। क्या यह वही कांगे्रस है जिसे आगे कर महात्मा गांधी ने भारत को अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त कराया था? क्या यह वही कांग्रेस है जिसने डा. राजेंद्र प्रसाद जैसा प्रथम राष्ट्रपति, पं. जवाहरलाल नेहरू जैसा प्रथम प्रधानमंत्री, सरदार वल्लभ भाई पटेल जैसा गृहमंत्री और डा. भीमराव आंबेडकर जैसा संविधान का शिल्पकार दिया था? राजनीतिक दल के रूप में सत्ता प्राप्ति के लिए होड़ तो वह करे किन्तु सांप्रदायिकता और अलगाववाद की नाव पर चढ़ सत्ता की वैतरणी पार करने की कोशिश वह न करे।
Subscribe to:
Posts (Atom)