सिनेमा हॉल में बहुविवादित 'उड़ता पंजाब' देख रही एक 23 वर्षीय युवती बीच में ही हॉल में उठ खड़ी हुई और तेजी से बाहर निकल गई। बाहर अपने मोबाइल से उसने अपनी एक सहेली को फोन किया, '.... ओह इतनी गालियां..... ऐसी-ऐसी गालियां... ऐसी फिल्म को प्रदर्शन की अनुमति किसने दी....? बर्दाश्त नहीं हुआ, मैं हॉल से बाहर आ गई...'
'उड़ता पंजाब' पर वर्तमान युवा पीढ़ी की यह प्रतिक्रिया चिंतन का विषय है। स्वयं को बुद्धिजीवी, चिंतक, लेखक व समाज सुधारक बतानेवाले उपन्यासकार चेतन भगत फिल्म के प्रति इस नकारात्मक प्रतिक्रिया को नजरअंदाज करेंगे, किंतु सच यही है। आश्चर्य है कि चेतन भगत ने फिल्म को सामाजिक व सराहनीय चिन्हित किया है। एक चिंतक के रूप में चेतन भगत के शब्दों को समाज का एक वर्ग स्वीकार भी कर सकता है, किंतु जब वे 'उड़ता पंजाब' के बहाने सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष पहलाज निहलानी को विदा करने की मांग करते हैं तब उनकी घोर पूर्वाग्रही, ओछी, निम्न मानसिकता चिन्हित होती है। पहलाज निहलानी को 'कु-संस्कारी चमचा' व अयोग्य बता कर चेतन भगत ने वस्तुत: अब तक की अपनी अर्जित उपलब्धियों पर बड़ा प्रश्न चिन्ह लगा दिया है।
एक हिन्दी दैनिक में 'निहलानी को इसलिए विदा करें' शीर्षक के अंतर्गत चेतन भगत ने निहायत ही भद्दे तरीके से अपनी पूर्वाग्रही सोच को प्रस्तुत करते हुए निहलानी को निकम्मा, नालायक साबित करने की कोशिश की है। विरोधाभास से भरा चेतन का आलेख निहलानी को तो नहीं स्वयं चेतन के ही 'चमचा' होने की चुगली कर रहा है। युवाओं के समक्ष अश्लीलता परोस पूरे समाज को भ्रष्ट करने सक्रिय गुट का चमचा! निहलानी को अयोग्य और नासमझ बतानेवाले चेतन भगत इस तथ्य को भूल गए प्रतीत होते हैं कि निहलानी उस समय से फिल्मी दुनिया में मौजूद हैं जब चेतन का जन्म भी नहीं हुआ होगा। अपने उपन्यासों और उनके द्वारा लिखित कहानियों पर बनी एक जोड़ी फिल्म से चर्चा में आए चेतन भगत यह न भूलें कि 'बेस्ट सेलर' के अपने हथकंडे होते हैं, वर्ग विशेष की पसंद का पाश्र्व होता है। किसी जमाने में कुशवाहा 'कांत' और प्यारेलाल 'आवारा' की पुस्तकें भीं 'बेस्ट सेलर' हुआ करती थीं। 'महिमामंडन' के आवरण में सच पर पर्दा नहीं डाला जा सकता। झूठ कभी न कभी अनावृत्त हो ही जाता है। चेतन भगत कोई अपवाद नहीं।
चेतन भगत बताते हैं 'कि उड़ता पंजाब' की काफी सराहना हुई और 'बॉक्स ऑफिस' पर भी प्रदर्शन अच्छा रहा। बिलकुल गलत! सचाई कुछ ओर है। पंजाब और दिल्ली को छोड़कर पूरे देश में 'उड़ता पंजाब' एक 'फ्लॉप' फिल्म साबित हुई। पंजाब और दिल्ली में मिली आंशिक सफलता का कारण 'सेंसर बोर्ड' की आपत्तियों के बाद निर्माता अनुराग कश्यप द्वारा आक्रामक ढंग से प्रचार करना रहा। 'सेंसर' की आपत्तियों वाले दृश्यों को अनुराग कश्यप ने प्रचारित कर पंजाब और सटे दिल्ली के दर्शकों के दिलों में उत्सुकता जागृत कर दी थी। फिल्म प्रदर्शन के बाद यहां के लोग इसी उत्सुकता से प्रेरित हो वास्तविकता जानने के लिए आरम्भ के तीन दिनों शुक्रवार, शनिवार और रविवार को सिनेमा हॉल में पहुंचे। किंतु सोमवार से पंजाब और दिल्ली में भी कुछ दर्शक ही सिनेमा हाल में पहुंचे। 'सक्सेस पार्टी' आयोजित कर किसी फिल्म को 'सक्सेसफुल' नहीं बनाया जा सकता। और हां, चेतन की जानकारी के लिए कि पड़ोसी पाकिस्तान में भी लगभग 100 'कट्स' के बाद उड़ता पंजाब को प्रदर्शन की अनुमति मिली है। आश्चर्य है कि चेतन भगत इस सचाई से मुंह मोड़ गए।
भगत 'प्रिय सिनेमा' और अभिव्यक्ति की आजादी के प्रति इंसाफ की दलील देते हैं। वे भूल गए कि 'प्रिय सिनेमा' का अर्थ हॉलीवुड नहीं होता। अभिव्यक्ति की आजादी भद्दे द्विअर्थी संवाद और अश्लील दृश्य परोसना नहीं होता। अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर हम समाज, विशेषकर युवा वर्ग के मन - मस्तिष्क में अश्लील गालियों और द्विअर्थी संवादों का शब्दकोश तैयार नहीं कर सकते। चेतन भगत जी, अभिव्यक्ति की आजादी देश, समाज को 'संस्कारी' बनाने के लिए प्रयुक्त होती है न कि 'कु-संस्कारी'।
पहलाज निहलानी को स्वयंभू संस्कारी, मोदी चमचा और 'राजनीति की सीढिय़ां' चढऩे के उत्सुक व्यक्ति के रूप में प्रस्तुत कर चेतन भगत ने खुद को 'कु-संस्कारी' घोषित कर डाला है। भारत देश 'संस्कारी' है और 'संस्कारी' ही बना रहेगा। अनुराग कश्यप सरीखे लोग चाहे जितनी कोशिश कर लें, कानून की कमजोरियों का लाभ उठा अपनी मनमानी कर लें, देश का बहुमत ऐसे लोगों को हमेशा नकारता रहेगा। आश्चर्य है कि चेतन भगत इस तथ्य को भूल गए कि पहलाज निहलानी सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष के रूप में मौजूदा 'सिनेमेटोग्राफ एक्ट 1952' में निर्धारित नियमों व दिशा-निर्देश के अनुरूप फैसले लेते रहे। क्या किसी अध्यक्ष को इससे इतर फैसले लेने का अधिकार है? कानून सम्मत जायज फैसलों के कारण निहलानी को 'संस्कारी' बता व्यंग करने वाले निश्चय ही परम्परागत 'कु-संस्कारी' होंगे। स्वयं चेतन भगत आलोच्य आलेख में कहते हैं कि '' मौजूदा सिनेमेटोग्राफ एक्ट 1952 में ऐसी भाषा है जो लगभग किसी भी फिल्म को नैतिकता के नाम पर प्रतिबंधित कर सकती है..... इसमें नैतिक मानदंडों को ठीक-ठीक परिभाषित भी नहीं किया गया है। '' फिर निहलानी दोषी कैसे हो गए? 'राजनीति की सीढिय़ां' चढऩे संबंधी चेतन भगत का आरोप भी हास्यास्पद है। निहलानी 1989 से भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ता के रूप में जुड़े रहे हैं। नरेंद्र मोदी की कार्यशैली व व्यक्तित्व के प्रशंसक निहलानी तब से हैं, जब मोदी मुख्यमंत्री भी नहीं बने थे। उनके नेतृत्व में विश्वास प्रकट करते हुए ही उन्होंने 2014 के लोकसभा चुनाव के पूर्व हर-घर मोदी, घर-घर मोदी नामक एक 'वीडियो' बनाया था। 'मेरा देश है महान, मेरा देश है जवान , भारत को स्वच्छ बनाना है, जो सपना देखा बापू-मोदी ने उसे मिलजुलकर पूरा करना है।' संदेश वाले इस वीडियो को मशहूर फिल्म 'प्रेमरतन धन पायो' के साथ जोड़ा गया था, जिसकी पूरे देश में भूरि-भूरि प्रशंसा की गई। 'वीडियो' में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कार्यों की सराहना की गई थी। निहलानी ने ये सब किसी राजनीतिक पद प्राप्ति की लालसा से नहीं किया। अगर ऐसी इच्छा होती तो जानकार पुष्टि करेंगे कि पहलाज निहलानी बहुत पहले ही 'पद' प्राप्त कर सकते थे। चेतन भगत की जानकारी के लिए बता दूं कि, सन 2003 में ही जब रविशंकर प्रसाद सूचना प्रसारण मंत्री थे तब निहलानी को 'पद' की पेशकश की गई थी। निहलानी ने ठुकरा दिया था।
चेतन भगत इन वजहों से निहलानी को सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष पद से हटा दने की मांग करते समय भूल जाते हैं कि इससे भाजपा की छवि धूमिल नहीं हुई बल्कि, आभामंडल में इजाफा हुआ है। 'चमचा' प्रसंग' का उल्लेख कर चेतन भगत ने स्वयं को एक बुद्धिहीन चिंतक के रूप में प्रस्तुत कर डाला है। जिस साक्षात्कार में पहलाज निहलानी को ऐसा कहते हुए दिखलाया गया, क्या उसमें साफ-साफ नहीं दिखता कि 'चमचा' शब्द निहलानी के मुंह में जबरिया डाला गया? महान बुद्धिजीवी, 'बेस्ट सेलर', उपन्यासों के लेखक चेतन भगत जब शब्द के साथ बलात्कार करते दिखें तब निश्चय ही उनकी भत्र्सना की जानी चाहिए। चेतन भगत लिखित कहानियों पर बनी फिल्मों की कहानियां हीं वस्तुत: संदेहों के घेरे में हैंं। उनकी कहानियों पर करन जौहर ने जो फिल्में बनाईं, जानकार बताते हैं कि वे पहले ही बनीं फिल्मों यथा 'एक दूजे के लिए' व 'पहली झलक' से चोरी की गईं थीं। उनके प्रकाशित उपन्यासों की कथावस्तु भी, जानकार बताते हैं कि बाहर से 'उड़ाई' गई थी। ऐसे चेतन भगत जिसकी विश्वसनीयता स्वयं संदेहों के घेरे में हो पहलाज निहलानी जैसे व्यक्तित्व पर कीचड़ उछालता है तो, उसके छींटे स्वाभाविक रूप से स्वयं उनके चेहरे पर पड़ेंगे। ऐसा होना शुरू भी हो गया है। हां, इस पूरे प्रसंग में चेतन भगत ने समाधान के रूप में 'सिनेमेटोग्राफ एक्ट' में संशोधन का जो सुझाव दिया है उसे मेरे अतिरिक्त अन्य लोग भी स्वीकार करेंगे।