एफडीआई (प्रत्यक्ष विदेशी निवेश) एक ऐसा अभिशापित शब्द है जिसके उच्चारण के साथ ही नकारात्मक बोध पैदा हो जाता है। इसके लिए जिम्मेदार स्वयं सत्ता में रह चुकी कांग्रेस और आज सत्ता में मौजूद भाजपा रही है। हम इसे एक विडम्बना के रूप में ही लेंगे कि देश के संपूर्ण विकास की रीढ़ आर्थिक विकास को राजनीतिक घालमेल में शामिल कर संदिग्ध बनाया जा रहा है। ऐसा नहीं होना चाहिए। विकास की राजनीति और विकास पर राजनीति के अंतर को समझना होगा। एफडीआई के मुद्दे पर यह और भी जरूरी है।
पिछले दिनों केंद्र सरकार ने रक्षा, उड्डयन, खाद्य सामग्री व 'सिंगल ब्रांड रिटेल' आदि क्षेत्रों में 100 प्रतिशत तक विदेशी निवेश को मंजूरी दे पूरे देश में एक नई बहस छेड़ दी है। बहस इसकी योग्यता से अलग राजनीतिक अधिक है। चूंकि केंद्र में पूर्व की कांग्रेस नेतृत्व की संप्रग सरकार ने जब पहल करते हुए इन क्षेत्रों में आंशिक प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की अनुमति दी थी तब आज की सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी ने कड़ा विरोध प्रकट किया था। विरोध के तेवर तीखे थे। स्वयं नरेंद्र मोदी ने जो तब गुजरात के मुख्यमंत्री थे, टिप्पणी की थी 'कांग्रेस पूरे देश को विदेशियों को सौंप देना चाहती है।' कद्दावर भाजपा नेता मुरली मनोहर जोशी ने कहा था कि कांग्रेस पर अमेरिका, जर्मनी और फ्रांस का दबाव है। वर्तमान केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली ने तो आगे बढ़कर घोषणा कर डाली थी कि 'जीवन की आखिरी सांस तक हम एफडीआई का विरोध करते रहेंगे।' इस पाश्र्व में विपक्ष का हमला स्वाभाविक है। किंतु यह राजनीति है। यर्थाथ यह कि देश को निवेश चाहिए। तथ्य यह भी कि कांग्रेस, भाजपा दोनों प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के पक्ष में हैं। आंशिक निवेश का कभी विरोध करनेवाली भाजपा आज अगर संपूर्ण निवेश की पक्षधर है तब निश्चय ही इसका कारण देश की वर्तमान जरूरतें हैं। वर्तमान परिस्थितियां हैं। वैश्विक अर्थव्यवस्था के मद्देनजर आर्थिक मोर्चे पर स्थिरता के लिए जूझ रहे भारत को विदेशी निवेश की जरूरत है, इस सत्य से इंकार नहीं किया जा सकता। अगर देर से ही सही, भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने इस सत्य को स्वीकार कर प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के पक्ष में फैसला लिया है तब बेहतर होगा कि इसकी आलोचना न कर सकारात्मक पक्ष को देशहित में कैसे उपयोग में लाया जाए, इस पर बहस हो। आलोचना के लिए आलोचना और राजनीति के लिए आलोचना से हमें बचना चाहिए।
प्रधानमंत्री ने इस निर्णय को 2015 के बाद दूसरा सबसे बड़ा आर्थिक सुधार निरूपित किया है तो बिलकुल ठीक ही है। सरकार का यह दावा भी गलत नहीं कि प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को पूरी तरह उदार बना देने से भारत में रोजगार के नये-नये अवसर पैदा होंगे। हां, रक्षा क्षेत्र में शत-प्रतिशत निवेश की अनुमति को राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा बताए जाने को पूर्णत: निराधार भी नहीं बताया जा सकता। सुरक्षा की दृष्टि से अत्यंत ही संवेदनशील इस क्षेत्र में विदेशी प्रवेश पर शंका स्वाभाविक है। किंतु, यह नहीं भूला जाना चाहिए कि भारत न तो कमजोर है और न ही बुद्धिहीन कि ऐसे खतरों से निपट नहीं सकता। इस पर आवश्यक सावधानी रखने के प्रति भी सरकार ने निर्णय के पूर्व अवश्य विचार-विमर्श किया होगा। सरकार आवश्यक सावधानियां बरतेगी, ऐसी आशा की जा सकती है। इस बात की भी सावधानी बरती जानी चाहिए कि निवेश करनेवाली विदेशी कम्पनियां कहीं 'मालिक' बन रोजगार के माध्यम से हमारे युवाओं को सिर्फ 'नौकर' न बना डालें।
पिछले दिनों केंद्र सरकार ने रक्षा, उड्डयन, खाद्य सामग्री व 'सिंगल ब्रांड रिटेल' आदि क्षेत्रों में 100 प्रतिशत तक विदेशी निवेश को मंजूरी दे पूरे देश में एक नई बहस छेड़ दी है। बहस इसकी योग्यता से अलग राजनीतिक अधिक है। चूंकि केंद्र में पूर्व की कांग्रेस नेतृत्व की संप्रग सरकार ने जब पहल करते हुए इन क्षेत्रों में आंशिक प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की अनुमति दी थी तब आज की सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी ने कड़ा विरोध प्रकट किया था। विरोध के तेवर तीखे थे। स्वयं नरेंद्र मोदी ने जो तब गुजरात के मुख्यमंत्री थे, टिप्पणी की थी 'कांग्रेस पूरे देश को विदेशियों को सौंप देना चाहती है।' कद्दावर भाजपा नेता मुरली मनोहर जोशी ने कहा था कि कांग्रेस पर अमेरिका, जर्मनी और फ्रांस का दबाव है। वर्तमान केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली ने तो आगे बढ़कर घोषणा कर डाली थी कि 'जीवन की आखिरी सांस तक हम एफडीआई का विरोध करते रहेंगे।' इस पाश्र्व में विपक्ष का हमला स्वाभाविक है। किंतु यह राजनीति है। यर्थाथ यह कि देश को निवेश चाहिए। तथ्य यह भी कि कांग्रेस, भाजपा दोनों प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के पक्ष में हैं। आंशिक निवेश का कभी विरोध करनेवाली भाजपा आज अगर संपूर्ण निवेश की पक्षधर है तब निश्चय ही इसका कारण देश की वर्तमान जरूरतें हैं। वर्तमान परिस्थितियां हैं। वैश्विक अर्थव्यवस्था के मद्देनजर आर्थिक मोर्चे पर स्थिरता के लिए जूझ रहे भारत को विदेशी निवेश की जरूरत है, इस सत्य से इंकार नहीं किया जा सकता। अगर देर से ही सही, भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने इस सत्य को स्वीकार कर प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के पक्ष में फैसला लिया है तब बेहतर होगा कि इसकी आलोचना न कर सकारात्मक पक्ष को देशहित में कैसे उपयोग में लाया जाए, इस पर बहस हो। आलोचना के लिए आलोचना और राजनीति के लिए आलोचना से हमें बचना चाहिए।
प्रधानमंत्री ने इस निर्णय को 2015 के बाद दूसरा सबसे बड़ा आर्थिक सुधार निरूपित किया है तो बिलकुल ठीक ही है। सरकार का यह दावा भी गलत नहीं कि प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को पूरी तरह उदार बना देने से भारत में रोजगार के नये-नये अवसर पैदा होंगे। हां, रक्षा क्षेत्र में शत-प्रतिशत निवेश की अनुमति को राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा बताए जाने को पूर्णत: निराधार भी नहीं बताया जा सकता। सुरक्षा की दृष्टि से अत्यंत ही संवेदनशील इस क्षेत्र में विदेशी प्रवेश पर शंका स्वाभाविक है। किंतु, यह नहीं भूला जाना चाहिए कि भारत न तो कमजोर है और न ही बुद्धिहीन कि ऐसे खतरों से निपट नहीं सकता। इस पर आवश्यक सावधानी रखने के प्रति भी सरकार ने निर्णय के पूर्व अवश्य विचार-विमर्श किया होगा। सरकार आवश्यक सावधानियां बरतेगी, ऐसी आशा की जा सकती है। इस बात की भी सावधानी बरती जानी चाहिए कि निवेश करनेवाली विदेशी कम्पनियां कहीं 'मालिक' बन रोजगार के माध्यम से हमारे युवाओं को सिर्फ 'नौकर' न बना डालें।
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