''पत्रकारों के पैरों के छालों से आज का इतिहास लिखा जाएगा।''
महादेवी वर्मा के इन शब्दों में निहित विश्वास और अपेक्षा स्पष्टत: दृष्टिगोचर है। इन शब्दों के माध्यम से महादेवी वर्मा ने पत्रकारों से जो अपेक्षा व्यक्त की थी, क्या वे पूरी हुईं? विगत 30 मई को हिंदी पत्रकारिता दिवस पर यह सवाल खड़ा हुआ। वैसे देश के अधिकांश पत्रकारों, मीडिया समूहों और संस्थाओं को इस दिवस की याद नहीं आई। जिन लोगों ने याद रखा वे चिंतन की मुद्रा में अवश्य आए। आतिशी शीशे लेकर वे पत्रकारों के पैरों के छालों को ढूंढने निकले। वैसे छालों को जिनसे महादेवी वर्मा ने आज का इतिहास लिखे जाने की कल्पना की थी। खोजी निराश हुए। छालेयुक्त पैरोंवाले पत्रकार तो नहीं मिले, 'ब्रांडेड' जूतों से सुरक्षित पैरधारक पत्रकार ही उन्हें मिल पाए। हो सकता है कहीं दूर-दराज स्थल में कोई 'अपवाद' मौजूद हो, किंतु खोजी वहां पहुंच नहीं पाए। फिर महादेवी वर्मा की इच्छा की पूर्ति करने वाले इतिहास लेखक करें तो क्या करें?
तो क्या सचमुच पत्रकार और पत्रकारिता इतिहास प्रेरक के योग्य नहीं बन पा रहे? पूर्णत: अविश्वसनीय बन चुके हैं? इतने सुविधाभोगी बन गए हैं कि शपथपूर्वक उनकी ईमानदारी को उद्धृत कर इतिहास में दर्ज करने योग्य कोई नाम न मिले? हां, कड़वा सच यही है! कतिपय राजनेता व अन्य आज अगर पत्रकारों और पत्रकारिता को कोठे पर बैठा देखने लगे हैं, तो दोष इनकी आंखों का नहीं है। दोष हमारे चरित्र का है, हमारे कृत्य का है। पाठकीय अपेक्षा के बिल्कुल उलट आज हम जब सुविधा के सागर में तैरते हुए सत्ता व व्यवस्था का कल्पित स्तुतिगान करते रहेंगे तो हम पर कोई विश्वास करे तो कैसे? भ्रष्ट राजनेता, उद्योगपति व नौकरशाह तो चाहेंगे ही कि हमारी सफेद पोशाक को दागदार बना हमें मुंह छुपाने को विवश कर दें। तभी उनकी सत्ता सुरक्षित रह पाएगी, विस्तार होता रहेगा। पहले भी ऐसा होता था, किंतु एक सीमा के अंदर। आज यह एक विस्तारित कु-प्रथा के रूप में सर्वत्र उपस्थित है। हजारों, लाखों, करोड़ों के भ्रष्टाचार पर परदा डालने के लिए सैकड़ा में करोड़ों उपलब्ध कर गौरवशाली पत्रकारिता के पवित्र मंदिर को भ्रष्ट किया जाना अब कोई आश्चर्य पैदा नहीं करता। भ्रष्टाचार के अनेक मामलों में पत्रकारिता के बड़े-बड़े हस्ताक्षर बेनकाब हो चुके हैं। टेलीविजन पत्रकारिता के उदय के साथ इस रोग ने कैंसर का रूप ले लिया है। अब मामला सिर्फ संपादकीय कक्ष तक सीमित नहीं है। इनके ऊपर प्रबंधन की बड़ी मांग हॉवी है। संपादकीय कक्ष को पंगु बना प्रबंधन पत्रकारिता को बाजारू बनाने में हिचकता नहीं। स्वार्थ और लोभवश संपादक और उसके अधीनस्थ प्रबंधन के इस खेल के भागीदार बन जाते हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि आज की पत्रकारिता अपने मूल उद्देश्य से भटक गई है। सूचना अर्थात सही खबर और निष्पक्ष विश्लेषण की जगह प्रायोजित खबरें और पक्ष-विशेष के लाभार्थ तैयार विश्लेषण प्रस्तुत किए जाने लगे हैं। निश्चय ही यह पाठकों, समाज व देश के साथ छल है, विश्वासघात है।
समाचार पत्रों -पत्रिकाओं में इन दिनों जो घटिया सामग्री परोसी जा रही है, उसके लिए प्रबंधन और उसकी हां में हां मिलाने वाला संपादकीय कक्ष पाठकीय रुचि और मांग की दुहाई देता है। इस तर्क को स्वीकार नहीं किया जा सकता । सच तो यह है कि अच्छी, स्वस्थ पाठकीय रुचि जागृत करने की जिम्मेदारी भी समाचार पत्रों-पत्रिकाओं पर है। पाठकीय रुचि का बहाना तो वे तत्व बनाते हैं जो एक सर्वथा अरुचिकर भ्रष्ट समाज की स्थापना के पक्षधर हैं। अपनी तुच्छ स्वार्थसिद्धि के लिए वे पूरे समाज को भ्रष्ट देखना चाहते हैं। पिछले दिनों एक बड़े अंग्रेजी दैनिक के स्थानीय संपादक यह कहते हुए पाए गए थे कि, 'हां! हम पाठकों को 'करप्ट' करने के लिए आए हैं।' इस मानसिकता का न केवल विरोध हो बल्कि इस पर पूर्णविराम सुनिश्चित किया जाना चाहिए। पाठकों की रुचि के सवाल पहले भी खड़े होते रहे हैं। लेकिन समाज-देश के प्रति समर्पित संपादकों ने इस तर्क पर कभी भी समझौते नहीं किए। 19 वीं शताब्दी में पंडित बनारसी दास चतुर्वेदी के संपादन में 'विशाल भारत' ने जो उंचाइयां प्राप्त की थी, जो पाठकीय स्वीकृति उसे मिली थी,वह इतिहास के पन्नों में दर्ज है। पंडित चतुर्वेदी ने कथित पाठकीय रुचि के तर्क की चर्चा करते हुए एक बार लिखा था कि,'पाठकों की रुचि को प्रधानता मैंने कभी नहीं दी, सात्विक मानसिक भोजन तैयार करना ही हम लोगों ने अपना परम कर्तव्य समझा। पाठकों को यह रुचता है या नहीं, इसे हमने कभी सामने नहीं रखा। और इसीलिए 'विशाल भारत' को सस्ती लोकप्रियता कभी नहीं मिली। 'विशाल भारत' ने गंभीर पाठकों और गंभीर लेखकों को सदैव आकर्षित किया।' निश्चय ही पंडित चतुर्वेदी का आशय 'अरूचिकर' रूचि से रहा होगा। यह सस्ती लोकप्रियता ही है, जिसे अर्जित कर पत्र-पत्रकार व संचालक स्वयं को महिमामंडित करते हैं। खेद है कि वे सस्तेपन की लज्जा से उठनेवाली दुर्गंध को नजरअंदाज कर देते हैं। ऐसे में अगर पत्रकारीय वातावरण दुर्गंधमय हो जाए तो आश्चर्य क्या?
विलंब अभी भी नहीं हुआ। आधुनिक पत्रकारिता के नाम पर आधुनिकता के लबादा धारक सचेत हो जाएं। पतन की गहराई में पहुंचने के बावजूद आज भी देश-समाज पत्र और पत्रकारों की ओर आशाभरी दृष्टि लगाए बैठा है। उनके विश्वास के साथ कोई घात न हो, कोई छल न हो।
आधुनिक पत्रकारिता के मायने बदल जाने की दुहाई देनेवाले ये न भूलें कि पत्रकारिता के मूल्यों को कोई बदल नहीं सकता। वह अक्षुण्ण है। इसे रौंदने की मंशा रखनेवाले अपनी तात्कालिक सफलता के गुमान में न रहें। अंतत: वे गिरेंगे, नष्ट हो जाएंगे। आधुनिक पत्रकारिता, आधुनिकता का वरण तो करेगी किंतु उसके सकारात्मक पहलुओं को, विद्रूप स्वरूप को कदापि नहीं!
महादेवी वर्मा के इन शब्दों में निहित विश्वास और अपेक्षा स्पष्टत: दृष्टिगोचर है। इन शब्दों के माध्यम से महादेवी वर्मा ने पत्रकारों से जो अपेक्षा व्यक्त की थी, क्या वे पूरी हुईं? विगत 30 मई को हिंदी पत्रकारिता दिवस पर यह सवाल खड़ा हुआ। वैसे देश के अधिकांश पत्रकारों, मीडिया समूहों और संस्थाओं को इस दिवस की याद नहीं आई। जिन लोगों ने याद रखा वे चिंतन की मुद्रा में अवश्य आए। आतिशी शीशे लेकर वे पत्रकारों के पैरों के छालों को ढूंढने निकले। वैसे छालों को जिनसे महादेवी वर्मा ने आज का इतिहास लिखे जाने की कल्पना की थी। खोजी निराश हुए। छालेयुक्त पैरोंवाले पत्रकार तो नहीं मिले, 'ब्रांडेड' जूतों से सुरक्षित पैरधारक पत्रकार ही उन्हें मिल पाए। हो सकता है कहीं दूर-दराज स्थल में कोई 'अपवाद' मौजूद हो, किंतु खोजी वहां पहुंच नहीं पाए। फिर महादेवी वर्मा की इच्छा की पूर्ति करने वाले इतिहास लेखक करें तो क्या करें?
तो क्या सचमुच पत्रकार और पत्रकारिता इतिहास प्रेरक के योग्य नहीं बन पा रहे? पूर्णत: अविश्वसनीय बन चुके हैं? इतने सुविधाभोगी बन गए हैं कि शपथपूर्वक उनकी ईमानदारी को उद्धृत कर इतिहास में दर्ज करने योग्य कोई नाम न मिले? हां, कड़वा सच यही है! कतिपय राजनेता व अन्य आज अगर पत्रकारों और पत्रकारिता को कोठे पर बैठा देखने लगे हैं, तो दोष इनकी आंखों का नहीं है। दोष हमारे चरित्र का है, हमारे कृत्य का है। पाठकीय अपेक्षा के बिल्कुल उलट आज हम जब सुविधा के सागर में तैरते हुए सत्ता व व्यवस्था का कल्पित स्तुतिगान करते रहेंगे तो हम पर कोई विश्वास करे तो कैसे? भ्रष्ट राजनेता, उद्योगपति व नौकरशाह तो चाहेंगे ही कि हमारी सफेद पोशाक को दागदार बना हमें मुंह छुपाने को विवश कर दें। तभी उनकी सत्ता सुरक्षित रह पाएगी, विस्तार होता रहेगा। पहले भी ऐसा होता था, किंतु एक सीमा के अंदर। आज यह एक विस्तारित कु-प्रथा के रूप में सर्वत्र उपस्थित है। हजारों, लाखों, करोड़ों के भ्रष्टाचार पर परदा डालने के लिए सैकड़ा में करोड़ों उपलब्ध कर गौरवशाली पत्रकारिता के पवित्र मंदिर को भ्रष्ट किया जाना अब कोई आश्चर्य पैदा नहीं करता। भ्रष्टाचार के अनेक मामलों में पत्रकारिता के बड़े-बड़े हस्ताक्षर बेनकाब हो चुके हैं। टेलीविजन पत्रकारिता के उदय के साथ इस रोग ने कैंसर का रूप ले लिया है। अब मामला सिर्फ संपादकीय कक्ष तक सीमित नहीं है। इनके ऊपर प्रबंधन की बड़ी मांग हॉवी है। संपादकीय कक्ष को पंगु बना प्रबंधन पत्रकारिता को बाजारू बनाने में हिचकता नहीं। स्वार्थ और लोभवश संपादक और उसके अधीनस्थ प्रबंधन के इस खेल के भागीदार बन जाते हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि आज की पत्रकारिता अपने मूल उद्देश्य से भटक गई है। सूचना अर्थात सही खबर और निष्पक्ष विश्लेषण की जगह प्रायोजित खबरें और पक्ष-विशेष के लाभार्थ तैयार विश्लेषण प्रस्तुत किए जाने लगे हैं। निश्चय ही यह पाठकों, समाज व देश के साथ छल है, विश्वासघात है।
समाचार पत्रों -पत्रिकाओं में इन दिनों जो घटिया सामग्री परोसी जा रही है, उसके लिए प्रबंधन और उसकी हां में हां मिलाने वाला संपादकीय कक्ष पाठकीय रुचि और मांग की दुहाई देता है। इस तर्क को स्वीकार नहीं किया जा सकता । सच तो यह है कि अच्छी, स्वस्थ पाठकीय रुचि जागृत करने की जिम्मेदारी भी समाचार पत्रों-पत्रिकाओं पर है। पाठकीय रुचि का बहाना तो वे तत्व बनाते हैं जो एक सर्वथा अरुचिकर भ्रष्ट समाज की स्थापना के पक्षधर हैं। अपनी तुच्छ स्वार्थसिद्धि के लिए वे पूरे समाज को भ्रष्ट देखना चाहते हैं। पिछले दिनों एक बड़े अंग्रेजी दैनिक के स्थानीय संपादक यह कहते हुए पाए गए थे कि, 'हां! हम पाठकों को 'करप्ट' करने के लिए आए हैं।' इस मानसिकता का न केवल विरोध हो बल्कि इस पर पूर्णविराम सुनिश्चित किया जाना चाहिए। पाठकों की रुचि के सवाल पहले भी खड़े होते रहे हैं। लेकिन समाज-देश के प्रति समर्पित संपादकों ने इस तर्क पर कभी भी समझौते नहीं किए। 19 वीं शताब्दी में पंडित बनारसी दास चतुर्वेदी के संपादन में 'विशाल भारत' ने जो उंचाइयां प्राप्त की थी, जो पाठकीय स्वीकृति उसे मिली थी,वह इतिहास के पन्नों में दर्ज है। पंडित चतुर्वेदी ने कथित पाठकीय रुचि के तर्क की चर्चा करते हुए एक बार लिखा था कि,'पाठकों की रुचि को प्रधानता मैंने कभी नहीं दी, सात्विक मानसिक भोजन तैयार करना ही हम लोगों ने अपना परम कर्तव्य समझा। पाठकों को यह रुचता है या नहीं, इसे हमने कभी सामने नहीं रखा। और इसीलिए 'विशाल भारत' को सस्ती लोकप्रियता कभी नहीं मिली। 'विशाल भारत' ने गंभीर पाठकों और गंभीर लेखकों को सदैव आकर्षित किया।' निश्चय ही पंडित चतुर्वेदी का आशय 'अरूचिकर' रूचि से रहा होगा। यह सस्ती लोकप्रियता ही है, जिसे अर्जित कर पत्र-पत्रकार व संचालक स्वयं को महिमामंडित करते हैं। खेद है कि वे सस्तेपन की लज्जा से उठनेवाली दुर्गंध को नजरअंदाज कर देते हैं। ऐसे में अगर पत्रकारीय वातावरण दुर्गंधमय हो जाए तो आश्चर्य क्या?
विलंब अभी भी नहीं हुआ। आधुनिक पत्रकारिता के नाम पर आधुनिकता के लबादा धारक सचेत हो जाएं। पतन की गहराई में पहुंचने के बावजूद आज भी देश-समाज पत्र और पत्रकारों की ओर आशाभरी दृष्टि लगाए बैठा है। उनके विश्वास के साथ कोई घात न हो, कोई छल न हो।
आधुनिक पत्रकारिता के मायने बदल जाने की दुहाई देनेवाले ये न भूलें कि पत्रकारिता के मूल्यों को कोई बदल नहीं सकता। वह अक्षुण्ण है। इसे रौंदने की मंशा रखनेवाले अपनी तात्कालिक सफलता के गुमान में न रहें। अंतत: वे गिरेंगे, नष्ट हो जाएंगे। आधुनिक पत्रकारिता, आधुनिकता का वरण तो करेगी किंतु उसके सकारात्मक पहलुओं को, विद्रूप स्वरूप को कदापि नहीं!
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