एक होता है भरे पेट का चिंतन। दूसरा, पेट भरने के लिए चिंतन। दोनों में फर्क उत्तर-दक्षिण की भाँति है। वर्तमान, पूर्व और भावी शासक इसे याद रखें। जश्न के वर्तमान दौर में जनता इन्हें इस कसौटी पर भी कसेगी।
मोदी सरकार के दो वर्ष पूरे हुए और सरकार तथा संगठन के स्तर पर शृंखलाबद्ध जश्न मनाया गया। एक ऐसा जश्न जो आजादी के बाद कभी भी किसी सरकार ने 5 वर्ष, 10 वर्ष या 15 वर्ष पूरे होने के बाद भी नहीं मनाया था। पूरे देश को मीडिया के सहयोग से जश्नमय कर दिया गया। सरकारी खजाने से बताते हैं कि 1,000 करोड़ से अधिक इन जश्नों पर खर्च कर दिए गए। बिल्कुल राष्ट्रीय पर्व की तरह विकासपर्व के रूप में ये जश्न मनाया गया। भारत में घोषित राष्ट्रीय पर्व गणतंत्र दिवस और स्वतंत्रता दिवस के प्रचार - प्रसार पर भी कभी इस राशि का अंशमात्र भी व्यय नहीं हुआ। फिर ऐसा क्या चमत्कारिक हो गया था कि किसी एक केंद्र सरकार के कार्यकाल की अवधि के दो वर्ष पूरा होने पर ऐसे जश्न मनाए जाएं? चूंकि यह देश, भारत देश, किसी एक व्यक्ति या संगठन की बपौती नहीं है, जनता का ऐसे जश्नपर सवाल उठाना उनका हक है। फिर क्यों हुआ ऐसा?
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कभी कहा था कि यह 'हाईप' का युग है। सार्वजनिक मंच से प्रधानमंत्री ने यह बात कही थी। तो क्या प्रधानमंत्री उवाचित इसी शब्द से प्रेरित हो सरकार और संगठन ने 'हाईप' निर्माण हेतु अघोषित राष्ट्रीय उत्सव मनाया? शायद सच यही है। लेकिन इस प्रक्रिया में रणनीतिकार इस अकाट्य तथ्य को भूल गए कि ऐसे जश्न की प्रासंगिकता तभी प्रमाणित होती है जब सामान्य जन की सहभागिता हो। आलोच्य प्रसंग में ऐसी सहभागिता संदिग्ध है। इन जश्नों के माध्यम से सरकार की ओर से लोगों को यह बताने की कोशिश की गई कि सरकार अपने वादों के अनुरूप देश को विकास के रास्ते ले जा रही है और उपलब्धियों का सिलसिला शुरू हो चुका है। बताने की कोशिश की गई कि, लोकसभा चुनाव के दौरान दल ने, विशेषकर नरेंद्र मोदी ने जो वादे किए थे, सत्ता में आने के बाद पार्टी उन्हें पूरी शिद्दत के साथ पूरा कर रही है। उपलब्धियों के नाम पर आर्थिक मोर्चे पर कथित सफलता और विदेशों में भारत की गूंज को पेश किया गया। सरकार की ओर से बताया गया कि विनिर्माण, ऊर्जा, सॉफ्टवेयर आयात जैसे विभिन्न क्षेत्रों में उल्लेखनीय उपलब्धियां प्राप्त की गई हैं और किसानों व युवाओं के कल्याण के लिए ऐसे कदम उठाए गए जो पहले उपक्षित रहे। दावा किया गया कि यह इकलौती सरकार है जिसने हर दिन एक नई पहल की है।
अब राष्ट्रीय बहस छिड़ गई है कि क्या सचमुच मोदी सरकार की दो वर्ष की कथित उपलब्धियां भविष्य की सफलता की सूचक हैं? सवाल किए जा रहे हैं कि क्या मोदी सरकार ने अपने चुनावी वादों को पूरा किया? सप्रमाण यह कहा जाने लगा है कि आरम्भिक दो वर्ष का कार्यकाल निराशा और विफलतापूर्ण रहा है। आंकड़ों के साथ प्रमाणित किया जाने लगा है कि जीवनोपयोगी उपभोक्ता वस्तुओं के मूल्यों में इस दौरान कई गुणा वृद्धि हुई है। महंगाई इतनी कि ऐसी वस्तुएं अब सामान्य जन की पहुंच से बाहर की हो गई हैं। रोजगार के मोर्चे पर भी स्पष्टत: अपेक्षित परिणाम नहीं मिल पाए हैं। युवा इससे आक्रोशित हैं। कृषि से लेकर अन्य औद्योगिक उत्पादनों में भी गिरावट सामने है। निर्यात में भी गिरावट के संकेत हैं। दावों के अनुरूप विदेशी पूंजी निवेश अभी संदिग्ध है। बैंकिंग क्षेत्र खतरनाक रूप से पतन की ओर जाता दिख रहा है। तकनीकी बाजीगरी के आधार पर प्रस्तुत तर्क चाहे जितना दे लें, जो खतरनाक रूप से दृष्टिगोचर है वह यह कि, एक ओर जहां छोटे -छोटे कर्जदार वसूली की यंत्रणा से आक्रांत हो आत्महत्या तक करने को मजबूर हो रहे हैं, वहीं बड़े पूंजीपतियों के हजारों-लाखों करोड़ के कर्ज एक झटके में माफ कर दिए जा रहे हैं। फिर क्या आश्चर्य कि इतिहास में पहली बार बड़े बैंक हजारों करोड़ के घाटे का सामना कर रहे हैं। यह एक ऐसा कड़वा सच है जिसकी सफाई सरकार को देनी ही होगी।
जश्न मना रहे हैं, जरूर मनाएं। लेकिन जब ईमानदार आत्मपरीक्षण को तरजीह देंगे तब सत्ता पक्ष को चिंतन-मनन करना चाहिए कि कथित तमाम उपलब्धियों के बावजूद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को 'कर्मवीर' की जगह 'भाषणवीर' से क्यों नवाजा जा रहा है? 'जुमले' का जुमला क्यों चर्चित है? देश का अल्पायु बच्चा भी आज सशंकित , आतंकित क्यों है? इतने 'हाईप' के बावजूद पूरे देश में अनिश्चितता का वातावरण कैसे कायम हो गया? किसान आत्महत्या की संख्या में निरंतर वृद्धि क्यों हो रही है? धर्म, जाति, संप्रदाय के नाम पर समाज में विभाजन की रेखाएं क्यों खिंचती जा रही हैं? गलत ही सही लेकिन विचारधारा विशेष को आम जनता पर थोपने के आरोप क्यों लग रहे हैं? अंग्रेजों की गुलामी से देश को मुक्त करवाने वाले राष्ट्रपुरुषों के अपमान का सिलसिला कैसे शुरू हो गया? पिछले 6 दशक की जिन उपलब्धियों के कारण भारत को पूरे संसार में एक विशिष्ट मान्यता प्राप्त हुई, भारत का लोकतंत्र पूरे संसार के लिए अनुकरणीय बना, आर्थिक और सामाजिक क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन हुए उन्हें नकारात्मकता की स्याही से क्यों रेखांकित किया जा रहा है? निर्माण क्षेत्र में प्रगति का दावा करनेवालों को यह भी बताना होगा कि, पिछले दो वर्षों के दौरान सीमेंट और लोहे का उपयोग लगभग आधा क्यों हो गया? आदि-आदि ! ऐसे अनेक सवाल हैं जिन पर सत्ता पक्ष को आत्मचिंतन करना होगा। लोगों की स्मरण शक्ति इतनी कमजोर नहीं कि वे अतीत को भूल जाएं। वर्तमान की सफलता का आकलन अतीत के साथ तुलना से ही संभव हो पाता है। 'हाईप' पैदा कर अतीत पर काली चादर डाल वर्तमान को सफेद प्रमाणित नहीं किया जा सकता।
मोदी सरकार अगर सचमुच एक निर्णायक सरकार के रूप में स्थापित हो जनस्वीकृति प्राप्त करना चाहती है तो, उसे हीन-घृणित दलीय संघर्ष से ऊपर उठ व्यापक राष्ट्रहित में पूरी ईमानदारी के साथ अपने घोषित वाक्य 'सबका साथ सबका विकास' पर अमल करना होगा। इतिहास अगर बदलना ही है तो उस इतिहास को बदल दें जिसने हर सदी -काल में समानता की जगह विषमता को ऊर्जा प्रदान की है। भारत एक संसाधनपूर्ण समृद्ध देश है, इस पर कोई बहस नहीं। इसकी लोकतांत्रिक नीवं बहुत ही मजबूत है। लेकिन 'मन की बात' करने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 'भारतीय मन' से अपरिचित नहीं हो सकते। और यह 'भारतीय मन' ही है जो ईमानदार कर्मठ नेतृत्व को तो सिर आखों पर तो बिठाता है, किंतु भ्रष्ट, अयोग्य को गटर में फेंकने से नहीं हिचकता। 2014 का आम चुनाव परिणाम इसका प्रमाण है। लेकिन प्रधानमंत्री जी! सत्य यह भी कि आप के कुनबे में भी अब 2014 के पूर्व के रोगों के कीटाणु प्रवेश करने लगे हैं। एक सही चिकित्सक के रूप में उनको मौत देने की जिम्मेदारी आप पर है। अन्यथा इतिहास दोहाराया जाने की कु-परम्परा से आप परिचित तो होंगे ही!
मोदी सरकार के दो वर्ष पूरे हुए और सरकार तथा संगठन के स्तर पर शृंखलाबद्ध जश्न मनाया गया। एक ऐसा जश्न जो आजादी के बाद कभी भी किसी सरकार ने 5 वर्ष, 10 वर्ष या 15 वर्ष पूरे होने के बाद भी नहीं मनाया था। पूरे देश को मीडिया के सहयोग से जश्नमय कर दिया गया। सरकारी खजाने से बताते हैं कि 1,000 करोड़ से अधिक इन जश्नों पर खर्च कर दिए गए। बिल्कुल राष्ट्रीय पर्व की तरह विकासपर्व के रूप में ये जश्न मनाया गया। भारत में घोषित राष्ट्रीय पर्व गणतंत्र दिवस और स्वतंत्रता दिवस के प्रचार - प्रसार पर भी कभी इस राशि का अंशमात्र भी व्यय नहीं हुआ। फिर ऐसा क्या चमत्कारिक हो गया था कि किसी एक केंद्र सरकार के कार्यकाल की अवधि के दो वर्ष पूरा होने पर ऐसे जश्न मनाए जाएं? चूंकि यह देश, भारत देश, किसी एक व्यक्ति या संगठन की बपौती नहीं है, जनता का ऐसे जश्नपर सवाल उठाना उनका हक है। फिर क्यों हुआ ऐसा?
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कभी कहा था कि यह 'हाईप' का युग है। सार्वजनिक मंच से प्रधानमंत्री ने यह बात कही थी। तो क्या प्रधानमंत्री उवाचित इसी शब्द से प्रेरित हो सरकार और संगठन ने 'हाईप' निर्माण हेतु अघोषित राष्ट्रीय उत्सव मनाया? शायद सच यही है। लेकिन इस प्रक्रिया में रणनीतिकार इस अकाट्य तथ्य को भूल गए कि ऐसे जश्न की प्रासंगिकता तभी प्रमाणित होती है जब सामान्य जन की सहभागिता हो। आलोच्य प्रसंग में ऐसी सहभागिता संदिग्ध है। इन जश्नों के माध्यम से सरकार की ओर से लोगों को यह बताने की कोशिश की गई कि सरकार अपने वादों के अनुरूप देश को विकास के रास्ते ले जा रही है और उपलब्धियों का सिलसिला शुरू हो चुका है। बताने की कोशिश की गई कि, लोकसभा चुनाव के दौरान दल ने, विशेषकर नरेंद्र मोदी ने जो वादे किए थे, सत्ता में आने के बाद पार्टी उन्हें पूरी शिद्दत के साथ पूरा कर रही है। उपलब्धियों के नाम पर आर्थिक मोर्चे पर कथित सफलता और विदेशों में भारत की गूंज को पेश किया गया। सरकार की ओर से बताया गया कि विनिर्माण, ऊर्जा, सॉफ्टवेयर आयात जैसे विभिन्न क्षेत्रों में उल्लेखनीय उपलब्धियां प्राप्त की गई हैं और किसानों व युवाओं के कल्याण के लिए ऐसे कदम उठाए गए जो पहले उपक्षित रहे। दावा किया गया कि यह इकलौती सरकार है जिसने हर दिन एक नई पहल की है।
अब राष्ट्रीय बहस छिड़ गई है कि क्या सचमुच मोदी सरकार की दो वर्ष की कथित उपलब्धियां भविष्य की सफलता की सूचक हैं? सवाल किए जा रहे हैं कि क्या मोदी सरकार ने अपने चुनावी वादों को पूरा किया? सप्रमाण यह कहा जाने लगा है कि आरम्भिक दो वर्ष का कार्यकाल निराशा और विफलतापूर्ण रहा है। आंकड़ों के साथ प्रमाणित किया जाने लगा है कि जीवनोपयोगी उपभोक्ता वस्तुओं के मूल्यों में इस दौरान कई गुणा वृद्धि हुई है। महंगाई इतनी कि ऐसी वस्तुएं अब सामान्य जन की पहुंच से बाहर की हो गई हैं। रोजगार के मोर्चे पर भी स्पष्टत: अपेक्षित परिणाम नहीं मिल पाए हैं। युवा इससे आक्रोशित हैं। कृषि से लेकर अन्य औद्योगिक उत्पादनों में भी गिरावट सामने है। निर्यात में भी गिरावट के संकेत हैं। दावों के अनुरूप विदेशी पूंजी निवेश अभी संदिग्ध है। बैंकिंग क्षेत्र खतरनाक रूप से पतन की ओर जाता दिख रहा है। तकनीकी बाजीगरी के आधार पर प्रस्तुत तर्क चाहे जितना दे लें, जो खतरनाक रूप से दृष्टिगोचर है वह यह कि, एक ओर जहां छोटे -छोटे कर्जदार वसूली की यंत्रणा से आक्रांत हो आत्महत्या तक करने को मजबूर हो रहे हैं, वहीं बड़े पूंजीपतियों के हजारों-लाखों करोड़ के कर्ज एक झटके में माफ कर दिए जा रहे हैं। फिर क्या आश्चर्य कि इतिहास में पहली बार बड़े बैंक हजारों करोड़ के घाटे का सामना कर रहे हैं। यह एक ऐसा कड़वा सच है जिसकी सफाई सरकार को देनी ही होगी।
जश्न मना रहे हैं, जरूर मनाएं। लेकिन जब ईमानदार आत्मपरीक्षण को तरजीह देंगे तब सत्ता पक्ष को चिंतन-मनन करना चाहिए कि कथित तमाम उपलब्धियों के बावजूद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को 'कर्मवीर' की जगह 'भाषणवीर' से क्यों नवाजा जा रहा है? 'जुमले' का जुमला क्यों चर्चित है? देश का अल्पायु बच्चा भी आज सशंकित , आतंकित क्यों है? इतने 'हाईप' के बावजूद पूरे देश में अनिश्चितता का वातावरण कैसे कायम हो गया? किसान आत्महत्या की संख्या में निरंतर वृद्धि क्यों हो रही है? धर्म, जाति, संप्रदाय के नाम पर समाज में विभाजन की रेखाएं क्यों खिंचती जा रही हैं? गलत ही सही लेकिन विचारधारा विशेष को आम जनता पर थोपने के आरोप क्यों लग रहे हैं? अंग्रेजों की गुलामी से देश को मुक्त करवाने वाले राष्ट्रपुरुषों के अपमान का सिलसिला कैसे शुरू हो गया? पिछले 6 दशक की जिन उपलब्धियों के कारण भारत को पूरे संसार में एक विशिष्ट मान्यता प्राप्त हुई, भारत का लोकतंत्र पूरे संसार के लिए अनुकरणीय बना, आर्थिक और सामाजिक क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन हुए उन्हें नकारात्मकता की स्याही से क्यों रेखांकित किया जा रहा है? निर्माण क्षेत्र में प्रगति का दावा करनेवालों को यह भी बताना होगा कि, पिछले दो वर्षों के दौरान सीमेंट और लोहे का उपयोग लगभग आधा क्यों हो गया? आदि-आदि ! ऐसे अनेक सवाल हैं जिन पर सत्ता पक्ष को आत्मचिंतन करना होगा। लोगों की स्मरण शक्ति इतनी कमजोर नहीं कि वे अतीत को भूल जाएं। वर्तमान की सफलता का आकलन अतीत के साथ तुलना से ही संभव हो पाता है। 'हाईप' पैदा कर अतीत पर काली चादर डाल वर्तमान को सफेद प्रमाणित नहीं किया जा सकता।
मोदी सरकार अगर सचमुच एक निर्णायक सरकार के रूप में स्थापित हो जनस्वीकृति प्राप्त करना चाहती है तो, उसे हीन-घृणित दलीय संघर्ष से ऊपर उठ व्यापक राष्ट्रहित में पूरी ईमानदारी के साथ अपने घोषित वाक्य 'सबका साथ सबका विकास' पर अमल करना होगा। इतिहास अगर बदलना ही है तो उस इतिहास को बदल दें जिसने हर सदी -काल में समानता की जगह विषमता को ऊर्जा प्रदान की है। भारत एक संसाधनपूर्ण समृद्ध देश है, इस पर कोई बहस नहीं। इसकी लोकतांत्रिक नीवं बहुत ही मजबूत है। लेकिन 'मन की बात' करने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 'भारतीय मन' से अपरिचित नहीं हो सकते। और यह 'भारतीय मन' ही है जो ईमानदार कर्मठ नेतृत्व को तो सिर आखों पर तो बिठाता है, किंतु भ्रष्ट, अयोग्य को गटर में फेंकने से नहीं हिचकता। 2014 का आम चुनाव परिणाम इसका प्रमाण है। लेकिन प्रधानमंत्री जी! सत्य यह भी कि आप के कुनबे में भी अब 2014 के पूर्व के रोगों के कीटाणु प्रवेश करने लगे हैं। एक सही चिकित्सक के रूप में उनको मौत देने की जिम्मेदारी आप पर है। अन्यथा इतिहास दोहाराया जाने की कु-परम्परा से आप परिचित तो होंगे ही!
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