कैराना तो एक उदाहरण है। ऐसे अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं जो मीडिया मंडी को बाजार में निर्वस्त्र कर देंगे। दुख तो इस बात का है कि अल्पसंख्या में होने के बावजूद 'मीडिया मंडी' के ये तत्व इसलिए निडरतापूर्वक खुलकर बेशर्मों की तरह अपने कु-कृत्यों को अंजाम दे पाते हैं, क्योंकि शालीन, ईमानदार पत्रकारीय मूल्यों के प्रति प्रतिबद्ध मीडियाकर्मी खुलकर इन्हें बेनकाब करने सामने नहीं आ रहे। अगर ये मामला संपादकों, पत्रकारों अथवा संचालकों की तुच्छ स्वार्थपूर्ति के लिए निष्पादित हुआ होता तो संभवत: देश इनका संज्ञान नहीं लेता। किंतु, यह 'स्वार्थ' विभिन्न राजदलों की लोकतंत्र विरोधी कतिपय साजिशों को अंजाम देने के लिए पूरे किये जाते हैं। ये निश्चय ही राष्ट्रविरोधी, लोकतंत्र विरोधी हैं।
'मीडिया मंडी' में ऐसा कभी नहीं हुआ था! शोरगुल तो पहले भी होते थे, किंतु शेयर दलालों की तरह गला फाड़ चीखने-चिल्लाने सदृश नजारा, वह भी पक्षपातपूर्ण बिरले ही देखने को मिलते थे। अब हालत यह है कि, कभी समाचार पत्रों में मुद्रित शब्दों को 'ईश्वरीय शब्द' मानने वाले पाठक हतप्रभ हैं कि टेलीविजनों पर प्रसारित समाचारों, विचारों से निकले शब्दों को 'दल्ला' के शब्द क्यों बताए जाने लगे? ' सोशल मीडिया' जिसके माध्यम से आम जनता अपने विचार, अपनी प्रतिक्रिया प्रकट करती हैं जरा उस पर एक नजर डाल लें। टीवी के मालिकों, संपादकों, संवाददाताओं व एंकरों को घोर अविश्वसनीय निरूपित करते हुए उन्हें ' दलाल और बिकाऊ' बताती हुई टिप्पणियों की भरमार मिलेगी। गाली-गलौच की सामान्य भाषा से आगे बढ़ते हुए अश्लील शब्दों के इस्तेमाल भी इन महान विभूतियों के खिलाफ आम बात हो गई है। मर्यादा असीमित। यह ठीक है कि इन टिप्पणियों को आम लोगों के विचार के रूप में दस्तावेज नहीं माना जा सकता। अमूमन ऐसी टिप्पणियां प्रायोजित होती हैं। चूंकि सोशल मीडिया पर कोई बंधन नहीं, कोई प्रबंधन, कोई संपादक नहीं, अपनी सुविधा अनुसार राजदल से लेकर मीडिया से जुड़ी संस्थाएं या लोग इसका उपयोग-दुरुपयोग करते रहते हैं। बावजूद इसके, यह सत्य भी अपनी जगह मौजूद है कि चिनगारी ही आग की लपटों में परिविर्तत होती हैं। हां, 'मीडिया मंडी' में ऐसी चिनगारियां स्पष्टत: परिलक्षित हैं। आग में घी डालने का काम स्वार्थी तत्व आसानी से कर जाते हैं।
अभी ताजातरीन उत्तर प्रदेश के कैराना की घटना लें। इलाहाबाद में भारतीय जनता पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक के अवसर पर भाजपा के एक सांसद ने कथित रूप से346 ऐसे हिंदुओं की सूची जारी की, जो राष्ट्रीय स्तर पर अल्पसंख्यक किंतु कैराना में बहुसंख्यक संप्रदाय के लोगों के खौफ से कैराना से पलायन कर चुके थे। एक जनसभा को संबोधित करते हुए पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने इस कथित घटना को गंभीर चिन्हित करते हुए कह डाला कि, इसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। अर्थात इसका गंभीरता से संज्ञान लिया गया। सूची जारी होने के साथ ही कुछ टेलीविजन कार्यक्रमों व समाचारों ने इसकी तुलना कश्मीर में पंडितों के पलायन से करते हुए अल्पसंख्यक समुदाय पर हल्ला बोल दिया। उन पर आयोजित चर्चा कार्यक्रमों में इस कथित घटना के लिए राज्य सरकार और कतिपय राजदलों को दोषी ठहराया गया। घटना को सनसनीखेज बनाते हुए बताया गया कि, प्रदेश में बहुसंख्यक समुदाय स्वयं को असुरक्षित महूसस कर रहा है। लेकिन तभी दूसरी ओर कुछ अन्य टेलीविजन के संवाददाताओं ने मौके पर पुहंचकर छानबीन की, सांसद द्वारा जारी सूची में बताए गए नाम- पते पर पहुंचे और रहस्योद्घाटन किया कि सूची में अंकित कई लोगों की वर्षों पहले मृत्यु हो चुकी है, अनेक लोग वर्षों पहले बेहतर भविष्य और रोजगार की तलाश में कैराना छोड़ चुके थे। मजे की बात तो यह कि इस तथ्य के उजागर होने के बावजूद विभिन्न टेलीविजन कार्यक्रमों में पक्ष-विपक्ष की तरह द्वंद हुए और एक-दूसरे की जानकारियों को प्रायोजित निरूपित करने लगे। कार्यक्रमों में पूछा जाने लगा कि कैराना में संप्रदाय विशेष का बचाव क्यों किया जा रहा है? बताया यह भी गया कि कैराना पहुंच छानबीन करने वाले पत्रकार गलत गवाह, गलत तथ्य प्रस्तुत कर रहे हैं। गांव के लोगों को टेलीविजन के पर्दे पर लाकर जबरिया कहलाया गया कि फंला व्यक्ति की बहुत पहले मृत्यु हो चुकी है और फंला परिवार वर्षों पहले ही गांव छोड़ चुका है, तब उस टेलीविजन संस्थान की मंशा पर संदेह प्रकट होता है। लेकिन आरम्भ में कश्मीरी पंडितों से तुलना करते हुए खबर को सनसनीखेज बनाने वाले टेलीविजन के संपादक , पत्रकार अपनी बातों पर अड़े रहे और गलत सूची पेश करने वाले सांसद का बचाव करते रहे। वे भूल गए कि उनकी खबरों से न केवल प्रदेश बल्कि पूरे देश में सांप्रदायिक तनाव पैदा होने का खतरा उत्पन्न हो गया है। वे यह भी भूल गए कि, उत्तर प्रदेश में आगामी वर्ष होने वाले विधानसभा चुनाव के मद्देनजर राजनीतिक दल ऐसे मुद्दे उठा राजनीतिक लाभ लेना चाह रहे हैं। मीडिया संस्थान यह भी भूल गए कि राजदल अपने राजनीतिक स्वार्थ की पूर्ति के लिए उनका 'उपयोग' कर रहे हैं। क्या 'मीडिया मंडी' से जुड़े संपादक, पत्रकार इतने नासमझ अथवा भोले हैं कि, राजदल उनका आसानी से 'उपयोग ' कर ले? नहीं बिलकुल नहीं। ये तो स्वेच्छा से राजदलों की गोद में जा बैठे हैं। उनसे आलिंगनबद्ध हो पत्रकारीय दुराचार का मंचन कर रहे हैं। यह कृत्य न केवल मीडिया जगत बल्कि संपूर्ण राष्ट्र को शर्मसार करने वाला है। बल्कि अगर दो टूक शब्दों में कहा जाए तो 'मीडिया मंडी' के ऐसे कृत्य ने उन राजनेताओं के शब्दों को सच साबित कर दिया जिन्होंने समय-समय पर मीडिया को 'बाजारू और वेश्या' निरूपित किया था।
कैराना तो एक उदाहरण है। ऐसे अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं जो मीडिया मंडी को बाजार में निर्वस्त्र कर देंगे। दुख तो इस बात का है कि अल्पसंख्या में होने के बावजूद 'मीडिया मंडी' के ये तत्व इसलिए निडरतापूर्वक खुलकर बेशर्मों की तरह अपने कु-कृत्यों को अंजाम दे पाते हैं, क्योंकि शालीन, ईमानदार पत्रकारीय मूल्यों के प्रति प्रतिबद्ध मीडियाकर्मी खुलकर इन्हें बेनकाब करने सामने नहीं आ रहे। अगर ये मामला संपादकों, पत्रकारों अथवा संचालकों की तुच्छ स्वार्थपूर्ति के लिए निष्पादित हुआ होता तो संभवत: देश इनका संज्ञान नहीं लेता। किंतु, यह 'स्वार्थ' विभिन्न राजदलों की लोकतंत्र विरोधी कतिपय साजिशों को अंजाम देने के लिए पूरे किये जाते हैं। ये निश्चय ही राष्ट्रविरोधी, लोकतंत्र विरोधी हैं।
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