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Tuesday, March 31, 2009

राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए वरुण खतरा कैसे!


क्या नेहरू-गांधी परिवार के वरुण गांधी सचमुच राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा हैं? सर्वेक्षण करा लें, देश वरुण के विरुद्ध ऐसे आरोप को मानने से इनकार कर देगा. संविधान विशेषज्ञ सुभाष कश्यप की यह प्रतिक्रिया पूर्वाग्रही तो नहीं ही है कि ''वरुण के खिलाफ उठाया गया कदम, राजनीतिक ज्यादा है.'' कश्यप के शब्दों को चुनौती नहीं दी जा सकती. यह तो देश की कथित राजनीति है, जो सत्तारूढ़ किसी व्यक्ति विशेष अथवा किसी राजदल विशेष की पसंद के आधार पर ऐसे प्रतिशोधात्मक कदम उठाए जाते रहे हैं. 1977 में कांग्रेस व इंदिरा गांधी की पराजय के बाद जब केंद्र में जनता पार्टी की सरकार बनी, तब इंदिरा गांधी और संजय गांधी के प्रति सरकार का नजरिया प्रतिशोधात्मक था. शाह जांच आयोग का गठन कर इंदिरा गांधी पर तब मुर्गी चोरी तक के घटिया आरोप लगाए गए थे. तत्कालीन उपप्रधानमंत्री और गृहमंत्री चौधरी चरण सिंह, प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई की इच्छा के विरुद्ध, इंदिरा गांधी को जेल भेजने की जिद पर अड़े थे. यह दीगर है कि बाद में इंदिरा गांधी की कांग्रेस के समर्थन से ही चौधरी चरण सिंह प्रधानमंत्री बने. अवसरवादी राजनीति के एक अत्यंत ही घृणित उदाहरण के रूप में उक्त घटना इतिहास में दर्ज है. आज उसी संजय गांधी के पुत्र वरुण गांधी को उत्तरप्रदेश सरकार ने राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा बताते हुए उन पर राष्ट्रीय सुरक्षा कानून लगा दिया है. जिन तीन कारणों को वरुण के खिलाफ रासुका के लिए आधार बनाया गया है, जरा उन पर गौर करें. पहला आरोप है कि उन्होंने इस माह के प्रथम सप्ताह में उत्तरप्रदेश के पीलीभीत जिले के 2 स्थानों पर उत्तेजक एवं भड़काऊ भाषण देकर सांप्रदायिक उन्माद पैदा करने की कोशिश की. फिर 28 मार्च को जब वे अदालत में समर्पण के लिए जा रहे थे, तब पूर्व सूचित कार्यक्रम के विपरीत उन्होंने अपना मार्ग बदल डाला था जिससे लोक व्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा. तीसरा आरोप है कि वरुण ने न्यायालय परिसर के बाहर भड़काऊ भाषण देकर प्रशासनिक व्यवस्था को बिगाड़ा. किसी को राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा घोषित करने के लिए क्या ये आरोप पर्याप्त अथवा जायज हैं? कदापि नहीं. बिल्कुल हास्यास्पद हैं ये आरोप. जिस भाषण को समाज के लिए भड़काऊ निरूपित किया जा रहा है, उसकी सचाई की जांच अभी जारी है. अदालत पहुंचने का मार्ग बदल दिए जाने से वरुण राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा कैसे बन गए? अगर उस कृत्य से लोक व्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा भी होगा, तब भी राष्ट्रीय सुरक्षा को इससे कैसे जोड़ दिया गया? न्यायालय परिसर के बाहर भड़काऊ भाषण का आरोप भी बेतुका है. हम थोड़ा पीछे चलें, गुजरात विधानसभा चुनाव के दौरान कांग्रेस अध्यक्ष और सत्तारूढ़ संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की अध्यक्ष सोनिया गांधी के एक भाषण की याद कर लें. सोनिया गांधी ने तब अपने भाषण में गुजरात सरकार और मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को 'मौत का सौदागर' निरूपित कर दिया था. क्या 'मौत के सौदागर' की व्याख्या करने की जरूरत है? अगर वरुण के शब्द राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा हैं तो निश्चय ही सोनिया गांधी के वे शब्द अत्यंत ही खतरनाक थे. उनके विरुद्ध तो रासुका नहीं लगा! हां, गुजरात की जनता ने तब सोनिया को अवश्य जवाब दे दिया था- लोकतांत्रिक अपेक्षा के अनुरूप. जिन भड़काऊ भाषणों के आधार पर वरुण के खिलाफ रासुका लगाया गया है, उन मामलों में अदालत ने वरुण को जमानत दे दी है. साफ है कि अदालत ने इन आरोपों के आधार पर वरुण को जेल में रखना उचित नहीं समझा. फिर इन्हीं आरोपों के आधार पर रासुका क्यों? भारतीय लोकतंत्र के कुछ स्वार्थी तत्व एक अत्यंत ही शर्मनाक अध्याय लिखने पर उतारू हैं. व्यक्तिगत स्वार्थ, पारिवारिक कलह और सत्ता की प्रतिद्वंद्विता में किसी 'युवा भविष्य' को मटियामेट किए जाने की कोशिश नहीं होनी चाहिए. जो आरोप वरुण गांधी पर लगाए गए हैं, अगर वे सही भी हैं तब भी वे रासुका को आकर्षित नहीं करते. वरुण गांधी कोई खूंखार अपराधी नहीं हैं. वे आवेग-आवेश के दोषी हो सकते हैं, देश की सुरक्षा के लिए खतरा कदापि नहीं.
31 मार्च 2009

Monday, March 30, 2009

'पिछला दरवाजा' और प्रधानमंत्री की कुर्सी...!


इसे कोई चुनावी पैंतरेबाजी कहे या फिर प्रचार का एक नया तरीका, किन्तु आडवाणी की चुनौती में दम तो है. प्रतीक्षारत प्रधानमंत्री भाजपा के आडवाणी ने चुनौती दी है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह में अगर दम है तो लोकसभा चुनाव लड़कर दिखाएं. अमेरिका की तर्ज पर मनमोहन के साथ आडवाणी सीधी सार्वजनिक बहस भी चाहते हैं. चूंकि विपक्ष की तरह सत्तारूढ़ संप्रग ने भी डॉ. मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री घोषित कर डाला है, जनता भी चाहेगी कि दोनों के बीच राष्ट्रीय हित के मुद्दों पर सीधी बहस हो. आडवाणी की इस मांग या चुनौती को राजनीति की आंखों से देखना गलत होगा. इससे एक स्वस्थ लोकतांत्रिक परंपरा को बल मिलेगा. आडवाणी की यह चाहत भी बिल्कुल सही है कि मनमोहन सिंह लोकसभा का चुनाव लड़ें. सचमुच यह तथ्य गले के नीचे नहीं उतर रहा कि विपक्ष के घोषित प्रधानमंत्री तो लोकसभा का चुनाव लड़ रहे हैं, किन्तु सत्तापक्ष के प्रधानमंत्री बगैर चुनाव लड़े प्रधानमंत्री बनने की तैयारी में हैं. अर्थात् पिछली बार की तरह पिछले दरवाजे से ही मनमोहन प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं. निश्चय ही यह संसदीय लोकतंत्र की मूल भावना के विपरीत है. 'जनप्रतिनिधि' की अवधारणा का मजाक है- अपमान है. कांग्रेस तथा संप्रग एक ऐसे व्यक्ति को प्रधानमंत्री के रूप में पुन: पेश कर रही है जो लोकसभा चुनाव लडऩे को तैयार नहीं. आडवाणी की चुनौती का भी इन पर कोई असर नहीं है. प्रधानमंत्री पद का यह अद्भुत दंगल है. चुनावी अखाड़े में रिंग के अंदर आडवाणी अकेले ताल ठोंक रहे हैं- प्रतिद्वंद्वी मनमोहन नदारद हैं. मनमोहन सचमुच भाग्यशाली हैं. उनकी पार्टी कांग्रेस तथा सहयोगी दल जब बगैर चुनाव लड़े उन्हें प्रधानमंत्री बनाने को तैयार हैं, तब फिर चुनावी मैदान की धूल क्यों फांकें? आश्वस्त मनमोहन आडवाणी के समक्ष खड़े होकर फिर बहस भी क्यों करें? उन्हें मतदाता का वोट तो चाहिए नहीं. यह अपने आप में एक अनूठी मिसाल है. निश्चय ही संविधान निर्माताओं ने भी लोकतंत्र की इस अवस्था की कल्पना नहीं की होगी. उच्च सदन के रूप में राज्यसभा के गठन की कल्पना कुछ और थी. लेकिन सत्ता-शासन के लिए 'पिछला दरवाजा' के रूप में इसका इस्तेमाल लोकतंत्र को ही मुंह चिढ़ाने वाला है. उचित होगा कि इस मुद्दे पर राष्ट्रीय बहस हो. जनता तय करेगी कि प्रधानमंत्री पद के लिए पिछले दरवाजे का उपयोग सही है या गलत. अगर बहुमत ऐसे 'उपयोग' के खिलाफ मत व्यक्त करता है, तब संविधान में संशोधन कर इस दरवाजे पर ताला जड़ दिया जाए. नैतिकता के आधार पर भी प्रधानमंत्री की कुर्सी पर ऐसे व्यक्ति को नहीं बैठने देना चाहिए, जो जनता का सामना करने से मुंह चुराता हो. 'जनमत' और 'जनप्रतिनिधि' का अपमान करने वाले हैं ऐसे लोग. फिर क्यों न पहल हो इस प्रवृत्ति पर पूर्णविराम लगाने की?
30 मार्च 2009

दादी की राह पर ही तो चले वरुण...!


....'गिरफ्तारी का नाटक', 'सरेन्डर का ड्रामा', 'वरुण का बाण' आदि शीर्षक न्यूज चैनलों के परदे पर शनिवार दिन भर चलते रहे. लगभग सभी चैनलों के एंकर चीख-चीख कर अपने दर्शकों को यह समझाने की कोशिश कर रहे थे कि पीलीभीत में इंदिरा गांधी के पोते और संजय गांधी के पुत्र वरुण गांधी का 'सरेन्डर' वस्तुत: एक ड्रामा था, नाटक था. आम चुनाव में लोगों की सहानुभूति अर्जित करने के लिए ड्रामे का मंचन किया गया था. लेकिन यह किसी ने बताने की कोशिश नहीं की कि प्रचार का ड्रामा तो यह था, किन्तु वरुण ने नया कुछ नहीं किया. वह तो अपनी दादी मां इंदिरा गांधी की राह पर चले थे. सन् 1979 में जनता पार्टी शासनकाल के दौरान एक मामले में जब पुलिस इंदिरा गांधी को गिरफ्तार करने उनके आवास पर गई, तब वहां ड्रामा ही रचा गया था. पहले तो पुलिस से गिरफ्तारी का वारंट मांगा गया, फिर तैयार होने के लिए कुछ समय. पुलिस ने अनुमति दे दी. इस बीच फोन कर मीडिया और कांग्रेस समर्थकों को बुला लिया गया. इंदिरा गांधी अपनी गिरफ्तारी का पूरा प्रचार चाहती थीं- लोगों की सहानुभूति प्राप्त करना चाहती थीं.
आज़ाद भारत के इतिहास में यह पहला अवसर था, जब किसी पूर्व प्रधानमंत्री, वह भी नेहरू-गांधी परिवार की इंदिरा गांधी को पुलिस गिरफ्तार कर रही थी. इंदिरा के आवास पर कांग्रेस कार्यकर्ताओं और मीडिया का जमावड़ा हो गया. तब इंदिरा गांधी अंदर अपने कमरे से 'तैयार' हो गिरफ्तारी देने बाहर निकली थीं. खूब हो-हंगामा हुआ था वहां. इंदिरा के पक्ष में जिंदाबाद और जनता पार्टी सरकार के खिलाफ मुर्दाबाद के नारे लगाए गए थे. 'नाटक' का पटाक्षेप वहीं नहीं हुआ. जेल जाते समय रास्ते में इंदिरा गांधी गाड़ी रुकवा सड़क किनारे पुलिया पर बैठ गयी थीं. वहां भी चीखने-चिल्लाने का एक पूरा अध्याय मंचित किया गया था. परेशान पुलिस अधिकारी हाथ जोड़ रहे थे. फिर इंदिरा जेल गई थीं एक दिन के लिए. इंदिरा एक पूर्व प्रधानमंत्री थीं, कांग्रेस की अध्यक्ष थीं, जवाहरलाल नेहरू की बेटी थीं. उस कद्दावर व्यक्तित्व के सामने पोता होने के बावजूद वरुण गांधी तो बहुत छोटे हैं. उन्होंने वही किया, जो नेहरू-गांधी परिवार से उन्होंने सीखा. इसमें कोई दो राय नहीं कि पीलीभीत में कोर्ट के सामने उनका 'सरेन्डर' प्रचार और सहानुभूति पाने के लिए था.
यह भारतीय लोकतंत्र का एक दु:खद पहलू है. आज़ादी-प्राप्ति के 60 वर्षों बाद भी लोकतंत्र के मंच पर 'गंभीरता' की जगह भौंडापन! इस पर वरुण नहीं, भाजपा-कांग्रेस सहित अन्य दलों के वरिष्ठ नेतागण चिन्तन-मनन करें. चूंकि वरुण के पीलीभीत प्रकरण की बुनियाद साम्प्रदायिक है, स्वीकार नहीं किया जा सकता. वरुण तो नाटक के एक पात्र मात्र हैं. उनके कंधे पर बंदूक रख गोली चलाने वाले हाथ तो कोई और हैं. ये हाथ किसी बच्चे के तो हो नहीं सकते. कोई लाख इनकार करे, लेकिन सच यही है कि वरुण को सामने कर सिर्फ उत्तरप्रदेश ही नहीं, देश भर में साम्प्रदायिक आग प्रज्वलित करने की कोशिश की गयी है. इस हेतु धर्मनिरपेक्ष नेहरू-गांधी परिवार के वरुण गांधी का चयन एक दूरगामी सोच की परिणति है.
सोनिया गांधी तो स्वयं नहीं बोल रहीं, लेकिन प्रियंका और राहुल की प्रतिक्रियाएं उनकी सोच के रूप में ही सामने आई हैं. भारतीय राजनीति के लिए यह एक अत्यंत ही खतरनाक घटना विकास क्रम है. इसे हल्के से न लिया जाए. हालांकि वरुण ने इनकार किया है, किन्तु जो शब्द उनके मुंह से निकले बताए जा रहे हैं, वे साम्प्रदायिकता की चिन्गारी को दावानल में बदलने के लिए पर्याप्त हैं. देश-विभाजन के पक्ष में पं. जवाहरलाल नेहरू ने तब भरे दिल से टिप्पणी की थी कि, ''सिर काट कर हम सिरदर्द से छुटकारा पा लेंगे!'' इस पाश्र्व में वरुण गांधी का नया 'अवतार' चौंकाने वाला है. कम से कम इस नए खतरनाक मुद्दे पर दलीय प्रतिबद्धता त्याग कर तो सभी दल एक मंच पर आ जाएं!
29 मार्च 2009

Saturday, March 28, 2009

नग्न न करें चौथे स्तंभ को!


अगर यह चौथे खंभे के बदन से शालीनता के वस्त्र को उतार उसे अर्थात् मीडिया को नग्न करने की कोशिश है तो सफलता की कोई सोचे भी नहीं. प्रतिरोध होगा और इसे भारतीय समाज स्वीकार नहीं करेगा. दिल्ली में चैनलों को, उनके संचालकों को, उनमें काम करने वाले प्रशासकीय अधिकारियों-कर्मचारियों और पत्रकारों को बहुत नजदीक से देख चुका हूं. कुछ को नंगा भी. बावजूद इसके 'एक उम्मीद' जैसे सराहनीय घोष वाक्य के साथ नए 'पी-7 न्यूज' चैनल की शुरुआत से दु:खी हूं. क्षोभ से दिल भर उठा चैनल के 'लांचिंग' कार्यक्रम की जानकारी प्राप्त कर. चैनल के एंकर-पत्रकारों से 'कैटवॉक' की सोच ही पतित है, घृणित है पत्रकारों की भागीदारी .
एक ओर जब इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर भ्रम और अश्लीलता फैलाने के लग रहे आरोपों पर बंदिश लगाए जाने के उपाय स्वयं चैनलों के संचालक-पत्रकार ढूंढ़ रहे हों, 'पी-7 न्यूज' ने उन्हें ठेंगा क्यों दिखाया? क्या इस नवउदित चैनल ने 'नेकेड टीवी' का अनुसरण करने की सोच रखी है? संचालक किसी भ्रम में न रहें. इस देश का कानून और इसकी संस्कृति इजाजत नहीं देगी. फिर पत्रकारों को 'रैम्प' पर मटकने के लिए मजबूर क्यों किया गया? चूंकि इस अवसर पर फिल्म अभिनेत्री डिम्पल कपाडिय़ा और मॉडल नेत्रा रघुनाथन मौजूद थीं, संचालकों की सोच अनावृत्त है. साफ है कि वह सारा तामझाम प्रचार- सस्ते प्रचार के लिए किया गया था. ऐसा नहीं होना चाहिए था.
गिरावट के बावजूद मीडिया से लोग अनुकरणीय आदर्श की अपेक्षा करते हैं. साफ-सुथरी विश्वसनीय खबरों की चाहत रहती है लोगों को. मनोरंजन के कार्यक्रमों से उन्हें परहेज नहीं, किन्तु उच्च स्तर और सर्वमान्यता की शर्त वह अवश्य रखते हैं. क्यों किया 'पी-7 न्यूज' ने ऐसा? 'एक उम्मीद' को प्रचारित कर मीडिया जगत में उन्होंने तो क्रांति लाने का संदेश दिया था. आशा जगी थी कि यह नया चैनल उम्मीद की नई रोशनी लेकर आएगा. चैनलों पर से अविश्वसनीयता और अश्लीलता की गंदली चादर को जला राख कर देगा. एक नया आदर्श स्थापित कर अन्य चैनलों के लिए अनुकरणीय मानक बनेगा. लेकिन अपने 'लांचिंग' कार्यक्रम द्वारा संचालकों ने 'उम्मीद' को 'नाउम्मीद' में बदल डाला.
मैं यहां संदेह का लाभ देते हुए उन्हें एक और अवसर देने को तैयार हूं. हो सकता है अति उत्साह में 'कैटवॉक' संबंधी गलत सलाह संचालकों ने स्वीकार कर ली हो. या फिर सलाहकारों ने 'न्यूज' के ऊपर 'ग्लैमर' को वरीयता दे दी हो. अभिनेत्री और मॉडल की उपस्थिति इस बात की चुगली कर रही है. इस पूरे प्रसंग में सर्वाधिक पीड़ादायक पत्रकारों का 'कैटवॉक' के लिए तैयार होना है. क्यों तैयार हुए वे 'रैम्प' पर आने को? अगर यह नौकरी करने की मजबूरी थी, तो मैं बता दूं कि भविष्य के लिए आप स्वयं के लिए मजबूरी का कोष तैयार कर रहे हैं. एक ऐसा कोष जिसमें सिर्फ समानार्थी शब्द ही मिलेंगे, पर्यायवादी नहीं! इतनी निरीहता क्यों? गुण है, क्षमता है, कुछ कर गुजरने का माद्दा है, पेशे के प्रति ईमानदारी व निष्ठा है, सामाजिक सरोकारों का ज्ञान है, राष्ट्र के प्रति समर्पण की तैयारी है, तब कोई आपको मजबूर नहीं कर सकता! बल्कि संचालक मजबूर हो जाएंगे आपकी पवित्र सोच के साथ आगे बढऩे के लिए. आरंभिक तकलीफों-परेशानियों को छोड़ दें तो सच मानिए, अंतिम विजय आपकी ही होगी. समर्पण, कर्तव्य-दायित्व निर्वाह के प्रति हो, न कि किसी कुत्सित सोच के प्रति. पत्रकार तो समाज, देश का मार्गदर्शक है. निडरता-निष्पक्षता का झंडाबरदार है. समाज में विशिष्ट स्थान है उसका. कवच के रूप में पाठकों-दर्शकों की विशाल फौज उपलब्ध है. फिर कैसा भय और कैसी निराशा! झुकना और रेंगना तो कल्पनातीत है. अपनी ताकत, अपने वजूद को हाशिए पर न रखें पत्रकार! इस बिरादरी को भ्रष्ट-पतित करने की कोशिशें हर काल में होती रही हैं. आज भी ऐसा ही हो रहा है- लेकिन मजबूरी में उत्पन्न कुछ अपवाद को छोड़ दें तो बिरादरी इनका सामना मजबूती से करती आयी है- कर रही है. 'पी-7 न्यूज' के संचालकगण इस सचाई को हृदयस्थ कर लें. 'पी-7' को 'पर्ल (मोती)-7' ही रहने दें, 'पेज-3' को विस्तार देते हुए 'पेज-7' न बनाएं. तब आपके मान-सम्मान में वृद्धि होगी और जिस 'एक उम्मीद' को आपने जागृत किया है, वह मीडिया के स्वच्छ-सुंदर स्वरूप का वाहक बनेगा. शुभकामनाएं.
28 मार्च 2009

लोकतंत्र के 'पापियों' का नाश करे युवा शक्ति!


लोकतंत्र को कमजोर व व्यवस्था को भ्रष्ट-पतित करने के अपराधी एक मंच पर एकत्रित हो डुगडुगी पीटने लगे हैं कि सत्ता की महारानी उनकी ही अंकशायिनी बनेगी. अगर ऐसा हो गया तब....? तब क्या, देश रूबरू होगा प्रतिदिन लोकतंत्र के साथ बलात्कार के नए-नए दृश्य से! रेखांकित कर दूं, यह एक अकेले मेरी कल्पना, मेरी चिंता नहीं है. मजबूरी, भय, स्वार्थ आदि अनेक कारण हैं जिनकी वजह से लोग अपनी चिंता व्यक्त नहीं कर पाते. कुछ अवसरवादी पाप के गंदले तालाब में पापियों के साथ गोते लगा उनके भागीदार बन जाते हैं. जूठन के रूप में कुछ मलाई पा ये गद्गद देखे जाते हैं. कुछ असहाय तटस्थ बने रहते हैं. बलात्कारी ऐसी स्थिति का फायदा उठा आगे और आगे बढ़ते चले जाते हैं. देश चेत जाए! ऐसा मौन, ऐसी तटस्थता कहीं एक बार फिर हमारे पैरों-हाथों को गुलामी की जंजीरों से जकड़ न लें. यह चेतावनी नक्कारखाने में तूती की आवाज सरीखी ही है अभी. परंतु ऐसी संभावना को एक सिरे से खारिज करने की कोई कोशिश न करे. आत्मघाती होगा ऐसा करना.
मैं अवसरवादियों की चर्चा यूं ही नहीं कर रहा. जरा गौर करें, समाजवादी पार्टी के मुलायमसिंह यादव, राष्ट्रीय जनता दल के लालूप्रसाद यादव और लोक जनशक्ति पार्टी के रामविलास पासवान के मिलन पर. ये तीनों प्रधानमंत्री पद के दावेदार हैं. फिर एक मंच पर कैसे? दरअसल ये कांग्रेस को कमजोर कर चुनाव पश्चात उसे अपने इशारों पर नचाने की सोच रहे हैं. कांग्रेस के साथ सौदेबाजी करेंगे ये. हास्यास्पद यह कि लालू कांग्रेस को यह बताने से नहीं चूक रहे हैं कि ''वे (सोनिया-मनमोहन) चैन की नींद सोएं, हम चुनाव जीत कर संप्रग सरकार बनाएंगे. और कांग्रेस या सोनियाजी, मनमोहन सिंह अथवा जिसे भी प्रधानमंत्री बनाने को कहेंगे, हम उसे ही बनाएंगे.'' क्या कांग्रेस इनके झांसे में आ जाएगी? चूंकि वह स्वयं मजबूर है, लाचार है, इस तिकड़ी को तत्काल नाराज नहीं करेगी. दक्षिण में डीएमके, एडीएमके और पीएमके क्षेत्रीयता के कवच में अलग खिचड़ी पका रही हैं. दिल्ली से इनका प्रेम 'रायसीना हिल' तक सीमित है. शेष भारत तो इनके लिए अछूत है ही. उड़ीसा में नवीन पटनायक के बीजू जनता दल ने भी स्वयं को राष्ट्रीय-हित से इतर प्रादेशिक-हित में सिमटा लिया है. पश्चिम बंगाल में सत्तारूढ़ वामदलों का स्वार्थ सर्वविदित है. लाल किले पर 'लाल झंडा' फहराने की लालसा-पूर्ति हेतु ये दल किसी भी सीमा तक जा सकते हैं- नीति, मूल्यों, सिद्धांत का त्याग कर सकते हैं. उत्तर-पूर्वी क्षेत्र के राजदल दक्षिण से भी दो कदम आगे बढ़ते हुए स्वयं को भारतीय आधे-अधूरे मन से ही मानते हैं. दोषी चाहे हमारी आंतरिक व्यवस्था अथवा केंद्र सरकार की नीति ही क्यों न हो, इन क्षेत्रों की 'सोच' का कड़वा सच यही है. रही बात जम्मू-कश्मीर की, तो वहां के लोगों को भारतीयता का विश्वास दिलाने में शासकों की विफलता सामने है.
ये सभी उद्धरण चीख-चीख कर भारत की एकता, अखंडता, सार्वभौमता और स्वतंत्रता पर मंडरा रहे खतरे की ओर इशारा कर रहे हैं. क्या हम सोए ही रहेंगे? जागना होगा, विशेषकर देश की युवा पीढ़ी को! वे न केवल देश के भाग्य निर्माता हैं, कल के शासक भी होंगे. इनके हाथ एक अवसर आया है- आम चुनाव का. राजदलों, उम्मीदवारों के अंदर झांकें. ये सभी इस पीढ़ी के मत को लेकर आशंकित मिलेंगे. यह पीढ़ी इसका फायदा उठाए, निर्णायक बने. अवसरवादियों को उनकी औकात बताने का मौका है यह. चुनाव में अपने मत का शत-प्रतिशत उपयोग करे यह पीढ़ी. स्वच्छ छवि, ईमानदार, कुशल पात्र का चयन करें- जाति, धर्म, सम्प्रदाय व कथित दलीय प्रतिबद्धता का त्याग कर. प्रतिबद्धता सिर्फ राष्ट्रहित हो. तिकड़मियों के स्वार्थ को पूरा न होने दें. गांधी, नेहरू, प्रसाद, आंबेडकर, तिलक आदि की आत्माएं तब युवा पीढ़ी को हृदय से आशीर्वाद देंगी. भारतीय लोकतंत्र को गुलाम बना ऐश करने वालों को यह युवा पीढ़ी बख्शे नहीं!
27 मार्च 2009

Thursday, March 26, 2009

लोकतंत्र के ये कैसे शीर्ष पुरूष!


'नहीं मनमोहन सिंह नहीं! नहीं आडवाणी, नहीं!' दोनों अब भारतीय जनमानस की नजरों में गिर गए हैं. लोकतंत्र की गरिमा को खंडित करने के अपराधी बन गए हैं ये दोनों. विशाल भारतीय लोकतंत्र के ललाट पर इन दोनों ने उच्छृंखलता के आपत्तिजनक कृत्य को चस्पा दिया है. प्रधानमंत्री पद के अवमूल्यन के अपराधी बन गए हैं डॉ. मनमोहन सिंह. और प्रधानमंत्री पद के घोषित उम्मीदवार लालकृष्ण आडवाणी ने अपने शब्दों से स्वयं को सर्वथा अयोग्य करार दिया है. संसदीय लोकतंत्र की हिमायती, गरिमा की रक्षक भारतीय जनता का यही आकलन है. क्या लोकतंत्र में अपनी बात 'असभ्य' या गैर जिम्मेदार हुए बगैर नहीं रखी जा सकती? क्या बगैर कीचड़ उछाले अपने प्रतिद्वंद्वी से स्वयं को बेहतर नहीं बताया जा सकता? ये सवाल भारत की प्रबुद्ध जनता के हैं. लालकृष्ण आडवाणी तो पिछले 50 वर्षों से सार्वजनिक जीवन में हैं. अधिकांश समय विपक्ष की राजनीति करने वाले आडवाणी देश के उप प्रधानमंत्री और गृहमंत्री जैसे महत्वपूर्ण पद को सुशोभित कर चुके हैं. फिर असंयमित आचरण? देश के प्रधानमंत्री को तीखे शब्दों में सर्वथा अक्षम बताकर आडवाणी अपने पक्ष में कौन सा राजनीतिक लाभ उठाना चाहते हैं? आडवाणी इस स्थापित सत्य को कैसे भूल गए कि दूसरे की अयोग्यता किसी की योग्यता नहीं बन सकती. 50 वर्षों के सार्वजनिक जीवन का महत्वपूर्ण दायित्व निभा चुके आडवाणी अपने प्रधानमंत्री को 10-जनपथ के 'आदेशपाल' के रूप में प्रस्तुत कर अपने साथ-साथ पूरे देश का मान मर्दन करने के अपराधी बन गए हैं. क्या यह अपराध नहीं? अगर कानूनी रूप से नहीं, तब नैतिक अपराध तो है ही. मनमोहन सिंह को अयोग्य साबित करने के क्रम में आडवाणी यह कैसे भूल गए कि वे किसी व्यक्ति विशेष का नहीं, बल्कि देश के प्रधानमंत्री को विश्व समुदाय की नजरों में गिरा रहे हैं. घर के मुखिया की आलोचना बंद कमरे के अंदर होती है, सड़क-चौराहों पर नहीं!
इस अपराध के दोषी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी हैं. आडवाणी तो 'प्राइम मिनिस्टर इन वेटिंग' की भूमिका में हैं. मनमोहन तो प्राइम मिनिस्टर हैं. मनमोहन सिंह की अनेक आपत्तिजनक व हास्यास्पद बातों के बावजूद उन्हें देश की जनता संदेह का लाभ इस आधार पर देती रही कि वे कोई 'पॉलिटिशियन' नहीं, विशुद्ध अर्थशास्त्री हैं. उनका राजनीति प्रवेश तो एक दुर्घटना मात्र है. अमेरिका के साथ परमाणु ऊर्जा मुद्दे पर उनके घोर आपत्तिजनक आचरण पर भी एक अर्थशास्त्री की सोच मानकर जनता ने क्षमा कर दिया था. लेकिन अब, जब वे भी आडवाणी की भाषा बोलने लगे तब क्या कहा जाए. बाबरी मस्जिद विध्वंस, संसद व लाल किले पर हमला तथा गुजरात दंगों के लिए आडवाणी को दोषी करार देते हुए प्रधानमंत्री पद के लिए 'अयोग्य' करार देकर मनमोहन सिंह ने स्वयं के कद को छोटा कर लिया है. एक ज्ञानी 'भद्रजन' के रूप में पूरे विश्व में अपनी पहचान बना चुके मनमोहन सिंह ने अपने प्रशंसकों को निराश किया है. उनका इस तरह 'पॉलिटिशियन' बन जाना भारतीय लोकतंत्र के अनुकरणीय चरित्र पर भी सवालिया निशान लगा रहा है. ऐसा नहीं होना चाहिए था. भारतीय लोकतंत्र के ये दोनों शीर्ष पुरुष अति लघु बन कर रह गए हैं.
26 मार्च 2009

Wednesday, March 25, 2009

प्रियंका पहले स्वयं गीता पढ़ लें !


वरुण गांधी को गीता पढऩे की सलाह देने वाली प्रियंका वाड्रा क्या यह बताएंगी कि उन्होंने गीता कब और कितनी पढ़ी है? गीता का सार क्या है? मैं इस निष्कर्ष के लिए मजबूर हूं कि प्रियंका ने या तो गीता नहीं पढ़ी है या वे जान-बूझ कर वरुण के संबंध में गीता का उल्लेख कर रही हैं. आश्चर्यजनक रूप से प्रियंका ने वरुण को सीख देने का आधार उस भाषण को बनाया है, जिसे वरुण अपना मानते ही नहीं. कभी वरुण को राहुल से ज्यादा प्यार करने वाली प्रियंका उसके शब्दों पर अब विश्वास क्यों नहीं कर रहीं? साफ है कि यह सब नेहरू-गांधी परिवार के उत्तराधिकारी के रूप में राहुल गांधी और सिर्फ राहुल गांधी को स्थापित करने की कवायद है. जबकि वरुण गांधी को नेहरू-गांधी परिवार के उत्तराधिकार पर दावा करने का उतना ही हक है, जितना राहुल गांधी को!
नेहरू परिवार में सत्ता-संघर्ष की अंतर्कथा का एक अंश है ताजा विवाद. वैसे इसकी नींव बहुत पहले ही पड़ चुकी थी. यह एक विडंबना ही है कि प्रियंका ने वरुण की आलोचना के लिए गीता का सहारा लिया है. पहले प्रियंका गीता के सार पर गौर करें- 'अपना कर्म करो, फल की आशा मत करो' और यह कि 'जब-जब धर्म की हानि होती है, धर्म के रक्षार्थ ईश्वर किसी महापुरुष के रूप में अवतरित होते रहे हैं.' क्या प्रियंका को यह बताने की जरूरत है कि गीता में भगवान कृष्ण जब धर्म की बात करते हैं तो किस धर्म की! आज जब वरुण यह कहते हैं कि वे नेहरू हैं, भारतीय हैं और हिन्दू हैं, तब उन्हें गलत कैसे ठहराया जा सकता है?
यदि बात सत्ता-संघर्ष की ही की जाए, तब एक बार फिर गीता का उल्लेख कर लें. महाभारत में जब एक ही परिवार के योद्धा हथियारबंद खड़े हुए, तब विचलित अर्जुन को क्या कृष्ण ने यह नहीं कहा था कि ''युद्ध में सब कुछ जायज है! और युद्ध के मैदान में कोई रिश्तेदार नहीं होता, सभी योद्धा होते हैं!'' क्या प्रियंका इन सब बातों की याद वरुण को दिलाना चाहेंगी? विडंबना यह भी कि प्रियंका आज जिस मेनका-पुत्र वरुण की आलोचना कर रही हैं, कांग्रेस की ओर से वरुण की गिरफ्तारी की मांग की जा रही है, 1977 में जब इंदिरा गांधी सत्ता से बाहर कर दी गई थीं, जनता सरकार उन पर लगातार आक्रमण कर रही थी तो वही मेनका अकेली ही नेहरू परिवार के लिए ढाल बन कर सामने खड़ी हुई थीं. परिवार के हितों की प्रबल रक्षक के रूप में तब मेनका की छवि उभरी थी. उन्होंने 'सूर्या' पत्रिका के द्वारा इंदिरा विरोधियों पर लगातार हमले किए. 'सूर्या' ने तब इंदिरा के खिलाफ मोर्चा खोलने वाले लोगों के अनेक कांडों का भंडाफोड़ किया. सोनिया और राजीव तो तब राजनीति से ही घृणा करते थे. प्रियंका आज जिस अंगूठी को धारण करती हैं, वह अंगूठी भी वस्तुत: वरुण की मां मेनका गांधी की ही है! अपनी मां कमला नेहरू की इस अंगूठी को इंदिरा ने मेनका को दिया था.
सच तो यह है कि सन् 2000 में 20 वर्षीय वरुण तब सोनिया और प्रियंका की आंखों में खटक गए थे, जब उन्होंने राजनीति के संबंध में बातें करनी शुरू कर दी थीं. सीताराम केसरी ने तो मृत्यु शैया से वरुण को 'सच्चा गांधी' करार दिया था. केसरी ने आगे कहा था, ''हो सकता है मैं यहां न रहूं, परंतु यह बच्चा राजनीति में नाम कमाएगा. वह एक स्कॉलर है और नेहरू के बाद नेहरू-गांधी परिवार का पहला स्नातक है.''
वैसे प्रियंका का कहना है कि ''राहुल कैंब्रिज यूनिवर्सिटी से एम.फिल. कर चुके हैं.'' यह बहस का मुद्दा हो सकता है. किंतु इस पर कोई बहस नहीं कि नेहरू-गांधी परिवार की दो शाखाओं के बीच कटुता आज चरम पर पहुंच चुकी है. मेनका-पुत्र वरुण अपनी राजनीतिक भूमिका में जिस गति से महत्व प्राप्त करने लगे हैं, वह सोनिया-प्रियंका-राहुल को बर्दाश्त नहीं! परंतु वे चाहें जितनी भी कोशिश कर लें, वरुण को रोक पाना आसान नहीं होगा. नेहरू-गांधी परिवार का अंतहीन संघर्ष भले अपनी जगह कायम रहे, किंतु भारत का जनमानस प्रियंका-राहुल और वरुण को अलग कर नहीं देखता. तीनों गांधियों को लोग पैदाइशी नेता मानते हैं, जिनमें चमत्कार करने की क्षमता है. वरुण में भाजपा की रुचि इसी कारण पैदा हुई थी.
प्रियंका राहुल को नेहरू परिवार का असली वारिस बताने के अभियान में जुटी हैं. लेकिन आज की नई युवा पीढ़ी को सिर्फ 'एक उत्तराधिकारी' नहीं चाहिए. उसे एक 'योग्य नेतृत्व' चाहिए- हर तरह से सक्षम, ईमानदार और आक्रामक! वरुण को गीता अध्ययन करने का सुझाव देने वाली प्रियंका भी इस तथ्य से अज्छी तरह परिचित नहीं होंगी. चूंकि वरुण बगैर किसी 'पारिवारिक' समर्थन के अपना रास्ता स्वयं तैयार कर रहे हैं, उन्हें रोकने की कोशिश नहीं होनी चाहिए. अगर कभी महाभारत की तरह राहुल-वरुण आमने-सामने हो जाएं, तब यह देखना दिलचस्प होगा कि दोनों के सारथी कौन बनते हैं? फैसला इसी बात पर निर्भर रहेगा.

फिर कटघरे में निर्वाचन आयोग!


क्या निर्वाचन आयोग संविधान-प्रदत्त अपने अधिकारों-दायित्व को भूल गया है ? अगर ऐसा है तो उसके तीनों आयुक्त राष्ट्रपति को सूचित कर तत्काल सेवामुक्त हो जाएं! और अगर ऐसा नहीं है, तब देश उनसे जानना चाहेगा कि आयोग के कर्तव्य -दायित्व या फिर अधिकार के किस प्रावधान के अंतर्गत उसने भाजपा को सलाह दी कि वरुण गांधी को उम्मीदवार न बनाया जाए! संभवत: निर्वाचन आयोग के इतिहास की यह पहली घटना है. पहले से ही विवादों में घिरा निर्वाचन आयोग वरुण के मामले को लेकर और अधिक संदिग्ध हो गया. अगर वरुण ने सचमुच अल्पसंख्यक मुसलमानों के खिलाफ आपत्तिजनक बातें कही हैं, तब मौजूदा कानून के तहत उनके खिलाफ मामला दर्ज करने का आदेश देना आयोग के अधिकार क्षेत्र में आता है. किन्तु उम्मीदवारी तय करने संबंधी किसी दल को सुझाव देने का अधिकार आयोग को प्राप्त नहीं है. तब उसने ऐसा क्यों किया? भारत की इस महत्वपूर्ण संवैधानिक संस्था को सीधे-सीधे सत्ता, किसी एक दल या परिवार के प्रति निष्ठावान निरूपित नहीं किया जाना चाहिए. बावजूद इसके ऐसा हो रहा है. इस मामले में बिल्कुल ठीक ही.
जिस कथित आपत्तिजनक व साम्प्रदायिक भाषण को वरुण गांधी के मुख में डाला जा रहा है, बताया जाता है कि वह घटना 4 मार्च की है. लेकिन उस दिन से लेकर अगले 12 दिनों तक उक्त 'घोर साम्प्रदायिक' और आपत्तिजनक शब्दों की जानकारी देश को नहीं दी जाती. मीडिया भी इस बीच मौन रहा. स्वाभाविक जिज्ञासा यह कि इतने दिनों तक उस खबर के प्रसारण को रोक कर क्यों रखा गया? जिन शब्दों को अब उछाला जा रहा है, उन पर तो तभी पूरे देश में हंगामा हो जाना चाहिए था. लेकिन 12 दिनों तक ऐसा कुछ नहीं हुआ. अब इसे क्या माना जाए! टीआरपी की दौड़ में काल्पनिक या स्वरचित घटनाओं को बार-बार टेलीविजन पर दिखाते रहने के आदी टीवी चैनल चूक कैसे गए? समाचार-पत्र भी इतने दिनों तक खामोश कैसे रहे? इससे तो यही प्रतीत होता है कि मीडिया के पास वरुण को लेकर ऐसी कोई खबर तब थी ही नहीं!
फिर अचानक एक सीडी का उदय होता है और न्यूज चैनलों के समाचार कक्ष में बैठे पत्रकारों के ज्ञानचक्षु अचानक खुल जाते हैं. जिम्मेदार मीडिया की ऐसी हरकत के बाद निर्वाचन आयोग में बैठे तीन निर्णायक भाजपा को सलाह देने लगते हैं, तो आश्चर्य क्या! भाजपा ने वरुण का साथ देते हुए यह घोषणा कर कि पीलीभीत से वरुण ही पार्टी उम्मीदवार होंगे, निर्वाचन आयोग को उसकी औकात बता दी है. मैं यह नहीं कहता कि आयोग का फैसला पक्षपातपूर्ण है. मेरी दृष्टि में यह फैसला अज्ञानपूर्ण है. एक साधारण समझ का व्यक्ति भी इस आकलन की पुष्टि कर देगा. तो क्या यह मान लिया जाए कि आयोग के तीनों आयुक्त अज्ञानी ही हैं? जवाब आयुक्तों को ही देना है. और उन्हें जवाब देना होगा इन तथ्यों की मौजूदगी को ध्यान में रख कर कि संजय दत्त नामक एक अभिनेता की उम्मीदवारी के खिलाफ आयोग ने संबंधित राजदल को कोई सलाह नहीं दी, जबकि दत्त एक सजायाफ्ता है. शिबू सोरेन को सत्तापक्ष ने न केवल केन्द्र में मंत्री बना रखा था, बल्कि हाल में उन्हें झारखंड का मुख्यमंत्री भी बनाया गया था. सोरेन हत्या के आरोपी हैं. कांग्रेस के जगदीश टाइटलर और सज्जनकुमार पर सिख-विरोधी दंगों में शामिल होने के आरोप हैं. अनेक प्रत्यक्षदर्शी इन दोनों को सिखों की हत्या का अपराधी बताते रहे हैं. फिर आयोग ने इनसे संबंधित राजनीतिक दलों को ऐसी सलाह क्यों नहीं दी कि इन्हें उम्मीदवार नहीं बनाया जाए! वरुण गांधी के मामले में आयोग की जल्दबाजी रहस्यपूर्ण है. चूंकि कांग्रेस की ओर से वरुण की गिरफ्तारी की मांग की जा चुकी है, आयोग की यह पहल और भी संदिग्ध हो उठती है. अब प्रियंका वाड्रा ने भी यह टिप्पणी कर कि वरुण गांधी की बातें नेहरू-गांधी परिवार की परंपरा-संस्कृति से मेल नहीं खातीं, विवाद को एक नया रूप दे दिया है. लगता है, सोनिया-मेनका के पारिवारिक विवाद में पूरे राष्ट्र का ताना-बाना उलझ कर रह गया है. ऐसा नहीं होना चाहिए. किसी एक परिवार का विवाद अगर पूरी भारतीय राजनीति को प्रतिकूल रूप से प्रभावित करें, तब उस 'विवाद' को स्थायी मौत देने में ही देश का भला है. वैसे क्या प्रियंका वाड्रा को नेहरू-गांधी परिवार की परंपरा, संस्कृति व इतिहास की पूरी जानकारी है? शायद नहीं!

Monday, March 23, 2009

लालू की चुनौती, कांग्रेस की 'मूर्खता'...!


अब सोनिया गांधी चाहे जितनी आंखें तरेर लें, लालू यादव ने उनकी और उनकी पार्टी की औकात बता दी है. बिना शब्दों को चबाए लालू ने यह जता दिया है कि उत्तरप्रदेश के बाद कांग्रेस बिहार को भी भूल जाए. यह तो होना ही था. बिहार और लालू को जानने वाले इस सचाई से पूर्व-परिचित हैं कि सन् 2004 में लालू, सोनिया के निकट आए तो एक खास एजेंडा के साथ. अन्यथा घोर ब्राह्मïण विरोधी यह समाजवादी कभी भी कांग्रेस के साथ जा ही नहीं सकता था. लालू की राजनीतिक बुनियाद ही कांग्रेस तथा नेहरू-गांधी परिवार-विरोध पर पड़ी है. जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में तब इंदिरा गांधी के कुशासन और भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन से अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत करने वाले लालू यादव यह आज तक नहीं भूले हैं कि उनके खिलाफ कुख्यात 'चारा कांड' की शुरुआत कांग्रेस की ओर से की गई थी. उन्हें न केवल एक अतिभ्रष्ट राजनीतिक के रूप में कांग्रेस ने देश के सामने चित्रित किया, बल्कि मुकदमों में फंसा उन्हें जेल में बंद रखने की कोशिशें होती रहीं. यहां तक कि जब उन्हें मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने को मजबूर होना पड़ा, तब कांग्रेस शासित केंद्र सरकार के इशारे पर सेना की सहायता से गिरफ्तार करने की साजिश रची गई थी. केंद्रीय जांच ब्यूरो के तत्कालीन संयुक्त निदेशक स्वयं अलसुबह सेना की मदद लेने के लिए सैन्य अधिकारियों के पास पहुंचे थे. उद्देश्य था कि लालू यादव को एक 'कुख्यात भ्रष्ट बाहुबली' के रूप में देश के सामने पेश किया जाए. सेना द्वारा इनकार कर दिए जाने के कारण केंद्र की मंशा पूरी नहीं हो सकी. लेकिन तब केंद्रीय जांच ब्यूरो ने एक के बाद एक मामले दर्ज करने का जो सिलसिला शुरू किया था, वह बेमिसाल है. 'ऊपरी आदेश' के तहत सीबीआई ने षडय़ंत्र रचा था कि लालू यादव गिरफ्तार होने के बाद जैसे ही जमानत पर रिहा हों, तत्काल दूसरे मामले में उन्हें गिरफ्तार कर लिया जाए. उन्हें कानूनी मामलों में इतना उलझा दिया जाए कि राजनीतिक रूप से वे निष्क्रिय हो जाएं. लालू यादव ये सब घटनाएं भूल कैसे सकते हैं?
2004 के जिस एजेंडे की मैंने चर्चा की है, वह वस्तुत: लालू की कूटनीति थी. कांग्रेस नेतृत्व की सरकार को समर्थन की एवज में उन्हें केंद्र की मदद चाहिए थी. लालू के खिलाफ मामलों पर नजर रखने वाले पुष्टि करेंगे कि समर्थन का भरपूर लाभ लालू को मिला. जांच की गति धीमी हुई और शनै:- शनै: उन्हें राहत मिलने लगी. सीबीआई की ही ओर से लालू के खिलाफ मामले कमजोर किए जाने लगे. अनेक मामलों में वे और उनकी पत्नी राबड़ी देवी बरी भी हुईं.
आज अगर सोनिया व कांग्रेस को लालू उनकी औकात बताने पर उतारू हैं तो आश्चर्य क्या? लालू इस बात से अच्छी तरह वाकिफ हैं कि बिहार व झारखंड में अपनी राजनीतिक शक्ति को बरकरार रख तथा उसमें इजाफा कर ही वे भविष्य में बनने वाली सरकार पर दबाव बना सकते हैं. लालू के खिलाफ मामले अभी खत्म नहीं हुए हैं. इतिहास साक्षी है कि सत्ता से हटने पर केंद्र की ताकत क्षत्रप के खिलाफ हो जाती है.
बिहार में भारतीय जनता पार्टी और जनता दल (यू) सत्ता में हैं. तुलनात्मक दृष्टि से वहां की जनता सरकार को पसंद कर रही है. मुख्यमंत्री के रूप में नीतीश कुमार वहां काफी लोकप्रिय हैं. कांग्रेस का जनाधार वहां लुप्तप्राय है. ऐसे में कांग्रेस का साथ देकर लालू यादव खुद के लिए 'मौत' को आमंत्रित क्यों करें? उन्होंने बिल्कुल सही निर्णय लेते हुए कांग्रेस से पल्ला झाड़ रामविलास पासवान से गठजोड़ कर लिया. कांग्रेस ने जवाबी प्रहार के रूप में वहां की 40 में से 37 सीटों पर चुनाव लडऩे की घोषणा कर अपने लिए स्वयं ही हास्यास्पद स्थिति का निर्माण कर लिया है. राजनीति का नया-नया विद्यार्थी भी बेखौफ ऐसी भविष्यवाणी कर सकता है कि इनमें से 30 से अधिक सीटों पर कांग्रेस उम्मीदवारों की जमानतें जब्त हो जाएंगी.
यह समझ से परे है कि कांग्रेस क्यों खुद की फजीहत कराने पर आमादा है! दीवार की लिखावट को पढ़ सकने में अगर कांग्रेस नेतृत्व अक्षम है, तब कम-अज-कम हवा में तैर रहे कांग्रेस-विरोधी शोर को तो सुन ले! लालू यादव या रामविलास पासवान कितने सफल होंगे, यह तो चुनाव परिणाम के बाद ही ज्ञात होगा, किन्तु बिहार में कांग्रेस की 'मौत' को तो लोग अभी ही देख रहे हैं. बेहतर हो, कांग्रेस नेतृत्व अपनी मुठ्ठी को बंद ही रखे.

Sunday, March 22, 2009

संघ परिवार में उत्पन्न दरार!


किसी भी झुंड में 'मतभेद' एक स्वस्थ सोच प्रक्रिया को रेखांकित करता है. यह एक विचार प्रधान समाज का भी द्योतक है. किन्तु 'मनभेद'? तर्क के लिए चाहे कोई कुछ भी कह ले, लेकिन यह सच अपनी जगह कायम रहता है कि इसकी जड़ में वैचारिक भेद कम, व्यक्तिगत पसंद-नापसंद आधारित कुंठाएं मजबूती से मौजूद रहती हैं. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक पद से के. सुदर्शनजी का अचानक इस्तीफा और मोहन भागवत की इस पद पर प्रोन्नति मात्र एक खबर नहीं- एक बड़ी विस्फोटक खबर है. तीन वर्ष में एक बार होने वाली संघ की तीन दिवसीय प्रतिनिधि सभा की बैठक के बीच आए सुदर्शनजी के इस्तीफे से संघ परिवार में उत्पन्न दरार स्पष्टत: दृष्टिगोचर है. कहीं यह सुदर्शनजी की लालकृष्ण आडवाणी के प्रति नकारात्मक सोच की परिणति तो नहीं है? प्रतिनिधि सभा की बैठक के पहले दिन यह ऐलान किया गया कि प्रधानमंत्री पद के लिए आडवाणी संघ की पहली पसंद हैं. इसके बाद दूसरी बैठक के पूर्व ही सुदर्शनजी इस्तीफा दे देते हैं. संघ कार्यप्रणाली की सामान्य प्रक्रिया नहीं है यह. ये वही सुदर्शनजी हैं, जिन्होंने राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार के सत्ता में रहते मांग की थी कि प्रधानमंत्री वाजपेयी और उपप्रधानमंत्री आडवाणी दोनों इस्तीफा दे दें. सुदर्शनजी चाहते थे कि शासन की बागडोर किसी युवा को सौंप दी जाए. निश्चय ही तब कोई 'युवा चेहरा' उनके जेहन में रहा होगा. कहीं वह चेहरा नरेंद्र मोदी का तो नहीं था? उस वाकये के छह-सात साल के बाद सुदर्शनजी की मौजूदगी में आडवाणीजी को 'पहली पसंद' के रूप में पेश किया गया. कट्टर सिद्धांतवादी सुदर्शन भला इसे बर्दाश्त कैसे करते! उनके इस्तीफे पर ठीक ही किसी को आश्चर्य नहीं हुआ. बैठक में बगैर नाम लिए हुए स्वयंसेवकों का आह्वान किया गया कि वे आसन्न लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवारों के पक्ष में जान लगा दें. भाजपा इससे अवश्य खुश हुई होगी. आपातकाल के बाद 1977 में संपन्न चुनावों के पश्चात यह पहला अवसर है, जब संघ परिवार खुल कर भाजपा के पक्ष में खड़ा नजर आएगा. संघ का बड़ा 'नेटवर्क' और समर्पित स्वयंसेवकों का पूरा लाभ अगर भाजपा उठा पाई तब देश के राजनीतिक परिदृश्य को एक नया स्वरूप मिलेगा. चूंकि संघ परिवार अब फिर राष्ट्रीय सत्ता संघर्ष में निर्णायक भूमिका को आतुर है, उसने योजना तैयार कर ली है. सुदर्शनजी के इस्तीफे को योजना के पहले चरण के क्रियान्वयन के रूप में देखा जाना चाहिए. उनकी जगह सरसंघचालक के पद पर मोहन भागवत की नियुक्ति महत्वपूर्ण है. मुस्लिम तुष्टीकरण, जेहादी आतंकवाद और हिन्दू साधु-साध्वियों के चरित्र हनन के संबंध में मोहन भागवत के तीखे विचार नरेंद्र मोदी की आक्रामकता के पक्षधर हैं. संघ का चिंतक वर्ग इस संभावना को ध्यान में रखकर भविष्य की रणनीति तैयार करने में जुट गया है कि 15वीं लोकसभा अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाएगी. सरकार चाहे किसी की बने, वह अल्पायु होगी. अगले ढाई-तीन वर्षों में देश को मध्यावधि चुनाव से रूबरू होना होगा. और संभवत: वह चुनाव वर्तमान गठबंधन युग की समाप्ति लेकर आएगा. और तब प्रधानमंत्री के दावेदार के रूप में न मनमोहन सिंह सामने रहेंगे और न ही लालकृष्ण आडवाणी. और वह काल सुदर्शनजी की इच्छापूर्ति का काल भी होगा- क्योंकि तब उनकी पसंद नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री पद के प्रबल दावेदार होंगे.

Saturday, March 21, 2009

लोकतंत्र का यह कैसा 'कुनैन'?


मराठा क्षत्रप शरद पवार के 'यू टर्न' की 'अंगूर खट्टे हैं' की तर्ज पर आलोचना नहीं की जानी चाहिए. यह ठीक है कि जब उन्हें प्रधानमंत्री की दौड़ में शामिल ही नहीं होना था, तब अब तक इतनी हायतौबा क्यों मचाते रहे. पवार को अपनी 'हैसियत' का ज्ञान अभी ही क्यों हुआ? संख्याबल की लघुता की जानकारी तो उन्हें पहले से थी. अब स्वयं तो बेइज्जत हुए ही, शिवसेना को भी ताड़ पर चढ़ा गिरने को मजबूर कर दिया. अब उद्धव ठाकरे अगर यह कहते हैं कि आईपीएल मैच करवाने वाला प्रधानमंत्री नहीं बन सकता, तब पवार को अपनी इस नई 'हैसियत' की भी जानकारी हो जानी चाहिए. भारतीय राजनीति के लिए, खासकर महाराष्ट्र की राजनीति के लिए यह चिंता का विषय है. उपलब्ध राष्ट्रीय नेताओं के बीच शरद पवार का कद हमेशा ऊंचा रहा है. उनकी राजनीतिक सूझ-बूझ और व्यापक ज्ञान को चुनौती कोई नहीं दे पाता. राष्ट्रीय स्तर पर उनकी सिर्फ पहचान ही नहीं, वे सर्व-स्वीकार्य भी हैं. इस पाश्र्व में स्वाभाविक प्रश्न यह पैदा होता है कि आखिर उन्होंने आरंभ में प्रधानमंत्री पद की दौड़ में शामिल होने की बात चलाई ही क्यों थी? एक राजनेता के रूप में ऐसी आकांक्षा रखना गलत कदापि नहीं है. शरद पवार ने पहल भी इसीलिए की थी. लेकिन अब अगर पवार दौड़ से बाहर होने की घोषणा करते हैं, तब निश्चय ही ऐसा उन्होंने मजबूरीवश किया होगा. यह भारतीय लोकतंत्र की जटिल राजनीतिक गुत्थियां हैं, जो योग्यता को हाशिए पर पहुंचा सिसकने को विवश कर देती हैं. जिस कथित 'संख्याबल' के सामने निरीह हो पवार ने समर्पण कर दिया है, उस संख्या का नियंत्रण आखिर कौन कर रहा है? वर्तमान सरकार की बागडोर किन हाथों में है? 545 सदस्यों वाली लोकसभा में मात्र 147 सदस्यों वाला कांग्रेस दल सरकार का नेतृत्व कर रहा है. साथ ही तीन सदस्यों के साथ लोकसभा में प्रविष्ट लोक जनशक्ति पार्टी के रामविलास पासवान महत्वपूर्ण विभागों के मंत्री बने बैठे हैं. जब स्वार्थ सिद्धि की बात आती है, तब सरकार के अन्य छोटे घटक दल ताल ठोंककर भयादोहन पर उतर आते हैं. महत्वपूर्ण व संवेदनशील राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर इन दलों के भयादोहन के समक्ष प्रधानमंत्री को नतमस्तक होते देखा गया है. बेबस प्रधानमंत्री तब राष्ट्रीय हित के साथ समझौते को मजबूर हो जाते हैं. यह भारतीय राजनीति और संसदीय लोकतंत्र का ऐसा विद्रुप पक्ष है, जिसकी सफाई के लिए राष्ट्रीय बहस होनी चाहिए. देश को स्वार्थी सत्तालोलुपों के हाथों भयादोहन की अनुमति नहीं दी जा सकती. शरद पवार की विवशता में निहित संदेश पर गंभीरता से मनन हो. संख्याबल का अर्थ यह कदापि नहीं कि लोकसभा में 20-22 प्रतिशत सदस्यों वाले किसी दल के हाथों में देश का शासन छोड़ दिया जाए. ऐसा शासन जनता के साथ न्याय कर ही नहीं सकता. फिर इन्हें अनुमति कैसे दी जा सकती है? लोग तटस्थ न रहें, आगे बढ़ें- बहस करें और जरूरत पड़े, तब संविधान को बदल डालें. आखिर संविधान है भी तो जनता का, जनता के लिए और जनता के द्वारा बनाया हुआ. फिर जनता जनहित में इसे बदल क्यों न डाले! स्वार्थी व भयादोहन करने वालों को संविधान का संरक्षण अनुचित है. यह दोहराना ही होगा कि नगण्य अपवाद को छोड़ दें तो आज कथित रूप से निर्वाचित अधिकांश जनप्रतिनिधि जनता व देश का नेतृत्व करने की पात्रता नहीं रखते. फिर इन्हें बदल डालने में विलंब व हिचक क्यों? पवार निराश न हों. अंतत: विजय जनशक्ति की ही होनी है. लोकतंत्र का वर्तमान कसैला 'कुनैन' कभी तो मीठा होगा!
21 मार्च 2009

झूठ का 'पाठ', झूठ का 'मंचन'!


एक छोटी स्कूली बच्ची के हाथों में पुस्तक थमा 'झूठ' का पाठ! यह अकल्पनीय है, असहनीय है, अक्षम्य है. अपराधी हैं उसके अभिभावक. अपराधी हैं प्रायोजक जिन्होंने अपने टेलीविजन कार्यक्रम में उस बच्ची को एक पूर्व नियोजित 'दुर्घटना' का 'पात्र' बना बिठा दिया था. इस उम्र में जबकि उसे सच बोलने के महत्व को बताया जाना चाहिए था, उसे झूठ बोलने के लिए तैयार किया गया. यह पाप है. और पापी हैं उसके अभिभावक. भविष्य में बड़ी होकर शायद ऐसा भी अवसर आ सकता है, जब यह लड़की अपने अभिभावक से पूछेगी कि 'मम्मी-पापा आपने मुझे झूठ बोलना क्यों सिखाया.' तब निरुत्तर अभिभावक निश्चय ही अपराध बोध के बोझ तले कुचल जाएंगे. बिरादरी मुझे क्षमा करेगी, मीडिया ने एक बार फिर अपने ऊपर अविश्वस नीयता की काली चादर ओढ़ ली. इस पूरी प्रक्रिया में सौम्य, शांत, सभ्य नागपुर शहर की प्रतिष्ठा को भी नंगा करने की कोशिश की गई. वह भी कहां? पवित्र विधान भवन परिसर में! ऐसा नहीं होना चाहिए था. 'स्टार न्यूज चैनल' के पत्रकार-अधिकारी बड़ी चूक कर बैठे. आम चुनाव की गहमागहमी के बीच उम्मीदवारों को आमने-सामने खड़ा कर न्यूज चैनल ऐसे कार्यक्रम आयोजित करते रहते हैं. लेकिन यह समझ से परे है कि नागपुर के मामले में चैनल ने उतावलापन क्यों दिखाया? अभी तो इस क्षेत्र से, अगर प्रमुख दलों की ही बात करें तो कांग्रेस ने उम्मीदवार की घोषणा भी नहीं की है. भारतीय जनता पार्टी ने अवश्य बनवारीलाल पुरोहित को अपना उम्मीदवार घोषित कर डाला है. कांग्रेस की ओर से विलास मुत्तेमवार के पक्ष में उम्मीदवारी की संभावना जताई जा रही है, लेकिन पार्टी की ओर से अधिकृत घोषणा अभी भी नहीं हुई है. तब भाजपा के घोषित उम्मीदवार के मुकाबले कांग्रेस के संभावित उम्मीदवार को खड़ा कर कार्यक्रम के आयोजन का औचित्य? मीडिया में बिल्कुल ठीक ही इस 'जल्दबाजी' पर बहस चल पड़ी है. चैनल के एंकर ने कार्यक्रम के विषय पर 'होमवर्क' भी ठीक से नहीं किया था. कार्यक्रम के लिए विषय रखा गया था - 'प्रधानमंत्री कौन?' फिर एक निहायत स्थानीय मुद्दा 'विद्युत में कटौती' अर्थात् 'लोडशेडिंग' से संबंधित सवाल क्यों पूछे गए? कार्यक्रम को नाटकीय बनाने के लिए उस बच्ची को पहले से किताब थमा क्यों बिठाया गया? बच्ची से कहलवाया गया कि चूंकि उसके घर में बिजली नहीं है, वह 'लाइट' देख पढऩे के लिए किताब लेकर यहां चली आई. नागपुर शहर की छोडि़ए, आयोजकों ने अति उत्साह में कार्यक्रम को ही हास्यास्पद बना डाला. उन्होंने बच्ची के पाश्र्व को जानने की जरूरत नहीं समझी. धनाढ्य परिवार की उस बच्ची के घर में लोडशेडिंग के विकल्प के रूप में जनरेटर/इनवर्टर आदि मौजूद हैं. उसके घर में कभी अंधेरा नहीं रहता. उस स्कूली बच्ची के पास मोबाइल फोन भी है. कार्यक्रम में 'किरदार' बनने के लिए वह लाखों रुपए मूल्य की आलीशान गाड़ी में बैठकर आई थी. तब इसे अगर पूर्व नियोजित 'कार्यक्रम' निरूपित किया जा रहा है तो गलत क्या? मुद्दे को विस्तार भी दिया जाए तो यह मालूम होना चाहिए कि विद्युत आपूर्ति राज्य सरकार का मुद्दा है, न कि केन्द्र सरकार का. विलास मुत्तेमवार केंद्रीय मंत्री हैं. हां, स्थानीय सांसद के रूप में यहां के मतदाता के प्रति उनकी जिम्मेदारी अवश्य बनती है. तथापि 'कौन बनेगा प्रधानमंत्री' से नागपुर की लोडशेडिंग का क्या संबंध? अतिथि दर्शक के रूप में जिन लोगों को कार्यक्रम में आमंत्रित किया गया था, वे सभी कार्यक्रम की अशोभनीय परिणति से खिन्न हैं. शोरशराबे और धक्कामुक्की को ही अगर अपने दर्शकों को दिखाना था तो चैनल वालों को 'कौन बनेगा प्रधानमंत्री' जैसे गंभीर विषय की आड़ नहीं लेनी चाहिए थी. पूरे देश के दर्शक 'कौन बनेगा प्रधानमंत्री' पर कोई बहस तो देख-सुन नहीं पाए, हां, उन्होंने सभ्य नागपुर का एक प्रायोजित असभ्य चेहरा जरूर देखा. यह निंदनीय है. बेहतर हो, न्यूज चैनल भविष्य में ऐसी भूल की पुनरावृत्ति न करें.

अहित नेहरू-गांधी वंश का !


अगर यह संयोग है तो है विचित्र. जिस दिन भारतीय थलसेना के भूतपूर्व उप सेनाध्यक्ष जनरल एस.के. सिन्हा राजीव गांधी पुत्र राहुल गांधी को राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा बताते हैं, उसके दूसरे ही दिन एक सीडी के जरिए संजय गांधी पुत्र वरुण गांधी को मुसलमान विरोधी, कट्टर हिन्दू साम्प्रदायिक के रूप में पेश कर दिया जाता है. आनन-फानन में कांग्रेस की ओर से वरुण गांधी की गिरफ्तारी की मांग कर दी जाती है. अगर यह वंशद्वंद्व का कोई नया चेहरा है तो अत्यंत ही घिनौना है. भारत में 'वंशराज' का काला इतिहास सर्वविदित है. चाहे हिन्दू साम्राज्य के वंशजों का मामला हो या फिर मुगल साम्राज्य का. इतिहास चीख-चीख कर ईष्र्या-द्वेष, विश्वासघात और खून की चुगली करता मिलेगा. आजादी पश्चात भारत के राजनीतिक क्षितिज पर तेजी से उभर कर आए पंडित जवाहरलाल नेहरू के 'वंश' को लेकर अनेक किस्से हवा में तैरते मिलेंगे- विवादास्पद और संदिग्ध. लेकिन नेहरू अथवा नेहरू-गांधी परिवार की सफलता की अपनी गाथा है. आज जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी और संजय गांधी मौजूद तो नहीं हैं, किंतु सोनिया, राहुल तथा मेनका, वरुण परिवार का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं. सोनिया-राहुल सत्ता के साथ हैं तो मेनका-वरुण विपक्ष के साथ. कांग्रेस तो अपने अस्तित्व के लिए इस परिवार पर
पूरी तरह आश्रित है. अवसरवादी व चाटुकार कांग्रेसी तो पार्टी का पर्याय नेहरू-गांधी परिवार को मानते हैं. विदेशी मूल आड़े आने के कारण सोनिया प्रधानमंत्री नहीं बन पाईं. पारिवारिक विवाद व प्रतिद्वंद्विता के कारण स्वयं इंदिरा गांधी ने संजय गांधी की विधवा मेनका को घर से बाहर निकाल दिया था. परिवार पर सोनिया का कब्जा बना रहा. आज जब पूरे देश की राजनीति अनिश्चितता के भंवर में हिचकोले खा रही है, सोनिया की सारी शक्ति वंश के शासन को कायम रखने और राहुल को मुखिया बनाने में लगी है. इस आकलन को कोई चुनौती नहीं दे सकता. ऐसे में राहुल गांधी को राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा निरूपित किए जाने से पार्टी और राहुल के लिए असहज स्थिति तो पैदा हुई ही है. लेकिन इसकी भरपाई वरुण की छवि बिगाड़ कर कैसे हो सकती है? अगर कांग्रेस नेता एवं केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्ब्ल ने वरुण की गिरफ्तारी की मांग न की होती, तब इस शंका का जन्म ही नहीं होता. यह तो साफ है कि बगैर 'अनुमति' के सिब्बल वरुण की गिरफ्तारी की मांग नहीं कर सकते. क्या कांग्रेस वरुण को अपने नेतृत्व के लिए खतरा मानने लगी है? यह लोमहर्षक है. उधर वरुण गांधी ने सीडी प्रकरण को अपने विरुद्ध षडय़ंत्र करार दिया है. उन्होंने साफ कर दिया है कि सीडी में न तो उनकी आवाज है और न ही उनके शब्द. उनकी इस जिज्ञासा में भी दम है कि पांच मार्च को दिए गए उनके कथित भाषण की सीडी 17 मार्च को क्यों जारी की गई? जनरल सिन्हा का वक्तव्य 16 मार्च को आया था. नेहरू-गांधी परिवार के आपसी द्वंद्व को राष्ट्रीय राजनीति से जोड़ कांग्रेस अपना अहित ही करेगी. यही तो अब तक होता आया है. ऐन आम चुनाव के मौके पर इस विवाद को सतह पर लाकर कांग्रेस और किसी का नहीं, हित भाजपा का कर रही है और अहित नेहरू-गांधी वंश का.
19 मार्च 2009

राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए राहुल खतरा कैसे?


क्या सचमुच राहुल गांधी राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए बड़ा खतरा हैं? भारतीय थलसेना के उप प्रधान रह चुके जम्मू-कश्मीर के पूर्व राज्यपाल जनरल एस.के. सिन्हा कुछ ऐसा ही मानते हैं. चूंकि इस 'खतरे' का एहसास जनरल सिन्हा जैसे कद्दावर व्यक्तित्व के धनी ने देश को कराया है, न तो इसे एक झटके में खारिज किया जा सकता है और न ही हल्के में लिया जा सकता है. याद दिला दूं कि ये वही जनरल सिन्हा हैं जो इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्रित्व में आपातकाल के दौरान सेना के खुफिया प्रमुख रह चुके थे. योग्यतम सेनाधिकारियों में से एक जनरल सिन्हा की उपेक्षा कर जब इंदिरा गांधी ने जनरल ए.एस. वैद्य को थलसेनाध्यक्ष बना दिया था, तब सिन्हा ने विरोध स्वरूप सेना से अवकाश ले लिया था. प्रसंगवश जब जनरल सिन्हा पश्चिमी कमांड के सेना प्रमुख थे, तब इन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को अमृतसर स्थित स्वर्ण मंदिर में सैनिक कार्रवाई से मना किया था. उन्होंने एक वैकल्पिक योजना श्रीमती गांधी को सौंपी थी. आरंभ में श्रीमती गांधी ने तो उसे स्वीकार कर लिया, लेकिन बाद में आपरेशन ब्ल्यू स्टार को अंजाम दे डाला. संत भिंडरावाले की मौत, सिख असंतोष और अंतत: श्रीमती गांधी की हत्या की दु:खद घटना से पूरा देश परिचित है. बाद में 1988 में वस्तुत: जनरल सिन्हा की उस वैकल्पिक योजना को ही मूर्त रूप देते हुए प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने 'आपरेशन ब्लैक थंडर' के नाम से सफल अंजाम दिया था. वही जनरल सिन्हा आज राजीव पुत्र राहुल गांधी को राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा निरूपित कर रहे हैं! सिन्हा असल में राहुल का विरोध 'वंश' के नाम पर कर रहे हैं- राहुल की अनुभवहीनता को आधार बना रहे हैं. वे नहीं चाहते कि एक निहायत अपरिपक्व राहुल के हाथों में देश के शासन की बागडोर सौंप दी जाए. 'वंशवाद ' को लेकर नेहरू -गांधी परिवार को हमेशा निशाने पर लिया जाता रहा है. लेकिन इतिहास गवाह है कि समय आने पर कांग्रेस और देश 'वंश व अनुभव' को भूल परिवार के वारिस को सत्ता सिंहासन पर बैठाने में नहीं हिचका है. स्वयं राजीव गांधी का उदाहरण सामने है. जब राजीव को प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलाई गई थी, तब वे एक कनिष्ठ पायलट मात्र थे. राजनीति और प्रशासन से उनका कोई सरोकार नहीं था. लेकिन वे प्रधानमंत्री बने. यह दीगर है कि प्रधानमंत्री बनने के बाद इंदिरा गांधी की हत्या से उत्पन्न सहानुभूति लहर के सहारे 1985 में उन्होंने कांग्रेस को विशाल बहुमत दिलाया था. लेकिन इसके बाद अगले आम चुनाव 1989 में उनके नेतृत्व में कांग्रेस को पराजय का मुंह देखना पड़ा था. फिर ऐसा क्या है कि यह देश वंश के मोह से मुक्त नहीं हो पा रहा है. सुख्यात पत्रकार और चिंतक एम.जे.अकबर की मानें तो कांग्रेसजन श्वेत चमड़ी और राहुल के गालों पर उभरने वाले 'डिंपल' के आकर्षण में बंध गए हैं. अगर देश के नेतृत्व के लिए ऐसी 'योग्यता' की जरूरत है, तब सचमुच मालिक ईश्वर ही है. हम बातें राहुल और राष्ट्रीय सुरक्षा की कर रहे थे. मैं समझता हूं कि जनरल सिन्हा ने राहुल की अनुभवहीनता के आधार पर ही ऐसी टिप्पणी की है. ऐसे में क्या यह बेहतर नहीं होगा कि राहुल पहले पर्याप्त अनुभव हासिल कर लें और तब नेतृत्व की सोचें. राहुल यह जान लें कि कांग्रेस दल को अभी भी देश में अभिभावक दल के रूप में मान्यता प्राप्त है. यह देश के बहुमत की सोच है. लेकिन यह 'सोच' इस बात की अनुमति कदापि नहीं देगी कि कोई अपरिपक्व, अनुभवहीन अभिभावक दल का अभिभावक बन बैठे. राहुल दीवार पर लिखी इस इबारत को हृदयस्थ कर लें. हां, जहां तक राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरे की बात है तो इससे कोई सहमत नहीं हो सकता.

Tuesday, March 17, 2009

'छोटी मछली' से भयभीत 'बड़ी मछलियां'....!


एक बात समझ से परे है. अगर नव-उदित तीसरा मोर्चा वाहियात है, इनकी बैठकें सिर्फ फोटो खिंचवाने तक सीमित हैं तब देश की दोनों बड़ी पार्टियां बेचैन क्यों हैं? पहले कांगे्रस की ओर से मोर्चे को 'सर्कस' बताया गया और अब भारतीय जनता पार्टी इसे निरर्थक बता रही है. साफ है कि दोनों पार्टियां मोर्चे के जन्म से भयभीत हैं. भाजपा की ओर से पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष वेंकैया नायडू ने तो तीसरे मोर्चे को 'असहमतियों का मंच' करार दिया है. अब मैं यहां यह याद दिला कर समय और स्थान बर्बाद नहीं करना चाहूंगा कि उनकी राष्ट्रीय पार्टी में कब-कब और कितनी गंभीर असहमतियां उभर कर सामने आ चुकी हैं. देश की जनता को पुरानी-नई ऐसी अनेक घटनाओं की जानकारी है. नायडू की इस बात से पूरी तरह कोई भी सहमत नहीं हो सकता कि सिर्फ कोई राष्ट्रीय दल ही स्थायी सरकार दे सकता है. सिर्फ ऐसी सरकार ही भविष्य में देश के समक्ष उत्पन्न होने वाली चुनौतियों का सामना कर सकती है. कांग्रेस की हर नीति, हर कदम का विरोध करने वाली भाजपा जब 'तीसरे मोर्चे' के मुद्दे पर एक दिख रही है, तब कहीं न कहीं दाल में काला है अवश्य! कहीं ऐसा तो नहीं कि भारत रूपी महासागर में ये दोनों 'बड़ी मछलियां ' किसी 'तीसरी' का आधिपत्य नहीं चाहतीं! इन दोनों 'बड़ी मछलियों' (कांग्रेस-भाजपा) को 'छोटी मछलियां' निगल जाने की आदत जो पड़ चुकी है.
राज्यों की बात छोड़ मैं केंद्र की बात करना चाहूंगा. क्या 1977 में कांग्रेस को चुनाव में धूल चटा सत्ता से बाहर कर देने वाली जनता पार्टी के साथ कांग्रेस ने राजनीतिक अनैतिकता का खेल नहीं खेला था? जनता पार्टी से तत्कालीन उप-प्रधानमंत्री चौधरी चरणसिंह को मुठ्ठी भर सांसदों के साथ अलग करवा उन्हें प्रधानमंत्री की शपथ किसने दिलवायी?- कांग्रेस ने ही तो! फिर, इसके पहले कि चौधरी सदन में विश्वासमत हासिल करते, उनसे कांग्रेस ने समर्थन वापस क्यों ले लिया था? साफ है कि कांग्रेस तब तक चौधरी का 'उपयोग' कर चुकी थी!
और अब दूसरी राष्ट्रीय पार्टी भाजपा को भी तौल लिया जाए. 1989 में विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार को समर्थन देने वाली भारतीय जनता पार्टी ने 1990 में सरकार से समर्थन वापस क्यों ले लिया था? क्या सिर्फ इसलिए नहीं कि आरक्षण के पक्ष में मंडल आयोग की सिफारिशें लागू कर विश्वनाथ प्रताप सिंह राष्ट्रीय स्तर पर मजबूत जनाधार बना रहे थे. भाजपा ने उनकी सरकार को समर्थन वापस ले गिरा दिया तो सिर्फ इसलिए कि कोई तीसरी शक्ति मजबूती से भारतीय राजनीति में पांव नहीं जमा सके. आज वेंकैया नायडू ने राष्ट्रीय सत्ता-संचालन के लिए कांग्रेस के साथ भाजपा को योग्यतम ठहरा कर पूरी की पूरी लोकतांत्रिक व्यवस्था का अपमान किया है.
लगभग छह साल तक छोटे-छोटे करीब दो दर्जन दलों के सहयोग से देश पर शासन कर चुकी भाजपा की तरफ से तीसरे मोर्चे की खिल्ली उड़ाना उचित नहीं. देश की परिपक्वजनता निर्णय लेने में सक्षम है. भाजपा या कांग्रेस जनता की समझ को कम कर आंकने की कोशिश न करे. सच तो यह है कि चुनाव पश्चात सरकार गठन के लिए इन दोनों राष्ट्रीय दल के नेतागण तीसरे मोर्चे के सामने गिड़गिड़ाते नजर आएंगे- मोर्चे के नेतृत्व के सामने या फिर घटक दलों के नेताओं के सामने- अलग-अलग! तब शायद भाजपा-कांग्रेस के नेता बिल्कुल बेशर्मों की तरह आज उगले अपने शब्दों को पुन: निगल जाएंगे!
17 मार्च 2009

Monday, March 16, 2009

राजनीतिक 'सर्कस' के रिंग मास्टर?


'जी हां अय्यर साहब, सब कुछ 'सर्कस' ही है'. कांग्रेस के मणिशंकर अय्यर की जिज्ञासा का यह सीधा-सपाट उत्तर है. समझ में नहीं आता कि वे तीसरे मोर्चे के उदय पर इतना बौखला क्यों गए हैं? अय्यर पूछ रहे हैं कि यह कोई 'सर्कस' है क्या? और पार्टी के एक अन्य वरिष्ठतम नेता प्रणब मुखर्जी जानना चाहते हैं कि यदि यह तीसरा मोर्चा है, तब पहला और दूसरा कहां है? और निहायत आपत्तिजनक ढंग से मुखर्जी तीसरे मोर्चे की तुलना 'रोमन एम्पायर' से कर देते हैं. क्या ये उद्धरण यह संकेत नहीं देते कि कांग्रेस बौखला गई है? सच यही है. स्वयं के बल पर लगभग 45 साल सरकार चलाने की उपलब्धि गिनाने वाली कांग्रेस इस सचाई से मुंह न मोड़े कि कांग्रेस दलीय पतन के उस काल में प्रवेश कर चुकी है, जहां से निकलने के लिए संभवत: उसे अगले 45 वर्षों तक प्रतीक्षा करनी पड़ सकती है. हां, अगर इस अवधि में कोई अनहोनी हो गई तो बात दूसरी है. वर्तमान अवस्था सिर्फ शक्ति के क्षरण को रेखांकित कर रही है. कांग्रेस के बाद सत्ता की दूसरी दावेदार भारतीय जनता पार्टी की अवस्था भी लगभग ऐसी ही है. ऐसे में भारत जैसे विशाल लोकतांत्रिक देश की जनता तीसरा दरवाजा तो खटखटाएगी ही! जब पहले और दूसरे दरवाजे से निरन्तर निराशा मिले, तब तीसरे दरवाजे पर दस्तक से आश्चर्य क्यों?
मणिशंकर अय्यर और प्रणब मुखर्जी जैसे वरिष्ठ नेता अगर कांग्रेस की ओर से तीसरे मोर्चे की खिल्ली उड़ाते हुए यह कहें कि मु_ी भर सांसदों के बल पर लोग सरकार बनाने और प्रधानमंत्री बनने का ख्वाब देख रहे हैं, तब जानकार आश्चर्यचकित रह जाते हैं.
राजनीतिक स्थिरता की दुहाई देने वाले ये दोनों नेता पहले अतीत में झांक लें! क्या वे बताएंगे कि 1979 में तत्कालीन जनता पार्टी से टूट कर अलग हुए मु_ी भर सांसदों के गुट के नेता चौधरी चरणसिंह को समर्थन दे कांग्रेस ने प्रधानमंत्री क्यों बनने दिया? 1990 में पुन: चंद सांसदों के गुट के नेता चंद्रशेखर को भी प्रधानमंत्री बनने के लिए कांग्रेस का समर्थन क्यों मिला? फिर 90 के दशक में ही एच.डी. देवेगौड़ा और इंद्रकुमार गुजराल की अल्पमत सरकारों को कांग्रेस ने समर्थन देकर घोर राजनीतिक अवसरवादिता का परिचय नहीं दिया था?
यह कांग्रेस ही है जिसने मु_ी भर सांसदों के समर्थन के बल पर महत्वाकांक्षी नेताओं के मन में प्रधानमंत्री बनने की लालसा को बल प्रदान किया. राजनीतिक अवसरवादिता और अस्थिरता को मजबूती प्रदान कर कांग्रेस लोकतंत्र का मजाक उड़ाने की भी दोषी है. मुखर्जी और अय्यर जब इतिहास के इन पन्नों को उलटेंगे तो पाएंगे कि ऐसे 'राजनीतिक सर्कस' के रिंग मास्टर कांग्रेस के ही नेता रहे हैं! कभी संजय गांधी, कभी राजीव गांधी और कभी सीताराम केसरी आदि. बल्कि ऐसे अवसरवादी समर्थन देते समय कांग्रेस एक बार तो यह भी भूल गई थी कि वह ऐसे गठबंधन का समर्थन कर रही है, जिसमें द्रमुक नामक वह पार्टी भी शामिल थी, जिस पर और कोई नहीं, स्वयं सोनिया गांधी ने आरोप लगाया था कि उस दल के नेता राजीव गांधी के हत्यारों के साथी रहे हैं! इंद्रकुमार गुजराल सरकार से समर्थन वापसी के लिए कांग्रेस ने इसी मुद्दे को आधार बनाया था, जबकि इसके पूर्व देवेगौड़ा सरकार को कांग्रेस का समर्थन मिलता रहा था. देवेगौड़ा मंत्रिमंडल में द्रमुक का प्रतिनिधित्व था. तब तो कांग्रेस ने आपत्ति नहीं उठाई थी. जनता को वे बेवकूफ न समझें. उसकी याददाश्त कमजोर नहीं होती. अस्थायी तटस्थता पर कांग्रेस प्रसन्न न हो. इस मुकाम पर मेरी प्रणब मुखर्जी के साथ विशेष सहानुभूति है. राजीव गांधी की मृत्यु के बाद से वरिष्ठ होने के बावजूद बार-बार प्रधानमंत्री की कुर्सी उनके लिए दुर्लभ बनती गई. एक बार तो उन्होंने दु:खी होकर कांग्रेस का त्याग कर पश्चिम बंगाल में अपनी अलग पार्टी तक बना ली थी. स्वाध्याय-प्रेमी प्रणब मुखर्जी आज जब 'होली रोमन एम्पायर' की याद कर रहे हैं, तब मैं उनके शब्दों में छिपी पीड़ा को महसूस कर सकता हूं. जब उन्होंने राहुल गांधी को प्रधानमंत्री पद के लिए 'योग्य' घोषित किया था, तब वस्तुत: उनकी हताशा ही रेखांकित हुई थी.
16 मार्च 2009

बौना न बनें कद्दावर पवार ...!


अब चूंकि शरद पवार ने भी कह डाला कि कोई 'मराठी' प्रधानमंत्री बने, इस मुद्दे पर गंभीर चिन्तन तो होंगे ही. जब शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे ने 'मराठी माणूस' के पक्ष में पवार को प्रधानमंत्री बनाए जाने की वकालत की थी, तब उन्हें संकुचित-क्षेत्रीय मानसिकता का दोषी करार दिया गया था. भाजपा के कड़े रुख के बाद शिवसेना, प्रधानमंत्री पद के लिए 'मराठी माणूस' की अपनी मांग से पीछे हट गई. फिर अचानक पवार को क्या हो गया? यह तो तय है कि पवार की मांग किसी अन्य मराठी-भाषी के लिए नहीं, बल्कि स्वयं अपने लिए है. प्रधानमंत्री बनाए जाने की लालसा देश का कोई भी व्यक्ति पाल सकता है. भाषा, जाति, धर्म या क्षेत्र इसमें बाधक नहीं. शरद पवार जैसे कुशल राजनीतिक अगर प्रधानमंत्री बनने की लालसा रखते हैं, तब इस पर किसी को आपत्ति नहीं हो सकती. उत्तरप्रदेश के मायावती-मुलायम यादव, तमिलनाडु के जयललिता-करुणानिधि, गुजरात के आडवाणी-मोदी, बिहार के लालू-नीतीश, मध्यप्रदेश के अर्जुन सिंह-दिग्विजय सिंह, आंध्रप्रदेश के चंद्राबाबू नायडू, कर्नाटक के देवेगौड़ा या फिर हरियाणा की सुषमा स्वराज प्रधानमंत्री बनने की इच्छा पालती हैं. तब भला इन्हें चुनौती कैसे दी जा सकती है? इस मुद्दे पर आपत्ति का बिन्दु 'मराठी' है. पवार आखिर 'क्षेत्रीय संकीर्णता' के कैदी कैसे बन गए?
एक बार इसी 'क्षेत्रीय संकीर्णता' का विफल प्रयोग पं. जवाहरलाल नेहरू ने अपनी एक निजी इच्छा की पूर्ति के लिए किया था. बात 1957 के राष्ट्रपति चुनाव की है. पं. नेहरू चाहते थे कि डॉ. राजेंद्र प्रसाद की जगह डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन को राष्ट्रपति बनाया जाए. डॉ. प्रसाद का नाम दूसरी बार राष्ट्रपति पद के लिए सामने आया था. नेहरूजी ने दक्षिण के चारों राज्यों के मुख्यमंत्रियों को पत्र लिख कर ऐसी इच्छा जताई थी कि, ''इस बार कोई दक्षिण भारतीय राष्ट्रपति बनें.'' वस्तुत: उस पत्र के माध्यम से नेहरूजी ने राधाकृष्णन की वकालत की थी. वे चाहते थे कि दक्षिण के मुख्यमंत्री राधाकृष्णन के पक्ष में मांग उठाएं. लेकिन 'क्षेत्रीय संकीर्णता' से दूर चारों मुख्यमंत्रियों ने नेहरू को सपाट जवाब भेज दिया कि, ''जब तक राजेंद्र प्रसाद उपलब्ध हैं, राष्ट्रपति उन्हें ही बनाया जाए.'' स्पष्ट है कि दक्षिण के मुख्यमंत्रियों ने योग्यता को तरजीह दी- क्षेत्रीयता को नहीं. अर्थात् क्षेत्रीयता पराजित हुई, योग्यता की जीत हुई. डॉ. राजेंद्र प्रसाद दोबारा राष्ट्रपति बने.
बाल ठाकरे तो ऐलानिया तौर पर क्षेत्रीय, बल्कि मुंबई की राजनीति करते हैं- राष्ट्रीय राजनीतिक सरोकार से कोसों दूर हैं. अन्य समीक्षकों की तरह मैं भी पवार की मांग पर चकित हूं. कहीं वे पुराने इतिहास के पन्ने तो नहीं पलट रहे हैं? 70, 80 और 90 के दशक में पवार एक अस्थिर राजनीतिक और अपने नेता की खिलाफत के लिए जाने जाते थे. 1978 में उन्होंने महाराष्ट्र में वसंतदादा पाटिल के नेतृत्व वाली सरकार को गिराया था. दस्तावेजी सबूत मौजूद हैं कि तब अविश्वास प्रस्ताव के दौरान विधानसभा में उन्होंने वसंतदादा पाटिल की सरकार का बचाव किया था. किन्तु भाषण समाप्त करने के बाद वे राज्यपाल के पास गए और पाटिल सरकार से समर्थन वापस ले लिया. 1985 में तब कांग्रेस के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष अर्जुन सिंह, पवार को कांग्रेस में वापस ले आए थे. हालांकि तब प्रधानमंत्री राजीव गांधी, पवार के कांग्रेस में पुनप्र्रवेश को लेकर बहुत उत्साही नहीं थे. बाद में पवार, अर्जुन सिंह को 'खलनायक' के रूप में दिखने लगे!
90 के दशक में राजीव गांधी की मृत्यु के पश्चात पहले सोनिया के पक्ष में आवाज उठाने वाले पवार, अचानक 'विदेशी मूल' के मुद्दे पर सोनिया के खिलाफ विद्रोह कर बैठे- कांग्रेस का त्याग कर डाला. तब यह तथ्य उभर कर सामने आया था कि पवार स्वयं प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं. पवार की तब की इच्छा को चुनौती नहीं दी जा सकती थी. 1999 का वह कालखंड घोर राजनीतिक अस्थिरता का था. पवार उसका राजनीतिक लाभ उठाना चाहते थे. लेकिन लोकसभा में भाजपा और उसके सहयोगी दलों को स्पष्ट बहुमत मिल जाने से उनकी इच्छा धरी की धरी रह गई.
तो क्या राजनीतिक अस्थिरता के वर्तमान कालखंड में पवार पुन: अपना 'दांव' खेलना चाहते हैं! इसमें कुछ गलत नहीं है. अन्य दावेदारों की तरह पवार भी अपनी 'गोटी' खेलने के लिए स्वतंत्र हैं. इसमें आपत्तिजनक सिर्फ यही है कि उन्होंने राजनीति के छुटभैये खिलाडिय़ों की तरह 'क्षेत्रीयता' का पांसा फेंका है. यह गलत है. संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली में बहुमत प्राप्त दल या गठबंधन का नेता ही प्रधानमंत्री बनता है, चाहे वह किसी भी भाषा-क्षेत्र का हो! कोई दल या व्यक्ति, भाषा या क्षेत्र के आधार पर प्रधानमंत्री पद के आरक्षण की मांग नहीं कर सकता! यह अनैतिक तो है ही, असंवैधानिक भी है. अपनी मांग रखते हुए शरद पवार यह कैसे भूल गए कि देश के राष्ट्रपति पद पर प्रतिभा पाटिल के रूप में एक 'मराठी' ही आसीन हैं. अगर बात क्षेत्रीयता की की जाए, तो क्या राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री दोनों पदों पर 'मराठी' व्यक्ति को राष्ट्रीय स्वीकृति मिलेगी? जवाब स्वयं पवार दे दें! कृपया अपने विशाल राजनीतिक कद को बौना न बनने दें!
15 मार्च 2009

Saturday, March 14, 2009

चोरों की बारात का 'दूल्हा'!


जी हां, हर गली, हर नुक्कड़, हर चौराहे पर ही नहीं, बड़े सितारा होटलों के रेस्तरां में भी लोगबाग एक-दूसरे से पूछ रहे हैं कि चोरों की बारात में 'दूल्हा' कौन होगा? संदर्भ को विस्तार न देते हुए बता दूं कि लोगों की जिज्ञासा का आशय प्रधानमंत्री पद को लेकर विभिन्न दलों, गठबंधनों में जारी घमासान से है. आम लोगों की नजरों में राजनीतिकों की हैसियत को देख-समझ मन क्षुब्ध हो उठता है- हमारा लोकतंत्र ऐसी दशा में क्यों पहुंच गया? लोग खुलेआम राज और राजनीति करने वालों को चोर, भ्रष्ट और बेईमान क्यों निरूपित करने लगे हैं? क्या हम इसे राष्ट्रीय सोच मान लें? राजनीतिकों और राजदलों की ओर से इस सोच के गंभीर प्रतिवाद की अनुपस्थिति में तो इसे सच ही मानना पड़ेगा. अब यह देश की मजबूरी है कि अयोग्य भीड़ में से ही 'बेहतर दूल्हे' की तलाश करें. तलाश के लिए इन चेहरों पर गौर करें- मनमोहन सिंह, राहुल गांधी, शरद पवार, मुलायम सिंह यादव, लालूप्रसाद यादव, लालकृष्ण आडवाणी, चंद्रबाबू नायडू, नरेंद्र मोदी, नीतीश कुमार, एच.डी. देवगौड़ा, जे. जयललिता और कुमारी मायावती. सभी के सभी 'दूल्हा' का सेहरा पहनने को तैयार! अब आप 100 करोड़ से अधिक की आबादी को कैसे समझाएंगे? उनके भविष्य को संवारने की जिम्मेदारी को आतुर ये चेहरे क्या बेदाग हैं? दलीय, क्षेत्रीय या जातीय प्रतिबद्धता से इतर ईमानदार जवाब 'ना' में आएगा. विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र की ऐसी दु:स्थिति? संप्रग और राजग से पृथक उभरे तीसरे मोर्चे में शामिल होने वाली बसपा की शर्त है कि मायावती को प्रधानमंत्री के रूप में पेश किया जाए. भ्रष्टाचार के अनेक मामलों में फंसीं मायावती खुद को प्रधानमंत्री पद के लिए सर्वथा योग्य मानती हैं. आम जनता इन्हें अपना नेता माने तो कैसे माने? राजग की ओर से प्रधानमंत्री पद के दावेदार लालकृष्ण आडवाणी भले ही जैन हवाला कांड से बरी हो गए हों, लेकिन सफेद कुर्ते पर दाग तो लग ही चुका है. प्रधानमंत्री की कुर्सी हड़पने को व्यग्र पवार राजनीतिकों और अपराधियों के बीच साठगांठ संबंधी वोरा आयोग की रिपोर्ट में स्थान मिलने के कारण हमेशा संदिग्ध बने रहे हैं. मुलायम सिंह यादव, लालूप्रसाद यादव तथा जयललिता भ्रष्टाचार के मामलों के मुजरिम हैं. नरेंद्र मोदी खतरनाक सांप्रदायिकता के मुजरिम हैं तो चंद्रबाबू नायडू घोर अकर्मण्यता के- भ्रष्टाचार के भी. देवगौड़ा की 'असलियत' पिछले दिनों कर्नाटक विधानसभा चुनाव के समय सतह पर आ चुकी है- घोर अवसरवादी व अविश्वसनीय. नीतीश अवश्य भ्रष्टाचार से दूर हैं, किंतु व्यापक राष्ट्रीय समर्थन से कोसों दूर. रही बात वर्तमान प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और कांग्रेस के 'भविष्य' राहुल गांधी की, तो मनमोहन को जनता ने परख लिया है. अर्थविशेषज्ञ मनमोहन की आर्थिक मोर्चे पर विफलता सामने है. इनके शासनकाल में भ्रष्टाचार के मामलों में वृद्धि की अपनी कहानी है. राहुल गांधी की अपरिपक्वता विशाल भारत के नेतृत्व में बाधक है. लेकिन देश का दुर्भाग्य कि उसे नेतृत्व इन्हीं चेहरों में से मिलेगा. इस 'दुर्भाग्य' के लिए आखिर जिम्मेदार कौन है? ऐसी दयनीय स्थिति क्यों? क्या राजनीति के प्रति अच्छे, सुपात्र लोगों की बेरुखी मुख्य कारण नहीं? देश की इस दुरावस्था का कड़वा सच यही है. सुविख्यात पत्रकार कुलदीप नैयर व्यथित हृदय से स्वीकार करते हैं कि 'देश की वर्तमान दुर्दशा के लिए अगर कोई जिम्मेदार है तो ये पॉलिटिशियन ही....! मैंने इन्हें अत्यंत नजदीक से नंगा देखा है.' क्या कोई नैयर के इस आकलन को चुनौती दे सकता है? स्वयं को नंगेपन की अवस्था में पहुंचा देने वाले राजनीतिकों में अगर थोड़ी भी नैतिकता और राष्ट्रप्रेम शेष है, तो कम से कम नई युवा पीढ़ी को ऐसी दुरावस्था में पहुंचने से रोकने के उपाय करें, ताकि आने वाले दिनों में किसी अन्य नैयर को दु:खी न होना पड़े. और ऐसा कर वे संभवत: प्रायश्चित भी कर पाएंगे.

शीशे के घर और नैतिकता?


'देखिए भाईसाहब, सीधी और साफ बात यह है कि आज हम सभी शीशे के घर में रह रहे हैं... क्या राजनीतिज्ञ, क्या अधिकारी, क्या व्यापारी! सभी. ऐसे में नैतिक आवाज उठाने की हिम्मत करे तो कौन करे....? भ्रष्टाचार तो फले-फूलेगा ही.' ये शब्द हैं केंद्र सरकार के एक वरिष्ठ अधिकारी के. होली के दिन फुरसत में मेरी एक जिज्ञासा के उत्तर में उन्होंने ये बातें कही. इस विषय पर बतकही लंबी चली थी. नई-पुरानी बहुत सारी बातें सामने आईं. निराश हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि सचमुच हमाम में सभी के सभी नंगे ही नहीं, लोकतंत्र के दुश्मन भी हैं. अपराधी हैं ये सभी समाज के. देश की राजनीति को धंधा बना कर इसे कलंकित करने वाले सौदागरों ने पूरी की पूरी व्यवस्था को अपने जाल में फांस लिया है. भ्रष्ट कर डाला है उसे. आम चुनाव की गहमा-गहमी के बीच राजदलों-नेताओं के बदलते गिरगिटी रंग को देख पूरा देश दु:खी है. लोकतंत्र में आस्था की बातें तो सभी दल-नेता कर रहे हैं, लेकिन इसका इस्तेमाल सिर्फ निजी स्वार्थपूर्ति के लिए हो रहा है. लोकतांत्रिक अधिकारों के वांछित उपयोग से दूर जनता सत्तापक्ष द्वारा इसके बेजा इस्तेमाल को मौन देखने के लिए विवश है. किसके पास जाए वह? राजनीतिज्ञ, प्रशासनिक अधिकारी और इन दिनों 'कॉरपोरेट घरानों' के रूप में मशहूर संस्थानों की तिकड़ी आम जनता के हित के अलावा सभी कुछ करती दिखेगी. हिन्दुस्तान जोडऩे से लेकर दुनिया को मु_ïी में कर लेने संबंधी लुभावने नारे उछाल कर देश के युवा वर्ग को सपने दिखाए जा रहे हैं. लेकिन 1991 में सपने देखने वाला बचपन आज युवा अवस्था में बेरोजगारी के खौफनाक कैनवास से रूबरू है. तब के वित्तमंत्री मनमोहन सिंह आज तो स्वयं प्रधानमंत्री हैं. क्या वे बताएंगे कि आज न केवल अपने देश में, बल्कि संसार के अन्य भागों में युवाओं को रोजगार के जो सपने दिखाए गए थे, उनका क्या हुआ? नए अवसर की तो छोडि़ए, नौकरी में लगे युवा छंटनी के शिकार क्यों हो रहे हैं? कृपया चुनाव के अवसर पर अब और नए सपने न दिखाएं.
बात चुनाव की आई है तब राजनीति के बदरंग चेहरे की चर्चा तो होगी ही. नैतिकता के साथ-साथ मूल्य, सिद्धांत, आदर्श को रौंदते हुए राजदलों के अवसरवादी पाला बदल नाटक को देख लोकतंत्र ठीक ही शर्मा जाता है. लोकतंत्र के कुछ पारंपरिक उसूल हैं, नियम-कायदे हैं. नैतिकता उनमें सर्वोपरि है. लेकिन जब जनता यह देखती है कि राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के जनक शरद पवार को कभी अंडरवल्र्ड का साथी बताने वाले शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे उन्हें प्रधानमंत्री बनाए जाने की पहल कर रहे हैं तब वह क्या समझे? दूसरी ओर शिवसेना को हमेशा 'सांप्रदायिक' निरूपित करने वाले शरद पवार उसके साथ तालमेल को बेचैन क्यों हैं? वामदलों को 'गद्दार' बताने वाले उड़ीसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक भारतीय जनता पार्टी से संबंध विच्छेद होने के बाद उनके समर्थन से सरकार चला रहे हैं तो कैसे? कांग्रेस के साथ मुलायम सिंह यादव की 'दोस्ती' तो रहस्यमय है. बागी तेवर में सोनिया से 10, जनपथ में मिलने गए मुलायम जब मिलन के बाद बाहर निकले तब उनके पसीने छूट रहे थे. ठीक उसी प्रकार जिस तरह एक बार रामलखन सिंह यादव तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से दो टूक बात करने प्रधानमंत्री कार्यालय पहुंचे थे. जब यादव साउथ ब्लॉक से बाहर निकले थे तब ठंड के दिनों में भी लोगों ने उनके ललाट पर पसीने की बूंदें देखी थीं. बात कुछ और नहीं, ये परिणति है सत्तापक्ष द्वारा खुफिया एजेंसियों के बेजा इस्तेमाल की. कहते हैं, यह भारतीय राजनीति का संक्रमण काल है. लेकिन जब सभी के सभी 'नंगे' हों, तब सार्थक परिणति की आशा कोई करे भी तो कैसे? क्या सचमुच सभी के सभी शीशों के घरों में ही रह रहे हैं? क्या अपवाद स्वरूप कुछ चेहरे सामने आएंगे? अगर नहीं तो फिर हम क्यों न ऐलान कर दें कि हम शून्य नेतृत्व वाले बेजान देश में रह रहे हैं? लेकिन मैं निराश नहीं. सत्तर के दशक में ऐसी ही राष्ट्रीय निराशा के बीच जयप्रकाश नारायण 'लोकनायक' के रूप में अवतरित हुए थे. तब भारत की 'दूसरी आजादी' का इतिहास रचा गया था. आइए, आज के 'संक्रमण' को हम दिशा दे दें. भारतीय राजनीति की कोख बांझ नहीं रह सकती. शीशे में रहने वाले तब सौ-सौ आंसू रोएंगे.

Tuesday, March 10, 2009

शाबास देवबंद! 'इस्तेमाल' न हों मुस्लिम!!


शाबास दारूल उलूम देवबंद! मुसलमानों के लिए 'धर्म के आधार पर वोट नहीं' का फतवा जारी कर उन्होंने धर्मनिरपेक्षता की राष्ट्रीय परिभाषा को मोटी रेखा से चिह्निïत कर दिया है. हर भारतीय यही चाह रहा था. यह एक सुखद संयोग है कि देवबंद ने यह फतवा उसी दिन जारी किया, जिस दिन जमात-ए-उलेमा-इन के नेता महमूद मदनी ने पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति को फटकार लगाई कि भारतीय मुस्लिमों को उनकी सलाह की जरूरत नहीं है. भारतीय मुसलमान अपनी समस्याएं हल करने में सक्षम हैं. देवबंद ने बिल्कुल सही, इसे विस्तार देते हुए फतवे में कह दिया है कि भारत लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष देश है, इसलिए यहां की पार्टी और नेताओं को इस्लामी नजरिए से नहीं देखा जाना चाहिए. जिस प्रकार आजादी के बाद से मुस्लिम आबादी को विभिन्न राजनीतिक दल 'मुस्लिम वोट बैंक' के रूप में निरूपित करते रहे हैं, उनका इस्तेमाल किया जाता रहा है, वह घोर अलोकतांत्रिक और धर्म की मूल भावना के विपरीत है. 'इस्तेमाल' किए जाते रहे ये- हिन्दुओं द्वारा भी, मुसलमानों द्वारा भी. दु:खद रूप से तब मुस्लिम संगठन व मुस्लिम नेता किन्हीं कारणों से ऐसे 'इस्तेमाल' के भागीदार बनते रहे. ऐसा नहीं होना चाहिए था. वह 'राजनीतिक स्वार्थ' ही है जिसने षडय़ंत्र रच कर सुनिश्चित किया कि मुसलमान हमेशा 'अल्पसंख्यक' बने रहें. यह गलत है. राष्ट्रीयता के खिलाफ है. 'दलित' की तरह 'अल्पसंख्यक' का संबोधन भी अपमानजनक है. संख्या बल के आधार पर देश की आबादी का धार्मिक विभाजन लोकतंत्र के माथे पर कलंक का टीका है. देवबंद के ताजे फतवे से यह संकेत तो मिल गया कि मुसलमानों ने अपने खिलाफ रचे गए षडय़ंत्र को पहचान लिया है. क्या यह अब कोई रहस्य है कि हिन्दू-मुसलमानों के रक्त से 'आजादी' की इबारत लिखने वालों ने ही 'अल्पसंख्यक मुस्लिम वोट बैंक' का इस्तेमाल अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए किया? आज की पीढ़ी इस 'इस्तेमाल' से बेचैन है. इस पीढ़ी के बचपन ने स्कूलों में एक ही 'टिफिन बॉक्स' से हिन्दू-मुसलमान हाथों को एक साथ भोजन करते देखा है. कोई भेदभाव नहीं. वह हक्का-बक्का है दोनों समुदायों के बीच राजनीतिक विभाजन रेखा को देखकर. 1947 के देश विभाजन के इतिहास से परिचित यह पीढ़ी बार-बार पूछती है कि आखिर कब तक अंग्रेजों के 'फूट डालो, राज करो' की नीति का रोना रोते रहेंगे? यह नहीं भूला जाना चाहिए कि फूट डालो और शासन करो की ब्रिटिश शासन प्रणाली के फलस्वरूप गुलाम अविभाजित भारत में एक ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गई थी, जिसमें एक ही विकल्प रह गया था कि या तो शांति और कानून बनाए रखने के लिए ब्रिटेन की हुकूमत चलती रहे या सारा देश रक्तस्नान करने लगे. देश ने तब रक्तस्नान का सामना करने का विकल्प चुना था. आज मुझे खुशी है कि देवबंद के माध्यम से मुस्लिम भाइयों ने धार्मिक कट्टरता के लबादे को उतारने का निर्णय लिया है. वैसे, मुस्लिम समुदाय का भ्रम तो बहुत पहले ही टूट चुका है. सत्ता के लिए इनका वोट पाने की जद्दोजहद में राजदल और नेता लुभावने वादे तो करते रहे, किंतु यह भी सुनिश्चित किया कि समाज में इनको स्थान दोयम दर्जे का मिले और ये हमेशा याचक बने रहें. आजादी के 60 साल बाद भी विभिन्न क्षेत्रों में इनके प्रतिनिधित्व का अनुपात गवाह है इनकी उपेक्षा का, इनके प्रति अविश्वास का. और यह सब इनके कथित अल्पसंख्यक स्वरूप से ही संभव हुआ. फेंक दें इस 'अल्पसंख्यक' तमगे को. राष्ट्रीय मुख्यधारा के साथ कदमताल करते हुए आगे बढ़ें. याचक की जगह दाता बनें. फतवे के अनुसार वोट डालते समय धर्म व संप्रदाय की कुंठा का त्याग कर समाज व राष्ट्रहित में हितकारी पात्रों के पक्ष में मतदान करें- चाहे वह पात्र हिन्दू, सिख, सिंधी, ईसाई या अन्य किसी धर्म-जाति का ही क्यों न हो. विश्वास से ही विश्वास पैदा होता है. मुस्लिम समुदाय द्वारा ईमानदारीपूर्वक की गई ऐसी पहल से कुचक्र निर्मित अविश्वास का घड़ा चूर-चूर हो जाएगा. उसमें संरक्षित सांप्रदायिकता के गरल को जगह सिर्फ पनाले में मिलेगी.
10 मार्च 2009

Monday, March 9, 2009

पूजनीय नहीं है हमारा यह समाज


एक छोटी खबर के रूप में मुद्रित इन शब्दों ने, कि 'पूजन के अधिकार को लेकर उत्पन्न विवाद में 2 दलितों की गला रेतकर हत्या कर दी गई', हृदय को वेध डाला. चाक-चाक हो गया वह दिल, बोझिल हो चुका वह मस्तिष्क जो ऐसी घृणित सोच की उत्पत्ति का कारण बनते हैं. ऐसे दिल, ऐसी सोच के धारक मानव को सभ्य कहलाने का कोई अधिकार नहीं. यह कौन सा समाज है, कौन सा देश है जिसने दलितों के खिलाफ ऐसी प्रथा को जन्म दिया? मानव-मानव और मंदिर-मंदिर या फिर मस्जिद, गुरुद्वारा, चर्च के बीच विभेद की रेखा खींचने वाला इंसान कैसे हो सकता है!
केरल के 2 दलितों की हत्या सिर्फ कानूनी अपराध नहीं है. यह अपराध है सृष्टि की रचना करने वाले के खिलाफ. यह अपराध है पूरी की पूरी मानवता के खिलाफ. कभी उड़ीसा के जगन्नाथ पुरी मंदिर में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को हिन्दू महंतों ने प्रवेश की अनुमति इस आधार पर नहीं दी थी कि वे पारसी थीं. तब थोड़े शोरगुल के बाद मामला ठंडा पड़ गया था. उसके बाद से ऐसी भी खबरें आने लगी थीं कि अनेक हिन्दू मंदिरों में दलित पुजारी पूजा-अर्चना कर रहे हैं. क्रांतिसूचक ऐसी खबरों से आशा बंधी थी कि सचमुच हमारा भारत देश सर्वधर्म समभाव का प्रतीक है, जातीय-धार्मिक भेदभाव से दूर है. लेकिन यह झूठ साबित हुआ. केरल की इस ताजा घटना से यह साबित हो जाता है कि भारतीय समाज अभी भी घोर आपत्तिजनक धार्मिक संकीर्णता का पोषक है. अंतर्विरोधों से भरा यह मानव (मन) क्या कभी स्वयं की शल्यक्रिया कर 'मन' की वास्तविकता की पड़ताल कर पाएगा? कदापि नहीं. ढोंगी है मानव, कायर हैं हम. अन्य ग्रहों पर जाकर जीवन खोजने वाला मानव अपना प्रयास तुरंत बंद कर दे. हम नहीं चाहते कि 'धार्मिक पाप' के संक्रामक जीवाणुओं को एक और आश्रय-स्थल मिले. क्या दोष था उन दोनों का? आज की चालू जुबान में 'दलित' ही तो थे वे. मेरी जुबान लडख़ड़ा जाती है, कलम रो पड़ती है इस शब्द को उच्चारित करते समय, शब्दांकित करते समय. किसने गढ़ा इस शब्द को? किसने चस्पाया इस शब्द को एक वर्ग विशेष के ललाट पर? हम तथाकथित सभ्य मानव ही ने तो! उस समाज में जन्म लेने वाला अबोध बालक इस शब्द से अपरिचित पृथ्वी पर आता है. क्षमा करेंगे. यह हिन्दू समाज है जो जन्म के साथ ही उसे 'दलित' की घुट्टी पिला देता है. एक पृथक दलित समाज का निर्माण कर डाला गया. उसे एक उपेक्षित कोने में फेंक दिया गया. लेखक-कवि उनमें बिकाऊ शब्द ढूंढऩे लगे. बेचारा दलित, शोषित दलित, उपेक्षित दलित का तानाबाना बुन साहित्य निर्माण किए जाने लगे. सहानुभूति में यह अवश्य लिखा गया कि गरीबी दलित समाज का सबसे बड़ा कलंक है. लेकिन कौन दोषी है इस अवस्था के लिए? सबसे अधिक श्रम करने वाले इस वर्ग को सबसे अधिक निर्धन इसी हिन्दू समाज ने ही तो बनाया है! फिर क्या आश्चर्य कि उर्दू के प्रसिद्ध कवि इकबाल ने लिख डाला-
आह शूद्र के लिए हिन्दुस्तां गमखाना है,
दर्दे इनसानी से इस बस्ती का दिल बेगाना है.
और इसी के प्रतिरोध में डॉ. भीमराव आंबेडकर ने क्रांति की ज्वाला जगाई. हिन्दू समाज की तब सही पहचान कर वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि ''चाहे हिन्दुओं के रीति-रिवाज और विचार एक ही प्रकार के हैं तो भी न तो वे एक समाज हैं और न ही ठीक अर्थों में एक राष्ट्र ही हैं. जाति भेद ने हिन्दू वंश को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया है और इसने हिन्दू समाज को गहन अंधकार में ढकेल दिया है. और यह अब तक शक्तिहीन तथा दुर्बल-पतित समाज बनकर रह गया है.'' क्या हिन्दू समाज केरल की घटना के बाद भी डॉ. आंबेडकर के निष्कर्ष को चुनौती दे पाएगा? इन दिनों हिन्दुत्व का प्रचार जोर-शोर से किया जा रहा है. मैं एक हिन्दू हूं और मुझे इस बात का गर्व है. किन्तु एक तुच्छ चिंतक होने के कारण मेरा मन बार-बार पूछता है कि आंबेडकर गलत कहां थे? जिस समाज में किसी जाति विशेष को किसी मंदिर विशेष में पूजा-अर्चना से रोक दिया जाए, हत्या कर दी जाए, वह समाज पूज्यनीय कैसे हो सकता है?

हे राम! हे गांधी!!


वैसे तो मुझे विश्वास नहीं कि मेरी आवाज गांधीजी के कानों तक पहुंचेगी फिर भी क्षमा मांग लेता हूं कि आज के शीर्षक की प्रेरणा मैं उन्हीं के राजघाट पर अंकित 'हे राम' से ले रहा हूं. लेकिन अत्यंत ही पीड़ा के साथ. यकीन मानिए, मेरी तरह आज देश का 'गांधीवाद' सौ-सौ आंसू बहा रहा है. यह देखकर सभी हैरान-परेशान हैं कि बापू का चश्मा, घड़ी, चप्पल और तश्तरी को न्यूयार्क में हुई नीलामी में खरीदने वाले भारत के प्रसिद्ध शराब व्यापारी विजय माल्या की जय-जयकार हो रही है. इस सचाई को दरकिनार कर कि गांधीजी ताजिंदगी शराब और शराबियों से परहेज करते रहे! आज गांधीजी की वस्तुओं को नीलामी में खरीदने वाले उस शराब व्यापारी विजय माल्या की जय-जयकार हो रही है कि उसने बापू की 'धरोहर' को बचा लिया, उन्हें भारत वापस ला रहा है.
यह ठीक है कि विजय माल्या शराब के अलावा, हवाई जहाज तक उड़वा रहे हैं, किन्तु वह देश-विदेश में 'शराब किंग' के नाम से ही परिचित हैं. फिर भी उन्हें मेरा साधुवाद कि कम-अज़-कम उनके द्वारा ही सही, भारत की एक धरोहर वापस स्वदेश तो पहुंचेगी. निद्रामग्न सौ करोड़ भारतीयों में एक जागृत तो सामने आया! लेकिन इस मुकाम पर 'स्वदेश' की सौ करोड़ जनता से मेरा सीधा सवाल- ''क्या सचमुच उन्हें गांधी की धरोहर से कोई सरोकार है?'' कोई मुंह न छिपाएं, साफ-साफ बोल दें कि ''नहीं है!'' यह तो प्रमाणित हो चुका है. जब अमेरिका में इन वस्तुओं की नीलामी की बात सामने आयी, तब किसी और ने नहीं, स्वयं गांधी के पोते तुषार गांधी ने बापू के नाम का बैंक में एक खाता खोल नीलामी के लिए देश की जनता और अपने दोस्तों से सहयोग की अपील की थी. प्रतिसाद जानना चाहेंगे? तो जान लीजिए, देश की जनता की ओर से साढ़े तीन लाख रुपए की रकम उस खाते में जमा हुई. भारतीय धरोहर के रूप में निरूपित गांधीजी की वस्तुओं को वापस भारत लाने के लिए भारत की एक सौ करोड़ से अधिक आबादी का यह योगदान था! अगर एक-एक रुपए का भी योगदान महान भारत के महान नागरिकों ने दिया होता तब एक सौ करोड़ से अधिक की राशि जमा हो जाती!क्या हजारों-लाखों ऐसे उदाहरण नहीं हैं जब मनोरंजन सहित क्रिकेट खिलाडिय़ों को खरीदने के लिए सैकड़ों करोड़ रुपयों की बोली लगाने वाले दर्जनों हाथ उठते रहे हैं. फिर भारत की धरोहर को विदेशी हाथों से मुक्त कराने के लिए मात्र साढ़े तीन लाख रुपए! बता दूं कि इस रकम से नीलामी में हिस्सा भी नहीं लिया जा सकता था. राष्ट्रपिता गांधी को हर बार की तरह इस बार भी राष्ट्र ने सिद्धांतों का बंदी बनाए रखा! फिर आज देश, किस भारत और किस गांधी और कौन सी धरोहर का बखान कर खुश हो रहा है? तुषार गांधी ने साफ कर दिया है कि भारत सरकार इन वस्तुओं को भारत लाने के प्रति उदासीन थी.
अब चाहे जितना भी प्रचार कर लिया जाए कि प्रधानमंत्री और सरकारी स्तर पर धरोहर को वापस लाने के प्रयत्न किए गए, कोई विश्वास नहीं करेगा. केंद्रीय पर्यटन व संस्कृति मंत्री अंबिका सोनी के तत्संबंधी दावे को भी स्वयं विजय माल्या ने ही यह कह कर खारिज कर दिया कि ''मेरी सरकार में किसी भी व्यक्ति के साथ किसी तरह की कोई बातचीत नहीं हुई थी. यह पूरी तरह से मेरा निजी फैसला था.'' आश्चर्य है कि भारत सरकार ने ऐसा दावा कैसे किया कि गांधीजी की निजी वस्तुएं हासिल करने की व्यवस्था वस्तुत: सरकार की ओर से विजय माल्या के जरिए की गयी थी. साफ है कि भारत सरकार ने झूठ बोला! यहां देश यह भी जानना चाहेगा कि आखिर गांधी की मृत्यु पश्चात (जब भारत आजाद हो चुका था) उनकी निजी वस्तुएं विदेश कैसे पहुंचीं? और यह भी कि अब तक उन्हें वापस लाने की कोशिश क्यों नहीं की गयी? गांधी दर्शन को विश्वविद्यालयों में विषय के रूप में प्रवेश दिलाने वाले भी आज स्तब्ध हैं. क्या गांधी हमेशा सिद्धांत का अवसरवादी खिलौना ही बने रहेंगे? मशहूर शायर मुजफ्फर रज़्मी ने बिल्कुल सही कहा था-
'लम्हों ने खता की थी,
सदियों ने सजा पाई.'
8 मार्च 2009

सिर्फ 'मराठा माणूस' नहीं हैं शरद पवार !


जब निर्धारित अंक से कम प्राप्तांक पर आरक्षण के नाम पर मेडिकल कालेजों में दाखिला देने की शुरुआत हुई थी, तब यह मांग भी उठी थी कि ऐसे विद्यार्थियों के लिए मरीज भी आरक्षित कर दिए जाएं. आरक्षित कोटे से डाक्टर बने लोगों के लिए मरीज भी आरक्षित वर्ग के ही हों. यह कोई मजाक नहीं, गंभीरता के साथ देश में ऐसी मांग उठी थी. मांग हास्यास्पद तो थी, किन्तु विचारणीय भी. मामला पात्रता अथवा योग्यता से जुड़ा था. इसकी संवेदनशीलता के कारण बात तब आई-गई हो गई. आज जब शिवसेना की ओर से यह कहा जा रहा है कि 'मराठा माणूस' होने के कारण शरद पवार प्रधानमंत्री बनें, तब आरक्षण के आरंभिक दिनों की बातें अनायास जेहन में कौंध गईं. दु:ख हुआ सेना की संकीर्ण सोच पर. शरद पवार प्रधानमंत्री बनें, यह हम सभी चाहेंगे. पवार हर दृष्टि से इस पद के लिए योग्य पात्र हैं. प्रधानमंत्री पद के लिए आवश्यक सभी गुण उनमें हैं. भारत और भारतीयता की समझ रखने वाले पवार न केवल एक बुद्धिमान राजनीतिज्ञ हैं, बल्कि एक कुशल प्रशासक के रूप में भी स्थापित हो चुके हैं. शायद वर्तमान पीढ़ी के उपलब्ध नेताओं में प्रधानमंत्री पद के लिए सर्वथा योग्य उम्मीदवार पवार ही हैं. प्रधानमंत्री पद के लिए उनकी दावेदारी के औचित्य को चुनौती नहीं दी जा सकती. अवसर मिलता है तब वे प्रधानमंत्री अवश्य बनें. भला लोकतंत्र में किसी पद विशेष के लिए किसी व्यक्ति विशेष की उम्मीदवारी को चुनौती दी भी कैसे जा सकती है! किन्तु शिवसेना ने जिस 'मराठी माणूस' की एकाकी योग्यता पर प्रधानमंत्री के लिए पवार के नाम को उछाला है, वह आपत्तिजनक ही नहीं, अपमानजनक भी है. क्षेत्रीयता आधारित यह सोच संकीर्ण है, अलगाववाद का प्रतीक है. स्वयं पवार के लिए यह मांग असहजता पैदा करने वाली है. पवार न केवल मराठों के नेता हैं और न ही केवल महाराष्ट्र के. वे तो सर्व स्वीकार्य राष्ट्रीय नेता हैं. शिवसेना की 'खास संस्कृति' के कारण राष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनाने वाले बाल ठाकरे या उनके भतीजे राज ठाकरे से बिल्कुल पृथक शरद पवार अगर राष्ट्रीय स्तर पर परिचित और लोकप्रिय हैं तो अपनी राजनीतिक सूझ-बूझ, राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में व्यापक सोच और प्रशासनिक कुशलता के कारण. देश के रक्षा मंत्री के रूप में वे अपनी अंतरराष्ट्रीय पहचान भी बना चुके हैं. ऐसे राष्ट्रीय व्यक्तित्व को शिवसेना 'मराठी माणूस' की सीमित परिधि में न समेटे. उनके कद को बौना न बनाए. शिवसेना की यह सोच उस संक्रामक जातीयता व क्षेत्रीयता पर आधारित है, जिसकी परिणति बिखराव व टूट के रूप में होती है. राष्ट्रीय नेतृत्व की अपेक्षा करने वाला ऐसी संकीर्ण मानसिकता का धारक कदापि नहीं हो सकता. पवार भी नहीं. शिवसेना अगर उनकी शुभचिंतक है तो अपनी सोच, अपना दृष्टिकोण व्यापक करे. पूरे देश से अलग-थलग कर किसी भी 'मराठा माणूस' को दिल्ली पहुंचाने की कल्पना ही बेतुकी है. हम समझते हैं कि शिवसेना भी इस तथ्य को अच्छी तरह समझती है. हां, प्रादेशिकता उसकी राजनीतिक 'मजबूरी' हो सकती है. राष्ट्रीयता कतई नहीं. प्रधानमंत्री तो पूरे राष्ट्र का होता है, मराठी, पंजाबी या बंगाली का नहीं.
7 मार्च 2009

सत्कार एकपक्षीय नहीं, निष्पक्षीय हों!


एक समय था जब 'कथनी और करनी में फर्क' की ओर ध्यान आकृष्ट कर लोगों को आईना दिखाया जाता था. लेकिन, अब तो कथनी-कथनी में फर्क के उद्धरण धड़ल्ले से सामने आ रहे हैं. अब हम-आप क्या करें? नागपुर पश्चिम से तेजतर्रार युवा विधायक देवेंद्र फडणवीस को निराशा तो हाथ लगी होगी, तथापि मैं बता दूं कि वर्तमान राजनीति का यथार्थ यही है. पिछले दिन कांग्रेस, राकांपा और भाजपा के 3 नेताओं के एक साथ एक ही मंच पर आयोजित सत्कार समारोह में देवेंद्र ने बड़े उत्साह के साथ उसी मंच से घोषणा कर डाली कि 'समारोह वर्तमान राजनीति के बदलते स्वरूप का प्रतीक है.' क्या सचमुच? लोग विश्वास करने को तैयार नहीं हैं. शायद देवेंद्र समारोह की भव्यता के कारण अति उत्साह में आ गए थे. उसी मंच से उनके नेता नितिन गड़करी ने मंद-मंद मुस्कान के साथ समारोह आयोजकों के पाश्र्व की चर्चा करते हुए उन्हें होने वाले अर्थलाभ को सार्वजनिक कर बहुत-कुछ कह दिया था. फिर इसके दूसरे ही दिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ व भाजपा के मुखपत्र समझे जाने वाले 'तरुण भारत' ने सत्कार समारोह को 'बिल्डर लॉबी का गोलमाल' निरूपित कर डाला. उन्होंने एक खबर प्रकाशित कर लोगों को यह बताया कि जिस मिहान प्रकल्प को मूर्त रूप देने के लिए अलग-अलग पार्टियों के 3 नेताओं के सत्कार का आयोजन किया गया, वस्तुत: उसके पीछे बिल्डर लॉबी का अपना स्वार्थ था. 'तरुण भारत' ने बताया है कि अगले 2 वर्ष तक तो जमीन की कीमतों में वृद्धि की संभावना नहीं है, किन्तु बिल्डर लॉबी ऐसे आयोजन कर जमीन की कीमतों में तत्काल वृद्धि की मंशा रखती है. अब सवाल यह कि अगर यह सच है तब कांग्रेस-राकांपा-भाजपा के नेता उस मंच पर क्यों पहुंचे? क्या ये नेता झांसे में आ गए? या फिर इनकी कोई अपनी मंशा थी? बकौल 'तरुण भारत', आयोजन एक स्थानीय सांसद व केंद्र में मंत्री को राजनीतिक हाशिये पर भेजने का उपक्रम था. अगर यह सच है तो फिर देवेंद्र फडणवीस को अपने शब्द वापस लेने होंगे. क्योंकि तब भारतीय राजनीति का कोई सकारात्मक बदलता स्वरूप रेखांकित नहीं होता, बल्कि यह पुनस्र्थापित हुआ कि भारतीय राजनीति में कहीं कुछ नहीं बदला है, सब कुछ वही है जिसकी नींव पं. जवाहरलाल नेहरू की मृत्यु के पश्चात 60 के दशक के मध्य में डाल दी गई थी- स्वार्थ आधारित षडय़ंत्र, विश्वासघात और मूल्यों का श्राद्ध. नागपुर का कायाकल्प हो, उसे विश्व नक्शे पर सम्मानजनक स्थान मिले, विदर्भवासियों की इस इच्छा के साथ मैं भी हूं. इस हेतु प्रयत्न करने वालों का सत्कार नागपुर के वसंतराव देशपांडे सभागृह में ही नहीं, बल्कि दिल्ली के बोट क्लब पर सार्वजनिक रूप से हो, मैं तो यही चाहूंगा. ऐसे सत्कार समारोह अन्य लोगों के लिए प्रेरणास्रोत बनते हैं. इसकी निरंतरता कायम रहनी चाहिए. किन्तु लोगों की नजरों में ऐसे समारोह तभी विश्वसनीय व पवित्र स्थान प्राप्त करेंगे जब वह एकपक्षीय नहीं, निष्पक्षीय दिखें.
'तरुण भारत' ऐसा मानने को तैयार क्यों नहीं? हमें जवाब किसी और से नहीं, एक सत्कार मूर्ति नितिन गड़करी से चाहिए. क्योंकि यह गड़करी का ही कहना है कि कांग्रेस-राकांपा के नेता निजी स्वार्थ के लिए ही 'मिहान' का श्रेय लेने की होड़ में शामिल हुए हैं. और यह कि 'मिहान' प्रकल्प को गति युति सरकार अर्थात् भाजपा-शिवसेना गठबंधन के काल में मिली. ऐसे में विदर्भ, विशेषकर नागपुर के लोगों की यह जिज्ञासा आधारहीन तो नहीं ही कि कांग्रेस व राकांपा नेताओं के साथ नितिन गड़करी मंच पर उपस्थित कैसे थे! पूरा विदर्भ इस सवाल का उत्तर चाहता है.
6 मार्च 2009

मंदिर के 'देवी -देवता' राबड़ी-लालू!


यह भी खूब रही! जीते-जी स्वयं का पुतला बनवा माल्यार्पण करते देखने का शौक राजनेता पूरा करते रहे हैं. महाराष्ट्र, उत्तरप्रदेश, बिहार, तमिलनाडु सहित अनेक राज्यों में आपको जीवित राजनेताओं की स्थापित की गई मूर्तियां देखने मिल जाएंगी. ऐसी मूर्तियों को देख लोग-बाग हंस तो लेते हैं, आश्चर्य प्रकट नहीं करते. हां, 'लालू-राबड़ी' इस मामले में दो कदम आगे बढ़ते हुए आश्चर्य की 'वस्तु' नहीं, चिन्तन का विषय भी मुहैया कराने जा रहे हैं. इस बार हंसी नहीं, गंभीर मनन की जरूरत उत्पन्न हुई है. खबर है कि बिहार में लालू-राबड़ी का मंदिर स्थापित किया जाने वाला है. अर्थात् देवी-देवताओं की तरह अब 'लालू-राबड़ी' भी मंदिर में पूजे जाएंगे. उनकी आरती-अर्चना होगी. फल-फू ल-प्रसाद चढेंग़े. पता नहीं, लालू-राबड़ी की सहमति इसके लिए है या नहीं, लेकिन जानकार पुष्टि करेंगे कि घोर ब्राह्मïण-विरोधी लालू हमेशा से पूजा-पाठ का मजाक उड़ाते रहे हैं. विशेषकर वैसे पूजन का, जिन्हें ब्राह्मïण पुजारी संपन्न करते हैं. फिर लालू ने मंदिर की ओर रुख क्यों किया? वह भी ऐन चुनावी माहौल में!
लालू आज केन्द्र की संप्रग सरकार में अपने दो दर्जन संासदों के बल पर एक प्रभावशाली मंत्री हैं. संख्या के गणित का महत्व समझ वे अपने मन की कर लेने और करवा लेने में सक्षम हैं. लालू इस सत्य से परिचित हैं कि आज अगर केन्द्र में उनकी हर इच्छा की पूर्ति कर दी जाती है, तो संसद में उन्हें प्राप्त संख्या बल के कारण ही. आसन्न आम चुनाव के परिणाम को लेकर लालू चिन्तित हैं, यह बात उनके नजदीकी जानते हैं. बिहार में लगभग 15 वर्षों तक राज करने वाले लालू निश्चित ही आज कमजोर हैं. भाजपा-जद (यू) गठबंधन की राज्य सरकार 'पुराने पापों' को धोते हुए विकास कार्यों को प्राथमिकता दे रही है. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार वहां हर वर्ग-क्षेत्र में एक कुशल, ईमानदार प्रशासक के रूप में स्थापित हो चुके हैं. समीक्षकों का अनुमान है कि भाजपा-जद (यू) गठबंधन लोकसभा की अधिकांश सीटों पर कब्जा कर लेगा. अर्थात् लालू-राबड़ी का राष्ट्रीय जनता दल हाशिये पर चला जाएगा.
उसी लालू-राबड़ी की मूर्तियों को अगर आज मंदिर में स्थापित करने की पहल की जा रही है, तो कारण की पड़ताल दिलचस्प होगी. कहीं ऐसा तो नहीं कि बिहारवासी अब उन्हें पत्थर बना स्थायी रूप से मंदिरों में कैद कर देना चाहते हैं! क्योंकि लालू-राबड़ी तो स्वयं को मंदिर में कैद करवाएंगे नहीं. उनकी कथित धर्मनिरपेक्ष छवि भी इसके खिलाफ चुगली कर रही है. लगता है लालू-राबड़ी संभावित चुनाव परिणाम की सोच-सोच कर विचलित होते जा रहे हैं. चूंकि सत्ता का मद उनके सिर चढ़ बोलने लगता है. भय यह भी है कि कहीं सत्ता के अंतिम दिनों में यह मद किसी 'दुर्घटना' को न जन्म दे दे. ठीक उसी तरह, जैसे 1995 में दूसरी बार मुख्यमंत्री बनने के बाद किया था. तब एक पत्रकार ने उनका ध्यान बिहार की जनता द्वारा उनमें दोबारा विश्वास जताये जाने को आकृष्ट किया था. सुझाव दिया था कि अब वे बिहार के विकास की ओर ध्यान दें और देश में बिहार की 'छवि' सुधारने की ओर भी कदम उठायें. तब उनसे लोमहर्षक जवाब मिला था. लालू ने तब विकास के मुद्दे पर राज्य के अन्य पूर्व मुख्यमंत्रियों का नाम लेते हुए पत्रकार को याद दिलाया कि ''इन सभी ने विकास का नारा तो दिया था, किन्तु जनता ने इन्हें लात मार कर सत्ता से बाहर कर दिया था!'' छवि के सवाल पर उनका दो-टूक जवाब था- ''पूरे देश को ही नहीं, पूरे संसार को बिहार के नाम से खौफ खाने दीजिए. फायदा इसी का मिलेगा.'' निरुत्तर पत्रकार उन्हें देखता रह गया था. क्या लालू यादव मंदिर में स्थापित होकर अपने 1995 के मनोगत को मौन स्वीकृति प्रदान करना चाहते हैं? अगर हां, तब मुझे कुछ नहीं कहना. अगर ना, तब वे इस पहल का विरोध कर 'भगवान' की जगह मनुष्य ही बने रहें! मैंने कहा, मनुष्य.....!!
5 मार्च 2009

नापाक पाकिस्तानी हाथ, गलीच जुबान...!


पाकिस्तान के नापाक हाथों द्वारा गंदगी उंड़ेलने की घटना तो आम है ही, उसकी जुबान भी इन दिनों गलीच उगलने लगी है. भारत इन्हें बर्दाश्त कर रहा है तो संयम बरतने की अपनी नीति के कारण. लेकिन पाकिस्तान है कि इसे हमारी कमजोरी समझ बार-बार उकसाता रहता है. यह भूलकर कि जिस दिन पानी सिर के ऊपर से बहने लगेगा, उस दिन संभवत: पाकिस्तान अपना अस्तित्व बचाने की जद्दोजहद में उलझ कर रह जाएगा. इस बार तो उसने हद ही कर दी. पाकिस्तान में श्रीलंकाई टीम पर खूनी हमले के लिए उनके भूतपूर्व आईएसआई प्रमुख हामिद गुल ने भारत को दोषी करार दिया है. या तो हामिद गुल अपना मानसिक संतुलन खो बैठे हैं या फिर वे पाकिस्तान के किसी नापाक मंसूबे के ध्वजवाहक की भूमिका निभा रहे हैं. पिछले साल मुंबई पर आतंकी हमले में पाकिस्तानी हाथ की बात प्रमाणित हो चुकी है. विश्व समुदाय के दबाव के बाद स्वयं पाकिस्तान यह मान चुका है. फिर हामिद गुल ने श्रीलंकाई क्रिकेट टीम के सदस्यों पर हुए कायराना हमले के लिए भारत को दोषी क्यों ठहराया? शायद ऐसा कर वे विश्व समुदाय का ध्यान मुंबई हमले के अपराधियों की ओर से हटाना चाहते हैं, लेकिन पाकिस्तान यह न भूले कि भारत मुंबई हमले के दोषियों को सजा दिलाने के अभियान को तार्किक परिणति तक पहुंचाने के लिए कटिबद्ध है. क्या इस 'परिणति' का अर्थ समझाने की जरूरत है? भारतीय क्रिकेट टीम ने खुफिया जानकारियों के बाद पाकिस्तान का दौरा स्थगित कर दिया था. श्रीलंका क्रिकेट टीम के अधिकारियों ने घोर लापरवाही दिखाते हुए अपनी ओर से पाकिस्तान यात्रा की पेशकश कर दी थी. अंजाम सामने है. पाकिस्तान तो स्वउत्पादित भस्मासुर का शिकार है. इस बात को वह स्वीकार भी कर चुका है कि उसके कई क्षेत्रों पर तालिबान अर्थात् आतंकियों के जनक का कब्जा है. इससे अपने अस्तित्व पर खतरे की बात भी पाकिस्तानी शासक स्वीकार कर चुके हैं. फिर उन्होंने आतंकी हमले के लिए भारत पर उंगलियां क्यों उठाईं? आतंकवाद से लडऩे की जगह भारत पर इसका दोष मढऩे का उसका नया पैंतरा काम नहीं आएगा. आतंकवाद के मुद्दे पर पाकिस्तान विश्व के सामने नग्न खड़ा है. आवरण या परिधान चाहिए तो वह जेहाद बोले आतंकवादियों के खिलाफ और दोस्ती का हाथ बढ़ाए भारत की ओर. 'दोस्त भारत', पाकिस्तान का उद्धार कर सकता है जबकि 'दुश्मन पाकिस्तान', भारत का कुछ बिगाड़ नहीं सकता. इस शाश्वत सत्य को पाकिस्तानी शासक अपने दिलों में संजो कर रखें अन्यथा पाकिस्तानी अस्तित्व की समाप्ति के लिए कोई और नहीं, दोषी वे स्वयं होंगे.
4 मार्च 2009

रणजीत देशमुख का 'कांग्रेसी सच'!


'जूते साफ करने' जैसे मुहावरे का प्रयोग करने वाले रणजीत देशमुख, लगता है, 'आ बैल मुझे मार' वाली कहावत भूल गए हैं. वैसे उनकी हिम्मत की दाद देनी होगी. शेर के जबड़े में उंगली डाल दांत गिनने की कोशिश जो की है उन्होंने! अब एक बार फिर वे 'शहीद' हो जाते हैं, तब शोक में 'मर्सिया' पढऩे वालों की संख्या का अनुमान कठिन तो नहीं ही है. समझ में नहीं आता कि दो-दो बार महाराष्ट्र प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष व मंत्री रह चुके देशमुख अब टोपी वाले पारंपरिक कांग्रेस या कांग्रेसी को कैसे ढूंढ़ रहे हैं! निष्ठा की परिवर्तित परिभाषा की जानकारी तो उन्हें होनी ही चाहिए. पूरी की पूरी कांग्रेस को चमचागीरी की शिकार बताने वाले देशमुख यह कैसे भूल गए कि 'आधुनिक कांग्रेस' की नींव ही इस परिपाटी पर खड़ी हुई है. कांग्रेस को 'विचारों से कमजोर' बता कर वे किसकी सहानुभूति या समर्थन करना चाहते हैं? वह समय तो कब का बीत गया जब नीति और सिद्धांत पर कांग्रेस कार्यसमिति की बैठकों में खुलकर चर्चाएं हुआ करती थीं. गंभीर - वैचारिक मंथन हुआ करते थे. असहमति के शब्दों को भी आदर मिला करता था. व्यक्तिगत पसंद-नापसंद से इतर नेतृत्व पार्टीहित में अच्छे सुझावों-विचारों को सम्मान देता था. पुराने लोग या स्वाध्याय-प्रेमी आज भी याद करते हैं कि कैसे पं. जवाहरलाल नेहरू अपने प्रखर आलोचक महावीर त्यागी को ससम्मान आनंद भवन में चाय पर बुलाकर चर्चा करते थे. वह समय भी निकल गया, जब प्रधानमंत्री बनने के बाद इंदिरा गांधी ने विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञों को अपना सलाहकार बनाया था. हालांकि बाद में पार्टी में 'चमचागीरी संस्कृति' के जन्म का 'श्रेय' उन्हीं के खाते में दर्ज हुआ. रणजीत देशमुख अगर आज 'सच' को उगलना चाहते हैं, तब उन्हें इतिहास के उन पन्नों के साथ-साथ वर्तमान के कड़वे सच से पर्दा उठाने की कीमत चुकाने के लिए तैयार रहना होगा. मैं देशमुख के इस आकलन के साथ हूं कि कांग्रेस के दिनोदिन कमजोर होते जाने का मुख्य कारण सिर्फ यही नहीं, किन्तु अशोभनीय संस्कृति भी है. जब नींव कमजोर हो तब 'गृह' में दरारों का पैदा होना स्वाभाविक है. कांग्रेस की नई संस्कृति के वर्तमान वाहक की पात्रता को स्वयं कांग्रेसी संदिग्ध बताते रहे हैं. भारत देश की अपनी एक महान परंपरा है कि वह राष्ट्र-निर्माताओं और इसके लिए कुर्बानी देने वालों को याद कर आदरांजलि देता है. भारतीय नेता, चाहें वे किसी भी दल के हों, इस परंपरा का निर्वाह करते रहे हैं. किन्तु इसके लिए इतिहास की जानकारी होना जरूरी है. इस कसौटी पर वर्तमान नेतृत्व को रणजीत देशमुख या उनके सदृश अन्य पुराने कांग्रेसी कितने अंक देंगे? वे उत्तर दें- उसके पूर्व एक उद्धरण पेश करना चाहूंगा. 1997-98 में कांग्रेस ने आजादी की पचासवीं वर्षगांठ के अवसर पर भगतसिंह के जन्मदिवस पर एक समारोह का आयोजन किया था. समारोह में सोनिया गांधी को आमंत्रित किया गया था कि वे भगतसिंह को पुष्पों से श्रद्धांजलि अर्पित करें. भगतसिंह-युग और जीवन पर बोलने के लिए उन्हें एक तैयार भाषण दे दिया गया था. सोनिया अंतिम क्षण में भाषण देने से मुकर गईं. आयोजक परेशान थे कि आखिर हुआ क्या! पता चला कि भाषण में हर जगह भगतसिंह का उल्लेख सरदार भगतसिंह के रूप में किया गया था. सोनिया ने भगतसिंह के जिस चित्र पर पुष्प अर्पित किए थे, उसमें भगतसिंह अपनी चिर-परिचित 'हैट' धारण किए हुए थे, सरदार की पगड़ी नहीं. सोनिया को तब लगा था कि उनके भाषण में किसी गलत व्यक्ति का नाम शामिल कर दिया गया है. रणजीत देशमुख दु:खी न हों!
कांगे्रस की जिन व्याधियों का उल्लेख कर वे अपनी पीड़ा व्यक्त कर रहे हैं, वे सभी सही तो हैं, किन्तु उन्हें यह मालूम होना चाहिए कि समाधान प्रस्तुत करने वाले मस्तिष्क भी 'चमचागीरी संस्कृति' के प्रभाव में निष्क्रिय हो युके हैं. अब तो नेतृत्व के पास समस्या के साथ-साथ समाधान भी लेकर जाना होता है. कारण साफ है, नेतृत्व के पास समस्या-समाधान की क्षमता का अभाव है. और अभाव है समाधान संबंधी सकारात्मक सुझाव देने वाले सुपात्रों का. ऐसे में क्या आश्चर्य कि नेतृत्व के दरबार में 'जूते साफ करने वालों' को महत्व मिले! रणजीत देशमुख का मैं अभिनंदन करना चाहूंगा कि खतरे की परवाह किए बगैर उन्होंने 'सच' बोलने की हिम्मत दिखाई है. लेकिन ऐसे साहसिक कदम अगर टिके रहे, तब अंत में वे अकेले नहीं दिखेंगे. क्या रणजीत देशमुख अपने पांवों को अंत तक टिके रहने के लिए 'नैतिक मजबूती' प्रदान करने को तैयार हैं?
3 मार्च 2009