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Wednesday, March 25, 2009

फिर कटघरे में निर्वाचन आयोग!


क्या निर्वाचन आयोग संविधान-प्रदत्त अपने अधिकारों-दायित्व को भूल गया है ? अगर ऐसा है तो उसके तीनों आयुक्त राष्ट्रपति को सूचित कर तत्काल सेवामुक्त हो जाएं! और अगर ऐसा नहीं है, तब देश उनसे जानना चाहेगा कि आयोग के कर्तव्य -दायित्व या फिर अधिकार के किस प्रावधान के अंतर्गत उसने भाजपा को सलाह दी कि वरुण गांधी को उम्मीदवार न बनाया जाए! संभवत: निर्वाचन आयोग के इतिहास की यह पहली घटना है. पहले से ही विवादों में घिरा निर्वाचन आयोग वरुण के मामले को लेकर और अधिक संदिग्ध हो गया. अगर वरुण ने सचमुच अल्पसंख्यक मुसलमानों के खिलाफ आपत्तिजनक बातें कही हैं, तब मौजूदा कानून के तहत उनके खिलाफ मामला दर्ज करने का आदेश देना आयोग के अधिकार क्षेत्र में आता है. किन्तु उम्मीदवारी तय करने संबंधी किसी दल को सुझाव देने का अधिकार आयोग को प्राप्त नहीं है. तब उसने ऐसा क्यों किया? भारत की इस महत्वपूर्ण संवैधानिक संस्था को सीधे-सीधे सत्ता, किसी एक दल या परिवार के प्रति निष्ठावान निरूपित नहीं किया जाना चाहिए. बावजूद इसके ऐसा हो रहा है. इस मामले में बिल्कुल ठीक ही.
जिस कथित आपत्तिजनक व साम्प्रदायिक भाषण को वरुण गांधी के मुख में डाला जा रहा है, बताया जाता है कि वह घटना 4 मार्च की है. लेकिन उस दिन से लेकर अगले 12 दिनों तक उक्त 'घोर साम्प्रदायिक' और आपत्तिजनक शब्दों की जानकारी देश को नहीं दी जाती. मीडिया भी इस बीच मौन रहा. स्वाभाविक जिज्ञासा यह कि इतने दिनों तक उस खबर के प्रसारण को रोक कर क्यों रखा गया? जिन शब्दों को अब उछाला जा रहा है, उन पर तो तभी पूरे देश में हंगामा हो जाना चाहिए था. लेकिन 12 दिनों तक ऐसा कुछ नहीं हुआ. अब इसे क्या माना जाए! टीआरपी की दौड़ में काल्पनिक या स्वरचित घटनाओं को बार-बार टेलीविजन पर दिखाते रहने के आदी टीवी चैनल चूक कैसे गए? समाचार-पत्र भी इतने दिनों तक खामोश कैसे रहे? इससे तो यही प्रतीत होता है कि मीडिया के पास वरुण को लेकर ऐसी कोई खबर तब थी ही नहीं!
फिर अचानक एक सीडी का उदय होता है और न्यूज चैनलों के समाचार कक्ष में बैठे पत्रकारों के ज्ञानचक्षु अचानक खुल जाते हैं. जिम्मेदार मीडिया की ऐसी हरकत के बाद निर्वाचन आयोग में बैठे तीन निर्णायक भाजपा को सलाह देने लगते हैं, तो आश्चर्य क्या! भाजपा ने वरुण का साथ देते हुए यह घोषणा कर कि पीलीभीत से वरुण ही पार्टी उम्मीदवार होंगे, निर्वाचन आयोग को उसकी औकात बता दी है. मैं यह नहीं कहता कि आयोग का फैसला पक्षपातपूर्ण है. मेरी दृष्टि में यह फैसला अज्ञानपूर्ण है. एक साधारण समझ का व्यक्ति भी इस आकलन की पुष्टि कर देगा. तो क्या यह मान लिया जाए कि आयोग के तीनों आयुक्त अज्ञानी ही हैं? जवाब आयुक्तों को ही देना है. और उन्हें जवाब देना होगा इन तथ्यों की मौजूदगी को ध्यान में रख कर कि संजय दत्त नामक एक अभिनेता की उम्मीदवारी के खिलाफ आयोग ने संबंधित राजदल को कोई सलाह नहीं दी, जबकि दत्त एक सजायाफ्ता है. शिबू सोरेन को सत्तापक्ष ने न केवल केन्द्र में मंत्री बना रखा था, बल्कि हाल में उन्हें झारखंड का मुख्यमंत्री भी बनाया गया था. सोरेन हत्या के आरोपी हैं. कांग्रेस के जगदीश टाइटलर और सज्जनकुमार पर सिख-विरोधी दंगों में शामिल होने के आरोप हैं. अनेक प्रत्यक्षदर्शी इन दोनों को सिखों की हत्या का अपराधी बताते रहे हैं. फिर आयोग ने इनसे संबंधित राजनीतिक दलों को ऐसी सलाह क्यों नहीं दी कि इन्हें उम्मीदवार नहीं बनाया जाए! वरुण गांधी के मामले में आयोग की जल्दबाजी रहस्यपूर्ण है. चूंकि कांग्रेस की ओर से वरुण की गिरफ्तारी की मांग की जा चुकी है, आयोग की यह पहल और भी संदिग्ध हो उठती है. अब प्रियंका वाड्रा ने भी यह टिप्पणी कर कि वरुण गांधी की बातें नेहरू-गांधी परिवार की परंपरा-संस्कृति से मेल नहीं खातीं, विवाद को एक नया रूप दे दिया है. लगता है, सोनिया-मेनका के पारिवारिक विवाद में पूरे राष्ट्र का ताना-बाना उलझ कर रह गया है. ऐसा नहीं होना चाहिए. किसी एक परिवार का विवाद अगर पूरी भारतीय राजनीति को प्रतिकूल रूप से प्रभावित करें, तब उस 'विवाद' को स्थायी मौत देने में ही देश का भला है. वैसे क्या प्रियंका वाड्रा को नेहरू-गांधी परिवार की परंपरा, संस्कृति व इतिहास की पूरी जानकारी है? शायद नहीं!

2 comments:

कसौटी राम said...

पत्रकार हो फिर भी सच लिखते हो?

sarita argarey said...

आपने बेहद गंभीर मुद्दे उठाये हैं । पारिवारवाद के बढ़ते दायरे से लोकतंत्र खतरे में है । संवैधानिक संस्थाएँ यदि व्यक्तिपरक काम करने लग जाएँगी ,तो प्रजातंत्र को कोई बचायेगा ?