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Monday, March 9, 2009

पूजनीय नहीं है हमारा यह समाज


एक छोटी खबर के रूप में मुद्रित इन शब्दों ने, कि 'पूजन के अधिकार को लेकर उत्पन्न विवाद में 2 दलितों की गला रेतकर हत्या कर दी गई', हृदय को वेध डाला. चाक-चाक हो गया वह दिल, बोझिल हो चुका वह मस्तिष्क जो ऐसी घृणित सोच की उत्पत्ति का कारण बनते हैं. ऐसे दिल, ऐसी सोच के धारक मानव को सभ्य कहलाने का कोई अधिकार नहीं. यह कौन सा समाज है, कौन सा देश है जिसने दलितों के खिलाफ ऐसी प्रथा को जन्म दिया? मानव-मानव और मंदिर-मंदिर या फिर मस्जिद, गुरुद्वारा, चर्च के बीच विभेद की रेखा खींचने वाला इंसान कैसे हो सकता है!
केरल के 2 दलितों की हत्या सिर्फ कानूनी अपराध नहीं है. यह अपराध है सृष्टि की रचना करने वाले के खिलाफ. यह अपराध है पूरी की पूरी मानवता के खिलाफ. कभी उड़ीसा के जगन्नाथ पुरी मंदिर में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को हिन्दू महंतों ने प्रवेश की अनुमति इस आधार पर नहीं दी थी कि वे पारसी थीं. तब थोड़े शोरगुल के बाद मामला ठंडा पड़ गया था. उसके बाद से ऐसी भी खबरें आने लगी थीं कि अनेक हिन्दू मंदिरों में दलित पुजारी पूजा-अर्चना कर रहे हैं. क्रांतिसूचक ऐसी खबरों से आशा बंधी थी कि सचमुच हमारा भारत देश सर्वधर्म समभाव का प्रतीक है, जातीय-धार्मिक भेदभाव से दूर है. लेकिन यह झूठ साबित हुआ. केरल की इस ताजा घटना से यह साबित हो जाता है कि भारतीय समाज अभी भी घोर आपत्तिजनक धार्मिक संकीर्णता का पोषक है. अंतर्विरोधों से भरा यह मानव (मन) क्या कभी स्वयं की शल्यक्रिया कर 'मन' की वास्तविकता की पड़ताल कर पाएगा? कदापि नहीं. ढोंगी है मानव, कायर हैं हम. अन्य ग्रहों पर जाकर जीवन खोजने वाला मानव अपना प्रयास तुरंत बंद कर दे. हम नहीं चाहते कि 'धार्मिक पाप' के संक्रामक जीवाणुओं को एक और आश्रय-स्थल मिले. क्या दोष था उन दोनों का? आज की चालू जुबान में 'दलित' ही तो थे वे. मेरी जुबान लडख़ड़ा जाती है, कलम रो पड़ती है इस शब्द को उच्चारित करते समय, शब्दांकित करते समय. किसने गढ़ा इस शब्द को? किसने चस्पाया इस शब्द को एक वर्ग विशेष के ललाट पर? हम तथाकथित सभ्य मानव ही ने तो! उस समाज में जन्म लेने वाला अबोध बालक इस शब्द से अपरिचित पृथ्वी पर आता है. क्षमा करेंगे. यह हिन्दू समाज है जो जन्म के साथ ही उसे 'दलित' की घुट्टी पिला देता है. एक पृथक दलित समाज का निर्माण कर डाला गया. उसे एक उपेक्षित कोने में फेंक दिया गया. लेखक-कवि उनमें बिकाऊ शब्द ढूंढऩे लगे. बेचारा दलित, शोषित दलित, उपेक्षित दलित का तानाबाना बुन साहित्य निर्माण किए जाने लगे. सहानुभूति में यह अवश्य लिखा गया कि गरीबी दलित समाज का सबसे बड़ा कलंक है. लेकिन कौन दोषी है इस अवस्था के लिए? सबसे अधिक श्रम करने वाले इस वर्ग को सबसे अधिक निर्धन इसी हिन्दू समाज ने ही तो बनाया है! फिर क्या आश्चर्य कि उर्दू के प्रसिद्ध कवि इकबाल ने लिख डाला-
आह शूद्र के लिए हिन्दुस्तां गमखाना है,
दर्दे इनसानी से इस बस्ती का दिल बेगाना है.
और इसी के प्रतिरोध में डॉ. भीमराव आंबेडकर ने क्रांति की ज्वाला जगाई. हिन्दू समाज की तब सही पहचान कर वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि ''चाहे हिन्दुओं के रीति-रिवाज और विचार एक ही प्रकार के हैं तो भी न तो वे एक समाज हैं और न ही ठीक अर्थों में एक राष्ट्र ही हैं. जाति भेद ने हिन्दू वंश को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया है और इसने हिन्दू समाज को गहन अंधकार में ढकेल दिया है. और यह अब तक शक्तिहीन तथा दुर्बल-पतित समाज बनकर रह गया है.'' क्या हिन्दू समाज केरल की घटना के बाद भी डॉ. आंबेडकर के निष्कर्ष को चुनौती दे पाएगा? इन दिनों हिन्दुत्व का प्रचार जोर-शोर से किया जा रहा है. मैं एक हिन्दू हूं और मुझे इस बात का गर्व है. किन्तु एक तुच्छ चिंतक होने के कारण मेरा मन बार-बार पूछता है कि आंबेडकर गलत कहां थे? जिस समाज में किसी जाति विशेष को किसी मंदिर विशेष में पूजा-अर्चना से रोक दिया जाए, हत्या कर दी जाए, वह समाज पूज्यनीय कैसे हो सकता है?

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