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'जी हां अय्यर साहब, सब कुछ 'सर्कस' ही है'. कांग्रेस के मणिशंकर अय्यर की जिज्ञासा का यह सीधा-सपाट उत्तर है. समझ में नहीं आता कि वे तीसरे मोर्चे के उदय पर इतना बौखला क्यों गए हैं? अय्यर पूछ रहे हैं कि यह कोई 'सर्कस' है क्या? और पार्टी के एक अन्य वरिष्ठतम नेता प्रणब मुखर्जी जानना चाहते हैं कि यदि यह तीसरा मोर्चा है, तब पहला और दूसरा कहां है? और निहायत आपत्तिजनक ढंग से मुखर्जी तीसरे मोर्चे की तुलना 'रोमन एम्पायर' से कर देते हैं. क्या ये उद्धरण यह संकेत नहीं देते कि कांग्रेस बौखला गई है? सच यही है. स्वयं के बल पर लगभग 45 साल सरकार चलाने की उपलब्धि गिनाने वाली कांग्रेस इस सचाई से मुंह न मोड़े कि कांग्रेस दलीय पतन के उस काल में प्रवेश कर चुकी है, जहां से निकलने के लिए संभवत: उसे अगले 45 वर्षों तक प्रतीक्षा करनी पड़ सकती है. हां, अगर इस अवधि में कोई अनहोनी हो गई तो बात दूसरी है. वर्तमान अवस्था सिर्फ शक्ति के क्षरण को रेखांकित कर रही है. कांग्रेस के बाद सत्ता की दूसरी दावेदार भारतीय जनता पार्टी की अवस्था भी लगभग ऐसी ही है. ऐसे में भारत जैसे विशाल लोकतांत्रिक देश की जनता तीसरा दरवाजा तो खटखटाएगी ही! जब पहले और दूसरे दरवाजे से निरन्तर निराशा मिले, तब तीसरे दरवाजे पर दस्तक से आश्चर्य क्यों?
मणिशंकर अय्यर और प्रणब मुखर्जी जैसे वरिष्ठ नेता अगर कांग्रेस की ओर से तीसरे मोर्चे की खिल्ली उड़ाते हुए यह कहें कि मु_ी भर सांसदों के बल पर लोग सरकार बनाने और प्रधानमंत्री बनने का ख्वाब देख रहे हैं, तब जानकार आश्चर्यचकित रह जाते हैं.
राजनीतिक स्थिरता की दुहाई देने वाले ये दोनों नेता पहले अतीत में झांक लें! क्या वे बताएंगे कि 1979 में तत्कालीन जनता पार्टी से टूट कर अलग हुए मु_ी भर सांसदों के गुट के नेता चौधरी चरणसिंह को समर्थन दे कांग्रेस ने प्रधानमंत्री क्यों बनने दिया? 1990 में पुन: चंद सांसदों के गुट के नेता चंद्रशेखर को भी प्रधानमंत्री बनने के लिए कांग्रेस का समर्थन क्यों मिला? फिर 90 के दशक में ही एच.डी. देवेगौड़ा और इंद्रकुमार गुजराल की अल्पमत सरकारों को कांग्रेस ने समर्थन देकर घोर राजनीतिक अवसरवादिता का परिचय नहीं दिया था?
यह कांग्रेस ही है जिसने मु_ी भर सांसदों के समर्थन के बल पर महत्वाकांक्षी नेताओं के मन में प्रधानमंत्री बनने की लालसा को बल प्रदान किया. राजनीतिक अवसरवादिता और अस्थिरता को मजबूती प्रदान कर कांग्रेस लोकतंत्र का मजाक उड़ाने की भी दोषी है. मुखर्जी और अय्यर जब इतिहास के इन पन्नों को उलटेंगे तो पाएंगे कि ऐसे 'राजनीतिक सर्कस' के रिंग मास्टर कांग्रेस के ही नेता रहे हैं! कभी संजय गांधी, कभी राजीव गांधी और कभी सीताराम केसरी आदि. बल्कि ऐसे अवसरवादी समर्थन देते समय कांग्रेस एक बार तो यह भी भूल गई थी कि वह ऐसे गठबंधन का समर्थन कर रही है, जिसमें द्रमुक नामक वह पार्टी भी शामिल थी, जिस पर और कोई नहीं, स्वयं सोनिया गांधी ने आरोप लगाया था कि उस दल के नेता राजीव गांधी के हत्यारों के साथी रहे हैं! इंद्रकुमार गुजराल सरकार से समर्थन वापसी के लिए कांग्रेस ने इसी मुद्दे को आधार बनाया था, जबकि इसके पूर्व देवेगौड़ा सरकार को कांग्रेस का समर्थन मिलता रहा था. देवेगौड़ा मंत्रिमंडल में द्रमुक का प्रतिनिधित्व था. तब तो कांग्रेस ने आपत्ति नहीं उठाई थी. जनता को वे बेवकूफ न समझें. उसकी याददाश्त कमजोर नहीं होती. अस्थायी तटस्थता पर कांग्रेस प्रसन्न न हो. इस मुकाम पर मेरी प्रणब मुखर्जी के साथ विशेष सहानुभूति है. राजीव गांधी की मृत्यु के बाद से वरिष्ठ होने के बावजूद बार-बार प्रधानमंत्री की कुर्सी उनके लिए दुर्लभ बनती गई. एक बार तो उन्होंने दु:खी होकर कांग्रेस का त्याग कर पश्चिम बंगाल में अपनी अलग पार्टी तक बना ली थी. स्वाध्याय-प्रेमी प्रणब मुखर्जी आज जब 'होली रोमन एम्पायर' की याद कर रहे हैं, तब मैं उनके शब्दों में छिपी पीड़ा को महसूस कर सकता हूं. जब उन्होंने राहुल गांधी को प्रधानमंत्री पद के लिए 'योग्य' घोषित किया था, तब वस्तुत: उनकी हताशा ही रेखांकित हुई थी.
16 मार्च 2009
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