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Monday, March 9, 2009

हे राम! हे गांधी!!


वैसे तो मुझे विश्वास नहीं कि मेरी आवाज गांधीजी के कानों तक पहुंचेगी फिर भी क्षमा मांग लेता हूं कि आज के शीर्षक की प्रेरणा मैं उन्हीं के राजघाट पर अंकित 'हे राम' से ले रहा हूं. लेकिन अत्यंत ही पीड़ा के साथ. यकीन मानिए, मेरी तरह आज देश का 'गांधीवाद' सौ-सौ आंसू बहा रहा है. यह देखकर सभी हैरान-परेशान हैं कि बापू का चश्मा, घड़ी, चप्पल और तश्तरी को न्यूयार्क में हुई नीलामी में खरीदने वाले भारत के प्रसिद्ध शराब व्यापारी विजय माल्या की जय-जयकार हो रही है. इस सचाई को दरकिनार कर कि गांधीजी ताजिंदगी शराब और शराबियों से परहेज करते रहे! आज गांधीजी की वस्तुओं को नीलामी में खरीदने वाले उस शराब व्यापारी विजय माल्या की जय-जयकार हो रही है कि उसने बापू की 'धरोहर' को बचा लिया, उन्हें भारत वापस ला रहा है.
यह ठीक है कि विजय माल्या शराब के अलावा, हवाई जहाज तक उड़वा रहे हैं, किन्तु वह देश-विदेश में 'शराब किंग' के नाम से ही परिचित हैं. फिर भी उन्हें मेरा साधुवाद कि कम-अज़-कम उनके द्वारा ही सही, भारत की एक धरोहर वापस स्वदेश तो पहुंचेगी. निद्रामग्न सौ करोड़ भारतीयों में एक जागृत तो सामने आया! लेकिन इस मुकाम पर 'स्वदेश' की सौ करोड़ जनता से मेरा सीधा सवाल- ''क्या सचमुच उन्हें गांधी की धरोहर से कोई सरोकार है?'' कोई मुंह न छिपाएं, साफ-साफ बोल दें कि ''नहीं है!'' यह तो प्रमाणित हो चुका है. जब अमेरिका में इन वस्तुओं की नीलामी की बात सामने आयी, तब किसी और ने नहीं, स्वयं गांधी के पोते तुषार गांधी ने बापू के नाम का बैंक में एक खाता खोल नीलामी के लिए देश की जनता और अपने दोस्तों से सहयोग की अपील की थी. प्रतिसाद जानना चाहेंगे? तो जान लीजिए, देश की जनता की ओर से साढ़े तीन लाख रुपए की रकम उस खाते में जमा हुई. भारतीय धरोहर के रूप में निरूपित गांधीजी की वस्तुओं को वापस भारत लाने के लिए भारत की एक सौ करोड़ से अधिक आबादी का यह योगदान था! अगर एक-एक रुपए का भी योगदान महान भारत के महान नागरिकों ने दिया होता तब एक सौ करोड़ से अधिक की राशि जमा हो जाती!क्या हजारों-लाखों ऐसे उदाहरण नहीं हैं जब मनोरंजन सहित क्रिकेट खिलाडिय़ों को खरीदने के लिए सैकड़ों करोड़ रुपयों की बोली लगाने वाले दर्जनों हाथ उठते रहे हैं. फिर भारत की धरोहर को विदेशी हाथों से मुक्त कराने के लिए मात्र साढ़े तीन लाख रुपए! बता दूं कि इस रकम से नीलामी में हिस्सा भी नहीं लिया जा सकता था. राष्ट्रपिता गांधी को हर बार की तरह इस बार भी राष्ट्र ने सिद्धांतों का बंदी बनाए रखा! फिर आज देश, किस भारत और किस गांधी और कौन सी धरोहर का बखान कर खुश हो रहा है? तुषार गांधी ने साफ कर दिया है कि भारत सरकार इन वस्तुओं को भारत लाने के प्रति उदासीन थी.
अब चाहे जितना भी प्रचार कर लिया जाए कि प्रधानमंत्री और सरकारी स्तर पर धरोहर को वापस लाने के प्रयत्न किए गए, कोई विश्वास नहीं करेगा. केंद्रीय पर्यटन व संस्कृति मंत्री अंबिका सोनी के तत्संबंधी दावे को भी स्वयं विजय माल्या ने ही यह कह कर खारिज कर दिया कि ''मेरी सरकार में किसी भी व्यक्ति के साथ किसी तरह की कोई बातचीत नहीं हुई थी. यह पूरी तरह से मेरा निजी फैसला था.'' आश्चर्य है कि भारत सरकार ने ऐसा दावा कैसे किया कि गांधीजी की निजी वस्तुएं हासिल करने की व्यवस्था वस्तुत: सरकार की ओर से विजय माल्या के जरिए की गयी थी. साफ है कि भारत सरकार ने झूठ बोला! यहां देश यह भी जानना चाहेगा कि आखिर गांधी की मृत्यु पश्चात (जब भारत आजाद हो चुका था) उनकी निजी वस्तुएं विदेश कैसे पहुंचीं? और यह भी कि अब तक उन्हें वापस लाने की कोशिश क्यों नहीं की गयी? गांधी दर्शन को विश्वविद्यालयों में विषय के रूप में प्रवेश दिलाने वाले भी आज स्तब्ध हैं. क्या गांधी हमेशा सिद्धांत का अवसरवादी खिलौना ही बने रहेंगे? मशहूर शायर मुजफ्फर रज़्मी ने बिल्कुल सही कहा था-
'लम्हों ने खता की थी,
सदियों ने सजा पाई.'
8 मार्च 2009

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