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Monday, March 2, 2009

विकृत लोकतंत्र, अनिश्चित पवार


गिरगिटी रंग के कारण राजनीति के बदलते चेहरे पर चिंतक पहले आनंद लेते हैं, किंतु जब उसके प्रतिफल से लोकतंत्र का चेहरा विकृत होने लगता है तब आनंद गंभीरता में परिवर्तित हो जाता है. महाराष्ट्र प्रदेश कांग्रेस कमेटी के दो बार अध्यक्ष रह चुके वरिष्ठï कांग्रेसी गोविंद राव आदिक ने चिंतकों के लिए कुछ ऐसी स्थिति पैदा कर दी है. आदिक ने कांग्रेस से पल्ला झाड़ शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस का दामन थाम लिया है. आदिक को विश्वास है कि वर्तमान राजनीति में देश को सक्षम नेतृत्व केवल शरद पवार ही दे सकते हैं. आदिक चाहते हैं कि दोनो कांग्रेस का विलय कर सोनिया को संगठन का नेतृत्व सौंप दिया जाए. साथ ही राहुल गांधी अगले दस वर्षों तक पवार से राजनीतिक प्रशिक्षण लें. पता नहीं आदिक किस राजनीति का उल्लेख कर रहे हैं. क्योंकि हमारे राजनेता राजनीति को विभिन्न रूपों में परिभाषित करते रहे हैं. मेरे मन में यह जिज्ञासा उठ रही है. एक अवसर पर राजीव गांधी ने खिन्न होकर राजनीति को एक अलग ढंग से ही परिभाषित किया था. आपातकाल के दौरान एक दिन जब राजीव गांधी मुंबई से लौट रहे थे तो ट्रैफिक पुलिस ने उनकी गाड़ी रोक ली और उन्हें दूसरे मार्ग से जाने के लिए कहा. कारण यह बताया गया कि सामने की ओर से वीवीआईपी संजय गांधी आ रहे थे. जब राजीव का ध्यान इस ओर आकृष्ट किया गया कि छोटे भाई तो बड़ी सड़क से जा रहे हैं लेकिन बड़े भाई को पतली गली से जाने के लिए कहा जा रहा है. तब राजीव गांधी ने जवाब दिया था कि 'यह सब राजनीति है.' संदेश यह गया कि देश में सिर्फ शक्तिशाली की पूछ होती है. तब संजय गांधी अत्यंत ही शक्तिशाली थे.
शरद पवार इस 'राजनीति' को समझकर ही बार-बार प्रधानमंत्री की कुर्सी की ओर लपकने लगते हैं. सन 1999 में पवार ने एक अनौपचारिक चुनावी सर्वेक्षण कराया था, जिसका निष्कर्ष यह था कि वे सोनिया के विदेशी मूल के आधार पर अगर उनके खिलाफ बगावत का झंडा उठाते हैं तो वे दूसरे लोकमान्य तिलक के रूप में पूज्य हो जाएंगे. पवार ने विद्रोह किया. लेकिन, तिलक नहीं बन सके. बल्कि महाराष्ट्र और केंद्र में तब उनके लिए 'अछूत' सोनिया गांधी के साथ उन्हें हाथ मिलाने के लिए मजबूर होना पड़ा. सिद्धांत और आदर्श को सिसकता छोड़ तब उन्होंने सत्ता की महारानी को गले लगाया. राजीव गांधी ने संभवत: ऐसी ही राजनीति पर क्षोभ जाहिर किया था. लगता है पवार की सत्ता वासना अभी भी अनियंत्रित है. पहले उनके मित्र समाजवादी पार्टी के अमर सिंह और अब गोविंदराव आदिक अगर उन्हें प्रधानमंत्री पद का सर्वश्रेष्ठ पात्र घोषित कर रहे हैं तो पवार की मर्जी से ही. लगता है पिछले दस वर्ष में पवार का नियतिसूचक अपने पुराने बिंदू पर स्थिर हो चुका है. 1999 में 58 साल पूरे कर चुके पवार तब यह मान बैठे थे कि यदि सोनिया गांधी कांग्रेस प्रमुख बनी रहती हैं तो प्रधानमंत्री बनने की उनकी संभावना खत्म हो जाएगी. उन्होंने सोनिया को चुनौती दे डाली. उनके करीबी पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर, मुलायम सिंह यादव और जार्ज फर्नांडीज ने तब भी उन्हें प्रधानमंत्री पद की दावेदारी के लिए उकसाया था. तब पवार और उनके सहयोगी यह मानकर चल रहे थे कि चुनाव में किसी दल अथवा गठबंधन को बहुमत नहीं मिलेगा. खंडित जनादेश की स्थिति में पवार तीसरे मोर्चे के सहारे प्रधानमंत्री बन जाएंगे लेकिन पवार की इच्छा धरी की धरी रह गई. भाजपा के राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को सदन में पूर्ण बहुमत मिल गया. फिर आज दस वर्ष बाद क्या पवार 1999 की सोच के आधार पर प्रधानमंत्री बनने का स्वप्न देख रहे हैं? ताजा हालात पवार के पक्ष में नहीं हैं. हां, अगर वामपंथी दल और समाजवादी कांग्रेस का दामन छोड़ कुछ और फैसला लेते हैं तब शायद 'समय' पवार का साथ दे दे. लेकिन तब उन्हें हिंदुवादी शिवसेना के साथ जुगलबंदी को विराम देना होगा. वैसे सिद्धांतविहीन वर्तमान राजनीतिक दौर में असंभव तो कुछ है नहीं!

2 comments:

राजीव रंजन श्रीवास्‍तव said...
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राजीव रंजन श्रीवास्‍तव said...

हंसराज रहबर की किताब पढ़ी थी 'नेहरू बेनकाब', पढ़कर लगा कि राजनीती आजादी के पहले भी आदर्श स्थिति में नहीं थी। लेकिन, तब सार्वजनिक जीवन में मर्यादा का लोप पूरी तरह नहीं हुआ था। आंखों में कुछ पानी बाकी था। मगर, आज तो सारी हदें टूट चुकी हैं। आज शिवसेना मराठी मानुष का राग अलाप कर शरद पवार को प्रधानमंत्री बनाना चाहती है। ये वहीं शिवसेना और बाल ठाकरे हैं, जिन्‍होंने पवार पर दाउद को देश से भगाने का आरोप लगाया था। तब के कथित रूप से देशद्रोही पवार आज शिवसेना की नजरों में प्रधानमंत्री के योग्‍य उम्‍मीदवार हो गए हैं। और, सेक्‍युलर राजनीति के झंडाबरदार पवार साहब चुप्‍पी साधे हुए कथित रूप से सांप्रदायिक शिवसेना के 'समर्थन'का मजा ले रहे हैं। पवार साहब बड़े मंजे हुए खिलाड़ी हैं। उन्‍हें पता है कि राजनीति में कुछ भी स्‍थायी नहीं होता और जनता बड़ी जल्‍दी पुरानी बातों को भूल जाती है। इसीलिए, पवार साहब पहले अपने मन की बात अपने सर्मथकों के मुंह से कह देते हें, फिर विपरीत प्रतिक्रिया होने पर अपने मुंह से उसका खंडन कर देते हैं। मुझे लगता है आलेख का शीर्षक ‘विकृत पवार, अनिश्चित लोकतंत्र’ होना चाहिए था।