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Monday, November 30, 2009

बहस हो कि सांप्रदायिक कौन!

न्यायमूर्ति मनमोहन सिंह लिबरहान के पूर्वाग्रह को कभी इंदिरा गांधी के राजनीतिक सलाहकार रह चुके कांग्रेस के वरिष्ठ नेता माखनलाल फोतेदार ने मोटी रेखा से चिह्नित कर दिया है। लिबरहान ने बाबरी मस्जिद विध्वंस पर अपनी जांच रिपोर्ट में तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंह राव को क्लीन चिट देते हुए टिप्पणी की है कि नरसिंह राव के पास उत्तर प्रदेश सरकार से गुजारिश करने के सिवा कोई चारा नहीं था। बगैर मांगे न्यायमूर्ति लिबरहान ने राव की ओर से ऐसी सफाई दे डाली है। लिबरहान जानते थे कि ऐसे सवाल उठेंगे कि उत्तर प्रदेश की भाजपा सरकार को पहले बर्खास्त क्यों नहीं किया गया। संविधान का सहारा लेते हुए स्वयं न्यायमूर्ति लिबरहान ने तकनीकी जवाब दे दिया कि बगैर राज्यपाल की अनुशंसा के केंद्र सरकार कोई कार्रवाई नहीं कर सकती थी। आयोग के इस निष्कर्ष के औचित्य पर राष्ट्रीय बहस छिड़ी हुई है। इस बीच माखनलाल फोतेदार ने यह जानकारी देकर कि स्वयं प्रधानमंत्री नरसिंह राव ने तत्कालीन राज्यपाल सत्यनारायण रेड्डी को कह रखा था कि बगैर उनसे पूछे राज्य सरकार के खिलाफ कोई रिपोर्ट नहीं भेजना, एक बड़ा विस्फोट किया है। बात यहीं खत्म नहीं होती। फोतेदार के अनुसार यह बात उन्हें किसी और ने नहीं बल्कि तत्कालीन राष्ट्रपति डाक्टर शंकरदयाल शर्मा ने बताई थी। लिबरहान आयोग की रिपोर्ट पर जारी बहस-विवाद के बीच इस नई जानकारी ने कांग्रेस को कटघरे में खड़ा कर दिया है। फोतेदार के शब्दों पर अविश्वास का कोई कारण नहीं है। क्या इससे यह प्रमाणित नहीं होता कि हिंदू शक्तियों के साथ तब की कांग्रेसी सरकार भी बाबरी मस्जिद के विध्वंस के लिए जिम्मेवार थी? माक्र्सवादी वृंदा करात ने तो यह भी जड़ दिया कि कांग्रेस सांप्रदायिकता के खिलाफ नर्म रुख रखती है। इस घटना विकासक्रम के बाद दो अहम् सवाल खड़े हो गए। पहला तो यह कि राज्यपाल कब तक केंद्र सरकार के इशारे पर नाचने को मजबूर रहेंगे। दूसरा यह कि देश में आखिर कब तक सांप्रदायिकता की कबड्डी खेली जाती रहेगी। क्या यह दोहराने की जरूरत है कि जब तक राजनीतिक (पालिटीशियन) और चापलूस नौकरशाह राज्यपाल बनाए जाते रहेंगे, वे केंद्र के गुलाम रहेंगे? संविधान प्रदत्त अधिकारों का इस्तेमाल वे अपने विवेक से कभी नहीं कर पाएंगे। 1983 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने सर्वोच्च न्यायालय के अवकाश प्राप्त न्यायाधीश न्यायमूर्ति राजेंद्र सिंह सरकारिया की अध्यक्षता में एक सदस्यीय आयोग का गठन कर अन्य बातों के अलावा राज्यपालों की भूमिका की जांच का जिम्मा दिया था। न्यायमूर्ति सरकारिया ने 1600 पृष्ठों की अपनी विस्तृत रिपोर्ट में राज्यपाल के पद पर राजनीतिकों, अवकाश प्राप्त सरकारी अधिकारियों की नियुक्ति नहीं किए जाने की अनुशंसा की थी। लेकिन किसी भी सरकार ने इस पर अमल नहीं किया। और तो और एक बार जब उत्तरप्रदेश के राज्यपाल रोमेश भंडारी ने वहां की सरकार को बर्खास्त करने की सिफारिश की थी तब धरने पर बैठे अटल बिहारी ने घोषणा की थी कि जब भाजपा की सरकार केंद्र में बैठेगी, वे सर्वप्रथम सरकारिया आयोग की रिपोर्ट पर पड़ी धूल की परतों को साफ करेंगे। खेद है कि वाजपेयी के शब्द भी आम राजनीतिक के शब्द बन कर रह गए। भाजपा शासनकाल में भी राज्यपालों की नियुक्ति के मापदंड वही रहे जो कांग्रेस ने अपनाया था और आज भी अपना रही है। फिर क्या आश्चर्य कि आज की नई पीढ़ी राजनीतिकों पर विश्वास करने को तैयार नहीं। क्या ये राजनीतिक कभी विश्वनीय बनेंगे?
रही बात सांप्रदायिकता की तो चूंकि दोनों बड़े दलों, कांग्रेस व भाजपा, में अपेक्षाकृत युवा नेतृत्व के पक्ष में बयार बह रही है, यह माकूल समय है जब इस बात का फैसला हो जाए कि यह सांप्रदायिकता आखिर है क्या और सांप्रदायिक कौन है? वर्तमान राजनीति के हमाम से जब भी सांप्रदायिकता के बुलबुले उठते हैं, निशाने पर भाजपा व संघ परिवार रहता है। क्या यह नैसर्गिक न्याय के खिलाफ नहीं? हिंदुत्व की बात करने वाले को सांप्रदायिक और किसी और धर्म की बात करने वाले को धर्मनिरपेक्ष निरूपित करने की परिपाटी अब खत्म होनी चाहिए। आज की पीढ़ी यह भी जानना चाहती है कि हिंदू-मुसलमान के नाम पर देश के बंटवारे के पक्षधर धर्मनिरपेक्ष कैसे हो गए? इस पर राष्ट्रीय बहस हो और हमेशा के लिए फैशन के रूप में प्रचलित सांप्रदायिक शब्द के प्रयोग पर विराम लग जाए। युवा पीढ़ी और देश के भविष्य के लिए यह जरूरी है। सभी राजनीतिक दल, सामाजिक संस्थाएं और मीडिया इसके लिए पहल करें। तार्किक परिणिति पर पहुंचने तक बहस चले- बिल्कुल निष्पक्ष, तथ्य परक, बेबाक। दलगत लाभ-हानि के विचार त्याग कर ही यह संभव हो सकता है। अगर सचमुच भारत के राजनीतिक दल देश में सर्वधर्म समभाव और सांप्रदायिक सौहार्द्र चाहते हैं, तब वे आगे आएं- बगैर किसी पूर्वाग्रह के, बगैर किसी दुर्भावना के। अन्यथा अयोध्या और बाबरी मस्जिद और फिर लिबरहान आयोग जैसी खबरें बनती रहेंगी, कोई हल कभी नहीं निकलेगा।

Sunday, November 29, 2009

कांग्रेस संस्कृति के शिकार नरसिंह राव!

यह असहनीय है। राजनीतिकों ने यह कैसे मान लिया कि जनता की याददाश्त कमजोर होती है। बाबरी मस्जिद विध्वंस प्रकरण में तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंह राव पर प्रतिकूल टिप्पणियों से परेशान कांग्रेस ने अपने प्रवक्ता डा. शकील अहमद के मार्फत देश को यह बता दिया कि दंडस्वरूप कांग्रेस ने 1998 के लोकसभा चुनाव में राव को टिकट देने से इंकार कर दिया था। देश की राजनीति पर नजर रखने वाला कोई भी यह बता देगा कि तब राव को टिकट नहीं मिलने का असली कारण क्या था। दरअसल 1991 में कांग्रेस लोकसभा चुनाव में पूर्ण बहुमत प्राप्त नहीं कर पाई थी। सरकार को बचाए रखने के लिए प्रधानमंत्री नरसिंह राव ने झारखंड मुक्ति मोर्चा के सदस्यों का समर्थन जुटा लिया था। कुख्यात सांसद रिश्वत कांड का जन्म उसी प्रयास में हुआ था। पूरे देश ने तब कांग्रेस और नरसिंह राव के नाम पर थू-थू किया था। 1998 में राव को टिकट नहीं दिए जाने का एक और कारण 10, जनपथ बना था। तब कांग्रेस अध्यक्ष सीताराम केसरी थे। 1996 के चुनाव में कांग्रेस की पराजय का ठीकरा नरसिंह राव के सिर फोड़ डाला गया था। 5 वर्षों तक प्रधानमंत्री रहने वाले नरसिंह राव के कांग्रेस संगठन पर वर्चस्व को समाप्त करने का षड्यंत्र रचा गया। केसरी स्वयं उस षड्यंत्र को समझ नहीं पाए। उनसे यह ऐलान करा दिया गया था कि बाबरी मस्जिद की रक्षा में विफलता के कारण नरसिंह राव को टिकट नहीं दी गई। जबकि यह झूठ था। बाद में केसरी स्वयं 10, जनपथ के चापलूसों के शिकार बने। शकील अहमद यह बताना क्यों भूल गए कि 1991 में भी नरसिंह राव को टिकट नहीं दी गई थी। तब राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे। जवाहरलाल नेहरू के बाद की कांग्रेस संस्कृति किसी विद्वान के प्रादुर्भाव को बर्दाश्त नहीं करती है। राव का विद्वान व्यक्तित्व ही उनकी मार्ग का रोड़ा बना। 21 मई जिस दिन राजीव गांधी की हत्या हुई, उस दिन नरसिंह राव नागपुर में ही थे। तब उस दिन दोपहर को करीब घंटे भर मेरी उनसे बातचीत हुई थी। बता दूं कि बातचीत के दौरान उन्होंने राजीव गांधी की जिन शब्दों में आलोचना-भत्र्सना की थी, तब वह मेरे लिए अकल्पनीय था। नेहरू परिवार के लिए उनके पास सिर्फ विष भरे शब्द थे। उसी दिन संध्या को जब उनकी हत्या की खबर पहुंची और उनके दिल्ली जाने के लिए विशेष विमान की व्यवस्था की गई, तब तक 'कांग्रेस की राजनीति' एक करवट ले चुकी थी। राव प्रधानमंत्री बना दिए गए। वह कौन सी मजबूरी थी, कौन सी राजनीति थी, जिसने चुनाव में पार्टी टिकट से वंचित कर दिए गए व्यक्ति को प्रधानमंत्री बना डाला? शकील अहमद क्या इस जिज्ञासा को शांत कर पाएंगे? लिबरहान आयोग ने राव को दिन में सपने देखने वाला प्रधानमंत्री निरूपित किया है। शायद सच ही है। कांग्रेस संस्कृति नेहरू गांधी परिवार से बाहर के किसी नेता को स्वप्र देखने की इजाजत नहीं देती। शकील अहमद की विवशता मैं समझ सकता हूं। सन 2007 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव अभियान के दौरान बाबरी मस्जिद विध्वंस पर कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी ने कहा था कि 'अगर उस समय नेहरू-गांधी परिवार का कोई व्यक्ति प्रधानमंत्री होता तब बाबरी मस्जिद नहीं गिरती।' भला इस मंतव्य से पृथक शकील अहमद या कोई और कांग्रेसी प्रवक्ता बयान देता तो कैसे? वे कांग्रेस का बचाव करें, नरसिंह राव को लेकर सफाई दें लेकिन कृपा कर सच पर पर्दा डालने की कोशिश न करें।

Saturday, November 28, 2009

कायम है महाराष्ट्र की तेजस्विता!

नहीं, कतई नहीं। इस आकलन को कि 50 वर्ष में महाराष्ट्र बुद्धिशून्य हुआ, स्वीकार नहीं किया जा सकता। हर दृष्टि, हर कोण, हर विचार और हर विश्लेषण इस आकलन को अमान्य करार देगा। फिर निखिल वागले ने ऐसा क्यों कह दिया? यह ठीक है कि शब्दों से खेलना हमारे पेशे का एक अंग है किन्तु सत्य की चक्की में तथ्य का चूर्ण तैयार करने का हक किसी को नहीं। पिछले दिनों मराठी न्यूज चैनल आईबीएन-लोकमत पर शिवसैनिकों के हमले से चर्चा में आए इस चैनल के संपादक निखिल वागले का नाम सुना था, कभी मिला नहीं था। हाल में वे नागपुर आए तो मुलाकात हुई। बताया गया था कि वागले तेज-तर्रार, ओजस्वी वक्ता-पत्रकार हैं। उन्हें सुनने का मौका मिला। अनेक सवाल मस्तिष्क में कौंध गए। कोई यह कैसे स्वीकार कर ले कि 50 वर्षों से महाराष्ट्र बुद्धिशून्य हो गया है? समाज में विचार शून्यता, संवेदनहीनता और लाचारी की स्थिति पैदा हो गई है? राज्य में कोई विचारक नहीं है? सामाजिक शौर्य खत्म हो गया है? सामाजिक, सांस्कृतिक व राजनीतिक स्तर गिरा है? उद्योग, कृषि, शिक्षा के क्षेत्र में प्रगति नहीं हुई है? समाज के हर क्षेत्र का अध:पतन हुआ है? व्यवस्था विरोधी नकारात्मक स्वर पर तालियां मिल सकती हैं। किन्तु कोई तथ्यों के बरगद पर आरी कैसे चला सकता है?
ऐसा कर निखिल वागले ने स्वयं को 'सत्यभक्षी' पत्रकारों की श्रेणी में खड़ा कर दिया है। वे यह कैसे भूल गए कि प्रतिभा पाटिल के रूप में महाराष्ट्र का कोई प्रतिनिधि देश का राष्ट्रपति बना। देश की पहली महिला राष्ट्रपति होने का गौरव प्राप्त हुआ। सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में बाबा आमटे का नाम पूरे विश्व मे श्रद्धा के साथ लिया गया। पानीवाली बाई के नाम से सुख्यात मृणाल गोरे ने सामाजिक क्रांति की अनुकरणीय मशाल जलाई थी। अन्ना हजारे व मोहन धारिया जैसे अनुकरणीय सामाजिक व्यक्तित्व अभी जीवित हैं। विज्ञान के क्षेत्र में महाराष्ट्र के ही डॉक्टर अनिल काकोडकर परमाणु ऊर्जा आयोग के अध्यक्ष बने। भारत द्वारा किए गए परमाणु परीक्षणों में इनका योगदान विशिष्ट रहा। साहित्य, कला और खेल के क्षेत्र में पु.ल. देशपांडे, लता मंगेशकर, विजय तेंदुलकर, सुरेश भट, राम शेवालकर, सुनील गावस्कर, सचिन तेंदुलकर आदि-आदि के योगदान को कैसे भुलाया जा सकता है। महाराष्ट्र ही नहीं पूरे देश के आदर्श बने ये हस्ताक्षर। महाराष्ट्र में अनुकरणीय व्यक्तित्व पर सवालिया निशान जडऩे वाले निखिल वागले यहां मात खा गए। स्व. यशवंत राव चव्हाण के कुछ सपने बिखर सकते हैं। उनका अपमान कदापि नहीं हो रहा है। स्वयं यशवंत राव ने देश के रक्षा मंत्री के रूप में 1965 में पाकिस्तान के खिलाफ भारतीय शक्ति का झंडा गाड़ा था। इसके दो-ढाई वर्ष पूर्व चीन के हाथों बुरी तरह पिटने वाला भारत तब शान से सिर उठाकर विश्व समुदाय के बीच चलने के काबिल बना था। याद दिला दूं, 1965 में जब प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री से पूछा गया था कि उनके बाद देश का प्रधानमंत्री कौन बन सकता है। तब उन्होंने जवाब दिया था कि अगर मैं तीन वर्ष तक प्रधानमंत्री बना रहा तब यशवंत राव चव्हाण प्रधानमंत्री बनेंगे और अगर एक वर्ष बाद उत्तराधिकारी का सवाल उठा तब इंदिरा गांधी। उस जवाब का निहितार्थ तब लोग समझ गए थे। लाल बहादुर शास्त्री की आकस्मिक मौत ने तब महाराष्ट्र को प्रधानमंत्री पद से वंचित कर दिया था। महाराष्ट्र का अध:पतन न कभी हुआ था, न कभी हुआ है। हर क्षेत्र में गिरावट तो वस्तुत: राष्ट्रीय चिंता का विषय है- किसी प्रदेश का नहीं।

Friday, November 27, 2009

पहले 'अच्छा शासन' तो दें !

इस विचार को कोई चुनौती नहीं कि न्यायपालिका अच्छे शासन का विकल्प नहीं है। किंतु जब हर मोर्चे पर, हर क्षेत्र में शासन विफल नजर आए, तब क्या किया जाए? वर्तमान का सच यही है कि समाज के हर कोने में शासन पिछड़ा क्या, लुप्त है। ऐसा क्यों है कि किसी को बिजली चाहिए, पानी चाहिए, कालेज में दाखिला चाहिए, गांव-मुहल्ले में सड़क चाहिए, जीवन के लिए तत्काल चिकित्सा चाहिए, नौकरी से सेवानिवृति के बाद पेंशन चाहिए, पक्षपात विहीन सरकारी नौकरी चाहिए, प्रोन्नति चाहिए, आवश्यक सुरक्षा चाहिए या फिर न्याय संगत आरक्षण आदि चाहिए, तो लोगों को न्यायपालिका के दरवाजे पर दस्तक देनी पड़ती है? लोगों की ऐसी मजबूरी का कारण निश्चय ही शासन की हर मोर्चे पर विफलता है। और तो और अनेक ऐसे मौके आए हैं जब कुछ राज्यों में कानून-व्यवस्था के धराशायी हो जाने पर उन्हें चेतावनी देने पर न्यायपालिका मजबूर हुई है। शासन में उच्च स्तर पर व्याप्त भ्रष्टाचार पर क्रोधित न्यायपालिका की चेतावनियां अब बड़ी खबर नहीं बनतीं। क्योंकि यह तो रोजमर्रा की बातें होकर रह गई हैं। केंद्रीय कानून मंत्री एम. वीरप्पा मोईली का आकलन इस बिंदु पर निश्चय ही गलत है। हो सकता है गुरुवार को संसद में उन्होंने मात्र अपने किताबी ज्ञान को दर्शाया हो। या फिर अति उत्साह में लोकतंत्र की मूल अवधारणा को दोहरा दिया हो। हमारे देश में इस रोग का निदान नहीं है। सिद्धान्त से इतर व्यावहारिकता को हम भूल जाते हैं। मोईली न्यायाधीशों की जवाबदेही सुनिश्चत करने के लिए संसद में न्यायाधीश मानदंड एवं जवाबदेही विधेयक पेश करने का वादा करते हुए एक छात्र की तरह लोकतंत्र के तीनों स्तंभों विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका के स्वतंत्र व सुचारू रूप से कार्य करने की जरूरत को दोहरा गए। यह भी दोहरा दिया कि ये तीनों जनता के प्रति जवाबदेह हैं। कोई भी सर्वोच्च नहीं है। चूंकि इस 'मोईली-दर्शन' में नया कुछ नहीं, इस पर बहस बेमानी होगी। हां, उनकी इस बात पर कि स्वतंत्र न्यायपालिका का यह मतलब नहीं है कि उसकी कोई जवाबदेही नहीं है, व्यापक बहस होनी चाहिए। लोकतंत्र की सेहत के हित में होगा यह। अच्छे शासन के विकल्प के रूप में न्यायपालिका को स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए। यह ठीक है। लेकिन जब 'अच्छा शासन' नदारद हो तब जनता क्या करे? विशेषकर जब विधायिका भी जनता व समाज की जरूरतों की पूर्ति पर लाचार नजर आए तब क्या न्यायपालिका एकमात्र विकल्प के रूप में खड़ी नजर नहीं आएगी? मोईली के उत्साह पर मैं पानी डालना नहीं चाहूंगा। बल्कि मैं तो चाहूंगा कि अगर उनमें सामथ्र्य है, इच्छाशक्ति है तब वे अपनी सरकार को मजबूर करें कि वह जनता को 'अच्छा शासन' उपलब्ध कराए। फिर स्वत: ऐसे किसी 'ज्ञान' को दोहराने की, वह भी संसद में, जरूरत नहीं पड़ेगी।

'काला दिवस' पर 'काला अध्याय'!

''26 नवंबर 2008 को मुंबई के ताज होटल और अन्य स्थानों पर पाकिस्तानी आतंकियों के खूनी हमलों के दौरान प्रदेश के गृहमंत्री आर.आर. पाटील घर में दुबके बैठे थे'' यह सनसनीखेज खुलासा कोई और नहीं महाराष्ट्र प्रदेश के उप मुख्यमंत्री छगन भुजबल ने किया है। उस हमले के दौरान राज्य सरकार के अधिकारियों की लापरवाही की अनेक बातें सामने आ चुकी हैं। राष्ट्रीय सुरक्षा गार्ड के तत्कालीन डायरेक्टर जनरल जे.के. दत्त की उस टिप्पणी को भी कि ''मुंबई पुलिस निक्कमी है'' अब बल मिल गया है। मुंबई के तत्कालीन पुलिस आयुक्त हसन गफूर भी सार्वजनिक रूप से वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों पर लापरवाही का आरोप लगा चुके हैं। हमले के दौरान शहीद वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों की पत्नियां भी खुलकर राज्य सरकार पर हमला बोल रही हैं। क्या कहेंगे इसे? राज्य सरकार की मंशा कुछ और रही होगी किंतु अनजाने में ही सही उसने 26 नवंबर को 'काला दिवस' घोषित कर अपने लिए कुछ प्रायश्चित कर लिया है। निश्चय ही वह दिन कालिख से पुता एक काला दिवस था। मुंबई की आभा पर, महाराष्ट्र की छवि पर राजनेताओं और अधिकारियों ने कालिख पोत दी थी। यही नहीं, आज छगन भुजबल ने इस 'काला दिवस' में एक काला अध्याय भी जोड़ दिया। आज शहीदों को हम श्रद्धांजलि तो दे रहे हैं किंतु न खत्म होने वाली एक टीस के साथ। विश्व प्रसिद्ध स्काटलैंड यार्ड पुलिस के समकक्ष मानी जाने वाली मुंबई पुलिस के माथे पर कलंक के ऐसे टीके के लिए जिम्मेदार कौन है? वर्तमान पुलिस आयुक्त डी. शिवानंदन भी स्वीकार कर रहे हैं कि तब पुलिस से गलतियां हुईं थीं। क्या ये स्वीकारोक्तियां हमले में हुए शहीदों को वापस ला सकती हैं? छगन भुजबल के खुलासे को हलके से न लिया जाए। उनके आरोप में सिर्फ राजनीति नहीं हो सकती। भुजबल भी उसी राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के सदस्य हैं , जिसके आर.आर. पाटील। वैसे आरोप है कि गृह मंत्रालय पर नजर रखने वाले भुजबल ने जान-बूझकर पाटील को निशाने पर लिया है। अगर यह सच है तब भुजबल मुंबई पर आतंकी हमले जैसी घटना के राजनीतिकरण के दोषी हैं। और अगर, उनका आरोप सही है तब पाटील को अपने पद पर बने रहने का कोई हक नहीं है। पिछले वर्ष हमले के बाद तत्कालीन मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख और गृहमंत्री आर.आर. पाटील से इस्तीफे ले लिए गए थे। हटा दिया गया था उन्हें। देशमुख ने हाल में एक बयान में बिल्कुल सही कहा था कि ऐसी घटनाओं के लिए जिम्मेदारियां नौकरशाहों पर भी निश्चित की जानी चाहिए। मोर्चों पर लडऩे स्वयं राजनेता नहीं जाते हैं, फिर ऐसी घटनाओं के लिए राजनेता जिम्मेदार क्यों बनते हैं? देशमुख के तर्क में कुछ दम तो है किंतु अंतिम आदेश के लिए जिम्मेदार राजनेता जिम्मेदारी से कैसे बच सकते हैं? उनकी नैतिक जिम्मेदारी भी होती है। भुजबल का ताजा आरोप पिछले वर्ष हमले के दौरान सरकार के निक्कमेपन का ज्वलंत उदाहरण है। तब पाटील को बिल्कुल सही हटाया गया था, लेकिन नए मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण अपने मंत्रिमंडल के गठन के समय एक चूक कर गए। आर. आर. पाटील को पुन: गृह मंत्रालय उन्होंने कैसे सौंप दिया? क्या तब की स्थितियों से चव्हाण संतुष्ट थे? कम से कम भुजबल के खुलासे के बाद तो उन्हें अपने फैसले पर पुनर्विचार करना ही होगा। आंतरिक दलगत कलह को कोई विदेशी आतंकी हमले की आंच से न सेकें।

Thursday, November 26, 2009

'काला दिवस' पर 'काला अध्याय'!

''26 नवंबर 2008 को मुंबई के ताज होटल और अन्य स्थानों पर पाकिस्तानी आतंकियों के खूनी हमलों के दौरान प्रदेश के गृहमंत्री आर.आर. पाटील घर में दुबके बैठे थे'' यह सनसनीखेज खुलासा कोई और नहीं महाराष्ट्र प्रदेश के उप मुख्यमंत्री छगन भुजबल ने किया है। उस हमले के दौरान राज्य सरकार के अधिकारियों की लापरवाही की अनेक बातें सामने आ चुकी हैं। राष्ट्रीय सुरक्षा गार्ड के तत्कालीन डायरेक्टर जनरल जे.के. दत्त की उस टिप्पणी को भी कि ''मुंबई पुलिस निक्कमी है'' अब बल मिल गया है। मुंबई के तत्कालीन पुलिस आयुक्त हसन गफूर भी सार्वजनिक रूप से वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों पर लापरवाही का आरोप लगा चुके हैं। हमले के दौरान शहीद वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों की पत्नियां भी खुलकर राज्य सरकार पर हमला बोल रही हैं। क्या कहेंगे इसे? राज्य सरकार की मंशा कुछ और रही होगी किंतु अनजाने में ही सही उसने 26 नवंबर को 'काला दिवस' घोषित कर अपने लिए कुछ प्रायश्चित कर लिया है। निश्चय ही वह दिन कालिख से पुता एक काला दिवस था। मुंबई की आभा पर, महाराष्ट्र की छवि पर राजनेताओं और अधिकारियों ने कालिख पोत दी थी। यही नहीं, आज छगन भुजबल ने इस 'काला दिवस' में एक काला अध्याय भी जोड़ दिया। आज शहीदों को हम श्रद्धांजलि तो दे रहे हैं किंतु न खत्म होने वाली एक टीस के साथ। विश्व प्रसिद्ध स्काटलैंड यार्ड पुलिस के समकक्ष मानी जाने वाली मुंबई पुलिस के माथे पर कलंक के ऐसे टीके के लिए जिम्मेदार कौन है? वर्तमान पुलिस आयुक्त डी. शिवानंदन भी स्वीकार कर रहे हैं कि तब पुलिस से गलतियां हुईं थीं। क्या ये स्वीकारोक्तियां हमले में हुए शहीदों को वापस ला सकती हैं? छगन भुजबल के खुलासे को हलके से न लिया जाए। उनके आरोप में सिर्फ राजनीति नहीं हो सकती। भुजबल भी उसी राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के सदस्य हैं , जिसके आर.आर. पाटील। वैसे आरोप है कि गृह मंत्रालय पर नजर रखने वाले भुजबल ने जान-बूझकर पाटील को निशाने पर लिया है। अगर यह सच है तब भुजबल मुंबई पर आतंकी हमले जैसी घटना के राजनीतिकरण के दोषी हैं। और अगर, उनका आरोप सही है तब पाटील को अपने पद पर बने रहने का कोई हक नहीं है। पिछले वर्ष हमले के बाद तत्कालीन मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख और गृहमंत्री आर.आर. पाटील से इस्तीफे ले लिए गए थे। हटा दिया गया था उन्हें। देशमुख ने हाल में एक बयान में बिल्कुल सही कहा था कि ऐसी घटनाओं के लिए जिम्मेदारियां नौकरशाहों पर भी निश्चित की जानी चाहिए। मोर्चों पर लडऩे स्वयं राजनेता नहीं जाते हैं, फिर ऐसी घटनाओं के लिए राजनेता जिम्मेदार क्यों बनते हैं? देशमुख के तर्क में कुछ दम तो है किंतु अंतिम आदेश के लिए जिम्मेदार राजनेता जिम्मेदारी से कैसे बच सकते हैं? उनकी नैतिक जिम्मेदारी भी होती है। भुजबल का ताजा आरोप पिछले वर्ष हमले के दौरान सरकार के निक्कमेपन का ज्वलंत उदाहरण है। तब पाटील को बिल्कुल सही हटाया गया था, लेकिन नए मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण अपने मंत्रिमंडल के गठन के समय एक चूक कर गए। आर. आर. पाटील को पुन: गृह मंत्रालय उन्होंने कैसे सौंप दिया? क्या तब की स्थितियों से चव्हाण संतुष्ट थे? कम से कम भुजबल के खुलासे के बाद तो उन्हें अपने फैसले पर पुनर्विचार करना ही होगा। आंतरिक दलगत कलह को कोई विदेशी आतंकी हमले की आंच से न सेकें।

Wednesday, November 25, 2009

झूठ के बीज से सच का पौधा!

यह तो अब साबित हो ही गया कि लिबरहान आयोग की गोपनीय रिपोर्ट लीक हुई थी। संसद में पेश रिपोर्ट और अंग्रेजी दैनिक इंडियन एक्सप्रेस में पहले छपी रिपोर्ट में कोई फर्क नहीं है। अब चिंतन-मनन का विषय बनता जा रहा है शीर्ष स्तर पर मौजूद झूठ। क्योंकि यह प्रमाणित हो गया कि जस्टिस मनमोहन सिंह लिबरहान या केंद्रीय गृह मंत्री पी. चिदंबरम दोनों में से कोई एक झूठा है। इस तथ्य के सामने आने से पूरा देश परेशान है। अगर देश का गृहमंत्री या सर्वोच्च न्यायालय का एक न्यायाधीश झूठ बोलने का अपराधी पाया जाता है तब देशवासियों का सिर शर्म से झुक ही जाएगा। अब सवाल यह कि ऐसी शंका के बीच कोई आयोग की रिपोर्ट और सरकार की कार्रवाई रिपोर्ट पर विश्वास कैसे करे? जस्टिस लिबरहान और पी. चिदंबरम की नैतिकता सवालिया निशानों के घेरे में है। जब तक दोनों में से किसी एक की पहचान नहीं हो जाती, दोनों संदिग्ध बने रहेंगे। अगर इनमें नैतिक बल होता तो इंकार की जगह अपराध को स्वीकार कर लेते। खैर, इनसे ऐसी आशा तो की ही नहीं जा सकती। फिर आयोग के नतीजे और सिफारिशों को कोई गंभीरता से ले तो कैसे? जस्टिस लिबरहान ने अच्छे-अच्छे शब्दों का चयन कर एक दार्शनिक की भांति उपदेश व सुझाव भी दे डाले हैं। उन पर सरकार की ओर से कार्रवाई रिपोर्ट तो जारी की गई किन्तु मूल प्रश्न का जवाब नदारद है। सरकार यह बताने से कतरा गई कि आयोग ने बावरी मस्जिद विध्वंस के लिए जिन लोगों को दोषी पाया है, उनके खिलाफ कौन सी कार्रवाई हुई या कार्रवाई करने जा रही है। किसी जांच आयोग की रिपोर्ट पर 'एक्शन टेकेन रिपोर्टÓ अर्थात की गई कार्रवाई की रिपोर्ट का अर्थ क्या होता है? इस बिंदु पर सरकार के मौन में कोई गूढ़ार्थ नहीं। वस्तुत: वह भयभीत है कि अगर तत्काल अटलबिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, गिरिराज किशोर व अशोक सिंघल आदि के विरुद्ध कार्रवाई की जाती है, तब उनका पासा ही उलटा पड़ जाएगा। अस्त-व्यस्त बिखरा भाजपा का कुनबा एकजुट होकर ताल ठोंकने लगेगा। सच तो यह है कि लिबरहान आयोग की रिपोर्ट ने भाजपा के लिए 'संजीवनीÓ का काम किया है। अब चाहे आयोग जितना भी कह ले कि धर्म को राजनीति से अलग करने की संवैधानिक अवधारणा का उद्देश्य शासन और धर्म को अलग करना है, किसी के गले उतरने वाला नहीं है। यह ठीक है कि राजनीति में नैतिकता और सदाचार के कुछ पहलुओं को समाहित करना उपयोगी और अपेक्षित है किन्तु, धर्म, जाति या क्षेत्रीयता का इस्तेमाल एक ऐसा प्रतिगामी और खतरनाक रूझान है जो जनता व समाज को बंट देता है। जातीयता और क्षेत्रीयता नि:संदेह एक अत्यंत ही खतरनाक विभाजक शक्ति है। किन्तु कड़वा ही सही यह सच बार-बार प्रमाणित हुआ है कि धर्म को राजनीति से अलग नहीं किया जा सकता। विश्व इतिहास प्रमाण है कि हर काल में धर्म ने राजनीति को प्रभावित किया है। इसीलिए मनीषियों ने सर्वधर्म समभाव की अवधारणा को स्वीकर किए जाने की वकालत की है ताकि समाज किसी धर्म के नाम पर विभाजित न हो पाए। लेकिन यह तभी संभव है जब सभी धर्म के मुखिया परस्पर सद्भावयुक्त आचरण करें। उस राजनीति और राजनीतिकों को क्या कहेंगे जो सत्ता की राजनीति के पक्ष में धर्म के इस्तेमाल के लिए तत्पर हैं? सिर्फ अपना उल्लू सीधा करने के लिए किसी को सांप्रदायिक और किसी को धर्मनिरपेक्ष निरूपित करना राजनीति का ही एक अंग है। लिबरहान आयोग की रिपोर्ट के बाद दुखद रूप से एक बार फिर पूरा समाज धार्मिक उन्माद से रूबरू होगा। राजनीतिक लाभ लिए जाएंगे सामाजिक एकता की कीमत पर।

Tuesday, November 24, 2009

दुष्चरित्र राजनीति का तांडव!

क्यों और कैसे आज की राजनीति इतनी दुष्चरित्र हो गई है? संसद के अंदर सच-झूठ पर अंतहीन चिल्लपों! फिर भी परिणाम शून्य। झूठ, फरेब, चालबाजी के बीच संसद में सच के साथ बलात्कार! यह कैसे संभव हो रहा है? क्या सिर्फ सुविधा की राजनीति के लिए लोकतंत्र, संसद और संविधान की मर्यादा, पवित्रता होम कर दी जाए? कोई भी विवेकशील इसके पक्ष में हाथ नहीं उठाएगा। इस निर्विवाद परिणाम की मौजूदगी के बावजूद हमारे चुने हुए जनप्रतिनिधि ऐसे अनाचार के भागीदार क्यों बन रहे हैं? विगत कल सोमवार की सुबह अंग्रेजी दैनिक इंडियन एक्सप्रेस ने बाबरी विध्वंस की जांच के लिए गठित एक सदस्यीय जस्टिस मनमोहन सिंह लिबरहान आयोग की अब तक गोपनीय रिपोर्ट के कथित अंश प्रकाशित कर डाले। अखबार के अनुसार छद्म उदारवादी पूर्व प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी, संसद में विपक्ष के नेता लालकृष्ण आडवाणी, भाजपा के पूर्व अध्यक्ष मुरली मनोहर जोशी आदि भी बाबरी मस्जिद विध्वंस के जिम्मेदार हैं। रिपोर्ट के 'लीक' होने और उसमें कथित रूप से उल्लेखित आरोपियों के नाम पर संसद के अंदर हंगामा हुआ। यह स्वाभाविक था। सवाल उठे कि रिपोर्ट लीक कैसे हुई? रिपोर्ट के लीक होने के 'समय' पर भी संदेह प्रकट किए गए। केन्द्रीय गृहमंत्री पी. चिदंबरम की मानें तो रिपोर्ट की सिर्फ एक प्रति है और वह गृह मंत्रालय में सुरक्षित रखी हुई है।
तब फिर इंडियन एक्सप्रेस और टीवी चैनल एनडीटीवी के पास रिपोर्ट कैसे पहुंच गई? गृहमंत्री के बाद स्वयं न्यायमूर्ति लिबरहान ने भी रिपोर्ट के लीक किए जाने से इंकार कर दिया है। अगर इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित रिपोर्ट और एनडीटीवी के दावे को सच माना जाए, तब यह तो तय है कि दोनों में से एक झूठ बोल रहे हैं। सरकार, संसद और न्यायपालिका के लिए यह एक अत्यंत शर्मनाक घटना विकासक्रम है। विपक्ष का संदेह और आक्रोश गलत नहीं। अगर उनके आरोपों को मानें तब सरकार ने जानबूझकर ऐसे समय पर रिपोर्ट को लीक किया जब गन्ना मूल्य के मुद्दे पर केंद्र सरकार कटघरे में है। कांग्रेस समर्थित झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोड़ा के कथित खरबों रुपयों के भ्रष्टाचार के मामले से पूरा देश स्तब्ध है और झारखंड विधानसभा चुनाव के लिए आगामी कल बुधवार को पहले चरण का मतदान हो रहा है। अगर यह आरोप सच है तब मनमोहन सिंह सरकार को सत्ता में बने रहने का कोई हक नहीं है। यह तो छल और फरेब की राजनीति है। इसे सिंचित नहीं किया जा सकता। अखबार में प्रकाशित रिपोर्ट की भाषा साफ-साफ यह सिद्ध करती है कि रिपोर्ट पूर्वाग्रह से ग्रसित है। न्यायमूर्ति लिबरहान जांच परिधि की सीमा से बाहर चले गए हैं। उनकी यह टिप्पणी कि वाजपेयी, आडवाणी और जोशी में इतनी हिम्मत नहीं थी कि वे अपने राजनीतिक भविष्य को अंधकारमय बनाते हुए राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के आदेशों को मानने से इंकार कर देते, उनकी पूर्वाग्रही सोच को ही चिह्नित करता है। क्या यह मुद्दा लिबरहान आयोग की जांच का विषय था? यह आश्चर्यजनक है कि न्यायमूर्ति लिबरहान ने नाजी सैनिकों पर चले मुकदमे की सुनवाई को उद्धृत करते हुए वाजपेयी, आडवाणी और जोशी को संदेह का लाभ देने से भी इंकार कर दिया है। नाजी सैनिकों पर मुकदमे के दौरान यह दलील दी गई थी कि उन्होंने तो सिर्फ अपने वरिष्ठ अधिकारियों के आदेशों का पालन किया था। निश्चय ही नाजी सैनिकों के साथ वाजपेयी, आडवाणी और जोशी की तुलना कर न्यायमूर्ति लिबरहान भारतीय लोकतंत्र के अपराधी बन गए हैं। बाबरी मस्जिद विध्वंस के कारणों की जांच कर रहे न्यायाधीश लिबरहान को यह अधिकार किसने दिया कि वे अटल बिहारी वाजपेयी, आडवाणी, जोशी के विरुद्ध मतदाता के विश्वासहनन संबंधी टिप्पणी करें? क्या यह पूर्वाग्रही सोच नहीं? संदेह तो तब और भी गहरा गया जब स्वयं लिबरहान आयोग के पूर्व वकील अनुपम गुप्ता ने रिपोर्ट पर संदेह व्यक्त कर डाला। गुप्ता ने सवाल किया है कि जब अटल बिहारी वाजपेयी को आयोग ने सम्मन ही नहीं किया तो उनको आयोग दोषी कैसे करार दे सकता है? वर्षों तक आयोग के साथ काम कर चुके गुप्ता का सवाल निर्मूल नहीं है। तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंह राव को क्लीन चिट दिया जाना भी संदेहास्पद है। पूरा देश जानता है कि उस दिन राव प्रधानमंत्री निवास में टीवी के सामने बैठकर बाबरी विध्वंस को देख रहे थे। आश्चर्यजनक रूप से केंद्र सरकार की सफाई भी न्यायमूर्ति लिबरहान ही देते हैं। उनका कहना है कि जब तक राज्यपाल अनुशंसा न करें, केंद्र सरकार कुछ नहीं कर सकती। संदर्भ ग्रंथ व संचिकाएं खंगाल ली जाएं, अनेक ऐसे उदाहरण मिल जाएंगे जब बगैर राज्यपाल की अनुशंसा और उन्हें विश्वास में न लेते हुए केंद्र सरकार ने निर्णय लिए। राजीव गांधी की हत्या के बाद बगैर राज्यपाल की अनुशंसा के क्या केंद्र सरकार ने तमिलनाडु की सरकार को बर्खास्त नहीं कर दिया था? बहस का यह मुद्दा नहीं है। यह तो एक और प्रमाण है न्यायमूर्ति लिबरहान की पूर्वाग्रही सोच का। तत्कालीन प्रधानमंत्री राव इतने बड़े 'विध्वंस' को देख कर भी निष्क्रिय बने रहने के अपराधी थे। विध्वंस के लिए उनकी केंद्र सरकार भी उतनी ही जिम्मेदार थी जितनी उत्तर प्रदेश की तत्कालीन कल्याण सिंह सरकार। कल्याण सिंह को तो फिर भी सुप्रीम कोर्ट ने एक दिन के लिए तिहाड़ जेल भेज दिया था। लेकिन नरसिंह राव तब भी बेदाग रहे और आज भी मरणोपरांत क्लीन चिट पा गए। संसद में सरकार की ओर से इस मुद्दे पर खामोशी दुखदायी है। रिपोर्ट के लीक होने पर और कथित रूप से उल्लेखित अनुशंसाओं, टिप्पणियों पर शंका समाधान तुरंत किया जाना चाहिए था। रिपोर्ट को सदन पटल पर रखकर सरकार स्थिति को साफ कर सकती थी। इसी सत्र में रिपोर्ट को सदन में रखने का वचन देनेवाली सरकार पर लगाए गए आरोप तो कायम रह ही गए।

Monday, November 23, 2009

राजनीति चमकाने की ऐसी होड़!

राजनीति को अनिश्चितताओं का एक गंदा खेल यूं ही नहीं कहा जाता है। अब देखिए! बाल ठाकरे, राज ठाकरे और संजय राउत के खिलाफ कड़ी से कड़ी कार्रवाई का आश्वासन देने वाले कम से कम एक मुद्दे पर ठाकरे एंड कंपनी के साथ खड़े दिखने लगे हैं। जी हां, संकीर्ण क्षेत्रीयता के नाम पर राजनीति चमकाने को उद्दत इन घोर अतिवादियों के साथ महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण, उपमुख्यमंत्री छगन भुजबल भी दौड़ में शामिल हो गए हैं। राजनीति के विद्रुप चेहरे के कारण ही लोगबाग इस 'पेशे' से घृणा करने लगे हैं। अच्छे लोग राजनीति में आने से कतराते हैं। इस वर्ग से जो आ गए हैं, निश्चय मानिये किसी न किसी मजबूरी के कारण। दिल से नहीं आते अच्छे लोग आज की राजनीति में। क्षेत्रीयता और भाषा को मुद्दा बनाकर लोगों को बरगलाने वाले ठाकरे बंधु राजनीतिक लाभ के लिए हिंसा का सहारा लेने से परहेज नहीं करते। अशिक्षा और बेरोजगारी का लाभ उठाकर ये लोग वोट बटोरने में माहिर होते हैं। मूल्य आधारित राजनीति को बला-ए-ताक रख लोकतंत्र को भीड़तंत्र में बदल ये जब चाहें डंडों का इस्तेमाल करने से नहीं चूकते। भय और दहशत भी इनके हथियार हैं। इनके कुकृत्य की आलोचना कर देख लें, सिर फोड़ दिया जाएगा, हाथ-पैर तोड़ दिए जाएंगे। मीडिया के साथ-साथ सत्ताधारी भी इन्हें 'गुंडा' निरूपित कर रहे हैं। फिर कांग्रेस के मुख्यमंत्री और राष्ट्रवादी कांग्रेस के उपमुख्यमंत्री इनके 'फार्मूले' को क्यों अपना रहे हैं? राज ठाकरे ने बाम्बे स्टाक एक्सचेंज को धमकी दी कि वे अपने वेबसाइट मराठी में भी तैयार करें। एक्सचेंज के पदाधिकारी तुरंत तैयार भी हो गए। अब मीडिया में चाहे जितनी बहस हो जाए कि आखिर राज ठाकरे आदेश देने वाले कौन होते हैं, मराठी अस्मिता की रक्षा का श्रेय वे ले उड़े। यह देख ताबड़तोब मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण ने मांग कर डाली कि रेलवे भर्ती परीक्षाएं मराठी में भी हों। रेल मंत्री ममता बनर्जी ने हरी झंडी दिखा दी। श्रेय कांग्रेस की झोली में। भला राष्ट्रवादी कांगे्रस क्यों पीछे रहे? उपमुख्यमंत्री छगन भुजबल ने मांग कर दी कि मुंबई-नागपुर दुरंतो ट्रेन का नामकरण क्रिकेट खिलाड़ी सचिन तेंदुलकर के नाम पर किया जाए। खूब प्रचार मिला इन्हें। प्रचार की वही भूक जिसकी खातिर ठाकरे एंड कंपनी सड़क से लेकर विधान भवन के अंदर तक गुंडागर्दी पर उतर आई है। इन सभी की जड़ में प्रचार की भूख है। वही प्रचार जिसका तमगा लगा आज के राजनीतिक और राजदल सियासत का गंदा खेल खेल रहे हैं। पहले इस पर अंकुश लगे। पहल राजनेता तो करें ही, मीडिया भी आत्मचिंतन करे। राजनीति चमकाने की ऐसी होड़ से नुकसान राज्य का होता है, देश का होता है और लोकतंत्र का होता है।

Sunday, November 22, 2009

मीडिया भगवान तो नहीं किन्तु . . . !

लगता है, बाल ठाकरे ने कसम खा ली है कि वे सुधरेंगे नहीं। हिंसा, घृणा व द्वेष की नींव पर खड़ी शिवसेना के प्रमुख अगर मानसिक संतुलन खो चुके हैं तो इसकी विधिवत घोषणा कर दी जाए। ठाकरे से फिर कोई श्लील आचरण की अपेक्षा नहीं करेगा। लेकिन सच्चाई कुछ और है। एक सोची-समझी रणनीति के तहत बाल ठाकरे राज्य में दहशत का माहौल पैदा कर रहे हैं। वे चाहते हैं कि उनके जीते जी खुद उद्धव ठाकरे भतीजे राज ठाकरे के मुकाबले कहीं अधिक आक्रामक नेता के रूप में शिवसेना की विरासत संभाल लें। हाल में संपन्न महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में मुंबई और आसपास के क्षेत्रों में राज ठाकरे को मिली सफलता से बाल ठाकरे परेशान हो उठे। वे समझ गए कि अगर उनके जीवनकाल में ही राज ठाकरे ऐसी सफलता हासिल कर सकते हैं, तब उनकी अनुपस्थिति में पुत्र उद्धव ठाकरे का संभवत: कोई नाम लेने वाला भी न रह जाए। सो वे असली शिवसेना संस्कृति की राह पर चल पड़े। लेकिन ठाकरे यहां पर गलत हैं। भविष्य में भी गलत साबित होंगे। कभी डाक्टर राममनोहर लोहिया ने कहा था, 'जिन गलतियों पर हम शर्मसार नहीं होते, वही आगे चलकर अपराध बन जाती है।' ठाकरे कभी लोहिया के शब्दों पर गौर करेंगे, उसकी आशा तो मैं नहीं करता किन्तु पूरे सम्मान के साथ बुजुर्ग बाल ठाकरे को सावधान कर देना चाहूंगा कि पुत्र उद्धव ठाकरे के लिए ऐसी जमीन तैयार न करें कि वह भविष्य में अपराध और अपराधी के भंवर में गोते लगाता रहे। महाराष्ट्र विशेषकर मुंबई के परिवक्व नागरिक ङ्क्षहसा, घृणा व द्वेष की राजनीति कतई पसंद नहीं करेंगे। राज ठाकरे की सफलता को आदर्श मानने की भूल कोई न करे। एक भावावेश की अस्थाई परिणति है राज ठाकरे की विधानसभा चुनाव की सफलता। जिन 13 सीटों को राज ठाकरे के उम्मीदवार जीते हैं, वहां पुनर्मतदान करा लें। एक-दो सीट छोड़कर दोबारा किसी सीट पर उनकी जीत नहीं होगी। बाल ठाकरे इस सत्य को पहचानें। मीडिया समाज का आईना है। भले को भला, बुरे को बुरा कहना उसका कर्तव्य है। झूठ-सच, पाप-पुण्य के बीच के फर्क का विश्लेषण कर वह समाज और देश का मार्गदर्शन करता है। ऐसे में टीवी चैनल समूह आईबीएन 18 के दफ्तरों पर शिवसैनिकों के हमले को जायज ठहराकर बाल ठाकरे ने एक बड़ी भूल की है। मीडिया के कर्तव्य निर्वहन को चुनौती देकर बाल ठाकरे समाज-देश की नजरों में गिर गए हैं। पिछले पांच दशक से अग्रिपथ पर चलते हुए अर्जित आदर-सम्मान को क्षण भर में धूल-धूसरित कर दिया। मानसिक रूप से असंतुलित व्यक्ति ही ऐसा कर सकता है। यह ठीक है कि मीडिया कोई भगवान नहीं किन्तु वह न तो मवाली है, न तो टपोरी। वह लोकतंत्र का एक सजग पहरूआ है। आलोच्य मामले में उनका यह आरोप कि मीडिया राम शास्त्री नहीं दाम शास्त्री है, सरासर गलत है। टीवी चैनल ने सुपारी लेकर उन्हें टार्गेट कतई नहीं किया है। वह तो महाराष्ट्र व राष्ट्र गौरव सचिन तेंदुलकर पर चलाए गए ठाकरे के शब्दबाण से आहत था। ठाकरे की गलतियों को चिह्नित कर चैनल ने उन्हें सावधान कर दायित्व निभाया था। अगर ठाकरे को चैनल की भाषा आपत्तिजनक लगी थी तो प्रतिरोध के अन्य मार्ग थे। अगर इस आधार पर गुंडागर्दी व हिंसा को ठाकरे उचित मानते हैं तब तो उनके संपादन में निकलने वाले सामना की घोर आपत्तिजनक भाषा पर प्रतिदिन उसके दफ्तर में तोड़-फोड़ होनी चाहिए। गलत गलत ही रहेगा ठाकरे साहब! इसका समर्थन न करें अपने लिए, अपने पुत्र के लिए और अपनी शिवसेना के लिए।

Saturday, November 21, 2009

शिवसेना-मनसे पर तुरंत प्रतिबंध लगाएं!

गुंडा किसे कहते हैं? जिसने लोक-लाज का त्याग कर दिया, गुंडा बन गया! अर्थात, जो बेशर्म हो गया, वही गुंडा है। फिर राज्यसभा सदस्य व सामना के कार्यकारी संपादक संजय राउत ने यह कैसे कह दिया कि 'आई. बी. एन.-लोकमत टी.वी. चैनल के कार्यालय पर हमला, मीडिया पर हमला नहीं है बल्कि इस बात का ऐलान है कि बाल ठाकरे का अपमान बर्दाश्त नहीं किया जाएगा।' निश्चय ही यह बेशर्मी की इंतिहा है। लोग 'शिवसेना-संस्कृति' की बातें करते हैं। राज ठाकरे भी इसी संस्कृति की एक पौध हैं। इनकी हरकतों को ऐलानिया गुंडागर्दी निरूपित किया जाता रहा है। इस कथित संस्कृति को गुंडागर्दी का पर्याय मानते हैं लोग। ऐसे में संजय राउत को किस श्रेणी में रखा जाए? अभी दो दिन पूर्व ही मैंने लिखा था कि मीडिया में राज ठाकरे को पीछे छोड़ आगे जगह पाने के लिए शिवसेना के प्रमुख बाल ठाकरे ने सचिन तेंदुलकर को छेड़ा था। अपेक्षानुरूप राष्ट्रव्यापी आलोचना हुई। मीडिया में तेंदुलकर के साथ-साथ शिवसेना और बाल ठाकरे भी छाये रहे। शिवसैनिक प्रसन्न थे कि मीडिया ने उनका संज्ञान किया। फिर भला इसे सफलता मानने वाले शिवसैनिक आगे क्यों नहीं बढ़ते? धावा बोल दिया आई.बी.एन. 18 और गु्रप के मराठी चैनल आई.बी.एन.-लोकमत के दफ्तर पर। तोडफ़ोड़ की। मारपीट की। कानून-व्यवस्था को चुनौती देते हुए दिनदहाड़े सरासर गुंडागर्दी पर उतर आये शिवसैनिकों को अपनी इस बेशर्मी पर कोई अफसोस नहीं। संजय राउत ने हमलों की जिम्मेदारी लेते हुए फिर चुनौती दे डाली कि वे कभी बाल ठाकरे का अपमान बर्दाश्त नहीं करेंगे। क्या सच दिखाने और सच लिखने से किसी का अपमान होता है? 'शिवसेना-संस्कृति' वाले पत्रकार संजय राउत इस बात को नहीं समझ सकते। मुझे चिंता राउत की नहीं, चिंता इस बात की है कि आखिर मुंबई पर शासन किसका चल रहा है? कानून का शासन वहां लागू क्यों नहीं हो पाता? ताजा हमले के बाद मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण ने दोषियों के विरुद्ध कड़ी कार्रवाई की घोषणा करते हुए कहा कि हमला महाराष्ट्र की संस्कृति के खिलाफ है। अगर, मुख्यमंत्री ऐसा मानते हैं तो क्या वे अब बताएंगे कि महाराष्ट्र की संस्कृति को रौंदने वाली शिवसेना-संस्कृति को बर्दाश्त क्यों किया जाता रहा है? चाहे बाल ठाकरे के गुंडे हों या राज ठाकरे के, ये जब चाहते हैं उपहास उड़ाते हुए कानून-व्यवस्था के साथ बलात्कार कर जाते हैं। आज तक इनके खिलाफ कौन सी कड़ी कार्रवाई हुई है? हो-हल्ला होने पर कुछ थानों में इनके खिलाफ मामला दर्ज कर खानापूर्ति भर ही तो होता आया है आज तक। पिछले वर्ष मुंबई के तत्कालीन संयुक्त आयुक्त के.एल. प्रसाद ने जब राज ठाकरे के खिलाफ कार्रवाई की बात की थी तब उनके साथ क्या हुआ? राज ठाकरे ने सार्वजनिक रूप से उन्हें चुनौती दे डाली थी कि वे वर्दी उतार सड़क पर निकलें, उन्हें उनकी औकात बता दी जायगी। पुलिस प्रशासन को खुलेआम चुनौती देने वाले राज ठाकरे के खिलाफ कार्रवाई करने की जगह सत्ता की ओर से प्रसाद की ही खिंचाई की गई थी। फिर ठाकरे एवं कंपनी की हिम्मत क्यों न बढ़े? शुक्रवार को टी.वी. चैनल आई.बी.एन. 18 नेटवर्क के दफ्तर पर हमले की घटना पर फिर आश्चर्य क्यों? उनके गुंडे तो आश्वस्त हैं कि अंतत: उनका कोई कुछ बिगाड़ नहीं पायेगा। अब सवाल यह कि इन गुंडों का क्या किया जाए? क्या इन्हें गुंडागर्दी की छूट दे दी जाए? अगर ऐसा होता है तब ऐलानिया यह घोषणा कर दी जाए कि मुंबई में कानून का शासन नहीं, गुंडों का शासन चलता है। वहां जंगल राज है। क्या राज्य सरकार इसे स्वीकार करेगी? जाहिर है नहीं। फिर चुनौती है उसे कि वह देश को यह विश्वास दिलाने के लिए कि मुंबई में भी कानून का शासन है, अपना दम-खम दिखाए और मुख्यमंत्री की घोषणा के अनुरूप छोटे-बड़े का भेदभाव न करते हुए दोषियों को कड़ी से कड़ी सजा मिले, यह सुनिश्चित करे। किंतु शिवसेना और ठाकरे एंड कंपनी के इतिहास को देखते हुए ऐसा कदम नाकाफी होगा। उनके खिलाफ और सख्त कदम उठाए जाने की जरूरत है। लोकतंत्र पर हमला करने वालों को लोकतंत्र में उपलब्ध अधिकारों से वंचित क्यों न कर दिया जाए? यह एक मीडिया पर हमला नहीं है, जनता की आवाज को दबाने की साजिश है यह। ऐसे में उचित तो यही होगा कि कानूनी कार्रवाई करते हुए शिवसेना और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना पर प्रतिबंध लगा दिया जाए। लोकतंत्र के नाम पर समाज में विचरने का उन्हें कोई अधिकार नहीं। और हां! उचित यह भी होगा कि मीडिया भी इन लोगों का बहिष्कार कर दे। जब मीडिया ने यह मान ही लिया है कि वे गुंडे हैं, तब फिर इनके साथ व्यवहार भी एक गुंडे की तरह ही होना चाहिए। हीरो की तरह उन्हें दिखाने या लिखकर प्रचारित करने से मीडिया बाज आए। शासन की ओर से किसी गंभीर दंडात्मक कार्रवाई की आशा मीडिया न करे। वे तो अंतत: राजनीति का घिनौना खेल ही खेलेंगे। बेहतर हो मीडिया संकल्प लेकर ठाकरे एंड कंपनी का संपूर्ण बहिष्कार कर दे। निश्चय मानिए, टी.वी. पर्दों और अखबारों से महरूम होकर यह स्वत: राजनीतिक मरहूम बन जाएंगे।

Friday, November 20, 2009

संदेह है, फिर निराकरण क्यों नहीं!

कविता करकरे कह रही हैं कि यह कितना हास्यास्पद है कि एटीएस प्रमुख सुरक्षित नहीं है और इस तरह मारा जाता है। ऐसे में इस देश में आम आदमी कैसे खुद को सुरक्षित महसूस करेगा? 26 नवंबर 2008 को मुंबई पर आतंकी हमले के दौरान शहीद एटीएस प्रमुख हेमंत करकरे की पत्नी हैं कविता करकरे। पति की मौत पर उनके दिल में अनेक सवाल खड़े हो रहे हैं। हालांकि वे खिन्न हैं सुरक्षा व्यवस्था को लेकर, किन्तु उनकी जिज्ञासा में निहित सवाल गंभीर हैं। कविता का यह आरोप भी गंभीर है कि हेमंत करकरे को जरूरत के वक्त मदद नहीं मिली थी। ध्यान रहे कि इसके पूर्व हेमंत करकरे द्वारा धारण किए सुरक्षा जैकेट के घटिया होने के आरोप लग चुके हैं। जैकेटों की खरीद में कथित भ्रष्टाचार की जांच भी चल रही है। आश्चर्यजनक रूप से इस बीच वह सुरक्षा जैकेट गायब हो गया, जिसे हेमंत करकरे ने आतंकवादी हमले के दौरान धारण कर रखा था। क्या इसे कोई एक सामान्य चोरी की घटना निरूपित कर सकता है? कहीं न कहीं दाल में काला है अवश्य। करकरे की मौत पर तब केन्द्रीय मंत्री अब्दुल रहमान अंतुले ने कुछ सवाल उठाए थे। घटना स्थल पर करकरे के पहुंचने को लेकर संदेह प्रकट करते हुए अंतुले ने कुछ असहज टिप्पणियां की थीं। संसद से लेकर सड़कों तक अंतुले की टिप्पणी पर बवाल मचा। सभी ने एक स्वर से अंतुले की आलोचना की थी। उन्हें देशद्रोही और आतंकियों का सहयोगी तक बता दिया गया था। शायद 26 नवंबर के आतंकी हमले की विभीषिका से उत्पन्न राष्ट्रीय आक्रोश के कारण अतुंले को निशाने पर लिया गया था। लेकिन अब? अब तो स्वयं श्रीमती करकरे घटना पर सवालिया निशान जड़ रही हैं। बल्कि वे तो पूरे मामले को ही संदिग्ध बता रही हैं। अपने पति और अन्य दो शहीद वरिष्ठ अधिकारियों को वक्त रहते मदद नहीं उपलब्ध कराए जाने का उनका आरोप गंभीर है। चूंकि आतंकी हमले में स्थानीय लोगों की संलिप्तता के कोण को खारिज नहीं किया जा सका है, श्रीमती करकरे का आरोप औचित्यहीन तो कदापि नहीं। क्या जांच एजेंसियां श्रीमती करकरे के आरोप को अपनी जांच के दायरे में लाएंगी?
हेमंत करकरे की मौत पर उठ रहे सवालों के जवाब क्या होंगे, इसका अनुमान कठिन नहीं। देश में अनेक ऐसी घटनाएं, दुर्घटनाएं हुई हैं जिनके जांच परिणाम हमेशा संदिग्ध रहे हैं। कुछ की तो जांच भी नहीं हुई जबकि अनेक हस्तियों की संदिग्ध मौतें हुईं। श्यामाप्रसाद मुखर्जी, दीनदयाल उपाध्याय, संजय गांधी की मौत पर उठे सवाल तत्काल दबा दिए गए थे। बावजूद इसके संदेह आज भी कायम है। चाहे लोग न बोलें पर यह कड़वा सच मौजूद है। तत्कालीन केन्द्रीय मंत्री ललित नारायण मिश्र की एक बम धमाके से की गई हत्या के असल आरोपी अब तक सामने नहीं आ पाए। कथित रूप से आनंद मार्गियों पर आरोप लगा मामले को हल्का कर दिया गया। सचाई आज तक सामने नहीं आ सकी। अटपटा तो लगता है किन्तु इससे इंकार तो नहीं किया जा सकता कि संजय गांधी की विमान दुर्घटना में मौत पर फुसफुसाहटें हुई थीं। सवाल खड़े हुए थे, जिनके जवाब आज तक नहीं मिले। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या की जांच हुई, एक हत्यारे को फांसी पर भी चढ़ा दिया गया। किन्तु क्या कोई बताएगा कि हत्या की जांच हेतु गठित कार्तिकेयन कमेटी की रिपोर्ट पर क्या कार्रवाई हुई? कहते हैं कि उस रिपोर्ट में शक की सुई कुछ बड़े नामों पर अटकी थी। सच पर पर्दा पड़ा रहा। राजीव गांधी की हत्या और हत्यारों पर अनेक सवाल खड़े किए जा चुके हैं। कहने का तात्पर्य यह कि ऐसे मामलों में खड़े हुए संदेह, संदेह ही बने रह जाते हैं। इनका निराकरण नहीं हो पाता। जबकि प्राकृतिक न्याय का सिद्धांत है कि संदेह की पूरी छानबीन कर सभी का स्वीकार्य समाधान ढूंढा जाए। क्यों नहीं होता है ऐसा? शहीद हेमंत करकरे की पत्नी यही तो जानना चाहती हैं।

Thursday, November 19, 2009

'दुरूपयोग' के लिये प्रस्तुत मीडिया!

धिक्कार है! धिक्कार है शिवसेना पर और धिक्कार है इसके प्रमुख की सोच पर! सिर्फ मीडिया में राज ठाकरे की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना को पीछे छोड़ आगे जगह पाने के लिए पूरे देश में महाराष्ट्र को शर्मसार कर डाला! एक सौ चौसठ हुतात्माओं की बार-बार याद दिलाने वाली शिवसेना यह जान ले कि उसकी इस ताजा हरकत से ये हुतात्माएं भी दुखी हुई होंगी। उन्हें भी चोट पहुंची होगी।
बाल ठाकरे ने सचिन तेंदुलकर पर शब्द-बाण सिर्फ इसलिए चलाए थे कि मीडिया में उन्हें और शिवसेना को सुर्खियां मिल सके। ऐसी सुर्खियां कि राज ठाकरे मीडिया की नजरों से ओझल हो जाए। इस तथ्य को और कोई नहीं, बेशर्मों की तरह शिवसैनिक ही स्वीकार कर रहे हैं। शिवसेना की हो रही राष्ट्रीय आलोचना पर मुदित शिवसेना की टिप्पणी देखें-''...हालांकि हमारी आलोचना हुई और हमें नकारात्मक प्रचार मिला, लेकिन इस घटना ने शिवसेना को पुन: मीडिया की नजरों में ला दिया।'' यह बताकर शिवसैनिक खुश हो रहे हैं। पिछले दिनों महाराष्ट्र विधानसभा के अंदर राज ठाकरे के मनसे विधायकों द्वारा समाजवादी पार्टी के अबू आजमी के साथ की गई मारपीट व हंगामे के बाद मीडिया में मनसे छाई रही। शिवसेना इससे परेशान हो उठी थी। तो क्या मीडिया में जगह पाने के लिए या दूसरे को पछाडऩे के लिए अभद्र आचरण का वरण कर लिया जाना चाहिए? कदापि नहीं! विचार मंथन मीडिया भी करे। क्या ऐसे लोगों को मीडिया में जगह मिलनी चाहिए? नकारात्मक सोच और अभद्र कृत्य दिखा-पढ़ा कर टीआरपी व प्रसार में वृद्धि तो की जा सकती है किंतु निश्चय मानिए इससे समाज का अहित ही होता है। नकारात्मक सोच से विकास अवरूद्ध होता है। अज्ञानता का प्रसार होता है। फिर इसके भागीदार हम क्यों बनें? अब तक तो सार्वजनिक रूप से टिप्पणियां हो रही हैं कि मीडिया में गलत व अज्ञानी लोगों की पैठ बढ़ती जा रही है। क्यों? ऐसे तत्वों को प्रोत्साहन कौन व क्यों दे रहा है? यह विचारणीय है। मीडिया मौन न रहे। जवाबदेही का परिचय देते हुए इसका समाधानकारक उत्तर दे। यह संभव है। जरूरत है, मौन तोड़कर मुखर होने की। पिछले दिनों मीडियाकर्मियों के एक कार्यक्रम में एक बड़े मराठी दैनिक के एक बड़े संपादक को पाकिस्तानी समाचार-पत्रों की स्थिति पर शत-प्रतिशत गलत आंकड़ों के साथ बोलते सुना। मंच पर एक बड़े दैनिक के मालिक और वरिष्ठ पत्रकार उपस्थित थे। देखकर पीड़ा हुई, मन खिन्न हो उठा कि सभी चुपचाप गलत आंकड़ों वाले भाषण को सुन रहे थे। तालियां भी बजा रहे थे। एक भयंकर गलती को ऐसी मंचीय स्वीकृति? इसी तरह का एक और पत्रकारीय आयोजन। जेसिका लाल की हत्या के दोषी पेरोल पर छूटे मनु शर्मा को पिछले दिनों दिल्ली के एक नाइट क्लब में देखे जाने और दूसरे दिन पेरोल अवधि की समाप्ति के पूर्व ही तिहाड़ जेल में समर्पण कर दिए जाने की घटना की चर्चा करते हुए आयोजन में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया द्वारा श्रेय लिया जा रहा था। वक्ता मीडियाकर्मियों ने गर्व के साथ मनु शर्मा को समर्पण करने के लिए मजबूर करने का श्रेय लिया, जबकि इस मामले में मीडिया कर्तव्य से भागने का दोषी है। मनु शर्मा पिछले 22 सितंबर को जेल से बाहर आया था। पेरोल की शर्त के मुताबिक वह चंडीगढ़ से बाहर नहीं जा सकता था। लेकिन, वह इस शर्त का उल्लंघन कर विधानसभा चुनाव में अपने पिता के निर्वाचन क्षेत्र अंबाला शहर में खुलेआम प्रचार करते देखा गया। तब कहां था मीडिया? वह सितंबर माह में ही पेरोल पर बाहर निकला था, तब मीडिया अनभिज्ञ कैसे रहा? अदालतों में उसकी हर सुनवाई पर नजर रखने वाला मीडिया इतने दिनों तक जेल से बाहर घूमने वाले मनु शर्मा को देख क्यों नहीं पाया? आरोप लगे हैं कि तब किन्हीं कारणों से मीडिया ने जान-बूझकर आंखें बंद कर रखी थीं। क्या थे वे कारण? कोई बताएगा? अगर दिल्ली के एक होटल में मनु शर्मा व उसके मित्र की दिल्ली के पुलिस कमिश्नर के बेटे से झड़प नहीं हुई होती और पुलिस मौके पर नहीं पहुंचती तो मीडिया में खबर ही नहीं बनती। उसके तिहाड़ जेल में समर्पण का श्रेय मीडिया न ले। बल्कि वह जवाब दे कि 22 सितंबर से 11 नवंबर तक मीडिया ने आंखों पर पट्टी क्यों बांध रखी थी? सचमुच, जरूरी यह है कि हम पहले अपने घर को दुरूस्त करें। जब हम स्वयं ही खुद को 'उपयोग' में लाने के लिए उपलब्ध कराते रहेंगे, तब हम अपने दुरुपयोग से बच कैसे सकते हैं। बाल ठाकरे व उनकी शिवसेना ने ऐसी ही स्थिति का फायदा उठाकर तो हमारा 'उपयोग' कर डाला। क्या यही हमारी हैसियत है? झूठ और अज्ञानता के प्रसार के दोषी हम भी हैं।

Wednesday, November 18, 2009

अंकल सैम का बेपर्दा चेहरा!

तो अब अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने भी अपने चेहरे से नकाब उतार ही दिया। तिब्बत को चीन का हिस्सा बताकर उन्होंने 'अंकल सैम' के विद्रूप सच को उजागर किया है। अमेरिकी मामलों पर बारीक नजर रखने वालों को अमेरिका के इस नए पैंतरे पर कोई आश्चर्य नहीं हुआ होगा। और, पीड़ा तो हो रही है किंतु इस तथ्य को, कि हमारे प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह को कोई आश्चर्य नहीं हुआ होगा, छुपाने के पाप का भागीदार मैं नहीं बनना चाहता। प्रधानमंत्री शायद इनकार करेंगे, ओबामा के वक्तव्य पर नाराजगी जाहिर करेंगे, लेकिन उपर्युक्त तथ्य समय आने पर सच साबित होगा। जैसा कि अन्य अवसरों पर यह बार-बार कहा गया है कि अमेरिका कभी भी भारत का नहीं हो सकता, तिब्बत पर उसके बयान ने इसे एक बार फिर प्रमाणित कर दिया। अमेरिका चाहे भारत के साथ आर्थिक और सामरिक सहयोग के पक्ष में जितनी भी बातें करे, ऐन मौके पर वह भारत के साथ दगा करने में संकोच नहीं करेगा। 1962 में जब चीन ने भारत पर आक्रमण किया था तब जान. एफ. केनेडी अमेरिका के राष्ट्रपति थे। भारत में उनका बहुत सम्मान था। तब के हमारे प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरु ने बड़ी आशा और विश्वास के साथ अमेरिकी सहायता के लिए केनेडी को फोन किया था। जानते हैं केनेडी ने क्या जवाब दिया था? उनका नेहरु को जवाब था कि, '...' चूंकि हमारे अमेरिकी नागरिक आप (भारतीय) को घृणा करते हैं...उन्होंने आपके मंत्रियों को अमेरिका में वेश्यालयों से बाहर निकलते देखा है ...हम कैसे मदद कर सकते हैं।' नेहरु को गहरा सदमा पहुंचा था। लेकिन संवेदनहीन अमेरिका पर कोई असर नहीं पड़ा। उसने हमें मदद नहीं की। आज उसी अमेरिका के राष्ट्रपति ओबामा चीन के पक्ष में भारत को आहत करने वाला बयान देते हैं तब आश्चर्य कैसा? विश्व की एक आर्थिक ताकत बन चुका चीन स्वयं अमेरिका के लिए खतरा बनता जा रहा है। पिछले दिनों एक बहुत ही बड़ी राशि चीन बतौर कर्ज देकर अमेरिका को उपकृत कर चुका है। धन-शक्ति को सर्वोच्च समझने वाला अवसरवादी अमेरिका तब चीन के मुकाबले भारत से हाथ क्यों मिलाए? अमेरिका को यह अच्छी तरह मालूम है कि हाल के दिनों में चीन भारत को भड़काता रहा है। कतिपय भारतीय भू-भाग पर अपना दावा पेश कर चीन भारत की सार्वभौमिकता को चुनौती दे चुका है। खुफिया जानकारियों पर विश्वास करें तो चीन भारत पर हमले की तैयारी में जुटा हुआ है। ऐसे समय में अमेरिकी राष्ट्रपति द्वारा चीन का पक्ष लिया जाना, उसकी कुटिल रणनीति का सूचक है। अमेरिका के साथ परमाणु ऊर्जा करार को हमारे प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने व्यक्तिगत प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया था। संप्रग सरकार के अस्तित्व को भी दांव पर लगा दिया था। इस मुद्दे पर ही वामदलों ने सरकार से समर्थन वापस ले लिया था। मनमोहन सिंह अमेरिका पर अंधविश्वास करते रहे। अमेरिकी नीयत संबंधी विपक्ष की शंकाओं को निराधार बताने वाले मनमोहन सिंह को इस मुद्दे पर भी अमेरिका ने अब मुंह छिपाने के लिए मजबूर कर दिया है। संधि पर अमेरिका अब यह कहने लगा है कि भारत पहले अप्रसार के संबंध में आश्वासन दे, तभी समझौते पर अमल किया जाएगा। उसने साफ कर दिया है कि इसके बगैर अमेरिकी कंपनियां भारत के साथ व्यापार नहीं करेंगी। साफ है कि अमेरिका ने अब संधि हो जाने के बाद परमाणु ऊर्जा के क्षेत्र में सहयोग की जगह रोड़ा अटकाना शुरु कर दिया है। इसी बात की शंका तब विपक्ष ने जताई थी।
अभी भी विलंब नहीं हुआ है। भारत सरकार कड़ा रूख अपनाए। हम इतने कमजोर नहीं। मामला चाहे परमाणु ऊर्जा करार का हो या भारतीय भू-भाग पर चीनी नजर का, भारत सरकार देशहित में फैसला करे, पूरा देश उसका साथ देगा। अंकल सैम या चीनी ड्रैगन से डरने की कोई जरूरत नहीं।

Tuesday, November 17, 2009

अकेले ठाकरे 'मराठी माणुस' की आवाज नहीं!

बाल ठाकरे आप मुंगेरीलाल की दुनिया से बाहर आएं। किस मुगालते में हैं आप? आपने यह कैसे मान लिया कि आप एक अकेले 'मराठी माणुस' की आवाज हैं? आपने महाराष्ट्र सहित पूरे भारत की शान सचिन तेंदुलकर को यह कैसे कह डाला कि उन्होंने मराठी माणुस को आहत किया है। बिल्कुल गलत। ठाकरे एंड कंपनी के कुछ चापलूसों को छोड़कर कोई भी सचिन तेंदुलकर से नाराज नहीं है। सच तो यह है कि ये 'चापलूस' भी किसी भय के कारण बोल नहीं पा रहे हैं। भयमुक्त कर दिए जाने पर ये भी सचिन के बगल में खड़े दिखेंगे। समझ में नहीं आता कि हमारे कानून के रक्षक मौन क्यों साधे हुए हैं? इनके खिलाफ कानूनी कार्रवाई क्यों नहीं होती? देश को तोडऩे का षडय़ंत्रकारी देशद्रोही माना जाना चाहिए। सचिन तेंदुलकर के यह कहने पर कि वे मराठी हैं और उस पर उन्हें गर्व है किन्तु पहले वे भारतीय हैं, उन्हें धमकी कैसे दी जा सकती है? सचिन ने कोई राजनीतिक वक्तव्य नहीं दिया। उन्होंने हर भारतीय के शाश्वत सत्य को रेखांकित किया। मराठी होने पर गर्व करने की बात से कोई मराठी आहत कैसे हो सकता है? सर्वेक्षण करा लें, पूरा महाराष्ट्र सचिन के साथ खड़ा मिलेगा- दो-चार सिरफिरों को छोड़कर। भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के वरिष्ठ अधिकारी व सांसद राजीव शुक्ला ने बिल्कुल ठीक टिप्पणी की है कि 'ठाकरे मोहम्मद अली जिन्ना की तरह बोल रहे हैं। महाराष्ट्रीयन सचिन के साथ हैं।' बाल ठाकरे और उनके प्रशिक्षित राज ठाकरे क्षेत्रीय घृणा व भाषा की राजनीति कर देश को बांटने की कोशिश कर रहे हैं। देश इसे बर्दाश्त नहीं करेगा। जिन्ना तो फिर भी पाकिस्तान लेकर अलग हो गए। अंग्रेजों का षड्यंत्र तब सफल हुआ था। आज बाल ठाकरे हजार कोशिश कर लें, सफल नहीं होंगे। अकेले पड़ जाएंगे वे। देश को खंडित करने का उनका मंसूबा कभी पूरा नहीं होगा। भारत की शान मुंबई भारत का अभिन्न अंग है, भारत के साथ बना रहेगा। ठाकरे का मस्तिष्क अगर इस बात को समझ नहीं पा रहा है तो इलाज करवा लें। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत ने भी उन्हें जवाब दे दिया है। आश्चर्य है कि संघ के दर्शन हिन्दुत्व पर राजनीति करनेवाले ठाकरे भागवत के शब्दों को समझ नहीं पा रहे हैं। राष्ट्रीयता पहले, मराठी मुद्दा बाद में- का एलान कर संघ प्रमुख ने यह जता दिया कि ठाकरे एंड कंपनी गलत है। भागवत ने यह भी साफ कर दिया कि कुछ लोग भाषा और क्षेत्रीयता के नाम पर 'वोट बैंक' की राजनीति कर रहे हैं। भारत की सभी भाषाएं हमारी भाषा हैं। मराठी का इस्तेमाल लोगों के बीच घृणा पैदा करने के लिए नहीं किया जाना चाहिए। हम भारत की एकता की कुर्बानी नहीं दे सकते। क्या इसके बाद भी कुछ कहने की जरूरत है? मुंबई के लिए बाल ठाकरे ने बहुत कुछ किया है। मुंबईकर उनकी याद करते हैं। लेकिन अपनी जिंदगी की अंतिम पारी में ठाकरे अपने लिए घृणा और सिर्फ घृणा को आमंत्रित कर रहे हैं। क्यों? मुंबईकर को इसका जवाब चाहिए।

Monday, November 16, 2009

राजनीति के चौसर पर ये धोखेबाज!

सचमुच राजनीति के रंग निराले हैं। ऐसे कि सभी रंगों के ऊपर 'बदरंग' अपनी मर्जी से जब चाहें तब तांडव कर बैठता है। देश को अब तक आठ प्रधानमंत्री दे चुके उत्तरप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष मुलायम सिंह को धोखेबाज बता रहे हैं। कह रहे हैं कि मुलायम ने अपना मानसिक संतुलन खो दिया है। उधर, अपनी बहू की हार से बौखलाए मुलायम कांग्रेस को धोखेबाज बता रहे हैं। मेरी समझ में यह नहीं आ रहा है कि राजनीति के अखाड़े के अनुशासनहीन ये खिलाड़ी धोखेबाजी पर इतने उद्वेलित क्यों हो जाते हैं? सत्ता की राजनीति में ये ईमानदार और मूल्यधारक चेहरे दिखा सकते हैं क्या? आश्चर्य होता है इनकी सोच पर। 'धोखा, धोखेबाज व धोखेबाजी' की चौसर पर ही तो ये सत्ता का खेल खेलते हैं। मुलायम ने अगर कल्याण सिंह को ठेंगा दिखा दिया तो इसमें आश्चर्य क्या? आश्चर्य तो इस बात पर होना चाहिए कि घोर मुस्लिम विरोधी और बाबरी विध्वंस के नायक कल्याण सिंह ने मुलायम से सदाशयता की आशा ही कैसे कर ली थी। कल्याण मुलायम के साथ गए थे अवसरवाद की सीढिय़ां चढ़कर। अपने राजनीतिक फायदे के लिए गए थे। मुलायम ने भी उनके लिए सीढ़ी उपलब्ध कराई थी तो अपने फायदे की सोच कर। निराशा दोनों को मिली। धर्मनिरपेक्ष मुलायम, जिन्हें उत्तर प्रदेश में कभी मौलाना मुलायम के नाम से बुलाया गया, को न राम मिले, न रहीम। दोनों ने उन्हें ठुकरा दिया। फिर भला मुलायम कल्याण को घास डालें तो क्यों? कल्याण अब उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी को मजबूत कर पश्चाताप करना चाहते हैं। मतलब लौट के बुद्धू घर को आए। अब यह देखना दिलचस्प होगा कि भाजपा कल्याण को किस रूप में स्वीकार करती है या स्वीकार करेगी भी या नहीं। रही बात राजनीति में अवसरवादिता और धोखेबाजी की तो कल्याण को इतिहास के कुछ पन्नों से रूबरू करा देना चाहूंगा। इसलिए भी कि सभी संदर्भ उत्तर प्रदेश से जुड़े हैं। 1977 में कांग्रेस और इंदिरा गांधी की पराजय के बाद केंद्र में पहली बार जनता पार्टी की गैर कांग्रेसी सरकार बनी थी। मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने थे। इंदिरा गांधी सत्ता के परिवर्तित परिदृश्य को पचा नहीं पा रही थीं। उद्दंड व आक्रामक संजय गांधी ने तब आश्चर्यजनक रूप से चाणक्य की भूमिका निभाई। मोरारजी से नाराज चौधरी चरण सिंह के हनुमान राज नारायण पर संजय ने डोरे डाले। चकरी घूमी और चौधरी चरण सिंह लगभग 5 दर्जन सांसदों के साथ दगा दे गए। कांग्रेस ने चौधरी के मुट्ठी भर सांसदों के गुट को समर्थन दे डाला। चौधरी प्रधानमंत्री बन गए। वही चौधरी जिन्होंने इंदिरा गांधी को जेल भेजा था और वही राज नारायण जिन्होंने इंदिरा गांधी को चुनाव में पराजित किया था। अवसरवादिता और धोखेबाजी का चक्र चलता रहा। इसके पहले कि चौधरी संसद में विश्वासमत प्राप्त करते, कांग्रेस ने समर्थन वापस लेकर उन्हें दुत्कार दिया था। अब बात चंद्रशेखर की। इंदिरा गांधी की कथित तानाशाही और कुशासन को चुनौती दे कांग्रेस से अलग रहने वाले समाजवादी चंद्रशेखर को भी कांग्रेस ने समर्थन दे प्रधानमंत्री बना दिया था। विश्वनाथ प्रताप सिंह से नाराज चंद्रशेखर के साथ भी तब मुट्ठीभर सांसद ही थे। चंद्रशेखर कांग्रेस का हित साधते रहे। जिस दिन भौहें टेढ़ी की, कांग्रेस ने समर्थन वापस ले उन्हें सड़क पर ला दिया। चौधरी चरण सिंह और चंद्रशेखर का इस्तेमाल कांग्रेस ने मोरारजी देसाई और विश्वनाथ प्रताप सिंह के खिलाफ सफलतापूर्वक कर लिया था। आजाद भारत का राजनीतिक इतिहास अवसरवादी जयचंदों और विभीषणों से भरा पड़ा है। अवसरवाद और धोखेबाजी तो आज की राजनीति के सफल हथियार बन गए हैं। फिर कल्याण सिंह मुलायम के नाम पर विलाप क्यों कर रहे हैं?

Sunday, November 15, 2009

फिर बेपर्दा इंदिरा का सच!

खुशवंत सिंह बगैर लाग-लपेट के दो टूक शब्दों में अपनी टिप्पणी के लिए कुख्यात हैं। किसी की चिंता नहीं करते। सच कहने के अद्भुत साहस के स्वामी हैं वे। शब्दों के चयन में भी तथ्य के पक्ष में वे श्लीलता-अश्लीलता की परवाह नहीं करते। मशहूर है कि वे जो देखते हैं, पेश कर डालते हैं। जो सोचते हैं, उसे हूबहू उकेर डालते हैं। उनके इस गुण के कायलों की संख्या अनगिनत है। मैं भी उनमें एक हूं। 31 अक्टूबर को इंदिरा गांधी की 25वीं पुण्यतिथि पर इंडियन एक्सप्रेस के प्रधान संपादक शेखर गुप्ता के एक आलेख पर मैंने कुछ प्रतिकूल टिप्पणियां की थीं। 'इंदिरा, इंडियन एक्सप्रेस और गोयनका' शीर्षक के अंतर्गत लिखे अपने इस स्तंभ में मैंने इंदिरा गांधी के उन स्याह पक्षों को उजागर किया था जिन पर शेखर गुप्ता ने पर्दा डाल दिया था। मेरा उद्देश्य युवा पीढ़ी को इतिहास की सचाई से अवगत कराना था। पाठकों की प्रतिक्रियाएं अनुकूल रही थीं लेकिन मैं तब विचलित हो उठा था जब देखा कि लगभग सभी समाचार पत्र और टीवी चैनल शेखर गुप्ता की राह पर ही चल रहे थे। लेकिन, कुछ देर से ही सही खुशवंत सिंह ने अपने स्तंभ में इंदिरा गांधी की उन कुंठाओं की चर्चा की है जिनके कारण इंदिरा को निर्मम, कू्रर, संवेदनाहीन, ईष्र्यालु औरत के रूप में देखा गया था। संतोष हुआ कि सच को रेखांकित करने में मैं अकेला नहीं रह गया। खुशवंत सिंह ने अतिरिक्त जानकारी देते हुए बिल्कुल सही लिखा है कि कांग्रेस पार्टी को उन्होंने अपनी इच्छाओं का गुलाम बना लिया था। बेरहम प्लास्टिक सर्जरी से देश की सूरत बदल दी थी। उनके समय में चापलूसी का ऐसा आलम था कि तब के कांग्रेस अध्यक्ष देवकांत बरुआ ने इंदिराजी की जय-जयकार करते हुए कह डाला था कि 'इंडिया इज इंदिरा, इंदिरा इज इंडिया।' वह महान जननेता तो थीं किंतु निजी जिंदगी में कुंठित व ईष्र्यालु महिला थीं। वे खूबसूरत थीं किंतु दूसरों की खूबसूरती उन्हें पसंद नहीं थी। उन्हें नापसंद करती थीं, नीचा दिखाती रहती थीं। तत्कालीन केंद्रीय मंत्री तारकेश्वरी सिन्हा और महारानी गायत्री देवी को उन्होंने कभी पसंद नहीं किया तो इसी कारण। अपनी बुआ विजयलक्ष्मी पंडित और चचेरी बहन नयनतारा सहगल को कभी पसंद नहीं किया। ब्रिटेन में उच्चायुक्त और तब संयुक्त राष्ट्र के सर्वोच्च पद पर रह चुकीं विजयलक्ष्मी पंडित को इंदिरा ने कभी भी बलिष्ठ राजनयिक दायित्व नहीं दिया। नयनतारा के ईमानदार और सक्षम सिविल अधिकारी पति एन. मंगत राय को भी इंदिरा ने आगे नहीं बढऩे दिया। खुशवंत लिखते हैं कि इंदिरा बेवजह उन सभी लोगों के प्रति आक्रामक थीं जो उनके समकक्ष थे। आपातकाल के दौरान उन्होंने और उनके परिवार ने जितने लोगों को सलाखों के पीछे बंद किया, उससे किसी को भी चक्कर आ सकता है। खुशवंत सिंह की बातों को यहां उद्धृत करने के पीछे मेरा उद्देश्य यही है कि युवा पीढ़ी सत्य को जाने-समझे क्योंकि आजकल बहुसंख्यक कलमची सत्य लिखने-कहने में, अस्पष्ट कारणों से, हिचक जाते हैं। सच पर पर्दा ही नहीं डाल देते, उन्हें विकृत कर देते हैं।

Saturday, November 14, 2009

आदर्श सचिन के मार्ग पर चलेंगे राज?

भारतीय राजनीति के सबसे बड़े मवाली के रूप में अपना नाम दर्ज करवा चुके राज ठाकरे अब क्या कहेंगे? मराठी माणुस की उनकी परिभाषा को प्रत्यक्ष रूप से चुनौती देते हुए विश्व क्रिकेट के बादशाह और हर भारतीय के लाडले सचिन तेंदुलकर ने साफ शब्दों में बता दिया कि 'मैं मराठी तो हूं, किंतु मुंबई पूरे भारत की है।' अर्थात, मुंबई किसी की बपौती नहीं। जब अमिताभ बच्चन और उनकी पत्नी जया बच्चन ने यही बात कही थी, तब राज ठाकरे एवं उनके गुर्गे दोनों पति-पत्नी को 'मुंबई निकाला' पर आमदा हो गए थे। अब सचिन के खिलाफ राज ठाकरे कौन सी कार्रवाई करेंगे? उत्तर आसान है। राज ठाकरे की इतनी हिम्मत ही नहीं कि वे हर दिल अजीज सचिन तेंदुलकर के खिलाफ एक शब्द बोल भी सकें। वे अच्छी तरह जानते हैं कि सचिन तेंदुलकर के रक्षा-कवच के रूप में सिर्फ मुंबईकर ही नहीं, पूरा भारत खड़ा हो जाएगा। सचिन ने अपने मराठी होने पर गर्व की बात बिलकुल सही कही है। हर किसी को अपनी जन्मभूमि और मातृभाषा पर गर्व होता है। किंतु मातृभूमि भारत और राष्ट्रभाषा के प्रति सम्मान में कमी नहीं की जाती। सचिन तेंदुलकर खेल की दुनिया में युग-प्रवर्तक के रूप में स्थापित हो चुके हैं। उन्होंने महाराष्ट्र के साथ-साथ पूरे भारत का नाम विश्व में रौशन किया है। राज ठाकरे इस महत्व को समझने की कोशिश करें। राजनीति को पेशा बनाने वाले राज गांठ बांध लें कि घृणा, जातीयता, धर्म, भाषा और क्षेत्रीयता की संकीर्ण राजनीति विघटन का आगाज है। इससे दूर रहना ही श्रेयस्कर होगा। पिछले दिन क्षेत्रीयता और भाषा के आधार पर मुंबई की सड़कों और विधानसभा के अंदर जहर पैदा कर उन्होंने राष्ट्रविरोधी ताकतों को (अनजाने में) ही मजबूत किया है। विभिन्न संस्कृति और भाषा वाले भारत देश की ताकत विविधता में एकता रही है। इसे तोडऩे की कोशिश को राष्ट्रद्रोह की श्रेणी में रखा जाएगा। और किसी से नहीं तो अब कम से कम सचिन तेंदुलकर से राज ठाकरे प्रेरणा लें। वैसे महाराष्ट्र के अन्य युग पुरुष लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक, गोपाल कृष्ण गोखले, वीर विनायक दामोदर सावरकर, काका कालेलकर, आदि के जीवन चरित्र पढ़कर भी राज ठाकरे आत्मशुद्धि कर सकते हैं। इन सभी महान पुरुषों ने क्षेत्रीयता से परे राष्ट्रीयता और राष्ट्रभाषा के रुप में हिंदी का समर्थन किया था। इन ऐतिहासिक तथ्यों को नजरअंदाज कर ठाकरे स्वयं अपने और अपने समर्थकों के लिए राजनीतिक व सामाजिक इतिश्री को ही आमंत्रित करेंगे। युवा राज ठाकरे ऐसा न करें।

Friday, November 13, 2009

क्यों न बने एशियाई महासंघ!

बात 1981 की है। इंदिरा गांधी तब प्रधानमंत्री थीं। एक दिन सेना के एक बड़े अधिकारी ने हम कुछ पत्रकारों को अनौपचारिक रुप से भोजन पर आमंत्रित किया। गर्मी की दोपहरी में गैरिसन की ठंडक को बढ़ाते ठंढे बीयर! सामिष-निरामिष लज्जतदार भोजन! बिल्कुल अनौपचारिक वातावरण में बे-तकल्लुफ सैन्य अधिकारी, मौसम, सिनेमा, मनोरंजन आदि विषयों पर शायराना अंदाज में हमसे मुखातिब थे। क्या इन्हीं बातों के लिए हमें बुलाया गया? जेहन में सवाल उठ रहे थे। अचानक सेना अधिकारी ने पूछ लिया कि अगर भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल, भूटान, श्रीलंका का एक महासंघ बन जाए तब कैसा रहेगा? सभी चौंक उठे। सेना अधिकारी ने सहजता से यह जोड़ दिया कि सवाल बिल्कुल निजी है...यूं ही अपनी ज्ञानवृद्धि के लिए इस विषय पर राय जानना चाह रहा हूं। उन्होंने बार-बार 'अपना निजी सवाल' पर जोर दिया। कुछ पत्रकार मित्रों ने उत्साह में अपनी राय दी भी। मिलन कार्यक्रम की समाप्ति के बाद मैं घर से वापस दोबारा उक्त अधिकारी से मिलने पहुंचा। मैंने उनसे भोजन आयोजन के औचित्य और कथित 'महासंघ' संबंधी उनकी जिज्ञासा पर जानकारी चाही। सैनिक अनुशासन से बंधे अधिकारी खुलकर कुछ बोल नहीं सकते थे। लेकिन उनके शब्दों में निहित संकेत से जो अनुमान मैं लगा पाया वह यह कि उच्च स्तर पर प्राप्त निर्देश के आधार पर सेना अधिकारी हम लोगों के माध्यम से उक्त विषय पर आम लोगों की प्रतिक्रिया जानना चाह रहे थे। बात आई-गई, खत्म हो गई।
आज जब यूरोप में एकता की नई राजनीतिक क्रांति की जानकारी मिली तब अनायास उपर्युक्त घटना मेरे मस्तिष्क में कौंध गई। यूरोपीय देश आर्थिक, विदेशी और सुरक्षा नीति बनाने संबंधी अधिकार एक साझा यूरोपीय प्रशासन यानि सरकार को सौंपने पर सहमत हो गए हैं। सचमुच यह पहल 21वीं सदी की सबसे बड़ी क्रांति है। इसे एक सफल एकीकरण आंदोलन निरुपित किया जा रहा है, तो बिल्कुल सही ही। एक ओर भारत सहित संसार के अनेक हिस्सों में अलगाववाद, आजादी, स्वायतता और स्वशासन के लिए हिंसक खूनी आंदोलन चल रहे हैं, यूरोप की इस पहल ने विकल्प के सुंदर द्वार खोल दिए हैं। क्या दक्षिण एशियाई देश इस मार्ग का कभी अनुकरण करेंगे? विकास और शांति की दिशा में यूरोपीय देशों ने बेमिसाल, सफल उदाहरण पेश किए हैं। अपनी सीमाओं की दीवारें गिराकर चेक-पोस्ट हटा लिए हैं। यूरोपीय संघ के किसी भी सदस्य देश में आने-जाने के लिए सिर्फ एक वीजा काफी है। क्या भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका, नेपाल, भूटान के बीच कोई ऐसी संधि नहीं हो सकती? एक संस्कृति, एक सभ्यता वाले इन देशों के शासकों को यह प्रस्ताव फिलहाल पसंद नहीं आएगा। शासन की ललक और अहं उन्हें ऐसा करने से रोकेगा। लेकिन यूरोपीय देश भी तो इसी संसार के अंग हैं। जब शरीर के किसी अंग में थिरकन होती है तो पूरा शरीर स्पंदित होता है। आज न कल यूरोपीय देशों की यह पहल संसार के अन्य देशों के लिए एक आदर्श की भूमिका निभाए तो कोई आश्चर्य नहीं। ध्यान रहे लिस्बन संधि को लागू करने के बाद 27 देशों का यूरोपीय संघ संसार में एक ऐसी ताकत के रूप में उभरेगा, जिसके आगे अमेरिका, जापान, रूस और चीन भी शायद नतमस्तक हो जाने को मजबूर हो जाएंगे।

Thursday, November 12, 2009

उपचुनाव परिणाम का असली सच!

गोद लिए खबरियों को फिलहाल भूल जाएं। उनके द्वारा दी गईं, दी जा रहीं खबरों विश्लेषणों को भी कोष्ठक में डाल दें। उन्होंने तो आईना देखना ही छोड़ दिया है, आईना दिखाएंगे कैसे? फिर क्या आश्चर्य कि वे स्वयं को ही नहीं पहचान पा रहे। उतरन के उपयोग में ऐसा ही होता है। सात राज्यों के उपचुनावों के परिणाम से संबंधित खबरों-विश्लेषणों को देख लें, सब कुछ साफ हो जाएगा। इन्होंने पूरे देश में लोकसभा चुनाव के समय से उत्पन्न कथित कांग्रेस लहर की मौजूदगी को मोटी रेखा से चिन्हित कर दिया है। सुर्खियां बनीं कि कांग्रेस ने वामदलों, भारतीय जनता पार्टी का सुपड़ा साफ कर दिया। परिणाम ने यह साबित कर दिया कि अब मतदाता की पहली पसंद कांग्रेस ही है। आने वाले दिनों में हर जगह कांग्रेस और सिर्फ कांग्रेस की मौजूदगी दर्ज होगी। उपचुनाव में कांग्रेस का प्रदर्शन शानदार रहा। कैसे? सही विश्लेषण ये खबरची बेचारे करें तो कैसे? फिर उतरन का क्या होगा! लेकिन तटस्थ विश्लेषक अपना दायित्व अवश्य निभाएंगे। कांग्रेस को 31 सीटों में से 10 सीटों पर सफलता मिली-सात राज्यों में। देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में 11 विधानसभा सीटों पर उपचुनाव हुए। मायावती की बहुजन समाज पार्टी ने 9 सीटों पर कब्जा किया। कांग्रेस को सिर्फ एक सीट मिली। क्या इसे कांग्रेस के पक्ष में बयार निरुपित किया जा सकता है। ध्यान रहे, इन 11 सीटों में से बसपा के पास सिर्फ एक सीट थी। उसने उस सीट के अलावा अन्य 8 सीटों पर कब्जा किया। क्या इसे बसपा की बड़ी सफलता नहीं कहेंगे। निश्चय ही परिणाम और रूझान से यही साबित हुआ कि प्रदेश की जनता का बसपा पर भरोसा कायम है। मायावती नेतृत्व की बसपा सरकार पर लगाए गए भ्रष्टाचार, जातीयता, निक्कमापन और पक्षपात संबंधी सभी कांग्रेसी आरोपों को जनता ने खारिज कर दिया। आश्चर्य है कि बसपा की इस बड़ी उपलब्धि की उपेक्षा कर फिरोजाबाद लोकसभा सीट पर कांग्रेस की जीत को महिमामंडित किया गया। समाजवादी पार्टी से इस सीट को छीनकर निश्चय ही कांग्रेस ने बड़ी सफलता हासिल की है, किंतु यह कहना सरासर गलत होगा कि प्रदेश की जनता ने कांग्रेस के पक्ष में जनादेश दिया है। फिरोजाबाद का परिणाम वस्तुत: मतदाता की परिपक्वता का एक सुखद उदाहरण है। मतदाता ने साफ संदेश दे दिया है कि वह प्रदेश में परिवारवाद को प्रश्रय देने के मूड में नहीं है। और यह भी साफ हो गया कि वस्तुत: जनता ने प्रदेश में भाजपा, सपा के साथ-साथ कांग्रेस को भी नकार दिया। वैसे परिणाम कांग्रेस के लिए भी एक संदेश है। कांग्रेस की ओर से टिप्पणी की गई है कि मुलायम यादव ऐसे व्यक्ति के नाम (राममनोहर लोहिया) के नाम पर राजनीति कर रहे हैं, जिन्होंने राजनीति में संतति और संपत्ति का मोह त्याग देने की बात कही थी। यह भी कहा गया कि जब कैडर और प्रशासन में अंतर कम हो जाता है तब लोकतंत्र को खतरा पैदा हो जाता है। इस विंदु पर मैं सिर्फ इतना ही कहना चाहूंगा कि जो सरमन कांग्रेस सपा को दे रही है उस कसौटी पर स्वयं को कस कर देखे। क्या संतति, संपत्ति और प्रशासन कांग्रेस के पर्याय नहीं बन गए हैं? कांग्रेस दो-धारी तलवार भांज रही है। फिरोजाबाद में उसने मुलायम यादव के परिवारवाद और विकास के नाम पर चुनाव लड़ा था। आने वाले दिनों में कांग्रेस इसी मुद्दे पर मतदाता के सवाल देने के लिए तैयार रहे। परिणाम उसके सामने है। पश्चिम बंगाल में वाम दलों को ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस ने पछाड़ा है, कांग्रेस ने नहीं। यह ठीक है कि वहां तृणमूल के साथ कांग्रेस का गठबंधन है किंतु चुनाव दौरान उनके बीच की दूरी को सभी देख चुके हैं। वहां संपन्न 10 उपचुनाव में कांग्रेस को सिर्फ एक सीट मिली, तृणमूल कांग्रेस को सात। वहां भी कोई कांग्रेसी बयार नहीं बही। शेष अन्य 5 राज्यों के 10 सीटों की बात करें तो केरल में कांग्रेस को प्राप्त तीनों सीटों पर उसका पहले से कब्जा था। शेष सीटों की भी स्थिति कमोबेश ऐसी ही रही। फिर उपलब्धि के नाम पर कांग्रेसी डुगडुगी का औचित्य? हां, यह सच अवश्य रेखांकित होगा कि कांग्रेस की ओर से प्रचार अभियान का नेतृत्व करने वाले राहुल गांधी शनै:-शनै आमलोगों की पसंद बनते जा रहे हैं। लेकिन भारत जैसे विविधता वाले बड़े देश में पूर्ण स्वीकृति के लिए यह नाकाफी है। राजनीतिक सर्कस से पृथक आम लोगों के लिए आम आदमी बनकर ही देश को जीता जा सकता है। युवराज बनकर नहीं। राहुल व उनके सलाहकार इस शाश्वत सत्य को ह्रदयस्थ कर लें।

Wednesday, November 11, 2009

चीन भूल जाए 1962 को!

यह तो सीधे-सीधे भारत पर चीनी आक्रमण की धमकी है। भारत सरकार पूर्व की भांति इसे हल्के से नहीं ले। चीन की ओर से यह टिप्पणी कि 'भारत शायद 1962 के सबक को भूल गया है और वह फिर गलत रास्ते पर चल रहा है' ,क्या यह चेतावनी नहीं? बिल्कुल चेतावनी है! स्पष्ट है कि चीन इस बार तवांग और दलाई लामा के बहाने भारत पर आक्रमण की तैयारी में है। 1962 में चीनी सेना ने भारत पर आक्रमण कर बड़े भू-भाग पर कब्जा कर लिया था। युद्ध में भारत की अपार क्षति हुई थी। हम बुरी तरह पराजित हुए थे। हमारी सैन्य शक्ति तब नग्न हो गई थी। हमारी पोल खुल गई थी। आचार्य कृपलानी और डा. राम मनोहर लोहिया ने तब सार्वजनिक सभा में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु और रक्षा मंत्री कृष्ण मेनन की लानत-मलामत करते हुए हार के लिए प. नेहरु की लचर विदेश नीति और कमजोर रक्षा व्यवस्था को दोषी ठहराया था। आचार्य कृपलानी ने तो यहां तक कह डाला था कि जब चीनी सेना भारत पर आक्रमण की तैयारी कर रही थी, प. नेहरु हिंदी चीनी भाई-भाई की माला जप रहे थे। भारत के आयुद्ध कारखानों में बंदूकों की जगह जूते बनाए जा रहे थे। प. नेहरु उस सदमें को बर्दाश्त नहीं कर पाए। एक पराजित प्रधानमंत्री के रुप में वे इस संसार को अलविदा कह चले गए। भारत सरकार इतिहास को भूल गलती न दोहराए।
पिछले दिनों चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के मुखपत्र 'पीपुल्स डेली' में प्रकाशित एक आलेख में दलाई लामा की तवांग यात्रा को आधार बना भारत को उपर्युक्त चेतावनी दी गई है। जाहिर है कि चेतावनी चीन सरकार की आधिकारिक चेतावनी है। आलेख का स्वरूप तो चाल है। 1962 में चीन ने तवांग पर कब्जा कर लिया था। वह बोमडिला तक पहुंच गया था। बाद में उसने एकतरफा युद्ध विराम की घोषणा कर सेना वापस बुला ली थी। लगता है चीन अब किसी न किसी बहाने उन क्षेत्रों पर कब्जा करने को व्यग्र है। ध्यान रहे हाल के दिनों में सीमा पर चीनी सैन्य गतिविधियों की ओर भारतीय मीडिया ने बार-बार ध्यान आकृष्ट किया है। लेकिन भारत सरकार के सलाहकारों ने मीडिया पर चीन के साथ रिश्तों की संवेदनशीलता नहीं समझने का आरोप चस्पा डाला। यहां तक कह डाला कि मीडिया अपनी पठनीयता और टीआरपी बढ़ाने के लिए जान-बूझकर चीन के साथ विवादों को उछाल रहा है। यही नहीं भारतीय नौसेना के तत्कालीन प्रमुख एडमिरल सुरेश मेहता और नए वायु सेना प्रमुख एयर चीफ मार्शल पीवी नायक ने वक्तव्य दे डाला था कि चीनी सेना की बराबरी भारत नहीं कर सकता। आधिकारिक स्तर पर ऐसी सार्वजनिक बयानबाजी रणनीतिक व कूटनीतिक दृष्टि से अनुचित थी। ऐसे बयान सेना के साथ-साथ जनता का मनोबल गिराते हैं। खैर, चीन की ताजा चेतावनी के आलोक में अब यह जरूरी हो गया है कि भारत सीमा सुरक्षा पर कोई जोखिम न उठाए। चीनी अजगर अब फुंफकार मारने लगा है। दलाई लामा की तवांग यात्रा के पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की यात्रा पर भी चीनी सरकार ने आपत्ति दर्ज की थी। भारत की ओर से अब चीन को दो -टूक जवाब दे देना चाहिए। संख्याबल में चीन सैनिक व हथियार-उपकरण में भले ही आगे हो, मनोबल, समर्पण और कर्मठता में वह भारत का मुकाबला नहीं कर सकता। चीन यह अच्छी तरह समझ ले कि भारत अब 1962 का भारत नहीं है। हर क्षेत्र में मजबूत भारत अब किसी भी चुनौती का सामना करने में सक्षम है।

Monday, November 9, 2009

सिर्फ गुंडागर्दी नहीं, आतंक है यह

तो अब जबकि महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के मुखिया राज ठाकरे की गुंडागर्दी मुंबई की सड़कों से होती हुई महाराष्ट्र विधानसभा के अंदर सदन में पहुंच गई है, तब कानून के शासन के रखवाले क्या सोए ही रहेंगे? यह चुनौती है मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण को, प्रोटेम विधानासभा अध्यक्ष को और चुनौती है प्रदेश की पूरी जनता को। और इन सबों से उपर चुनौती है भारतीय संविधान को। और चुनौती है संविधान की संरक्षक राष्ट्रपति और भारतीय संसद को भी। देश के संसदीय इतिहास में महाराष्ट्र विधानसभा की सोमवार की घटना में एक काला अध्याय जोड़ दिया है। चूंकि ऐसा महाराष्ट्र की सरजमीं से हुआ, प्रदेश का प्रत्येक नागरिक शर्मिंदा है राज ठाकरे के गुंडों के कृत्य पर। विगत वर्ष 26 नवंबर को महाराष्ट्र शर्मिंदा हुआ था, मुंबई पर पाकिस्तानी आतंकवादियों के हमले के कारण। इससे पहले 13 दिसंबर 2001 को पूरा देश शर्मिंदा हुआ था भारतीय संसद पर पाकिस्तानी आतंकी हमलों के कारण। मैं ये उद्धरण यूं ही नहीं दे रहा हूं। 9 नवंबर 2009 की घटना उपर्युक्त दोनों घटनाओं से कहीं ज्यादा शर्मनाक और खतरनाक है। तब विदेशी आतंकवादियों ने देश पर हमला किया था। आज देसी गुंडों ने सदन के अंदर भारतीय संविधान पर हमला किया। संविधान को चुनौती देते हुए एक विधायक पर हमला किया, लात-घूसों से उसकी पिटाई की। सदन के अंदर राज भाषा और मातृभाषा को पैरों से रौंदा गया और यह सब हुआ महाराष्ट्र सरकार के गठन के बाद विधानसभा के पहले दिन मुख्यमंत्री और उनके मंत्रिमंडल के सभी सदस्यों की उपस्थिति में। प्रोटेम विधानसभा अध्यक्ष भी मौजूद थे। अब सत्तारूढ़ कांग्रेस-राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी घटना की निंदा करते हुए कार्रवाई की बातें कर रहे हैं। क्या वे बताएंगे कि जब मनसे विधायकों ने हिंदी में शपथ ले रहे सपा विधायक अबू आजमी की लात-घूंसों से पिटाई कर रहे थे, गालियां दे रहे थे, माईक को नीचे फेंक रहे थे, तब सदन के मार्शल को कार्रवाई के आदेश क्यों नहीं दिए गए? गुंडागर्दी कर रहे उन विधायकों को सदन से बाहर क्यों नहीं निकाला गया? सवाल यह भी पूछा जा रहा है कि जब राज ठाकरे ने पहले ही चेतावनी दे दी थी कि अगर अबू आजमी ने हिंदी में शपथ लिया तब मनसे विधायक उन्हें उनकी औकात बता देंगे, तब सदन के अंदर सुरक्षा के पूर्व उपाय क्यों नहीं किए गए? क्यों ठाकरे की गुंडागर्दी को मंचित होने का अवसर-समय दिया गया। निश्चय ही यह सरकार और विधानसभा सचिवालय की विफलता है। टेलीविजन के पर्दे पर गुंडागर्दी के दृश्यों को देख रहे लोग असहाय अध्यक्ष और मुख्यमंत्री को देख चकित थे। ऐसा नहीं होना चाहिए था। खैर, अब जबकि यह सब हो ही गया तब सभी कार्रवाई की प्रतीक्षा कर रहे हैं। सभी संविधान विशेषज्ञ और राजनेता एकमत हैं कि गुंडागर्दी करने वाले मनसे विधायकों और राज ठाकरे के खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई की जाए। मनसे विधायकों को पूरे कार्यकाल तक के लिए निलंबित कर दिया जाए और राज ठाकरे को गिरफ्तार किया जाए। क्या सरकार ऐसी हिम्मत दिखाएगी? मैं बता दूं कि अगर सरकार इस मुकाम पर पीछे हटती है तब आने वाले दिनों में महान महाराष्ट्र के माथे पर एक बदनुमा दाग लग जाएगा- भाषा और क्षेत्रीयता के आधार पर देश को खंडित करने का। वह दिन अत्यंत ही दु:खद होगा क्योंकि महाराष्ट्र के शांतिप्रिय नागरिक ऐसा नहीं चाहते।
(ताजा जानकारी के अनुसार मनसे के 4 विधायकों को 4 वर्ष के लिए निलंबित कर दिया गया है। साथ ही मुख्यमंत्री ने राज ठाकरे पर भी कार्रवाई के संकेत दिए।)
राज ठाकरे पर देशद्रोह का मुकदमा चले!
खैर, अब कुछ गुंडों को सजा मिली, किंतु निलंबन नाकाफी है। निलंबन से कानून और संविधान की आत्मा संतुष्ट नहीं होगी। जरुरी है कि पूरी घटना के सूत्रधार राज ठाकरे और संविधान का मर्दन करने वाले महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के विधायकों को तत्काल गिरफ्तार किया जाए। कानून की अन्य धाराओं के अलावा इन पर राष्ट्रद्रोह का मुकदमा चलाया जाए। कार्रवाई तत्काल हो, क्योंकि राज ठाकरे एवं उनके मवाली समर्थक शांत होते नहीं दिख रहे। निलंबन के बाद उनके एक विधायक के ये शब्द कि, 'हमने मनसे की भाषा में उन्हें (अबू आजमी को) सीख दे दी है', उनकी मंशा को चिन्हित करने वाला है। साफ है कि ये मानने वाले नहीं हैं। इनकी भाषा गुंडों की भाषा है और व्यवहार देशद्रोही का। राज ठाकरे ने तो पहले ही हिंदी में शपथ लेने वालों को (अंजाम) की चेतावनी दे दी थी। मराठी अस्मिता अथवा प्रेम का इनका दावा खोखला है, दिखावा है। इनका विरोध राजभाषा हिंदी से है। सदन के अंदर अनेक विधायकों ने मराठी से इतर अंग्रेजी में शपथ ली। ठाकरे के गुर्गों ने उनका विरोध नहीं किया। क्या अंग्रेजी में शपथ लेकर मराठी का मान बढ़ाया? हिंदी में शपथ लेने वाले का ही विरोध क्यों? राज ठाकरे देश को मूर्ख समझने की गलती न करें। क्योंकि मूर्ख वे स्वयं हैं। मवाली तो वे हैं ही। उन्होंने यह कहकर कि एकमात्र मराठी ही महाराष्ट्र की राजभाषा है, अपनी अज्ञानता और मूर्खता का परिचय दिया है। वे संविधान की धारा 343-352 का अध्ययन कर लें। अगर अभी तक उन्हें नहीं मालूम था तो मालूम हो जाएगा कि भारतीय संविधान में यह स्पष्टत: उल्लेखित है कि देवनागरी लिपि में लिखी जाने वाली हिंदी संघ (भारत) के प्रशासन की भाषा होगी। तब संविधान सभा के अध्यक्ष डा, राजेंद्र प्रसाद ने स्पष्ट किया था कि 'अंग्रेजी के स्थान पर हमने एक भारतीय भाषा को अपनाया है। इससे अवश्यमेव हमारे संबंध घनिष्टतर होंगे, विशेषत: इसलिए कि हमारी परंपराएं एक ही हैं, हमारी संस्कृति एक ही है और हमारी सभ्यता में सब बातें एक ही है। अतएव यदि हम इस सूत्र को स्वीकार नहीं करते तो परिणाम यह होता कि इस देश में बहुत सी भाषाओं का प्रयोग होता या वे प्रांत पृथक हो जाते जो बाध्य होकर किसी भाषा विशेष को स्वीकार करना नहीं चाहते। हमने यथासंभव बुद्धिमानी का कार्य किया है और मुझे हर्ष है, मुझे प्रसन्नता है और मुझे आशा है कि भावी संतति इसके लिए हमारी सराहना करेगी। ' राज ठाकरे इन शब्दों के अर्थ-मर्म को समझ नहीं पाएंगे। भला एक अज्ञानी जो गुंडागर्दी के मार्ग को अपनी राजनीतिक सफलता के लिए अपना लेता है, उससे देश के कानून और संविधान के प्रति सम्मान की आशा की ही कैसे जा सकती है। राज ठाकरे संविधान को नकार कर देशद्रोही की भूमिका में आ गए हैं। इनके साथ व्यवहार देशद्रोही सरीखा ही हो। तभी देशवासी संतुष्ट हो पाएंगे।

'दैनिक 1857' दिनांक 9 नवंबर 2009 का मुख पृष्ठ



अनजान चेहरों ने पीटा भारत को!

खेल है, तो इसमें जीत-हार होनी ही है। एक जीतेगा, दूसरा हारेगा। कभी पहला जीतता है, दूसरा हारता है। कभी दूसरा जीतता है, पहला हारता है। ऐसा विरले ही होता है कि फैसला एकतरफा हो। कोई एक टीम ही बराबर हर मैच जीतती रहे, ऐसा नहीं होता। मैं यहां बात क्रिकेट की कर रहा हूं। पिछले विश्वकप मुकाबले में ऐसा भी हुआ है कि सबसे कमजोर आयरलैंड ने मजबूत पाकिस्तान को हरा दिया। दूसरी ओर कमजोर बांग्लादेश ने भारत को धूल चटाकर मुकाबले से ही बाहर कर दिया। उसके बाद भारतीय टीम में आमूल-चूल परिवर्तन हुए। झारखंड के महेंद्र सिंह धोनी को कप्तानी की बागडोर सौंपी गई। धोनी के नेतृत्व में भारतीय टीम ने अनेक मैच जीत भविष्य के लिए आशा की किरणें जगाई। धोनी ने स्वयं घोषणा भी की है कि उनकी नजर 2011 के विश्वकप पर टिकी है। पिछले दिनों आईसीसी रैंकिंग में कुछ घंटों के लिए ही सही भारत नंबर एक पर पहुंच भी गया। लेकिन विश्व चैम्पियन आस्ट्रलिया ने भारत की सरजमीं पर जारी सात एकदिवसीय मैच की शृंखला में भारत को गुवाहाटी में धोबिया पछाड़ देते हुए जिस प्रकार 4-2 की अजेय बढ़त ले ली, उसने धोनी एंड कंपनी पर अनेक सवालिया निशान जड़ दिए हैं। क्यों हुआ ऐसा? जो टीम इसके पहले हैदराबाद में आस्ट्रेलिया के 350 के विशाल स्कोर का पीछा करते हुए 347 तक पहुंच गई थी, वही टीम गुवाहाटी में शुरु के 10 ओवरों में ही मात्र 27 रनों के स्कोर पर 5 विकेट कैसे गवां बैठी? विकेट भी किनके- वीरेंद्र सहवाग, गौतम गंभीर, सचिन तेंदुलकर, सुरेश रैना और युवराज सिंह के! समझ में नहीं आता कि जिस तेंदुलकर ने अभी पिछले मैच में मात्र 141 गेंदों पर 175 रन बनाए थे, वे सिर्फ 10 रन बनाकर कैसे आउट हो गए? वैसे तेंदुलकर पर अनेक पुराने ख्यातनाम खिलाड़ी आरोप लगा रहे हैं कि हैदराबाद में भी वे एक खराब शाट खेलकर आउट हो गए। धीमी जुबान में ही सही आरोप दोहराए जा रहे हैं कि तेंदुलकर सिर्फ अपने रिकार्ड के लिए ही खेलते हैं। विश्व के सर्वश्रेष्ठ महान बल्लेबाज तेंदुलकर पर ऐसे आरोप को कोई मानने को तैयार नहीं होगा। किंतु शृंखला के खेले गए अब तक 6 मैचों में तेंदुलकर द्वारा बनाए गए क्रमश: 14, 04, 32, 40, 175 और 10 रन यह तो साबित करते ही हैं कि जारी शृंखला में अन्य बल्लेबाजों की तरह उनमें भी निरंतरता का अभाव है। कुल बनाए गए 275 रनों में से हैदराबाद के 175 रनों की पारी निकाल दें, तब 5 मैचों में 20 के औसत से उन्होंने सिर्फ 100 रन ही बनाए। अन्य खिलाडिय़ों में सहवाग ने 6 मैचों में 23 की औसत से 138, युवराज 5 मैच में 25.6 की औसत से 128, सुरेश रैना 6 मैचों में 27.6 की औसत से 166, गौतम गंभीर 5 मैचों में 31.6 की औसत से 158 रन ही बना पाए हैं। धोनी ने सर्वाधिक 6 मैच में 47.5 की औसत से 285 रन बनाए। क्या बड़े नाम वाले ऐसे अनिश्चित खिलाडिय़ों वाली टीम विश्व की नंबर-1 टीम बन सकती है? भय तो यह है कि कहीं पिछले विश्वकप की तरह भारत फिर फिसड्डी बनकर न रह जाए। गुवाहाटी की हार के बाद भारतीय टीम को सुझाव दिया जा रहा है कि उसे क्रिकेट की आईसीयू में भर्ती होकर इलाज करना चाहिए। टिप्पणी कड़ी तो है किंतु बेवजह नहीं। ध्यान रहे भारत में खेल रही आस्ट्रेलिया की वर्तमान टीम उसके दूसरे दर्जे की टीम है। उसकी मूल टीम के 7 बड़े खिलाड़ी घायल होकर बाहर बैठे हैं। लगभग सभी मशहूर गेंदबाज टीम से बाहर हैं। इसके बावजूद गुवाहाटी में भारत मात्र 170 रन बना सका? इस योग में गेंदबाज जडेजा और प्रवीण द्वारा बनाए गए 111 रन शामिल हैं। हमारे बड़े नामी बल्लेबाज क्या कर रहे थे? जिस प्रकार आस्ट्रेलिया के अनजान चेहरों ने भारत को धूल चटाया वह शर्मनाक है। आस्ट्रेलियाई टीम के हीरो बने खिलाडिय़ों के नाम भी शायद ही किसी ने सुने हों। इसके बावजूद अगर भारत की हार हुई तो सिर्फ इस कारण कि दु:खद रूप से भारतीय टीम में निरंतरता के साथ-साथ समर्पण का अभाव भी देखा गया। भारत के रणनीतिकार आत्मचिंतन करें। सीमित ओवरों के मैच में निर्णायक भूमिका बल्लेबाजों को निभाना चाहिए। यह आशा करना कि गेंदबाज मैच जिताएंगे, गलत है। गेंदबाजों को दबाव में लाने की नीति कभी कारगर नहीं होती।

Sunday, November 8, 2009

सावधान ! फतवा जारी करने वालों

लगता है मुस्लिम कट्टरपंथी महान इस्लाम धर्म की पवित्रता और अल्लाह के नाम पर दाग लगाने पर आमदा हैं। ध्यान रहे वंदे मातरम् के बाद योग गुरु बाबा रामदेव के खिलाफ फतवा जारी कर इन कट्टरपंथियों ने देश के साथ-साथ इस्लाम धर्म की भी खिलाफत की है। मातृभूमि की वंदना करने वाली राष्ट्रगीत का विरोध कोई देशद्रोही ही कर सकता है। इस विरोध के साथ इस्लाम का नाम जोड़कर ये तत्व पवित्र और महान इस धर्म को अपमानित कर रहे हैं। क्या इन कट्टरपंथियों को इस बात का एहसास है? अगर नहीं और अनजाने में वे ऐसा कर रहे हैं तब समय रहते चेत जाएं। धर्मनिरपेक्ष भारत की जमीन पर हर धर्म फल-फूल रहा है। बगैर किसी भेद-भाव के भारतीय संस्कृति सभी को आत्मसात् करती आई है। धर्म के नाम पर जब कभी दुर्भावना से वशीभूत तत्वों ने सांप्रदायिक उन्माद पैदा कर समाज को बांटने के प्रयास किए हैं, तब दोनों समुदाय के लोगों ने मिल-बैठकर उनका निषेध किया है। देश के किसी भी सुदूर गांव में चले जाएं वहां हिंदू-मुस्लिम परिवारों के बीच कोई भेद-भाव नहीं मिलेगा। सांप्रदायिक सौहाद्र्र की सुखद अनुभूति कोई भी महसूस कर सकता है। ये तो दोनों संप्रदायों के कट्टरपंथी तत्व हैं जो अपना उल्लू सीधा करने के लिए धर्म के नाम पर समाज को विभाजित करने का कुत्सित प्रयास करते रहते हैं। अगर समाज में स्थायी सांप्रदायिक सौहाद्र्र को स्थापित करना है तब दोनों समुदाय के समझदार लोग मिलकर ऐसे समाज विरोधी तत्वों को सबक सीखा दें। समाजिक बहिष्कार कर दें इनका। ऐसे ही तत्व अब फतवा दे रहे हैं कि वे रामदेव बाबा के कैंप में न जाएं क्योंकि वहां कार्यक्रम की शुरुआत वंदे मातरम् से होती है। यह आपत्तिजनक ही नहीं हास्यास्पद भी है। राष्ट्रगीत राष्ट्र की सरजमीं पर नहीं तो कहां गायी जाएगी? बाबा रामदेव के योग कार्यक्रम की शुरुआत अगर वंदे मातरम् से होती है तो यह सराहनीय ही नहीं अनुकरणीय भी है। इस दिशा में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की प्रशंसा करनी होगी। उसकी इस पहल का स्वागत कि वंदे मातरम् का उर्दू अनुवाद कराकर मुस्लिम समुदाय के बीच वितरित किया जाएगा ताकि वे गीत के मर्म को अपनी भाषा में समझ सकें। संघ के पूर्व सरसंघचालक के. सी. सुदर्शन ने यह बताकर कि अल्लाह ने जो 1,24,000 पैगंबर भेजे थे संभवत: राम और कृष्ण भी उन्हीं में से थे, एक ऐसा संदेश दिया है जो धर्म के आधार पर हिंदू-मुसलमान के बीच विभाजक रेखा खींचने वाले तत्वों को मिटा कर रख देगा। सचमुच अगर मुसलमान राम और कृष्ण को अल्लाह के भेजे हुए दूत मान लें तो सारे मतभेद स्वत: समाप्त हो जाएंगे। क्योंकि तब यह स्थापित हो जाएगा कि हिंदू और मुसलमान अलग नहीं बल्कि एक ही खुदा के बंदे हैं। फिर विलंब क्यों? कट्टरपंथियों को उनकी औकात बता दें। बता दें उन्हें कि धर्म के नाम पर हिंदुस्तान का बंटवारा कराने वालों की अब नहीं चलेगी। तब कुछ राजनेताओं ने सत्ता-वासना की अपनी इच्छा पूर्ति के लिए धर्म का सहारा लिया था। उस युग का अंत हो चुका। अब का नव समाज धर्म और संप्रदाय के नाम पर विभाजित होने को कतई तैयार नहीं। फतवा देने वाले राष्ट्रविरोधी ऐसी हरकतें तत्काल बंद कर दें।

Saturday, November 7, 2009

... छोड़ चले गए प्रभाष जी


('दैनिक 1857'के दिनांक 7 नवंबर 2009 के प्रथम पृष्ठ पर प्रकाशित हुई मुख्य खबर)
दिल्ली कार्यालय
नई दिल्ली। वरिष्ठ पत्रकार प्रभाष जोशी का गुरुवार की रात निधन हो गया। वह 73 साल के थे। उनके शोक संतप्त परिवार में पत्नी , 2 पुत्र , एक पुत्री और नाती - पोते हैं। दिल का दौरा पडऩे के कारण मध्य रात्रि के आसपास गाजियाबाद की वसुंधरा कॉलोनी स्थित उनके निवास पर उनकी मृत्यु हो गई। उनकी पार्थिव देह को विमान से आज दोपहर बाद उनके गृह नगर इंदौर ले जाया जाएगा जहां उनकी इच्छा के अनुसार , नर्मदा के किनारे अंतिम संस्कार कल होगा। उनके निवास स्थान जनसत्ता सोसाइटी में हो रही चर्चाओं के मुताबिक प्रभाष जोशी भारत और ऑस्ट्रेलिया का मैच देख रहे थे। मैच के रोमांचक क्षणों में तेंडुलकर के आउट होने के बाद उन्होंने कहा कि उनकी तबियत कुछ ठीक नहीं है। इसके कुछ समय बाद उनकी तबियत अचानक ज्यादा बिगड़ गई। रात करीब 11:30 बजे जोशी को नरेंद्र मोहन अस्पताल ले जाया गया , जहां डॉक्टरों ने उन्हें मृत घोषित कर दिया। प्रभाष जोशी दैनिक जनसत्ता के संस्थापक संपादक थे। मूल रूप से इंदौर निवासी प्रभाष जोशी ने नई दुनिया से पत्रकारिता की शुरुआत की थी। मूर्धन्य पत्रकार राजेन्द्र माथुर और शरद जोशी उनके समकालीन थे। नई दुनिया के बाद वे इंडियन एक्सप्रेस से जुड़े और उन्होंने चंडीगढ़ में स्थानीय संपादक का पद संभाला।
देसज संस्कारों और सामाजिक सरोकारों के प्रति समर्पित प्रभाष जोशी सर्वोदय और गांधीवादी विचारधारा में रचे बसे थे। जब 1972 में जयप्रकाश नारायण ने मुंगावली की खुली जेल में माधो सिंह जैसे दुर्दान्त दस्युओं का आत्मसमर्पण कराया तब प्रभाष जोशी भी इस अभियान से जुड़े सेनानियों में से एक थे। बाद में दिल्ली आने पर उन्होंने 1974 - 975 में एक्सप्रेस समूह के हिन्दी साप्ताहिक का संपादन किया। आपातकाल में साप्ताहिक के बंद होने के बाद इसी समूह की पत्रिका उन्होंने निकाली। बाद में वे एक्सप्रेस के अहमदाबाद , चंडीगढ़ और दिल्ली में स्थानीय संपादक रहे।
1983 में दैनिक जनसत्ता का प्रकाशन शुरू हुआ , जिसने हिन्दी पत्रकारिता की दिशा और दशा ही बदल दी। 1995 में इस दैनिक के संपादक पद से रिटायर्ड होने के बावजूद वे एक दशक से ज्यादा समय तक बतौर संपादकीय सलाहकार इस पत्र से जुड़े रहे।
प्रभाष जोशी ने हिन्दी पत्रकारिता को नयी दशा और दिशा दी। उन्होंने सरोकारों के साथ ही शब्दों को भी आम जन की संवेदनाओं और सूचनाओं का संवाद बनाया। उनकी कलम सत्ता को सलाम करने की जगह सरोकार बताती रही और जनाकांक्षाओं पर चोट करने वालों को निशाना बनाती रही। उन्होंने संपादकीय श्रेष्ठता पर मैनिजमंट का वर्चस्व कभी नहीं होने दिया। 1995 में जनसत्ता के प्रधान संपादक पद से रिटायर होने के बाद वे कुछ साल पहले तक प्रधान सलाहकार संपादक के पद पर बने रहे। उनका साप्ताहिक कॉलम उनकी रचना संसार और शब्द संस्कार की मिसाल है।
इन दिनों वे समाचार पत्रों में चुनावी खबरें धन लेकर छापने के खिलाफ मुहिम में जुटे हुए थे। प्रभाष जोशी का लेखन इतना धारदार रहा कि उनके अनगिनत प्रशंसक और आलोचक तो हैं , पर उनके लेखन की उपेक्षा करने वाले नहीं हैं।
न कमानों को , न तलवार निकालो तोप मुकाबिल हो , तो अखबार निकालो ... यह पंक्तियां प्रभाष जोशी पर पूरी तरह से सही उतरती हैं। जहां वे 1974-75 में इमर्जंसी के खिलाफ कलम को हथियार बनाए हुए थे , वहीं जब बोफोर्स तोपों की खरीद में कथित घोटाला सामने आया तब वे तब की सरकार को हटाने के लिए जेहादी पत्रकारिता की राह पर चले।
जब इंदिरा गांधी की हत्या के बाद भड़के दंगों में सिखों का संहार हो रहा था , प्रभाष जी के नेतृत्व में अल्पसंख्यकों पर आई इस आफत का आइना बन गया। इसी तरह 6 दिसंबर 1992 को बाबरी ढांचे के विध्वंस के बाद प्रभाष जी ने मंदिर आंदोलन के संचालकों के खिलाफ एक तरीके से कलम विद्रोह कर डाला। परन्तु ऐसा करते समय वे अपना पत्रकारी धर्म नहीं भूले। जहां वे अपने लेखों में अभियानी तेवर के तीखेपन से ढांचा ढहाने के कथित दोषियों के दंभ पर वार करते रहे , वहीं समाचारों में तटस्थता के पत्रकारी कर्म को भी उन्होंने बनाए रखा।
उन्होंने अपने संपादकीय सहकर्मियों की बैठक बुला कर कहा कि वे जो लिखते हैं , उससे प्रभावित होने की जगह समाचारों में निष्पक्ष और तटस्थ रहने की आवश्यकता है।
करीब आधा दर्जन से अधिक पुस्तकों के लेखक प्रभाष जोशी में अपने सहयोगियों के प्रति एक सहज अपनापन रहा। वे उनके दुख और सुख में हमेशा साथ रहते। उनके अभियानी लेखन के आलोचक भी इस सच्चाई को भुला नहीं सकते कि उन्होंने हिन्दी पत्रकारिता को प्रेस रिलीज और कलिष्ट भाषा के दौर से निकाला और हिन्दी पत्रकारिता को सम्मानजनक स्थान दिलवाया।
जहां आम संपादक अपने अखबार के लिए जाने माने पत्रकारों को बुला कर नौकरी देते , वहीं प्रभाष जोशी ने शुरू से ही अनजाने पत्रकारों को प्रतिभा की कसौटी पर कसा और उन्हें मौका दिया , जो आने वाले समय में भी हिन्दी पत्रकारिता में उनके दिए संस्कारों और सरोकारों की सुगंध फैला कर यह साबित करते रहेंगे कि प्रभाष जोशी की देह भले ही नहीं रही हो, उनका रचना संसार अमर है।

प्रभाष जोशी- एक युग का अवसान


'दैनिक 1857' के दिनांक 7 नवंबर के अंक में आलोक तोमर के दैनिक स्तंभ में प्रकाशित आलेख


गुरुवार की रात और रातों जैसी नहीं थी। इस रात जो हुआ उसके बाद आने वाली कोई भी रात अब वैसे नहीं हो पाएगी। रात एक बजे के कुछ बाद फोन बजा और दूसरी ओर से एक मित्र ने कहा, बल्कि पूछा कि प्रभाष जी के बारे में पता है। आम तौर पर इस तरह के सवाल रात के इतनी देर में जिस मकसद से किए जाते हैं वह जाहिर होता है। मित्र ने कहा कि प्रभाष जी को दिल का दौरा पड़ा और वे नहीं रहे।
काफी देर तो यह बात मन में समाने में लग गई कि प्रभाष जी अतीत हो गए हैं। अभी तीन दिन पहले तो उन्हें स्टूडियो में बुलाने के लिए फोन किया था तो पता चला था कि वे पटना जा रहे हैं- जसवंत सिंह की किताब का उर्दू संस्करण लोकार्पित करने। पटना से वे कार से वाराणसी आए और कृष्णमूर्ति फाउंडेशन में रूके। वहां से हमारे मित्र और मूलत: वाराणसी वासी हेमंत शर्मा को फोन किया और कहा कि गेस्ट हाउस में अच्छा नहीं लग रहा। हेमंत ने गाड़ी भेज कर उन्हेंं घर बुला लिया। घर पर उन्हें इतना अच्छा लगा कि एक दिन और रूक गए। इसके बाद लखनऊ मे गोष्ठी थी। हिंद स्वराज को ले कर उसमें भी गोविंदाचार्य के साथ कार से गए। वहां से जहाज से दिल्ली लौटे थे और बहुत थके हुए थे।
मेरे गुरु प्रभाष जोशी क्रिकेट के दीवाने थे। इतने दीवाने की क्रिकेट के महापंडित भी कहते थे कि अगर पेशेवर क्रिकेट खेलते तो भारत की टीम तक जरूर पहुंच जाते। क्रिकेट का कोई महत्वपूर्ण मैच चल रहा हो तो प्रभाष जोशी को फोन करना अपनी आफत बुलाने जैसा था। गुरुवार की रात भी क्रिकेट का मैच ही था और भारत आस्ट्रेलिया से सीरीज छीनने के लिए खेल रहा था। सचिन तेंदुलकर ने वनडे क्रिकेटमें 17000 रन का रिकॉर्ड बना लिया था और प्रभाष जी उत्साहित थे मगर तभी विकेट गिरने शुरू हो गए और भारत हार की ओर बढऩे लगा। प्रभाष जी बेचैन हुए। ब्लड प्रेशर की गोली खाई। टीम हार गई तो बेचैनी और बढ़ी और आखिरकार और दवाई लेने से भी लाभ नहीं हुआ तो बेटा संदीप उन्हें पास में गाजियाबाद के नरेंद्र देव अस्पताल में ले गया। मगर वहां तक पहुंचते पहुंचते काया शांत हो चुकी थी। प्रभाष जी के प्रिय कुमार गंधर्व के गाए निगुर्णी भजन से शब्द उधार लें तो हंस अकेला उड़ गया था। प्रभाष जी के सारे प्रिय जन एक-एक कर के संसार से जा रहे थे और प्रभाष जी हर बार उन पर रूला देने वाला लेख लिखते थे। सिर्फ एक बार रामनाथ गोयनका के निधन पर उनका लेख नहीं आया और जब पूछा तो उन्होंने कहा कि मेरे मन में अब तक समाया नहीं हैं कि आरएमजी नहीं रहे। उनके हर लेख में एक तरह का आत्मधिक्कार होता था कि सब जा रहे हैं तो मैं क्यों जिंदा हूं। बार बार यह पढ़ कर जब आपत्ति का एक पत्र लिखा तो उन्होंने बाकायदा कागद कारे नाम के अपने कॉलम में इसका जवाब दिया और कहा कि राजेंद्र माथुर, राहुल बारपुते, शरद जोशी, कुमार गंधर्व और सगे छोटे भाई की मौत में मुझे अपना एक हिस्सा मरता दिखता है और जो प्रतीत होता है वही मैं लिखता हूं। प्रभाष जी के कई चेहरे थे। एक क्रिकेट को भीतर से बाहर से जानने वाला और कपिल देव को देवीलाल से पहली बार दो लाख रुपए का इनाम दिलवाने वाला, कपिल, सचिन, अजहर, गावस्कर, बिशन सिंह बेदी से दोस्ती के बावजूद रणजी और काउंटी खेल चुके बेटे संदीप को भारत की टीम में शामिल करने की सिफारिश नहीं करने वाला, एक्सप्रेस समूह की प्रधान संपादकी ठुकरा कर जनसत्ता निकालने वाला, जनसत्ता को समकालीन पत्रकारिता का चमत्कार बना देने वाला, सरोकारों के लिए लडऩे वाला, अटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवाणी से दोस्ती के बावजूद उनकी धर्म ध्वजा छीनने वाला, कुमार गंधर्व के भजनों में डूबने वाला, अपने हाथ से दाल बाफले बना कर दावत देने वाला, पूरे देश में घूम कर पत्रकारिता में आई खोटों के खिलाफ अलख जगाने वाला, जय प्रकाश आंदोलन में शामिल होने वाला और उसके भी पहले बिनोवा भावे के भूदान आंदोलन में घूम-घूम कर रिपोर्टिंग करने वाला, हाई स्कूल के बाद पढ़ाई बंद करने के बावजूद लंदन के एक बड़े अखबार में काम करने वाला, धोती कुर्ता से ले कर तीन पीस का सूट पहन कर खाटी ब्रिटिश उच्चारण में अंग्रेजी और शुद्व संस्कृत में गीता के श्लोक समझाने वाला, प्रधान संपादक होते हुए डेस्क पर सब एडिटर बन कर बैठ जाने वाला, अनवरत यात्रा करने वाला, एक्सप्रेस समूह के मालिक को पत्रकारिता की आचार संहिता याद दिलाने वाला और सबसे अलग घर परिवार वाला एक चेहरा जिसमें यह भी शामिल है कि मेरे लिए लड़की मांगने लड़की वालोंं के घर वे पत्नी के साथ मिठाई का डिब्बा ले कर खुद पहुंचे थे।
प्रभाष जी के बारे में बहुत कुछ लिखा गया है और बहुत कुछ खुद उन्होंने लिखा है। लेकिन आदि सत्य यह है कि हिंदी पत्रकारिता के ऋ षि कुल के वे आखिरी संपादक थे। संपादक और सफल संपादक अब भी हैं मगर अब प्रभाष जोशी कोई नहीं है। प्रभाष जी की मां अभी हैं और कल्पना कर के कलेजा दहलता है कि अपने यशस्वी बेटे की देह को वे देखेंगी तो कैसा लगेगा? याद आता है कि कागद कारे कॉलम कभी स्थगित नहीं हुआ। याद यह भी आता है कि बांबे हास्पिटल में ऑपरेशन के बाद प्रभाष जी इंटेसिव केयर यूनिट से बाहर आए थे और डॉक्टरों के लाख विरोध के बावजूद बोल कर मुझसे अपना कॉलम लिखवाया था। उस कॉलम में उन्होंने निराला की पंक्ति लिखवाई थी- अभी न होगा मेरा अंत। आज वह पंक्ति याद आ रही है। प्रभाष जी का जाना एक युग का अवसान है। एक ऐसा युग जहां सरोकार पहले आते थे और बाकी सब बाद में। उनके सिखाए पत्रकारों की एक पूरी पीढ़ी हैं और बड़े बड़े पदों पर बैठी हंै। उनमें से ज्यादातर को प्रभाष जी के दीक्षा में मिले संस्कार और सरोकार याद हैं। तिहत्तर साल की उम्र बहुत होती है लेकिन बहुत ज्यादा भी नहीं होती। प्रभाष जी कहते थे कि वे गांधीवाद पर एक किताब लिखना चाहते हैं और एक और किताब भारत की समकालीन राजनीति के विरोधाभासों पर लिखना चाहते हैं। काल ने उन्हें इसका अवसर नहीं दिया। लिखना प्रभाष जी का शौक नहीं था। शानदार हिंदी और शानदार अंग्रेजी लिखने वाले प्रभाष जी ने सरोकारों की पत्रकारिता की और कई बार ऐसा भी हुआ कि सरोकार आगे चले गए और पत्रकारिता पीछे रह गई। जनसत्ता के प्रभाव के कम होने की एक वजह यह भी थी कि प्रभाष जोशी का ज्यादातर समय विश्वनाथ प्रताप सिंह की तथाकथित गैर कांग्रेसी सरकार बनाने में लग रहा था और वे कभी देवीलाल तो कभी चंद्रशेखर तो कभी अटल बिहारी वाजपेयी को साधने में जुटे हुए थे। प्रभाष जी जैसा अब कोई नहीं है। ईश्वर करे कि मेरा यह विश्वास गलत हो कि उन जैसा कोई और नहीं होगा। लेकिन प्रभाष जोशी बनने के लिए कलेजा चाहिए। घर फूंक कर निकलने की हिम्मत चाहिए। जो सच है उस पर अड़े रहने की जिद चाहिए। इससे भी बड़ी बात यह है कि प्रभाष जी ने हिंदी पत्रकारिता को भाषा के जो संस्कार दिए, एक नया व्याकरण दिया और सबसे आगे बढ़ कर पत्रकारिता की प्रतिष्ठा से कोई समझौता नहीं होने दिया। वैसा करने वाला फिलहाल कोई नजर नहीं आता। बहुत पहले प्रभाष जी के साठ साल पूरे होने पर राहुल देव और मैंने एक किताब संपादित की थी और उसके आखिरी वाक्य से यहां विराम देना चाहूंगा। मैंने लिखा था कि प्रभाष जी समुद्र थे और उन्होंने खुल कर रत्न बांटे मगर मैं ही अंजूरी बटोर कर उन्हें समेट नहीं पाया।

राज? नहीं! तो फिर शिवराज??

मुझे दुख तो हुआ ही, आश्चर्य अधिक कि मध्यप्रदेश के शिष्ट-शालीन मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान राज ठाकरे की राह पर कैसे चल पड़े? क्या देश लालू यादव के शब्दों पर विश्वास कर यह मान लें कि राज की तरह शिवराज भी अपना मानसिक संतुलन खो बैठे हैं? मैं बार-बार यह दोहराता रहा हूं कि क्षेत्रीयता का जहर साम्प्रदायिकता के जहर से कहीं अधिक घातक होता है। संक्रामक रोग है यह। तभी तो यह महाराष्ट्र से फैलता हुआ मध्यप्रदेश पहुंच गया। शिवराज ने सतना की एक सभा में कह डाला कि मध्यप्रदेश में उत्तर प्रदेश और बिहार के मजदूर नहीं चलेंगे। उन्हें निकाल बाहर किया जाएगा। मध्य प्रदेश में सिर्फ स्थानीय को नौकरी दी जाएगी। राष्ट्र से पृथक घोर क्षेत्रीयता से ओत-प्रोत शिवराज सिंह चौहान के शब्दों की उसी तर्ज पर भत्र्सना होगी जिस तर्ज पर महाराष्ट्र के राज ठाकरे के शब्दों की होती रही है। शिवराजजी! राज ठाकरे को मीडिया भारतीय राजनीति का सबसे बड़ा मवाली निरूपित कर चुका है। राज की राह पर चलकर आप अपने खाते में क्या डालना चाह रहे हैं? राष्ट्रीयता के पक्ष में पूर्णत: समर्पित भारतीय जनता पार्टी शासित मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे व्यक्ति के मुख से संक्रामक क्षेत्रीयता की बातें देश स्वीकार नहीं कर सकता। शिवराज ने पता नहीं किस जुनून में ऐसे आपत्तिजनक राष्ट्रविरोधी शब्द उगल डाले। उनकी तरफ से सफाई तो आई है किन्तु पूरे देश ने टेलीविजन पर उन्हें उत्तर प्रदेश और बिहार के मजदूरों के खिलाफ बोलते देखा-सुना है। साफ है कि उनकी बातों के खिलाफ पूरे देश में हुई तीखी प्रतिक्रिया से वे सहम गए। कांग्रेस पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल अध्यक्ष लालूप्रसाद यादव, बिहार के मुख्यमंत्री नितीश कुमार, लोक जनशक्ति पार्टी के अध्यक्ष रामविलास पासवान और उत्तर प्रदेश कांग्रेस की अध्यक्ष रीता बहुगुणा ने चौहान को मुख्यमंत्री पद से हटाने और देश से क्षमा मांगने की बिल्कुल सही मांग की है। एक संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति ने घोर असंवैधानिक वक्तव्य देकर स्वयं अपनी पार्टी को कटघरे में खड़ा कर दिया है। भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ता प्रकाश जावडेकर ने पूरे मामले को 'एक बड़ी गलतफहमी' बताकर पार्टी को बचाने की कोशिश की है। क्या शिवराज सिंह चौहान के पाश्र्व को देखते हुए एक बार उन्हें संदेह का लाभ दे दिया जाना चाहिए? मैं इस पक्ष में हूं। शर्त यह कि शिवराज सिंह चौहान स्वयं स्थिति साफ करते हुए देश से माफी मांग लें। देश, संविधान और उनकी भारतीय जनता पार्टी के हित में यही होगा।

Friday, November 6, 2009

दो संरक्षक नेताओं को 1000 करोड़ का चढ़ावा दिया था कोड़ा ने

('दैनिक 1857'के दिनांक 6 नवंबर 2009 के प्रथम पृष्ठ पर प्रकाशित हुई मुख्य खबर)
नईदिल्ली। झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोड़ा के यहां छापे में खूब माल मिल रहा है। 4000 करोड़ रूपये की काली कमाई का अनुमान लगाया जा रहा है। मधुकोड़ा निर्दलीय थे और केन्द्र में यूपीए-1 की सरकार थी, जिसमें लालू का बहुत प्रभाव था। उन्होने कांग्रेस की अध्यक्ष सोनिया गांधी और उनके एक सलाहकार को समझाकर मधु कोड़ा को उस समय झारखंड का मुख्यमंत्री बनवा दिया। राज्य में लालू की पार्टी राजद, कांग्रेस तथा झामुमो ने समर्थन देकर कोड़ाको मुख्यमंत्री बनवाया। भाजपा को रोकने के लिए निर्दलीय कोड़ा को मुख्यमंत्री बनाया गया था। मुख्यमंत्री बनने के बाद लगभग दो साल में कोड़ाने जितनी काली कमाई किया वह आज सबके सामने है। कहा जाता है कि कोड़ा ने मुख्यमंत्री बने रहने के लिए अपने दो संरक्षक नेताओं को एक साल में लगभग 1000 करोड़ रूपए चढ़ावा चढ़ाया था। चर्चा है कि उनमें से एक, कांग्रेस का एक महासचिव और दूसरा बिहार की एक पार्टी का प्रमुख है। सूत्रों के मुताबिक यदि कोड़ा एक छोटे से राज्य का लगभग 2 साल मुख्यमंत्री रहते इतना कालाधन बना सकते हैं तो बड़े राज्यों में जो 5 साल से मुख्यमंत्री हैं या रहे हैं वे कितना कालाधन कमाए होंगे, यदि कर्नाटक, आन्ध्र प्रदेश, हरियाणा ,उ.प्र., महाराष्ट्र, तमिलनाडु, मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में बीते 10 साल में जो भी मुख्यमंत्री रहे हैं उनका मुख्यमंत्री बनने के पहले और उसके बाद का आमदनी का स्रोत का पता लगाया जायगा तो उनमें से कुछ के यहां मधु कोड़ा से 10 गुना तक काला धन निकल सकता है। खुफिया सूत्रों का कहना है कि कोड़ा तो एक छोटे से नजीर हैं। बड़े-बड़े मगरमच्छों पर तो कोई हाथ ही नहीं डाल रहा है। हाथ डालने पर सरकार गिर जाएगी। कुछ लोगों का कहना है कि कोड़ा के यहां छापे तो इस लिए मारे जा रहे हैं कि वह झारखंड विधान सभा चुनाव में 81 में से 50 से 55 सीटो पर प्रत्याशी खड़े नहीं करें। ऐसा करके वह फिर 10 से पन्द्रह सीटों पर निर्दलियों व अपने लोगों को जीता कर फिर समर्थन के बदले मुख्यमंत्री बनने की मांग करेंगे। कांग्रेस की इस बार योजना हर हालत में झारखंड में अपनी सरकार बनाने की है, जसमें सबसे बड़े रोड़ा मधु कोड़ा को किनारे लगाया जा रहा है। सूत्रों के मुताबिक कोड़ा की योजना इस चुनाव में 50 सीटों पर लगभग 200 करोड़ रूपये खर्च करने की थी । उनके यहां छापा पडऩे और सम्पत्ति जब्त करने की कार्रवाई करने से कोड़ा और उनके जैसे झारखंडी नेता अपनी जान बचाने के उपक्रम में लग गए हैं। यदि कोड़ा किसी बड़ी पार्टी के होते तो न तो केन्द्र सरकार, नहीं जांच एजेंसियां उनको हाथ लगाती। 60 हजार करोड़ रूपए के टेलीफोन घोटाले के आरोपी ए. राजा डंके की चोट पर यूपीए-2 सरकार में फिर से दूरसंचार मंत्री बने हुए हैं। कांग्रेस या प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह में हिम्मत हो तो उनके खिलाफ सी.बी.आई. जांच करा दें। सरकार गिर जाएगी। प्रसिद्ध समाजसेवी अन्ना हजारे की संस्था से जुड़े कुछ लोगों का कहना है कि यदि मनमोहन सरकार ईमानदारी से मधु कोड़ा जैसों की असलियत उजागर करना चाहती है तो कांग्रेस-गैर कांग्रेस शासित कई राज्यों के मुख्यमंत्रियों व उनके परिजनों की बीते 6 साल में बढ़ी सम्पति, देश के लगभग 100 प्रमुख नौकरशाहों की सम्पत्ति, बिल्डरों की सम्पति, खुफिया एजेंसियों के कुछ आला अफसरों की सम्पत्ति की जांच करा दें। पता चल जाएगा कि मधु कोड़ा उनमें कईयों के सामने कुछ नहीं हैं। अन्ना हजारे के लोगों का कहना है कि सरकार कांग्रेस के एक महासचिव की बीते 6 साल में बढ़ी सम्पत्ति की जांच करा ले, उसके पुत्र के धंधे का पता लगा ले, पता चल जाएगा कि कौन क्या है। अन्ना के लोगों का कहना कि यह सरकार कितनी ईमानदार है इसका उदाहरण इतालवी दलाल क्वात्रोकी वाला मामला है। क्वात्रोकी को किस तरह दलाली के केस से मुक्त कराने, उसे पाक-साफ घोषित कराने का उपक्रम इसी मनमोहन की यूपीए सरकार ने की है, यह इस सरकार का असली चेहरा उजागर करने के लिए काफी है। कोड़ा वाला मामला पीक एंड चूज वाला मामला है। जो इस तरह के भ्रष्ट सभी नेताओं ,नैकरशाहों,बिल्डरों,उद्योगपतियों,अफसरों, माफियाओं के खिलाफ होनी चाहिए।
कृपाशंकर ने कोड़ा से संपर्कों को नकारा
महाराष्ट्र कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और मुंबई क्षेत्रीय कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष कृपाशंकर सिंह ने पार्टी नेतृत्व को सफाई दी है कि मधु कोड़ा से उनका कोई लेना-देना नहीं है। उन्होंने कहा कि कोड़ा के व्यावसायिक मामलों से उनका दूर-दूर तक कोई सरोकार नहीं है। कांग्रेस के पर्यवेक्षक के तौर पर झारखंड में उनकी भूमिका रही थी, जब कोड़ा को संप्रग की ओर से मुख्यमंत्री बनाया गया था। सियासत की वजह से कोड़ा को वह जरूर जानते हैं लेकिन उनके किसी तरह के काम धंधे से परोक्ष या प्रत्यक्ष संबंध नहीं। मुंबई कांग्रेस के अध्यक्ष ने इशारों में ही संकेत दिया कि पार्टी के भीतर के ही कुछ लोग उनके राजनीतिक प्रभाव पर सवाल उठाने के अभियान में लगे हैं।
स्विस बैंक में कोड़ा का खाता
आयकर विभाग ने गुरुवार को ऐसे दस्तावेज मिलने का दावा किया जिसके अनुसार मधु कोड़ा और उनके सहयोगियों ने कथित तौर पर स्विस बैंकों में बड़ी मात्रा में धन जमा करा रखा है।
कृपाशंकर के पास दो पैन नंबर!
मुंबई कांग्रेस के अध्यक्ष और अशोक चव्हाण मंत्रिमंडल में मंत्री पद के प्रमुख दावेदार कृपाशंकर सिंह के लिए यह बुरी खबर हो सकती है। चुनाव आयोग की वेबसाइट पर प्रकाशित सिंह के हलफनामे के अनुसार 2004 में पैन नंबर एवीएपीएस 1485 एल है जबकि 2009 में उन्होंने अपना पैन नंबर सीएफवाईपीएस 989 पी बताया है। इस खुलासे के बाद वे समस्याओं से घिर सकते हैं कि उन्होंने 2004 और 2009 विधानसभा चुनावों में जमा किए गए हलफनामे में अलग-अलग पैनकार्ड के नंबरों का उल्लेख किया है। आयकर सूत्रों के अनुसार किसी व्यक्ति के पैन नंबर में परिवर्तन नहीं हो सकता। अगर यह साबित होता है कि उन्होंने जानबूझकर आयकर कानून का उल्लंघन किया है तो उनके खिलाफ मामला चल सकता है। विभाग की गलती से किसी व्यक्ति को दो पैन नंबर जारी होते हैं तो एक नंबर लौटाना होता है।

गठबंधन राजनीति का एक घिनौना चेहरा!

मधु कोड़ा... मधु कोड़ा... मधु कोड़ा!!! आज यह नाम भ्रष्टाचार के पर्याय के रूप में चारों तरफ गुंजायमान है। क्या मधु कोड़ा सत्ता के भ्रष्ट घिनौने भारतीय राजनीति का एकल विद्रूप चेहरा है? मधु कोड़ा को स्थापित करने वाले और इस मुकाम तक पहुंचाने वाले हाथ चेहरे कौन हैं, कहां हैं? एक निर्दलीय विधायक को मुख्यमंत्री पद की कुर्सी क्यों भेंट में दे दी गई थी? क्या सिर्फ इसलिए नहीं कि भारतीय जनता पार्टी को झारखंड की सत्ता से दूर रखा जा सके। यह राजनीतिक मूल्यों का कौन-सा अंश है कि एक दल विशेष को सत्ता से दूर रखने के लिए छह निर्दलीय विधायकों के गुट के मुखिया को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठा दिया गया। सत्ता की राजनीति में अपरिपक्व किन्तु अस्थायी समीकरण की कीमत का ज्ञाता युवा मधु कोड़ा को अपने समर्थकों के इतिहास की जानकारी थी। उन्होंने झारखंड का दोहन किया और खूब किया। उपलब्ध खबरों की मानें तो सैंकड़ों-हजारों करोड़ अर्जित किए गए सिर्फ दो वर्ष के अंदर। भ्रष्टाचार हुआ- अवैध कमाई का अंबार खड़ा हुआ-यह निर्विवाद है। विचारणीय यह है कि इस भ्रष्टाचार के पनाले में शामिल या फिर सहयोगी चेहरों को बेनकाब क्यों नहीं किया जा रहा? जिन लोगों के समर्थन के बल पर मधु कोड़ा दो वर्ष तक मुख्यमंत्री बने रहे- कथित रूप से अवैध कमाई करते रहे-क्या वे कोड़ा की गतिविधियों से अंजान थे। यह संभव नहीं है। खबरें आ रही हैं कि मधु कोड़ा उन लोगों को भी 'चढ़ावा' देते थे। झारखंड की राजधानी रांची गवाह है कि स्थानीय स्तर पर समर्थक कांग्रेस दल मधु कोड़ा के मुख्यमंत्री पद पर कायम रहने का विरोधी था। बावजूद इसके केंद्रीय नेतृत्व का वरदहस्त कोड़ा के सिर पर क्यों बना रहा? तब झारखंड अगर लूटा जा रहा था तो निश्चय ही सत्ता के केंद्रीय नेतृत्व के सहयोग-समर्थन से। फिर अकेले मधु कोड़ा के खिलाफ ही कार्रवाई क्यों? कहा जा रहा है कि झारखंड विधानसभा चुनाव में मधु कोड़ा एवं उनके सहयोगियों को बाहर रखने के लिए एक योजना के तहत कार्रवाई की जा रही है। क्या सचमुच यह एक 'राजनीतिक कार्रवाई' है? अगर इस आरोप में सचाई है तो यह गलत है। उपलब्ध प्रमाण मधु कोड़ा को
कटघरे में खड़ा कर रहे हैं। उनके खिलाफ कार्रवाई हो और जरूर हो, किंतु सहयोगियों को भी नहीं बख्शा जाए। इस बात की जांच हो कि मधु कोड़ा को मुख्यमंत्री बनाए रखने वाले लोग कोड़ा की 'गंगोत्री' से कितने लाभान्वित हुए। भारत की ताजा तालमेल अथवा गठबंधन की राजनीति का यह एक घिनौना चेहरा है। इससे निजात जरूरी है। केंद्र का कांग्रेस नेतृत्व 1989 के लोकसभा चुनाव परिणाम को याद करे, कांग्रेस को तब बहुमत तो नहीं मिला था किंतु सदन में सब से बड़ी पार्टी के रूप में उभरी थी। परंतु, राजीव गांधी ने परिणाम को पार्टी के खिलाफ जनादेश निरूपित करते हुए राष्ट्रपति द्वारा आमंत्रित किए जाने के बावजूद सरकार गठन से इंकार कर दिया था। निश्चय ही तब राजीव गांधी ने संसदीय लोकतंत्र में एक आदर्श स्थापित किया था। खेद है, आज सत्ता के लिए बेमेल गठबंधन किए जा रहे हैं। मधु कोड़ा के रूप में दुष्परिणाम सामने है।

Thursday, November 5, 2009

वंदेमातरम् पर फतवा खतरनाक!

देवबंद के जमीयत-ए-उलेमा-ए-हिंद अपने एक सम्मेलन में फतवा जारी करता है कि मुस्लिम समुदाय देश के राष्ट्रगीत वंदेमातरम् का गान न करे। तर्क यह दिया गया कि इस्लाम में अल्लाह के सिवा किसी और के आगे सजदा करना मना है। वंदेमातरम में देश के लिए सजदा गाया गया है। उसी सम्मेलन में देश के गृहमंत्री पी. चिदंबरम अयोध्या में विवादित ढांचे के कथित विध्वंस को धार्मिक उन्माद और पूर्वाग्रह से ग्रस्त बताते हैं। देश के लिए अल्पसंख्यकों की उपेक्षा को खतरनाक घोषित करते हैं। राष्ट्र का आह्वान करते हैं कि अल्पसंख्यकों की रक्षा की जवाबदारी बहुसंख्यक ले लें। अर्थात भारत के गृहमंत्री बहुसंख्यक हिंदू और अल्पसंख्यक मुसलमान के बीच विभाजक रेखा को कायम रखना चाहते हैं। फिर वंदेमातरम् के खिलाफ जारी फतवे पर आश्चर्य क्यों?
जब-जब इस देश में मुस्लिम तुष्टिकरण की प्रक्रिया तेज हुई है, सरकार पर- समाज पर वे दबाव बढ़ा देते हैं। मुस्लिम कट्टरपंथी शासन प्रदत्त इस हथियार का उपयोग आजादी के बाद से लगातार करते आए हैं। सामान्यत: शांत मुस्लिम समुदाय बेचारा इन कट्टरपंथियों का अनायास शिकार हो जाता है। पिछले दिनों लोकसभा और कुछ अन्य विधानसभाओं के चुनाव में एक योजना के तहत कतिपय राजनीतिक बिखर-बंट चुके मुस्लिम वोट बैंक को पुन: एकत्रित कर अपने पक्ष में करने में सफल रहे थे। मुस्लिम कट्टरपंथी भला 'मेहनताना' वसूलने में पीछे क्यों रहते? सत्ता की कमजोर नब्ज से ये भलीभांति वाकिफ हैं। समाज में सांप्रदायिक तनाव कायम रखने को ही ये तत्व अपना सुरक्षा कवच मानते हैं। अपने लिए भरपूर सुख-सुविधा का माध्यम इसे मानते हैं ये लोग। फिर क्या आश्चर्य कि देवबंद के जमीयत-ए-उलेमा-ए-हिंद ने फतवा जारी कर दिया कि मुस्लिम समुदाय वंदेमातरम् गीत न गाए। केंद्र में गठित नई सरकार पर दबाव का यह नुस्खा कितना कारगर साबित होगा, यह तो भविष्य बताएगा। पर आज जो स्पष्टत: दृष्टिगोचर है वह यह कि समाज में तनाव बढ़ेगा और सरकार इसके खिलाफ कोई निर्णायक कदम नहीं उठा पाएगी। देवबंद के जिस सम्मेलन में यह फतवा जारी किया गया, उसमें मौजूद केंद्रीय गृहमंत्री पी. चिदंबरम के 'मौन' ने अनेक प्रश्न खड़े कर दिए हैं। हालांकि, मामले के तूल पकडऩे पर सरकार की ओर से कहा गया कि गृह मंत्री को फतवा जारी करने संबंधी प्रस्ताव की जानकारी नहीं थी, और यह कि चिदंबरम ने लिखित भाषण पढ़ा था इसलिए वे और कुछ नहीं कह पाए। क्या यह सफाई किसी के गले उतर सकती है? कदापि नहीं। जब फतवा संबंधी प्रस्ताव सम्मेलन में पारित हो रहा था, गृहमंत्री वहां मौजूद थे। हिंदी और उर्दू जुबान की जानकारी है उन्हें। फतवे की जानकारी अवश्य हुई होगी। कहीं ऐसा तो नहीं कि अल्पसंख्य तुष्टिकरण की नीति पर चलने वाली सरकार का यह नुमाइंदा सम्मेलन में जानबूझकर खामोश रहा? संभावना इस आशंका की अधिक है। फिर से इकट्ठे वोट बैंक के बिखरने का जोखिम चिदंबरम नहीं उठाना चाहते थे। देश के गृहमंत्री के रूप में चिदंबरम की यह एक बड़ी विफलता है। उन्हें आपत्ति प्रकट करनी चाहिए थी, प्रतिवाद करना चाहिए था। देवबंद के सम्मेलन में पारित यह प्रस्ताव कि इस्लाम में सिर्फ खुदा के सामने सिर झुकाया जाता है, इसलिए मुसलमान यह गीत न गाए, निंदनीय है। वंदेमातरम् भारत माता की वंदना है। वह भारत माता जिसकी संतान यहां रहने वाले सभी हिंदू, मुस्लिम, सिख, इसाई आदि-आदि हैं। भला किसी को अपनी माता की वंदना से रोका कैसे जा सकता है? खुदा भी इसकी मंजूरी नहीं देंगे। जाहिर है कि देवबंद सम्मेलन से जारी फतवा समाज में सांप्रदायिक व धार्मिक विद्वेष फैलाने का प्रयास है। क्या सरकार इसके खिलाफ कदम उठाएगी? देश के बहुलवादी चरित्र को उसकी ताकत निरूपित करने वाले गृहमंत्री चिदंबरम से देश यह भी जानना चाहेगा कि सम्मेलन में उन्होंने अयोध्या में विवादित ढांचे के कथित विध्वंस का पुराना मुद्दा क्यों उठाया? सम्मेलन में मौजूद मुस्लिमों और देश को वे क्या संदेश देना चाहते थे? गृहमंत्री यह न भूलें कि अल्पसंख्यंकों की उपेक्षा अगर खतरनाक है तो तुष्टिकरण खतरनाक सांप्रदायिक प्रवृत्ति का पोषक है। बेहतर हो, कम से कम सरकारी स्तर पर हिंदू, मुसलमान के बीच भेदभाव को हवा न दी जाए। जरूरी यह भी है कि सम्मेलन में केंद्रीय गृहमंत्री की मौजूदगी के कारण उत्पन्न यह भ्रम कि फतवे को वैधानिकता मिल गई है, सरकार अपनी स्थिति स्पष्ट करे। कोई यह न भूले कि मुट्ठीभर कट्टरपंथियों को छोड़ देश का हर हिन्दू-मुसलमान सांप्रदायिक सौहाद्र्र के साथ शांति की जिंदगी व्यतीत करना चाहता है।