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Friday, November 27, 2009

पहले 'अच्छा शासन' तो दें !

इस विचार को कोई चुनौती नहीं कि न्यायपालिका अच्छे शासन का विकल्प नहीं है। किंतु जब हर मोर्चे पर, हर क्षेत्र में शासन विफल नजर आए, तब क्या किया जाए? वर्तमान का सच यही है कि समाज के हर कोने में शासन पिछड़ा क्या, लुप्त है। ऐसा क्यों है कि किसी को बिजली चाहिए, पानी चाहिए, कालेज में दाखिला चाहिए, गांव-मुहल्ले में सड़क चाहिए, जीवन के लिए तत्काल चिकित्सा चाहिए, नौकरी से सेवानिवृति के बाद पेंशन चाहिए, पक्षपात विहीन सरकारी नौकरी चाहिए, प्रोन्नति चाहिए, आवश्यक सुरक्षा चाहिए या फिर न्याय संगत आरक्षण आदि चाहिए, तो लोगों को न्यायपालिका के दरवाजे पर दस्तक देनी पड़ती है? लोगों की ऐसी मजबूरी का कारण निश्चय ही शासन की हर मोर्चे पर विफलता है। और तो और अनेक ऐसे मौके आए हैं जब कुछ राज्यों में कानून-व्यवस्था के धराशायी हो जाने पर उन्हें चेतावनी देने पर न्यायपालिका मजबूर हुई है। शासन में उच्च स्तर पर व्याप्त भ्रष्टाचार पर क्रोधित न्यायपालिका की चेतावनियां अब बड़ी खबर नहीं बनतीं। क्योंकि यह तो रोजमर्रा की बातें होकर रह गई हैं। केंद्रीय कानून मंत्री एम. वीरप्पा मोईली का आकलन इस बिंदु पर निश्चय ही गलत है। हो सकता है गुरुवार को संसद में उन्होंने मात्र अपने किताबी ज्ञान को दर्शाया हो। या फिर अति उत्साह में लोकतंत्र की मूल अवधारणा को दोहरा दिया हो। हमारे देश में इस रोग का निदान नहीं है। सिद्धान्त से इतर व्यावहारिकता को हम भूल जाते हैं। मोईली न्यायाधीशों की जवाबदेही सुनिश्चत करने के लिए संसद में न्यायाधीश मानदंड एवं जवाबदेही विधेयक पेश करने का वादा करते हुए एक छात्र की तरह लोकतंत्र के तीनों स्तंभों विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका के स्वतंत्र व सुचारू रूप से कार्य करने की जरूरत को दोहरा गए। यह भी दोहरा दिया कि ये तीनों जनता के प्रति जवाबदेह हैं। कोई भी सर्वोच्च नहीं है। चूंकि इस 'मोईली-दर्शन' में नया कुछ नहीं, इस पर बहस बेमानी होगी। हां, उनकी इस बात पर कि स्वतंत्र न्यायपालिका का यह मतलब नहीं है कि उसकी कोई जवाबदेही नहीं है, व्यापक बहस होनी चाहिए। लोकतंत्र की सेहत के हित में होगा यह। अच्छे शासन के विकल्प के रूप में न्यायपालिका को स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए। यह ठीक है। लेकिन जब 'अच्छा शासन' नदारद हो तब जनता क्या करे? विशेषकर जब विधायिका भी जनता व समाज की जरूरतों की पूर्ति पर लाचार नजर आए तब क्या न्यायपालिका एकमात्र विकल्प के रूप में खड़ी नजर नहीं आएगी? मोईली के उत्साह पर मैं पानी डालना नहीं चाहूंगा। बल्कि मैं तो चाहूंगा कि अगर उनमें सामथ्र्य है, इच्छाशक्ति है तब वे अपनी सरकार को मजबूर करें कि वह जनता को 'अच्छा शासन' उपलब्ध कराए। फिर स्वत: ऐसे किसी 'ज्ञान' को दोहराने की, वह भी संसद में, जरूरत नहीं पड़ेगी।

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