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Sunday, November 22, 2009

मीडिया भगवान तो नहीं किन्तु . . . !

लगता है, बाल ठाकरे ने कसम खा ली है कि वे सुधरेंगे नहीं। हिंसा, घृणा व द्वेष की नींव पर खड़ी शिवसेना के प्रमुख अगर मानसिक संतुलन खो चुके हैं तो इसकी विधिवत घोषणा कर दी जाए। ठाकरे से फिर कोई श्लील आचरण की अपेक्षा नहीं करेगा। लेकिन सच्चाई कुछ और है। एक सोची-समझी रणनीति के तहत बाल ठाकरे राज्य में दहशत का माहौल पैदा कर रहे हैं। वे चाहते हैं कि उनके जीते जी खुद उद्धव ठाकरे भतीजे राज ठाकरे के मुकाबले कहीं अधिक आक्रामक नेता के रूप में शिवसेना की विरासत संभाल लें। हाल में संपन्न महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में मुंबई और आसपास के क्षेत्रों में राज ठाकरे को मिली सफलता से बाल ठाकरे परेशान हो उठे। वे समझ गए कि अगर उनके जीवनकाल में ही राज ठाकरे ऐसी सफलता हासिल कर सकते हैं, तब उनकी अनुपस्थिति में पुत्र उद्धव ठाकरे का संभवत: कोई नाम लेने वाला भी न रह जाए। सो वे असली शिवसेना संस्कृति की राह पर चल पड़े। लेकिन ठाकरे यहां पर गलत हैं। भविष्य में भी गलत साबित होंगे। कभी डाक्टर राममनोहर लोहिया ने कहा था, 'जिन गलतियों पर हम शर्मसार नहीं होते, वही आगे चलकर अपराध बन जाती है।' ठाकरे कभी लोहिया के शब्दों पर गौर करेंगे, उसकी आशा तो मैं नहीं करता किन्तु पूरे सम्मान के साथ बुजुर्ग बाल ठाकरे को सावधान कर देना चाहूंगा कि पुत्र उद्धव ठाकरे के लिए ऐसी जमीन तैयार न करें कि वह भविष्य में अपराध और अपराधी के भंवर में गोते लगाता रहे। महाराष्ट्र विशेषकर मुंबई के परिवक्व नागरिक ङ्क्षहसा, घृणा व द्वेष की राजनीति कतई पसंद नहीं करेंगे। राज ठाकरे की सफलता को आदर्श मानने की भूल कोई न करे। एक भावावेश की अस्थाई परिणति है राज ठाकरे की विधानसभा चुनाव की सफलता। जिन 13 सीटों को राज ठाकरे के उम्मीदवार जीते हैं, वहां पुनर्मतदान करा लें। एक-दो सीट छोड़कर दोबारा किसी सीट पर उनकी जीत नहीं होगी। बाल ठाकरे इस सत्य को पहचानें। मीडिया समाज का आईना है। भले को भला, बुरे को बुरा कहना उसका कर्तव्य है। झूठ-सच, पाप-पुण्य के बीच के फर्क का विश्लेषण कर वह समाज और देश का मार्गदर्शन करता है। ऐसे में टीवी चैनल समूह आईबीएन 18 के दफ्तरों पर शिवसैनिकों के हमले को जायज ठहराकर बाल ठाकरे ने एक बड़ी भूल की है। मीडिया के कर्तव्य निर्वहन को चुनौती देकर बाल ठाकरे समाज-देश की नजरों में गिर गए हैं। पिछले पांच दशक से अग्रिपथ पर चलते हुए अर्जित आदर-सम्मान को क्षण भर में धूल-धूसरित कर दिया। मानसिक रूप से असंतुलित व्यक्ति ही ऐसा कर सकता है। यह ठीक है कि मीडिया कोई भगवान नहीं किन्तु वह न तो मवाली है, न तो टपोरी। वह लोकतंत्र का एक सजग पहरूआ है। आलोच्य मामले में उनका यह आरोप कि मीडिया राम शास्त्री नहीं दाम शास्त्री है, सरासर गलत है। टीवी चैनल ने सुपारी लेकर उन्हें टार्गेट कतई नहीं किया है। वह तो महाराष्ट्र व राष्ट्र गौरव सचिन तेंदुलकर पर चलाए गए ठाकरे के शब्दबाण से आहत था। ठाकरे की गलतियों को चिह्नित कर चैनल ने उन्हें सावधान कर दायित्व निभाया था। अगर ठाकरे को चैनल की भाषा आपत्तिजनक लगी थी तो प्रतिरोध के अन्य मार्ग थे। अगर इस आधार पर गुंडागर्दी व हिंसा को ठाकरे उचित मानते हैं तब तो उनके संपादन में निकलने वाले सामना की घोर आपत्तिजनक भाषा पर प्रतिदिन उसके दफ्तर में तोड़-फोड़ होनी चाहिए। गलत गलत ही रहेगा ठाकरे साहब! इसका समर्थन न करें अपने लिए, अपने पुत्र के लिए और अपनी शिवसेना के लिए।

1 comment:

जीत भार्गव said...

महोदय, जिस तरह से सी एन एन आई बी एन और लोकमत निष्पक्षता को ताक में रखकर एक-तरफ़ा पत्रकारिता करते हैं, क्या वह उचित है?? उनके सहित कई मीडिया समूह सिर्फ कोंग्रेस के मुखपत्र की तरह 'राग-दरबारी' बने हुए हैं ऐसे में उनके साथ ना तो आम जनता की कोइ सहानुभूती है ना ही इज्जत. पहले मीडिया को निष्पक्ष होना चाहिए... और घराना-पत्रकारिता से बचना चाहिए. ताकि लात-घूंसे खाने की नौबत ही ना आए. आप खुद वरिष्ठ पत्रकार हैं और आज कल के मीडिया के चरित्र और चाल-चलन से वाकिफ हैं. ऐसे में सिर्फ नेताओं को ही दोष देने से समस्या हल नहीं होगी.