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Thursday, December 24, 2015

प्रधानमंत्रीजी, आप तो ऐसे ना थे !

पीड़ादायक यह उच्छ्वास, एक अकेले मेरी नहीं। आपके चाहनेवाले करोड़ों भारतीय की पीड़ा है यह। चूंकि मैं अपनी इस पूर्वधारणा पर कायम हूं कि आप की नीयत साफ है, आप पूरी ईमानदारी के साथ भारत, भारतीय और भारतीयता की पवित्रता को कायम रखना चाहते हैं, सत्ता और संगठन के माध्यम से भारत को विश्वगुरु का सम्मान दिलवाने को दृढ़संकल्प हैं। ऐसे में जब आपके कतिपय 'निर्णय'  पर शंकालु ऊंगलियां उठने लगे, तब जवाब तो आपको ही देना होगा। मैं बात कर रहा हूं ताजातरीन कीर्ति आजाद के निलंबन प्रकरण की।
पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने कीर्ति आजाद पर पार्टी विरोधी आचरण का आरोप लगाते हुए पार्टी की प्राथमिक सदस्यता से निलंबित कर दिया। जाहिर है कि यह निर्णय आपकी सहमति से ही लिया गया होगा। अब देश, विशेषकर आपके प्रशंसक, यह जानना चाहते हैं कि सांसद कीर्ति आजाद का अपराध क्या है? कीर्ति एक अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी रहे हैं, भारत का प्रतिनिधित्व कर चुके हैं। क्रिकेट की एक संस्था डीडीसीए में कथित रूप से व्याप्त भ्रष्टाचार, अनियमितता की जाँच की मांग कीर्ति वर्षों से करते आ रहे हैं। भाजपा के सत्ता में आने के बहुत पहले से। देश के वित्तमंत्री अरुण जेटली वर्षों इस संस्था के मुखिया रह चुके हैं। आरोप उनके कार्यकाल की अवधि का भी है, उनके बाद का भी।कीर्ति ने दस्तावेजी सबूत पेश कर सीबीआई द्वारा समयबद्ध जाँच की मांग की। चूंकि सीबीआई अत्यंत ही धीमी गति से मामले की जाँच कर रही है, कीर्ति ने इसे गति प्रदान करने की बात कही। जब आरोप डीडीसीए को लेकर है तब यह पार्टी का मामला कैसे बन गया? भाजपा तो डीडीसीए का संचालन नहीं करती? कीर्ति ने कभी भी अरुण जेटली पर वित्तमंत्री के रूप में भ्रष्टाचार या अनियमितता के आरोप नहीं लगाये। यह कभी नहीं कहा कि जेटली ने अपने मंत्री पद का दुरुपयोग किया या मंत्री के रुप में कोई घपलेबाजी की। उन्होंने एक खिलाड़ी के रुप में एक खेल संस्थान में कथितरुप से हुए घपलों की जाँच की ही तो बात की ! फिर यह पार्टी विरोधी आचरण कैसे हो गया? घोर अलोकतांत्रिक तरीके से, बगैर कारण बताओ नोटिस जारी किये, सीधे- सीधे पार्टी की प्राथमिक सदस्यता से निलंबित किए जाने की कारवाई क्या अपने आप में पार्टी विरोधी, अलोकतांत्रिक नहीं है? क्या इससे यह संदेश नहीं गया कि सरकार और पार्टी किसी व्यक्ति विशेष को बचाना चाहती है? संदेश यह भी गया कि पार्टी के अंदर विरोध के स्वर को स्वीकार नहीं किया जा रहा। भ्रष्टाचार पर 'शून्य सहिष्णुता' संबंधी आपके उद्घोष के खिलाफ भी है यह। क्या यह उचित है? मैं नहीं समझता कि प्रधानमंत्री इसे स्वीकार करेंगे। निश्चय ही उन्हें गलत जानकारी दे गुमराह किया गया है। इस पूरी कारवाई पर देश की त्वरित प्रतिक्रिया रही कि मामला कहीं न कहीं -  'चोर की दाढ़ी में तिनका' सरीखा है। इस मामले में निशाने पर अरुण जेटली ही हैं।
    प्रधानमंत्रीजी, ईमानदारी से इतिहास के पन्नों को पलट लें। आपको अरुण जेटली की असलियत की जानकारी हो जायेगी। कीर्ति आजाद को 'पार्टी विरोधी' निरूपित करनेवाले अरुण जेटली स्वयं पार्टीविरोधी, अनुशासनहीन कृत्यों में लिप्त रहे हैं।
  पूरा देश जानता है, पार्टी भी जानती है, आप भी जानते होंगे कि दिसंबर 2009 में जब महाराष्ट्र के कद्दावर नेता नितिन गडकरी को पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया गया था तब अरुण जेटली व उनके  गुट ने गडकरी का विरोध किया था। प्रेस के माध्यम से गडकरी विरोधी वातावरण तैयार करने की कोशिश भी जेटली ने ही की थी। जानकार पुष्टि करेंगे कि गडकरी के खिलाफ अनेक आपत्तिजनक खबरें जेटली ने प्रसारित करवाई थीं। गडकरी के खिलाफ आपत्तिजनक शब्दों का इस्तेमाल कर जेटली मीडिया में गडकरी की छवि धूमिल करने की कोशिश करते रहे थे। 2009 के लोकसभा चुनाव में शर्मनाक हार से पस्त भाजपा के मनोबल को गडकरी ने तब शिखर पर पहुंचाया, जब 2010 के बिहार चुनाव में 102 सीटों पर लड़ 91 सीटों पर पार्टी ने गडकरी के नेतृत्व में जीत हासिल की। तब भाजपा और संघ के अंदर आम राय बनी थी कि 2015 का लोकसभा चुनाव भी गडकरी की अध्यक्षता में ही पार्टी लड़े।
2013 में गडकरी को दोबारा अध्यक्ष बनाने के लिए पार्टी ने मुंबई अधिवेशन में अपने संविधान में संशोधन भी कर लिया था। लेकिन, सत्ता के गलियारे में तब आम चर्चा थी कि विघ्नसंतोषियों का नेतृत्व कर रहे अरुण जेटली ने कांग्रेस के तत्कालीन वित्तमंत्री पी.चिदंबरम के साथ सांठ-गांठ कर गडकरी के खिलाफ षडय़ंत्र रचा और उन्हें दोबारा अध्यक्षपद से वंचित करने में सफल रहे।  निश्चय ही जेटली की वह कारवाई पार्टी विरोधी थी। अपनी पार्टी के अध्यक्ष के खिलाफ साजिश रचने वाला, मीडिया को गलत जानकारी दे अध्यक्ष की छवि धूमिल करने वाला ही तो पार्टी विरोधी हुआ। कभी पार्टी अध्यक्ष के विरूद्ध षड्यंत्र रचनेवाला व्यक्ति आज जब यह कह रहा है कि 'कृतघ्नता एक राजनीतिक पाप है 'और अपने ही पार्टी के एक सांसद को पार्टी विरोधी बताते हुए उसकी बलि ले रहा हो तब स्वयं भाजपा समर्थक अचंभित हैं, दु:खी हैं। विपक्ष जेटली को 'नटवरलाल' निरुपित कर रहा है तो शायद सही ही।
    अगर किसी के खिलाफ कारवाई करनी ही है तो अरुण जेटली के खिलाफ हो। प्रधानमंत्रीजी, आप अपने सूत्रों से पता लगा लें यह अरुण जेटली ही हैं, जिनके कारनामों के कारण आपकी अपनी स्वच्छ छवि धूमिल हो रही है। क्या आप ऐसा चाहेंगे? निजात पाएं जेटली से, निजात पाएं जेटली सरीखे अन्य विघ्नसंतोषियों से। ये तत्व न तो आपके हितचिंतक हैं और न ही चाल-चरित्र -चेहरा के लिए सुख्यात भारतीय जनता पार्टी के। मैं भी उस विशाल भारतीय वर्ग के साथ हूं जो आपके नेतृत्व में भारत के विश्वगुरु बनने के अभियान को सफल होते देखना चाहता है। दु:ख होता है जब मार्ग में जेटली जैसे 'अवरोधक' खड़े दिखते हैं। छुटकारा पाएं इनसे, जल्द से जल्द छुटकारा पाएं-देश, पार्टी और स्वयं अपने हित में।

Monday, December 21, 2015

निर्भया; कानून बदल दो, न्याय दो


          कानूनी प्रावधान अपनी जगह । इस विडंबना को कोई कैसे स्वीकार करेगा कि निर्भया दुश्कर्म- हत्या का एक अपराधी समाज में छुट्टा घुमें? यह स्वीकार्य नहीं। कानून बदल दो, लेकिन निर्भया को न्याय दो। यह मांग पूरे देश -समाज की है। लोकतांत्रिक देश ऐसी मांग को अस्वीकार कैसे कर सकता है? जनता द्वारा निर्वाचित शासकों को जनता की मांग माननी ही होगी। यही नैसर्गिक न्याय का एक तकाजा है।
यहां मैं निर्भया कांड के पृष्ठों को उलटना नहीं चाहुंगा। विभत्स कांड के विभस्त अध्याय, विभत्स स्मरण की अनपमति नहीं देते। फिर रोंगटे खड़े होंगे, फिर क्रोध उबाल पर होगा। एक बार फिर देश फुट फुट कर रोएगा, निर्भया की माँ की तरह ! इसलिए पुन स्मरण नहीं, न्याय और सिर्फ न्याय की मांग ।
यह ठीक है कि वर्तमान कानूनी प्रावधानों के अनुसार तब नाबालिक एक दोषी को तीन साल की सजी सुनाई गई थी। बाल सुधार गृह ने तीन साल की सजा पूरी होने के बाद उसे रिहा करने की तैयारी हो रही है। रिहाई पर रोक की याचिका दिल्ली उच्च न्यायालय खारिज कर चुका है। उच्च न्यायालय का निर्णय वर्तमान कानून के प्रावधानों पर सही है। किंतु न्याय की मुल अवधारणा की - न्याय न केवल हो बल्की होता हुआ दिखे भी - के खिलाफ है। तीन वर्ष पूर्व निर्भया कांड से जब पूरा देश मर्माहत बिलख रहा था तब दोषियों के लिए मौत की मांग गुंजी थी । सर्वसम्मत मांग थी वह कोई विरोध नहीं । निर्भया के लिए न्याय के पक्ष में मौत की सही मांग थी वह । लेकिन कानून से बंधे न्याय के हाथ तब असहाय साबित हुए । -बालिग  कुकर्म -सरिखे कांड़ को अंजाम देनेवाला नाबालिग सिर्फ तीन साल की सजा पा आज बालिग हो आजाद होने  को तैयार है। अगर ऐसा हुआ तो न्याय लांछित होगा, कानून कलंकित होगा । एक सभ्य समाज ऐसी अवस्था को कैसे स्वीकार कर सकता है। निर्भया को न्याय चाहिए , दोषी को कड़ी सजा देकर ही यह संभव है।
इसपर कोई राजनीति न करे , सभी एकमत हों । सजा का उद्देश्य ही होता है कि भविष्य में कोई अपराध न करे। या फिर वांछित अंकुश लग सकें। विभस्त घृणित अपराध के लिए मौत सहित अन्य कड़ी सजा के प्रावधान हैं। लेकिन निर्भया के इस दोषी को -नाबालिग- होने का लाभ मिल रहा है। अब बालिग हो चुका यह दोषी आजाद होकर सभ्य बनेगा ?
बाल सुधार गृह में  तीन वर्ष तक उसपर नजर रखनेवालों के अनुसार उसे अपराध की कोई भी शर्मिंदगी , पछतावा या अपराध बोध नहीं है। मनोचिकित्सक भी शंकित है उसके भविष्य के व्यवहार को लेकर । सभ्य आचरण की गारंटी लेने को कोई तैयार नहीं। मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों को उसके व्यवहार में परेशान करनेवाली बातें दिखीं। उनका कहना है कि
उसपर ध्यान दिए जाने की सख्त जरूरत है। कि सी भी विशेषज्ञ को उसके व्यवहार और दिमाग के बारे में कुछ भी अनुमान नहीं है। विशेषज्ञ कहते हैं कि उसे शारिरिक, सामाजिक और मानसिक निगरानी की जरूरत हैं। लेकिन समाज यह खतरा मोल क्यों लें? यह ठीक है कि किसी को मौत दें आनंदित नहीं हुआ जा सकता। लेकिन विभत्स बलात्कार और नृशंस हत्या के दोषी को आजाद कैसे छोड़ा जा सकता है ? मनोचिकित्सक भी कहते हैं कि जिन्होंने बलात्कार ,हत्या या इसी तरह के अन्य अपराध किए होते हैं,वे ज्यादातर फिर से अपराध करते हैं। आलोच्य दोषी के व्यवहार से यह स्पष्ट परिलक्षित है कि वह समाज के लिए एक बार फिर खतरा बन सकता है। फिर समाज ऐसा खतरा मोल क्यों ले? दंडित करें इसे ।
कानून पहले भी बदले जा चुके हैं। पंडित जवाहर लाल नेहरू के  प्रधानमंत्रित्व काल में -हिंदु कोड बिल- और राजीव गांधी के  समय  शाहबानो केस  की यादें अब भी ताजा हैं। कहते तो यह भी हैं कि तब इंदिरा गांधी के लिए तलाक सुलभ करने के लिए नेहरू ने हिंदु कोड बिल ला कानून में बदलाव कराया था । शाहबानों मामला भी न्यायालय के आदेश के खिलाफ एक संप्रदाय विशेष को खुश करने के लिए कानून परिवर्तन के रूप में चर्चित हुआ। ये उद्धरण सिर्फ इसलिए कि निर्भया को न्याय दिलाने के लिए कानून में बदलाव संभव है। फिर विलंब क्यों? कानून बदले, निर्भया को न्याय दें।
फिर दोहरा दूं, इसपर राजनीति न हो । केंद्रिय मंत्री मनेका गांधी के अनुसार चुंकी किशोर न्याय अधिनियम को संशोधित करने संबंधी विधेयक राज्य सभा में पारित नहीं होने दिया गया था । निर्भया के दोषी को सजा नहीं मिल सकीं। प्रस्तावित संशोधन में घृणित अपराध में शामिल 16-18 उम्र के किशोरों के लिए कड़ी सजा का प्रावधान किया गया है। इस बिंदु पर पक्ष विपक्ष का एकमत होना जरूरी है। चाहे आलोच्य संशोधन को पारित कराने का मामला हो या फिर न्याय, कानूनी प्रावधान का, तत्काल निर्णय लें निर्भया के साथ न्याय किया जाये। अन्यथा न्याय के लिए सुख्यात भारत की न्यायप्रणाली के लिए इतिहास में -कलंक- का एक दुखद अध्याय लिखा जाएगा।

Monday, December 14, 2015

सुपारी पत्रकारिता

अभी भी कुछ बिगड़ा नहीं है। ‘पतित राजनीति’ के मुकाबले ‘पवित्र पत्रकारिता’ को  खड़ा कर दें, पतन की गति धीमी होते-होते विलुप्त हो जाएगी। यह संभव है। एक  बार निर्णय तो लें। मैं युवा पत्रकारों  की उस फौज ·को देख रहा हूं जो बेचैन है वर्तमान दु:अवस्था को देखकर। यह जीना चाहता है, बगैर समझौता किए।
ये हम नहीं कह रहे। आज की पत्रकारिता को इस नए विशेषण से नवाजा है भारत के सेनाध्यक्ष रह चुके, वर्तमान मोदी सरकार  के एक केंद्रीय राज्यमंत्री जेनरल वी.के. सिंह ने। इसके पूर्व भी श्री सिंह मीडिया की तुलना ‘वेश्या’ से  कर चुके हैं। और अगर पीछे चलें तो स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हमें ‘बाजारू’ जैसे शब्द से विभूषित कर चुके हैं। थोड़ा और पीछे चलें। तत्कालीन सोवियत संघ की खुफिया एजेंसी केजीबी के लंदन स्टेशन चीफ रह चुके गोर्वास्की ने नब्बे के  दशक के आरंभ में प्रकाशित अपनी एक पुस्तक में लिखा था कि भारत से कोई भी खुफिया जानकारी लेना अत्यंत ही आसान है, क्योंकि वहां पैसा लेने वाले राजनेताओं और पत्रकारों की कमी नहीं है। क्या सचमुच भारतीय पत्रकार अथवा मीडिया सब ऐसे ही हैं? राजनीति औैर पत्रकारिता के वर्तमान कालखंड में इस पर बहस होना और तार्किक परिणति पर पहुंचना जरूरी है।
पत्र-पत्रकारों पर ऐसे आरोप पहले भी लगते रहे हैं। किंतु, अब जिस वीभत्स रूप में पत्रकारों पर आरोप लग रहे हैं, उससे समुची की समुची बिरादरी शर्मसार हुई है। अपने हौल-खौल देखता हूं तो, दु:खद रुप से पत्रकारिता में वैसे तत्वों की बहुतायात दिखती है, जिनसे उपर्युक्त धारणा को मजबूती मिलती है। हां, यह एक अत्यंत ही कड़वा सच है कि ऐसी शर्मनाक  स्थिति के लिए स्वयं मीडिया कर्मी जिम्मेदार हैं। ये मीडिया कर्मी ही हैं, जिन्होंने राजनेताओं को प्रोत्साहित किया है, हमें ‘बाजारू’, ‘वेश्या’ व ‘सुपारी पत्रकार’ के रुप में पेश करने को। हां, यह सच अवश्य है कि सभी मीडिया कर्मी ऐसे नहीं हैं। लेकिन अपवाद स्वरुप मौजूद स्वच्छ, ईमानदार पत्रकारों की आवाज, इनकी नगण्य संख्या के कारण, नक्कारखाने में तूती की आवाज बन कर रह जाती है। अपेक्षित रुप से प्रभावी नहीं हो पाते ये। तो क्या ये भी मौन धारण कर लें? कलम को अजायबघर के लिए सुरक्षित रख दें? या फिर बहुसंख्य की भीड़ में शामिल हो जाएं? कथित  रुप से बहती गंगा में हाथ धोएं? नहीं, कदापि नहीं! प्रतिरोध तो करना ही होगा। पत्रकारीय मूल्य और सिद्धांतों की रक्षा करनी ही होगी। अनैतिकता के मुकाबले नैतिकता को खड़ा कर चुनौती देनी ही होगी। कुछ ऐसा कर भी रहे हैं। विजयी भी हो रहे हैं। राजनीतिक दवाब प्रभाव से इतर ये अनैतिक समझौते के लिए तैयार नहीं। हां, ऐसा भी हो रहा है।
पिछले वर्ष जब महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव की सरगर्मी तेज थी, तब की एक घटना के उद्धृत करना चाहूंगा। प्रसिद्ध खबरिया चैनल ‘आजतक’ के वरिष्ठ संपादकीय सहयोगी, ‘एंकर’ पुण्य प्रसून वाजपेयी ने अपने एक कार्यक्रम में ऐसी जानकारी दी कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ नहीं चाहता कि भाजपा-शिवसेना गठबंधन टूटे।  तब शिवसेना-भाजपा के बीच सीटों के बंटवारे पर चल रही तनातनी के बीच यह एक सामान्य जानका री थी। लेकिन, लोकसभा चुनाव में ऐतिहासिक जीत से सब कुछ मुट्ठी में कर लेने की तमन्ना रखने वाले भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह को यह नागवार गुजरा। शाह ने कार्यक्रम समाप्त होते ही प्रसून वाजपेयी को फोन कर तल्ख शब्दों में बताया कि खबर कोई आधार नहीं, बेबुनियाद है। शाह सूत्र की जानकारी चाहते थे। प्रसून के इनकार करने पर शाह ने कहा कि खबर का खंडन कर दिया जाए। शाह यहीं नहीं रुके। उन्होंने प्रसून वाजपेयी को चेतावनी भी दी कि अगर वे ऐसा नहीं करते हैं तो अंजाम के लिए तैयार रहें। शाह ने अंग्रेजी में कहा था... othrwise, you know the consequences!
केंद्र में सत्तारूढ़ दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष द्वारा देश के बड़े खबरिया चैनल के वरिष्ठ संपादकीय सहयोगी को दी गई चेतावनी के मायने? यहां सवाल ‘प्रेरणा’ का भी पैदा होता है। आखिर अमित शाह की इस चेतावनी के पीछे कौन सी भावना या प्रेरणा काम कर रही थी। क्या कारण था कि अमित शाह ऐसी चेतावनी को उत्प्रेरित हुए?  किस प्रेरक शक्ति ने उन्हें उकसाया? कहते हैं कि मीडिया की ओर से ही राजनेताओं को ऐसा करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता रहा है। या फिर यह मीडिया ही है, जिसने स्वयं को इतना दीन-हीन बना डाला है कि शासक वर्ग चेतावनी देने से नहीं हिचकता। लेकिन फिर यहां समुचित उत्तर के लिए उपलब्ध पात्र भी चिन्हित होते हैं। बल्कि, गौरवान्वित होते हैं। प्रसून वाजपेयी ने शाह को दो-टूक शब्दों में जवाब दिया था कि ‘‘वे खंडन नहीं करेंगे और जहां तक अंजाम का सवाल है, वे प्रधान संपादक से बात कर लें।’’ यह तो बात हुई एक निडर, स्वतंत्र पत्रकार की। लेकिन दु:खद रुप से मामले की परिणति को भी उद्धृत करने को मजबूर हूं। शाह ने तब भाजपा के  एक  महामंत्री राममाधव को निर्देश दिया और उन्होंने प्रधान संपादक से बात की। खबर उतार दी गई। ऐसे में राजनेता तो प्रोत्साहित होंगे ही। प्रसून वाजपेयी जहां अनुकणीय बनकर उभरते, संभवत: उदासीन अवस्था में चले गए होंगे। प्रसंगवश, ये वही प्रसून वाजपेयी हैं, जिन्होंने एक अन्य चैनल ‘जी-न्यूज’ में रहते पत्रकारीय नैतिकता की मिसाल कायम की थी। तब ‘जी-न्यूज’ के संपादक कथित रुप से वसूली के प्रयास के आरोप में गिरफ्तार कर लिए गए थे। प्रसून उस वक्त न्यूज बुलेटिन की एंकरिंग कर रहे थे। प्रबंधन की ओर से निर्देश मिला कि गिरफ्तारी के खिलाफ संपादक का  बचाव करना है। प्रसून ने यह कहते हुए कि चूंकि आरोप वसूली का है, वे बचाव नहीं कर सकते। संपादक का बचाव तो नहीं ही किया, इस्तीफा भी दे दिया। इस घटना के बाद ‘आजतक’ ने प्रसून को अपने यहां जगह दी थी।
कहने का तात्पर्य कि पत्रकारीय मूल्यों के रक्षार्थ कुर्बानी देने वालों की  कमी नहीं। कमी है तो ‘इंडियन एक्सप्रेस’ के संस्थापक रामनाथ गोयनका जैसे संचालकों की। धन का अपना आकर्षण है। मीडिया संस्थान चलाने के लिए भी धन की आवश्यकता पड़ती है। मीडिया भी एक पेशा बन गया है। मैं इससे इनकार नहीं करता। सिर्फ संचालकों  और इस पेशे से जुड़े पत्रकारों को याद दिलाना चाहूंगा कि पत्रकारिता पेशा तो बन गया है किंतु सामान्य नहीं, एक पवित्र-पेशा। इसकी आत्मा स्वच्छ है, पवित्र है। इसे कलुषित होने से बचाने, इसकी रक्षा करने की जिम्मेदारी पत्रकारों की ही है। बहुत सारे सहयोगी नाराज होंगे, किंतु सच को सच कहने की आदत से लाचार मैं मजबूर हूं यह रेखाकिंत करने को कि अपने अंतर्मन में झांको, अपने जमीर को देखो, और देखो विशाल भारत के विशाल पाठक वर्ग को जो आज भी, गिरावट के बाद भी, आशा की नजरें हम पर टिकाए हुए है। समाज की हर विधा में प्रविष्ट काले भेडिय़ों की चिंता किए बगैर नगण्य संख्या में ही मौजूद अगर पेशे की पवित्रता को  कायम रखते हुए कदमताल करेंगे तब वे काले भेडिय़े भी आपके समक्ष अंजुलि फैला गंगाजल की मांग करने लगेंगे। और तब जो परिवर्तन की लहर पैदा होगी उसका सामना स्वार्थी और बिकाऊ संचालक अथवा पत्रकार नहीं कर पाएंगे। उन्हें भी इस पवित्रवर्ग का साथ देना ही होगा।
हां, यह जरूरी है। बचपन से आज तक पत्रकारिता की ऊंचाईयों को देखने के बाद वर्तमान हिकारती अवस्था स्वीकार्य नहीं। अभी भी  कुछ बिगड़ा नहीं है। ‘पतित राजनीति’ के  मुकाबले ‘पवित्र पत्रकारिता’ को खड़ा कर दें, पतन की गति धीमी होते-होते विलुप्त हो जाएगी। यह संभव है। एक बार निर्णय तो लें।
मैं युवा पत्रकारों की उस फौज को देख रहा हूं जो बेचैन है वर्तमान दु:अवस्था को देख कर। वह जीना चाहता है, बगैर समझौता किए। उसे चाहिए ईमानदार नेतृत्व, ईमानदार कर्मठ मार्गदर्शक। एक सवाल उठता है संचालकों की स्वार्थी भूमिका को लेकर। मेरा अनुभव कहता है कि अगर सकारात्मक, रचनात्मक प्रयास किए जाएं, पत्रकार और संचालक परस्पर विश्वास के वातावरण में पत्रकारीय दायित्व और राष्ट्रीय अपेक्षा के बीच संतुलन पर चर्चा करें तो समाधान निकल आएंगे। समझौते की कोई गुंजाइश नहीं होगी, संस्थान के हित के साथ भी। और तब कोई राजदल अथवा राजनेता मीडिया संस्थान को, मीडिया कर्मी को डराने-धमकाने की हिम्मत नहीं जुटा पाएगा। पत्रकार सुपारी तो लेंगे-लेकिन राष्ट्रहित में भ्रष्टाचारियों और देश विरोधी तत्वों के खात्मे की।

Wednesday, December 2, 2015

"कु-संस्कारियों" के निशाने पर "संस्कारी" निहलानी!



"बॉलीवुड" को"हॉलीवुड"बनाने को व्यग्र कतिपय फ़िल्म निर्माता-निर्देशक-अभिनेता क्रोधित हैं कि सेंसर बोर्ड के मुखिया पहलाज निहलानी उनके मार्ग में रोड़े अटका रहे हैं!निहलानी द्वि-अर्थी आपत्तिजनक संवाद,अनावश्यक लंबे चुम्बन और अश्लील सेक्सी दृश्यों को परदे पर दिखाये जाने के खिलाफ हैं।लेकिन वैसे निर्माता-निर्देशक जिन्हें सभ्य, सुसंस्कृत भारतीय समाज की जगह भ्रष्ट, अश्लील ुला पश्चिमी समाज सुहाता है, निहलानी के विरोध में खड़े हो गये हैं।दुःखद है कि अपरोक्ष में इस भ्रष्ट गुट को साथ मिल रहा है सूचना-प्रसारण मंत्रालय के युवा राज्यमंत्री राठौर का।लगता है ,गलत जानकारी दे पूर्वाग्रही तत्वों ने राठौर को भ्रमित कर दिया है।
हाँ, सच यही है।अन्यथा, जो सरकार देश की गौरवशाली प्राचीन सभ्यता, संस्कृति और भाषा के पक्ष में कटिबद्ध हो,उसका कोई मंत्री विपरीत आचरण कैसे कर सकता है?श्री राठौर की टिप्पणी कि 'सेंसर बोर्ड प्रमाणपत्र जारी करे, सेंसर नहीं',भ्रम पैदा करता है।फिर, सेंसर बोर्डका क्याऔचित्य?निश्चय ही गलत जानकारी दे कर राठौर कोभरमाया जारहा है।ऐसे कुटिल तत्वों को स्वयं सेदूर रखें राठौर !
निहलानी पर ताज़ा आक्रमण फ़िल्म"जेम्स बॉन्ड"के एक लंबे चुम्बन दृश्य केकांट-छांट कोले कर शुरु हुआ है।क्या गलत किया निहलानी ने?पश्चिमी सभ्यता-संस्कृति केपोषकों कीछोड़ दें, क्या भारतीय संस्कृति इसकी इजाजत देती है?अंदरुनी सूत्र तो ये भी बता रहे हैं कि लंबे चुम्बन दृश्य केआगे "कुछ और भी" थे!निहलानी ने तो सेंसर कीअवधारणा केअनुरूप संज्ञान लिया, कैंची चला दी।क्या गलत किया?
बंद कमरे में,शालीनता के आवरण में जो कुछ होता है सड़कों पर उनका सर्वजनिक प्रदर्शन कैसे किया जा सकता है? सभ्य समाज में इसकी अनुमति नहीं दी जा सकती।
फिल्मों के माध्यम से ऐसा ना हो,इसके लिए ही सेंसर बोर्ड का गठन किया गया।ऐसे आपत्तिजनक दृश्यों का क़तर-ब्योंत् सेंसर बोर्ड का कर्तव्य है, दायित्व है।फिर निहलानी गलत कैसे?
सेंसर बोर्डके मुखिया के रुप में पहलाज निहलानी ना तो कोई मानधन लेते हैं, ना ही कोई अन्य सुविधा।बताते हैं निहलानी सरकारी गाड़ी तक का इस्तेमाल नहीं करते।
तो, विरोध सिर्फ इसलिए कि वे निष्ठापूर्वक ईमानदारी से कर्तव्य निष्पादन कर रहे हैं?ये अनुचित है।
अगर, अनियमितता या भ्रष्टाचार के आरोपी हों, तो निश्चय खिलाफत हो,कार्रवाई हो।
भारतीय संस्कृति के पक्ष में कर्तव्य निष्पादन करने वाले संस्कारी सेंसर बोर्ड प्रमुख के खिलाफ चिल्ल-पों को विराम दें विघ्न संतोषी!