अभी भी कुछ बिगड़ा नहीं है। ‘पतित राजनीति’ के मुकाबले ‘पवित्र पत्रकारिता’ को खड़ा कर दें, पतन की गति धीमी होते-होते विलुप्त हो जाएगी। यह संभव है। एक बार निर्णय तो लें। मैं युवा पत्रकारों की उस फौज ·को देख रहा हूं जो बेचैन है वर्तमान दु:अवस्था को देखकर। यह जीना चाहता है, बगैर समझौता किए।
ये हम नहीं कह रहे। आज की पत्रकारिता को इस नए विशेषण से नवाजा है भारत के सेनाध्यक्ष रह चुके, वर्तमान मोदी सरकार के एक केंद्रीय राज्यमंत्री जेनरल वी.के. सिंह ने। इसके पूर्व भी श्री सिंह मीडिया की तुलना ‘वेश्या’ से कर चुके हैं। और अगर पीछे चलें तो स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हमें ‘बाजारू’ जैसे शब्द से विभूषित कर चुके हैं। थोड़ा और पीछे चलें। तत्कालीन सोवियत संघ की खुफिया एजेंसी केजीबी के लंदन स्टेशन चीफ रह चुके गोर्वास्की ने नब्बे के दशक के आरंभ में प्रकाशित अपनी एक पुस्तक में लिखा था कि भारत से कोई भी खुफिया जानकारी लेना अत्यंत ही आसान है, क्योंकि वहां पैसा लेने वाले राजनेताओं और पत्रकारों की कमी नहीं है। क्या सचमुच भारतीय पत्रकार अथवा मीडिया सब ऐसे ही हैं? राजनीति औैर पत्रकारिता के वर्तमान कालखंड में इस पर बहस होना और तार्किक परिणति पर पहुंचना जरूरी है।
पत्र-पत्रकारों पर ऐसे आरोप पहले भी लगते रहे हैं। किंतु, अब जिस वीभत्स रूप में पत्रकारों पर आरोप लग रहे हैं, उससे समुची की समुची बिरादरी शर्मसार हुई है। अपने हौल-खौल देखता हूं तो, दु:खद रुप से पत्रकारिता में वैसे तत्वों की बहुतायात दिखती है, जिनसे उपर्युक्त धारणा को मजबूती मिलती है। हां, यह एक अत्यंत ही कड़वा सच है कि ऐसी शर्मनाक स्थिति के लिए स्वयं मीडिया कर्मी जिम्मेदार हैं। ये मीडिया कर्मी ही हैं, जिन्होंने राजनेताओं को प्रोत्साहित किया है, हमें ‘बाजारू’, ‘वेश्या’ व ‘सुपारी पत्रकार’ के रुप में पेश करने को। हां, यह सच अवश्य है कि सभी मीडिया कर्मी ऐसे नहीं हैं। लेकिन अपवाद स्वरुप मौजूद स्वच्छ, ईमानदार पत्रकारों की आवाज, इनकी नगण्य संख्या के कारण, नक्कारखाने में तूती की आवाज बन कर रह जाती है। अपेक्षित रुप से प्रभावी नहीं हो पाते ये। तो क्या ये भी मौन धारण कर लें? कलम को अजायबघर के लिए सुरक्षित रख दें? या फिर बहुसंख्य की भीड़ में शामिल हो जाएं? कथित रुप से बहती गंगा में हाथ धोएं? नहीं, कदापि नहीं! प्रतिरोध तो करना ही होगा। पत्रकारीय मूल्य और सिद्धांतों की रक्षा करनी ही होगी। अनैतिकता के मुकाबले नैतिकता को खड़ा कर चुनौती देनी ही होगी। कुछ ऐसा कर भी रहे हैं। विजयी भी हो रहे हैं। राजनीतिक दवाब प्रभाव से इतर ये अनैतिक समझौते के लिए तैयार नहीं। हां, ऐसा भी हो रहा है।
पिछले वर्ष जब महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव की सरगर्मी तेज थी, तब की एक घटना के उद्धृत करना चाहूंगा। प्रसिद्ध खबरिया चैनल ‘आजतक’ के वरिष्ठ संपादकीय सहयोगी, ‘एंकर’ पुण्य प्रसून वाजपेयी ने अपने एक कार्यक्रम में ऐसी जानकारी दी कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ नहीं चाहता कि भाजपा-शिवसेना गठबंधन टूटे। तब शिवसेना-भाजपा के बीच सीटों के बंटवारे पर चल रही तनातनी के बीच यह एक सामान्य जानका री थी। लेकिन, लोकसभा चुनाव में ऐतिहासिक जीत से सब कुछ मुट्ठी में कर लेने की तमन्ना रखने वाले भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह को यह नागवार गुजरा। शाह ने कार्यक्रम समाप्त होते ही प्रसून वाजपेयी को फोन कर तल्ख शब्दों में बताया कि खबर कोई आधार नहीं, बेबुनियाद है। शाह सूत्र की जानकारी चाहते थे। प्रसून के इनकार करने पर शाह ने कहा कि खबर का खंडन कर दिया जाए। शाह यहीं नहीं रुके। उन्होंने प्रसून वाजपेयी को चेतावनी भी दी कि अगर वे ऐसा नहीं करते हैं तो अंजाम के लिए तैयार रहें। शाह ने अंग्रेजी में कहा था... othrwise, you know the consequences!
केंद्र में सत्तारूढ़ दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष द्वारा देश के बड़े खबरिया चैनल के वरिष्ठ संपादकीय सहयोगी को दी गई चेतावनी के मायने? यहां सवाल ‘प्रेरणा’ का भी पैदा होता है। आखिर अमित शाह की इस चेतावनी के पीछे कौन सी भावना या प्रेरणा काम कर रही थी। क्या कारण था कि अमित शाह ऐसी चेतावनी को उत्प्रेरित हुए? किस प्रेरक शक्ति ने उन्हें उकसाया? कहते हैं कि मीडिया की ओर से ही राजनेताओं को ऐसा करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता रहा है। या फिर यह मीडिया ही है, जिसने स्वयं को इतना दीन-हीन बना डाला है कि शासक वर्ग चेतावनी देने से नहीं हिचकता। लेकिन फिर यहां समुचित उत्तर के लिए उपलब्ध पात्र भी चिन्हित होते हैं। बल्कि, गौरवान्वित होते हैं। प्रसून वाजपेयी ने शाह को दो-टूक शब्दों में जवाब दिया था कि ‘‘वे खंडन नहीं करेंगे और जहां तक अंजाम का सवाल है, वे प्रधान संपादक से बात कर लें।’’ यह तो बात हुई एक निडर, स्वतंत्र पत्रकार की। लेकिन दु:खद रुप से मामले की परिणति को भी उद्धृत करने को मजबूर हूं। शाह ने तब भाजपा के एक महामंत्री राममाधव को निर्देश दिया और उन्होंने प्रधान संपादक से बात की। खबर उतार दी गई। ऐसे में राजनेता तो प्रोत्साहित होंगे ही। प्रसून वाजपेयी जहां अनुकणीय बनकर उभरते, संभवत: उदासीन अवस्था में चले गए होंगे। प्रसंगवश, ये वही प्रसून वाजपेयी हैं, जिन्होंने एक अन्य चैनल ‘जी-न्यूज’ में रहते पत्रकारीय नैतिकता की मिसाल कायम की थी। तब ‘जी-न्यूज’ के संपादक कथित रुप से वसूली के प्रयास के आरोप में गिरफ्तार कर लिए गए थे। प्रसून उस वक्त न्यूज बुलेटिन की एंकरिंग कर रहे थे। प्रबंधन की ओर से निर्देश मिला कि गिरफ्तारी के खिलाफ संपादक का बचाव करना है। प्रसून ने यह कहते हुए कि चूंकि आरोप वसूली का है, वे बचाव नहीं कर सकते। संपादक का बचाव तो नहीं ही किया, इस्तीफा भी दे दिया। इस घटना के बाद ‘आजतक’ ने प्रसून को अपने यहां जगह दी थी।
कहने का तात्पर्य कि पत्रकारीय मूल्यों के रक्षार्थ कुर्बानी देने वालों की कमी नहीं। कमी है तो ‘इंडियन एक्सप्रेस’ के संस्थापक रामनाथ गोयनका जैसे संचालकों की। धन का अपना आकर्षण है। मीडिया संस्थान चलाने के लिए भी धन की आवश्यकता पड़ती है। मीडिया भी एक पेशा बन गया है। मैं इससे इनकार नहीं करता। सिर्फ संचालकों और इस पेशे से जुड़े पत्रकारों को याद दिलाना चाहूंगा कि पत्रकारिता पेशा तो बन गया है किंतु सामान्य नहीं, एक पवित्र-पेशा। इसकी आत्मा स्वच्छ है, पवित्र है। इसे कलुषित होने से बचाने, इसकी रक्षा करने की जिम्मेदारी पत्रकारों की ही है। बहुत सारे सहयोगी नाराज होंगे, किंतु सच को सच कहने की आदत से लाचार मैं मजबूर हूं यह रेखाकिंत करने को कि अपने अंतर्मन में झांको, अपने जमीर को देखो, और देखो विशाल भारत के विशाल पाठक वर्ग को जो आज भी, गिरावट के बाद भी, आशा की नजरें हम पर टिकाए हुए है। समाज की हर विधा में प्रविष्ट काले भेडिय़ों की चिंता किए बगैर नगण्य संख्या में ही मौजूद अगर पेशे की पवित्रता को कायम रखते हुए कदमताल करेंगे तब वे काले भेडिय़े भी आपके समक्ष अंजुलि फैला गंगाजल की मांग करने लगेंगे। और तब जो परिवर्तन की लहर पैदा होगी उसका सामना स्वार्थी और बिकाऊ संचालक अथवा पत्रकार नहीं कर पाएंगे। उन्हें भी इस पवित्रवर्ग का साथ देना ही होगा।
हां, यह जरूरी है। बचपन से आज तक पत्रकारिता की ऊंचाईयों को देखने के बाद वर्तमान हिकारती अवस्था स्वीकार्य नहीं। अभी भी कुछ बिगड़ा नहीं है। ‘पतित राजनीति’ के मुकाबले ‘पवित्र पत्रकारिता’ को खड़ा कर दें, पतन की गति धीमी होते-होते विलुप्त हो जाएगी। यह संभव है। एक बार निर्णय तो लें।
मैं युवा पत्रकारों की उस फौज को देख रहा हूं जो बेचैन है वर्तमान दु:अवस्था को देख कर। वह जीना चाहता है, बगैर समझौता किए। उसे चाहिए ईमानदार नेतृत्व, ईमानदार कर्मठ मार्गदर्शक। एक सवाल उठता है संचालकों की स्वार्थी भूमिका को लेकर। मेरा अनुभव कहता है कि अगर सकारात्मक, रचनात्मक प्रयास किए जाएं, पत्रकार और संचालक परस्पर विश्वास के वातावरण में पत्रकारीय दायित्व और राष्ट्रीय अपेक्षा के बीच संतुलन पर चर्चा करें तो समाधान निकल आएंगे। समझौते की कोई गुंजाइश नहीं होगी, संस्थान के हित के साथ भी। और तब कोई राजदल अथवा राजनेता मीडिया संस्थान को, मीडिया कर्मी को डराने-धमकाने की हिम्मत नहीं जुटा पाएगा। पत्रकार सुपारी तो लेंगे-लेकिन राष्ट्रहित में भ्रष्टाचारियों और देश विरोधी तत्वों के खात्मे की।
ये हम नहीं कह रहे। आज की पत्रकारिता को इस नए विशेषण से नवाजा है भारत के सेनाध्यक्ष रह चुके, वर्तमान मोदी सरकार के एक केंद्रीय राज्यमंत्री जेनरल वी.के. सिंह ने। इसके पूर्व भी श्री सिंह मीडिया की तुलना ‘वेश्या’ से कर चुके हैं। और अगर पीछे चलें तो स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हमें ‘बाजारू’ जैसे शब्द से विभूषित कर चुके हैं। थोड़ा और पीछे चलें। तत्कालीन सोवियत संघ की खुफिया एजेंसी केजीबी के लंदन स्टेशन चीफ रह चुके गोर्वास्की ने नब्बे के दशक के आरंभ में प्रकाशित अपनी एक पुस्तक में लिखा था कि भारत से कोई भी खुफिया जानकारी लेना अत्यंत ही आसान है, क्योंकि वहां पैसा लेने वाले राजनेताओं और पत्रकारों की कमी नहीं है। क्या सचमुच भारतीय पत्रकार अथवा मीडिया सब ऐसे ही हैं? राजनीति औैर पत्रकारिता के वर्तमान कालखंड में इस पर बहस होना और तार्किक परिणति पर पहुंचना जरूरी है।
पत्र-पत्रकारों पर ऐसे आरोप पहले भी लगते रहे हैं। किंतु, अब जिस वीभत्स रूप में पत्रकारों पर आरोप लग रहे हैं, उससे समुची की समुची बिरादरी शर्मसार हुई है। अपने हौल-खौल देखता हूं तो, दु:खद रुप से पत्रकारिता में वैसे तत्वों की बहुतायात दिखती है, जिनसे उपर्युक्त धारणा को मजबूती मिलती है। हां, यह एक अत्यंत ही कड़वा सच है कि ऐसी शर्मनाक स्थिति के लिए स्वयं मीडिया कर्मी जिम्मेदार हैं। ये मीडिया कर्मी ही हैं, जिन्होंने राजनेताओं को प्रोत्साहित किया है, हमें ‘बाजारू’, ‘वेश्या’ व ‘सुपारी पत्रकार’ के रुप में पेश करने को। हां, यह सच अवश्य है कि सभी मीडिया कर्मी ऐसे नहीं हैं। लेकिन अपवाद स्वरुप मौजूद स्वच्छ, ईमानदार पत्रकारों की आवाज, इनकी नगण्य संख्या के कारण, नक्कारखाने में तूती की आवाज बन कर रह जाती है। अपेक्षित रुप से प्रभावी नहीं हो पाते ये। तो क्या ये भी मौन धारण कर लें? कलम को अजायबघर के लिए सुरक्षित रख दें? या फिर बहुसंख्य की भीड़ में शामिल हो जाएं? कथित रुप से बहती गंगा में हाथ धोएं? नहीं, कदापि नहीं! प्रतिरोध तो करना ही होगा। पत्रकारीय मूल्य और सिद्धांतों की रक्षा करनी ही होगी। अनैतिकता के मुकाबले नैतिकता को खड़ा कर चुनौती देनी ही होगी। कुछ ऐसा कर भी रहे हैं। विजयी भी हो रहे हैं। राजनीतिक दवाब प्रभाव से इतर ये अनैतिक समझौते के लिए तैयार नहीं। हां, ऐसा भी हो रहा है।
पिछले वर्ष जब महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव की सरगर्मी तेज थी, तब की एक घटना के उद्धृत करना चाहूंगा। प्रसिद्ध खबरिया चैनल ‘आजतक’ के वरिष्ठ संपादकीय सहयोगी, ‘एंकर’ पुण्य प्रसून वाजपेयी ने अपने एक कार्यक्रम में ऐसी जानकारी दी कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ नहीं चाहता कि भाजपा-शिवसेना गठबंधन टूटे। तब शिवसेना-भाजपा के बीच सीटों के बंटवारे पर चल रही तनातनी के बीच यह एक सामान्य जानका री थी। लेकिन, लोकसभा चुनाव में ऐतिहासिक जीत से सब कुछ मुट्ठी में कर लेने की तमन्ना रखने वाले भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह को यह नागवार गुजरा। शाह ने कार्यक्रम समाप्त होते ही प्रसून वाजपेयी को फोन कर तल्ख शब्दों में बताया कि खबर कोई आधार नहीं, बेबुनियाद है। शाह सूत्र की जानकारी चाहते थे। प्रसून के इनकार करने पर शाह ने कहा कि खबर का खंडन कर दिया जाए। शाह यहीं नहीं रुके। उन्होंने प्रसून वाजपेयी को चेतावनी भी दी कि अगर वे ऐसा नहीं करते हैं तो अंजाम के लिए तैयार रहें। शाह ने अंग्रेजी में कहा था... othrwise, you know the consequences!
केंद्र में सत्तारूढ़ दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष द्वारा देश के बड़े खबरिया चैनल के वरिष्ठ संपादकीय सहयोगी को दी गई चेतावनी के मायने? यहां सवाल ‘प्रेरणा’ का भी पैदा होता है। आखिर अमित शाह की इस चेतावनी के पीछे कौन सी भावना या प्रेरणा काम कर रही थी। क्या कारण था कि अमित शाह ऐसी चेतावनी को उत्प्रेरित हुए? किस प्रेरक शक्ति ने उन्हें उकसाया? कहते हैं कि मीडिया की ओर से ही राजनेताओं को ऐसा करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता रहा है। या फिर यह मीडिया ही है, जिसने स्वयं को इतना दीन-हीन बना डाला है कि शासक वर्ग चेतावनी देने से नहीं हिचकता। लेकिन फिर यहां समुचित उत्तर के लिए उपलब्ध पात्र भी चिन्हित होते हैं। बल्कि, गौरवान्वित होते हैं। प्रसून वाजपेयी ने शाह को दो-टूक शब्दों में जवाब दिया था कि ‘‘वे खंडन नहीं करेंगे और जहां तक अंजाम का सवाल है, वे प्रधान संपादक से बात कर लें।’’ यह तो बात हुई एक निडर, स्वतंत्र पत्रकार की। लेकिन दु:खद रुप से मामले की परिणति को भी उद्धृत करने को मजबूर हूं। शाह ने तब भाजपा के एक महामंत्री राममाधव को निर्देश दिया और उन्होंने प्रधान संपादक से बात की। खबर उतार दी गई। ऐसे में राजनेता तो प्रोत्साहित होंगे ही। प्रसून वाजपेयी जहां अनुकणीय बनकर उभरते, संभवत: उदासीन अवस्था में चले गए होंगे। प्रसंगवश, ये वही प्रसून वाजपेयी हैं, जिन्होंने एक अन्य चैनल ‘जी-न्यूज’ में रहते पत्रकारीय नैतिकता की मिसाल कायम की थी। तब ‘जी-न्यूज’ के संपादक कथित रुप से वसूली के प्रयास के आरोप में गिरफ्तार कर लिए गए थे। प्रसून उस वक्त न्यूज बुलेटिन की एंकरिंग कर रहे थे। प्रबंधन की ओर से निर्देश मिला कि गिरफ्तारी के खिलाफ संपादक का बचाव करना है। प्रसून ने यह कहते हुए कि चूंकि आरोप वसूली का है, वे बचाव नहीं कर सकते। संपादक का बचाव तो नहीं ही किया, इस्तीफा भी दे दिया। इस घटना के बाद ‘आजतक’ ने प्रसून को अपने यहां जगह दी थी।
कहने का तात्पर्य कि पत्रकारीय मूल्यों के रक्षार्थ कुर्बानी देने वालों की कमी नहीं। कमी है तो ‘इंडियन एक्सप्रेस’ के संस्थापक रामनाथ गोयनका जैसे संचालकों की। धन का अपना आकर्षण है। मीडिया संस्थान चलाने के लिए भी धन की आवश्यकता पड़ती है। मीडिया भी एक पेशा बन गया है। मैं इससे इनकार नहीं करता। सिर्फ संचालकों और इस पेशे से जुड़े पत्रकारों को याद दिलाना चाहूंगा कि पत्रकारिता पेशा तो बन गया है किंतु सामान्य नहीं, एक पवित्र-पेशा। इसकी आत्मा स्वच्छ है, पवित्र है। इसे कलुषित होने से बचाने, इसकी रक्षा करने की जिम्मेदारी पत्रकारों की ही है। बहुत सारे सहयोगी नाराज होंगे, किंतु सच को सच कहने की आदत से लाचार मैं मजबूर हूं यह रेखाकिंत करने को कि अपने अंतर्मन में झांको, अपने जमीर को देखो, और देखो विशाल भारत के विशाल पाठक वर्ग को जो आज भी, गिरावट के बाद भी, आशा की नजरें हम पर टिकाए हुए है। समाज की हर विधा में प्रविष्ट काले भेडिय़ों की चिंता किए बगैर नगण्य संख्या में ही मौजूद अगर पेशे की पवित्रता को कायम रखते हुए कदमताल करेंगे तब वे काले भेडिय़े भी आपके समक्ष अंजुलि फैला गंगाजल की मांग करने लगेंगे। और तब जो परिवर्तन की लहर पैदा होगी उसका सामना स्वार्थी और बिकाऊ संचालक अथवा पत्रकार नहीं कर पाएंगे। उन्हें भी इस पवित्रवर्ग का साथ देना ही होगा।
हां, यह जरूरी है। बचपन से आज तक पत्रकारिता की ऊंचाईयों को देखने के बाद वर्तमान हिकारती अवस्था स्वीकार्य नहीं। अभी भी कुछ बिगड़ा नहीं है। ‘पतित राजनीति’ के मुकाबले ‘पवित्र पत्रकारिता’ को खड़ा कर दें, पतन की गति धीमी होते-होते विलुप्त हो जाएगी। यह संभव है। एक बार निर्णय तो लें।
मैं युवा पत्रकारों की उस फौज को देख रहा हूं जो बेचैन है वर्तमान दु:अवस्था को देख कर। वह जीना चाहता है, बगैर समझौता किए। उसे चाहिए ईमानदार नेतृत्व, ईमानदार कर्मठ मार्गदर्शक। एक सवाल उठता है संचालकों की स्वार्थी भूमिका को लेकर। मेरा अनुभव कहता है कि अगर सकारात्मक, रचनात्मक प्रयास किए जाएं, पत्रकार और संचालक परस्पर विश्वास के वातावरण में पत्रकारीय दायित्व और राष्ट्रीय अपेक्षा के बीच संतुलन पर चर्चा करें तो समाधान निकल आएंगे। समझौते की कोई गुंजाइश नहीं होगी, संस्थान के हित के साथ भी। और तब कोई राजदल अथवा राजनेता मीडिया संस्थान को, मीडिया कर्मी को डराने-धमकाने की हिम्मत नहीं जुटा पाएगा। पत्रकार सुपारी तो लेंगे-लेकिन राष्ट्रहित में भ्रष्टाचारियों और देश विरोधी तत्वों के खात्मे की।
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