पुरानी मान्यता है कि 'अवसर' कभी भी किसी को वंचित नहीं रखता। समय व अवसर देख 'अवसर' कभी न कभी, सभी के समक्ष उपस्थित अवश्य होता है। तब निर्भर करता है कि उसका उपयोग कौन, कब, कैसे करता है? समयानुसार सदुपयोग की दशा में अनुकूल परिणाम मिलते हैं, दुरुपयोग की दशा में विपरीत हानिकारक प्रमाण। हर काल में यह प्रमाणित होता आया है। बावजूद इसके जब जान-बूझकर, मंदबुद्धि कारण या फिर निज स्वार्थवश अगर उपलब्ध 'अवसर' को नजरअंदाज किया जाता है तब परिणाम के खाते में विफलता और सिर्फ विफलता ही आती है।
ताजा राष्ट्रीय राजनीतिक परिदृष्य में, विडम्बनावश देश के सबसे पुराने राजनीतिक दल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस कुछ ऐसी ही अवस्था को प्राप्त है। अवसर सामने है, तथापि नेतृत्व समय की मांग के अनुरूप इसका सदुपयोग करने में हिचकिचा रहा है। नेतृत्व इस तथ्य को भूल जा रहा है कि सत्ताच्युत होने के बाद भी देश की निगाहें कांग्रेस पर टिकी हैं। 'परिवर्तन' के पक्ष में प्रयोगवश देश के बहुमत ने जिस भारतीय जनता पार्टी को सत्ता सौंपी है, उस पर निगरानी व अंकुश की अपेक्षा जनता एक सशक्त विपक्ष के रूप में कांग्रेस से कर रही है। लोकसभा में अल्पसंख्या के बावजूद पिछले 2 वर्ष के कार्यकाल में कांग्रेस विपक्ष की भूमिका में सफल तो रही है, किंतु एक राष्ट्रीय दल के रूप में जनमानस के बीच अपेक्षित स्वीकृति प्राप्त करने में विफल रही है।
समीक्षक एकमत हैं कि राष्ट्रीय अध्यक्ष के रूप में सोनिया गांधी की मौजूदगी के बावजूद पूरा देश अभी भी उन पर पूरी 'आस्था' प्रकट नहीं कर पा रहा है। राहुल गांधी को उपाध्यक्ष बनाकर उन्हें अध्यक्ष पद के लिए तैयार करने की कोशिशें की गईं। कुछ परिलक्षित परिवर्तन और प्रगति के पश्चात भी राहुल गांधी स्वयं पार्टी के अंदर एकमेव पसंद नहीं बन पा रहे हैं। यह एक सच है और इस तथ्य के आधार पर ही कांग्रेस को भविष्य के लिए नेतृत्व और रणनीति पर निर्णय लेना होगा। पुत्रमोह व वंशमोह से इतर व्यापक दलहित में फैसले लेने होंगे। इस सचाई को ध्यान में रखते हुए कि इस बिंदू पर गलत निर्णय न केवल कांग्रेस दल बल्कि भारत और भारत के लोकतंत्र के लिए घातक सिद्ध होगा। विकल्प मौजूद है। वंश के भीतर भी, वंश के बाहर भी।
गलत ही सही, यह धारणा अभी भी आधारहीन नहीं हुई है कि कांग्रेस को 'गांधी -नेहरू' का मुलम्मा चाहिए ही। आजादी के बाद से मतदाता के बीच 'गांधी-नेहरू' अपनी पैठ बना चुका है। पिछले चुनाव में पराजय का कारण इसके प्रति मोहभंग नहीं, बल्कि भष्टाचार था। जिस प्रकार 1977 में कुशासन और भ्रष्टाचार के कारण जनता ने कांग्रेस को अस्वीकार कर दिया था उसी प्रकार 2014 में भी जनता ने कांग्रेस के खिलाफ मत प्रकट कर भ्रष्टाचार के विरूद्ध अपना फैसला सुनाया था। अर्थात जनता को गांधी-नेहरू परिवार तो स्वीकार्य है किंतु भ्रष्टाचार नहीं। परिवार में भी 'योग्यता' पसंद करेगी जनता। कड़वा सच कि इस कसौटी पर राहुल गांधी खरे नहीं उतर रहे। फिर क्यों नहीं परिवार में मौजूद अन्य योग्य व स्वीकार्य चेहरे को सामने ला कांग्रेस नया प्रयोग करे। हां, यहां एक और सिर्फ एक चेहरा प्रियंका गांधी के रूप में सामने है। प्रयोग के तौर पर अगले वर्ष होनेवाले उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव की कमान प्रियंका को सौंप पार्टी उनकी उपयोगिता की परीक्षा ले सकती है। निर्णय सिर्फ कांग्रेस दल के हित हेतु न हो, वृहत्तर राष्ट्रीय हित संबंधी हो।
ताजा राष्ट्रीय राजनीतिक परिदृष्य में, विडम्बनावश देश के सबसे पुराने राजनीतिक दल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस कुछ ऐसी ही अवस्था को प्राप्त है। अवसर सामने है, तथापि नेतृत्व समय की मांग के अनुरूप इसका सदुपयोग करने में हिचकिचा रहा है। नेतृत्व इस तथ्य को भूल जा रहा है कि सत्ताच्युत होने के बाद भी देश की निगाहें कांग्रेस पर टिकी हैं। 'परिवर्तन' के पक्ष में प्रयोगवश देश के बहुमत ने जिस भारतीय जनता पार्टी को सत्ता सौंपी है, उस पर निगरानी व अंकुश की अपेक्षा जनता एक सशक्त विपक्ष के रूप में कांग्रेस से कर रही है। लोकसभा में अल्पसंख्या के बावजूद पिछले 2 वर्ष के कार्यकाल में कांग्रेस विपक्ष की भूमिका में सफल तो रही है, किंतु एक राष्ट्रीय दल के रूप में जनमानस के बीच अपेक्षित स्वीकृति प्राप्त करने में विफल रही है।
समीक्षक एकमत हैं कि राष्ट्रीय अध्यक्ष के रूप में सोनिया गांधी की मौजूदगी के बावजूद पूरा देश अभी भी उन पर पूरी 'आस्था' प्रकट नहीं कर पा रहा है। राहुल गांधी को उपाध्यक्ष बनाकर उन्हें अध्यक्ष पद के लिए तैयार करने की कोशिशें की गईं। कुछ परिलक्षित परिवर्तन और प्रगति के पश्चात भी राहुल गांधी स्वयं पार्टी के अंदर एकमेव पसंद नहीं बन पा रहे हैं। यह एक सच है और इस तथ्य के आधार पर ही कांग्रेस को भविष्य के लिए नेतृत्व और रणनीति पर निर्णय लेना होगा। पुत्रमोह व वंशमोह से इतर व्यापक दलहित में फैसले लेने होंगे। इस सचाई को ध्यान में रखते हुए कि इस बिंदू पर गलत निर्णय न केवल कांग्रेस दल बल्कि भारत और भारत के लोकतंत्र के लिए घातक सिद्ध होगा। विकल्प मौजूद है। वंश के भीतर भी, वंश के बाहर भी।
गलत ही सही, यह धारणा अभी भी आधारहीन नहीं हुई है कि कांग्रेस को 'गांधी -नेहरू' का मुलम्मा चाहिए ही। आजादी के बाद से मतदाता के बीच 'गांधी-नेहरू' अपनी पैठ बना चुका है। पिछले चुनाव में पराजय का कारण इसके प्रति मोहभंग नहीं, बल्कि भष्टाचार था। जिस प्रकार 1977 में कुशासन और भ्रष्टाचार के कारण जनता ने कांग्रेस को अस्वीकार कर दिया था उसी प्रकार 2014 में भी जनता ने कांग्रेस के खिलाफ मत प्रकट कर भ्रष्टाचार के विरूद्ध अपना फैसला सुनाया था। अर्थात जनता को गांधी-नेहरू परिवार तो स्वीकार्य है किंतु भ्रष्टाचार नहीं। परिवार में भी 'योग्यता' पसंद करेगी जनता। कड़वा सच कि इस कसौटी पर राहुल गांधी खरे नहीं उतर रहे। फिर क्यों नहीं परिवार में मौजूद अन्य योग्य व स्वीकार्य चेहरे को सामने ला कांग्रेस नया प्रयोग करे। हां, यहां एक और सिर्फ एक चेहरा प्रियंका गांधी के रूप में सामने है। प्रयोग के तौर पर अगले वर्ष होनेवाले उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव की कमान प्रियंका को सौंप पार्टी उनकी उपयोगिता की परीक्षा ले सकती है। निर्णय सिर्फ कांग्रेस दल के हित हेतु न हो, वृहत्तर राष्ट्रीय हित संबंधी हो।
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