विडम्बना?
हां! यह विडम्बना
ही है कि
वर्तमान पूर्वाग्रही सामाजिक, राजनीतिक
सोच ने मानव
मस्तिष्क को इतना
कुंठित कर दिया
है कि, स्पष्टवादिता
भी आज अयोग्यता
के कारण बन
रहे हैं। किसी
स्पष्टवादी को, तथ्यपरक
सचाई चिन्हित करनेवाले
को, दलगत राजनीति
से इतर कड़वे
यथार्थ को प्रस्तुत
करनेवाले को बड़बोला
बता राजनीतिक रूप
से अयोग्य कैसे
करार दिया जा
सकता है? खेद
है कि कतिपय
राजनीति के विकृत
मस्तिष्कधारक ऐसा कर
रहे हैं। संभवत:
जानबूझकर, राजनीतिक लाभ-हानि
को खंगालकर।
केंद्रीय परिवहन एवं जहाजरानी
मंत्री नितिन गडकरी ऐसी
ही कुत्सित मानसिकता
के प्रहार सहने
को मजबूर हो
गए हैं। अपराध
यह कि उन्होंने
राजनीतिक वितंडवाद के एक
स्याह पक्ष को
चिन्हित करते हुए
सार्वजनिक रूप से
कह डाला कि
'अच्छे दिन कभी
नहीं आते... यह
बात हमारे गले
में लटक गई....,
और यह कि
हमारा देश अतृप्त
आत्माओं का महासागर
है, यहां जिसके
पास कुछ है
उसे और चाहिए।
वह भी पूछता
है कि अच्छे
दिन कब आएंगे।
‘ गडकरी ने हालांकि
यह भी बता
दिया कि 'अच्छे
दिन’ वाली बात
मूलत: पूर्व प्रधानमंत्री
डॉक्टर मनमोहन सिंह की
छेड़ी हुई थी।
एक अप्रवासी भारतीयों
के कार्यक्रम में
डॉ. सिंह ने
कहा था कि
'अच्छे दिन’ आने
के लिए इंतजार
करना होगा। गडकरी
ने साफ शब्दों
में आगे बता
दिया कि वस्तुत:
डॉ. मनमोहन सिंह
की बातों के
जवाब में नरेंद्र
मोदी ने विगत
लोकसभा चुनाव अभियान के
दौरान कहा था
कि, 'हमारी सरकार
आएगी तो अच्छे
दिन आएंगे।’ गडकरी
ने यह भी
खुलासा कर दिया
था कि यह
बात किसी और
ने नहीं स्वयं
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने
उन्हें बताई थी।
देश के महान
बुद्धिजीवी, महान पत्रकार
बंधु या अब
विपक्ष का नेतृत्व
कर रहे महान
राजनेता क्या यह
बताएंगे कि गडकरी
के शब्दों में
या फिर उनके
आशय में गलत
क्या है? देश
के पूर्व प्रधानमंत्री
डॉ. मनमोहन सिंह
ने देश को
कहा था कि
अच्छे दिन आएंगे।
उनकी सरकार चली
गई। सत्ता की
दौड़ में भाजपा
के नरेंद्र मोदी
ने जनता को
आश्वासन दिया कि,
'जब हमारी सरकार
आएगी तो 'अच्छे
दिन’ आएंगे।’ इसमें
गलत क्या है?
रही बात आश्वासन
के कथित रूप
से गले की
हड्डी बन जाने
की, तो अल्पज्ञानधारी
भी इस बिंदु
पर यह बताने
में हिचकिचाएगा नहीं
कि नितिन गडकरी
का आशय आश्वासन
में निहित अतिरेक
को लेकर था।
जानकार पुष्टि करेंगे कि,
प्रधानमंत्री मोदी एवं
गडकरी सहित न
केवल सत्ता पक्ष
बल्कि, विपक्ष के भी
नेता इस बात
को अच्छी तरह
जानते हैं कि
जनता के बीच
जितना अधिक आप
आशा, आकांक्षाओं को
जागृत करेंगे, अपेक्षाएं
पैदा करेंगे, राजनीतिक
रूप से वे
वादे गले की
हड्डी ही बनते
रहे हैं। भारत
जैसे विशाल देश
में आजादी के
प्रथम दिवस से
लेकर आज तक
यही होता आया
है।
मेरी चुनौती है उन
सभी 'सु-आत्माओं’
को कि वे
'अच्छे दिन’ की
सीमा को बता
दें। क्या कभी
इसकी सीमा कोई
निर्धारित कर सकता
है? संभव ही
नहीं। यह 'मानव
मन’ है जिस
पर अंकुश सामान्यत:
संभव नहीं। नितिन
गडकरी ने इसी
स्वाभाविक 'मानव मन’
की भावना को
समझ कहा था
कि 'हमारा
देश अतृप्त आत्माओं
का महासागर है।
यहां जिसके पास
कुछ है उसे
और चाहिए।’ कुछ
नगण्य अपवाद छोड़
दें तो भौतिकवादी
वर्तमान समाज के
'मानव मन’ की
इच्छाएं, आकांक्षाएं सीमित नहीं,
असीमित हैं। जिस
मानव ने अपनी
इच्छा को सीमित
कर दिया वह
वस्तुत: ब्रह्म की श्रेणी
में पहुंच जाता
है, संन्यासी हो
जाता है। इच्छा नियंत्रण, आकांक्षा
का सीमांकन कोई बिरले
ही कर पाता
है। वस्तुत: नितिन
गडकरी का आशय
और उनकी भावना
इसी सत्य के
आधार पर प्रस्फुटित
हुर्इं थी। लेकिन,
गंदी स्वार्थी राजनीति
का वृहद जाल
जिसमें नितिन गडकरी को
फांसने की कोशिश
न केवल विपक्ष
बल्कि दबी जुबान
से ही सही
स्वयं उनकी पार्टी
भाजपा के कुछ
विघ्नसंतोषी करने लगे
हैं। पूर्वाग्रही होना
एक बात है,
अज्ञानी होना कुछ
और। गडकरी को
कटघरे में खड़े
करनेवाले न केवल
पूर्वाग्रही हैं बल्कि,
अज्ञानी भी हैं।
विडम्बना का यह
ताजा चरित्र-स्वरूप
संशोधन का आग्रही
है। क्या कोई
सामाजिक, राजनीतिक नेतृत्व पहल
करेगा? सफलता- असफलता के
मकडज़ाल से निकलकर
ही कोई ऐसा
कर सकता है।
भारतीय अध्यात्म, दर्शन व
समाज के अतुलनीय
चिंतक स्वामी विवेकानंद
ने सफलता-असफलता
की विवेचना करते
हुए एक बार
कहा था कि
''असफलता तभी होती
है जब हम
अंत:स्थ अमोघ
शक्ति को अभिव्यक्त
करने का यथेष्ट
प्रयत्न नहीं करते।
जिस क्षण व्यक्ति
या राष्ट्र आत्मविश्वास
खो देता है
उसी क्षण वह
समाप्त हो जाता
है। .... हमारे अंदर एक
दिव्य तत्व है
जो न तो
चर्चों के मतवादों
से पराभूत किया
जा सकता है,
न भत्र्सना से।
‘‘ नितिन गडकरी आश्वस्त रहें।
राजनीति का वर्तमान
कालखंड युवाओं की सक्रिय
सहभागिता और यथार्थ
आधारित ईमानदार नेतृत्व का
आग्रही है। उसे
एक ईमानदार स्पष्टवादी
मार्गदर्शक चाहिए, ऐसा मार्गदर्शक
जो राष्ट्र व
समाजहित में संकुचित
दलीय विचारधारा का
त्याग कर वृहद्तर
नई राष्ट्रीय विचारधारा
के प्रवाह के
लिए मार्ग सुगम
कर सके। तेज-तर्रार
व्यग्र वर्तमान युवा वर्ग
घिसे-पिटे परम्परागत
नेतृत्व से ऊब
चुका है। रटे
- रटाए अलंकारिक, कथित रूप
से जोशीले शब्दबाण
उसे स्वीकार्य नहीं।
उसे एक यथार्थ
आधारित स्पष्टवादी सोच चाहिए,
दिशा-निर्देशक चाहिए।
उसे चाहिए ऐसा
नेतृत्व जो वैश्विक
प्रतिस्पर्धा में उसके
लिए सफलता का
लक्ष्य निर्धारित कर शीर्ष
पर पहुंचा सके।
उसे लुंजपुंज, शिथिल
नहीं, अति सक्रिय,
बेबाक, आक्रामक, नेतृत्व चाहिए-
नितिन गडकरी सदृश।
शब्द चाहे कर्णप्रिय
न होकर कर्णभेदी
ही क्यों न
हो, सत्य आधारित
होने चाहिए। किसी
रोग का निवारण
एक चिकित्सक पहले
रोग की सही
पहचान कर ही
कर सकता है।
रोग को छिपा
कर कोई रोगी
यह अपेक्षा नहीं
कर सकता कि
चिकित्सक उसे निरोग
कर देगा। आलोच्य
संदर्भ में नितिन
गडकरी ने रोग
अर्थात सचाई को
पहचान कर, परख
कर ही 'अच्छे
दिन’ को कथितरूप
से गले की
हड्डी चिन्हित किया
है। विद्वान समीक्षक
इस मर्म को
समझें।
गडकरी की स्पष्टवादिता
वस्तुत: उनका मूल
आचरण है। हां,
मानव हैं तो
मानवीय भूल भी
संभव है। कुछ
न कुछ भूलें
तो सर्वदा होंगी
हीं। उन पर
खेद प्रकट नहीं
किया जाना चाहिेए,
ऐसा करना समय
का अपव्यय होता
है। धर्म ग्रंथों
व इतिहास के
पन्नों को पलट
लें, महाअंतर्दृष्टि प्राप्त
करनेवाले महामानव हमेशा अपनी
दृष्टि आगे लक्ष्य
पर रखते हैं,
पीछे पलटकर नहीं
देखते। ऐसा मुक्त
स्वभाव वस्तुत: मानव को
ईश्वरीय देन है।
यह मुक्त स्वभाव
चूंकि, हर जगह
विद्यमान है, राष्ट्र
व समाजहित के
प्रति समर्पित व्यक्ति
इसे पहचान ग्रहण
करता रहता है।
किसी भी नेतृत्व
को सफलता सहजतापूर्वक
नहीं मिलती। किसी
भी क्षेेत्र में
सफलता का मार्ग
कांंटों भरा ही
होता है, राह
में ईंट-पत्थर
भी मिलते रहते
हैं। इस राह
पर चलनेवालों को
चुभन से दो-चार होना
ही पड़ता है।
नितिन गडकरी इसी
और ऐसी ही
अवस्था में मुखर
हो रहे हैं।
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