कहा जाता है और लिखा भी जाता है कि देश में शिक्षा का प्रसार तेजी से हुआ और हो रहा है। और यह भी कि सामाजिक जागरूकता भी बढ़ी है और बढ़ रही है। लोग सजग-सतर्क हैं अपने अधिकारों के प्रति। संविधान प्रदत्त अधिकारों से बखूबी परिचित देश के नागरिक लोकतंत्र के पायों को मजबूत कर रहे हैं। चौकस मीडिया की नजरें अपेक्षा के अनुरूप 'वाच डॉग' की भूमिका को अंजाम दे रही हैं। तब कोई हताश, निराश क्यों हैं? लेखक, कवि, व्यंग्यकार, मंच संचालक और संपादक के रूप में ख्याति अर्जित कर चुके राजेंद्र पटोरिया आज मिले। साथ में पत्रकार और राष्ट्रीय पुस्तक मेला के संयोजक चंद्रभूषण भी थे। विभिन्न विषयों पर चर्चा के दौरान दोनों फूट पड़े कि आज देश को सबसे बड़ा खतरा अगर किसी से है तो वह है सरकारी आतंकवाद। पटोरियाजी ने यह भी जोड़ दिया कि मीडिया से भी खतरे मौजूद हैं। मेरी जिज्ञासा पर इन दोनों ने पुस्तक मेला के आयोजन में शासकीय स्तर पर उठाई गई कतिपय अड़चनों की जानकारी दी, जबकि ये पिछले 15 वर्षों से नागपुर में पुस्तक मेले का आयोजन करते आ रहे हैं। हर राज्य के अनेक क्षेत्रों में इनके आयोजन होते हैं। दोनों नागपुर के एक आईएएस अधिकारी के बर्ताव पर क्षुब्ध थे। कहा कि ''हमसे अभद्र बर्ताव किया गया, चुनौती दी गई कि आप आयोजन कर दिखाएं।'' इन पर अविश्वास का कोई आधार नहीं है। हां, यह आश्चर्य अवश्य कि एक युवा आईएएस अधिकारी ने गरिमा का त्याग कैसे कर दिया? ऐसा नहीं होना चाहिए था। संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षा उत्तीर्ण कर कुशाग्र बुद्धिधारी युवा भारतीय प्रशासनिक अधिकारी के रूप में प्रशासन की बागडोर सम्हालते हैं। बाबुओं की लालफीताशाही पर अंकुश लगाने की जिम्मेदारी उन पर होती है। इस दायित्व का निर्वाह ये बखूबी कर भी रहे हैं। फिर ऐसा क्यों कि समाज के दो जिम्मेदार व्यक्ति इनमें से किसी को 'आतंक' के रूप में देखने लगे। क्या इस पर सामाजिक चिंतन की जरूरत नहीं? इस प्रक्रिया के द्वारा ही संयम खोते-भटके अधिकारियों को सही रास्ते पर लाया जा सकता है। भारतीय प्रशासनिक सेवा और भारतीय पुलिस सेवा के हाथों में ही पूरे प्रशासन की बागडोर है। अर्थात प्रशासनिक व्यवस्था की रीढ़ हैं ये। इन पर कोई दाग न लगे, आभा की चमक धूमिल न हो, इसकी जिम्मेदारी स्वयं प्रशासनिक अधिकारियों पर है। अपने दायित्व के प्रति ईमानदारी और आवेश पर नियंत्रण से ही ऐसा संभव है। क्या वे निराश करेंगे?
सामाजिक जागरूकता और मीडिया की 'वास्तविकता' पर आज सुख्यात सामाजिक कार्यकर्ता गिरीश गांधी भी निराश दिखे। एक प्रसंग में उन्होंने मुझसे पूछा कि आप जो बेबाक लिखते हैं, उससे आपको क्या मिलता है? उनकी इस जिज्ञासा का आधार मीडिया का वर्तमान 'सच' था। अपने सामाजिक और पत्रकारीय दायित्व बताने पर उन्होंने शून्य परिणाम को रेखांकित करते हुए निर्णय दे डाला कि इस देश में कुछ नहीं होने वाला। पिछले 4 दशक से अपनी जिंदगी के हर पल को समाज को समर्पित करने वाले व्यक्ति के मुख से ऐसी निराशाजनक बातें निकले, तब यह आमंत्रण है नये सिरे से पूरी व्यवस्था पर पुनर्विचार हेतु राष्ट्रीय बहस का। क्या कोई इस हेतु पहल करेगा? प्रतीक्षा रहेगी।
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