खबर आपने पढ़ी होगी या फिर सुनी होगी। देश की महत्वपूर्ण संवैधानिक संस्था भारत का निर्वाचन आयोग दंतविहीन प्रेस कौंसिल से चाहता है कि वह 'पेड न्यूज' अर्थात् पूर्व भुगतानी खबर की परिभाषा बताए। हर दृष्टि से निर्वाचन आयोग की यह पहल दायित्व से पीछा छुड़ाने की कसरत है। क्या निर्वाचन आयोग में बैठे तीनों आयुक्त इतने मासूम व अज्ञानी हैं कि उन्हें 'पेड न्यूज' की परिभाषा जानने के लिए प्रेस कौंसिल की मदद चाहिए? आयोग का यह सुझाव भी विचित्र ही नहीं बल्कि विवेकहीन है कि 'पेड न्यूज' के मसले का हल स्वयं राजनीतिक दल और मीडिया मिलकर निकालें। आयोग यह भी मानता है कि इस व्याधि के उपचार की दिशा में प्रेस कौंसिल बड़ी भूमिका निभा सकती है। आयोग ने इस मुद्दे को उठाया यह तो ठीक है। इस कदम के लिए आयोग का अभिनंदन। किंतु यह बात समझ से परे है कि वह अपने अधिकारों का 'आउटसोर्स' क्यों करना चाहता है। यहां आयोग की नीयत पर सवालिया निशान लग रहे हैं। पिछले लोकसभा चुनाव के बाद मीडिया के एक वर्ग ने लांछनयुक्त इस प्रवृत्ति (पेड न्यूज) के खिलाफ आवाज उठाई थी। दिवंगत प्रभाष जोशी की अगुवाई में अभियान छेड़ा गया था। सेमिनार आयोजित किए गए, लेख लिखे गए, भाषण हुए। निर्वाचन आयोग को प्रतिवेदन भी दिए गए थे। तब आयोग की ओर से कहा गया था कि अगर प्रमाण सहित कोई निश्चित शिकायत उसके पास आती है तब वह वैसी खबरों के भुगतान को संबंधित उम्मीदवार के खर्चे के मद में डाल देगा। लेकिन, सब कुछ बेअसर। उसके बाद कुछ राज्यों में संपन्न विधानसभा चुनाव में 'पेड न्यूज' से आगे बढ़ते हुए 'न्यूज पैकेज' का उदय हुआ। मीडिया घरानों ने राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों के लिए निश्चित राशि के पैकेज तय कर डाले। ऐलान कर दिया गया था कि खबरें तभी छपेंगी-प्रसारित होंगी जब पैकेज में निश्चित राशि का भुगतान होगा। आयोग द्वारा निर्धारित खर्च की सीमा को चुनौती ही तब नहीं दी गई थी बल्कि व्यापक स्तर पर काले धन का लेनदेन हुआ। उम्मीदवारों ने काले धन से भुगतान किया और मीडिया घरानों ने काले धन को संरक्षित किया। क्या यह अपराध नहीं? उम्मीदवार और मीडिया घराने किसकी आंखों में धूल झोंकना चाहते थे? अखबारों में तब छपी खबरों के स्वरूप-आकार और टीवी चैनलों पर प्रसारित खबरों के चरित्र चीख-चीख कर बता रहे थे कि ये सब भुगतानी खबरें हैं। यहां मुद्दा सिर्फ राजनीतिक दल या मीडिया का नहीं है। देश की अर्थव्यवस्था को छिन्न-भिन्न करनेवाले काले धन के प्रसार व संरक्षण का भी है। इनका संज्ञान तो चुनाव आयोग के अलावा आयकर विभाग, प्रवर्तन निदेशालय सदृश अन्य एजेंसियों को भी लेना चाहिए। चुनाव जीत संसद व विधानसभाओं में पहुंच कानून बनाने की अहम जिम्मेदारी निभाने वाले ऐसे जनप्रतिनिधियों से क्या उम्मीद की जाए? क्या ये सुशासन दे पाएंगे? अपेक्षा ही नहीं की जा सकती।
पाप की सीढिय़ां पापघर में जाकर समाप्त होती हैं। इन पर चढऩे वाले पांव पापीयों के ही होते हैं। लोकतंत्र का यह एक ऐसा 'कोढ़' है जिसकी तत्काल शल्यक्रिया की जानी चाहिए। मुख्य चुनाव आयुक्त और उनके दोनों सहयोगी आयुक्त 'पेड न्यूज' के अर्थ से अच्छी तरह परिचित होंगे ही। इसे परिभाषित करने में चुनाव आयोग पूर्णत: सक्षम है। संविधान ने उसे अपार शक्तियां प्रदान की हैं। किसी भी जांच एजेंसी को तलब करने का अधिकार प्राप्त है। फिर, 'पेड न्यूज' के मामले में कार्रवाई से टालमटोल क्यों? जरूरत है, वे किसी दबाव में न आएं। दलीय पक्षपात से दूर रहें। संसदीय लोकतंत्र में अपने महत्व को पहचाने आयोग। इस 'कोढ़' से देश को मुक्ति दिलाए। ऐसा कर आयोग लोकतंत्र के दो महत्वपूर्ण पायों-विधायिका और प्रेस दोनों को पापमुक्त कर पवित्र करने का पुण्यलाभ भी उठा सकता है।
1 comment:
किसी पर कोई असर नही होता जब कि सच्चाई सब जानते हैं.....कारण साफ है सभी इस सू(कु)कर्म मे लिप्त है....कौन किस को दोष देगा...???
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