Friday, December 25, 2009
तेलंगाना : कमजोर एवं विवश केंद्र सरकार
तेलंगाना के मुद्दे पर अपने वादे से पीछे हटने वाली केंद्र सरकार ने यह साबित कर दिया है कि वह एक कमजोर सरकार है, गृह मोर्चे पर असहाय सरकार है। पहले तो केंद्र ने अपने ही गृहमंत्री पी. चिदंबरम को पूरे देश के सामने झूठा और निरीह साबित किया और अब आम सहमति के नाम पर पलायनवादी रूख अपना रही है। तेलंगाना को ठंडे बस्ते में डाल केंद्र सरकार क्या भड़की आग पर काबू पा सकेगी? यह संभव नहीं। मैं पहले टिप्पणी कर चुका हूं कि तेलंगाना की चिनगारी केंद्र सरकार की ढुलमुल नीति के कारण दावानल का रूप ले लेगी। हिंसक प्रदर्शन और सांसदों-विधायकों के इस्तीफे ने खतरे की घंटी बजा दी है। राजनीतिक दलों के बीच मतभेद की बात करने वाले गृहमंत्री पी. चिदंबरम को क्या इसकी जानकारी उस समय नहीं थी, जब उन्होंने पृथक तेलंगाना राज्य के गठन के पक्ष में नीतिगत घोषणा की थी। कहा था कि पृथक तेलंगाना राज्य के गठन की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है। इस मुद्दे पर मतभेद का इतिहास तो काफी पुराना है। लगभग 46 वर्ष पूर्व इंदिरा गांधी ने अपनी ही पार्टी के मुख्यमंत्री पी. वी. नरसिम्हा राव को सिर्फ इसलिए बर्खास्त कर दिया था कि तटीय आंध्रप्रदेश के विधायकों ने तेलंगानावासी राव के विरूद्ध हिंसक आंदोलन छेड़ दिया था। उस आंदोलन में पुलिस के हाथों लगभग 350 प्रदर्शनकारी मारे गए थे। पृथक तेलंगाना का आंदोलन तब प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के लिए चुनौती था। इंदिरा ने तब अपनी विशेष शैली से आंदोलन की आग पर पानी डाल दिया था, लेकिन आग कभी बुझी नहीं। ताजातरीन आंदोलन तब के आंदोलन से आधिक उग्र बनने जा रहा है। पृथक तेलंगाना के विरोधियों का तर्क है कि एक ही भाषा बोलने वाले प्रदेश को दो राज्यों में नहीं बांटा जा सकता। यह तर्क बे-जान है। इसके पूर्व गठित झारखंड बिहार से अलग हुआ, छत्तीसगढ़ मध्यप्रदेश से अलग हुआ और उत्तराखंड उत्तरप्रदेश से अलग हो चुका है। ये राज्य भाषा के आधार पर नहीं बंटे। सभी की भाषा एक ही थी। आम सहमति की बात भी बेमानी है। जिस समय झारखंड बिहार से अलग हुआ, उस समय बिहार में जनता दल का शासन था और लालू प्रसाद यादव मुख्यमंत्री थे। लालू घोषणा कर चुके थे कि बिहार का विभाजन उनकी लाश पर होगा। किंतु विभाजन हुआ और लालू भी सही सलामत रहे, लाश नहीं बने। वैसे लालू तो बेचारे छोटे हैं, राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने भी अखंड भारत के पक्ष में घोषणा कर रखी थी कि देश का विभाजन उनकी लाश पर होगा। उनके ही शिष्यों ने उनकी अनदेखी की। विभाजन के दस्तावेज पर हस्ताक्षर कर दिए। गांधी को पूछा भी नहीं। आज जब तेलंगाना जल रहा है, कड़े निर्णय की जरूरत है। राजनीतिक दांव-पेंच और तेलुगू भाषियों को लड़ाने की साजिश रची जा रही है। यह वह राजनीति का घृणित दांव-पेंच है, जो राजनीतिज्ञों को जनता की नजरों में अविश्वसनीय बनाती है। केंद्रीय नेता इस तथ्य को नजरअंदाज न करें कि आरंभिक विरोध के बावजूद आंध्र के विभाजन पर कोई बड़ा बवाल नहीं मचने वाला? उपेक्षा की शिकार तेलंगाना अगर एक राज्य बनकर विकास की दौड़ में शामिल होना चाहता है तो उसे क्यों रोका जा रहा है? और यहां तो मामला वादाखिलाफी का भी बनता है। तब अनशन पर बैठे तेलंगाना राष्ट्र समिति के प्रमुख के. चंद्रशेखर राव का अनशन तोड़वाया गया, पृथक तेलंगाना राज्य के निर्माण की घोषणा के साथ। बेहतर हो इसी नेता व रूप विशेष को खुश करने की जगह तेलंगाना के व्यापक हित में उसे राज्य का दर्जा दे दिया जाए। भारत अभी महंगाई और आतंकवाद के खतरों से जूझ रहा है। अभी जरूरत है कि अन्य विवादों से परे सभी मिलजुल कर इनका मुकाबला करें। महंगाई जहां गरीबों के मुंह से निवाला छीन रही है, वहीं आतंकवाद निर्दोषों के खून से होली खेल रहा है।
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