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Tuesday, May 18, 2010

झारखंड पर कोई दया करेगा?

क्या अब भी झारखंड पर कोई दया करेगा? झारखंड, राजनीतिक-रोगग्रस्त है। पीडि़त है। कठोर शब्द और आशंका के लिए मैं मजबूर हंू। झारखंड प्रदेश गठन के पूर्व पृथक झारखंड आंदोलन के दौरान अन्य लोगों के साथ-साथ मैं भी पृथक राज्य के पक्ष में तर्क दिया करता था कि अलग राज्य बनने पर वहां उपलब्ध नैसर्गिक संसाधनों के बलबूते झारखंड कालांतर में देश का सर्वाधिक समृद्ध राज्य बन जाएगा। लेकिन सत्ताधारियों ने निराश किया। राज्य निर्माण के बाद विकास के उलट लूट-खसोट का ऐसा तांडव शुरू हुआ कि 'समृद्ध झारखंड' का स्वप्न देखनेवाले सौ-सौ आंसू रोने को मजबूर हो गए। वन एवं खनिज संपदा पर सत्ता से साठगांठ कर व्यापारी-दलाल दिनदहाड़े डाके डालते रहे। राज्य के विकास की जगह उपलब्ध नैसर्गिक संसाधनों को लूट ये तत्व अपना घर भरते रहे। प्रदेश को कंगाल बनाने की साजिश में अनेक बड़े बाहरी उद्योगपति भी शामिल थे। वहां जारी राजनीतिक अस्थिरता के पीछे भी इन्हीं साजिशकर्ताओं के हाथ रहे। स्थिर एवं मजबूत सरकार इन्हें बर्दाश्त नहीं।
यह ठीक है कि पिछले तीन सप्ताह से जारी राजनीतिक गतिरोध अब समाप्त हो गया। किंतु भविष्य पर चस्पा यक्षप्रश्न तो कायम ही है! चक्रीय आधार पर पहले 28 महीने भाजपा की और फिर शेष 28 महीने झारखंड मुक्ति मोर्चा के नेतृत्व की सरकार का तय फार्मूला कितना सफल होता है, इसका जवाब भविष्य में मिलेगा। बहरहाल कठिन परीक्षा के दौर से भाजपा और झामुमो दोनों को गुजरना होगा। विशेषकर भाजपा को। चूंकि पिछले तीन सप्ताह की राजनीतिक अस्थिरता से भाजपा की छवि विकृत हुई है, उसे सावधान रहना होगा। कुछ माह बाद पड़ोसी बिहार में चुनाव हो रहे हैं। भाजपा के नए राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी की असली परीक्षा बिहार के चुनावों में ही होगी। दिल्ली की दलदली राजनीति का स्वाद चख रहे गडकरी को अब कड़ा रुख अपनाना ही होगा। झारखंड की घटना के बाद उनकी आंखें अवश्य ही खुल गई होंगी। झारखंड मामले में जिस राजनीतिक अपरिपक्वता का प्रदर्शन किया गया उससे लोग आश्चर्यचकित हैं।
पहले शिबू सोरेन की सरकार से समर्थन वापसी की घोषणा, फिर रोक, फिर झामुमो पर दबाव - सौदेबाजी, फिर घोषणा कि शेष साढ़े चार वर्ष के लिए भाजपा का ही मुख्यमंत्री होगा। चक्रीय आधार पर सत्ता में भागीदारी की झामुमो पेशकश को मानने से पहले इनकार और अंत में तैयार होना आदि घटनाओं ने भाजपा का मजाक बना डाला। मैं यह मानने को कतई तैयार नहीं कि भाजपा का शीर्ष नेतृत्व अपरिपक्व है। फिर ऐसी हास्यास्पद स्थिति क्यों? पिछले दिनों मैं झारखंड में था। राजनीति से सरोकार रखनेवाला प्रत्येक व्यक्ति चकित मिला कि भाजपा स्वयं अपनी कब्र खोदने को व्यग्र क्यों है? नेतृत्व के मुद्दे पर भाजपा के अंदरूनी घमासान की चर्चा गली-चौराहों पर हो रही थी। प्रदेशहित में सभी की चाहत एक स्थिर सरकार की दिखी। किंतु शीर्ष नेतृत्व में मौजूद स्वार्थी तत्व सिर्फ अपना हित देख रहे थे। पार्टी की हो रही फजीहत की इन लोगों ने जानबूझकर अनदेखी की। सामान्य कार्यकर्ता हैरान-परेशान दिखा। अध्यक्ष गडकरी की ओर से प्रदेशहित में सार्थक निर्णय की आशा वे कर रहे थे। पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा को मुख्यमंत्री के पद पर मनोनीत किए जाने से प्रदेशहित में सुशासन की आशा बंधी है। झारखंड मुक्ति मोर्चा के साथ अपने पुराने संबंध का लाभ उठा अर्जुन मुंडा एक स्थिर सरकार प्रदान करेंगे ऐसी आशा की जा सकती है। किंतु शर्त यह कि भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व में मौजूद कथित बड़े नेता अपने स्वार्थ मुंडा पर ने थोपें। वन, खनिज संपदा की लूट में साजिशकर्ताओं के पीठ पर हाथ न रखें। दबावमुक्त अर्जुन मुंडा ही सुशासन दे पाएंगे, प्रदेश को विकास की ओर ले जा सकेंगे। हां, इस प्रक्रिया में सत्ता में हिस्सेदार झारखंड मुक्ति मोर्चा विशेषत: शिबू सोरेन की भावनाओं का पूरा आदर हो यह भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए। यह भूलना घातक होगा कि झारखंड और झारखंड मुक्ति मोर्चा एक-दूसरे के पूरक हैं।

1 comment:

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

अच्छा विश्लेषण, यह लिखा हुआ इन नेताओं तक पंहुचे तो बढ़िया हो..