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Wednesday, June 9, 2010

अब फैसला जनता करे!

क्या अब भी यह बताने की जरूरत है कि भोपाल के भक्षक के रक्षक कौन बने थे? दीवारों पर साफ-साफ लिख दिया गया है। पढ़ लें। सब कुछ आईने की तरह साफ है। हजारों निर्दोषों को मौत की नींद सुला देने वाले यूनियन कार्बाइड के प्रमुख वारेन एंडरसन को केंद्र व मध्यप्रदेश सरकार ने मिलकर बचाया था। तकनीकी तौर पर यह कह लें कि तत्कालीन सरकारों ने बचाया था।
उपलब्ध तथ्य इस आकांक्षा के आग्रही हैं कि केंद्र सरकार या तो एंडरसन को अमेरिका से प्रत्यापित कर भारत लाए, हत्याओं का मुकदमा चलाए, दंडित करे या फिर स्वयं सरकार देश की जनता से माफी मांग इस्तीफा दे दे। संभवत: विश्व की यह पहली घटना है जब किसी देश की सरकार ने अपने हजारों नागरिकों की मौत के जिम्मेदार को सुरक्षित निकल भागने का मार्ग सुलभ करा दिया हो। हमारा कानून किसी अपराधी को मदद करने वाले को भी अपराधी मानता है। इस मामले में मददगार और कोई नहीं तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी, तत्कालीन गृहमंत्री नरसिंह राव, मध्यप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह, मुख्य सचिव ब्रम्हस्वरूप और अब 'सॉरीÓ कहने वाले भारत तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश ए.एम. अहमदी बने थे। इनमें राजीव गांधी और नरसिंह राव तो अब इस दुनिया में नहीं रहे लेकिन उनकी पार्टी कांग्रेस की सरकार आज भी केंद्र में सत्तारूढ़ है। वैसे इन दिनों नैतिकता की बातें करना कोरी मूर्खता ही मानी जाती है। फिर भी चुनौती है उसे कि या तो वह भूल सुधार करते हुए अब भी एंडरसन व अन्यों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करे अथवा सत्ता का त्याग कर दे। सीबीआई के संयुक्त निदेशक बी.आर. लाल के बाद अब भोपाल के तत्कालीन जिलाधिकारी मोती सिंह ने भी सार्वजनिक रूप से खुलासा कर दिया है कि एंडरसन की गिरफ्तारी के बाद मध्यप्रदेश के तत्कालीन मुख्य सचिव ने उन्हें और भोपाल के पुलिस अधीक्षक को बुलाकर आदेश दिया था कि एंडरसन को छोड़ दिया जाए! तब एंडरसन को सिर्फ छोड़ा ही नहीं गया, एक अति विशिष्ट व्यक्ति की तरह उसे विशेष सरकारी विमान से दिल्ली पहुंचा दिया गया। दिल्ली पहुंचा एंडरसन तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैलसिंह से मिलता है, सत्ता पक्ष के अनेक वरिष्ठ नेताओं से भी मिलता है। कैसे और क्यों? इसका जवाब कौन देगा? अवकाश प्राप्त न्यायमूर्ति अहमदी अपने उस फैसले के लिए अब 'सॉरीÓ कह रहे हैं जिसके द्वारा उन्होंने अभियोजन पक्ष के मामले को बिल्कुल हलका बना डाला था। पहले आरोपियों के खिलाफ भारतीय दंड संहिता की धारा 304 (ढ्ढढ्ढ) के तहत मामला दायर हुआ था। इस धारा के अंतर्गत दोषी को 10 साल की सजा का प्रावधान है। लेकिन, इसके खिलाफ उद्योगपति केशव महिंद्रा व अन्य द्वारा दायर याचिका को स्वीकार करते हुए तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश ने धारा 304 ए के तहत मुकदमा चलाए जाने का आदेश दिया। इस धारा के प्रावधान के अनुसार दोषी को अधिकतम 2 साल की सजा दी जा सकती है। भोपाल की अदालत ने ऐसा ही किया। निश्चय ही भोपाल की अदालत विवश थी। उसे दोषी नहीं ठहराया जाना चाहिए। असली दोषी तो हमारे वे शासक हैं जो अमेरिका की गोद में बैठ भारतीय हित की अनदेखी कर रहे हैं। अनदेखी भी ऐसी कि आनेवाले दिनों में संभवत: भारत अमेरिकी रहमोकरम पर जीने को बाध्य हो जाए। इस मुकाम पर लोगों को पहल करने की चुनौती है। यह देश किसी व्यक्ति विशेष या दल विशेष की बपौती नहीं है। लोकतंत्र में सर्वोपरि जनता है। उसे अब सामने आना ही होगा। स्थिति अत्यंत ही विस्फोटक है। ऐसी कि अगर कल अमेरिका भारत की सीमा में घुस भारतीयों के जान-माल को हानि पहुंचाए तब भी शायद सरकार अमेरिकी हमलावरों को बचाती दिखेगी। अब फैसला देश की जनता करे कि क्या वह ऐसी संभावित दु:स्थिति को स्वीकार करेगी?

2 comments:

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

जनता क्या फैसला करेगी. जनता को इसीलिये अशिक्षित रखा कि अपना भला-बुरा न समझ सके. मतदान इसीलिये अनिवार्य नहीं किया जा रहा कि सब लोग वोट न डाल आयें...
कुछ नहीं जनता को भेड़ियों के आगे डाल दिया है..

पी.सी.गोदियाल "परचेत" said...

अभी चार साल है , और ये नालायक वोटर उस समय तक इनकी चिकनी चुपड़ी बातों में आकर सब भूल जायेंगे ! इस देश का ज्यादा बड़ा गरक तो इसी जनता ने किया है , वोट बैंक ने किया है !