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Friday, September 24, 2010

पुस्तक संस्कृति : कौन सी, कैसी संस्कृति?

गांधी (असली गांधी अर्थात् मोहनदास करमचंद गांधी) की कर्मभूमि वर्धा के लोकसभा सदस्य दत्ता मेघे हैं। जानता तो वर्षों से हूं किन्तु आज उनका एक अद्ïभुत नूतन स्वरूप सामने आया। राजनीतिक हैं। अनेक शिक्षण संस्थाएं चलाते हैं। लोगों के दुख-सुख में शामिल होने वाले विशुद्ध सामाजिक जीव हैं। आज शुक्रवार दि. 24 सितंबर 2010 को नागपुर में राष्ट्रीय पुस्तक मेला का उद्घाटन उनके हाथों हुआ। इसमें कोई नई बात नहीं। मेरे लिए नया उनका उद्बोधन था। पूर्णत: गैरराजनीतिक विषय पर बोलने के दौरान मेघे ने यह स्वीकार किया कि जब वे स्कूल में पढ़ते थे तब उनके पास पुस्तकें खरीदने के लिए पैसे नहीं होते थे। वाचनालय में जाकर अध्ययन किया करते थे। मैं इसका उल्लेख हर दृष्टि से संपन्न किसी व्यक्ति के जीवन के आरंभिक काल के रूप में नहीं कर रहा। मैं इसे पुस्तक संस्कृति से जोड़कर देख रहा हूं। वह संस्कृति जिसे पुस्तक मेले द्वारा भारत के घर-घर में पुनस्र्थापित करने की कोशिश की जा रही है। जी हां, पुस्तक संस्कृति को पुनस्र्थापित करने का एक आंदोलन है यह। 'पुनस्र्थापित' इसलिए कि टेलीविजन के इस युग में पुस्तक संस्कृति लुप्तप्राय हो चुकी है। पहले जहां छोटे-बड़े हर घर में एक पुस्तक कोना हुआ करता था, अब उसका स्थान टेलीविजन ने ले लिया है। घर में काम करने वाली बाई के यहां भी पहले एक पुस्तक कोना हुआ करता था। अकादमिक दिलचस्पी रखने वाले वर्ग को छोड़ दें तो एक वर्ग ऐसा अवश्य है जिनके घर पुस्तकों के भंडार मिलेंगे। लेकिन क्षमा करेंगे, इस वर्ग के घरों में मौजूद पुस्तकों के रेक्स यह जताने के लिए होते हैं कि वे सुरुचि संपन्न शिक्षित परिवार के हैं। पुस्तकों को खोल कर पढऩे की जहमत यह वर्ग नहीं उठाता। पुस्तकों को उन्होंने शोभा की वस्तु बनाकर सजा रखा है। साधुवाद पुस्तक मेला के आयोजकों का जिन्होंने मृत पुस्तक संस्कृति को जीवित करने का बीड़ा उठाया है। ऐसा न हुआ तो वे वाचनालय शेष कहां रह जाएंगे जहां बालक दत्ता मेघे जैसे स्वाध्याय प्रवृत्तिवाले अशक्त जरूरतमंद पहुंचते हैं।
हां, एक बात और। जब बात पुस्तक संस्कृति की उठी है तब इस बात का भी फैसला हो जाए कि कौन सी और कैसी संस्कृति? पुस्तक का एक लेखक होता है, प्रकाशक होता है और विक्रेता होता है। लेखक अपने विवेक से विषय चयन कर विभिन्न रूपों में कलमबद्ध करता है। फिर वह प्रकाशक के दरवाजे दस्तक देता है या अगर लेखक कद्दावर हुआ तो प्रकाशक उसके दरवाजे पहुंचता है। इस मुकाम पर प्रकाशक के लिए अपने विवेक के सही इस्तेमाल की चुनौती होती है। चूंकि साहित्य समाज का दर्पण होता है, उसे पुस्तक के विषय पर ध्यान देना पड़ता है। प्रकाशन पश्चात विके्रता उसे पाठकों तक पहुंचाते हैं। उसकी भी जिम्मेदारी अहम हो जाती है। बल्कि सबसे अहम। पिछले दिनों ब्रिटेन के इतिहासकार जेड एडम्स लिखित पुस्तक 'गांधी: नेकेड एम्बीशन' विदेशों में जारी की गई। पुस्तक में महात्मा गांधी के सेक्स जीवन को लेकर चरित्र हनन किया गया। ऐतिहासिक सच के नाम पर लेखक ने घोर आपत्तिजनक बल्कि अश्लील बातें महात्मा गंाधी के विरुद्ध पुस्तक में बताई हैं। भारत के अनेक समाचार पत्र-पत्रिकाओं सहित हमारे 'दैनिक 1857' ने भी पुस्तक के कुछ अंश संक्षिप्त में प्रकाशित कर यह मांग की थी कि इस पुस्तक का प्रसार भारत में प्रतिबंधित किया जाए। संभव हो तो विदेशों में भी इसके प्रसार पर रोक की कोशिश की जाए। तब तक भारत में पुस्तक नहीं आई थी। कुछ राजनीतिक दलों के नेताओं, कार्यकर्ताओ ने हमारे समाचार प्रकाशन को गांधी का अपमान बताते हुए हिंसक आपत्ति दर्ज की। भीड़भरे चौराहे पर विरोध सभा लेकर हमारे 'दैनिक 1857' की प्रतियां जलाई गईं। हमारे लिए अपशब्दों के प्रयोग किए गए, जान से मारने की धमकियां दी गईं। यह वाकया मई माह के प्रथम सप्ताह का है। अब वही पुस्तक 'गांधी : नेकेड एम्बीशन' नागपुर सहित भारत के सभी शहरों में बिक रही है। पुस्तक के कुछ अंश को प्रकाशित करने वाले अखबार की प्रतियां जलाने वाले कथित गांधीवादी अब कहां हैं? पुस्तक विक्रेताओं के यहां उपलब्ध इस पुस्तक की होली क्यों नहीं जलाई जा रही? अब तो पूरी की पूरी पुस्तक देशवासियों को यह बतलाने के लिए उपलब्ध है कि महात्मा गांधी चरित्रहीन थे। मुझे वैसे मुखौटाधारी गांधीवादियों की चिंता नहीं। वे तब अखबार के खिलाफ षडय़ंत्र की राजनीति कर रहे थे और आज स्वार्थ की नपुंसक राजनीति ने उन्हें पुस्तक के खिलाफ कार्रवाई से रोक रखा है। मेरी चिंता पुस्तक संस्कृति की पवित्रता को कायम रखने को लेकर है। क्यों न पुस्तक विक्रेता स्वयं ऐसी आपत्तिजनक पुस्तक को बेचने से इन्कार कर दें? जब किसी संस्कृति को अश्लीलता की चुनौती मिलती है। तब वह संस्कृति पवित्र नहीं रह पाती। मुखौटाधारी गांधीवादी तो स्वार्थवश पहल नहीं करेंगे, पहल करें पुस्तक विके्रता या फिर भारत में उसके वितरक। लेखक या प्रकाशक को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का कवच नहीं दिया जा सकता। पुस्तक में जानबूझकर भारत के राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का चरित्र हनन किया गया है। अन्य गोरी चमड़ी वालों की तरह इस पुस्तक के लेखक जेड एडम्स को भी यह बर्दाश्त नहीं कि एक भारतीय महात्मा गांधी को विश्व इतिहास ने 'बेमिसाल' की उपमा कैसे दे रखी है? निश्चय ही अंग्रेज लेखक की यह पुस्तक हमारी पुस्तक संस्कृति की भागीदार नहीं हो सकती।

2 comments:

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

यहां तो प्रचार के लिये सबकुछ होता है.. अभी मुहम्मद साहब के ऊपर कुछ भी लिखा होता, प्रतिबन्ध कब का लग गया होता और पूरे देश में आग लग गयी होती.. अब कांग्रेस के गांधियों में महात्मा गांधी शामिल नहीं लगते हैं...

Dr.J.P.Tiwari said...

अब वही पुस्तक 'गांधी : नेकेड एम्बीशन' नागपुर सहित भारत के सभी शहरों में बिक रही है। पुस्तक के कुछ अंश को प्रकाशित करने वाले अखबार की प्रतियां जलाने वाले कथित गांधीवादी अब कहां हैं? पुस्तक विक्रेताओं के यहां उपलब्ध इस पुस्तक की होली क्यों नहीं जलाई जा रही? अब तो पूरी की पूरी पुस्तक देशवासियों को यह बतलाने के लिए उपलब्ध है कि महात्मा गांधी चरित्रहीन थे। मुझे वैसे मुखौटाधारी गांधीवादियों की चिंता नहीं। वे तब अखबार के खिलाफ षडय़ंत्र की राजनीति कर रहे थे और आज स्वार्थ की नपुंसक राजनीति ने उन्हें पुस्तक के खिलाफ कार्रवाई से रोक रखा है। मेरी चिंता पुस्तक संस्कृति की पवित्रता को कायम रखने को लेकर है। क्यों न पुस्तक विक्रेता स्वयं ऐसी आपत्तिजनक पुस्तक को बेचने से इन्कार कर दें? जब किसी संस्कृति को अश्लीलता की चुनौती मिलती है। तब वह संस्कृति पवित्र नहीं रह पाती। मुखौटाधारी गांधीवादी तो स्वार्थवश पहल नहीं करेंगे, पहल करें पुस्तक विके्रता या फिर भारत में उसके वितरक। लेखक या प्रकाशक को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का कवच नहीं दिया जा सकता। पुस्तक में जानबूझकर भारत के राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का चरित्र हनन किया गया है।

Auchityapoorn prashn, sabhi ko awashy ki is vindu pr sochna chaahiye. Mai aapke saath khada hun. Yahan to sab naam aur daam ke bhookhe hain. raashtr aur raashtriyata ki chinta kise hai? Sanskriti aur Sanskaar jaise shabd ab pustakon me milenge. haan kuchh pariwaar aise maine delhe hain jahan iska niewahan ho raha hai. mai aise pariwaar ko pranaam karta hun.