बता दूँ, यह शीर्षक यशवंत सिंह (सम्पादक, भड़ास4 मीडिया.कॉम) ने दिया है। अपेक्षा, कि मैं कुछ लिखूं। ‘दाग’ से उनका आशय मीडिया बिरादरी के वैसे दागियों से है जो सुखी प्रणियों की श्रेणी में प्रफुल्लित हैं-फलफूल रहे हैं। सम्भवतः यशवंत चाहते होंगे कि मैं उन कारणों की पड़ताल करूं जो दागियों के लिए ‘स्वर्ग’ और ‘संरक्षण’ उपलब्ध कराते हैं। ईमानदार, कर्मठ, समर्पित ‘बेदाग’ हाशिए पर डाल दिये जाते हैं। यशवंत और उनके सरीखे अन्य भुक्त भोगियों की बेचैनी मैं समझ सकता हूँ। लेकिन पड़ताल करूं तो कहां और किसकी? हौल-खौल नजर डालता हूँ तो प्रायः हर दरबे में ऐसे ही ‘सफल-सुखी’ प्राणी नजर आते हैं। अपवाद स्वरूप कुछ ‘श्रेष्ठ’ नजर तो आते हैं, किन्तु नगण्य संख्या उन्हें हमेशा पीछे, बहुत पीछे धकेल देती है।
लगभग तीन वर्ष पूर्व जब नीरा राडिया प्रकरण में लाभार्थियों की सूची में वीर सांघवी, प्रभु चावला और बरखा दत्त जैसे बड़े हस्ताक्षरों के नाम सामने आये थे तब मीडिया में भूचाल आ गया था। सांघवी और चावला प्रबंधन द्वारा दंडित किये गये किन्तु बरखा सुरक्षित रह गयी। हां, उनका आभा मंडल धूमिल अवश्य हुआ। अपने दर्शकों की नजरों में अविश्वसनीय बनीं बरखा अब पूर्व की तरह मुखर नजर नहीं आती हैं। जी न्यूज के सुधीर चौधरी भी बरखा की श्रेणी में डाल दिये गये हैं- किन्तु इनका मामला कुछ अलग है। सांघवी, चावला और बरखा जहां व्यक्तिगत हित साधने के दोषी के रूप में देखे गये थे, वहीं सुधीर प्रबंधन के हित में दांव खेल रहे थे। जाहिर है, सुधीर प्रबंधन की नजरों में ‘उपयोगी’ सिद्ध हुए। अर्थात, उनका ‘दाग’ भी प्रबंधन को सुहाना लगा। पुण्य प्रसून वाजपेयी जैसे ईमानदार, कर्मठ और पेशे के प्रति समर्पित हस्ताक्षर को अपनी फाइल से मिटा देने से भी प्रबंधन नहीं हिचका।
‘बेदाग’ पर ‘दाग’ की यह कैसी प्रबंधकीय प्राथमिकता! अमूमन बड़े संस्थानों की कार्यप्रणाली को मानक मानने वाले, अनुसरण करने वाले मध्यम व लघु संस्थानों को अब कोई दोष दे तो कैसे?
पूर्व में प्रिंट मीडिया ऐसे अवसाद का दंश भोग चुका है। जब देश के सबसे बड़े समाचार पत्र समूह ने ‘पेड न्यूज’ की परम्परा की शुरूआत की तब अनुसरण करने वालों की लंबी पंक्ति पर रुदन क्यों? बड़े ने रास्ता दिखाया, छोटों ने अनुसरण किया। हां, इस बात का दुख अवश्य कि देश-समाज को हर दिन-हर पल ईमानदारी, नैतिकता और दायित्व का उपदेश देने वाले बिरादरी के सदस्य पत्रकारीय मूल्य और सिद्धान्त पर कफन डाल, सीना चौड़ा कर, सिर ऊपर उठा बेशर्मों की तरह उन्मुक्त विचर रहे हैं। मैं, इसे एक विडम्बना के रूप में ही लूंगा कि विभिन्न मंचों से ईमानदारी और नैतिकता का पाठ पढ़ाने वाले संस्थान ही ऐसे दागियों को ऊर्जा मुहैया करा रहे हैं।
आज बातें होती हैं सामाजिक क्रान्ति की, बातें होती हैं राजनीतिक क्रान्ति की, बातें होती हैं आर्थिक क्रान्ति की और बातें होती हैं पारदर्शिता की। मजे की बात यह कि इन सब को हवा-पानी देती है हमारी बिरादरी। बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेते ऐसी क्रान्तियों में समाचार पत्र-पत्रिकाओं में इनकी कलमें आग उगलती हैं और उगाले जाते हैं उपदेश भी। टेलीविजन पर विभिन्न चर्चाओं में एंकर चीख-चीखकर नैतिकता और मूल्य की दुहाई देते दिखते हैं। देश की दशा और दिशा को निर्धारित करने का ठेका ले चुके ये पात्र तब चुप्पी साध लेते हैं जब मीडिया में मौजूद दागियों और उनके संरक्षकों पर सवाल दागे जाते हैं। बोलें भी क्या, ‘दाग’ जो उन्हें अब अच्छे लगने लगे हैं। – एसएन विनोद