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Saturday, December 6, 2008

यह 'युद्ध' है तो माकूल जवाब क्यों नहीं?

आतंकी हमले में शहीद हेमंत करकरे, विजय सालस्कर, अशोक कामटे व अन्य पुलिस अधिकारियों को सर्वप्रथम मेरा नमन. लेकिन इसके साथ ही जहां इन शहीद पुलिस अधिकारियों को पूरा देश सम्मान में सैल्यूट कर रहा है- करना भी चाहिए- मैं मजबूर हूं इस टिप्पणी के लिए कि इन शहीदों को असमय अपनी कुर्बानी देनी पड़ी. जी हां! ऐसा ही हुआ और ऐसा हुआ मुंबई पुलिस, जिसकी तुलना विश्व के श्रेष्ठ पुलिस फोर्स स्काटलैंड यार्ड से की जाती है, की घोर लापरवाही, कर्तव्य के प्रति उदासीनता, अकर्मण्यता और समर्पण भावना के अभाव के कारण. महाराष्ट्र के पुलिस महासंचालक अनामी रॉय को यह बोलते देख अच्छा तो लगा कि वे आतंकवादियों से बातें नहीं करेंगे, या तो उन्हें पकडेंग़े या मार डालेंगे. लेकिन किस कीमत पर? ऐसे आतंकवादी हमलों के बाद अमूमन देश की खुफिया एजेंसियों पर विफलता का तमगा जड़ दिया जाता है, लेकिन ताजा मामलों में ऐसा नहीं किया जा सकता. दस्तावेजी सबूत मौजूद हैं कि 9 मार्च 2007 को देश के रक्षामंत्री ए.के. एंटनी ने लोकसभा में खुफिया रिपोर्र्टों का हवाला देते हुए स्पष्ट शब्दों में कहा था कि आतंकवादी समुद्री मार्ग का इस्तेमाल कर सकते हैं. रक्षामंत्री की इस सूचना को रद्दी की टोकरी में किसने और कैसे डाला? क्या यह घोर गैरजिम्मेदार आचरण का शर्मनाक उदाहरण नहीं है? हमारा शर्म तब कई गुना बढ़ गया जब यह जानकारी मिली कि बुधवार, 26 नवंबर को मुंबई के मच्छीवाड़ी इलाके के मछुआरों ने मुंबई पुलिस को सूचना दी थी कि उन्होंने संदिग्ध आतंकियों को मोटर बोट से उतरते देखा था. उस सूचना पर सतर्क हो कार्रवाई करने की जगह पुलिस ने जानकारी देने वाले मछुआरों को ही दुत्कार कर भगा दिया. स्काटलैंड यार्ड सरीखी मुंबई पुलिस के ऐसे आचरण को क्या कोई स्वीकृति प्रदान करेगा? कदापि नहीं. अगर पुलिस ने सूचना के आधार पर त्वरित कार्रवाई की होती तो संभवत: आतंकवादी धर दबोचे जाते और मुंबई दहलने से बच जाती- करकरे, सालस्कर, कामटे आदि को अपनी बलि नहीं देनी पड़ती. इन सभी शहीदों को सिर्फ आदरांजलि दें या मुआवजा दें, मुंबई पुलिस या महाराष्ट्र सरकार अपने कर्तव्य की इतिश्री नहीं कर सकती. क्या ऐसी आपराधिक चूक के दोषी कभी दंडित किए जाएंगे? इसके उत्तर की प्रतीक्षा की जाएगी.
मैं बिल्कुल सहमत हूं इस बात पर कि आतंकियों का यह हमला सिर्फ मुंबई पर नहीं, बल्कि देश पर है. यह ऐसा हमला है जिसे एकमत से 'युद्ध' की संज्ञा दी जा रही है. मैं भी ऐसा ही मानता हूं, लेकिन यह तथ्य चिह्नित है कि भारत पर असली आतंकी हमला तब हुआ था जब पाकिस्तान प्रशिक्षित आतंकियों ने सन् 2001 में भारतीय संसद भवन पर हमला किया था. हां, ये सब भारत के खिलाफ पाकिस्तानी कार्रवाइयां ही हैं. खुफिया सूत्रों के साथ-साथ स्वयं प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने इसे स्वीकार करते हुए पाकिस्तानी प्रधानमंत्री से बात की है. लेकिन पुन: क्षमा करें. क्या ऐसी 'बातों' के कभी कोई सकारात्मक परिणाम निकले हैं? हर आतंकी हमले के बाद पाकिस्तानी आतंकवादियों के चेहरे सामने तो लाए जाते हैं. पर वे सब मीडिया की सुर्खियां बन अनंत में लुप्त हो जाते हैं. समझ में नहीं आता कि जब हमलावर देश की पहचान की जाती रही है तब समाधानकारक 'आखिरी फैसला' क्यों नहीं किया जाता? क्या हमारा देश भारत कमजोर या अक्षम है? क्या हमारे शासकों की इच्छाशक्ति सिर्फ निजस्वार्थ की पूर्ति के लिए ही सक्रिय होती है? आज मुझे पूर्व प्रधानमंत्री (स्व.) चंद्रशेखर की याद आ रही है. कांग्रेस के समर्थन से नवंबर 1990 में प्रधानमंत्री पद को सुशोभित करने वाले चंद्रशेखर अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति के लिए सुख्यात थे. मुट्ठीभर सांसदों के गुट के नेता चंद्रशेखर तब प्रधानमंत्री के रूप में अपनी उपयोगिता को इतिहास बनाना चाहते थे. उन्होंने कश्मीर समस्या को जड़ से मिटाने की तैयारी कर ली थी. संबंधित अधिकारियों को विश्वास में लेकर तब एक योजना बनी थी कि पाकिस्तान के कब्जेवाले कश्मीर और सीमा पार पाकिस्तान में चल रहे आतंकवादी प्रशिक्षण शिविरों का सफाया कर दिया जाए. लक्ष्य पाक के कब्जेवाले कश्मीर क्षेत्र को मुक्त कराना ही था. इस योजना की भनक चंद्रशेखर को समर्थन देने वाली कांग्रेस के नेताओं को लगी और वे बेचैन हो उठे. भला वे कश्मीर समस्या के 'अस्थायी समाधान' का श्रेय चंद्रशेखर के सिर कैसे जाने देते? आनन-फानन में षडय़ंत्र रचा गया और 10, जनपथ की कथित जासूसी को मुद्दा बना चंद्रशेखर की सरकार को गिरा दिया गया. कश्मीर और आतंकवाद की समस्या अपनी जगह कायम रही. स्वार्थियों की घृणित राजनीति की विजय हुई. क्या हम अब भी ऐसा ही चाहेंगे? नहीं. यह देख-सुन अच्छा लगा कि मुंबई की घटना पर अभी राजनीतिक दलों-संगठनों ने एकजुटता दिखाई है. सभी ने सरकार की कार्रवाई को पूरा समर्थन दिया है. लोकतांत्रिक भारत के लिए यह एक अत्यंत ही सुखद संकेत है. आग्रह है सभी राजनीतिक दलों-संगठनों से कि वे इस 'पहल' को स्थायित्व का जामा पहना दें- बगैर किसी पूर्वाग्रह के, दलीय प्रतिबद्धता से बिल्कुल पृथक.
एस. एन. विनोद
29 नवंबर 2008

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