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Monday, March 22, 2010

निजी इच्छा राष्ट्रीय इच्छा नहीं बन सकती!

क्या किसी व्यक्ति विशेष की नितांत निजी आकांक्षा पार्टी की आकांक्षा या राष्ट्र की आकांक्षा बन सकती है? कदापि नहीं। अगर ऐसा होने लगे तब राजदलों और देश में घोर अराजक स्थिति पैदा हो जाएगी। न अनुशासन रहेगा, न राष्ट्र विकास के प्रति कोई गंभीरता। ये समझ से परे है कि भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी के लिए परेशानियां पैदा करने की कोशिश करने वाले, जी हां, कोशिश करने वाले, इस हकीकत को क्यों नहीं समझ पा रहे। शायद वे समझना ही नहीं चाहते। कतिपय किंतु-परंतु के बावजूद भारतीय जनता पार्टी की आज भी एक विशिष्ट पहचान है तो अनुशासन और सिद्धांत के कारण। जिस दिन यह समाप्त हो गया, पार्टी खत्म हो जाएगी। क्योंकि तब लोग-बाग विकल्प की चाहत को भूल जाएंगे। गडकरी ने दो-टूक शब्दों में कह भी दिया है कि सभी को खुश करना संभव नहीं। राजनीति का यह एक व्यावहारिक सच है, नवगठित 'टीम गडकरी' से असंतुष्ट लोग इसे समझ लें। भारतीय जनता पार्टी देश का प्रमुख विपक्षी दल है। गठबंधन युग में गठित खिचड़ी सरकार के कारण मुख्य विपक्षी दल की भूमिका वस्तुत: राष्ट्रीय भूमिका के रूप में देखी जाती है। यह एक ऐसा सच है जो राष्ट्रीय सहयोग समर्थन का आग्रही है। अगर स्वयं पार्टी के कुछ लोग इसे नहीं समझ पा रहे तब बेहतर होगा कि वे पार्टी छोड़कर चले जाएं। हमारा संसदीय लोकतंत्र एक मजबूत-प्रभावी विपक्ष को देखना चाहता है। कमजोर, लचर विपक्ष लोकतंत्र को कमजोर करता है, निष्प्रभावी बना डालता है। सुप्रसिद्ध पत्रकार तवलीन सिंह ने बिल्कुल ठीक टिप्पणी की है कि भाजपा प्रमुख विपक्षी दल की भूमिका की चिंता करे। तवलीन दु:खी हैं कि इस मोर्चे पर भाजपा स्वयं को प्रभावी नहीं सिद्ध नहीं कर पा रही। उन्होंने उदाहरण देकर कहा है कि अगर भाजपा एक सशक्त, सजग विपक्षी दल की भूमिका में होती तब पंजाब में 6 हजार करोड़ टन गेहूं सड़ नहीं जाता। इस प्रसंग में सरकार का हास्यास्पद जवाब कि देश में अनाज गोदामों की कमी है, देश की समझ को चुनौती देने वाला है। विपक्ष इस बिंदु पर सरकार को कठघरे में खड़ा करने में नाकामयाब रहा। एक ओर जब देश में लगभग 50 प्रतिशत बच्चे कुपोषण के शिकार हैं, अनाज को सडऩे दिया जा रहा है, चूहों को खाने दिया जा रहा है। यह एक ऐसा मुद्दा था, जिस पर भाजपा पूरे देश का समर्थन प्राप्त कर सरकार को बचाव की मुद्रा में ला सकती थी। इसी प्रकार गंगा-यमुना नदियों की कथित सफाई के नाम पर हजारों करोड़ रुपयों के अपव्यय के मामले को भाजपा अपने और देश के हक में भुना सकती थी। तवलीन ने भाजपा की वर्तमान अवस्था को अस्त-व्यस्त, बिखरा-बिखरा चिह्निïत करते हुए इसकी पूरी जिम्मेदारी लालकृष्ण आडवाणी पर डाल दी है। उनका कहना है कि आडवाणी पार्टी को समाप्त करने पर तुले हैं। अब चुनौती गडकरी को है। यह बिल्कुल ठीक है कि पार्टी में सभी को खुश रखना किसी के लिए संभव नहीं है, लेकिन सच यह भी है कि पार्टी संक्रमण के जिस दौर से गुजर रही है, उसमें नेतृत्व से संतुलन और संयम अपेक्षित है। गडकरी के लिए चुनौतियां नई बात नहीं हैं। सांगठनिक क्षमता और मानव प्रबंधन में इन्हें महारत हासिल है। पार्टी के रथी-महारथी इस बात को अच्छी तरह जानते हैं। यही कारण है कि उनका एक वर्ग आरंभ से ही गडकरी को विचलित करने की कोशिश कर रहा है। वे जानते हैं कि नितिन गडकरी ने जिस दिन पांव जमा लिया, वे पांव अंगद के पांव बन जाएंगे। इनके अध्यक्ष बनने के पहले यही वर्ग इनके खिलाफ दुष्प्रचार अभियान को हवा दे रहा था। इनके अनुभव, इनकी राष्ट्रीय पहचान पर सवाल खड़े किए गए थे। लेकिन गडकरी ने अपने पहले मीडिया कांफ्रेंस और इंदौर अधिवेशन में अध्यक्ष के रूप में अपने पहले संबोधन से न केवल अपनी परिपक्वता बल्कि अपनी सोच और पार्टी के पुनर्गठन के प्रति दृढ़ता को चिह्निïत कर दिया था। पार्टी नेताओं, कार्यकर्ताओं को स्पष्ट संदेश दिया था कि 'आप अपनी लकीरें बड़ी करें, दूसरों की लकीरें छोटी न करें।' समझदारों के लिए वह इशारा काफी था। खेद है कि आज समझते हुए भी कुछ नेता अपनी नितांत व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा की वेदी पर पार्टी को होम करने की कोशिशें कर रहे हैं। ऐसा नहीं होना चाहिए। देश आज गंभीर आर्थिक संकट के दौर से गुजर रहा है, सीमाएं अशांत हैं, देश के अंदर प्रविष्ट आतंकी खौफनाक इरादों को अंजाम देने में जुटे हैं। पड़ोसी देशों की गिद्ध दृष्टियां हमारी आंतरिक हलचलों पर लगी हैं। ऐसे में जब देश प्रमुख विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी से अपेक्षा कर रहा है कि वह सत्तापक्ष को देश हित में सही रास्ते पर ले आएगी या फिर सत्तापक्ष की विफलता की स्थिति में उसे अपदस्थ कर देगी, पार्टी में मौजूद विघ्नसंतोषियों की पार्टी विरोधी हरकतें दु:खद हैं। ऐसे तत्व चेत जाएं। पार्टी नेतृत्व को मजबूत बनाने की जगह उसके लिए परेशानियां पैदा कर वस्तुत: ये लोग देशहित के खिलाफ काम कर रहे हैं। वाणी की स्वतंत्रता का यह अर्थ तो कदापि नहीं होता कि जयचंदों की फौज खड़ी कर दी जाए।

2 comments:

Bhavesh (भावेश ) said...

बहुत दुःख होता है ये पढ़ सुन कर कि एक तरफ तो पंजाब में 6 हजार करोड़ टन गेहूं सड़ गल रहा है और उसे चूहे खा रहे है वही दूसरी तरफ लोग भूख और महंगे के बोझ तले मरे जा रहे है. नेता चाहे पक्ष का हो या विपक्ष का, ये कहीं न कहीं आपस में मिले होते है. कहते है न चोर चोर मौसेरे भाई. इसलिए इनसे कुछ भी उम्मींद करना बेकार है. क्या आपको नहीं लगता हर पत्रकार को इस विषय पर उतनी ही जोर शोर से लिखना चाहिए जीता जोर शोर से वो टुच्ची सी खबरों को उत्तेजना के साथ पेश करते है.

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

आपसे सहमति के साथ भावेश की टिप्पणी को दुहराता हूं.