क्या यही कांग्रेस संस्कृति है? अगर हां, तो फिर कांग्रेस ऐलानिया यह स्वीकार कर ले कि उसे शिष्टाचार नहीं भ्रष्टाचार ही चाहिए। ईमानदारी व मूल्यों का ढोल वह न पीटे। घोषणा कर दे कि हां, हमारी संस्कृति ही ऐसी है जिसे हमारे नेता-कार्यकर्ता जब चाहे सड़क-चौराहे पर नीलाम कर दें। कोई उंगली न उठाए। गांधीवाद हमारा ढोंग है, लोकतंत्र एक दिखावा। देश को वह बता दे कि संविधान व लोकतांत्रिक व्यवस्था के इस्तेमाल पार्टी देश की जनता की जेबों में हाथ डालने और खुद का पेट भरने के लिए करती है।
सचमुच महात्मा गांधी की आत्मा आज विलाप कर रही है। उनकी कर्मभूमि वर्धा तो खैर पहले से ही नकली गांधियों के कारण आक्रांत है, आज कांग्रेस ने एक बार फिर उनकी आत्मा की बोली लगा दी। गांधी को याद कर महाराष्ट्र कांग्रेस ने अपनी स्थापना के 125 वर्ष पूर्ण होने पर 'ग्राम से सेवाग्राम' रैली के आयोजन को सफल बनाने के लिए जिस कदाचार का सहारा लिया उससे हम स्तब्ध हैं। हालांकि ऐसे आयोजनों के लिए राजनीतिक दलों द्वारा, विशेषकर सत्तारूढ़ दल द्वारा, 'वसूली' कोई नई बात नहीं है। वर्तमान घटना में नया कुछ है तो यह कि स्वयं प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष माणिकराव ठाकरे और एक पूर्व मंत्री सतीश चतुर्वेदी ने ऐसी वसूली की पुष्टि की। बल्कि अपनी जुबान से पूरे देश को बता दिया। हर बार ऐसी घटना से इन्कार करने वाला दल इस बार कटघरे में है। पूरा वाकया कैमरे में कैद होकर जनता के सामने सार्वजनिक हो चुका है। गांधी उपनाम का भरपूर दोहन करने वाले नेहरू परिवार की सोनिया गांधी की शिरकत के कारण इस रैली को व्यापक प्रचार मिला। आयोजन को महत्वपूर्ण बताया गया। लेकिन प्रदेश कांग्रेस और कांग्रेस नेतृत्व की राज्य सरकार ने कांग्रेस संस्कृति को नंगा कर चौराहे पर खड़ा कर दिया। अब चाहे कांग्रेस दल जितना भी खंडन-मंडन कर ले, यह सच प्रमाणित हो गया कि सत्ता का दुरुपयोग करते हुए रैली के लिए धन वसूला गया। सार्वजनिक वीडियो टेप से यह साबित हो गया कि मुख्यमंत्री व उनके मंत्रियों ने आयोजन के लिए कई करोड़ रुपये दिए। क्या इस पर कोई विवाद हो सकता है कि यह धन मुख्यमंत्री अथवा मंत्रियों ने अपनी जेब से न देकर किसी अन्य स्रोत से उगाहे! क्या स्रोत को चिन्हित करने की जरूरत है? काले धन की समानांतर अर्थव्यवस्था में ऐसे धन सहज उपलब्ध हैं। हमारी सड़ी-गली भ्रष्ट व्यवस्था की उपज ही है ऐसी समानांतर अर्थव्यवस्था। लोकतंत्र के नाम पर और जनसेवा की घोषणा के साथ राजनीतिक और राजदल आज धनशक्ति को सींचने में मशगूल हैं। यह वही धनबल है जिसने लोकतंत्र की मूल भावना को कैद कर रखा है। यह धनबल ही है जिसने बाहुबलियों की एक लंबी कतार को जन्म दिया है। धनबल और बाहुबल ने मिलकर पूरी लोकतांत्रिक व्यवस्था पर कब्जा कर लिया है। धन की असीम लोलुपता ने प्राय: हर दल को भ्रष्ट बना दिया है। वर्धा की इस रैली ने इसके एक छोटे रूप को ही उजागर किया है। 3-4 करोड़ रुपये की उगाही तो अत्यंत ही मामूली बात है। सभी जानते हैं कि चुनावों के दौरान एक-एक निर्वाचन क्षेत्र में करोड़ों रुपये पानी की तरह बहाए जाते हैं। कहीं-कहीं तो यह आंकड़ा कई सौ करोड़ में पहुंच जाता है। और यह सब संभव होता है काले धन से ही। क्या कभी लग सकेगा इस प्रवृत्ति पर अंकुश? विभाग और अधिकारी तो मौजूद हैं, किन्तु उनके चरित्र? व्यवस्था ने उन्हें भी या तो पंगु बना डाला है या फिर वे नेताओं के साथ साठगांठ कर भ्रष्टाचार की गंगोत्री में स्वयं उतर पड़े हैं। तो क्या भ्रष्टाचार और अनाचार के इस दैत्य के सामने देश समर्पण कर दे? नहीं, कदापि नहीं। विरासत में प्राप्त हमारी महान संस्कृति और सभ्यता इसकी इजाजत नहीं देती। आशा की रोशनी इस देश में हमेशा विद्यमान है। कहीं किसी कोने से कभी न कभी इसकी किरणें फूटेंगी और तब भ्रष्टाचार का दैत्य इन्हें सहन नहीं कर पाएगा। उसे पलायन करना ही होगा। हम अर्थात्ï देश हतोत्साहित कदापि नहीं। प्रतीक्षा रहेगी देर आयद दुरुस्त आयद के साकार होने की।
1 comment:
पुरानी संस्कृति है इन सबकी... इसमें कोई नई बात नहीं...
Post a Comment