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Tuesday, October 26, 2010

देश निकाला दें गिलानी व अरुंधति को!

रीढ़ विहीन शासक वर्ग और मुखौटाधारी राष्ट्रविरोधी कथित बुद्धिजीवी वर्ग को चेतावनी है कि वे भारत को एक नपुंसक देश प्रमाणित करने की कोशिश न करें। यह असह्ïय है, देशवासी इसे बर्दाश्त नहीं करेंगे। आज हर देशवासी यह जानना चाहता है कि कश्मीर के अलगाववादी नेता सैयद अली शाह गिलानी को अपनी ही भूमि पर, अपनी ही भूमि के लिए 'आजादी' का नारा बुलंद करने की इजाजत कैसे दी गई? सभी यह भी जानना चाहते हैं कि कथित बुद्धिजीवी लेखिका अरुंधति राय को यह घोषणा करने की अनुमति किसने दी कि कश्मीर कभी भारत का अभिन्न अंग नहीं रहा? राष्ट्रद्रोह के ऐसे स्वर को क्यों नहीं तत्काल कुचल दिया जाता? और देश यह भी जानना चाहता है कि कश्मीर मामलों में बातचीत के लिए केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त प्रमुख वार्ताकार दिलीप पाडगांवकर ने यह किस हैसियत से कह दिया कि बगैर पाकिस्तान को शामिल किए कश्मीर मामले का स्थायी समाधान संभव नहीं? साफ है कि कश्मीर में षडय़ंत्र रचे जा रहे हैं ताकि पाकिस्तान की मांग के अनुरूप कश्मीर के कथित विवाद को अंतरराष्ट्रीय मुद्दा बना कर तीसरे पक्ष की घुसपैठ करा दी जाए! क्या यह कश्मीर मामले में हमारी घोषित नीति के खिलाफ नहीं?
'कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है' इस सत्य को चुनौती देनेवाले निश्चय ही देश के गद्दार हैं- विभीषण, जयचंद तथा मीरजाफर की भूमिका में अवतरित हैं ये! इस घटना विकासक्रम को कोई हल्के से न ले। देश के एक और विभाजन का पूर्वाभ्यास है यह! सांप ने फन उठाया है, अपनी चाल को वह गति प्रदान करे, इससे पूर्व उसे कुचल दिया जाए। पाक अधिकृत कश्मीर की आजादी की जगह भारतीय अंग कश्मीर की आजादी की बातें करनेवालों को इस धरती पर जगह कैसे मिल गई? अलगाववादी घोषित गिलानी को इतनी छूट क्यों कि वह हमारी राजधानी दिल्ली में आकर कश्मीर के लिए आजादी की बातें करे? शर्म और पीड़ा गहरी हो गई यह जानकर कि हमारे केंद्रीय गृहमंत्रालय ने गिलानी के खिलाफ नफरत फैलाने वाला भाषण देने का आरोप लगाते हुए पुलिसिया कार्रवाई की अनुशंसा की है। उन्हें तो देशद्रोह के आरोप में मामला दर्ज कर तत्काल गिरफ्तार कर लेना चाहिए था। गिलानी का अपराध कभी कश्मीर के प्रधानमंत्री व बाद में मुख्यमंत्री रहे शेख अब्दुल्ला से भी अधिक गंभीर है। शेख अब्दुल्ला पर कश्मीर के खिलाफ षडय़ंत्र रचने का आरोप लगा था। पारिवारिक मित्र होने के बावजूद तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू ने 8 अगस्त 1953 को शेख अब्दुल्ला की बर्खास्तगी और गिरफ्तारी करवाई। वह घटना कुख्यात ''कश्मीर षडय़ंत्र'' के रूप में इतिहास में दर्ज है। शेख अब्दुल्ला 11 वर्षों तक जेल में रहे। फिर हमारे वर्तमान शासक कमजोर क्यों दिख रहे हैं? वह भी गिलानी जैसे आदमी के सामने! कहीं किसी और ''कश्मीर षडय़ंत्र'' की तैयारी हो रही है। तो फिर भारत सरकार पंडित नेहरू की तरह कड़े कदम क्यों नहीं उठाती? गिलानी को अविलंब गिरफ्तार कर देश निकाला दे दिया जाए! इसी प्रकार अरुंधति राय के खिलाफ भी राष्ट्रदोह का मुकदमा चलाया जाये। भारत में कश्मीर के विलय को चुनौती देकर अरुंधति ने देशद्रोह को अंजाम दिया है। अपने कथन को ऐतिहासिक सच बतानेवाली अरुंधति राय इतिहास के पन्नों को पलट लें। कश्मीर के तत्कालीन सदर-ए-रियासत डॉ. कर्णसिंह अभी उपलब्ध हैं। सभी जानते हैं कि उनके पिता राजा हरिसिंह ने जम्मू-कश्मीर का औपचारिक विलय भारत में कर दिया था।
वह तो तब नवनिर्मित पाकिस्तानियों की चाल थी जो उन्होंने कबायली देश में अपने सैनिकों की घुसपैठ करवाकर कश्मीर के कुछ हिस्से पर कब्जा करवा लिया था। यह संभव हो पाया था नेहरू की ढुलमुल नीति के कारण! ऐसे में अरुंधति राय की चुनौती हर दृष्टि से राष्ट्रविरोधी कार्रवाई है। अरुंधति ने न केवल कश्मीर पर खतरनाक बयानबाजी की है बल्कि भारत को औपनिवेशिक ताकत निरूपित कर दुश्मनों की पंक्ति में खड़ी हो गई हैं। विभिन्न संगठनों के नाम पर विदेशी धन प्राप्त करनेवाली इस महिला को जेल के सीखचों के पीछे होना चाहिए। कश्मीर के लिए आजादी को एकमात्र विकल्प बतानेवाली अरुंधति राय भारतीय हित के खिलाफ काम कर रही हैं।
नरसिंहराव के प्रधानमंत्रित्व काल में प्रधानमंत्री के बाद सर्वाधिक शक्तिशाली व्यक्ति के रूप में जाने जानेवाले पत्रकार दिलीप पाडगांवकर भी एक पालतू पशु की तरह व्यवहार कर गए। कश्मीर मामले में पाकिस्तानी पक्ष की अपरिहार्यता को रेखांकित करनेवाले दिलीप पाडगांवकर इस मुद्दे पर भारतीय मत को कैसे भूल गए? कश्मीर संदर्भ में अगर पाकिस्तान का कोई पक्ष है तो सिर्फ आतंक और आतंकवादियों के निर्माण और पोषक के रूप में! कश्मीरी भूमि का वह पक्षकार कभी नहीं हो सकता! संसद और संसद के बाहर भारत सरकार की ओर से ऐसे ऐलान किए जा चुके हैं कि भारत में कश्मीर के अस्तित्व के मुद्दे पर पाकिस्तान के साथ कोई बातचीत नहीं हो सकती। फिर पाडगांवकर ऐसी गलती कैसे कर बैठे? लगता है पाडगांवकर ने वार्ताकार के रूप में अपनी नियुक्ति को भारत सरकार की नौकरी मान लिया!!

4 comments:

लोकेन्द्र सिंह said...

bilkul sahi kaha apne....

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

बिल्कुल देशद्रोहियों को रखने का क्या लाभ. लेकिन एक बात तो मानना पड़ेगी कि कुछ गड़बड़ी तो जीन्स में है,अन्यथा जयचन्द, मीरजाफर भारत की ही धरती पर पैदा क्यों होते...

ABHISHEK MISHRA said...

आप के विचार से पूर्णतया सहमत

निशाचर said...

jee haan, genes mein hi gadbad hai. darasal ye jante hain ki hindu bahul bharat mein hi ye hamein gariyakar bhi jinda bache rah sakte hain. Aur sirf jinda hi nahin rah sakte balki roj chmakte flaish ki roshni mein kuchh booker-fooker type ke puraskar lekar aisho-aram ki jindagi bhi basar kar sakte hain.