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Tuesday, October 19, 2010

यह कैसी धर्मनिरपेक्षता?

''क्या संविधान से धर्मनिरपेक्षता शब्द को मिटा देना चाहिए?'' एक पाठक ने संदेश देकर यह सवाल पूछा। संदर्भ बिहार चुनाव अभियान के दौरान प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह तथा कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी द्वारा नीतीश कुमार को सांप्रदायिक निरूपित किए जाने का है। सवाल मौजू है और राष्ट्रीय बहस का आग्रही भी है। चूंकि इस शब्द का इस्तेमाल अब स्वार्थपूर्ति के लिए राजनीतिक करने लगे हैं, यह तो साफ है कि ऐसे लोगों का धर्म से कोई लेना-देना नहीं। अवसरवादी राजनीति के लिए धर्मनिरपेक्षता शब्द का पत्ता फेंकनेवाले तथ्य से कोसों दूर हैं। उन्हें इसकी परवाह भी नहीं। उनकी ङ्क्षचता है तो सिर्फ वोटों की। कथित धर्मनिरपेक्षता के पक्ष में अभियान से समाज बंटता है, देश बंटता है तो अपनी बला से। सांप्रदायिक दंगों को उकसाने से भी इन्हें परहेज नहीं। बल्कि ऐसे दंगों की आग में भी ये राजनीतिक रोटी सेंकने से बाज नहीं आते। इन्हें तो सिर्फ वोट चाहिए। जहां तक बिहार चुनाव और मनमोहन, सोनिया, नीतीश का सवाल है, मुझे यह कहने में तनिक भी संकोच नहीं कि मनमोहन और सोनिया दोनों ने सांप्रदायिक ज्वाला भड़काने की कोशिश की है। बिहार में सोनिया गांधी ने जब अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की स्थापना के लिए जमीन आबंटित नहीं किए जाने से नीतीश की आलोचना की, तब निश्चित ही वे मुस्लिम तुष्टीकरण की उस सीढ़ी पर चढ़ रही थीं, जो अंतत: सांप्रदायिकता की आग पैदा करती है। सोनिया ने बड़े गर्व से कहा कि केंद्र की संप्रग सरकार की अनुमति के बावजूद मुस्लिम विश्वविद्यालय के लिए जमीन मुहैया नहीं कराई। साफ है कि ऐसी टिप्पणी कर सोनिया गांधी वहां के मुस्लिम मतदाता को नीतीश के खिलाफ अपने पक्ष में लुभा रही थीं। सोनिया गांधी इस बिंदु पर सांप्रदायिक आधार पर वोट मांगने का कानून विरुद्ध आचरण की दोषी बन जाती हैं। गुजरात विधानसभा के पिछले चुनाव में नरेन्द्र मोदी को मौत का सौदागर बता वहां कांग्रेस का सफाया करवा देने वाली सोनिया गांधी ने लगता है उससे सबक नहीं सीखा। बिहार में मुस्लिम तुष्टीकरण का पांसा फेंक उन्होंने अपनी कांग्रेस पार्टी का अहित ही किया है। अपनी नेता की तरह मनमोहन सिंह भी कुछ ऐसी ही गलती कर बैठे हैं। नरेन्द्र मोदी से हाथ मिलाने के कारण नीतीश कुमार को सांप्रदायिक बतानेवाले प्रधानमंत्री पहले इतिहास के पन्नों को पलट लें। नीतीश के असली पाश्र्व की जानकारी ले लें। अक्टूबर 1990 में जब रथयात्रा के दौरान लालकृष्ण आडवाणी को लालूप्रसाद यादव (तत्कालीन मुख्यमंत्री ) ने गिरफ्तार करवाया था, तब नीतीश कुमार लालू मंत्रिमंडल के सदस्य थे। बल्कि तब वे लालू के 'फ्रेंड-फिलासॉफर-गाइड' के रूप में जाने जाते थे। जाहिर है आडवाणी की गिरफ्तारी में नीतीश की भूमिका महत्वपूर्ण रही होगी। अब अगर नीतीश भाजपा के साथ सरकार चला रहे हैं, तब निश्चय ही राजनीतिक अवसरवादितावश। यही वर्तमान राजनीति का सच है। धर्मनिरपेक्षता का इस्तेमाल छद्म धर्मनिरपेक्षतावादी वोट और सिर्फ वोट के लिए कर रहे हैं। अवसरवादिता का ऐसा नंगा तांडव हर काल में राजनीतिकों ने किया है। जरा याद करें जयप्रकाश के आंदोलन के दिनों की। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के कथित शासन और भ्रष्टाचार के खिलाफ छेड़े गए आंदोलन की उपज लालू प्रसाद यादव, नीतीशकुमार, रामविलास पासवान, सुबोधकांत सहाय, जार्ज फर्नांडिस आदि की भूमिकाएं कालांतर में क्या रहीं? लालू और नीतीश उसी कांग्रेस नेतृत्व की सरकार के हिस्सा बने जिसे ये सभी लोकतंत्र विरोधी, संविधान विरोधी और भ्रष्ट बताया करते थे। आरोप गलत भी नहीं थे। सत्ता में बने रहने के लिए तब कांग्रेस नेतृत्व ने देश पर आपातकाल थोपा, नागरिकों को संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकारों से वंचित कर दिया गया। जयप्रकाश नारायण, मोरारजी देसाई, चंद्रशेखर, अटलबिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी सरीखे नेताओं के साथ-साथ हजारों अन्य नेताओं को जेलों में ठूंस दिया गया था। स्वयं लालू, रामविलास और सुबोध आदि जेलों में बंद कर दिए गए थे। आपातकाल खत्म हुआ, चुनाव हुए तब जनता ने कांग्रेस को सत्ता से दूर कर दिया। कहा गया कि भारत को दूसरी आजादी मिली है। वामदलों को छोड़कर तब का जनसंघ (अब की भाजपा) सहित प्राय: सभी विपक्षी दल आपसी भेदभाव भुला एकमंच पर एकत्रित हुए और जनता पार्टी का गठन किया। समाजवादी पार्टियां भी इसमें शामिल हुईं। लेकिन, सत्ता-स्वार्थ ने एक बार फिर इन लोगों को अलग-अलग कर दिया। वही लालू, रामविलास बाद में कांग्रेस नेतृत्व की सरकार में मंत्री बने। सुबोधकांत तो कांग्रेस में ही शामिल हो आज मंत्री हैं। क्या कहेंगे इसे? क्या ये उदाहरण मूल्य, नैतिकता और सिद्धांत को चुनौती नहीं देते? एक और उदाहरण। 1996 के आम चुनाव के बाद जब भारतीय जनता पार्टी लोकसभा में सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी तब बहुमत के लिए आवश्यक संख्या जुटाने में वह विफल रही। भाजपा को अछूत करार देते हुए कोई भी राजनीतिक दल उसके समर्थन में साथ नहीं गया था। नतीजतन अटलबिहारी वाजपेयी की सरकार 13 दिनों में सत्ता से बाहर हो गई। लेकिन बाद में? चुनाव पश्चात पुन: जब भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बनी तब उसके साथ लगभग दो दर्जन दल चले गए थे। अटलबिहारी वाजपेयी के मंत्रिमंडल में तब जार्ज फर्नांडिस सरीखे समाजवादी भी शामिल थे। साफ है कि सत्ता की राजनीति में अब न कोई स्थायी दोस्त है, दुश्मन है, न अछूत। इसलिए कथित धर्मनिरपेक्षता का नारा अब कोई मायने नहीं रखता। संविधान से इस शब्द को मिटाया तो नहीं जाना चाहिए किंतु हां, इसकी पुनव्र्याख्या अवश्य हो।

3 comments:

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

खुद को धर्मनिरपेक्ष कहने वाले सबसे बड़े साम्प्रदायिक हैं...

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

खुद को धर्मनिरपेक्ष कहने वाले सबसे बड़े साम्प्रदायिक हैं...

लोकेन्द्र सिंह said...

सार्थक बहस। राष्ट्रीय स्तर पर इस बहस को चलाने की आवश्यकता है। फिलहाल राजनीति में जो चल रहा है वह सब वोट बैंक को आधार बनाकर चल रहा है। इसी गैरजिम्मेदार राजनीति और सरकार का घृणित कार्य पढ़ें अपना पंचू पर... आपका स्वागत है।
www.apnapanchoo.blogspot.com